प्रज्ञा की कहानी 'गर्दिश में हों तारे..'
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| प्रज्ञा |
कहानी
'गर्दिश में हों तारे..'
प्रज्ञा
आगरा के मदन मोहन दरवाजे के बाहर जाती सड़क के दूसरी तरफ ही शर्मा हलवाई की बरसों पुरानी दुकान है। कितनी दुकानें बनी-मिटी पर शर्मा की दुकान टस से मस न हुई। आज उसकी तरक्की ने आसमान भेद दिया है। दुकान भी छोटे बाजार के कोने पर कि दो तरफा ग्राहकी कभी कम न हो। कोने का भरपूर फायदा शर्मा हलवाई को मिला था इसीलिए बरसात को छोड़ कर उसकी भट्टी और सिलेंडर का चूल्हा दोनों बाहर लगते थे। बाजार से लगी पुलिस चौकी की पेट-पूजा का हमेशा ध्यान रखा जाता था इसलिए कभी कोई दिक्कत नहीं आई। दुकान सुरंग जैसी लंबी होने के कारण दुकान और गोदाम दोनों का काम इसी से निकल आता। बरसों शर्मा हलवाई ने खुल्ला राज किया और किसी दूसरे हलवाई को जमने नहीं दिया। ले दे कर मोटे हलवाई के साथ ही उसकी ठनी रहती थी और वो ठनना भी क्या ठनना था? मोटे हलवाई की दुकान पुरानी थी पर ग्राहकी हर बार नई। नीचे उसकी दुकान ऊपर मकान-गोदाम। किस्मत से दुकान मोहल्ले से सटे बस स्टॉप के नजदीक थी जिसका फायदा उसे मिला वरना मोहल्ले के लोगों के लिए उसके मिठाई समोसों के लिए मुंह बिचकाना, भद्दी गाली देना और आक्थू जैसे शब्द ही काफी रहे। मदन मोहन दरवाजे की बंधी बंधाई ग्राहकी शर्मा हलवाई के हिस्से में ही थी। रामभज पंडिज्जी का लड़का दिल्ली से आई अपनी मौसी को शर्मा हलवाई के समोसे, जलेबी खिलाने और उनसे शाबाशी लेने के ख्यालों में डूबा दुकान के करीब जा पहुंचा। दूर से ही दुकान के आगे लगी भीड़ से उसने अनुमान लगाया कि आज सामान लेने में समय लग जाएगा पर पास पहुंचा तो माजरा ही अलग था। वहां चीख-चिल्लाहट जारी थी। इस माजरे ने आस पास अच्छा-खासा मजमा जुटा लिया था।
"अये! भूल गया कैसे रिरिया-रिरिया के काम की भीख मांगा करे था तू। एक सेकेंड में सब भूल गया... सब। साले! मैं नहीं होता तो तू भूखों मरता। बहुत बड़ी गलती की जो तुझे दुकान में काम दिया। मेरे दिए पैसे पर पला है तू, नहीं तो तेरे बीबी-बच्चे भीख मांग रहे होते। चार पैसे आ गए तो चला है मुझे आंखें दिखाने, जबान लडाने।" शर्मा हलवाई की जुबान के कोड़े सरेराह अपने खास कारीगर कालिया की पीठ उधेड़ रहे थे। शर्मा हलवाई से अपमानित कालिया काफी देर चुप रहने के बाद भीख की बात पर उखड़ गया-
हाथ में हुनर था इसीलिए पैसे दिए न तुमने, कोई मुफ़्त तो नहीं दिए। काम के एवज में दिए। और बता दो काम में कभी कोई कमी छोड़ी हो मैंने? हारी-बीमारी में भी कभी छुट्टी नहीं की और मेरे हाथ के बने जलेबी-समोसो से दुकान की अंधी कमाई हुई या नहीं?"
भग ले तू यहां से अभी के अभी। तू नहीं बनाएगा कोई और बनाएगा। पैसा फेंकूंगा तो सैकड़ों कारीगर खड़े हो जाएंगे। समझा पर सुन ले तब भी मेरी कमाई आसमान छुएगी आसमान। तेरे काम से नहीं मेरे नाम से चलती है ये दुकान। बड़ा आया अंधी कमाई वाला। कल से दिखियो मत इस दुकान के आस-पास वरना टांगें तोड़ कर हाथ में दे दूंगा। कान में घुसेड़ ले मेरी बात। शर्मा हलवाई की दहाड़ सुनने वालों के कानों के पर्दे फाड़ रही थी।
'बाउ जी। दिन भर एक टांग पर खड़ा रह कर सालों मैंने खुसी-खुसी सारा काम किया। कभी काम से जी न चुराया। सौदा एक नंबर का बना कर देने में जी-जान एक किया पर इसका ये मल्लब तो नहीं कि तुम मेरी ऐसी की तैसी करते रहो। ये हक तुमको किसने दिया?"
इस बार कालिया, शर्मा के अपमान के चाबुक से अपने हुनर की पीठ उघड़वाने को हरगिज तैयार नहीं था। गरीबी में हुनर, मेहनत और ईमानदारी-इन्हीं हथियारों ने कालिया को रचा था।
आज बड़े बोल फूट रहे हैं तेरे। कल तक तो मुंह में जबान नहीं थी। चोर-चोर मौसेरे भाई। आइंदा कभी फटकियो मत दुकान के आगे समझा? शर्मा हलवाई दांत पीसता हुआ बोला।
कोई बात नहीं बाउ जी। गरीब जान कर मार लो पेट पर लात पर इत्ता ध्यान रखना मैं तो कारीगर आदमी हूं सड़क किनारे भी बैठूंगा तो कुछ कमा कर ही उठूंगा"
"अबे जा देखे तेरे जैसे छत्तीस मैने। भूखों मरता वापिस नहीं आया तो मेरा नाम बदल दियो।"
कालिया की बात बीच में काट कर शर्मा हलवाई ने फिर से अपमान का चाबुक चलाया। इस बार कालिया ने उसे दो क्षण देखा, कुछ नहीं बोला फिर अचानक झुक कर दुकान की चौखट को अपने हाथों से छू कर सीने से हाथ लगाए और डबडबाती आंखों से घर की तरफ चल दिया। शर्मा हलवाई ने बुरा-सा मुंह बनाया। मजमे को साकार करने वाली भीड़ में शर्मा और कालिया के बने दो दल अपने-अपने तर्क देते कुछ देर में तितर-बितर होने लगे। पंडिज्जी के लड़के को आज शर्मा हलवाई के समोसे, जलेबी के अभाव में मजबूरन मोटे हलवाई से काम चलाना पड़ा। शर्मा हलवाई के समोसों-जलेबी के न मिलने पर पंडिज्जी की साली ने बहुत मनुहार के बाद आनाकानी करते हुए समोसे कुतरे भर और जलेबी छुई तक नहीं।
मदन मोहन दरवाजे में यह खबर आग की तरह फैल गई। यहां का चलन पुराना था आग कोई भी हो, घी डालने वालों की कभी कोई कमी नहीं थी। कभी-कभार आग यदि ठंडी पड़ कर सुलगने और बुझने को होती तो आग को पुनर्जीवित रखने की कोशिशें की जाती जब तक कोई नई भड़काऊ आग न लग जाती। केवल इसी सूरत में पुरानी आग राख हो पाती। इस बार की आग ने केवल लपटों का खेल ही नहीं दिखाया बल्कि सुख की बारिश भी की। लपटें हर जगह थी, बारिश केवल मोटे हलवाई के यहां बरस रही थी। बहुत समय बाद उसके तपते कलेजे की ठंडक मिली थी।
मोटे के मांस से बोझिल गाल दोहरी हंसी से लकदक हो चले। ये अलग बात है उसका धंधा अब भी अस्थाई ग्राहकी से ही चल रहा था पर प्रतिद्वंद्वी का धंधा मंदा पढ़ने की खुशी उसकी हंसती हुई तोंद से साफ दिखाई पड़ रही थी। वो तोद जो बनियान की हद छोड़ कर पूरी बेशर्मी से उसकी उभरी हुई टुढी को बेपर्दा किए रहती। बूढ़े, जवान या बच्चे सभी को उसे देख कर ऐसा लगता जैसे परात भर हलवे पर किसी ने गुलाबजामुन धर दिया हो।
कुछ ही दिन बाद दो नई हरकतें एक साथ देखने में आई। शर्मा हलवाई की दुकान पर एक नया कारीगर समोसे, जलेबी बनाता दिखाई दिया और उस पर नजर रखने के लिए शर्मा हलवाई का दसवीं फेल बेटा परवेस लगाया गया। शर्मा हलवाई ने जन्म लिए पहले बेटे के घर में प्रवेश के नाम पर उसका नाम बड़े प्यार से रखा था जिसमें आगे लगा प्र लोगों के अशुद्ध उच्चारण से पर हुआ और श' को तो मुखसुख की सजा मिलनी तय थी इसलिए वह स हो गया। इससे प्रवेश, परवेस हुआ। दसवीं में फेल होने के बाद परवेस को दुकान पर ही बैठना था। यहीं से उसका नया नामकरण हुआ। परवेस चाहे कड़ाही में दूध खौलाए, चाहे गल्ले पर बैठे, वह ऊंघने लगता और सो जाता। यही उसका प्रिय शगल था। इसीलिए लोगों की जागती आंखों ने उसका नाम कुंभकरण रख दिया था। कुंभकरण भला नए कारीगर की क्या निगरानी कर पाता। जम्हाई लेता ऊंघता और सो कर नए नामकरण को सार्थक करता। दूसरी हरकत को वास्तविक हरकत कहा जा सकता था। ये हरकत शर्मा हलवाई की दुकान से ठीक दस-पंद्रह मीटर की दूरी पर सड़क किनारे घटित हुई जहां कालिया ने रेहड़ी सजा कर अपना धंधा शुरू कर दिया। कालिया ने अपनी गाढ़ी कमाई से एक पुरानी रेहडी ले ली थी। घर से बना-बनाया सामान लाने की बजाय उसने रेहड़ी के कोने पर अंगीठी रखी। कढ़ाही, बड़ा पतीला, परात, चिमटा, डोल और तलने की कड़छी-छन्नी। चाशनी के लिए एक और कड़ाही सब रेहड़ी पर सजा लिए। शर्मा हलवाई कालिया की दीन-हीन रेहड़ी देख कर हंसा। रेहड़ी पर थोडा-सा सामान सजाए कालिया बहुत देर तक ग्राहकों का इंतजार देखता रहा। कुछ उसे देख कर ठिठके, कुछ रूके फिर आदतन शर्मा हलवाई की ओर बढ़ गए। कालिया उनकी राह देखता रहा। एक दिन बीता, दो-तीन दिन कालिया को लगने लगा उसने कोई गलती तो नहीं कर दी। नए धंधे में नफा तो दूर लागत का जब ठिकाना नहीं रहा तो कालिया पर संशय और भय के बादल मंडराने लगे। पढे लिखे लोगों को दफ्तर जाते देखता तो उसे शिद्दत से महसूस होता कि अगर पढ़-लिख लिया होता तो आज धक्के नहीं खा रहा होता। किसी दफ्तर में बैठा इत्मीनान का जीवन जी रहा होता। मन में ये बात भी आई क्या जरूरत थी शर्मा हलवाई से उलझने की। सुन लेता दो गाली, कम से कम धंधे से तो लगा रहता। वैसे भी इतने सालों में शर्मा की गालियां खाने का अभ्यस्त तो था ही। कुछ क्षण बाद मन ने साहस दिया - नया धंधा जमने में टैम तो लगेगा। कालिया रोज घर से सामान बना सजा कर उम्मीद से ग्राहकों को देखता। कभी-कभी जान पहचान के लोगों को देख कर आवाज भी लगा देता। बाउ जी, भैया जी, राम राम। उधर शर्मा हलवाई कालिया पर हंसता हुआ जरा तरस न खाता। उसने जैसा सोचा था कालिया का वही हश्र हुआ।
सब दिन रहत न एक समाना। शर्मा का नया कारीगर खास कारीगरी नहीं दिखा पाया। कुछ भी करता लोगों की जबान पर कालिया के बनाए माल का स्वाद कहां से ला पाता? धीरे-धीरे ग्राहकों का मन उचटने लगा। काम का सलीका और धंधे की लगन हो तो न कभी धंधे में जंग लगता है न पेट कभी भूखा रहता है। सर पर आसमानी छत और नीचे ठोस धरती यही कालिया की दुकान का पता था। बीच में दुकान को साकार कर रही थी कालिया की मेहनत। बरसी-बरस का हुनर। अब सब जानते थे छोटे बाजार में जलेबी बनाने वाला एकमात्र कुशल कारीगर कालिया ही था। लगभग दो पीढिया उसके कौशल का स्वाद लिए बड़ी हुई थीं। ग्राहक अब कालिया की रेहड़ी पर जुटने लगे। अब छोटे बाजार की नई सूरत कुछ इस तरह बनी कि सड़क के पल्ली तरफ कोने में शर्मा हलवाई की चलती दुकान तो उससे कुछ दूरी पर सामने बस स्टाप से सटी और नए ग्राहकों के अज्ञान से घिसटती मोटे हलवाई की दुकान और दोनों के सामने कुछ आगे की तरफ कालिया की सड़क किनारे खुली दुकान। इन तीन दुकानों के अलावा बाजार में परचून की दुकान, बिजली वाले की दुकान और काज-बटन-सुई से ले कर बर्तन कपड़ों-श्रृंगार आदि की छोटी-छोटी दुकाने पक्की शक्ल में थीं तो दूसरी तरफ फल-सब्जी घड़े-सुराही, नाई और कुछ खाने-पीने की दुकाने रेहड़ी-पटरी पर चल रही थी। छोटा बाजार बहुत पुराना और हर दुकानदार की सहूलियत से बना था तो अव्यवस्था में ही एक व्यवस्था बन चली थी जिसके मूल में अनौपचारिकता तह जमाए बैठी थी। यहां जरूरत का लगभग सारा सामान यहां कम कीमत में मिल जाता था। सस्ता और करीब यही छोटे बाजार की उसकी बरसों पुरानी सूरत में भी बचाए बसाए था।
शाम का वक्त था। मदन मोहन दरवाजे और बाजार में फैली आग के बरक्स अब कालिया ने जलेबी के लिए अपने चूल्हे की आग को जला लिया था। मन में हिम्मत, परिवार पालने की लगन, सम्मान की भूख के साथ हुनर का जादू लिए कालिया ने दुकान का श्रीगणेश किया। रेहड़ी के नीचे बान से बनी जगह में ईंधन, बर्तन और कुछ जरूरी सामान आ गया। अब काम शुरू हुआ। पहले जलेबी के लिए मैदे के मिश्रण को खूब जम कर फेंटा गया। इधर एक तार की चाशनी बना कर रख ली और फिर फिर अपने पुश्तैनी छेददार लोटे में घोल डाल कर जो हाथों की कला शुरू हुई तो एक-एक कर के जलेबियां सुघड आकार पाती गई। मिनटों में उलट-पुलट कर सुर्ख जलेबियां उतरी और चाशनी में नहा गई। चाशनी में डुबकी लगाने के बाद छन्नी में पसरी तो अतिरिक्त चाशनी टप टप कर के दूसरी कड़ाही में चली गई। फिर क्या था बाट और तराजू तौल में लग गए। पहले से खड़े ग्राहकों ने एक हाथ पैसे दिए दूसरे हाथ जलेबी के लिफाफे लिए। सारा माल ग्राहक के सामने बन रहा था। कालिया के दिन फिरने लगे। वह कमाई से संतुष्ट था पर इर्द-गिर्द जमा उसकी जलेबी के शौकीन लोगों ने आग को आग बनाए रखने के लिए मन की भड़ास निकालनी शुरू की।
"एक बात बता कालिया तूने बरसों शर्मा की दुकान पर जलेबियां छानीं फिर ऐसा क्या हो गया? भई। बात क्या हुई?" दर्जी ने पूछा तो नाई भी पीछे नहीं रहा-
काम छोड़ा तो छोड़ा इतनी झगड़ेबाजी क्यों की तैने?" कालिया के स्वाद के चटोरे पुराने ग्राहकों की आंखें इस सवाल पर कुछ फैल गई।
"अरे! छोड़ो बाउ जी जलेबी खा कर बताओ कैसी बनी?" कालिया ने वजह को ठंडे बस्ते में डाले रखना ही सही समझा। "न न जलेबी तो तेरी है ही, स्वाद पर लड़ाई का कारण जाने बिना मैं नहीं टलूंगा। आखिर सही बात का सामने आना तो जरूरी है कि नहीं? बोल? वरना शर्मा तो न जाने क्या लगाई बुझाई में लगा है। सोच ले, इससे दुकानदारी पर भी असर आएगा।"
इस बार ग्राहक का सवाल अकाट्य तर्क की शक्ल ले कर नमूदार हुआ। कालिया के शरीर में एक कंपन हुआ। नए धंधे और कमाई पर असर आने की बात से उसे सिरहन-सी हुई। इस सिरहन से उसकी चुप्पी कुछ पिघलने लगी। वजह के लिए बेताब ग्राहकों ने उसे पिघलते देख कर वजह बताने का इसरार किया। दुकानदारी पर असर आने की बात सीधे कालिया के सीने में जा घुसी और उसने भीतर का बंद किवाड़ खोल दिया।
"अब क्या बताउं बाउ जी। शरम लगती है जिस दुकान ने आसरा दिया उसके बारे में अंट-संट बोलना अच्छा नहीं लगता, पर सच्ची बात तो ये है कि सरमा की बढ़ती दुकानदारी के चलते खोया पनीर आदि के लिए इमरजेंसी में दो कारीगरों की जरूरत पड़ गई। मेरे मौसा के पहचान के दो लोग थे। बेकारी झेल रहे थे तो मौसा ने तरस खा कर मेरे पास भेज दिए। मैंने सरमा हलवाई के पास लगवा दिया। ठीक काम करते रहे दोनों पर कुछ दिन पहले दोनों एक संग गायब हो गए उसी दिन सरमा के गल्ले से नोट भी गायब मिले। हो सकता है दोनों ने हाथ साफ किया हो। वो गए तो गए सरमा मुझ पर पिल पड़ा।"
"इसमें तेरी क्या गलती थी?" दर्जी बीच में बोल पड़ा।
क्या हाथ छोड़ दिया शर्मा ने तुझ पर? ग्राहक से भी रहा नहीं गया।
हाथ तो नहीं छोड़ा बाउ जी पर ऐसी जली-कटी सुनाई कि पूछो मत। मैंने मौसा से बात करने की कही तो उन्हें भी मोटी-मोटी गालियां बकीं। थक हार कर मैंने धीरे-धीरे पैसा लौटाने की बात कह दी तो बोला हो न हो तेरा हिस्सा है चोरी में। मेरा सक पक्का है तुझ पर। पहले भी एकाध बार गल्ले में गड़बड़ मिली है। कहने लगा-कब से सेंध मार रहा है? बोलो बाउ जी क्या में चोर हूं? चोर ही होता तो ये मेहनत-मजूरी क्यों करता? आराम से न रहता? सालों की वफादारी का ये सिला मिला मुझे। गांव से पिता का सपना ले कर आया था कभी जलेबी की अपनी दुकान होगी। यो तो होने से रही, देखो मैं भी दुकान से सड़क पर आ गया। इस बार कालिया की आवाज थर्रा गई और आंखें डबडबा गईं। इस आग में मजा लेने वाले भी उसे देख कर हतप्रभ रह गए। उनके भीतर चट्टान के नीचे दबा कोई अंखुआ अभी जीवित था। कालिया को समझाते हुए घड़े सुराही बेचने वाली बुजुर्ग पार्वती अम्मा का दिल पसीज गया। हमदर्दी जताते हुए बोली-
न बेटा, गम न कर। ईश्वर एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल देता है। तू तो अपना धंधा जमा। मेहनत किए जा बस। याद रख स्वाद है तेरे हाथ में। टेंशन न ले। बाकी लोगों ने भी पार्वती अम्मा की हां में हां मिलाई।
कालिया बाजार का पुराना कारीगर था। उस पर एक नंबर का मेहनती और बात-व्यवहार का धनी। कुछ ही दिनों में उसका धंधा जम गया। शर्मा हलवाई के पुराने ग्राहक टूट कर कालिया की रेहड़ी पर जाने लगे। शर्मा ऊपर से तो सामान्य दिखता पर उसके भीतर तूफान उठा था। कभी उसका नौकर रहा कालिया अब उसकी बराबरी पर उतर रहा है ये कड़वा सच उसे बेहाल किए दे रहा था। उस पर आग की हवा देने वाले भी कम नहीं थे। शर्मा की दुकान पर अड्डा जमाने वाले कुछ चापलूस किस्म के लोग उसके मन का हाल जान कर उसे भड़काने लगे। बिजली दुकान का मिस्त्री बोला-
"बाउ जी! जी छोटा नहीं करो। नौकर जात आखिर नौकर ही रहेगा। आपका मुकाबला क्या खा कर करेगा? बरसों पुरानी दुकान है आपकी। मसालों का स्वाद तो आपके दादा परदादा के समय से चला आ रहा है। इसे मिटाना कोई हंसी-खेल है क्या? अजी, आपकी तो उंगलियों में वो रस है कि करेले को छू लो तो वो भी बालूशाही बन जाए। कालिए की तरफ से निसाखातिर रहो। सुबह से बैठा मक्खी मार रहा है।"
शर्मा के जी को ऐसी बातों से बड़ी तसकीन मिलती पर जल्दी ही तसकीन तार-तार हो कर वास्तविकता का भयानक चेहरा सामने ले आती। कालिया के हुनर और बाजार की नब्ज़ की परख शर्मा को थी। दुकान का बदला अर्थतंत्र उसे अनिष्ट के संकेत देने लगा था। शर्मा की दुकान पर समोसे, जलेबी सुबह से लगते जबकि कालिया तीन बजे से रेहड़ी लगाता तब भी उसकी जलेबी के लिए लोग टूटे पड़ते। देखते-देखते कालिया ने इमरती समोसे और मंगलवार को बूंदी बनाना भी शुरू कर दिया। अब तो उसकी रेहडी पर और भीड़ जुटने लगी। शर्मा की दुकान का अर्थतंत्र और बिगड़ गया। वैसे शर्मा हलवाई की दुकान की रौनक कम तो न हुई थी पर कालिया के पास भीड़ को देख कर शर्मा हलवाई का दिल जलता। कल तक छोटे बाजार में शर्मा हलवाई का एकछत्र राज था। आज कालिया उसे टक्कर देने लगा था। कालिया हुनर का ही नहीं दिमाग का भी धनी था। रेहड़ी लगा कर सामान बेचने और मुनाफा कमाने के लिए शुरू से ही उसने दाम कम रखे। जहां शर्मा तीन सौ रूपये किलो जलेबी बेच रहा था। यहां कालिया ने ढाई सौ रूपये का दाम रखा। ग्राहक उससे भी तेज दिमाग निकले। बढ़िया माल और कम दाम की बात उन्हें जम गई। शर्मा की ग्राहकी और टूटी तो उसका माथा ठनका। उसके बेटे परवेस उर्फ कुंभकरण ने सारा कच्चा चिट्ठा खोल डाला और पिता पर झुंझलाया- "पिताई! कालिए का बच्चा दाम गिरा कर ग्राहकी बढ़ाने पर उतारू हो गया है, तुम भी तो कुछ करो।"
हमेशा दाम बढ़ाने वाला शर्मा ग्राहकों की घटती संख्या देख कर अब पूरी तरह कम्पीटीशन में उतरने को तैयार हो गया। जहां कालिया ने दाम ढाई सौ रूपये किया, वहां शर्मा ने दाम गिरा कर सवा दो सौ कर दिया। बात दाम गिराने से ही नहीं बनी। शर्मा ने दुकान के आगे के चलते रास्ते पर एक बोर्ड लगा कर खुली मुनादी कर दी : शर्मा की मशहूर, रस से भरी जलेबी अब मात्र सवा दो सौ रूपये किलो।" ग्राहक शर्मा की ओर दौड़ पड़ा।
आनन-फानन में ये आग फैल कर कालिया की रेहड़ी तक पहुंच गई। फिर क्या था धंधे में जमा रहने का एक ही उसूल है दुश्मन को शिकस्त देना। कालिए ने भी रेहड़ी के ऊपर गत्ते का एक टुकड़ा टांग कर प्रचार किया-बढ़िया जलेबी दो सौ रूपये किलो। चूहा बिल्ली के इस खेल में अपना फायदा देख कर पूरा मदन मोहन दरवाजा मजे मजे की दौड़ लगा रहा था। जहां दाम घटता अधिकांश ग्राहक वहीं बढ़ जाता। यहां मेन बाजार के मुकाबले मोल-भाव की सुविधा थी वर्ना वहां की आलीशान दुकानों में सामान रेट टू रेट मिलता था। जलेबी के दाम दिन पर दिन कम होते देख ग्राहकों की लॉटरी लग गई। कालिया की दुकान पर दाम धड़ाम होते ही ग्राहक अब कालिया के खेमे में था। हर हरकत पर नजर रखने वाली पार्वती अम्मा ने कालिया से धंधे के मंदा पड़ने की गरज से पूछ ही लिया-
"बेटा! ऐसे दाम कम करते-करते तो तू घाटे में आ जाएगा। शर्मा घाघ आदमी है। तू क्या टिकेगा उसके आगे?" सीधे हाथ में लोटा लिए उसे गोल-गोल घुमा कर घोल को कड़ाही में छोड़ता कालिया बड़े निस्पृह भाव से बोला अम्मा मुझे कौन सा बड़ी दुकान चलानी है। बस लागत निकल आए और दो रोटी का जुगाड़ हो जाए और क्या चाहिए।
मोहल्ले में अब जलेबी के कद्रदान बढ़ने लगे। पास-पड़ोस के दूसरे मोहल्लों में भी खबर फैल गई थी। अब मोटे और शर्मा की दुकानों की सारी मिठाइयों पर मक्खियां बैठा करतीं और जलेबियां शान से घर-घर पहुंचती। कालिया के दो सौ का भाव आते ही शर्मा ने दस रूपये और कम कर दिए तो कालिया ने भी दस रूपये और घटा दिए। दोनों के बीच की चुप्पा लड़ाई अब गहरी हो चली। दाम कम और मुनाफा कम करते हुए धीरे-धीरे शर्मा हलवाई को ये बात समझ में आने लगी कि अब दाम गिराने से कुछ नहीं होगा। यही हाल रहा तो मुनाफा छोड़ो लागत भी पूरी न पड़ेगी। आखिर वह दुकान खोल कर कोई दान-पुण्य करने तो बैठा नहीं है। शर्मा हलवाई ने इस दौड़ से निकल कर कालिया को जड़ से उखाड़ कर फेंकने का इरादा पक्का किया। उसे समझ में आ गया कि कालिया को मिटा कर ही वह अपना एकछत्र राज लौटा सकता है। सोच के धागे निकालने पर शर्मा को हल भी सूझ गया। ऐसा कि उसने कमीज का कॉलर ऊपर उठा कर खुद को शाबाशी दी। अगले ही दिन पास की चौकी से हवलदार ने कालिए की रेहड़ी पर ठंडा बजाया। रेहड़ी के सारे बर्तन सामान डंडे की चोट से झनझना गए। डंडा शर्मा का तेल पी कर आया था। शर्मा दूर से इस नजारे का आनंद उठा रहा था। उसकी अंतरात्मा आज परम प्रसन्न थी। हवलदार ने सड़क घेरने और जाम लगाने का आरोप लगाया। उसका कहना था कि कालिया के कारण ग्राहकों की भीड़ से संकरी सड़क पर ट्रैफिक रूक-सा जाता है। ऐसे में कभी भी कोई दुर्घटना घटित होने का खतरा हो सकता है। कालिया हाथ जोड़ता आगे आया। उसने रेहड़ी को और पीछे हटा लेने की बात भी की पर हवलदार ने उसकी बात अनसुनी कर दी। गालियां अलग दी। हवलदार के उखड़े स्वर और कड़ी देह-भंगिमा से कालिया के खैरख्वाह कुछ पीछे हट गए। पार्वती अम्मा ने जरूर हवलदार की चिरौरी की भैया! गरीब आदमी की दाल-रोटी मत छीनो। गरीब का थोड़ा सोच-विचार रखो।" पर हवलदार के कानों में रूई ठूंसी थी। कालिया के हाथ-पैर जोड़ने का भी कोई असर नहीं हुआ। हताश कालिया को उस शाम बिना सामान बेचे मजबूरन रेहडी हटानी पड़ी। सामान बेकार गया चौकी में पेशी अलग हुई।
अगला दिन अपनी गति से निकला पर ये दिन बिना तारीख शर्मा के लिए बड़ा दिन बन गया। आज तीन से चार बजे, चार से पांच पर कालिया की रेहड़ी नहीं लगी। धुकधुक करते दिल के साथ शर्मा हलवाई ने जैसे किला फतेह कर लिया। ग्राहकों दोस्तों कारीगरों से बात करने का आज का उसका अंदाज निराला था। बात-बात पर जांघ पर सीधे हाथ की थपकी देते जो ठहाका गूंज रहा था। यह दूर तक सुनाई पड़ रहा था। कालिया को उसकी औकात दिखाने और नौकर-मालिक का भेद समझाने के आनंद में वह पूरी तरह डूबा था। इधर शाम को कालिया घर से बढ़िया जिलेबी-समोसे बना कर चौकी जा पहुंचा। अदब से नमस्ते करके उसने सामान मेज पर रख दिया।
अमे। तेरी ये हिम्मत। रेहड़ी नहीं लगी तो समोसे जलेबी यहां उठा लाया। समेट इसे फौरन और चलता बन। कालिया ने बहुत मान-मनुहार की पर हवलदार नहीं माना। इतने में चौकी के सीनियर ने मामले की तह में पहुंच कर कालिया को चौकी से बाहर जाने का इशारा किया। कालिया के जाने पर सीनियर ने हवलदार को अपने पास बुला कर उसे कहा- "अबे। क्यों खामखा सोने की मुर्गी हलाल करने पर तुला है?"
हवलदार अभी शर्मा हलवाई के प्रभाव में था। तुरंत नाराजगी से बोला पर सर, हमारी बात तो शर्मा से हुई है।
तो कौन-से स्टैंप पेपर पर हुई है? देख शर्मा हलवाई तो हमें एक ही दुकान के पैसे देगा लेकिन कालिया भी धंधा करेगा तो दो दुकानों का चढ़ावा आएगा कि नहीं? तू तो जानता ही है, ऊपर से बढ़िया जलेबी समोसे अलग खिलाएगा। सीनियर ने वरिष्ठता त्याग कर हवलदार के कंधे सहलाए।
हवलदार मंदबुद्धि नहीं था। पैसे का समीकरण और अफसर की मंशा जल्द समझ गया। नाराजगी को भाड़ में झोंक दिया। सीनियर ने मामले को रफा-दफा करने के अंदाज में उसे आंख मारी और दोनों हंस पड़े। इधर चौकी में धन का डंका बजा उधर अगले दिन कालिया की रेहड़ी सजी तो शर्मा हलवाई को समझ में आया सुख-दुख कितने अस्थायी होते हैं। कल उसका ठहाका आज खामोशी की अंधी खोह में सिमट कर खो गया था और कालिया के बेरौनक चेहरे पर नूर टपक रहा था। शर्मा हलवाई के मन में बंसा कांटा फिर से कसकने लगा। कालिया अपने पूरे जलवे के साथ रेहडी सजाए था। गर्मागर्म जलेबी, इमरती, बूंदी, समोसे छन रहे थे। लोग दोहरा आनंद उठा रहे थे। मिठाई की चाशनी और शर्मा का निंदा रस जलेबियों, इमरतियों को बेजोड़ बना रहा था। ठहाके की दिशा आज बदल गई थी। अपना पैंतरा फेल होते देख शर्मा हलवाई पर आसमान सा टूट पड़ा। निराशा में उसका चेहरा स्याह हुआ, मन भारी और दिमाग एकदम सुन्न। सारी रात मरे मन से वह बिस्तर पर करवट बदलता रहा। ये केवल एक रात की बात नहीं रह गई। शर्मा हलवाई की कई रातें ऐसे ही अवसाद में काली हुई। किसी-किसी रात एक घड़ी आंख लगी भी तो सपने में देखा कालिया एक भव्य दुकान का मालिक बना बैठा नोट छाप रहा है। उसकी दुकान पर देसी-विदेशी ग्राहकों की भीड लगी है और दूसरी तरफ शर्मा हलवाई अपनी ही बंद दुकान के आगे भिखारी बना बैठा है। सोते में ही शर्मा हलवाई के दिल की धड़कनें बढ़ गई। हड़बड़ा कर जागा तो सर्द मौसम में भी शरीर पर पसीने की बूंदें उभर आई। पसीने से पसीजी हथेलियों में चेहरा दबाए वह धीरे-धीरे खीजने लगा। शिकस्त की पटखनी खा कर चित्त हो जाने की बजाय उसका दिमाग नई साजिशें रचने लगा। कालिया की दुकान को आग लगाने का उत्तम विचार उसे रास जा रहा था। सौ गुनी रफ्तार से दौड़ रहे दिमाग में बदले की कार्यवाहियां ज्यों-ज्यों आकार ले रही थी उसकी क्रूर हंसी चेहरे पर फैलती जा रही थी। अचानक दिमाग में उठे विरोधी विचार ने उसे चौंका दिया-यदि कालिया ने राख हो चली दुकान फिर से खड़ी कर ली तब? कुछ कुविचार बड़ी तेजी से दिमाग में कौंधने लगे। अगर कालिया का हाथ टूट जाए तो मजा ही आ जाए फिर कैसे तलेगा जलेबी? या उसका पैर फिसल जाए, कहीं कोई गाड़ी ही उसे टक्कर मार दे। बेध्यानी में उस पर खौलती कड़ाही उलट जाए तो झंझट कटे। ये अंतिम कुविचार उसे इतना उत्तम लगा कि मन ने कहा क्यों न ये काम मैं ही कर डालूं। खौलती कड़ाही कालिया पर मैं ही पलट दूं। न रहेगा बास न बजेगी बांसुरी। इस विचार पर शर्मा ऐसा इतराया कि अकेले में उसकी हंसी बेकाबू हो चली पर दूसरे ही क्षण मन मसोस कर रह गया कि इस काम का मौका और एकांत उसे कैसे मिलेगा? कल्पनाएं भी कि तेजी से आकाशमार्गी हो रही थीं और यथार्थ उसे धरती पर पटक रहा था। विचारों की पटखनी ने शर्मा हलवाई की सारी क्रूरता का नाश कर के उसे फिर से दयनीय बना दिया। फिर से पसीजी हथेलियों को जोड़ कर वह हारे को हरिनाम की तरह सारे देवी-देवताओं को मनाने में जुट गया। उसे लगने लगा कि सारा खेल नक्षत्रों का ही है। बहुत देर तक नाम स्मरण, जाप-अजपाजाप के बाद भी मन उद्विग्न बना रहा तो निराश हो कर सुबह-सुबह पैर मंदिर की ओर बढ़ गए। मंदिर में आरती चल रही थी। भक्तों की भीड़ जमा थी। रामभज तिवारी यानी पंडिज्जी सप्तम स्वर में आरती गा रहे थे। महिलाएं-पुरूष उनके पीछे-पीछे पंक्तियां दोहरा रहे थे। शर्मा हलवाई एक कोने में खड़ा हो गया। आरती पूरी हुई और प्रसाद लेकर जब भक्तगण घर रवाना होने लगे तब भी शर्मा हलवाई टस से मस न हुआ। पंडिज्जी ने दुनिया देखी थी बाकी हाल शर्मा हलवाई की रोनी सूरत से सथ बयां हो ही रहा था। पंडिज्जी खुद उसके पास आए क्या हुआ शर्मा जी?
शर्मा हलवाई के दुख का फोड़ा टीस कर फूटने को हो चला। दुख देने वाली दुनिया में कोई दुख पूछने वाला मिल जाए यही जीवन की बड़ी उम्मीद है। शर्मा हलवाई का दुख आंखों से झलक गया। पंडिज्जी ने आरती की थाली हाथों में लिए लिए ही उसकी हथेली थाम ली। शर्मा हलवाई ने बड़ी मुश्किल से अपनी पीड़ा पंडिज्जी से साझा की और कोई उपाय करने की विनती की। सुनकर पंडिज्जी की आंखें क्रोध से फैल गईं। करुणा-दया जैसे आरती के सभी सद्भाव एकाएक तिरोहित हुए और पंडिज्जी ने थाली रख कर शर्मा के दोनों कंधों को दबा कर कहा-" कलजुग है शर्मा जी कलजुग। इस कालिया की इतनी हिम्मत? हमसे टक्कर? तुम चिंता मत करो। मंदिर के काम निबटा लू फिर आराम से मिलते हैं। साले का ऐसा टेंटुआ दबाऊंगा कि जनम-जिंदगी याद रखेगा। शर्मा हलवाई को पंडिज्जी के शब्दों से गहरा संतोष हुआ। दुख में एक सच्चा संगी दिखाई दिया तो मन हल्का हुआ। मंदिर की सीढ़ियों पर पंडिज्जी का इंतजार करते हुए उसे कुछ समय पहले गाई जा रही आरती से कहीं अधिक सुख मिल रहा था। कुछ देर बाद फारिंग हो कर पंडिज्जी आए और तब शर्मा हलवाई ने अपनी भड़ास निकाली-पंडिज्जी। साले को मैंने उसकी औकात दिखाने की पूरी कोशिश की पर हैसियत में कमतर आदमी में इतना घमंड कि सड़क से थाने तक उसने अपना रास्ता बना लिया। मुझसे बराबरी करने पर तुला है।"
फिकर न करो शर्मा जी। हमने अच्छे-अच्छों की अकल ठिकाने लगाई है। ये कालिया क्या चीज है? उसके नाम-काम को मिट्टी में नहीं मिला दिया तो हमारा नाम भी रामभज तिवारी नहीं। पंडिज्जी के पास ब्रह्मास्त्र था। वह हर घटना, हर युद्ध और हर आग का रूख मोड़ देने का हुनर बखूबी जानते थे। इससे धर्म और धंधे दोनों में बरकत रहती। लोगों के डर का भरपूर लाभ कमाने का उनका अनुभव पीढ़ी दर पीढ़ी का था। कुछ देर तक अपनी चोटी से उलझते रहने के बाद एक हंसी पडिज्जी के होंठों से निकल कर शर्मा हलवाई की आंखों की तरफ दौड़ने लगी। ऐसा तोड निकाला है कि कालिए की छुट्टी हो जाएगी। कल मंगलवार है, समझ गए। हम आते है कल। तुम भी अपने कुछ लोगों को ले कर पहुंच जाना। समझो तुम्हारा कांटा हमेशा के लिए निकल गया।" पडिज्जी ने न जाने शर्मा हलवाई के कान में कैसा मंत्र फूंका कि उसके बेजान से शरीर में हरकत, चेहरे पर हंसी और आंखों में चमक आ गई। आज पैरों को पंख लग गए। घर लौट कर आईने में खुद को देखा तो अपनी ही सूरत पहचानी न गई। इतने दिनों का दैन्य-दुख आज मलिन हो कर विलीन हुआ था। हृदय में एक उत्कंठा थी। दोपहर लेटने की ऐसी इच्छा जागी कि शाम को ही नींद टूटी। कल की कार्यवाही को अंजाम देने शर्मा हलवाई ने दुकान लौट कर कुछ लोगों को फोन-फान किए। कुछ समझाया। अब उसे कल का इंतजार था।
मंगलवार अपनी गति से ही आया। शर्मा हलवाई की हालत ऐसी थी जैसे परीक्षा से पहले ही उसे प्रश्नपत्र मिल गया हो। जिंदगी का बड़ा सवाल हल होने की घड़ी का उसे बेसब्री से इंतजार था। इस सबसे अनभिज्ञ कालिया ने मंगलवार की बूंदी छानने के लिए बेसन की घोल को छलनी के हवाले कर के जैसे ही कड़ाही पर पहली चोट की। अचानक पंडिज्जी बाजार में प्रकट हुए और उनकी ज्ञानवाणी शुरू हुई-
"भाइयों! कुछ भी कह लो पर धरम-करम में शुद्धता बड़ी जरूरी चीज है। ये तो देखना ही होगा कि मंगल का प्रसाद किसके हाथ का बना है? भैया। बबूल के पेड़ पर आम नहीं निकलते। हर ऐरा-गैरा प्रसाद बना लेगा क्या? और तुम सब खा भी लोगे उसके हाथ का?
मोहल्ले में पंडिज्जी की साख थी। उनकी बात को हवा में उड़ाना आसान नहीं था। कालिया के पास लगे ग्राहकों का जमघट पहले चौका फिर संशय से भर गया। पंडिज्जी का मारक मंत्र काम कर गया था। मौका देख कर शर्मा हलवाई के कुछ खास लोग भी पंडिज्जी की हां में हां मिलाने और शुद्धता का भय जगाने कालिया की रेहड़ी पर पहुंच गए। कुछ लोग जो पंडिज्जी के मारक मंत्र के बाद भी न डिगे उन्हें रास्ते पर लाने के लिए पंडिज्जी ने आंखें तरेर कर पूछा- अरे शुद्ध-अशुद्ध, जात-कुजात का थोड़ा सा भी ध्यान रखोगे या फिर जिह्वा के सुख के लिए उसे भी त्याग दिया? सास्तर कहते हैं कि इस दुनिया का हर काम बंटा हुआ है। भगवान ने सब तय कर रक्खा है तो उसे बदलने वाले हम कौन होते हैं।" पंडिज्जी ने कालिया की तरफ घृणा से देखते हुए मुंह बनाया। कुछ समय पहले जो कालिया, शर्मा हलवाई से औकात की जंग लगभग जीत चुका था उसके लिए अब एक नई चुनौती खड़ी हो गई। इस बार धर्म के रास्ते जाति की बिसात पर उसकी मेहनत के मोहरे पडिज्जी ने पीट दिए। पहले से समझाए गए लोग तैयार ही थे। जो लोग ठिठके से थे, वे भी पंडिज्जी के सवाल और भीड का रुख देख कर सहम गए। पार्वती अम्मा ने कालिया की तरफदारी करने की कोशिश की तो उसे भी पंडिज्जी ने डपट दिया। मोहल्ले में मंगलवार का पूजन भी होना था और बूंदी भी खरीदी जानी थी। कालिया की रेहडी से भीड छंटी तो सीधे शर्मा हलवाई के यहां जम गई। आज महीनों बाद शर्मा हलवाई की दुकान पर पहले जैसी रौनक लौटी थी। उसने पाव भर ताजी बनी रबडी का भोग पंडिज्जी को लगाया। पंडिज्जी भी रबड़ी उदरस्थ करते हुए दुकान के आगे चौपाल लगाए बैठ गए। चप-चप करके रबडी का आनंद लेते हुए ज्ञानवाणी का निष्कर्ष दे डाला-
"भाई। पूजा-अर्चना का काम है शुभ काम। जात-कुजात का ध्यान तो रखना ही होगा। आखिर भगवान का भोग है।" पंडिज्जी ने बड़ी देर से कसमसाते तुरूप के इक्के से आखिरी बाजी पलट दी। धर्म और धंधा साथ मिल कर चमक उठे और मंगल कालिया के लिए शनी का प्रकोप बन गया। कालिया ने सपने में भी ये नहीं सोचा था कि उसकी बनाई बूंदी का ऐसा तिरस्कार होगा। मेहनत, हुनर और ईमानदारी की लड़ाई जीतने वाला कालिया आज जाति की लड़ाई में परास्त हो गया।
अब शर्मा हलवाई के लिए मंगल ही मंगल था। सप्ताह के और दिन भले ही लोग कालिया की जलेबी और समोसों का आनंद उठाते पर मंगल को इक्का-दुक्का ग्राहक ही बूंदी के लिए उसकी दुकान पर आता। ग्राहकों के लौट आने की आस में कालिया बूंदी जरूर बनाता पर ये बूंदी चढ़ावे का प्रसाद न बन पाती। इधर शर्मा हलवाई की दुकान हर मंगल को मोहल्ले के बाजार का आकर्षण रहती। अब तो बूंदी पर गुलाब की पत्तिया बिखेरी जातीं और चमकीला बर्क लगाया जाता। मुश्किल से टूटा ग्राहक फिर से कालिया से न जुड़ जाए इस डर से शर्मा हलवाई नित नई तरकीबें सोचता। कभी-कभी खुशबू के लिए केवडे का छिड़काव भी बूंदी पर किया जाता। यही नहीं पंडिज्जी भी इस लड़ाई में जीत का सेहरा बांधे हर मंगलवार बिना नागा दुकान पर आने लगे। पाव-आध पाव रबड़ी उनकी बंधी बंधायी थी ही, सो नए-नए विचार उन्हें भी सूझते रहते। एक दिन शर्मा हलवाई से बोले भैया मेरी मानो ती दुकान के बाहर एक बोर्ड लगवा दो-शुद्ध सनातन प्रसाद यहां मिलता है।"
'जैसी आपकी आज्ञा। कृतज्ञता से गदगद शर्मा हलवाई ने फौरन से पेशतर इस काम को अंजाम दिया। पंडिज्जी की आत्मा प्रसन्न हुई। शर्मा हलवाई को जीत का आशीर्वाद मिला अब कालिया की कमर हमेशा के लिए टूटी समझो। एक बात गांठ बांध लो मंगल को जीत लिया फिर तुम्हारी जय ही जय है। और ग्राहकों को नसीहत मिली "अब नियम-धर्म का विचार करना जरूरी है। तुम नहीं चेतोगी तो इन जैसे छाती पर सवार हो जाएंगे।"
शर्मा हलवाई की मंगलवार की जीत को कुछ महीने बीत गए थे पर बाकी दिन मंगल जैसा जलवा उसके यहां नहीं रहता। उन दिनों कालिया की रेहड़ी पर भीड़ दिखाई देती। कालिया के मंगल को ग्रहण लगते देख मोटे हलवाई ने उसके पास अपना प्रस्ताव भेज दिया कि कालिया सब छोड़-छाड़ कर उसके पास चला आए और उसका कारीगर बन कर ठाठ से सामान बनाए। मोटा हलवाई इस लड़ाई में अपना फायदा ढूंढ रहा था। मोहल्ले में लगी आग मंद पड़ने को ही थी कि इसे भड़काने फिर कुछ लोग सामने आ गए। जाति के इक्के के दिन तो सदा से थे पर ये भी सच था कि समझदारी की दुक्की भी अब अपना वजूद समझ चुकी थी। इक्के को पीटने के तर्क उनके पास थे। कुछ समय बाद मोहल्ले का एक वर्ग अब कालिया के समर्थन में उतर आया। यूं भी शर्मा हलवाई की बेस्वाद बूंदियां कालिया की बूदियों से पहले से ही पिटती चली आ रहीं थीं। कुछ दिनों से बूंदी की मांग भी दबे स्वर में फिर उठने लगी थी। बरसों बरस के हुनर से टक्कर लेना आसान नहीं था। कालिया को पसंद करने वालों ने मिल कर एक बहस बाजार में उतार दी। एक ने दो टूक कहा- ये अजब बात है जब तक कालिया, शर्मा की दुकान पर बूंदी छान रहा था तब तक जात-कुजात का सवाल नहीं आया? सालों तक उसके हाथ की बूंदी भगवान को चढ़ाई तब कहां गई थी शुद्धता? तब शुद्ध था अब अशुद्ध? पार्वती अम्मा पीछे नहीं रही फिर ऐसा कर के किस-किस से किनारा करोगे? घड़े वाले से घड़ा न लोगे? बाल नहीं कटवाओगे? बढ़ई कहां से लाओगे? मकान दुकान की मरम्मत किससे करवाओगे? क्या सब काम खुद कर लोगे? दिखाओ कर के?" एक आदमी ने सब बातों का निष्कर्ष देते बढ़ते विवाद को विराम देते हुए कहा "जात-पांत पूछे नहीं कोए, हरि को भजे सो हरि का होय।" पर कालिया को उकसाने के अंदाज में एक ग्राहक ने फिर विवाद को बनाए रखा। कालिया पंडिज्जी तो कहते थे "भैया, बबूल के पेड़ पर आम नहीं निकलते अब क्या?"
"बुला लो फिर सगरे आमों को, चलवा लो ये बाजार। चला लो सगरी दुनिया का कामकाज पर पहले मुझे ये बताओ इस गंदी नाली में उतरने का काम कौन-सा आम करेगा? बजबजाले गटर को साफ करने कौन आम घुसेगा? बताओ न? फिर भी करना ही है तो करो सगरे काम।" इस बार पार्वती अम्मा की आवाज गरजी तो दूर तक गयी।
शांत भाव से काम करते हुए कालिया ने इतना ही कहा बाउ जी। इंसान और पेड़ में यही तो अंतर है। आखिर को भगवान ने सब इंसान एक से बनाए हैं, आम और बबूल नहीं बनाए। कालिया हमेशा की तरह सीधे लड़ाई में उतरने से बचता हुआ शांति से बोला।
"बेटा। लोगन ने भगवान के नाम पर फरक का बीज आज से नहीं सदियों से बो रखा है। फिर आज ये बनिया-बामन जो डर दिखा रहे है तो बना क्यों नहीं लेते अपना खुद का बाजार? बैठ जाएं हर मोहल्ले में एक जात के सब दुकानदार। कर ले सगरे काम। मैं पूछती हूं तब हो जाएगी बराबरी? आ जाएगा रामराज? उनमें नहीं होगी कोई ऊंच-नीच? देर सबेर वहां भी निकल आएंगे बड़े-छोटे। धनी दुकानदार का रौब और गरीब दुकानदार पर धौंस हो कर रहेगी। बताए देती हूं। फिर क्या करोगे? और धौंस? वो कोई कब तलक सहेगा? आरी लकड़ी चीरेगी तो चीख उठ कर रहेगी।" पार्वती अम्मा के धारदार सवालों ने सबको सकते में डाल दिया। हमेशा हौसला देने वाली पार्वती अम्मा के भीतर जमे क्रोध का यह रूप देख कर कालिया चकित था। आज पहली बार पार्वती अम्मा से उसने जीवन की पाठशाला का जरूरी पाठ पढ़ा। उसने तय कर लिया नीचा मान कर दी जाने वाली धौंस से डरने-चुप रहने की बजाय उसे अपने धंधे को बढ़ाना चमकाना है। वो किसी बात में कमतर नहीं है।
पंडिज्जी ने कालिया और उसके हमदर्दों को लाख कोसा, डराने-धमकाने के हथकंडे अपनाए पर ये लड़ाई इतनी जल्दी मुंह के बल गिरेगी उनको ये आशा नहीं थी। बरसों के काम-धन्धों को जड़ से उखाड़ना और आनन-फानन में नया विकल्प खोज लाना बड़ी टेढ़ी खीर थी। कालिया की बरसों की साख और उसका हुनर एक बार फिर अग्निपरीक्षा में सफल हो कर निकला और शर्मा हलवाई के लिए ये गुत्थी और भी उलझ गई। धीरे-धीरे कालिया की बूंदी फिर से शर्मा से मुकाबले पर उतर आई। एक के बाद एक शिकस्त शर्मा को अधमरा किए दे रही थी। भविष्य का एक अनजाना भय मन में डेरा जमाने लगा था।
मदन मोहन दरवाजा और छोटा बाजार अपनी गति से चल ही रहा था कि अचानक एक दिन मोटे हलवाई की दुकान से एक शोर-सा उठा। एक खबर बाजार में आग की तरह फैल गई। बरसों से बाजार का एक सा रूप एक से दुकानदार और यही चिरपरिचित ग्राहकों के लिए ये खबर एक धमाका थी। खबर सच्ची थी या अफवाह इसे पता करने लोग मोटे की दुकान पर पहुंच गए। दुकान बंद थी।
"भई! किसी को कानों-कान खबर नहीं लगने दी इस मोटे ने।" जिस आदमी के पास खबर थी उसने बात शुरू की तो मजमा उसके पास ही जम गया।
आखिर हुआ क्या? क्या किया मोटे ने? शर्मा हलवाई से रहा नहीं गया।
आज दुकान भी नहीं खुली? कालिया ने भी मन में खदबदा रहे सवाल को पेश किया।
"भैया। सुनने में आ रहा है कि ये दुकान बिक गई। मोटे ने अपना बोरिया बिस्तर धीरे-धीरे पहले ही समेट लिया था अब बस नीचे दुकान और ऊपर गोदाम का सामान बचा है। सुना है कमला नगर में नया घर लिया है मोटे ने।" खबरची ने खबर से पर्दा उठा दिया।
अरे। ऐसे कैसे? किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। साला बढ़ा घुन्ना निकला बिना बताए चल दिया। शर्मा हलवाई ने गला खंखारा और सड़क पर ऐसे थूका जैसे मोटे पर थूका हो।
"पर सवाल ये है कि दुकान खरीदी किसने? काय चीज की दुकान खुलेगी यहां?" बर्तन वाले दुकानदार ने सवाल पूछा।
अब भैया मिठाई की तो खुलने से रही। खबरची ने हंसी ठिठोली की।
"हमसे ही बात कर ली होती तो हम ही खरीद लेते, आखिर तिमंजिली जगह थी। न सही पूरी एक मंजिल तो ले ही लेते। मोहल्लेदारी की एक बात न सोची मोटे ने और पिताई तुम बाजार में रह कर कानों में रूई ठूंसे रहते हो। इत्ती बड़ी बात हो गई और तुम्हें खबर नहीं हुई?" शर्मा हलवाई के उनींदें कुंभकरण परवेस में आज गजब की चेतना उछाल मार रही थी। अपने लड़के की इस बात पर शर्मा हलवाई के भीतर का पिता अपमानित हुआ पर बाजार में एक और दुकान न हो पाने की ठेस उस अपमान से अधिक थी। अटकलें लगाती भीड़ तितर-बितर हुई। मंथर गति से शर्मा हलवाई अपनी दुकान पर पहुंचा। गल्ले पर बैठा तो सीधे हाथ से उसने गल्ला सहलाया। कुछ देर पहले का अवसाद घटा और मन एक दूसरे रंग में रंग गया। मन खुशी से झूमता हुआ बोला- अच्छा ही हुआ दुकान बेच के चला गया। अपशकुनी दुकान और मनहूस दुकानदार। अब तक बस स्टॉप के ग्राहक मार लेता था अब तो मेरी ही दुकान की चांदी होगी। अब मेरे ग्राहक बढ़ेंगे।" कुछ समय पहले का उसका दुख अब हिरण हो चला। बाजार में अब दो ही हलवाई रह गए। शर्मा और कालिया। एक पक्की दुकान वाला दूसरा सड़क किनारे वाला।
कुछ दिन बीते मोटे की बंद दुकान के आगे एक कंपनी का बोर्ड लग गया कमिंग सून। लोगों के भीतर इस बोर्ड ने खासी जिज्ञासा पैदा कर दी। हर जबान पर एक ही सवाल-क्या आने वाला है? कुछ दिन बाद बड़े-बड़े शीशे और सामान उतरने लगा। मोटे की तिमंजिला जगह अब पूरी दुकान का रूप ले रही थी। जिस छोटे बाजार में दुकानों को चमकाने के नाम पर वार्षिक रंगाई-पुताई या कुछ मरम्मत हो जाती थी वहां दुकान के लिए आ रहे सामान ने सबको चौंका दिया। मेन बाजार के एक से एक मशहूर ब्रांड्स के बीच जारी घमासान प्रतियोगिता अभी इस बाजार में उतरी नहीं थी। वहां जूते-चप्पलों से ले कर कपड़ों-खानों, सजावटी चीजों के अनेक स्टोर्स और बड़े-बड़े आउटलेट थे। इसके विपरीत छोटे बाजार में हर चीज की एकाध दुकानें होने से अंधी और बेतहाशा दौड़ का चलन अभी नहीं था। कुछ दिन शर्मा और कालिया के बीच दौड़ जरूर लगी पर अब मामला शांत था पर शांति कभी स्थायी नहीं होती। न जीवन में, न समाज में, न देश-दुनिया में न बाजार में। मौसम भी बदल रहा था। गर्मी के बाद बरसात शुरू हो गई। शर्मा हलवाई की पक्की दुकान का तो कुछ नहीं बिगड़ना था पर कालिया के लिए ये मौसम अजब बन गया। जैसे-तैसे किसी कोने में रेहड़ी खड़ी की और तिरपाल आदि से बचाव की कोशिश की पर प्रकृति से लड़ना आसान नहीं था। ऐसे ही एक दिन मोहल्ले के नौजवान लडके लड़कियां बारिश में गर्मागर्म समोसे जलेबी खाने कालिया के पास पहुंचे। हल्की बूंदा-बांदी चल रही थी। ग्राहकों को देख कर कालिया उत्साह में आ गया। तभी उसका ध्यान नौजवानों की बातों पर गया।
"अबे। यहां क्यों आ गया। मेन मार्किट चलते हैं न.. यहां तो बैठने की जगह भी नहीं।" एक लड़के ने बुरा-सा मुंह बनाया तो दूसरे ने बात लपक ली-
"यार! खा कर देख मजा आ जाएगा।" सबको यहां लाने वाले लड़के ने कालिया की पैरवी की।
लड़कों की बातें सुन कर कालिया निराश होने लगा। परसों की बात उसे भूली कहां थी जब आसमान से गिर रहीं बूंदें बड़े-बड़े बूंदा में बदलीं और जब तक कालिया ग्राहकों की प्लेटें समेटता तब तक समोसे जलेबी पानी में तैर गए। एक लड़के का पारा चढ़ गया- "क्या यार, खाना दुश्वार हो गया मैंने तो पहले ही कही थी रेस्ट्रा में चलते हैं फालतू की जगह ले आया।" कालिया ने जैसे ही प्लेटें उठाई लड़कों ने अपनी स्कूटियां स्टार्ट कर दी। कालिया तुरंत पीछे पलटा और पैसे मांगने को हुआ पर तब तक सब हवा के परों पर सवार हो गए। बारिश में माल खराब हुआ सो हुआ, सामान का पैसा न मिलने से नुकसान अलग हुआ। आज फिर से यही बातें सुन कर एक टीस उसके कलेजे में उठी और उसने आसमान को देखा। कालिया की सोच के विपरीत लड़का अपने दोस्त से बोला-
"तू खा कर तो देख रेस्त्रां फेस्त्रां सब भूल जाएगा। ये कालिया की दुकान है।" याद है कालिया फिल्म का डॉयलॉग- "हम जहां खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है।" लड़के की बात पर सारे नौजवान हंसने लगे। कालिया मुस्कुराया और छह प्लेट समोसों, आधा किलो जलेबी का ऑर्डर पूरा करने में जुट गया। ये सभी नौजवान पच्चीस से अट्ठाइस की उम्र के होंगे। उनमें से एक सवाल किया "अबे स्टाफ सलेक्शन बोर्ड का पेपर कब है?" सुनते हैं जल्दी अनाउंस होने वाली है तारीख। दूसरे ने कहा।
"खाक अनाउंस होने वाली है। पिछली बार दिया था उसका ही अब तक कुछ नहीं हुआ। इस बार देखते हैं, पेपर लीक हो गया तो समझो लटक गया मामला।" एक लड़की दुखी मन से बोली।
"कल इन्हीं मुद्दों पर चौक पर विरोध प्रदर्शन है। चल रहे हो न सब? नौकरी चाहिए तो आवाज तो उठानी होगी। देख लो भाई अब तो देश भर में आवाजें उतनी शुरू हो गई है। पहले बिहार में फिर हिमाचल में बड़ी संख्या में नौजवान इकट्ठे..."
"अरे यार। पॉलिटिक्स में मत पड़ और न हमें डाल।" लापरवाह दीखते नौजवान ने बीच में ही बात काट दी। उसकी इस बात पर जुझारू नौजवान झल्लाया।
"खुद को बचाना-बनाना है कि नहीं? इसीलिए ही कह रहा हूं और तू इसे पॉलिटिक्स समझ रहा है? वैसे भाई पॉलिटिक्स किस चीज में नहीं है। पॉलिटिक्स इस चीज में भी है कि मैं और तुम यहीं सड़क पर खड़े हुए हैं और नेताओं के बच्चे विदेशों में डॉलर छाप रहे हैं। पॉलिटिक्स इस चीज में भी कि कालिया भैया यहाँ सड़क पर रेहड़ी लगा सकेंगे या नहीं।" दूसरे लड़के ने मजाकिया लहजे में हंसते हुए कहा "और इस जलेबी में भी पालिटिक्स है न? और समोसे में तो पालिटिक्स का बाप... हा हा हा।" पर इस बात पर उसे किसी का भी साथ नहीं मिला। माहौल गम्भीर हो चला था। कालिया के कान भी इन नौजवानों की बातों पर लगे थे। लगा कि इतना पढ़ने-लिखने के बाद भी ये नौजवान धक्के खा रहे हैं। इनके पास नौकरी क्यों नहीं?
"यह सही कह रहा है। मैं तो जा रही हूं कल प्रदर्शन में मुझे तो अपनी नौकरी चाहिए ही चाहिए।" ग्रुप की भयभीत लड़की ने अपनी बात कही तो दूसरी खामोश लड़की चुप्पी तोड़ कर बोली "बात सिर्फ किसी एक आदमी की नहीं है देश के हजारों-लाखों नौजवानों की है। इसलिए लड़ाई भी किसी एक की नहीं है। कभी कोई परीक्षा रद्द होती है तो कभी पेपर लीक हो जाता है। फिर सालों रिजल्ट का इंतजार करो। न क्लीयर हो तो बार-बार परीक्षा में बैठो। सिमट सिकुड़ रहे सरकारी नौकरी के चक्कर में देश भर के नौजवान सालों से लगे हुए है। कईयों की ओवरएज हो जाएगी तो कहां मिलेगी मौकरी?" लड़की तैश में आ गई। कालिया को लगने लगा अच्छा ही हुआ जो पढ़ा-लिखा नहीं वर्ना आज यह भी बेरोजगार होता।
"कुछ पाना है तो आवाज बुलंद करनी ही होगी। घर बैठे तो कुछ मिलने से रहा। साथ लडेंगे तो कोई रास्ता जरूर निकलेगा।" लड़के ने साफ बात कही।
"और फिर भी कुछ नहीं हुआ तो?" भयभीत लड़की ने सवाल उठाया।
" तो हम भी लगा लेंगे कालिया की बगल में एक रेहड़ी। रोज़गार तो यह भी है न।" लापरवाह से नौजवान ने कन्धे उचका कर कहा।
"इतना आसान है क्या कालिया की बगल में रेहड़ी लगाना? भैया को बीस साल लगे तब जा कर उसने बनाई है अपनी जगह। तुम्हारे पास है यह हुनर? बताओ? कभी तुमने एक कप चाय भी बनाई है?" लड़की फिर तैश में आ गई। उनकी इस बातबीत में कालिया को बीते वर्षों में बनाई अपनी साख और संघर्ष की राह साफ दिखाई देने लगी। उसने गौर किया लड़की अपनी लडाई के साथ कालिया के स्वाभिमान की लड़ाई भी लड़ रही थी। उसे कुछ देर पहले की अपनी सोच पर शर्म आई। पढ़ना-लिखना हर लिहाज से जरूरी लगने लगा। पढ़ाई सोच को कितने बड़े मायने देती है और पढ़-लिख कर ये लोग अब क्या जलेबी बेचेंगे? कालिया को लड़की की समझदारी पर नाज हुआ कि सगा संबंधी न होते हुए भी वह कालिया को सम्मान दे रही है। इस बात से कालिया को अपार साहस मिला।
'लो देखो आ गया हमारा यू ट्यूबर।" सबने देखा सामने से मदन मोहन दरवाजे का स्टार यू ट्यूबर चला आ रहा था। "तू यहां कैसे?" लड़की ने सवाल दागा।
"मैं तो फूड व्लॉगिंग करता ही हूं। आज सोचा कालिया को शूट करूं।" समोसे जलेबी की प्लेटें सजाता कालिया अपना नाम सुन कर चौकन्ना हुआ।
"यार। फूड व्लॉगिंग ही करता रहेगा या कुछ बेहद जरूरी रियल इश्यूज पर भी बात करेगा?" लड़का फिर अपनी बात पर आ गया।
"क्या इश्यू?" ब्लॉगर ने पूछा।
"कल बेरोजगार साथियों का धरना-प्रदर्शन है। आएगा?"
"कहीं कोई बवाल न हो जाए?" ब्लॉगर बोला।
"नौकरी से बड़ा जीवन का और बवाल भला क्या होगा? पूरी जिंदगी बस वीडियो बनाना है? इसी के लिए तो एम. ए. किया था। सारे सर्टिफिकेट संदूक में पड़े पड़े सड़ जाएंगे। एक बार डरा तो सारी जिंदगी डरता रहेगा साले। हिम्मत दिखा।" लड़के की आवाज तल्ख थी।
"क्या हिम्मत? आजकल तो अलग बोलने का मतलब दुश्मन बनाना है।" ब्लॉगर ने कहा।
'सीधी बात ये है कि मेन स्ट्रीम मीडिया तो ये मुद्दा उठाने से रहा। हम तो उनकी निगाह में एग्ज़िस्ट नहीं करते। तू दिखाएगा तो हमारे विरोध की बात दर्ज हो जाएगी।" लड़के ने बात काटी।
"यार डर भी लगता है और आजकल खतरा भी बहुत है।" ब्लॉगर फिर बोला।
"खतरा तो जिंदा रहने में भी है? तो क्या जिंदा रहना छोड़ देगा? और डराने वाले की यही तो चाल है। तू पलटवार कर दे हो सकता है यो भी डर जाए। तो बोल आएगा?" लड़का तुनक गया।
"अच्छा-अच्छा आऊंगा। मेरी जान ले कर ही मानेगा तू पर पहले कालिया का शूट कर लूं।"
लड़के ने अचानक गिंबल पर मोबाइल लगाया और लगा वीडियो बनाने। लड़का हुनरमंद था। अपना ब्लॉग बना कर उसने कुछ नाम-दाम बना लिया था। कालिया को उसने कुछ जरूरी टिप्स दिए तो कालिया उत्साह में आ गया। कैमरा कालिया की तरफ आया "यू ट्यूब की दोस्तों। गुड इवनिंग, नमस्कार, आदाब, आपके फेवरिट चैनल चटोरी गली से मैं आपका दोस्त नवीन आज आया हूं आगरा के छोटा बाजार के मशहूर जलेबी समोसे वाले कालिया भैया के यहां तो भैया। आप कितने सालों से यहां हो?"
"हो गए होंगे बीस-बाइस साल।" कालिया समोसे तलते हुए बोला।
"इतने सालों में तो बहुत कुछ बदल गया पर आपका ग्राहक अब भी बना हुआ है इसका क्या राज है?"
"राज क्या है बाउ जी! स्वाद और सच्ची नीयत।" कालिया जोश में बोलने लगा।
"स्वाद के लिए समोसे जलेबी में ऐसा क्या डाला है? कौन-सी सीक्रेट रेसिपी?" लड़के को भी मजा आने लगा और बाजार के अन्य लोग भी कालिया की दुकान को घेर कर खड़े हो गए।
"बस घर बनाए मसाले, सोंठ-चटनी, जी तोड मेहनत और जी खोल मोहब्बत।" कालिया मूड में आ गया।
"तो इस मोहब्बत को पाने के लिए इस बरसात के मौसम में कहां आना होगा?" लड़के ने मामला जमाने के इरादे से कहा।
"मदन मोहन दरवज्जे के पास छोटा बाजार कालिया की रेहड़ी पर।" कालिया इस दफे अपनी शर्मीली हंसी के साथ बोला और उसने अपना मोबाइल नंबर भी लड़के के कहने पर दोहरा दिया।
लड़के ने अब कैमरा अपनी तरफ घुमा लिया। इस बार कैमरे में उसका चेहरा दिखने लगा और पीछे जलेबी परोसता कालिया।
"बारिश का लुत्फ लेना चाहते हैं तो जल्दी पहुंचिए कालिया के मशहूर समोसे जलेबी खाने...।"
उसके धाराप्रवाही ढंग से बोलने पर सभी मुस्कुराए। आस-पास के दुकानदार भी यह नजारा देख रहे थे। पार्वती अम्मा कालिया की बात पर खूब हंसी और प्यार से एक मुक्का भी उसकी पीठ पर जमा दिया। शूट के बाद महफिल सज गई। खुश हो कर कालिया ने अपनी तरफ से भी समोसे, जलेबियां उन नौजवानों को खिलाई। कल के प्रदर्शन को ले कर नौजवानों की बातचीत जारी रही। उनकी चिंताओं ने कालिया की स्कूल में पढ़ने वाली अपनी बच्ची के लिए चिंता से भर दिया पर उनके प्रतिरोध के जज्बे ने भीतर से बहुत हिम्मत दी। उसे समझ आया कि सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। ये नौजवान अपनी मुसीबतों को सुलझाने का साहस रखते हैं। ये भी महसूस हुआ कि एक अकेला वही अस्थायीपन की चुनौतियां नहीं झेल रहा उसके जैसे देश भर में अनेक हैं। जीवन की समस्याएं अनेक लोगों की साझी हैं। अगले दिन जिज्ञासावश कालिया भी पास के चौक जा कर नौजवानों के विरोध प्रदर्शन में गया। यहां के हुजूम, पोस्टर्स, बैनर और पुलिस घेरे के बावजूद विरोध की आवाजों ने कालिया के भीतर एक जोश-सा भर दिया।
फूड ब्लॉग और रील्स का हिस्सा बन कर कालिया सुर्खियों में आ गया। सोशल मीडिया की इस कालिया क्रांति से शर्मा हलवाई की सोच के परखच्चे उड़ गए। दूसरे की थाली में हमेशा घी ज्यादा लगता है। कालिया और शर्मा हलवाई दोनों हमेशा एक दूसरे की थालियों को ऐसे ही देखते और कुढ़ते। मदन मोहन दरवाजे के लोग नजदीकी सुविधा और बरसों पुराने संबंधों के चलते छोटे बाजार पर ही निर्भर थे पर नए चलन ने कुछ लोगों की सोच पर असर जरूर डाला था। इसका पता धीरे-धीरे शर्मा हलवाई को भी चल रहा था। एक दिन एक ग्राहक ने आ कर सीधे शिकायत दर्ज की कि इस दुकान में कितनी गंदगी है। साफ-सफाई क्यों नहीं रखते। शर्मा हलवाई को पहली बार झटका लगा पर कुछ दिन बाद बात आई गई हो गई। इधर रोज उसके मोबाइल पर आस-पास नए बाजारों की नई दुकानों के विज्ञापन और प्रॉपर्टी डीलरों के फोन आने लगे थे। उसका एक मन चमचमाती दुकान के लिए ललचाता तो अपनी माली हालत का साक्षी मन उपदेशक बन कर कहता सरकार को चाहिए लोगों के लिए छोटे बाजार बढ़ाए पर उसे हम छोटे दुकानदारों से क्या लेना-देना? वो तो बड़े व्यापारियों के लिए मॉल बनाने में लगी है। सरकार के लिए कल बंद होती हमारी दुकान आज बंद हो जाए।" शर्मा हलवाई सोच-विचार में ही था कि एक दूसरी घटना घट गई। हुआ ये कि पंडिज्जी के बेटे की शादी तय हो गई। संयोग से दोनों समधी मदन मोहन दरवाजे के पुराने रहवासी थे। खुशी और कमाई का मौका था। शर्मा हलवाई के व्यापारी मन ने पक्का हिसाब लगा लिया कि मिठाई दोनों ही परिवारों में उसके यहां से जाएगी। पंडिज्जी की बेटी की शादी में उसकी दुकान के भाजी के डिब्बों की बरसों तारीफ होती रही थी। जिससे कई ऑर्डर उसे मिले थे इसलिए उसने हिसाब बिठा लिया कि इस बार फायदा कितने का होने वाला है। संयोग से एक दिन पंडिज्जी से भेंट हुई तो शर्मा हलवाई ने खुल कर पूछ ही लिया "बधाई हो पंडिज्जी। बेटी के रिश्ते की सूचना मिली तो मन प्रसन्न हो गया। इस बार कितनी मिठाई लगेगी? और मास्टर जी यानी आपके होने वाले समधी के घर भाजी के डिब्बे तो हमारे यहां के ही लगेंगे। तकरीबन कितने होंगे, पहले ही बता देना।" शर्मा हलवाई की बात सुन कर पंडिज्जी कुछ हकलाए पर जल्द ही अटक अटक कर उन्होंने स्थिति साफ कर दी। "अब हमारी कहां चलती है घर में नए बच्चे हैं नई सोच के.. इस बार मिठाई-भाजी मेन मार्किट से लाने की कह रहे हैं।... हमने तो लाख समझायी... पर... बच्चे हैं कि कहते हैं कि भाजी तो मंगतराम ब्रांड की लेंगे" पंडिज्जी की आधी-अधूरी बात का पूरा अर्थ समझ कर शर्मा हलवाई की उम्मीदों को पाला मार गया। उसने इसरार भी किया पर पंडिज्जी शायद पहले ही बेटे के आगे हथियार डाल चुके थे।
मदन मोहन दरवाजे के दम पर शर्मा हलवाई की दुकानदारी थी और आपसदारी से दुकानदारी रौशन रहा करती थी। शादी पार्टी के बड़े ऑर्डर से उसे खासा मुनाफा होता था। पंडिज्जी की बात से उसे धक्का लगा। मन ने सवाल किया आज पंडिज्जी हैं कल कोई और होगा ऐसे में कैसे चलेगा धंधा? दुकान की गिर सकने वाली साख और घट जाने वाले नफे ने शर्मा हलवाई को संकट में डाल दिया। वह पुराना खिलाड़ी था। ये तो जानता ही था कि ग्राहक तो चाहता ही है कि बाजार में एक ही सामान की दो-तीन दुकानें जरूर हों जिससे एक दूसरे से अच्छे माल व्यवहार की होड़ में ग्राहक को फायदा मिलता रहे। फिर शादी-ब्याह में आम आदमी भी शान दिखाने से पीछे नहीं हटता। शर्मा हलवाई के भीतर एक भय भी आकार लेने लगा अगर मिठाई की एक बढ़िया दुकान खुल गई तब क्या होगा? अब तक शर्मा हलवाई ने ठाठदार जीवन ही जिया था। मोटा हलवाई पहले ही होड़ से बाहर था। कालिया से होड़ जरूर थी पर धंधा तोड़ देने वाले नुकसान जैसी नहीं थी। उसने पहली बार कालिया से सहानुभूति रखते हुए सोचा दोनों इसी बाजार में आराम से कमा-खा सकते हैं। अगले ही दिन शर्मा हलवाई आगे की सोच कर मेन बाजार की ओर गया। यहां मिठाई की दुकानों के नए रूप और नई दुकानों के बारे में उसने पता किया। दुकानों की सज-धज देख कर उसे ये जल्द महसूस हो गया कि अब दुकान का रंग-रूप बदलवाने का समय आ गया है। मन के लालच ने मेन बाजार में नई दुकान लेने पर जोर मारा पर दाम सुन कर शर्मा हलवाई की अकल ठिकाने आ गई।
छोटे बाजार में ऊपरी शांति जरूर थी पर कुछ दिनों से ऐसा लग रहा था जैसे इस शांति के नीचे बड़ी-सी हलचल छिपी बैठी है। मोटे हलवाई की बिक चुकी दुकान के आगे लगे कमिंग सून के बोर्ड ने रहस्य से पर्दा उठा दिया। वहां मिठाई की एक मशहूर चेन मंगतराम की दुकान खुलने जा रही थी। चमचमाती आलीशान दुकान का काम जोरों पर चल रहा था। शर्मा हलवाई को भीतर-भीतर ये अंदेशा तो था पर उसका अंदेशा इतनी जल्दी सच में तब्दील होगा उसने सोचा नहीं था। इतने वर्षों तक शर्मा हलवाई, कमजोर मोटे हलवाई से अर्थतंत्र में इक्कीस रहा। कालिया ने जरूर धंधे को मंदा किया था पर दोनों अपनी जगह कमाते खाते रहे। ये नया परिवर्तन शर्मा हलवाई को झकझोर रहा था। धंधे से बाहर हो जाने का डर और जमीन से उखड़ जाने फिक्र उसे खाए जा रही थी। उसने आने वाले खतरे को सूंघ लिया कि बड़ी दुकान खुलने से जो बरसों से नहीं हुआ यह हो कर रहेगा।
नई आग ने जोर पकड लिया। छोटे बाजार में अब रोज चौपाल लगने लगी। उस पर एक ही चर्चा बनी रहती। बतरसी लोगों को दुनिया भर की हांकने का मसाला मिल गया था। जिसे देखो वही भविष्यवक्ता बना फिर रहा था। पंडिज्जी सबसे आगे थे "देखो भाई अब धीरे-धीरे सब बदल ही रहा है। मेन मार्किट की याद करो पहले कैसा हुआ करता था और अब देख लो, कैसा चमक गया।"
पिता के बोलने पर बेटा भी अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने से नहीं चूका "ये मॉलडेवलपर अब बड़े शहरों की जगह छोटे शहरों को माल की मंडी में तब्दील करने के लिए बेचैन हैं। इन्होंने बाजार की नब्ज पकड़ ली है और उनका रूख भी छोटे शहरों, कस्बों को माल की खपत के लिए टार्गेट पर लेने का है। बड़ी कंपनियां अब दूरंदेशी बनकर छोटे शहरों, कस्बों पर अपना दांव लगा रही है। पूरी तरह जांच-पड़ताल करके उतरी हैं मैदान में भैया। कोई हंसी-खेल है क्या?" परवेस सुस्त जान था पर मूर्ख नहीं। चिंतन की मुद्रा अपनाए रहा और मौका आते ही सर्वज्ञ बन बैठा "पूरा होमवर्क किया है भाई। आज एक मिठाई की दुकान खुलने जा रही है कल को अनेक खुलेंगी। आजकल मोहल्लों में मिनी मॉल का चलन चल निकला है। नई दुकानें बनेंगी, नए दुकानदार उन्हें खरीदेगें। चुम्बक की तरह ये ज्यादा लोगों को खींचेगा। ज्यादा लोग, ज्यादा दुकानें, ज्यादा मुनाफा और ज्यादा खींचतान भी। आज मोटे हलवाई ने अपनी राजी से दुकान बेची पर कल जो इस खींचतान में पिछडेगे उन्हें मजबूरन बेचनी पड़ेगी नहीं तो मिनी मॉल के आगे कैसी फीकी लगेंगी ये दुकानें।"
"पर अपने मोहल्ले में कई मंजिला बाजार कैसे खड़ा हो पाएगा? उसके लिए यहां तो जगह नहीं है।" शर्मा हलवाई अपने तर्क से बाजार के मकड़जाल को साफ करने की कोशिश में लग गया।
पंडिज्जी के मास्टर समधी कुछ ज्यादा ही समझदार थे। हर मामले की तह में जा कर नया एंगल निकालने वाले। उनका तर्क निराला था। उसका भी कोई तोड़ देर सबेर निकल आएगा। फिर देखना लोकल सामान की जगह मंहगा ब्रांड अधिक बिकेगा। बाजार नए हथकंडे अपना कर आगरा के इतिहास और संस्कृति को अपनी तरह भुनाएगा और पीढ़ियों से यहां के रहने वाले दुकानदार कोनों कतरों में सिमट जाएंगे। यानी मनी मेकिंग और प्रोफिट के नए अंदाज। नएपन में आगरा का छौंक बधार। अब न चलेगी पुरानी धुरानी दुकानें। सब कुछ रौनकदार होगा।"
पंडिज्जी यों तो मास्टर जी के तर्क से संतुष्ट थे पर वरपक्ष का समधी वधू पक्ष के समधी के तर्क पर मोहर लगा दे ये पंडिज्जी को मंजूर नहीं था। इसीलिए उन्होंने चर्चा में नया पेंच फंसा दिया "बात तो ठीक है मास्टर जी आपकी पर नए को जमने में समय तो लगेगा। पुराना अपना देखा-भाला है जाना-पहचाना और क्या जरूरी है नया माने बेहतर ही हो ऊंची दुकान फीका पकवान भी होता है कि नहीं? हमने तो अपनी आंखों से देखा है मेन बाजार वाला मिठाई वाला होगा बड़ी चेन चलाने वाला पर दो कौड़ी की मिठाई नहीं उसकी। समोसे जलेबी ऐसे कि मुफ्त में बेचे तो भी हम न खाएं। बालूशाही ऐसी कि जैसे रेत चबा रहे हो। नए लड़कों के तो चमक-दमक से दीदे फूट गए हैं पर देर-सबेर स्वाद सबको राह पर ले कर ही आएगा।" पूरी चर्चा का निचोड पेश करते हुए पंडिज्जी अपने बेटे पर भी तंज कसना न भूले जो अपने ससुर से मेन मार्किट से भाजी खरीदवाने पर तुला था। चर्चा का पूरा रूख पंडिज्जी ने पलट कर रख दिया। इस चर्चा का किसी पर कोई असर हुआ या नहीं पर शर्मा हलवाई के निराश हताश मन को थोड़ी राहत जरूर मिली पर बाजार के बदलने वाले रूप को ले कर शर्मा हलवाई की चिंता मिटी नहीं। मोटे हलवाई की पुरानी दुकान पर चलते हथौड़े जैसे उसके सीने पर चल रहे थे। रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो चला था। शर्मा अपनी पुरानी दुकान को आलीशान बनाने के लिए पैसा तो लगा सकता था पर मिनी मॉल में दुकान ले पाना उसके बूते के बाहर था। भविष्य की ये सुरत देख कर शर्मा हलवाई फिर कांप गया। रातों की नींद हराम हो गई। हथेलियां पसीजने लगीं। पहले एक कालिया ही दुश्मन था तो उस देखे-भाले दुश्मन को मिटाने के तरीके भी सूझ जाते थे जब नए अनदेखे ताकतवर दुश्मनों से कैसे लड़े? बेरोजगारी और जमीन के समीकरण को उसने बरसों बरस देखा था जहां या तो लोगों ने अपनी जमीनें बेच कर धन कमाया या फिर घरों को ही दुकान बना लेने की कवायद की थी। भविष्य की सूरत ने शर्मा हलवाई के रोंगटे खड़े कर दिए।
मुसीबतें जब छत तोड़ कर आकाश हो जाती हैं तब कहीं न कहीं समाधान की दिशाएं भी दिखने लगती हैं। कालिया के लिए भी बाजार की भावी सूरत चिंता का विषय तो थी पर उसने सोचा जो होगा देखा जाएगा। उसे सड़क पर बैठना है। काम करके दो जून की रोटी कमानी है, कमा ही लेगा। इधर शर्मा हलवाई एक नई उधेड़बुन में था। अब उसे कालिया से हुई उसकी पुरानी लड़ाइयां बेहद बचकानी लगने लगी। चिंताओं से घिरे रहने पर वह बार-बार धन के समीकरण में हार रहा था। बाजार का नया बन रहा अर्थतंत्र उसे भयभीत कर रहा था। रोज इसी तरह सोचते हुए एक रात उसने सपने में देखा कि उसकी वही पुरानी दुकान है। उस दुकान में उसका सबसे अच्छा कारीगर कालिया जलेबी, समोसे, इमरती, बूंदी छान रहा है। दुकान पर खासी भीड़ है। लोग मजे से समोसे जलेबी उड़ा रहे हैं और पत्ते चाट रहे हैं। दुकान का गल्ला ठसाठस भरा है और शर्मा हलवाई को एक क्षण का आराम नहीं है। जुबान है कि निर्देश देती थक नहीं रहीं। हाथ हैं कि पैसों के हिसाब में उलझे हैं। कालिया तन-मन से काम में लगा है। हर ग्राहक उसके बनाए माल की तारीफ चटखारे ले कर रहा है। सपने में दिखे अतीत से हरी हुई शर्मा हलवाई की इच्छाएं वर्तमान में परवेस को दुकान पर ऊघते देख कर ठंडे बस्ते में जा छिपी। शर्मा हलवाई का माथा पसीने की बूंदों से भर गया। पूरे दिन शर्मा हलवाई अपने कारीगर पर नजर स्खे रहा जिसे उसने कालिया की जगह रखा था। पहली बार उसे अंतर समझ में आया। उस कारीगर में न कालिया-सी चुस्ती-फुर्ती, न स्वाद को बेहतर बनाने की इच्छा और न ही ग्राहकों और कालिया के बीच चलते मजेदार किस्से थे। कारीगर मशीन की तरह काम कर रहा था। इंसानी जज़्बा और जिंदादिली वहां नदारद थी। फिर शर्मा हलवाई की नजर ग्राहकों पर पड़ी। यहां भी हाल कुछ ठीक नहीं था। वे चुपचाप समोसे, जलेबी खा रहे थे पर कोई बतकही और मजेदार किस्सा नहीं था। शर्मा हलवाई ने और गौर से देखा तो वह दंग रह गया। एक भी ग्राहक दोना-पत्ता चाटता उसे नहीं दिखा। आज उसे कालिया के होने का पूरा मतलब समझ आया। कालिया यानी मेहनत। कालिया यानी रौनक। कालिया यानी स्वाद। स्वाद... स्वाद... स्वाद... मन में दोहराता तिहराता शर्मा हलवाई जाने कब अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ। मन किया चल कर कालिया से बात की जाए पर भीतर का ऐठा-अकडा मन इतनी जल्दी कैसे मान जाता। इस ऐंठ-अकड़े मन को मनाने में कई दिन लग गए। नई दुकान के नए कैबिनेट खड़े होने लगे। सुनने में ये भी आ रहा था कि दुकान के ऊपर रेस्त्रां भी खुलेगा। ग्राहक आराम से बैठ कर खा सकेगा। काम का मुआयना करने एक रोज कुछ लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियों से आए। उस दिन शर्मा हलवाई का ऐंठा मन पिघल गया और पहली मर्तबा उसे कालिया का दुकान से निकाल बाहर करने का अपना फैसला और हरकतें बचकानी लगीं। सारे उहापोह को अंधे कुए में डाल कर वह कालिया से सुलह करने पहुंच गया। कालिया जमीन पर बैठा जलेबी के लिए घोल फेट रहा था। शर्मा हलवाई को पास देखा तो कालिया चौंका। पहले की बात होती तो कालिया खड़ा हो कर सिर झुकाता पर आज उसने बैठे-बैठे नमस्ते जैसा कुछ बुदबुदा कर जिज्ञासा में सिर हिलाया तो शर्मा हलवाई उकडू मुद्रा में बैठ गया। कालिया के कुछ और करीब सरक कर आया और बोला-
"कालिया तू तो देख समझ रहा है कि अब मोहल्ले का बाजार बदल रहा है। हो सकता है और नई दुकानें भी खुलें। हमें तो इसी बाजार में रहना है। मिलजुल कर रहना है। इस बाजार में टिके रहना है तो साथ मिल कर रहना होगा। मेरी पक्की दुकान और तेरा हाथों का जादू साथ हो जाए तो हम नई दुकानी से भी लड़ जाएंगे। शर्मा हलवाई को समझ आ गया था मिनी मील हो या सुपर मॉल, पुरानी दुकानें स्वाद, विश्वसनीयता, ईमानदारी और मोहल्लेदारी के कारण बची रहेंगी। यह कालिया की तरफ दीदे फाड़े देख रहा था। कान कालिया की हां सुनने को तरस रहे थे। कालिया ने परात से अपना हाथ समेटा। घोल को परात के किनारे से सटा कर हथेली साफ की। कुछ देर चुप रहा फिर गला खंखार कर साफ शब्दों में बोला ठीक है बाउ जी जी। मैं लौट आऊंगा पर एक बात पहले ही साफ हो जाए तो ठीक। शर्मा हलवाई ने खुश हो कर इशारे से पूछा- क्या?
बाउ जी। अब धंधे में मेरे समोसे, जलेबी, बूंदी का काउंटर अलग होगा। नफा साठ-चालीस का रहेगा। यो भी लिखा-पढ़त के साथ। तुम्हारा क्या भरोसा कल फिर मुझे निकाल बाहर करो। मैं आ गया तो ग्राहक फिर जुट जाएंगे तुम्हारी दुकान पर। एकाध चीज यदि मुझे और बनाने को कहोगे तो उसकी कोई बात नहीं। जैसा तुमको ठीक लगे तो।" कालिया ने हर शब्द ठोक बजा कर कहा। शर्मा हलवाई की आंखें कालिया के चेहरे पर टिक गई। कालिया उसे चुप देख कर फिर अपना घोल फेंटने लगा। उसकी हथेली तेजी से घोल पर फिर रही थी। बड़ी-सी परात में घोल अनेक आवर्त लेता जा रहा था। शर्मा हलवाई की चुप्पी कालिया को अखर रही थी। आखिर कालिया ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा- "बाउ जी! जो ठीक लगे तब बताना। आराम से सोच लो... मेरा क्या है जहां बैठूंगा पेट भरने लायक तो कमा ही लूंगा।"
कालिया के शब्दों से शर्मा हलवाई की चेतना लौट आई। कालिया के घोल सने हाथों से नजरें ऊपर उठा कर शर्मा हलवाई उसके चेहरे को एकटक देखता रह गया।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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