सन्तोष कुमार तिवारी का आलेख 'कुछ सवाल'

 

सन्तोष कुमार तिवारी


आजकल एक अजीब सी उग्रता हर तरफ दिखाई पड़ रही है। मार काट, लूट पाट, हत्या अब आम बात है। हर दुर्घटना के पश्चात प्रशासनिक खानापूरी, जातीय संगठनों की बैठकें, टेलीविजन पर चीखती चिल्लाती बहसें घाव को भरती नहीं बल्कि और हरा करती रहती है। सोशल मीडिया का भी एक अलग चरित्र है। इसने घर में बैठ कर घड़ियाली आंसू बहाने का एक अच्छा खासा प्लेटफॉर्म हम सबको प्रदान कर दिया है। ऐसे में सन्तोष कुमार तिवारी ने रैबारी हत्याकांड के मद्देनजर कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए हैं जिन्हें पढ़े जाने की जरूरत है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सन्तोष कुमार तिवारी का आलेख 'कुछ सवाल'।



'कुछ सवाल'


सन्तोष कुमार तिवारी


कल शाम जब खड्डी में सूरज के मृतक शरीर को घर के आगन में रखा गया तब ऐसा ही लग रहा था जैसे दुःख के समय मनुष्य विलाप में हमेशा कहता रहा है ये धरती फट जाती तो इसमें समा जाता। बहनों, माता और पिता का रुदन उस तड़पती हुई मछली के समान था जिसे जल से बाहर कर दिया गया हो। उस जगह में मौजूद ऐसी कोई भी आँख नहीं थी जो आंसुओं से भीगी हुई न हो। मैं तो औपचारिकता निर्वहन के लिए भी किसी परिजन को दिलासा नहीं दे पा रहा था। सूरज के बड़े बब्बा का यह कहना कि मेरी उम्र कितनी लम्बी है मुझे क्या क्या देखना पड़ेगा, जाना मुझे चाहिए तो देखना ये पड़ रहा है। ये वाक्य उस उस सामाजिक ताने-बाने के बिखरने का आखिरी वक्तव्य जैसा था जिसमें बाबा के लिए नाती बुढ़ापे का सहारा होता है और यदि वह उससे छिन जाय तो विलाप के अतिरिक्त किया ही क्या जा सकता है। दूसरा हमने जो जीवन मूल्य आधुनिक सभ्यता में जीने के लिए बनाये थे क्या उनका अंत होने जा रहा है और हम क्या फिर उन्हीं मध्ययुगीन फरमानों की तरफ लौट रहे हैं। रैबारी में हुई हत्या की तस्वीर जो अख़बारों और सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर मौजूद है उसको देखेंगे तो आप पाएंगे कि सिर पर धसी हुई टांगी सभ्यता के किस बर्बर युग की याद दिला रही है। मन बहुत विचलित है। हृदय में चल रहे द्वन्द और स्थायी घर बना चुके दुःख को साझा करने से तकलीफ शायद कुछ कम हो।


वापस लौटते हुए जब मैंने फेसबुक खोला तो कई फेसबुक के साथियों ने रैबारी हत्या कांड पर लिखा था। कुछ ने किसी की पोस्ट को टैग किया था, किसी ने कुछ मसाला पेश करने वाले चैनलों की क्लिप को शेयर किया था और किसी ने जातीय उत्पीड़न को माध्यम बनाया था। परन्तु इन सबमें एक बात कॉमन  थी : हत्या का जातीय रूप, मुख्यमंत्री का बयान पहले पायलागी फिर धाय से, दोषियों को मृत्युदंड, जातीय संगठनों के बयान सभी पोस्ट में आम थे. परन्तु एक बात जो मैं आप सबसे साझा करना चाहता हूँ वह यह है कि पिछले कुछ समय से हो रहे उपद्रवों, हत्याओं, भीड़ के हमलों, धार्मिक हिंसा, राजनीतिज्ञों के सांप्रदायिक बयान, सोशल मीडिया का प्रोपेगेन्डा, जातिगत पहचानों का उभार - क्या यही सब हमारी पहचान हैं? क्या हम अपने ग्रंथों में दी गयी शिक्षाओं, पूर्वजों द्वारा विभिन्न परिस्थितियों में यहाँ तक के सफ़र में आई हुई कठिनाइयों और उससे निकलने के तरीकों का अनुभव जो हमारी दंतकथाओं से ले कर कहानियों तक मौजूद है, उनको हम भूलते हुए आदिम अवस्था की ओर तो नहीं बढ़ रहे। किताबों और सामाजिक चौपालों तक जो हमारे समय के सन्दर्भ मौजूद हैं, जिसे हम देश, काल, परिस्थितियों के हिसाब से अपने जीवन में आने वाली कठिनाइयों का समाधान ढूढ़ते रहे हैं उनको भूल जाने से क्या होगा? क्या हमारे समाज का नया ढांचा हिंसा और सामाजिक ताने बाने के बिखरने, धार्मिक उत्पीड़न, और जातीय संरचना की मजबूत नींव पर तो नहीं खड़ा हो रहा है? हम जिन पुरानी व्यवस्थाओं से सीख लेते हुए आधुनिक लोकतंत्र की तरफ बढे थे जिसमें समता, संप्रभुता, धार्मिक निरपेक्षता के आधार पर देश समाज का निर्माण होना था, क्या उसमे घुन तो नहीं लग रही। ये कुछ ऐसी बुनियादी बातें है जिसे मैं आपसे बांटना चाहता हूँ। यथा : 


1. सोशल मीडिया जिसे हिंदी में शायद सामाजिक संचार माध्यम कहा जा सकता है जिसमें अपने विचार व्यक्त करने की आजादी को हम सब सेलिब्रेट करते रहते हैं। वर्तमान में असामाजिकता और जतीय दम्भ, अंधविश्वास और गलत सूचनाओं, धार्मिक दुष्प्रचार और बर्बरताओं के उत्सव का स्थान बना हुआ है। ऐसे में नागरिक कर्तव्य हमारा आपका बनता है कि हम जिस जगह, स्थान और समय में पीढ़ियों से साथ-साथ रहते आए हैं वहां पर रहते हुए हम अपनी पहचान मनुष्यता की ही रखे और समुदायों का आपसी सौहार्द बनाये रखें, गलत सूचना या नफरत न फैलाये।


2. हमारे समय के तथाकथित बुद्धिजीवी, सामाजिक चिन्तक, पढे लिखे लोग, कवि, लेखक पत्रकार, वकील, शिक्षक, पत्रकार इनकी लिखी पोस्ट से समाज में क्या असर पड़ता है. इनका रुझान किस तरह है? आग लगाने वालों की तरफ अथवा आग बुझाने वालों की तरफ इस बारे में विचार अब नागरिक समाज को करना चाहिए।


3. कुछ समय पहले इस क्षेत्र में हुई हत्याओं की निर्मिति को यदि आप निरपेक्ष ढंग से, बिना किसी पूर्वाग्रहों यथा धार्मिक और जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर देखेंगे तो एक बात कॉमन नजर आयेगी वह है व्यवस्थागत लापरवाही। पहले न तो प्रशासन के लोग पीडितो से मिलेंगे, न हर घटना दुर्घटना और आते जाते श्वास पर राजनीति करने वाले विभिन्न जातियों के ठेकेदार संवाद का प्रयास करेंगे और न ही धार्मिक, धर्म के मूल सिद्धान्त कि जीव हत्या धार्मिक नजरिये से अपराधो की श्रेणी में जघन्यतम अपराध है, पर अपने विचार व्यक्त करते हुए नजर आएंगे। 


दुर्घटना के पश्चात ये उपस्थित होंगे और समाज तथा जनसंचार माध्यमों में टिड्डी दल की तरह फ़ैल जायेंगे। कुछ इसी तरह का नजारा मैंने रैबारी पहुचने पर भी देखा। जब मैं रैबारी पहुंचा तो दंगा रोकने के लिए पुलिस बल पर्याप्त संख्या में तैनात था जबकि जिस व्यक्ति ने हत्या की उसके खिलाफ रिपोर्ट दस दिन पहले लिखवाई गयी थी। तब सवाल यह उठता है कि प्रशासनिक अमला क्या कर रहा था? जो लोग एक समूह बना कर हत्या में शामिल रहे, उसी समुदाय की एक महिला ने पुलिस को बयान दिया कि वह व्यक्ति एक साल से पड़ोसियों को छोटे-छोटे विवादों में कुल्हाड़ी से मारने की धमकी देता था उसकी भी रिपोर्ट कई बार थाने में लिखवाई गई थी मगर प्रशासन ने कोई ध्यान नहीं दिया। वह महिला स्पष्ट कह रही थी कि आज पुलिस यहाँ क्या कर रही है जबकि पहले ध्यान दिया गया होता तो ये हत्या न होती।



4. दुर्घटना जब घट जाएगी तब जातीय गौरव की कमान थामे कुछ लोग, राजनितिक रोटिया सेंकते कुछ कुरताधारी, नागरिक सुरक्षा के जिम्मेदार पहरुए और धर्म से जन कल्याण करने वाले उपदेशक एक साथ प्रगट होंगे। परन्तु यहाँ भी इनका उद्देश्य पीड़ित को न्याय दिलाना नहीं, पीढ़ियों से आपसी सामाजिक सौहार्द को बिगड़ने के निमित्त अपनी सत्ता बनाये रखने और उसको मजबूती प्रदान करने हेतु खाद पानी देने के लिए इकट्ठा होंगे। अत: इनसे भी नागरिक समाज को अब सावधान रहने की जरुरत है। यह तथ्य ऐसा है जो हमें सोचने  पर मजबूर करता है कि घटना का कारण व्यवस्था की लापरवाही है। जब दुर्घटना घट जाती है तब प्रशासन के साथ साथ जातीय, धार्मिक और राजनैतिक संगठन सक्रिय होते हैं। इनके लिए मनुष्य अब सिर्फ वोट बैंक बन कर रह गया है।


5. पिछले कुछ समय से यदि अपने परिवेश पर नजर दौड़ाई जाय तो जो परिदृश्य उभरता है वह बहुत ही भयावह और सोचनीय है। हम एक ऐसे समय में साँस ले रहे हैं जिसमें एक ओर तो हम चाँद पर अपने उपग्रह भेज रहे हैं तो दूसरी ओर उस वैज्ञानिक उपलब्धि का जश्न कूपमंडूपता में मना रहे हैं।


6. एक ऐसा परिदृश्य कुछ समय से वातावरण में उभरा है जिसमें प्रमुख है धर्म की खोल ओढ़े हुए ठेकेदार जो घर में बंधी गाय और बूढ़े माता पिता, आर्थिक रूप से कमजोर रिश्तेदार, पड़ोसियों के साथ अत्यधिक बर्बर और हिंसक रूप में पेश आते हैं। ऐसे ही बहुरूपियों को ध्यान में रखते हुए 'हम इक उम्र से वाकिफ हैं' शीर्षक के अपने व्यंग्य लेख में हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि दोगले कहने पर लोग नाराज हो जाते है हम लोग तिगले किस्म के इंसान हैं। परन्तु इन बहुरुपिया को देश, समाज, घर, परिवार में देखते हुए लगता है कि हम लोग तिगले नहीं चौगले किस्म के लोग है। यथा हमारा रहन-सहन पूंजीवादी, सोच सामंतवादी, विचार समाजवादी, धर्म को लबादे की तरह धारण किये हुए, कट्टर जातीय, हिंसा से भरा हुआ और चरित्र अवसरवादी। ऐसे लोगों से भी नागरिक समाज को सावधान रहने की जरुरत है।


7. जरा गौर करें यदि आप धार्मिक हैं तो क्या आपका जीवन धर्म के नाम पर हत्या करने के लिए बना है? आप यदि धर्म के मर्म को जानते हैं तो आपने कभी न कभी सुना और पढ़ा ही होगा तथा कभी न कभी गुना भी होगा कि जीवन का सबसे बड़ा सुख प्रेम और अहिंसा से मिलता है। यदि आप धार्मिक नहीं हैं, नास्तिक हैं तब भी आप मनुष्य जीवन के मूल्य को समझते ही होंगे. आपकी समझ पर हमें पूरा यकीन है। उम्मीद करता हूँ आप निराश नहीं करेंगे।


साथियों जरा विचार किया जाय कि एक व्यक्ति के न रहने से उसके घर परिवार और समाज में क्या असर पड़ता है। यदि हम तात्कालिक हुई दुर्घटना पर नजर डालें तो स्पष्ट दीखता है कि सूरज अपने परिवार का इकलौता कमाने वाला था। माँ-बाप उसके न रहने से असमय बूढ़े और बेसहारा हो चुके हैं, दो बहनें हैं (कहने के लिए हम कुछ भी कहें पर अभी भी जिस परिवेश में हम रह रहें हैं उसमें लड़कियों को किस नजर से देखा जाता है उस सन्दर्भ में यह पंक्ति) जिनके शादी व्याह की जिम्मेदारी भी उसकी थी। और किसी भी परिवार पर ऐसा दुःख न गुजरे इसके लिए हम सब से जो बन पड़े क्या उस सन्दर्भ में विचार नहीं करना चाहिए। 


(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से हिंदी साहित्य में पी-एच. डी. हैं।  ग्राम पंचायत देवई , जिला सीधी, मध्य प्रदेश में रहते हैं। साहित्य, संगीत और रसोई के अध्ययन में विशेष रुचि है। इन दिनों समाज के बदलते हुए संबंधों और पब्लिक स्फीयर में बनते हुए किस्सों के अध्ययन में इनकी दिलचस्पी है।)



सम्पर्क


मोबाइल : 9630755807

टिप्पणियाँ

  1. बहुत महत्वपूर्ण सवाल। इस बदलाव को को देखते रहने से काम नहीं बनेगा,उत्तर भी खोजने हैं।
    संतोष तिवारी जी के विचारों से पूर्णतः सहमत हूं।
    -भानु प्रकाश रघुवंशी

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं