यतीश कुमार की कहानी 'आतिशबाजी'
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| यतीश कुमार |
कोई भी जीवन बहुआयामी होता है। इसके कई शेड्स होते हैं। सुख दुःख, हर्ष विषाद, आरम्भ अन्त इसके अविभाज्य हिस्से होते हैं जिनसे हो कर इसका वह रंग रूप बनता है जो इसे कुदरत की सबसे नायाब चीज बना देता है। लम्बी कहानी को आमतौर पर साध पाना आसान नहीं होता। वह भी तब जब हम अति उत्साही शॉर्ट कट के जमाने में जी रहे हों। वह भी तब जब महज एक मिनट के रील्स में ही सब कुछ पा जाना चाहते हों। तारतम्यता लम्बी कहानी के लिए जरूरी होती है वरना पाठक जल्द ही इससे अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। कवि यतीश कुमार सहज सरल और तारतम्यता से भरे हुए गद्य के भी उस्ताद हैं। उन्होंने कई लम्बी कहानियां लिखी हैं जिनसे हो कर गुजरना ऐसे सघन जीवनानुभवों से हो कर गुजरना होता है जिसे किसी रचनाकार की आंख ही देख सकती है और लेखनी ही तराश सकती है। उनकी कहानी 'आतिशबाजी' इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कहानी पढ़ कर पाठक खुद ही इसे महसूस कर सकेंगे। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार की कहानी 'आतिशबाजी'। यह कहानी हमने तद्भव के पचासवें अंक से साभार लिया है।
कहानी
आतिशबाजी
यतीश कुमार
ज्वार की उफनती धार में लिपट कर रेत अजीबोगरीब आकृतियां बना रही है और वैसी ही आकृतियां उभर रही हैं, उस मासूम के चेहरे पर। उसकी चिनिया आंखें इस समय उस आठ टांग और दो पंजों वाले प्राणी में खुद को ढूंढ रही हैं। उसे बताया गया था कि अंडा देते ही मर जाती हैं इनकी माँयें, इसलिए उसे अपने सगे से लगते हैं ये साथ साथ बिलखते बच्चे। नन्हीं आँखें पिता और माँ के मनोभाव के अंतर को समझना चाहती हैं, जो उसे रह रह कर समयांतर पर यहाँ तक खींच लाती हैं। अब तक उसको यह बात समझ में आ गई है कि पिता का पंजा बड़ा होता है और माँ का पेट कोमल। वे संवाद पंजों से करते हैं और प्रेम पेट से। नदी के इस ओर वो इसी खोए प्रेम को खोजता हुआ चला आता है। आने के बाद वह यह जानने देखने के लिए इंतजार करता रहता है कि प्रेम माँ को कब और कैसे निगलता है। इस बार भी आधे रास्ते वह नाव में ही लटक कर आया फिर तैरने के लिए, पानी में कूद गया। आगे का आधा रास्ता उसे नाव को हराने के आनंद में बिताना था। जिंदगी से हारा वह, ऐसी छोटी-छोटी जीत में ही जिंदगी ढूँढ़ता रहता। नाव में मछुआरे मछली मारने निकलते पर वह निकलता उन आठ पैरों वाले इस विशेष प्रजाति के लाल केकड़ों को देखने, उनके साथ खेलने, फिर उन्हीं मछुआरों की मदद में लग जाता, जो बदले में उसे उसके खाने भर मछली खैरात समझ कर दे देते, जो कि उन दिनों उस अकेले के लिए काफी होता।
ग्यारह साल का असद, कंसार के पीछे खान बाबा की झोंपड़ी में अकेले रहता है। फुदकते भूंजे की फैलती खुशबू, उसके पेट में कूदते चूहे को और उद्दंड बना देती। उछल कूद मचाते चावल, चना, मकई के जिन दानों की बगावत उन्हें खपड़ी के बाहर फुदका देती, शाम ढलते वही दानें उस गरीब के नसीब में आ जाते। जब कंसारन शकीला आपा झाड़ू लगाते हुए उसको बुला कर हांक लगाती, तो लगता मानो चारा देने के लिए भैंस को हांक दे रही हो। हांक की पुकार में फुदकता असद अपने भीतर के हसद को पछाड़ता हुआ, चौड़ी मुस्कान के साथ बाहर से ही आवाज लगाता, “आपा हम फटक लें संभे।” सूप की संगीतबद्ध फटकन में उसके मन का गुबार गुम हो जाता और मछली भूजा उसकी खुराक का हिस्सा बन जाते। फटकते समय उड़ते काले बालू के धूल कण उसके चेहरे और बालों से ऐसे खेलते जैसे भाप इंजन वाली रेलगाड़ी के पहले डिब्बे में सफर करने वाले बच्चों का कौतूहल उनकी नजर से खेलता है। सूप फटकता तो चलनी उसे देख मुस्कराती और चलनी चलाता तो सूप पूछ बैठता कि मुझसे क्या गलती हो गई? अबोलों के साथ बातें करना उसे बहुत अच्छा लगता। इस एहसास के साथ वो एक दिन चलनी और एक दिन सूप को बारी-बारी से हँसने-खेलने देता। उस नादान के लिए जीवन का चलना भी इस चलनी के खेल का हिस्सा सा बन गया था, जिसे वह बहुत सहजता के साथ खेलता जा रहा था। भूंजा भूंजती आग की लपटों के साथ खपड़ी और भूंजौठी के तारतम्य में बजता संगीत, उसे अपना सा लगता, इसलिए जब कुछ करने का मन नहीं करता, तब वह वहीं बैठा उन लपटों को बस निहारता रहता। आग को निहारने में उसे आंतरिक सुख मिलता और उसे लगता जैसे आग जल नहीं रही, उसके दुःख को सोख रही है।
कंसार शहर के एक कोने में है, जहाँ से नदी दिखती है। नदी माने गंगा नदी। अपनी दिशा को बदलती नदी, सीधे सीधे चलते हुए टेढ़ी मुड़ती नदी। अपने किनारे के पेड़ों को प्रेम करती नदी। अंग्रेजों के बनाए हुए क्रिश्चियन स्कूल से उत्तर मुँह और पुराने किले के परकोटे के पश्चिमी हिस्से के बीच यह बस्ती, ऐसी प्रतीत होती जैसे बंजारों की कई पीढ़ियों की बसाई हुई उनकी अपनी ही बस्ती हो। कालांतर में मुंगेर के इस कोने में आ कर बंजारे सदा से वहीं के हो कर रह गए और अच्छा यह हुआ कि उन्होंने मछुआरों से दोस्ती भी कर ली। घुमक्कड़ी को विराम देने वाली यह जगह खुली ठंडी हवा और घने पेड़ों की छांह के कारण, खुद में एक रमणीय रूप लिए थी। घने पेड़ों की शृंखला के पार एक छोटा सा मंदिर और फिर सोजी घाट और उसी घाट से सटा पूरा दलदली इलाका। नदी के मुड़ने की शुरुआत यहीं आस-पास से होने के कारण मिट्टी यहाँ कट कर बहाव से खुद को बचाने का प्रयत्न करती दिखती, परंतु चंद्रमा के प्रेम में नदी जब भी उफनती तब किनारे की मिट्टी को भिगो देती, सूखने नहीं देती। इतनी रमणीयता के बावजूद पता नहीं कैसे, पर सच यही है कि शहर इस ओर नहीं फैल सका। कोई कहता, अंग्रेज गए तो इस हिस्से का हिसाब-किताब देना भूल गए और जमीन का असली हकदार अब कौन है, किसी को नहीं पता। बंजारों को बसने का ठौर इसलिए भी मिला होगा, शायद।
कस्बे के इसी हिस्से में असद का पिता मूसा भी रहा करता था। बंजारों के किसी झुंड के साथ मूसा भी कभी आया और यहीं का हो कर रह गया। मूसा मन से मलंग था। गीत गाते समय कबीरा बन कर गाता तो लगता कोई सूफी इन लोकरंगी रागों के साथ अपनी आत्मा की पूरी पवित्रता उड़ेल दे रहा हो। छः फुटिया, सीधी ग्रीक नाक, बाल घने घुंघराले, छाती चौड़ी, शरीर छरहरा। विशेष चमक लिए ललाट से अलग सी दिव्यता दमकती। वह अजीब सूफी था, शिव भक्ति में भजन के साथ मौला की नजर कव्वाली भी गाता और समय पर नमाज भी पढ़ता। अच्छी बात यह थी कि बस्ती वाले, बिना धर्म का भेदभाव किए उसी मतवाले रूप में उसे स्नेह करते। यह किसी को नहीं पता कि उसने मूर्ति बनाने की कला कब और किससे सीखी। कोई कहता मोगल बाजार के जाने माने रघु पंडित ने उसे शिष्य बनाया। रघु पंडित, कुबड़े होते हुए भी अपनी मूर्तिकला के लिए जगप्रसिद्ध थे। कोई कहता, मूसा मुसलमान है इसलिए पंडित जी उसे रात के पहर अकेले में मूर्ति बनाना सिखाते हैं। कहानी सच है या झूठ पर उसकी मूर्तिकला में रघु पंडित की झलक जरूर दिखती थी। कई लोग यह भी कहते कि दुर्बा से वह वहीं मोगल बाजार जाते हुए मिला था। दुर्बा तीन नंबर गुमटी के पीछे रहती थी, जो कि बंगाली मोहल्ले के अंत में पड़ता है। मुंगेर की यह जगह रेलवे लाइन के किनारे बसाया गया वो मोहल्ला है, जो बांग्लादेश से आए रिफ्यूजियों के रहने के लिए बनाया गया था।
दुर्बा बंगाली बाला, बिल्कुल गोल चेहरा मानो कंपास की त्रिज्या से खींची गई गोलाई हो। बड़ी-बड़ी आँखें जो जरूरत से ज्यादा या तो झपकती रहतीं या अक्सर आधी बंद रहतीं जैसे पोखर में धूप सेंकती सारस की आँखें हों, जिसे जब तक नहीं छेड़ो, खुलती नहीं। वह मुँह गोते हुए हमेशा चलती, पर जब भी चलती तो कमर की गोलाई के पास नृत्य होता सा प्रतीत होता। बाल घुंघराले हो कर भी इतने लंबे कि वहीं कमर के इर्द-गिर्द शरारत करते दिखते। दूधिया चेहरे पर फेनूस की ताजगी वाली मुस्कान हमेशा बनी रहती, लगता जैसे वह स्वयं भीतर कोई गीत गुनगुनाती चलती है, जिसकी झलक उसके चेहरे पर बिना बात के तिरती दिखती और लोगों को यह भ्रम होता कि वह शायद किसी और से बतिया तो नहीं रही है।
माधोपुर और मोगल बाजार जहाँ मिलते हैं उस रास्ते के दोनों छोरों पर दो नंबर गुमटी और तीन नंबर गुमटी के फाटक के बीच पूरा खुला रेलवे का हरा भरा सरकंडों का मैदान था, जिसके एक किनारे पर बंगाली मोहल्ला बसा हुआ था। दुर्बा अक्सर यहीं चुपचाप खुद में मगन बैठी दिखती। कई बार अपने घुंघराले लंबे बाल सुखाने के बहाने या फिर कभी यूं ही बच्चों को क्रिकेट या पिट्टो खेलते हुए देखती रहती। उसके पिता तीन नंबर गुमटी के पास के कलाली के सामने चाय की टपरी चलाते, जहां दुर्बा भी समयानुसार उनका साथ देती। कलाली में कच्ची शराब के साथ ताड़ी भी मिलती। चाय दुकान के ठीक सामने कलाली के होने का असर यूं हुआ कि पिता गिरी बाबू में सब गुण होते हुए भी एक अवगुण रह गया जो सारे गुणों पर भारी पड़ता, जम कर टुन्न होने तक शराब पीने का अवगुण। उन्हें लगता शराब उस चुभन भरी खाली जगह को भर रही है, जो दुर्बा के जन्म से जुड़ी है और जो उनकी पत्नी जानकी के इस दुनिया से चल बसने से निर्मित हुई थी। अक्सर उन्हें जानकी की तस्वीर से घंटों बतियाते हुए पाया गया। इन पलों की ज्यादातर गवाह मन मसोसती दुर्बा ही होती।
दुर्बा को सबसे ज्यादा पसंद था चुपचाप अपने पार्श्व को ताकना, आस-पास फैले जीवन को निहारना। भर आँख उजास लिए वो कभी बच्चों को ट्रेन के पहिए के नीचे सिक्के डालते हुए ताकती, ताकि सिक्का पहिए के नीचे आते ही पसरे और बच्चे खुशी से चौड़े हो जाएं, तो कभी बुजुर्ग अम्मा को बड़बड़ाते, बीड़ी पीते हुए देखती और उनके ललाट पर सुलगते अनुभव की लकीरों को निहारती, कभी बूढ़े मोची को दुनिया भर की अनिश्चितताओं के बीच पूरी निश्चिंतता के साथ ऊंघते हुए देखती, तो कभी मैदान में नन्हें पिल्लों को उल्टे मुंह अंगड़ाई लेते हुए चुपचाप निरखती। इन सब को निहारते-विलोकते हुए वो खुद को भी भूल जाती। उसे लगता, निहारना मिजराब की तरह उसके अंतस् के तार के साथ खेलता है और फिर स्वतः भीतर संगीत बज उठता है और फिर रोम-रोम पुलक उठता है। उसे लगता उसके भीतर फड़फड़ाते खाली पन्ने हैं, जिन पर नयनों से हो कर संचारित तरंगें, नई नई कविताएं लिखती रहतीं, जिन्हें गीत बना कर वो भीतर ही गुनगुना उठती और इसी गुनगुनाहट के साथ उसकी जिंदगी का सारा कषाय घुल जाता, यहाँ तक कि माँ की धुंधली छवि के विलोप होने की यादें भी! निहारने के संगीत का जादू है कि वह सबकी नजर में हर परिस्थिति में प्रसन्नचित्त दिखती। बल-खाती नहीं फिरती, बस बंद कमल की पंखुड़ियों की तरह सिमटी बैठी रहती और मंद-मंद मुस्कराती रहती!
उधर मूसा नदी किनारे मूर्तियाँ बनाने में ही खोया रहता, जिस घाट के पास उसकी बस्ती थी, उसी घाट पर मूर्तियों का विसर्जन भी होता था। जीवन और मृत्यु की तरह सृजन और उसके विलोप को वहाँ एक साथ देखा और महसूस किया जा सकता था। मूसा की बनाई हर उत्सव पर्व की मूर्तियाँ अब धीरे-धीरे शहर के हर हिस्से में जाने लगीं और इसी के साथ उसका नाम और यश भी फैलने लगा। मूसा को बंजारे वाली बस्ती से रघु पंडित के घर, यानी मोगल बाजार जाने के लिए, या तो कलाली के पास वाली तीन नंबर गुमटी से गुजरना होता, जहाँ गिरी बाबू की चाय की टपरी पड़ती या रेलवे के मैदान से होते हुए सीधे दो नंबर गुमटी होते हुए थोड़ा घूम कर जाना होता, जिस ओर बंगाली बस्ती बसी हुई थी, जहां दुर्बा का छोटा सा घर था।
दुर्बा का समय या तो अपने पिता की टपरी पर बीतता या मैदान में बच्चों को मूर्तिबद्ध ताकते हुए। मन से नहीं, पर समय की जरूरत और नजाकत को समझते हुए, दुर्बा चाय के चूल्हे पर भुट्टा भी भून देती, तो कभी लिट्टी भी बना देती। दुकान पर भी उसकी नजर सिर्फ चूल्हे की आँच पर होती, कौन कहाँ से आ रहा है और कहाँ को जा रहा है इससे उसका कोई मतलब नहीं रहता। मूसा की नजर उससे कभी सीधी-सीधी नहीं टकराई पर एक कोण बनाते हुए वह उसे यूं ताकता जैसे श्वान आधी नींद में अधमूंदी आँखों से देखता है। जनवरी की कुनमुनी सुबह थी, जब पहली कोणीय दृष्टि पड़ी थी उसकी, उसके चेहरे पर नहीं बल्कि उसकी कमर पर। कुनमुनाती गुनगुनी धूप के साथ अठखेलियाँ करता उल्टे आँचल का पल्ला, चाय-लिट्टी का सामान टटोलने बटोरने के चक्कर में खिसकता तो लगता बल-खाती कमर का हिस्सा नन्हें पिल्ले की तरह धूप में अपनी माँद से बाहर झाँक रहा हो, पसीने की बूंदें वहाँ मोती सी चमकतीं टघरतीं तो मूसा को लगता उसके दिल वाली छाती के हिस्से में कोई गुदगुदा रहा है और चलते-चलते ही वह स्वयं मुस्करा उठता। लोग समझते अजीब बंदा है, खुद ही खुद में मुस्कराता रहता है। एक तरफ कोण बनाते हुए निहारने का यह सिलसिला कोई छह महीने तक चला होगा, तब तक मौसम दो करवटें ले चुका था। हेमंत, शिशिर को चूमते हुए, वसंत में नहा कर, ग्रीष्म के अंतिम चरण पर भाद्रपद की आहटें सुनने को तैयार खड़ा था। दुर्बा मैदान में बादल को यूं ताक रही थी जैसे कोई पेड़ बारिश का इंतजार कर रहा हो और वह उस इंतजार को कुनमुनाहट के साथ भीतर महसूस कर रही थी। बच्चे सामने पिट्टो खेल रहे थे। आदतन वो उनको घुलती हुई नजरों से ताके जा रही थी, जैसे बच्चों नहीं कृष्णा की अठखेलियाँ देख रही हो। बच्चों की चहचहाहट में उसके प्राण बसते थे। उस पल वो अपने बाबा गिरी बाबू के लाख बुलाने पर भी टस से मस नहीं होती। उस दिन ठीक शाम ढलने से पहले बादलों ने खुद को प्रेम किया और प्रतिफल में बिजली कौंध गई। अचानक की इस गरजन में मेघ और मल्हार दोनों की जुगलबंदी शामिल थी। सोंधी मिट्टी की खुशबू से मिल कर ठंडी बूंदों की फुहार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। तपती देह से टकरा कर बूंदों ने मन और धरती पर एक साथ मादकता की अलग ही तान छेड़ दी। दुर्बा, जो कभी सर नहीं उठाती, हमेशा संकोची दृष्टि जमाए नीचे ताकती चलती या फिर बैठे-बैठे भी अपने पैर के नाखून से मिट्टी कुरेदती रहती, अचानक अनायास मोर बन नाचने लगी। सारे बच्चे इस अकल्पनीय दृश्य को देख पिट्टो को भूल उसकी चारों ओर घेराबंदी करके घूमने और थिरकने लगे। लगा, जैसे मधुमती की वैजयंती माला जंगल और पहाड़ के बीच से निकल सुध-बुध खोई नृत्य में मगन है। सीधे पल्ले की साड़ी सुराहीदार कमर से बल खा कर बातें कर रही थी। धीरे-धीरे धारदार बारिश की बूंदों ने साड़ी का थिरकना बंद कर दिया। अब शरीर और साड़ी एकमय थे। बूंदें नदी की धारा बन हर कटाव से गुजरते हुए अंग-अंग में आग भर रही थीं। नाचने के भाव ने दुर्बा को 'मधुमती' से 'गाइड' फिल्म की रोजी बना दिया। भावांतरण के ठीक इसी क्षण में मूसा की तिरछी नजर सीधी हो गई और उसने खुद को दुर्बा की हथेली में अपनी हथेली डालते पाया। उंगलियाँ सर्पपाश सी लिपटीं, उन दोनों के वश में अब कुछ भी नहीं था। नजर की बात आँखें सुन रही थीं और प्रेम मौन में डूब मन-भावन संवाद कर रहा था। बिजली आसमान में ठीक उसी समय कड़की जैसे इस अबोले प्रेम का स्वागत गान कर रही हो। उस कौंध में पहली बार भीतर एक साथ दोनों ने राग मधुवंती सुना और उस कौंध की उजास में एक दूसरे की पूरी सूरत भी दोनों ने पहली बार ही देखी। मूसा को लगा, जैसे मूर्तिकार को सपनों को सच करने का साँचा मिल गया हो। उधर दुर्बा को भी इल्हाम हो गया कि उसकी कमर पर रेंगती तिरछी नजर की ऊष्मा इन्हीं नजरों से अता होती आ रही है, जो अब सीधी हो कर सीधे दिल को प्रकाशित कर रही है। दोनों को यूं मूरत बने देख बच्चे खिलखिला कर हँस पड़े और ऐसा होते ही उन मूर्तियों में जैसे अचानक जान वापस आ गई। झटके से दोनों झेंपते शर्माते हुए विलग गए। दुर्बा अब भी वहीं खड़ी थी पर पल भर में मूसा दौड़ता उछलता रेलवे मैदान पार कर गया। पहली बारिश आसमान ने की थी और अब दूसरी आँखों ने। प्रेम चार आंखों में एक साथ जुदा होते हुए छलछला रहा था, पर यकीनन ये खुशी के आँसू थे!
चाय की दुकान का एक शॉर्टकट रास्ता रेलवे लाइन के समानांतर होते हुए बंगाली टोला तक जाता था। दूसरा रास्ता थोड़ा घूम कर, सड़क से गली और गली से नाला होता हुआ, मुहल्ले में उसके घर तक आता। कच्ची शराब जब चढ़ती है तो झूम कर सिर चढ़ कर बोलती है। गिरी बाबू रेलवे लाइन के रास्ते ही घर आते थे। कलाली बंद होते-होते रात का बारह तो बज ही जाता। जब वे घर पर लौटते, उससे पहले ही दुर्बा खाना की थाली परोस कर, ढक कर बगल में गिलास भर पानी रख कर एक बोरा बिछा देती। गिरी बाबू आते और खाना खा कर चित्त हो जाते। दुर्बा जल्दी उठती, उसे उगते हुए सूरज की लालिमा से बेहद प्यार था। सुबह उठ कर दुकान खोल कर चूल्हा बाल देती। गिरी बाबू मूढ़ी चना चाय खाते, दुकान आते और रात तक वहीं पर टिके रह जाते। दुर्बा दोपहर तक सब व्यवस्था कर के घर लौट आती। कलाली की भीड़ को तो शाम से रात तक चलना होता। शाम तक उसे वहाँ ठहरना पसंद नहीं था। शाम का समय वो मैदान में बच्चों को निहारते हुए ही काट देती। शाम की इसी बेला में जब वह नाले के मुंडेर पर बैठ, डूबते सूरज और चेहरों की उगती मुस्कानों को देखने में बिता रही होती, ठीक उसी पल एक और शख्स की नजरें अपनी खिड़की से चुपचाप उसे निहारती रहतीं। वह जे.आर.एस. कॉलेज में बी. ए. में पढ़ रहा था। मन से चित्रकार था और जिद मूर्तिकार बनने की थी। रघु पंडित जी का एक नंबर वाला पक्का शिष्य। कविताएं भी लिखता, पर सुनाता सिर्फ खुद को। हर बात की हिचक रहती उसे। मुहल्ले वाले भितरघुन्ना कहते उसे। सुधाकर बनर्जी नाम था उसका। पिता चुन्नी घोष बाबू दमकल आईटीसी फैक्ट्री में मशीन ऑपरेटर थे। बांग्लादेश से आया परिवार था। शुद्ध ब्राह्मण। बांग्ला साहित्य और हिंदी साहित्य दोनों पर अच्छी पकड़ थी, बाप बेटे दोनों की। माँ बचपन में ही दोनों को छोड़ कोलकाता किसी और बनर्जी के साथ चली गई थी। मां गाती बहुत अच्छा थी। उसके अपने सपने थे, पर सपनों को किसी और ने पंख दिखाए। दमकल की चाकरी के सीमित संसाधनों में उसका दम घुटने लगा और लगा संगीत और राग का भी दम चूल्हा फूंकते हुए निकल न जाए, यही सोच कर गौतम बनर्जी तबलची के स्नेह भरे स्पर्श ने उसे कोलकाता के बड़े फलक का सपना दिखा दिया और चिड़िया आसमान की ओर फुर्र से उड़ गई। सुधाकर की उम्र उस समय चार साल की रही होगी। चुन्नी बाबू सीधे-साधे संत आदमी थे। सुधाकर को माँ-बाप दोनों का प्यार दिया। चुन्नी बाबू हद दर्जे के हार्डकोर कम्युनिस्ट थे। शुरू से दमकल यूनियन के महत्वपूर्ण सदस्य भी थे। धीरे-धीरे सामाजिक पटल का बदलाव और बिहार में कम्युनिस्ट मित्रों का अन्य राजनीतिक दल के साथ आगे निकल जाने की लगातार की घटनाओं ने उनके मन और सोच को भीतर से बदल डाला। अब वे अपने बेटे के भविष्य को ले कर बेहद सजग हो गए थे। बेटे को पढ़ाना लिखाना और सपने दिखाना यही उनकी दिनचर्या में रह गया था। जब वामपंथ को छोड़ा तो धर्मपंथ ने जकड़ लिया। मंदिर जाना तो पत्नी के कोलकाता जाने के बाद से ही शुरू हो गया था। बेटा भी उन्हीं के दिखाए रास्ते पर चलने लगा। मोगल बाजार चतुर्भुज स्थान होते हुए वे दमकल जाते तो रघु पंडित जी के यहाँ और फिर संगीतकार सूत जी महाराज के यहाँ बच्चे को पढ़ने के लिए छोड़ते हुए जाते। चतुर्भुज स्थान के प्रांगण में चल रहा भक्ति संगीत बच्चे को बहुत आकर्षित करता। अंतर्मुखी बच्चा समय के साथ साथ भक्तिमय संगीत और कला में डूबता हुआ बड़ा होता गया।
बंगाली टोला में रहते हुए वह दुर्बा को चुपचाप सुबह शाम ऐसे निहारता रहता कि दुर्बा को इसका कोई एहसास भी न हो सके। उसे वो ऐसी मूर्ति लगती, जिसे वो दोबारा खुद से गढ़ना चाहता और गढ़ने के लिए एक स्पर्श मात्र की चाह, कसक बन कर उसके मन में चुभती रहती। वो इस इंतजार में ही जी रहा था कि किसी शुभ दिन दुर्बा से खुल कर कह सके अपने मन की सारी बातें। उसके अंदर के डर को स्वावलंबी होने की बैसाखी चाहिए थी और इस इंतजार के बीच वह शाम आ गई, जब मेघ गर्जन और बारिश मिल कर दुर्बा और मूसा के प्रेम का सुंदर स्वागत कर रहे थे। वही कौंध उल्टे बिजली बन कर सुधाकर के ऊपर गिर पड़ी, जो उस दिन उस अद्वितीय अलौकिक अबोले प्रेम का अदीठ साक्षी बन, अजाने छोटकी पुलिया पर बैठा दोनों प्रेमियों को एक दूसरे को मंत्रमुग्ध देखते हुए बस अनियंत्रित ताके जा रहा था। उधर मूसा हिरण के कुलांचे भरता मैदान के पार हुआ, इधर सुधाकर के शरीर के भीतर एक अबूझ ऐंठन ने सर्पपाश की तरह उसके शरीर के साथ मन-मस्तिष्क को भी कसना और भींचना शुरू कर दिया। प्रेम को डाह बनने के लिए ईर्ष्या का बस एक पल ही चाहिए होता है। रात भर वो चोटिल गेहुंअन बन बिस्तर पर तड़पता रहा।
उस रात की सुबह भी अजीब थी। शॉर्टकट सच में शॉर्टकट ही निकला। गिरी बाबू का पटरी के बगल वाले शॉर्टकट रास्ते से लौटना, शराब में डूबे डगमगाना, गिरना या कुछ और? अंत यही हुआ कि अपनी बेटी की अधूरी पुकार लिए रात के उस शून्य से भरे निर्वात में एक भीषण दबी हुई चीत्कार, जो उनकी आंखों में ही दबी रह गई और उस रुकी हुई पुकार के साथ उनका पार्थिव शरीर पटरी के किनारे पड़ा मिला।
इस अचानक घटी घटना ने सुधाकर की ऐंठन को कुछ देर के लिए कम कर दिया। उसे लगा दुर्बा अब बिल्कुल अकेली रह गई है और उसे एक योग्य साथी की जरूरत है न कि किसी भटकते मलंग की। उधर विक्षिप्त दुखों के पहाड़ में दबी दुर्बा को संभालने मूसा सुबह-सुबह ही आ चुका था। अंत्येष्टि के साथ सारे कर्मकांड, गरुड़ पुराण पाठ सब तेरह दिन में खत्म हुए और इन तेरह दिनों में एक भी पल मूसा ने दुर्बा को अकेले नहीं छोड़ा। यह सब देख सुधाकर के भीतर की सर्पीली ऐंठन उसे अब और कसने लगी। उसने पाया कि तेरह दिन के बाद गिरी बाबू का घर खाली पड़ा है ठीक उसके खाली हाथ की तरह। सामने के पेड़ पर अब उसे एक भी चिड़िया नहीं दिख रही थी। खाली हाथ दिमाग की नसें भी कसने लगता है। पूरी रात उसकी नजरें उसके घर की छत से दुर्बा के घर के आंगन की आहट टटोलती रही।
उधर दुर्बा ने जैसे ही मूसा की झोंपड़ी में कदम रखा, सामने चावल के छोटे से मटके से उसका पैर टकराया, आलता की थाली पर अदेखे दूसरा पैर पड़ा, वह गिरती-गिरती बची। ठीक उसी पल में उसका हाथ एक मजबूत हाथ ने संभाल लिया, जिसके स्पर्श में सुसुम नरमी थी। अगले ही डेग पर उस घुप्प अंधेरे में घिरी झोंपड़ी के भीतर आती ढलती शाम की उगती चंद्र किरण उसे एक मूर्ति पर पड़ती दिखी, जो सिर्फ उस मूर्ति के चेहरे के मस्तक पर पड़ रही थी। कुटियानुमा घर के भीतर सब कुछ अदीठ था, मूर्ति के चेहरे को छोड़ कर, जिसके मस्तक पर वह सीधी आती चांदनी की रोशनी अपनी बिंदी बना रही थी, जिसने उसी पल दोनों के दिल को भी बींध दिया, जिसके मीठे दर्द में उस लड़खड़ाती लड़की ने सामने मूर्तिस्वरूप साक्षात खुद को पाया। प्रतिमूर्ति और मूर्ति आईना का भ्रम पैदा कर रही थी। इस अकल्पनीय नजारे को देख उसकी आँखें छलछला गईं, जिसे मूसा की छाती ने अविलंब सोख लिया। वह रात गुरु पूर्णिमा की रात थी। खिड़की खुलते ही नदी का पूरा कपाट खुला दिखा, जिसके ऊपर झुकता हुआ पूर्ण चंद्रमा इस झोंपड़ी की खिड़की से झांकते खुले लहराते बाल के बीच में खिले चाँद को देख ईर्ष्या कर रहा था। उसने अपनी ही मूर्ति को अपनी देह समझ कर हर एक अंग को छुआ, महसूस किया जैसे ऐसा करते हुए वह खुद के खालीपन को भर रही हो, खुद को पा रही हो, खुद को बना रही हो, अपने अंदर की टूटन की मरम्मत कर रही हो। थोड़े समय के बाद जब वह उठी और पलटी तो मूसा को एकटक देखते हुए पाया, जिसकी आँखों से लगातार खुशी की धार बह रही थी। दुर्बा के मन ने उसी पल उसे संपूर्ण पी लेने के लिए उछाल मारा, पर उससे पहले कि कुछ बिजली की तरह घटता, मूसा उसी बिजली की गति से झोंपड़ी के बाहर निकल आया। वहाँ एक अबोला इशारा दुर्बा को बाहर जाने के इशारे कर रहा था। वह चुपचाप मूसा के पीछे-पीछे चलती चली जा रही थी। सामने डोंगी थी और डोंगी पर बैठते ही वह चप्पू का संगीत सुनने लगी। मूसा की हर हरकत में एक अद्वितीय लय थी, बस उसे बोलना नहीं आता था, वहीं दुर्बा के पास अबोलों को सुनने की कला थी। चप्पू से उठता संगीत दोनों को समान रूप से मोहित कर रहा था। उस रात सब कुछ अबोले घट रहा था और मौन प्रेम की भाषा बन मुस्करा रहा था। उस पल दोनों डोंगी में लेटे उंगलियों को लता की तरह लिपटाए आसमान की ओर स्वप्न दृष्टि की तरह देख रहे थे। उनके भीतर चाहना का जलप्रपात फूट रहा था, जिसे मौन के बांध ने अब तक संभाले रखा था। मन की हिलोरें यूं उठ रहीं थीं जैसे चंचल नदी अभी पत्थरों से लिपट कर प्यार कर ले, जैसे चाँद को झुला कर लहरों को संतोष मिलता है। डोंगी नदी में हौले-हौले झूले की तरह तृप्तिगान गाते हुए डोल रही थी। लग रहा था अर्ध चंद्र मूसा पूर्ण सूरज दुर्बा में खुद को विलीन कर लेना चाहता है। डोंगी में अर्ध चांद की चांदनी और सूर्य मुस्कान की रोशनी के मिलन की चाहना से उत्पन्न लोमहर्षक कंपन से उठा असंतुलन, संतुलन की धार से मिलने को व्याकुल हो उठा और पल भर में ही दोनों ने डोंगी को छोटे से दोआबा से टिका पाया। बिल्कुल गोल वर्तुल सा दोआबा और उसके केंद्र में सफेद महीन मुलायम रेत पर लेटे दो बदन। सूरज अब चाँद के परकाया प्रवेश की ओर अग्रसर था और उधर चांद अपनी संख्या बढ़ाए जा रहा था—एक आसमान में, एक दोआब खुद और एक संगमरमर की मूर्ति बनी दुर्बा। भुरभराती, भसकती मुलायम गुदगुदी रेत आग में घी का काम कर रही थी। तीनों चाँद की अठखेली में एक मूर्तिकार की उंगलियाँ कितनी देर खुद को रोक पाती। संयम मौन से बार-बार लिपट कर लहरों की तरह हिचकोले खा रहा था। आँख से आँख के मिलन की बिजली, शरीर को सानुपात असीमित कंपन में बदल रही थी। गंधर्व आशीष दे रहे थे। प्रेमी एक दूसरे को साक्षी मान चुके थे। प्रेम के ऐसे अलौकिक क्षण में समय की रेत-घड़ी झट से पलट जाती है और न जाने क्यों रात को सुबह बनने में तनिक देर नहीं लगती। चहुंओर छाई लालिमा में अनावृत तन और मन दोनों एक दूसरे को खुली किताब की तरह पढ़ रहे थे। टापू पर प्रेम ने एक पूरा संसार रच दिया था। उस प्रेम संसार में वे दोनों अब रेत में खिले ब्रह्मकमल थे।
अलौकिक प्रेम अब दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था उन दोनों के लिए। दिन में कभी दुर्बा नदी से किनारे लगे पेड़ों के झुंड से फूलों को चुनती और अपनी झोंपड़ी के कोने को खूबसूरत मंदिर में बदल देती तो कभी रात में उसी जंगल में इधर-उधर उड़ते टहलते जुगनुओं के समूह को आंचल में समेट कर बंद कुटिया में मूसा के चेहरे के सामने अचानक खोल देती और फिर उसके चेहरे पर तैरती चौड़ी मुस्कराहट को तकती रह जाती। झोंपड़ी के भीतर रात का आकाश बिछ जाता, चांद का उस आकाश में डूबना तय था।
अबाध प्रेम के रस में डूबा साल कब बीतने को आया उन्हें पता ही नहीं चला, दुर्बा अब मिट्टी पहचानने और उसे मथने में पारंगत हो चुकी थी। मूसा की प्रसिद्धि द्रुत गति से फैल रही थी। प्रेम जब कला से मिल ले तो सृजन को सार्थकता मिल जाती है। लग रहा था संसार भर का सुख उनके आंगन में नृत्य कर रहा हो। ऐसे में जब साथ काम करते हुए दुर्बा के बालों और गालों में मिट्टी सन जाती तो अपने हाथ और उसके गाल दोनों को साफ करने वे गंगा में एक साथ कूद जाते। यूं जीवन की नदी इत्र की सुगंध के साथ बह उठती। पानी प्रेम में थोड़ा और मीठा हो जाता।
उधर बंगाली टोला के एक कमरे में खंडित मूर्तियां बिखरी पड़ी थीं। एक पुजारी को इतना तो पता ही था कि खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं होती। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। साधक की जलती आँखों की दीप्ति ने मींचना शुरू कर दिया था। विक्षिप्त सुधाकर ने अपनी पढ़ाई लिखाई, पंडित जी का साथ सब छोड़ दिया था। शहर में एक मूर्तिकार की ख्याति दूसरे मूर्तिकार की डाह का कारण बन चुकी थी। पिता चुन्नी बाबू से यह सब देखा नहीं जा रहा था। सुधाकर ने अपना घर छोड़ दुर्बा की ही खाली खोली में रहना शुरू कर दिया। बीच-बीच में वह चुपके से गंगा घाट की ओर छुप छुपाए जाया करता। नदी के साथ की अठखेलियों के बीच अंधेरे में अपलक दो आंखें सुराख बनाने की कोशिश में बस घूरती रहतीं, मन मसोसती, पर उन्हें बींध नहीं पातीं। असंतोष और ईर्ष्या दोनों खाली हाथ लौट आते वापस उसी खोली में!
समय ने जल्द मूसा को दो के संग तीसरे की आने की सूचना दी। दोनों की खुशी पलकों में समा नहीं पा रही थीं। मूसा एक पल को अब दुर्बा को अकेले नहीं छोड़ता। बस्ती को भी इस खुशी की खबर हो चुकी थी। समय-समय पर औरतें दुर्बा को देखने आती रहतीं। आठवां महीना पूरा होने ही वाला था, सबको लग रहा था कि कब नौवां महीना पूरा हो कि एक और चांद इनके आंगन में खिले। नवांकुर के खिलने की खबर के साथ ही दोनों पूरी बस्ती के दुलारे बन गए थे। मूसा की बस्ती मुस्लिम बहुल होते हुए भी ब्राह्मण दुर्बा को पूरी तरह अपना चुकी थी। सब समझ चुके थे कि उन दोनों के लिए प्रेम ही एकमात्र धर्म है और अब उसी प्रेम ने सबको एक दूसरे से जोड़ रखा था। बस्ती में एक कोने पर, एकांत में, उन दोनों का घर होने पर भी अब चहल-पहल बढ़ गई थी।
यह अक्टूबर 1989 का समय था। चंदेरी और लोगान बस्ती के दंगों की लपटें भागलपुर से निकल आस-पास में बहुत तेजी से फैल रही थीं। मुंगेर के कुछ हिस्सों में मुस्लिम बहुलता थी, जिनमें प्रमुख हैं नीलम सिनेमा के इर्द-गिर्द मुर्गिया चक से ले कर गुलजार पोखर और सोजी घाट के उत्तर में बसी यह बस्ती। बस्ती में सिर्फ झोपड़ियां थीं, कोई पक्का मकान नहीं था। उस रात चांद भी गुम था। बिना अमावस्या के अपनी खिड़की से चांद को न देख दुर्बा की बेचैनी ज्वार की तरह उफान मारने लगी। अचानक पेट में दर्द हुआ और उसकी चीख में मूसा की जान अटक गई। मूसा रिक्शा-रिक्शा पुकारते हुए जैसे ही बाहर निकला तेज आग का झोंका ठीक उसके दरवाजे पर भभक पड़ा। तीन-चार साये अपनी मशाल लिए एक ओर से कतारबद्ध झोंपड़ियों को आग के हवाले किए जा रहे थे। मूसा अपने आपको संभालता उसके पहले उसकी छत भड़भड़ाने लगी। पलक भर की देर हुई और दुर्बा की साड़ी ने आग को छू लिया। मूसा ने अल्लाह का नाम लिया और जलती साड़ी के साथ दुर्बा को गोद में उठाए हुए घर से बाहर निकल आया। निकलते ही पूरी झोंपड़ी भरभरा कर नेस्तनाबूद होते हुए उनके सामने देखते-देखते राख में बदल गई। मूसा ने साड़ी की आग पर तो काबू पा लिया पर दर्द पर काबू नहीं पा सका। आग ने उस जगह की चमड़ी उधेड़ दी थी जो मूसा को दुर्बा के चेहरे से भी ज्यादा प्रिय थी, नदी की लोच लिए लचकती कमर अब मुरझाए फूल सी जलन के साथ सिकुड़ रही थी। मूसा उसे गोद में उठाए बेतहाशा भागा जा रहा था बिना अपने हाथ का ख्याल किए जो आग के भभके में सुलझ गया था। चारों ओर के कोहराम में सब इधर-उधर भागते नजर आ रहे थे। दुर्बा को गोद में उठाने के लिए उसे कमर के उसी हिस्से से पकड़ना था जहां का चमड़ा झुलस कर अब सुर्ख कीचड़ में बदल गया था। मूसा के हाथ में भी जख्म अब लहक रहे थे, जिसका इल्म उसे उस समय तक कतई नहीं था। तभी ईश्वर ने पड़ोसी खान चाचा को उन दोनों के पास भेज दिया। खान चाचा अपने सब्जी के ठेले को लिए लौट रहे थे। उसी ठेला पर दुर्बा के तड़पते शरीर को लिटा कर मूसा बिना सांस की परवाह किए दौड़ता, धकेलता भागता चला जा रहा था। खान चाचा बहुत दूर पीछे छूट गए पर सुस्ताते हुए भी पीछे-पीछे आते रहे। अबूझ रात में इस बीच अपलक दो आंखें दूर तक सुराख बनाती हुई इस पूरे दृश्य का पीछा करती रहीं। मशालें अब बुझ चुकी थीं, पर आंखें अब भी जल रही थीं।
अल्लाह का शुक्र था कि अस्पताल के गेट पर ही डॉक्टर इंचार्ज निकलते हुए मिल गईं और दोनों की बिगड़ी हुई स्थिति को देखते ही लेबर वार्ड की तरफ ले जाने का इशारा ड्यूटी नर्स को कर दिया। डॉक्टर बनर्जी उस समय शिफ्ट ड्यूटी पर मौजूद थीं और दुर्बा बंगाली बाला है, जानते ही उनका प्रेम और उमड़ पड़ा। चोट के बावजूद मूसा पूरे समय लेबर रूम के बाहर टहलता रहा। समय घड़ी की टिक-टिक को धक-धक में बदले जा रहा था। कुछ समय बाद खान चाचा भी हाँफते हुए आ पहुंचे। करीब दो घंटे बीते होंगे, रात के ठीक बारह बज कर तीन मिनट पर एक हृदय विदारक चीख उठी और फिर एक पूर्ण शांति के लघु अंतराल के बाद बच्चे के रोने की खुशहाली लिए आवाज पूरे कॉरिडोर में गूंज उठी। डॉक्टर जब बाहर आईं तो न चाहते हुए भी खुश होने के बजाय भड़भड़ा कर रो पड़ीं। उनके मुख से बस यही निकला—“छेले टा खूब भालो आच्छे, बोउ के बचाते पारी नी।” वह आंचल से मुंह को दबाए सीधी दिशा में निकल गईं। बच्चा मृत मां के शरीर के साथ खेल रहा था। पयोधर उस समय उसका खिलौना था। इस अचानक के झटके ने मूसा को पत्थर में तब्दील कर दिया। ईश्वर की आराधना और सच्चे प्रेम का ऐसा सिला, सोचते ही उसकी नजरों से चिंगारियां बरसने लगीं। चिंगारियों ने सोचने की शक्ति को हर लिया और विक्षिप्तता अपना दायरा तेजी से बढ़ाने लगी। जिस ठेले पर दुर्बा के तड़पते शरीर को ले कर आया था उसी ठेले पर अब मृत शरीर था जो अब उसे पहले से कई गुना भारी महसूस हो रहा था। मृत शरीर की आंखें अब भी अधखुली, अपने चांद को ढूंढ रही थीं।
बच्चा अस्पताल में छूट गया था, जिसे खान बाबा अपने साथ ले कर बस्ती की ओर निकल गए। अंत्येष्टि करते समय पत्थर हो गईं उसकी आंखों से एक बूंद पानी नहीं टपका। यहां तक कि पलकें भी झपक नहीं मार पा रही थीं। उधर खान चाचा बच्चे को ले कर इंतजार करते रह गए, पर मूसा की कोई खबर उन्हें नहीं मिली। सच यह है कि वो फिर कभी लौट कर नहीं आया। उसके लिए तो बेटा उस लाल केकड़े की तरह निकला, जिसको जन्म देते ही मां मर जाती है। इसे संयोग कहें या साजिश कि उस दिन के बाद सुधाकर भी मुंगेर में किसी कोने में नहीं दिखा। यह संशय बना ही रहा कि किसने अपना बदला किससे लिया?
वही बच्चा खान बाबा के जिगर का टुकड़ा बन गया, जिसका नाम बाबा ने असद रखा। देखते ही देखते सोजी घाट के उत्तरार्ध वाली बस्ती भीषण अग्निकांड के बाद फिर से मशरूम की तरह वापस उग आई। अब खान बाबा असद के पिता हैं और गंगा नदी मां। चुभते कटाक्ष उसकी रोजी-रोटी। बचपन से उसको यही सुनना पड़ा कि जन्मते ही मां को खा गया फिर बाप पागल हो गया। पता नहीं जिंदा है भी या नहीं। असद भी अपनी मां और पिता की तरह ही कम बोलता था, बस अपनी पैनी नजर खुली रखता। स्मरण और दृष्टि उसके साथी थे। सब्जी बेचने जाते समय खान बाबा उसको अपने साथ ले जाते। दियारा के पार की सब्जी खास कर परवल के साथ तरबूज और खरबूज को भी बाबा अन्य सब्जियों के साथ करीने से सजा कर घूम-घूम कर आवाज लगा कर बेचते।
खान बाबा ने छह साल तक असद का साथ दिया। अपने बच्चे की तरह उसे पाला, पर होनी को असद की जिंदगी में आशीष भरे हाथ ज्यादा दिन के लिए मंजूर नहीं थे। एक दिन अचानक तड़के सुबह जब आढ़त से सब्जी खरीद कर खान बाबा लौट रहे थे, मौसम में धुंधलका छाया था। ठेला बस्ती के ठीक सामने वाले गोलंबर को पार करते हुए ट्रक से टकरा गया और ट्रक के नीचे पिसते तड़पते खान बाबा को नन्हे असद ने अपनी आंखों से देखा। उस तड़पती हुई बेचैनी में भी मानो खान बाबा असद के लिए फ़िक्रमंद थे और ऐसा लग रहा था कि जाते हुए भी वे असद को दुआएं देते जा रहे हैं।
समय का सूरज अब उसके लिए कुप्पी सा भकभका रहा था। खान बाबा को दफनाने के बाद बस्ती वालों की नजर असद के प्रति और टेढ़ी हो गई। मां बाप के बाद अब खान बाबा का जाना, तोहमत के उस सिलसिले की आग में घी का काम कर रहा था। इन सब के बावजूद असद के मुख पर रत्ती भर की परेशानी आती नहीं दिखती। उसका मासूम चेहरा हमेशा हर हाल में मुस्कराता दिखता। अब नन्हा असद खान बाबा की बहन कंसारिन शकीला आपा के घर झाड़ू लगाने और बचे हुए भूंजे बटोरने में लगा रहता। इससे इतर मछली मारना, नाव पर घूमना, दिन भर पानी में तैरना यही अब रोज की दिनचर्या में शामिल था। दिन भर टऊआता और रात में खान बाबा की झोंपड़ी, जो कि ऊपर से आधी खुली थी वहीं लेट जाता। आसमान उसके लिए खिलौना बन गया था। खुला आसमान उस अनपढ़ की स्लेट थी, जिस पर मूर्तिकार का बेटा ख्वाबों की कूची से चित्रकारी करते-करते सो जाता।
कंसारिन की अकेले की जिंदगी थी। प्रेम के किसी पल में मिले धोखे ने उसे पत्थर-दिल बना दिया था। असद उसके लिए खान भाई की निशानी नहीं, बल्कि फटकने, साफ करने का औजार मात्र था। कंसार का काम चूंकि शाम को ही चलता, तो सुबह से ले कर लगभग दोपहर तक उसका मन गंगा की लहरों को ताकते खेलते बीतता। उसकी मछुआरों से दोस्ती भी यहीं हुई थी। केकड़ों और मछलियों से दोस्ती भी यहीं सीखा उसने। जीवन में भूंजे का महत्व उसे पता चल चुका था। तपती रेत से गुजरते हुए कैसे दाने अपनी शक्ल बदल लेते हैं और ताप से सोंधे हो जाते हैं—यह उसके लिए सिर्फ विस्मय का विषय ही नहीं, बल्कि विषमता में भी सकारात्मक बने रहने का संदेश भी था। तपती, कोसती हुई आंखों के बीच खुद को सोंधा बनाए रखने की पुरजोर कोशिश में समय बीत ही रहा था कि किसी की बुरी नजर लग गई। शकीला आपा कैसी भी थी कम से कम पेट की भूख का ख्याल तो रखती ही थी। मेहनत के बदले प्यार नहीं पर दानों से भरी मुट्ठी की आश्वस्ति तो थी ही वह। इस सिलसिले को भी नजर लगनी थी। हर बार की तरह एक बार फिर अमावस्या के बिना चांद को गुम होना था। उस रात कंसारिन को सोते में सांप का काटना उसकी जिंदगी में दंश के साथ नया तूफान ले कर आया। मां-बाप, खान चाचा और अब आपा। फेहरिस्त खत्म ही नहीं हो रही थी। इधर कमबख्त असद है कि सच में शेर का जिगरा लिए है। न रोता और न ही दुःखी होता। दुःख उसके लिए जैसे अनुभव भर हो। बड़ा दुःख, बड़ा अनुभव! पर इधर कुछ दिनों से उसके भीतर एक डर जरूर बैठा है, जो अपनी पींगें बढ़ा रहा है। एकांत में एक स्याह साया उसे घेर लेता, कहता सिर्फ मैं हूं जो तुमसे प्रेम कर सकता हूं, कोई और तुमसे प्रेम करे यह मैं होने नहीं दूंगा! तब उम्र के साथ उसका डर और उस साये का साथ बढ़ता गया। अब लड़ाई मुस्कान और डर के बीच की थी। अब तक हालांकि मुस्कान डर पर हावी रही। बढ़ती उम्र ने उसके मन के भीतर निर्णय लेने की सूझ दी। तेरहवां साल लगा ही होगा। एक दिन सुबह की किरण का इशारा था या उसकी मुस्कान और डर के बीच के द्वंद्व का असर, सुबह तड़के गंगा माई को अरग चढ़ाया फिर सूरज बाबा को प्रणाम कर असद डर के बढ़ते दायरे से बचने की कोशिश में एक अनजान ट्रक के पीछे वाले डाले पर लटक गया। इधर कुछ दिनों से उसे सपने में भी कांटे उगते दिख रहे थे, जिस पर चलते हुए मुस्कान के फूल मुरझाने लगते। उस मुस्कान को बचाने के लिए उसने अचानक एक त्वरित निर्णय लिया और चलती ट्रक से लटक गया। ट्रक में बालू लदा था, जिसके साथ गंगा किनारे खेलते हुए ही तो वह बड़ा हुआ था। रेत पर लेटते ही उसे पालकी पर सोने का अहसास हुआ और नींद कब आ गई उसे पता ही नहीं चला। नींद तब टूटी जब ट्रक के ड्राइवर ने ‘बराकर’ बंगाल बॉर्डर के ठीक पहले काले खां ढाबा पर ब्रेक लगाई। रात की सुगबुगाहट होने को थी और शाम अभी बस ढली ही थी। ड्राइवर को आठ बजे आसनसोल बंगाल एंट्री पॉइंट खाना खा कर पार कर जाना था। वह हाथ मुंह धो कर खटिया पर बैठ गया। उस ढाबे की परंपरा के अनुसार चखना और देसी अद्धा दोनों पटरा पर रख दिया गया। उधर असद को ऊपर से ही सड़क से नीचे उतरती कुतूहल की पगडंडी दिखी, जिस पर ढेर सारी रेत गिरी हुई दिखी। रेत के इस नैसर्गिक प्रेम और उसके पुराने नदी वाले अनुभव के सान्निध्य ने उसको इशारा किया कि यहां आस-पास में नदी है तो जरूर। असद खुद को रोक नहीं पाया और पगडंडी पर उतरता चला गया। थोड़ी दूर चलते ही उसे लगा जैसे ईश्वर के इशारे से उसका प्रिय स्थान उसे मिल गया हो। वही नदी, वही बालू और वही चांद! बीते दिन जो चांद उससे छुप गया था वो आज पूरी तरह खिल कर सामने से रास्ता दिखा रहा था। असद ने आव देखा न ताव, नदी को सामने देखते ही अगले ही पल भरी चांदनी में उसने अंगा पैंट उतार कर सीधे छलांग लगा दी। तैरा, डुबकी लगाई और फिर पेट भर कर पानी पीया, पीते ही दामोदर और गंगा नदी के पानी के अंतर को साफ महसूस भी किया। बराकर नदी का पानी गंगा से बहुत अलग लगा उसे। पानी थोड़ा भारी और कम मीठा लगा। पानी के उस अंतर ने उसे उस जगह का ठीक से मुआयना करने के इशारे दिए और उसकी नजर 360 डिग्री घूमती चली गई। उसने देखा नदी किनारे रेत ढुलाई का काम रात के इस अंधेरे में अब भी जारी है। पानी से बाहर आते ही उसे लगा कि धूल के गुबार में नहाना और न नहाना सब बराबर ही है। तभी उसकी नजर दूर बरगद के नीचे से आती लालटेन की धीमी रोशनी पर पड़ी। उसके भीतर का कुतूहल उसको हांकते हुए वहां तक ले गया। देखा, सामने एक बूढ़ी अम्मा थी। पूरा चेहरा काले बारीक तिल जैसे चेचक के दागों से भरा। छोटी आंखें मींचती हुई, चाय की टपरी पर बैठी थी। बालू ढोने वालों के लिए पनाह थी यह टपरी। ताड़ के गाछ के बड़े पत्तों से बंधी हुई हिलती-डुलती छत और उस छत के नीचे बैठी यह अकेली बुढ़िया। वह वहीं बैठ गया। उसको एकबारगी अपनी कंसारिन आपा की याद आ गई और दोनों हाथ यंत्रवत करबद्ध होते चले गए। यह सब देखने के बावजूद बुढ़िया अपने काम में मगन रही। चाय के साथ घूघनी, चना और सूखा पापड़ रखा था। बिस्किट के तीन तरह के बोइयाम और उसमें एक उसका मनपसंद खटखटिया बिस्किट देख उसका मन ललच गया। इसे उसने खान बाबा के जाने के बाद से नहीं खाया था।
अब वह उतना बच्चा भी नहीं रहा कि किसी का मन उस मासूम शक्ल को देखते ही पिघल जाए और उसे अपने पास बैठा कर पूछ ले कि आखिर क्यों अकेले टऊआते हुए घूम रहे हो बच्चे, आओ थोड़ा सा खा लो, पर अब भी तेरह साल की उम्र में उसकी मुस्कान ने अपनी पींगें बढ़ानी नहीं छोड़ी थी। जस की तस तरोताजा मासूमियत अब भी किसी अनजान को अपनी ओर एकबारगी खींचने के लिए काफी थी, शर्त इतनी थी कि वह उसके इतिहास से वाकिफ न हो। चितकबरी अम्मा ने तो दुनिया के सभी रंग और रंगों के भेद देख रखे थे इसलिए असद को यूं करबद्ध देखते ही सारी बात उन्हें समझ में आने के बाद भी वो चुपचाप मटियाते हुए अपने काम में व्यस्त रही। भूख मासूमियत को और बढ़ा देती है। जहां आंख में थोड़ा सा पानी हो, वहां करुणा का जलप्रपात फूट पड़ता है। असद के मुंह से अम्मा शब्द की टेर को सुनना बचा था कि अम्मा का दिल एकदम से मोम बन पिघल गया और मुंह से बस यही निकला, “नौटंकी बंद कर और चुपचाप बैठ जा।” एक थाली पटक दी जिसमें चावल मछली उसका इंतजार कर रही थी। अब हदस कर खाते हुए मासूम को अम्मा बस देखती रही। अम्मा को वहां उसकी आंखों में जीवन नहीं जीवन में अचानक आए अपने ही बुढ़ापे की लाठी दिखी। चावल और मछली में स्वाद की बात औरों के लिए होगी, असद को तो उफान भरे समय में जिंदगी का ठहराव नजर आया। जिस ठहराव की उसे इस समय बड़ी जरूरत थी। ईश्वर ने भटकाव की पहली रात ही उसे स्थिरता का इशारा दे दिया। अब मुस्कान ने डर को थोड़ी देर के लिए बहुत पीछे धकेल दिया था।
वह वहां ऐसा ठहरा कि नए लोग यह अंतर ही नहीं कर पाते कि रमा ताई और असद में नाभि नाल का रिश्ता नहीं है। रमा ताई बाल विधवा थी या घर से निकाल दी गई स्त्री, यह अफवाह की तरह हमेशा संदेहात्मक ही रहा। चेहरे पर जितने राई भर काले तिल जैसे चेचक के दाग थे उतने ही जख्म छिपे थे सीने में। दर्द मांजता है, इस मांजने की क्रिया की अपनी चमक होती है, जिसमें खोया हुआ उजास रास्ता दिखलाता है। इसी रास्ते पर चलते हुए रमा को कतरास से अपने ससुराल से भागते हुए बराकर नदी एक निवारण की तरह मिली और चाय की टपरी दर्द का चैन बन गई! चेहरा बदसूरत होना भी कभी कभी इनायत हो जाता है। बदसूरती की इसी इनायत के साथ चालीस साल नदी के किनारे सुकून और चैन के साथ निकल गए और अब जब कमर टेढ़ी होने को आई तब ईश्वर ने असद को उनके पास भेज दिया। असद सा बेटा पा कर रमा ताई ईश्वर को हजार बार धन्यवाद देती। ससुराल की दहशत अब उसे डराती नहीं थी। जब भी बंद कमरे में करने वाली बात रात सपनों में सताती तब नींद टूटते ही असद पैर के पास सोया मिलता तो उसे खूब दुलार करती। असद को कुछ समझ में नहीं आता कि ताई को बीच रात इतना प्यार क्यों उमड़ता है। एक दिन ताई से उसने पूछ ही लिया कि क्या सालता रहता है रात भर आपको कि आप अक्सरहां नींद से उठ जाती हैं। ताई ने इस सवाल को कई दिन तक टाला, पर असद की दुलार भरी जिद के आगे एक दिन अपने अतीत का पिटारा खोल ही दिया।
ताई की शादी जब हुई थी तब चेचक के ये दाग नहीं थे, बहुत सुंदर थी ताई उस समय। एक ऐसे घर में शादी हुई थी, जो कभी जमींदार का हुआ करता था। कोलियरी का मालिक, जिन्होंने सरदारों को भाड़े पर चलाने के लिए अपनी खदान दी थी। मनमाने ढंग से चलाने का खामियाजा यह हुआ कि हड़ताल को संभाल नहीं पाए। पुलिस केस हुआ सो अलग। इतने पर भी अय्याशी नहीं रुकी। समय का चाबुक समय समय पर उन पर पड़ता रहा और उन सबका गुस्सा रमा पर निकालता, इसमें उनके पति किशोर का साथ देती सास कलावती। परिवार में भ्रम यह भी फैल गया कि जब से किशोर और रमा की शादी हुई है तभी से परिवार पर विपत्ति आनी शुरू हुई है। अय्याशी और काम पर ध्यान न देने की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। किशोर बिस्तर पर भी गुस्सा ही निकालता। रमा का दुःखमय जीवन बिना किसी आशा की किरण के बीत रहा था। इसी बीच किशोर ने एक दिन खून की उल्टियां कीं तो पता चला गले का कैंसर लास्ट स्टेज पर है। तंबाकू और शराब ने अपना असर दिखा दिया था। मुंबई गए, पर बच न पाए किशोर और फिर एक और इल्जाम मढ़ दिया गया रमा पर। अभी जैसे इतना कम हुआ था, छोटे देवर कुणाल ने भी रात-बेरात परेशान करना शुरू कर दिया। सब सोचते पंद्रह साल का बच्चा ही तो है, पर रमा तो स्पर्शों की भाषा समझ सकती थी। अपने मन और तन पर संतुलन बनाए ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि कुछ तो ऐसा करो कि मुक्ति मिल जाए इन सब झंझावातों से और तभी छोटी माता (चेचक) उसके पूरे शरीर पर छा गईं, मौत को छूना किसे कहते हैं रमा तब समझ पाई। बच गई पर शरीर पर दाग रह गया। चेहरे पर खास करके इसका असर ज्यादा सघन रहा। अब उन्हें किसी भी भद्दे नाम से बुलाया जाता जैसे कलमूही, डायन, चुड़ैल, कुलक्षणी। लोगों के सामने शिकायत और सूरत दोनों न आ पाए इस कारण उन्हें उनके कमरे में ही बंद कर दिया जाता। ऐसी ही एक रात रमा वहां से भाग निकलने में सफल हो गई। धनबाद से ट्रेन चली और न जाने क्यों बराकर स्टेशन पर घंटों रुकी रही। रमा का मन कैसे उस सुनसान में उतर जाने का किया उसे भी नहीं पता। एकांत ने शायद उसे इस जगह ला कर खड़ा कर दिया जहां आज तक इतने साल से वो रह रही है बिना किसी को कुछ बताए। अभी भी सोच कर हंस देती है कि चेहरे के उभरे दाग भी क्या मन के दाग को ढांकने के काबिल हो सकते हैं।
रमा के सामने से फ्लैश बैक का पर्दा उठ चुका था और असद के साथ का पूरा वर्तमान अब हाजिर था। रमा मुस्कराई और प्यार से असद के बालों पर हाथ फेरते हुए कहने लगी, “बिटवा अब दोबारा कभी कुछ मत पूछना। अतीत से गुजरना माने दर्द के दरिया से गुजरना है।” असद ने रमा की गोदी में ही सिर गोत लिया, कुछ कह नहीं पाया तो बस फफक पड़ा। यह फफकना असल में उस वक्त उसे भीतर से हल्का कर रहा था। दूसरों के लिए रमा ताई थी पर असद के लिए वो अम्मा ही थी। खान बाबा के बाद यह दूसरी बार हुआ था जब असद पर कोई स्नेह आशीष के तौर पर बरसा रहा हो। अबाध स्नेह का असर था या जिम्मेदारी का एहसास, असद का दिमाग अब तेजी से समय की हर चाल की आहट सुन रहा था। उसकी पहल पर रमा ताई चाय की टपरी में अब समोसे, कटलेट, निमकी और पकौड़े जोड़ने को राजी हो गई। लज्जत की इस खुशबू के पीछे रेत का रास्ता पकड़े ट्रकों का रेला अब सड़क से इस ओर को तेजी से मुड़ने लगा। नदी के मुहाने पर यह जगह सबको पसंद आने लगी। गाड़ियों को खड़ा करने के लिए अथाह जगह, धोने के लिए बेशुमार पानी और खुद के नहाने और हल्का होने के लिए खुली जगह का इससे बेहतर विकल्प आस-पास कहीं नहीं था। एक ड्राइवर को भला और क्या चाहिए। जल्द ही चाय की टपरी ढाबा में बदल गई और अब पूरा गरमागरम खाना मिलने लगा। अब रमा ताई का काम सिर्फ पैसे गिनने और रखने के लिए गल्ले पर बैठने का रह गया। असद, ताई को तिनका भी उठाने नहीं देता। बढ़ती कमाई के साथ असद ने तीन और अनाथ बच्चों जुनैद, रहीम और श्याम को ढाबे पर रख लिया। तीनों स्टेशन पर भीख मांगने का काम किया करते थे। असद को उनकी जरूरत थी और उन्हें असद की। परिस्थितियां रेत के माफिक खाली जगहें भर रही थीं, जिसे असद की जिद में गारा बनना लिखा था। सड़क वाले जिस ढाबे पर वह पहले दिन उतरा था उसके ढाबे के धंधे को असद के इस नए ढाबे की बढ़ती लोकप्रियता से बहुत ज्यादा नुकसान हुआ। ढाबा राम सिंह मुखिया का था, जो महीने में सिर्फ तीन-चार दिन ढाबे पर आता था। मुखिया की भी कभी अपनी कोलियरी चला करती थी। 1973 के खदानों के राष्ट्रीयकरण ने उसे राजा से रंक बना दिया था, पर अब भी जमींदारी वाली ऐंठन में कोई कमी नहीं आई थी। मामला धीरे-धीरे सहज प्रतिस्पर्धा से हट कर सीधे टकराव का रूप लेने लगा। एक दो बार मुखिया ने जम कर धमकी भी दी, “चूहों, सब समेट कर निकल जाओ वरना यहीं रेत में गाड़ देंगे।” कुछ दिन बाद आवाज में नरमी के साथ उसने रुपए देने की जुगत लगाई और सब कुछ छोड़ कर भागने के लिए कहा, पर असद के भीतर का मानुष रमा ताई यानी अम्मा को कभी किसी भी परिस्थिति में धोखा नहीं देने के लिए प्रतिबद्ध था। उसकी जिंदगी में अब अम्मा के सिवाय कुछ भी नहीं था।
वह आज भी बचपन की तरह खुले आसमान को देखते हुए सोता। बादलों से खेलने की उसकी आदत अब भी वैसी ही बनी हुई थी। बादलों के इशारे पढ़ना उसके लिए एकांत का शगल था। जब से इस बराकर नदी के पास आया था समय की तलवार वाली धार उसके लिए थोड़ी देर के लिए भोथरा गई सी प्रतीत हो रही थी। अम्मा के प्यार का चंदोवा किसी कवच की तरह उसे लगने लगा और अब उसके लिए स्नेह की यही आंच जीवन में आगे बढ़ने की रोशनी बन गई थी। ढाबा, नदी, पेड़, अम्मा और जुनैद, रहीम व श्याम जैसे तीन छोटे भाई। समय के फटे बांस से तेज हवा में भी संगीत ही बज रहा था, जिसके जादू में पांच लोगों का यह परिवार सुकून भरे गीत गा रहा था।
बराकर नदी के बहाव सा जीवन मद्धम राग में बह रहा था, पर असद के भीतर सामान्य होने का खटका अब भी बना हुआ था। उसे अपनी इस सुंदर दुनिया में भी संशय का लटकता धागा रह रह कर लहराता दिखता रहता। सब कुछ सामान्य होने पर भी मुस्कान और डर के बीच की नोक-झोंक का असर उसकी नींद पर पड़ता। सोते समय बादलों में संकेत पढ़ने की कोशिश करता। बादलों की चित्रकारी के बीच इधर कुछ दिनों से एकांत में उसे काले बादल घेर लेते और वह डर कर अपनी आंखें बंद कर लेता। बुदबुदाते हुए ईश्वर से प्रार्थना करने लगता कि कोई भी काले बादल वाला सपना सच न साबित हो जाए। उधर कोयला और रेत की हवा में प्रचुर मात्रा में उपलब्धता और उस पर रमा ताई का लगातार बीड़ी पीते हुए खांसना अच्छे संकेत नहीं दे रहा था। अम्मा की लगातार खांसी उसके लिए परेशानी का सबब बन रही थी।
एक सुबह अम्मा नहाने के लिए बराकर नदी में उतरी तो गड्डे में उसके पैर लड़खड़ा गए और वो नदी में फिसलती चली गईं। वक्त की विडंबना थी कि उसी वक्त दमा का अटैक भी आ गया और उनकी सांसें तेजी से पानी के भीतर उखड़ने लगीं। संयोग ही था कि डूब रही होती अम्मा को असद ने भाग्य से देख लिया और फिर चारों ने मिल कर उन्हें बाहर निकाला। अम्मा अब भी बेंच पर उखड़ी सांसों के साथ पेट के बल लेटी पानी बकारे जा रही थीं। उल्टियों के साथ सांस के उखड़ने ने उन्हें बेदम कर रखा था। पेट के पानी के साथ आंखों का पानी, कलेजे के दर्द की बिलबिलाहट में लगातार बहा जा रहा था। उतने दर्द में भी अम्मा की आंखें असद को पनियाली नजर से देखे जा रही थीं। बिना समय गंवाए जुनैद टेम्पो ले आया और टेम्पो पर ही उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया। बराकर के उस छोटे से अस्पताल में तो डॉक्टर को जैसे मरीज को भगाने की जल्दी पड़ी थी। इसलिए बराकर अस्पताल ने आसनसोल के सरकारी अस्पताल में उन्हें तुरंत रेफर कर दिया। आसनसोल अस्पताल आने पर पता चला कि अम्मा को निमोनिया पहले से ही है और इस विकट खांसी की सही वजह फेफड़े का संक्रमण है। जिसके इलाज की व्यवस्था आसनसोल से बेहतर कोलकाता में थी। यही सलाह उसे डॉक्टरों ने दी। इमरजेंसी के कुछ इंजेक्शन जरूर पड़े, जिससे अकस्मात उठे खांसी के बवंडर के बादल धीरे-धीरे छंटने लगे। रात को ही उसने टैक्सी किया और डॉक्टरों की सलाह पर अम्मा को ले कर नील रतन सरकार मेडिकल कॉलेज के अस्पताल पहुंच गया। उसके साथ जुनैद वहीं रुका रह गया था। रहीम और श्याम ढाबा चलाने के लिए बराकर वापस चले गए। कोलकाता के अस्पताल में इतनी भीड़ होने पर भी मरीज की गिरती स्थिति को देखते हुए जगह मिलने में देर नहीं लगी थी लेकिन अम्मा की हालत सुधरने के बदले दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। डॉक्टर रोज नई दवाई का नाम लिख देते। कभी इंजेक्शन अस्पताल में उपलब्ध होता तो कभी बाहर से खरीद कर लाना पड़ता। यह सिलसिला महीने भर चला। जितनी कमाई हाथ में थी सब लगभग खत्म होने को आई। सुबह के अंतिम पहर एक दिन अम्मा ने बड़ी जोर की हिचकी ली, पूरा शरीर जैसे एक साथ लहराया और फिर पूर्णतः शांत हो गया। असद का हाथ पकड़े-पकड़े ही उनकी आंखें पलट गईं। असद को लगा एकबारगी स्नेह के बादल छंट गए और तपता सूरज सिर उठाए बिल्कुल सामने आ गया। अम्मा की वो नजर जो हांफते हुए भी उसे ताकती रहती और उस हंफनी में भी असद को देखते हुए आशीष भरी नजर के साथ अम्मा का मुस्करा देना बार-बार असद के चेहरे के सामने चलचित्र की तरह गुजर रहा था। जुनैद तटस्थ सा खड़ा था और उसे संभाले जा रहा था। उसका रोना भी थमा ही था कि उसे लगा अस्पताल के उस बिस्तर के पीछे से एक साया मुस्करा रहा है। देखते ही देखते उसके भीतर डर का दायरा बढ़ने लगा और उसे एकबारगी लगा कि क्या सच में ऐसा संभव है कि जिसे प्यार करो वो ईश्वर से ज्यादा मोहब्बत कर बैठता है और ईश्वर का ही हो जाता है। भाग्य की ऐसी विडंबना ईश्वर ने उसके लिए ही क्यों लिखी है? उसकी यह चीख उसके भीतर ही घुट गई।
अंत्येष्टि कोलकाता में ही केवड़ातला घाट पर हुई। जुनैद उसे संभालने का भरसक प्रयत्न कर रहा था। सब निबटा कर जब थके-हारे दोनों ढाबा पर लौटे तो एक और मुसीबत इंतजार कर रही थी। अब वहां राम सिंह मुखिया का कब्जा हो चुका था। उस उदास समय में उसका भी ज्यादा लड़ने-झगड़ने का मन नहीं कर रहा था, तो उसने बुझे मन से बस इतना सा आग्रह किया कि जो समझ में आए उसे दे दिया जाए इसके बाद वो हमेशा के लिए यह सब छोड़ कलकत्ता चला जाएगा। मुखिया भी कोई मूर्ख नहीं था उसने पांच हजार रुपए असद को पकड़ाए और कागज पर लिख कर अंगूठा लगवा लिया कि ढाबे पर अब उसका कोई हक नहीं।
जुनैद और रहीम अब भी असद के साथ ही थे। श्याम वहीं मुखिया के साथ रह गया। पैसे ले कर तीनों शाम की ट्रेन ब्लैक डायमंड से कोलकाता की ओर जीवन के नए सफर पर निकल पड़े। अब तक असद के दिल में इस बात ने घर बना लिया था कि कुछ तो गलत है उसके नसीब में पर इसके बावजूद अब भी वह दुनिया को संतुलित नजर से ही देखना चाहता था। एक आध बार, अपने आपको दोष देने वाली बात उसके जेहन में कौंधी जरूर थी पर उसकी आंतरिक मुस्कान की उजास ने इस बार भी हर बार की तरह उस पर कब्जा पा लिया।
रात के दस बजे तीनों हावड़ा स्टेशन पर उतरे। नए शहर में यूं रहने की दृष्टि से पहला कदम था। पिछली बार तो आपा-धापी में शहर को देखना समझना रह गया था। इस बार जेब में पैसे थे पर समझ नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए, कहां टिका जाए, किधर चला जाए? उस समय उन्हें सबसे महफूज जगह फेरीघाट लगी और तीनों वहीं रात काटने के लिए लुढ़क गए। भोर की पहली किरण पड़ते ही नींद टूटी और फिर मुंह हाथ धो कर चाय की तलाश में तीनों इधर-उधर ताकने लगे तभी छोटकी चुकड़ी में चाय ले कर घूमता हुआ बारह तेरह साल का लड़का दिखा। तीनों भाई इतनी छोटी चुकड़ी देख कर खिलखिला कर हंस पड़े। अस्पताल के आस-पास की चुकड़ी सामान्य आकार की थी पर स्टेशन की तो इतनी छोटी तिस पर चाय पीते ही तीनों को उबकाई हुई। असद खुद में ही बड़बड़ाया कि चाय क्या इतनी घटिया भी हो सकती है। उस लड़के से, जिसका नाम हरि था, एक स्वर में तीनों ने पूछा, “बासी चाय क्यों बेचते हो भाई?” एक सुर में फिर यह भी पूछा, “अच्छी चाय कहां मिलेगी?” हरि का सीधा सपाट जवाब आया, “घूम-घूम कर बेचने से चाय तो बासी हो ही जाती है, अच्छी चाय पीनी हो तो भूतनाथ मंदिर चले जाओ।” तीनों जोश में पैदल हावड़ा ब्रिज पार कर गए और कुछ मिनटों में ही बाएं रास्ते पकड़ कर सीधे भूतनाथ मंदिर पहुंच गए। मंदिर के चारों ओर सजा हुआ बाजार, तरह-तरह की सामग्री, खाने-पीने की दुकानें, चिलम लगाते औघड़ों की जमात और इन सब के साथ धक्कमधुक्की वाली भीड़ बाबा को जल चढ़ाने की होड़ में बम बम भोले की गूंज लिए बढ़ी जा रही थी! पूरा माहौल उन्हें अचंभित किए हुए था। घाट पर सामान रखा, नहाया धोया, मंदिर में पूजा की और फिर चाय नाश्ता की तलब में घूमने निकल गए। मंदिर के बाएं बरगद के नीचे भीड़ देख कर तीनों उधर ही भागे जैसे कुछ फ्री में मिल रहा हो। न ही इतनी छोटी लिट्टी पहले कभी देखी और न ही इस तरह लिट्टी चोखा पर टूट पड़ते लोग। वहीं चाय की एक और दुकान दिखी। गुलाब जल और केसर की चाय की दुकान! तीनों को लगा अंधे को तो आंख ही चाहिए। चाय की तलब को मंजिल मिल गई। भरपेट लिट्टी चोखा खाने के साथ साथ दो-दो भाड़ गुलाबी चाय पीने के बाद जा कर मन असल में तृप्त हुआ। लिट्टी में किशमिश पहली बार मिला उन्हें। पेटपूजा के बाद अब आगे के भविष्य की बात पर विचार करने तीनों वहीं उसी भूतनाथ घाट पर बैठ गए। असद ने कहा भोले बाबा के दर पर आए हैं तो कुछ न कुछ सही रास्ता तो मिलेगा ही। किसी और काम के बनिस्बत तीनों को ढाबा का काम बेहतर आता था तो तीनों ने यही निर्णय लिया कि कहीं चाय की टपरी से ही नई शुरुआत की जाए। पूछने ताछने पर पता चला इस पूरे वर्गक्षेत्र में चाय की कई दुकानें हैं और इन सब दुकानों की सेटिंग भी यहां तगड़ी थी। जुनैद ने कहा, “चलो किसी और जगह दिमाग चलाया जाए, यहां बात नहीं जमेगी।” असद को तभी एक बात सूझी कि क्यों न इसी दुकान पर कुछ दिन काम किया जाए, लिट्टी चोखा व चाय बनाने की इनकी विधि अच्छे से पहले सीख ली जाए, फिर सोच समझ कर अपनी दुकान खोली जाए। इस बीच आगे की राह पर कैसे चला जाए यह सोचने का वक्त भी मिल जाएगा। तीनों इस बात से अब सहमत थे।
अब समस्या थी तीनों के लिए नौकरी की, तो असद ने चाय वाले को ही पकड़ा, श्याम ने फूल वाले को और जुनैद ने भूतनाथ घाट में अंत्येष्टि के लिए सरकारी ठेके वाली लकड़ी बेचने वाले को। रहने का इंतजाम वहीं रेल की पटरी के बगल में बनी झुग्गियों के सबसे किनारे वाली जगह में एक प्लास्टिक की छत बना कर किया गया। हर चीज का इस जगह जुगाड़ का सिस्टम था, पर हर चीज के पैसे किसी न किसी के हिस्से में जाते। हर एक सरकारी संस्थान ने किसी एक को हफ्तावसूली का जिम्मा दे रखा था। कोई थाना के बदले, तो कोई रेल के बदले, तो कोई म्युनिसिपैलिटी के बदले अपना हिस्सा वसूल लेता। इस अव्यवस्था का पूरा वातावरण व्यवस्थित और संस्थागत था। बराकर और मुंगेर से इतर यह दुनिया बहुत अलग थी उन तीनों के लिए।
ईश्वर ने असद को भूतनाथ मंदिर और निमतल्ला घाट के लिए ही क्यों चुना यह बात वह एकांत में अक्सर सोचता। उसके पिता मूसा के बारे में उसे बताया गया था कि वे मां दुर्गा की मूर्ति बनाने में उस्ताद थे साथ ही शिव के परम भक्त भी। तो क्या यह कोई ईश्वरीय इशारा है कि आज वो उस प्रांगण में है, जो पूरी तरह शिवमय है। नीमतल्ला घाट और मंदिर का एक ही प्रांगण में सट कर होना जीवन-दर्शन के साथ जीवन का दर्शन भी था। वह रोज देखता एक तरफ लाशों की कतारें खत्म नहीं हो रहीं तो दूसरी तरफ नए जोड़े मंदिर में हर दिन पंक्तिबद्ध शिव परिवार के मंगल दर्शन करने के लिए आते। उसने देखा कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर का समाधि स्थल भी वहीं मंदिर के प्रांगण के पीछे है। समाधि के ठीक सामने प्रसिद्ध दार्शनिक, समाज सुधारक और लेखक ईश्वर चंद्र विद्यासागर का समाधि स्थल भी है। सोचता दोनों समाधि स्थल आमने-सामने आसन लगाए मंदिर और श्मशान घाट के बीच आखिर क्या बतियाते होंगे? यह सब उसे अद्भुत अलौकिक प्रतीत हो रहा था। उसे यह भी पता चला कि शिव आरती हर रोज चिता की अग्नि से ही प्रज्वलित होती है। ठीक वहीं पर महात्मा गांधी बाल विद्यालय है, जहां नन्हे मुन्ने बच्चे पढ़ने आते हैं। वह जगह तमाम अलौकिकताओं से पटी पड़ी थी, जो असद को अपने में ढाले जा रही थीं। असद अब रोज मंदिर की सफाई में अपना हाथ बंटाने लगा। अब वह जो भी कमाता एक हिस्सा गांधी स्कूल के गरीब बच्चों को दे देता। चिंतामुक्त मन अब आत्मालोचन में लगा रहता। उसी दिन उसने त्वरित निर्णय लिया वह कभी शादी नहीं करेगा। सेवा ही अब उसके जीवन का मूल मंत्र है।
उसके पास अभी भी ढाबा से कमाए पैसे बचे हुए थे जिसे अपनी नई दुकान लगाने में उसे करना था। एक रविवार तीनों साथ साथ मैदान की ओर घूमने निकले। विक्टोरिया के सामने कोलकाता का सबसे बड़ा मैदान दिखा! रविवार को वहां उन्हें लगा जैसे पूरा कोलकाता घूमने वहीं आ गया हो। क्या बुजुर्ग और क्या ही बच्चे! पूरा मेला सा है यह मैदान और रविवार को फुटबॉल, क्रिकेट, पिट्टो सब एक साथ देखने को मिल जाएगा ऐसा तो उन्होंने सोचा नहीं था। दिन भर इधर-उधर चकल्लस करते हुए अचानक वहीं विक्टोरिया की तरफ उन्हें हावड़ा स्टेशन वाला हरि दिख गया और उस घटिया चाय की याद आते ही चारों एक साथ ठहाका मार कर हंस पड़े। बात-बात में बात निकली तो पता चला एक खोमचा उसके जानकार बबलू भाई का है, जो आज ही लंबे समय के लिए गांव जा रहे हैं। वो अपना खोमचा कुछ महीने के लिए किसी को भाड़ा पर देना चाह रहे हैं। इस खबर ने तीनों में नई जान फूंक दी। बबलू, राम जी साव के साथ जो कि वहीं पाव भाजी बनाता था उससे बात पक्की करने ही वाला था कि ऐन मौके पर हरि इन तीनों को ले कर पहुंच गया। हरि और बबलू एक ही गांव तेतरहाट के थे और बबलू ने भी शुरुआत हावड़ा स्टेशन पर चाय बेचने से की थी, इसलिए भी दोनों में बहुत छनती थी। इस गारंटी पर कि हरि भी असद के साथ यहां के खोमचे में काम करेगा बबलू आसानी से तैयार हो गया। असद ने जाते हुए बबलू से अपने पुराने ढाबे वाले अनुभव के बारे में बात कर लिया था और उसे अपनी आगे की योजना भी समझा दी थी। यह भरोसा भी दिया था कि जब वो लौट कर आएगा और अगर ईश्वर की कृपा और गठजोड़ मेहनत से टपरी चल निकली तो हम सब एक साथ मिल कर काम करेंगे। और यूं खराब चाय ने आज सबका जायका ठीक कर दिया था। चारों मुस्करा रहे थे। मैदान का पूरा वातावरण उन्हें हंसमुख लग रहा था।
असद के अनुभव, नेकदिली, समर्पण, शिव भक्ति को दोस्तों का ऐसा साथ मिला कि बराकर की सफलता यहां खुद को दोहराने लगी। ईमान की तरह असद ने जो पैसे अब तक बचा कर रखे थे, यहां उसके काम आने लगे और देखते ही देखते झालमुढ़ी का खोमचा, चाय की टपरी में बदल गया। धीरे-धीरे छोला-भटूरा, पाव-भाजी, लिट्टी-चोखा और गुलाबी चाय सब एक-एक कर जुड़ते चले गए और फिर खोमचा पहले टपरी फिर गुमटी में बदलता गया।
उसकी दुकान विक्टोरिया के ठीक सामने सड़क को पार करते ही थी। अभी यह गुमटी अपना आधार मजबूत कर ही रही थी कि मुंसिपैलिटी ने वहां बैठने के लिए सीमेंट की बेंच लगा दी, गुमटी के ठीक पीछे अर्धनिर्मित उद्यान अब बहुत सुंदर उद्यान में बदल गया और देखते-देखते वहां फव्वारा लगाने के साथ साथ साउंड एंड म्यूजिक शो भी होने लगा। भीड़ को गलबात और बैठकी के लिए इससे सुंदर जगह भला और कहां मिलती। असद को लगा ऊपर वाला देर से सुनता है पर जब सुनता है तो इर्द-गिर्द की पूरी कायनात बदल देता है। उसका परिचित डर इन दिनों कहीं कोने में दुबका पड़ा था, काले साये का कहीं नामोनिशान तक नहीं दिख रहा था और इसके साथ ही मुस्कान की चौड़ी होती जा रही सड़क पर असद की गाड़ी ने थर्ड गियर लगा दिया था।
बबलू छह महीने का कह कर गया था पर साल भर के बाद लौट कर आया। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये वही जगह है जिसे वह छोड़ कर गया था। उसे तो ऐसा लगा जैसे असद के पास कोई जादू की छड़ी है। अब तो छोड़ गए खोमचे की शक्ल लगभग ढाबे में बदल चुकी थी। वादे के मुताबिक अब बबलू भी इस साझे काम का एक और साझेदार हो गया। अनुभवी बबलू के आने से असद को खुद के लिए थोड़ा वक्त भी मिलने लगा। असद अब भी रेल पटरी के किनारे वाले घर में ही रहता था और हर सुबह हुगली में डुबकी लगा कर शिव दर्शन के बाद ही गुमटी की सेवा में लगता। एक दिन शिव मंदिर से निकलते ही एक नन्हे पिल्ले की दर्दनाक चीख ने उसे चौंकाया जिसे अभी-अभी एक कार कुचलती निकल गई थी। पिल्ला थोड़ी दूर पर ही रेलवे फाटक के पास तड़पता हुआ दिखा। चूंकि कार उसके एक पैर पर चढ़ी थी इसलिए पिल्ला अपनी उस टांग को चाटते घसीटते हुए वहीं एक ही जगह पर वृत्ताकार घूमे जा रहा था। असद के भीतर ममत्व भाव बरबस छलक उठा। अगले ही पल पिल्ला असद की झोंपड़ी में था और असद उसके घाव पर हल्दी का लेप लगा कर पांव में लकड़ी की खपच्ची बांध रहा था। जैसे जिंदगी ने उसे आज जीने का एक नया मकसद दे दिया था और वो इस मकसद के साथ जीवन के उस खालीपन को भरने की कोशिश अनायास कर रहा था जो वक्त से अब तक मिले जख्मों से बना था।
पिल्ले का नाम उसने मिजो रखा। वह असद के साथ उसकी साइकिल के बास्केट में बैठा घूमता रहता था। ढाबानुमा गुमटी जिस गति से चल रही थी उसी गति से जानवरों के प्रति असद का प्रेम बढ़ता जा रहा था। अब उसका मन करता सारी कमाई इन पर ही खर्च कर दे। प्रेम के उस भूखे को जिस तरह का निश्छल प्रेम इन जानवरों से मिल रहा था पहले कभी नहीं मिला था। उसे लगा जैसे यह एक नई दुनिया उसके लिए ही बनाई गई है। अब उसके मन में एक नई बात ने घर कर लिया कि वह पुराना मामला इंसानों से प्यार करने का है। जानवरों से प्यार करूंगा तो वह काला साया उसे बख्श देगा। और सच में इधर कई दिनों से उस काले साये से उसकी किसी तरह की मुलाकात नहीं हुई थी, जिसके लिए वह भूतनाथ बाबा को कई बार धन्यवाद दे चुका था। अब वह रोज रात लौटते समय सड़क के कुत्तों को खाना खिलाने का काम भी करने लगा था।
उसकी गुमटी के ठीक सामने घोड़ों के सजे हुए रथ लगे रहते, जो विक्टोरिया भ्रमण के लिए रेड रोड से एक पूरा चक्कर लगाते हुए वापस आते। एक चक्कर का उन्हें पांच सौ रुपया मिलता। ये घोड़े सामने की सड़क ‘क्वींस वे’ में क्रमबद्ध अनुशासन में खड़े दिखते और विक्टोरिया के इस भूखंड का मुख्य आकर्षण भी ये सुंदर सजे-धजे रथ थे। क्रमबद्ध कोचवानों को सरकार ने यह जगह आवंटित की थी। इनका काम शाम चार बजे से रात नौ बजे तक का रहता। इनमें से कई लोगों के पास अपना घोड़ा था और रथ किसी और का जिसे भाड़े पर लिया जाता था।
उस दिन चार बजने को हुए थे पर धूप ढलने को अब भी तैयार नहीं थी। भीड़ का जुटना रुक नहीं रहा था। शाम तक सुनसान दिखती यह सड़क अचानक मेले में तब्दील हो गई। असद अपनी दुकान की बागडोर संभाले हुए अपने काम में मग्न था कि एक करुण हिनहिनाहट ने उसे विचलित कर दिया। उसने देखा एक दुबले-पतले घोड़े पर उसका मालिक बेहिसाब चाबुक पर चाबुक बरसाए जा रहा है। घोड़ा का पेट भीतर हड्डी से ऐसे सटा हुआ दिख रहा था कि सारी हड्डियां आसानी से गिनी जा सकती थीं, मुंह से लार ही लार बही जा रही थी। उसकी बार-बार बंद होती दर्द से बुझी आंखें जब असद से मिलीं तो उसे ऐसा लगा कि उस एक नजर ने उसे छलनी कर दिया। यह सब देख उसे तीव्र बेचैनी महसूस हुई। उसे लगा कि भीतर लावा की बंद परत बस चटकने वाली है। संयम की देह पर बेचैनी के फफोले फूटने से पहले वह उसकी ओर लपक पड़ा। असद उसके पास पहुंचता उसके पहले ही घोड़ा जमीन पर लार को धूल में मिला चुका था। उसकी लंबी जीभ बिल्कुल बाहर को निकल आई, आंख पलटने लगी और लगा जैसे अब वो बस बची-खुची अंतिम सांसें गिन रहा है। मिजो और असद दोनों अब उसके पास थे। घोड़ा निरीह कनखियों से असद की ओर अब भी देखे जा रहा था। छोटे कद का उसका मालिक करीम अब सिर पर हाथ धरे अफसोस के गीत गाए जा रहा था। असद जज्बाती हो गया। बगैर वक्त गंवाए भरी बाल्टी से अंजुरी भर-भर कर पानी जमीन पर पड़े उस निढाल प्यासे के मुंह में डालना शुरू कर दिया। नन्हे मिजो ने भी उस अशक्त असहाय दुर्बल के मुख को प्यार से चाटना शुरू कर दिया। पानी और प्रेम के इस चिकित्सीय इलाज से उस लगभग निष्प्राण में थोड़ी सी जीने की आस जगी पर वह अचेत लेटे हुए ही पानी चाटता रहा। जैसे उसके भीतर खुद उठने की, जीवन जीने की इच्छा शेष बची हो। हालांकि अब भी हताशा का जो आकाश उसकी आंखों में तैर रहा था, उसका चंदौआ कम होने का नाम नहीं ले रहा था। इतने के बाद भी उसकी इतनी हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि अपना सिर उठा सके और बाल्टी से सीधे पानी पी ले जबकि वो पैर के बल जमीन पर लेटा था। अब असद अपने हाथ से उसे गुड़ चने खिला रहा था। घोड़े का मालिक करीम अब भी बेशर्म बना यह सब देख रहा था जैसे उसे अपने घोड़े से कोई खास मतलब नहीं हो और वह शायद मन ही मन मना रहा हो कि कब उसे इस मुफ्त में खाना डकारने वाली मशीन से मुक्ति मिल जाए। यह सब देख दुकान से उठ कर जुनैद और बबलू भी आ गए और सबने मिल कर घोड़े को उठाने में मदद की। घोड़े की सांस जैसे ही सामान्य हुई असद, जो अब तक कभी गुस्सा करता हुआ नहीं देखा गया था, अचानक बुरी तरह करीम पर बिफर पड़ा, परंतु मोटी चमड़ी वाले करीम को उसके लेक्चर में कोई रुचि नहीं थी। उसका तो बस एक टूक जवाब था, “घोड़ा मेरा है मैं जो चाहूं करूं तुम कौन होते हो?” बात ज्यादा बढ़ी तो गुस्से में उसने यहां तक कह डाला, “तुम्हारी औकात है तो खरीद लो इसे और मुझे मुक्ति दे दो, जब तुमको हफ्ता भर खिलाना पड़ेगा तब आटे दाल का असली भाव पता चलेगा।” असद ने भी आव देखा न ताव करीम के मुंह पर सात हजार रुपए दे मारे। रुपए पा कर करीम खुशी-खुशी यूं चलता बना जैसे उसकी लॉटरी लगी हो और जमीन पर पड़ा जीव उसका कोई नहीं हो।
असद की जिंदगी में अब मिजो, शेरा और भूतनाथ थे, पर अब भी साथ था उसका वह पुराना पुछलग्गा डर जिस पर जीव जंतुओं के प्रेम की परत चढ़ रही थी। उसने दुकान से जुनैद को हटा कर शाम की रथ वाली सवारी के काम में शेरा के साथ लगा दिया। जुनैद को भी नए काम में खूब आनंद आने लगा। नए चेहरे और उनके साथ नई बातें, पंक्ति में इंतजार करते हुए साथी कोचवान से गप्प सरक्का और खुली हवा, जुनैद को भला और क्या चाहिए था, उसे उस काम में बहुत मजा आने लगा था। कभी-कभी जब आप बहुत आनंद में होते हैं तो उस आनंद के आने की आहट के साथ फिर से उसे खोने का डर आपको एक खोल की तरह ओढ़ लेता है। जुनैद से न कभी असद ने पूछा कि तुम बराकर स्टेशन पर कैसे आए और न ही जुनैद ने उसे कभी कुछ बताने की कोशिश की। सुबह शेरा को चारा देने के बाद वहीं पेड़ के नीचे सुस्ताते हुए उसे अचानक अपना बचपन याद आने लगा। जुनैद का घर डिशरगढ़ गांव में था जो बराकर और दामोदर नदी के संगम पर स्थित है। इसी संगम पर पीर बाबा की मजार है जहां पर जुनैद के मां बाप सेवा देते थे। मजार भी शिवमंदिर के प्रांगण में ही थी। हिंदू-मुस्लिम सभी एक भाव से यहां आते और उन्हीं के चढ़ावे से जुनैद के परिवार का पेट भरता था। मंदिर ऊपर और मजार थोड़ा नीचे नदी के तट के बेहद करीब थी। जिंदगी में बहुत ज्यादा नहीं तो बहुत कम भी नहीं था। जुनैद की उम्र उस समय सात साल की थी। पीर बाबा की मजार के दाहिनी ओर मिट्टी का बना घर था, जिसमें तीनों बहुत खुश-खुश रहते थे।
1991 की जुलाई का महीना था और उस दिन दामोदर नदी पगला गई, नतीजतन हड़बड़ाहट में बैराज के सारे गेट खोल दिए गए। उस वक्त जुनैद की मां मजार की सफाई में तल्लीन थी पिता अजान पढ़ रहे थे और बच्चा मंदिर के प्रांगण में खेल रहा था। ऐसा वे अक्सर कर देते जब भी काम की व्यस्तता होती तो पुजारी शंकर बाबा के पास उसे लुढ़कने के लिए छोड़ दिया जाता। उस दिन सबको एकाएक दूर से ही पानी की भयावह हुंकार सुनाई पड़ी और अगले ही पल पानी का स्तर यूं बढ़ा कि लगा जैसे मंदिर भी पानी में तैर रहा हो। चीखने का भी समय नहीं मिला लोगों को। उस पल एक अदृश्य हाथ ने जुनैद को अपने कंधे पर लिया और मंदिर के गुंबद पर पहुंचा दिया जहां पानी अभी तक नहीं पहुंच पाया था। तैरते डूबते लोगों में गेरुआधारी शंकर बाबा भी थे या नहीं यह जुनैद को ठीक से समझ नहीं आया। चूंकि मजार से उसकी झोंपड़ी तो और भी नीचे थी इसलिए मां और पिता किधर बह गए किसी को पता ही नहीं चला। बाद में पता चला पूरे बंगाल में उस साल 35000 लोगों की मृत्यु बाढ़ से हुई। अगली सुबह पानी नीचे आया तो जुनैद ने खुद को बराकर रेलवे स्टेशन पर भीख मांगने वालों के बीच पाया। वह सोचने लगा, इतने दिनों बाद स्टेशन पर असद को अल्लाह ने ही भेजा होगा ताकि भीख मांगने से उसे छुटकारा मिल सके। उस साल असद ने तीनों लड़कों को एक साथ बचाया था वहां के भीख मांगने वाले गैंग से। आज दूर से असद को देखते हुए उसे बहुत प्यार आ रहा था। स्मृतियों की टीस और आज की मिठास मिल कर आंखों से बह निकली। उसे आज भीतर कुछ हल्का महसूस हो रहा था जैसे अब तक जिस बर्फ की सिल्ली को लिए भटकता आया था वो आज पिघल गई!
असद भी बाकी दोस्तों से ज्यादा जुनैद को स्नेह करता और शायद शेरा की देख-भाल का जिम्मा उसे इसलिए ही दिया था। बीच-बीच में जब असद का मन करता जुनैद को दुकान में बैठा कर खुद जुनैद का काम करता। शेरा आंखों को पढ़ना जानता था और असद को देखते ही अपनी पूंछ जोर-जोर से हिला कर उसका स्वागत करता। शेरा बहुत जल्दी असद के प्यार में एकदम बदल गया। उसके उजड़े हुए बाल वापस आ गए। झुलसी हुई त्वचा अब निखर कर ऐसी हो गई जैसे पॉलिश की गई हो। बगल में ही खिदिरपुर के पास वाटगंज से असद को भूसी, बिचाली, चुकंदर, फ्लेक्स, मक्का, बाजरा, कटी हुई घास, गुड़ और चना सब मिल जाता। वह बहुत प्यार के साथ संतुलित चारा बना कर अपने नए दोस्त शेरा को खिलाता। बीच-बीच में उसका खास ख्याल रखने के लिए कुल्थी की दाल और जौ की व्यवस्था की गई। पूरा मैदान चरने के लिए उपलब्ध था ही। असद की जिंदगी में यह नया-नया प्यार नई बयार बन कर आया। अब उसके दो-दो हमजोली हो गए थे, मिजो और शेरा। साथ नहाना, साथ खाना और साथ सोना। समय के इस अंतराल में अतीत की बनाई खरोंचों पर दोनों हमजोलियों का बेशुमार प्रेम मरहम का काम भी कर रहा था। जिंदगी इतनी सुहानी लगने लगी कि वह रोज दिल से भोले बाबा को शुक्रिया कहता और अपने दोनों बच्चों के लिए जी भर कर दुआएं मांगता! इस नए निश्छल प्रेम के कवच ने जैसे एक नया भयमुक्त जीवन दे दिया हो असद को। काले साये का दर्शन अब न के बराबर हो गया था।
समय ने पलक झपकाई! अब असद की उम्र पच्चीस पार करने को आई। दुकान की साख रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। अब वह उस छोटे से परिवार का मुखिया लगता। गल्ले पर बैठता तो किसी छोटे-मोटे सेठ सा लगता। मासूमियत और मुस्कान अब भी उसके गहने थे। पुरानी बातें हर वक्त याद तो नहीं रहतीं पर वह असल में भूलता कुछ भी नहीं था। पुराने अनुभव की अराजकता की चोट पर नई त्वचा चढ़ गई थी पर चोट का एहसास मोमबत्ती बुझ जाने के बाद भी जले रहने के आभास की तरह मौजूद था। अक्सर जुनैद की अनुपस्थिति में घोड़े की सवारी की जिम्मेदारी असद ही उठाता, किसी और को यह काम नहीं करने देता। यह काम उसे हमेशा से पसंद भी था, लेकिन दुकान पर उसके नहीं बैठने से बिक्री कम होने के कारण दोस्त उसे गल्ले पर ही बैठने को कहते। बावजूद इसके जब भी जुनैद को कहीं घूमना होता असद घोड़ा गाड़ी संभाल लेता और किसी की नहीं सुनता। शेरा का साथ उसे सबसे प्रिय था। सुबह भी मैदान में उसे घास वही खिलाता और फिर मस्त घुड़सवारी करता। मिजो, शेरा और असद तीनों एक साथ होते तो उन्हें समय का पता ही नहीं चलता। लगता तीनों बेजुबान अपनी नई भाषा गढ़ रहे हैं, जिसे वे ही आपस में समझते। उन्हें किसी और की चिंता नहीं रहती, आने और जाने वाले वक्त की भी नहीं।
एक दिन मैदान में टहलते हुए उसने देखा एक दुबली-पतली लड़की दुकानों से दही के खाली मटके इकट्ठा कर रही है और फिर उन मटकों में पानी भर कर मैदान में कई जगहों पर रख रही है। उससे रहा नहीं गया तो बरबस निःसंकोच पूछ बैठा, क्यों रख रही हैं आप ये पानी भरे मटके? उस लड़की ने अपने मीठे स्वर में उसे समझाया कि चिड़िया प्यासी घूमती भटकती है, कई बार बंदर जो शहर में इस ओर आते हैं वे भी प्यासे रहते हैं, उनके लिए पानी मिलना सांस मिलने के बराबर है। यह बात उसके दिल को छू गई। इस घटना के बाद उसने इस ओर गौर करना शुरू कर दिया कि कैसे चिड़ियां झुंड बना कर पानी पीने आ रही हैं? वे किस समय आती हैं? किस समय कितनी प्यासी होती हैं? सड़क के कुत्ते भी प्यासे घूमते रहते हैं। बंदर को भी प्यास में पानी के लिए तड़पना उसने अब जा कर देखा और फिर तो जैसे एक नया नशा तारी हो गया, पशु पक्षी के पानी पीने की व्यवस्था करने का। इस नई नजर ने जानवरों को देखने का उसका नजरिया ही बदल दिया। अब उसे चारों ओर सब भूखे-प्यासे जानवर दिखते रहते जो पहले नजर नहीं आते थे। असद को इस पानी के इंतजाम में खुशी के साथ आत्मीय संतुष्टि भी मिलने लगी। करुणा का यह अप्रतिम भाव उसके भीतर के मनुष्य को अधिक मजबूत और विनम्र बना रहा था। समस्या यह थी कि मैदान इतना बड़ा था कि यह काम रोज करने से भी पूरा नहीं होता। एक तरफ हांड़ी लगती रहती दूसरी ओर मैदान में खेलने के लिए आने वाले बच्चे उसे तोड़ते रहते। धीरे-धीरे यह काम उसका शगल भी हो गया। बीच-बीच में उसे वही लड़की मिल जाती और उस काम को करते हुए बस उसे देखती रहती। मौन ने अभी तक संवाद का रूप नहीं लिया था बल्कि यूं कहें कि मौन अभी निहारने तक ही सीमित था और यहां यह जुमला दोनों ओर के लिए सटीक बैठता।
एक शाम उसी सांवली लड़की को उसने घोड़े वालों से बातचीत करते देखा तो फिर उससे रहा नहीं गया और वह पूछ बैठा, “अब यहां क्या कर रही हैं आप?” जवाब से इतना समझ सका कि सुमन ‘वनतारा’ संस्था, जो जानवरों की देख-भाल के लिए बनाई गई स्वयंसेवी संस्था है, उसी में इंटर्न का काम कर रही है और उसी प्रोजेक्ट के संदर्भ में लिया जा रहा यह साक्षात्कार उसके उस शोध का हिस्सा था जो घोड़ों के रख-रखाव पर केंद्रित है। शेरा के बेहतर रख-रखाव की खबर सुनने के बाद सुमन असद के बारे में और जानना समझना चाह रही थी। शेरा की त्वचा की चमक, बालों की अचानक बढ़ी लंबाई और आंखों में नाचती खुशी, यह सब बातें सुमन को बेहद आकर्षित कर रही थीं। बाकी कसर साक्षात्कार के दौरान साईसों ने पूरी कर दी। हर कोई असद की तारीफ करते नहीं थकता था कि कैसे उसने शेरा की न सिर्फ जान बचाई बल्कि उसे अपने जिगर का टुकड़ा बना लिया और उसे नई जिंदगी दी। सुमन के लिए असद अब एक जिज्ञासा भरा विषय बन गया था और अनजाने में ही सही पर शोध का विषय भी अब घोड़ों से असद की ओर मुड़ गया।
सुमन बंगाल के सुदूर आदिवासी इलाके गोपालपुर से थी। वह गांव के बहुत कम लोगों में से एक थी, जिसने यहां तक की पढ़ाई की। छोटी आंखें, नुकीली नाक, सुगढ़ सुडौल, सांवली, स्वावलंबी और स्वाभिमानी। पेड़, पौधे, चिड़िया सब उसे बहुत प्यारे थे। अब जैसे-जैसे वह असद को समझने लगी असद के प्रति उसे भावनाओं में बदलाव महसूस होने लगा। आधे सूखे पत्ते दोबारा हरे होते हुए जैसा महसूस करते होंगे, कुछ वैसा ही सुमन के भीतर चल रहा था। यह बदलाव तब से महसूस करना शुरू किया जब से वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि घोड़ों और साईसों को अच्छे से जानने-समझने के लिए असद का साक्षात्कार लिया जाए। जैसे-जैसे साक्षात्कार बढ़ता गया उसका आकर्षण असद के प्रति स्वतः प्रगाढ़ता में बदलता गया। अंत में इस बढ़ते आकर्षण को अगाध प्रेम में बदलना लिखा था। जब उसने देखा अपनी खोली रहते हुए भी असद हेस्टिंग ब्रिज के नीचे सिर्फ साथ और ख्याल के लिए शेरा के साथ रहता है। वहां भी उसने सफाई की मुहिम छेड़ी हुई है तो यह देख उसे असद पर बेशुमार प्यार आया। आज भी ऐसे लोग हैं जो आदमी और जानवर को सम्मान और समान भाव से देखते हैं, कहीं कोई फर्क नहीं समझते! ऐसा दोस्त इतनी जल्दी उसे मिल जाएगा उसने कभी सोचा नहीं था।
सुमन का आकर्षण अपनी जगह और असद की तटस्थता अपनी जगह। दोनों अंतर्मुखी पर भावनाओं को न समझ रहे हों ऐसा भी नहीं था। अब दोनों ठेले पर खाली मटके और पानी के जार ले कर घूमते। एक रविवार दही के खाली मटके सभी दुकानदारों से अपने ठेले पर ले कर असद सुमन के साथ पानी भरते हुए पूरे मैदान की परिक्रमा में घूम रहा था। दोनों को अपना पसंदीदा काम करते हुए कब दस बज गए पता ही नहीं चला। जब भूख लगी तो असद ने सुमन से कहा चलो आज भूतनाथ घाट चलते हैं। दोनों एक साथ बस नंबर 43 में बैठे और नीमतल्ला में हरिया की दुकान के बाहर उतरे। फूल खरीदे, पूजा की फिर अहिरिटोला और भूतनाथ मंदिर के बीच राजेश की दुकान पर लिट्टी चोखा खाया। मन नहीं भरा तो गुलाब जल की केसर डली गुलाबी चाय भी पी। आज दोनों का मन बहुत प्रसन्न था। दोनों भूतनाथ मंदिर के पीछे के आंगन में आ कर बैठ गए। ठीक उसी जगह जहां का वातावरण पूर्णतः अलौकिक है। भूतनाथ मंदिर का दिया और चिता की लौ एक साथ जलते दोनों देख रहे थे। चिता की लौ का प्रतिबिंब सुमन ने असद की आंखों में देखा तो एक पल को वो सिहर गई और बहती हुगली की ओर नजर घुमा ली। शायद उसकी आंखों से भी कुछ बह रहा था, जिसे असद नहीं देख पा रहा था।
असद किसी और दुनिया में विचरण कर रहा था। द्वंद्व और संशय की जबरदस्त भिड़ंत हो रही थी। जिस जगह स्व का संपूर्ण सच दिखता है और आदमी दार्शनिकता के चरम को छू सकता है और इसी के साथ ‘मैं’ का आभास ‘हम’ में बदल जाता है—वैसी जगह असद को उस दिन भीतर कुछ यूं इस तरह पिघलता हुआ पहली बार महसूस हुआ जैसे अपना बनाया मकान खुद ढहा रहा हो। इसके साथ खुद का बनाया हुआ कवच थोड़ा दरकता सा लगा। दरकन को चिह्नित करती लकीरें मस्तक पर अपनी संख्या बढ़ा रही थीं। दरकने और ढहने का भी उसके लिए अपना आनंद था। यह आनंद सुमन को न दिखे और फिर खुद को संभालने के लिए कुछ और कहने से पहले उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा, “सुमन जी आप अपने बारे में कुछ बताइए।” इससे पहले असद ने सुमन के बारे में कुछ भी जानने की कभी कोई कोशिश नहीं की थी। सुमन को भी यह सवाल एक सुखद आश्चर्य सा लगा, जिसकी जरूरत समय के भारीपन को हल्का करने के लिए उन दोनों को थी। उस अचानक आए सवाल के एवज में वो सिर्फ मुस्करा दी। थोड़ी देर के मौन के अंतराल में दोनों सामने से बहती हुगली और विशालकाय खूबसूरत हावड़ा ब्रिज को देखते रहे। फिर सुमन ने धीरे-धीरे सब बताना शुरू किया। अंत में वो कह रही थी, “गोपालपुर कोलकाता के गोलगप्पे वालों का घर है। रात में परिवार वाले मिल कर गोलगप्पे बनाते हैं और दिन में पुरुष साउथ सियालदह की ट्रेन से कोलकाता आ कर गोलगप्पे बेचते हैं। वहां हम सामूहिक किचन भी चलाते हैं। सब मिल कर मिट्टी के बने सामूहिक स्थल में ही गोलगप्पे छानते हैं। सारे परिवार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कभी किसी वक्त में किसी एक व्यक्ति के बसने के बाद धीरे-धीरे समय के साथ एक ही परिवार के विस्तार से डेढ़ सौ घरों का गांव एक बन गया। हमारे आपसी रिश्तों में प्रेम बेमिसाल है। बस सरकार ने पढ़ने की व्यवस्था की होती तो हमारी स्थिति कुछ और होती।” असद के लिए ये सब बातें कहानियों सी प्रतीत हो रही थीं। पहली बार वह सुमन के होंठों को बस बोलते हुए देखे जा रहा था। उन पलों में पंखुड़ी की तरह खुलते-बंद होते होंठो के सिवाय उसे और कुछ नजर नहीं आ रहा था। भीतर एक अजीब सी गुदगुदी हो रही थी जैसे बातें नहीं पंख गुदगुदा रहे हों। एक पल को मन में आया कि उसे आगोश में भींच ले कि अचानक जैसे उसकी तंद्रा टूटी, काले साये ने अभी-अभी सुमन के लहराते दुपट्टे के पीछे से झांका था। अब चिता की लौ का प्रतिबिंब सुमन की आंखों में जल उठा था, जिसे देख वह भीतर से एकदम से सिहर गया। मर्मांतक वेदना में गुंथे शब्द जो बाहर आने वाले थे अचानक मौन में बदल कर गले में घुटे घुटे ही अर्थ से बाहर निकल गए। उसे लगा अगर यह सब यहीं नहीं रुका तो सुमन भी उसे छोड़ कर किसी और दुनिया में चली जाएगी। उसके इस पुराने डर की कहीं से कोई खबर सुमन को नहीं थी और पलक भर में एक झटके से असद का उठना और बिना कुछ कहे बाहर निकल जाना उसे बेहद बुरा लगा। आईना जो अभी अभी दीवार पर टांगा गया था अचानक टूट कर जमीन पर बिखर गया। अब हर टूटे शीशे में एक साथ कई लौ जल रही थीं। उसे लगा इस नए असद को वह अब तक जान नहीं जानती थी। मंदिर का दिया और चिता की लौ अब भी समान रूप से जल रही थी।
वहां से उठ कर असद चुपचाप अपनी पुरानी खोली में चला गया था और सुमन अकेले अपने घर। उस रात दोनों अपने-अपने घरों में रात भर करवटें बदलते रहे। असद का ऐसा व्यवहार सुमन के लिए सर्वथा अनपेक्षित था। इस बीच असद भी खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था, उसे लग रहा था जैसे बरसों से बंधी हुई रस्सी अचानक ढीली हो गई और अब एक एक फेरा खुद को अनावृत कर रहा है, जबकि अपने बनाए हुए खोल के बंधन से मुक्त होते हुए मन और भारी हुआ जा रहा है।
अगले दिन सुमन असद से नहीं जुनैद, बबलू, श्याम व हरि सब से एक-एक कर के बात कर रही थी। बातों के दौरान असद के उस डर के बारे में पर्दा धीरे-धीरे उठता चला गया और अंत में फिर से शाम को वह खूब खिलखिला कर हंसी। सोचने लगी क्या ही वहम दिल में पाल कर बैठा है यह इंसान!
उधर उस शाम असद अचानक विक्टोरिया की अपनी दुकान से गायब हो कर प्रिंसेप घाट पर जा कर एकांत में बैठ गया। रेल की पटरी पार करने के बाद साधारणतः सब दाहिनी ओर मुड़ कर अपनी पसंदीदा जगहों पर बैठते हैं पर असद की पसंद की जगह थी बाईं ओर विद्यासागर सेतु के पहले पाया से थोड़ी दूर और आगे, हुगली का एकदम एकांत किनारा। सुमन को जुनैद ने ऐसी सब जगहों का पता बता दिया था, इसलिए उसे ढूंढती हुई वह वहां तक पहुंच ही गई और चुपचाप उसके बगल में जा कर बैठ गई। चांद के साथ नदी भी थरथरा रही थी और उसके कंपन को दोनों भीतर महसूस कर रहे थे। मौन के प्रांगण में ये कंपन घंटी के बजने के बाद वाली अनुगूंज की तरह था। चुप्पी के उस परदे को चाक कर सुमन ने बस असद के हाथ के ऊपर अपना हाथ हौले से रख दिया। स्पर्श ने मानो उमड़ते चक्रवात को दो हथेली के भीतर बंद कर दिया। सुमन ने आगे के संवाद को पुराने विषय से दूर रखा और उसे एहसास नहीं होने दिया कि वह उसके डर का राज जान गई है। बस कहा मुझे तुमसे ढेर सारी बातें करनी है, जब तुम्हारा मन हो! असद आज बात करने के मूड में कतई नहीं था। उसने बस जवाब में इतना ही कहा कि आज नहीं कल शाम को मैदान में बैठते हैं। वापसी में पटरी पार करते ही नींबू मसाला की चाय दोनों ने पी और असद की फीकी हंसी के आगे सुमन ने अपनी सुंदर पलकों को झपकाते हुए एक लंबी मुस्कान के साथ उसे सायोनारा कहा!
शेरा और मिजो दोनों इंतजार कर रहे थे। दोनों की आदत थी असद के बिना रात में खाना नहीं खाने की। जुनैद के लाड़ और प्यार का असर शेरा पर असद जैसा नहीं पड़ता। शेरा के लिए तो मानो असद में ही उनकी जान बसती हो। अगर वो छू भी दे सानी को तो जाने कौन सा स्वाद आ जाता कि सब साफ कर देगा नहीं तो मक्खियां भिनभिनाती रहेंगी, एक निवाला नहीं लेगा। अब उम्र ढल रही थी मिजो की फिर भी असद के आते ही वह उसकी गोद से चिपक जाता। पंजे मार-मार कर उससे कहता पहले मुझे प्यार करो, पहले मुझे प्यार करो, पर शेरा सिर्फ नजरों से बातें करता। उसकी आंखों में समंदर भर की भावनाएं तैरतीं जिसे बस वो दो बूंद टपका कर संभाल लेता और पूंछ हिला कर असद को शुक्रिया कह देता। असद आता तो मिजो को कंधे पर उठा लेता जैसे मिजो कुत्ता नहीं बंदर हो और फिर असद शेरा की गर्दन से लिपट कर उसे खूब प्यार करता। उसकी पूंछ लहराती तो उसके पूरे शरीर को खूब सहलाता। असद को लगता जैसे भीतर की सारी हिलोरें उससे गले मिलते ही शांत हो जाती हैं। आज क्या हुआ है यह सोच कर जैसे शेरा भी चिंतित है कि उसके असद का मन स्थिर क्यों नहीं?
ये कैसा चक्रवात है जो थम ही नहीं रहा। शिव के भक्त को शिवा का अंश मिल रहा है, पर उसके भय ने इतनी अस्थिरता पैदा कर दी है कि मन शांत ही नहीं हो रहा है। कल क्या बात कहेगा सुमन से, क्या समझाएगा कि वह एक नंबर का झक्की है। उसके हिस्से में उसका प्यार एक मुलायम स्कार्फ की तरह बार-बार फिसल जाता है और वो कुछ भी बटोर नहीं पाता। सब कपूर है बस जिसका अंत जलना है और उसके हिस्से में बस जलने के बाद लोबान की खुशबू में लिपटी राख लिखी है। एकबारगी सुमन को लोबान में बदलने के ख्याल ने उसे चीर कर रख दिया। वो बेआवज कराह उठा जिसे शेरा की आंखें समझ गईं और रस्सी में बंधे बंधे ही वह जोर-जोर से हिनहिनाने लगा। उसकी हिनहिनाहट सुन कर सोता हुआ मिजो हड़बड़ा कर उठा और असद को बेइंतहा चाटने लगा। उस रात असल में तीनों को नींद नहीं आई। सुबह तड़के ही घाट के पीछे असद और मिजो ने नदी स्नान किया और शेरा ने बाल्टी स्नान। अब तीनों का मन ताजा था और असद के हल्के हुए मन का एहसास दोनों को हो चुका था। दोनों अपनी अपनी खुशी अपने तरीके से जाहिर कर रहे थे। ऐसा जब भी होता दोनों की पूंछ बहुत तेजी से हिलतीं और पानी की बूंदें एक दूसरे पर उड़ाते, यूं प्रतीत होता जैसे आपस में खिलखिला कर बातें कर रहे हों।
आज पूरा कोलकाता उत्साह में नहाया हुआ है। भारत और पाकिस्तान के बीच ईडन गार्डन में बहुप्रतीक्षित क्रिकेट मैच जो है। भीड़ दोपहर से ही पंक्ति लगाना शुरू कर चुकी है। देखते-देखते भीड़ सैलाब में बदल गई। पूरा स्टेडियम शोर में नहा रहा है। हर कोई थोड़ी-थोड़ी देर पर चीख कर अपनी खुशी दर्ज कर रहा है। इंडिया-इंडिया के गगनचुंबी यलगार के बीच मैदान के एक कोने में फोर्ट विलियम के सामने चारों जन एक साथ इकट्ठा हैं। शेरा चुपचाप घास चर रहा है, मिजो दोनों की गोद में बारी बारी से फुदक रहा है। जब चौका छक्का या विकेट गिरने से उपजे शोर का बवंडर उठता है जो मिजो सिहर कर किसी एक की गोद में दुबक जाता है। आज सुमन ने असद का हाथ यूं शायद पहली बार पकड़ा है कि गुंथी हुई उंगलियों में कौन सी उंगली किसकी है पता ही नहीं चल रहा। उसकी मुस्कान में जीवन के सारे सुंदर राग, जिनमें प्रेम की धुनें समाई हैं, एक साथ आपस में लिपट कर लहराते हुए बज उठे हैं। सुमन आज कोई जादूगरनी बन गई है। बंगाल के जादू के बराबर का असर उसके अबोलेपन के स्पर्श में सिमट आया है। सुमन के बाल घुंघराले हैं, पर उसे आज पहली बार दिखे हों उसे ऐसा लग रहा है। असद मूर्तिबद्ध सिर गोते हुए एक हाथ सुमन के हाथ में और दूसरे हाथ से मिजो को सहलाए जा रहा है। वो कहना चाह रहा है कि मेरी सच्ची स्थिति यही है। एक नदी सुमन की ओर बह रही है जो भविष्य है और दूसरी ओर वर्तमान है जिसमें सिर्फ मिजो और शेरा हैं। सुमन बिना कुछ कहे उसके बालों में उंगलियां फेरती है, जताती है कि हम चार हैं, तीन नहीं। तीन से बेहतर संतुलन चार में है। हम चारों यूं साथ रहेंगे तो जिंदगी पालकी बन जाएगी और हम एक साथ आनंद के झूले में झूलेंगे। अब भी दोनों में से एक भी संवाद नहीं कर रहा पर स्पर्श अपनी बात बेबाकी से कर रहे हैं। असद बार-बार हाथ छुड़ाने की कोशिश करता है पर सुमन का साधिकार जोर धीरे-धीरे कसता जा रहा है। उसकी उंगलियां सर्प के आलिंगन सी आपस में लिपट कर प्यार कर रही हैं। जैसे कोई सांप दूसरे सांप को गूंथते हुए प्रेम करता है। उस कसावट में भीतरी छटपटाहट का निदान है। असद को लग रहा है जैसे सुमन के जादुई स्पर्श में उसका पत्थर मन रेत की तरह बिखर रहा है और मन के भीतर घंटी की मधुर ध्वनि सी बज रही है। भीतर का उफनता समंदर फेन सा अब धीरे-धीरे बैठ रहा है। सुमन अब सामने से उठ कर उसके ठीक पीछे आ गई है। उसने उसके कंधे को हौले से अपने कंधे पर टिकाया है। उसका कंधा कह रहा है इन दो कंधों के मिलने और साथ टिकने के बाद यहां किसी चिंता को टिकने की जगह नहीं बनाने दूंगा। प्रेम-लहर के इस स्पर्श से उठे स्पंदन का असर ऐसा है कि असद भीतर ही भीतर मुस्करा उठता है। मानो मुस्कान का अमृत ठीक अभी-अभी ही भीतर टपका हो। स्पर्श मादक रसायन है। रसायन में ऐसा जादू है कि इसकी तरंगें पत्थर को बर्फ में बदल देती हैं। अभी-अभी असद के भीतर कुछ पानी सा बहा है। सुमन ने अब उसके सिर को अपनी गोद में यूं छिपा लिया है जैसे बादल चांद को छिपाता है, लग रहा है जैसे उल्टे मुंह असद अपने मन का सारा भार सुमन की गोद में ही आंखों की बहती धार संग अर्चना सा अर्पित कर रहा हो। पर दूसरे ही पल संशयसिक्त डर के काले बादल असद के चांद से मन को अपनी आगोश में कसना शुरू कर देते हैं। उसी पल उसे लगा जैसे भीतर कहीं समानांतर द्वंद्व की आरा मशीन सी चल रही है। देखते-देखते डर का पत्थर अब हीरा बन चुका है, द्वंद्व की आरा मशीन उसे काट नहीं पा रही। उधर सुमन की उंगलियां अब उसके घुंघराले बालों से गुजर रही हैं। यहां हर फेरे में लम्स का जादू है। हर फेरे का घेरा उस हीरे के इर्द-गिर्द कुछ एंटीडोट सा रसायन पैदा कर रहा है, जो अब उसे बहुत धीमे पिघला पा रही है और घूम कर यह पिघलन असद की आंखों से निकल रही है। असद सुमन के दुपट्टे को अपने मुंह में कोंचता जा रहा है ताकि इस पिघलन में उसके दर्द की आवाज सुमन तक न पहुंचे। सिर अभी भी उल्टे मुंह गोद की सुकून भरी पनाह में सुबक रहा है।
कभी-कभी टूटना निर्माण की पहली कड़ी साबित होती है। इस टूटन में प्रेम की मूर्ति अपना स्वरूप धारण करती जा रही है। बीतते पलों में अब ऐसा समय आ चुका है जब उल्टे मुंह डर अपना कोना ढूंढ रहा है। सुमन पहली बार बोल पड़ती है, “असद तुम्हें पता है विक्टोरिया की एंजल अपनी धुरी पर घूमती क्यों है?” थोड़ी देर में जब असद कुछ नहीं कहता तब वह खुद ही कहती है, “एंजल हवा की दिशा में घूमती है। बताती है हमें कि देखो उस ओर जा रही है हवा। इस बदलती दिशा में छुपा संदेश बदलाव का है। बाहरी और भीतरी दोनों बदलाव का। ठीक एंजल की तरह हमें भी पता होना चाहिए कि हमारे भीतर हवा किस ओर बह रही है। हम दोनों के भीतर दौड़ती हवा की दिशा एक तो नहीं! अगर ऐसा है तो फिर सोचना बंद कर दो, बस महसूस करो इन ईश्वरीय संकेतों को। आज आसमान में सूरज पूरी तरह ढला नहीं है और चांद भी पूरी तरह मौजूद है। हम दोनों की दिव्य मौजूदगी के क्षण में आह्वान गीत की तरह चिड़ियों का कलरव कलनाद तो सुन लो! असद सच में जिंदगी तुम्हारा इंतजार कर रही है। चिड़िया इंतजार कर रही हैं। खाली मटके पानी भरने का इंतजार कर रहे हैं, जिन्हें हम दोनों को साथ मिल कर भरना है।” इतना सुनते ही मानो असद के भीतर जैसे जागरण सा महसूस हुआ। वह उसकी बात सुन कर पलटा और दोनों की आंखें मिल गईं, दोनों एकाएक मुस्करा कर हंस पड़े, जैसे सुबह का जीवन हंसता है। सूरज से आंख मिलाते ही कमल हंसता है। जैसे बेला, चंपा, हरसिंगार, चमेली सब एक साथ मुस्करा रहे हों और इन दोनों की मुस्कान में बदलते जा रहे हों। हिल्लोल उठा खुशी का और अब सुमन की आंखों से खुशी के आंसू बह रहे हैं जिसे असद के लब पी रहे हैं। दृश्य यूं लग रहा है जैसे हंस मोती चुग रहा हो। अब दोनों का पाश कसता जा रहा है और पत्थर शरीर मोम बन पिघलता जा रहा है भीतर भी बाहर भी! हृदय को सानुपात समगति मिल गई है। पूरा पार्श्व मयूर बन नाच उठा है और प्रेम से पगे और भीगे इस दिव्य दृश्य की बौछार में नाच रहे हैं मिजो और शेरा। उस पल उन्हें लगा जैसे चिड़ियों के लौटते झुंड दुआएं दे रहे हैं।
इसी बीच दृश्य के इस मनोरम संगीत को कुचलते हुए यकायक आसमान में भयानक विस्फोट होता है। इस विस्फोट का सिरा विराट कोहली के शतक के साथ भारत की जीत से है। पूरा आसमान पटाखों की कर्कशता से अनियंत्रित हो रहा है और कृत्रिम सितारे आसमान को अपनी अनवरत बौछार से पाटे जा रहे हैं। थोड़ी देर को यह भ्रम हुआ सुमन को कि यह उनके प्रेम के स्वागत में की गई ईश्वर की जादूगरी का संगीत नाद है। पर पल बीतते ही पटाखों की असहनीय आतिशबाजी उसके सारे भ्रम तोड़ दे रही है और अब आतिशबाजी का रूप इतना विकराल है कि बादलों के टकराने की आवाज को भी चुनौती दे रहा है। लगातार पटाखे और सिर्फ पटाखे आसमान के साथ जमीन पर भी चिंघाड़ते जा रहे हैं। धीरे-धीरे पाकिस्तान को हराने का जज्बा जमीन पर पूरी तरह बिछ चुका है। अब जमीन और आसमान में एक साथ खुशियों की शक्ल में डरावनी आवाजें गूंज रही हैं। सब ओर एक जैसा चिंघाड़ता शोर, एक जैसी असहनीय रोशनी की बारिश, चिंगारियों का रेला, एक जैसी अग्नि बौछारें, सब ओर बस समवेत कर्कश हिल्लोल कोलाहल का। असद की नजर मैदान में चहुंओर पेड़ों से उड़ते बवंडर से बौखलाते पक्षियों पर पड़ती है। करुणा का एक प्रपात फूटता है उसके भीतर। दृश्य में पक्षियों की कराह और छटपटाहट इस असंयमित शोर में गुम हो रही है जबकि सब के सब पक्षियों की पूरी कोशिश यही है कि गगनचुंबी प्रार्थना की समवेत चीखें एक साथ निकलें और बस इतना हो कि ईश्वर उनकी प्रार्थना सुन ले। ये पटाखे, ये आसमान को ढांपती कर्कश आतिशबाजी अभी के अभी बंद हो जाए। देखते ही देखते पूरे मैदान का आसमान धुएं और चिड़ियों की बौराई उड़ान से भर गया है। लगा जैसे इस आसमानी धमाके के कोलाहल की चपेट में आ कर अभी ये सब चिड़ियां बारिश की मोटी बूंदों की तरह टपकने वाली हैं। पर बूंदें नहीं शेरा टपकता है, अभी कुछ देर पहले खुशी में झूमता असद का अपना प्यारा दुलारा हिनहिनाता शेरा, जो टपकने से पहले असद की ओर उस डरावने पल में अपनी अंतिम छलांग भरता है, मानो उसके आगोश में सिर रखने से इस अनियमित अनियंत्रित शोर से उसे निजात मिल जाएगी। उधर युद्ध स्तर पर फूटते पटाखे हैं कि बंद होने का नाम ही नहीं ले रहे। असहाय शेरा का हृदय असद को स्नेहसिक्त नजरों से निहारते हुए शोर के इस विकराल रूप के आगे घुटने टेक रहा है। उसका शरीर एक पल को करेंट लगने सा तड़पता है, छिटकता है और फिर वो नामुराद पल आता है जब उसके हृदय ने इस हृदय भयानक शोर को सुनने से बेहतर खुद को ही बंद करना चुन लिया।
कहते हैं मरने वाले की आंखें कुछ पल के लिए मरने के बाद भी जिंदा रहती हैं। वो जिंदा निःसहाय खुली आंखें अब असद के पिघले हुए डर को फिर से हीरा बनते हुए देख रही हैं। प्रेम का रसायन अब बेअसर है। अब आंखें देख रही हैं मिजो कैसे उसे चाटे जा रहा है और लगातार भौंके जा रहा है। बंद होती आंखें देख रही हैं असद कैसे सुमन के सर्पपाश से खुद को अलग कर रहा है, कैसे उंगलियों ने उंगलियों को अभी अभी नाराज किया, कैसे सुमन की आंखों में अविश्वास का आकाश फैलता जा रहा है। कैसे चुप रहने वाला असद आसमान की ओर दोनों हाथ फैलाए बेतहाशा चिल्ला रहा है, जाने क्या आसमानी ताकतों को उजूल फिजूल बोले जा रहा है और फिर अंततः आंखें देखती हैं कि कैसे असद की जीवनदायिनी उंगलियों ने बंद कर दी अभी अभी उसकी ही आंखें...।
आंखें बंद हो चुकी हैं, पर अब भी बंद नहीं हो रहीं आकाश बराबर की ये आतिशबाजियां...।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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