हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'चिट्ठी-पाती की भूली-बिसरी दुनिया'


हेरम्ब चतुर्वेदी


आज का युग संचार क्रान्ति का युग है। कोई भी घटना घटती नहीं कि समूची दुनिया में उसकी सूचना तुरन्त ही पहुंच जाती है। आज हम घर बैठे क्षण भर में ही अमरीका या अन्य देश में बैठे किसी व्यक्ति से वीडियो कॉलिंग कर बात कर सकते हैं। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि चिट्ठी पाती का भी एक जमाना हुआ करता था। इसके लिखने का एक सलीका होता था। चिट्ठी को पाने की तब एक उत्सुकता हुआ करती थी। हम लोग शायद उस पीढ़ी के अन्तिम लोग हैं जिन्होंने अपने हाथों से चिट्ठियां लिखी हैं और पाई हैं। हम लोग पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और लिफाफे खरीद कर उसके मार्फत पत्र भेजा करते। चिट्ठी पाती की इस भूली बिसरी दुनिया को प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने शिद्दत से याद किया है। आज उनका जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें जनमवार की बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'चिट्ठी-पाती की भूली-बिसरी दुनिया'।



'चिट्ठी-पाती की भूली-बिसरी दुनिया'


हेरम्ब चतुर्वेदी


आज की सूचना क्रांति के बाद के दौर में ई-मेल, व्हॉट्सएप आदि ने डाक-व्यवस्था को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है। लेकिन एक वो दौर था जब चिट्ठी के लिए डाकिये का बेसब्री से इंतजार रहता था और ताज्जुब यह कि दिल्ली से भेजा गया पत्र दूसरे दिन शाम नहीं तो तीसरे दिन सुबह की डाक से मिल ही जाता था। इसीलिए रेलगाड़ियों का भी नामकरण हुआ था - मेल गाड़ियाँ सबसे कम स्टेशनों पर रुकती, तेज गति से चलती अपने गंतव्य स्थानों पर डाक पहुँचाने के चलते ही मेल गाड़ियां कहलाती थीं!


हाँ, यह भी सच है कि बड़े शहरों में दिन में दो बार डाक का वितरण होता था। चूंकि, इन पंक्तियों का लेखक 1858 के पश्चिमोत्तर प्रान्त (जो बाद को आगरा एवं अवध के संयुक्त प्रांत के नाम से जाना गया) उसकी राजधानी इलाहाबाद में रहा है। जिस मोहल्ले (मम्फोर्डगंज) में हम रहते थे वहाँ सुबह डाकिया दस-साढ़े दस (10-10.30) के आस-पास और शाम चार-साढ़े चार (4-4.30) के आस-पास आ जाता था। इसी क्रम में हमने जब 1974 में बारहवीं जमात उत्तीर्ण कर ली तब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन किया। शाम की डाक में एक पोस्टकार्ड आया कि कल सुबह आ कर शुल्क इत्यादि जमा कर के प्रवेश प्राप्त कर लें। हमारे जैसे विद्यार्थी ऐसे ही प्रवेश प्राप्त करते थे, न डाक की गड़बड़ी न विलम्ब! शायद कोरियर सेवाओं के शुरू होने पर इन गड़बड़ियों का जन्म हुआ था?


वैसे पत्रों, पातियों का अपना एक ऐतिहासिक विकासक्रम है। ये न होते तो युद्ध शांत न होते, संधियाँ न होतीं, कूटनीति और राजनयिक सम्बन्धों के अभाव में हम दुनियाभर के देशों से कटे रहते। वस्तुतः इन पारस्परिक संबंधों और अंतर्क्रिया से ही मानव विकास संभव हुआ और उसको हम इतिहास में उकेर सके!


इसका एक रूप व्यापार-व्यवसाय के विकास में विनमय का भी रहा है, जिसको सहज भाषा में 'हुंडी', व्यापारिक बीमा/ trade insurance कहते हैं। यानी 'हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा का चोखा!' बस एक पाती से बिना धन के वास्तविक आदान-प्रदान से दूरस्थ व्यापार भी संभव हो जाता था और सैन्य अभियानों पर गयीं सेनाओं को सेनाओं और उसके शिविरों को अनाज उपलब्ध हो जाता था!


आइये इसके एक और आयाम पर भी ज़रा प्रकाश डाल लिया जाये। वाकई पूरे ऐतिहासिक कालखंड को देखिए तो कबीर, नानक, नरसी से ले कर अनेक संतों और भक्तों का प्रचार-प्रसार ही न होता अगर पाती न होती?


इस किस्म के पूरे साहित्य को 'परचयी साहित्य' कहते हैं और कैसा दुर्भाग्य इस पर कोई ढंग का व्यवस्थित/वैज्ञानिक काम नहीं हुआ है। इस साहित्य-संकुल में संतों-भक्तों के आवागमन के दौरान परिचय पत्र, उनके शिष्यों द्वारा भ्रमण के पत्र, अन्य लोगों को उनके साहित्यिक/धार्मिक/ सांस्कृतिक परिचय देते पत्र मौजूद हैं पर कम लोगों की नज़र इस पर गयी। जायसी के पद्मावत का वह प्रसंग बरबस याद आता है जहाँ राजा स्पष्ट आदेश देता है कि यदि कोई व्यापारी हो या जोगी हो तभी द्वार खोलना अन्यथा पूरी तरह से जाँच-पड़ताल करना।


इस सिलसिले में एक ख्याल यूँ ही और इस संबंध में, क्या कबूतर से पहले कौआ पत्र लाता ले जाता था? काग-कागद शब्दों की व्युत्तपत्ति की ओर बस ध्यानाकर्षण ज़रूरी है!


वैसे तो सहज ही पत्र, पाती, पत्ता कहीं यह भी इंगित करता है कि कैसे प्रारंभ में सामान्य पत्तों पर और बाद में, उसको अधिक समय के लिए सुरक्षित संरक्षित रखने हेतु, ताड़ के पत्तों का चयन किया गया होगा? इसी क्रम में बाद के चरणों में दान-पत्रों दानदाता और प्राप्तकर्ता दोनों के नाम सुरक्षित रखने की आवश्यकता विधिक अनिवार्यता बन गयी थी? अतः ताम्र-पत्र या धातु का प्रयोग शुरू हुआ ताकि अधिक अवधि तक इन्हें संरक्षित और सुरक्षित रखा जा सके और दान प्राप्तकर्ता और उसके उत्तराधिकारियों की यह विरासत चलती रह सके।


1789 की फ्रांस की राज्यक्रान्ति के पश्चात् नेपोलियन का उदय हुआ और उसने अधिनायक हो कर पवित्र रोमन साम्राज्य के तर्ज पर एक यूरोपीय साम्राज्य की स्थापना के सपने को क्रियान्वित करने के क्रम में युद्धों की अविरल सी श्रृंखला शुरू की जिससे पूरे यूरोप का मानचित्र बदल गया। उसके पतन के पश्चात् 1815 में वियना के सम्मलेन में न केवल वैधता के सिद्धांत के अनुसार क्रांति-पूर्व व्यवस्था और राज्यों की पुनर्स्थापना हुई अपितु भविष्य में ऐसी क्रांति और राजतंत्रों के पतन को बचाने लिए 'यूरोपीय पोस्टल यूनियन' या यूरोपीय डाक संघ का गठन किया गया। इस सोच के पीछे भी ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री और उस काल के महान राजनयिक, मेटर्निख का ही दिमाग था।


इसी डाक व्यवस्था के माध्यम से वह डाक की जाँच-पड़ताल और पत्रों की जासूसी करता था। इस का प्रभाव इस तथ्य में निहित है कि जब जर्मनी और इटली का एकीकरण सम्पूर्ण हुआ और पाश्चात्य विश्व ने एक नई करवट ली तब भी 1874 में वैश्विक डाक-व्यवस्था की सुविधा के दृष्टिकोण से 'यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन' का गठन हुआ था। इसका मुख्यालय स्विटज़रलैंड की राजधानी बर्न में बनाया गया था। विश्व युद्धों के दौर के बाद राष्ट्र संघ की स्थापना हुई तब भी इस 'युनिवर्सल पोस्टल यूनियन' को बरकरार रखा गया भले ही इसके माध्यम से जासूसी के स्थान पर विश्व में अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के चलते ऐसा प्रावधान किया गया था। इसके लगभग 200 सदस्य हैं। भारतीय इतिहास के बड़े कालखंड में हमें डाक व्यवस्था दिखती है किन्तु इसके माध्यम से उस प्रकार की जासूसी का कोई संदर्भ नहीं मिलता है जैसा मैटर्निक के काल में यूरोप में देखा गया था!


जहाँ तक अपने देश का सवाल है तो हम पाते हैं कि प्रारम्भिक काल से (शायद मोहनजोदड़ो हड़प्पा स्मरण हो) अरबों (जब इस्लाम का भी प्रादुर्भाव नहीं हुआ था!) के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे। यह तथ्य अपने-आप पत्र-व्यवहार या संचार का एक परोक्ष साक्ष्य है। मौर्य काल से तो यूनानियों के साथ कूटनीतिक या राजनयिक संबंधों के साथ आंतरिक संचार साधनों के स्पष्ट प्रमाण मिलते ही है। पहले यूनानी तदुपरांत रोमन इतिहासकार-लेखक भारत के साथ समृद्ध व्यापार के माध्यम से पत्र-व्यवहार की ओर इशारा करते ही हैं। मौर्य-गुप्त काल से होते हुए यातायात-संचार की व्यवस्था बेहतर होती ही रही तभी तो तुर्कों के लिए भी भारत में अपने राज्य की स्थापना में मदद मिली थी? अलाउद्दीन खिलजी ने तो दक्कन (दक्षिण) तक इस व्यवस्था को मजबूत किया था और इब्नबतूता हमें बताता है कि कैसे मुहम्मद बिन तुगलक के लिए दौलताबाद तक बड़े-बड़े तांबे के पात्र में ताजा गंगा-जल पहुँच जाता था! हर कोस बाद धावक और चार कोस बाद घुड़सवार पत्र-वाहक बदल जाते थे अतः रिले दौड़ की भांति पत्रों के आवागमन की सुचारू व्यवस्था मध्य काल में भी थी, जो मुगलों के काल तक चलती रही।


जब भारत में आंग्ल सत्ता स्थापित हो रही थी और आंग्ल ईस्ट इंडिया कंपनी अपने राज्य का विस्तार कर रही थी तब वारेन हेस्टिंग्स (1773-1785) ने भारत की पुरानी चली आ रही डाक व्यवस्था में सुधार कर के उसे आधुनिक रूप प्रदान किया। उसने इस नवीन डाक-व्यवस्था की स्थापना 1774 में की थी। उसने इसके माध्यम से भारत में कंपनी के विभिन्न मुख्यालयों तथा व्यापारिक प्रतिष्ठानों के मध्य परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए यह व्यवस्था अपनाई थी ताकि अपना कार्य सुचारु रूप से सम्पादित करते हुए भारत में आंग्ल सत्ता की नींव को मजबूती और निरंतरता प्रदान की जा सके।


हेस्टिंग्स ने डाक-मार्ग निर्धारित करते हुए उनके शीघ्र संप्रेषण का सुनिश्चित और विश्वसनीय इंतज़ाम किया: इसी प्रकार डाकखानों की स्थापना के माध्यम से शहरों, कस्बों तक को इस बृहत व्यवस्था का अपरिहार्य अंग ही नहीं बनाया बल्कि इनके माध्यम से डाक की व्यवस्था को सुपरिभाषित स्वरुप भी प्रदान कर दिया जिसमें प्रत्येक अधिकारी-कर्मचारी के दायित्व तक निर्धारित हो गये और यह व्यवस्था अधिक विश्वसनीय हो गयी! उसने डाकखानों में निश्चित वेतन पर अधिकारी, कर्मचारी और डाक-धावक तथा डाकिये नियुक्त करने की आधुनिक व्यवस्था शुरू की. उसने डाक सम्बंधित प्रत्येक सामग्री की दर निर्धारित करके देश भर में एक-रूपीय डाक-व्यवस्था स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया! आज तक यह व्यवस्था देश में अनेक परिवर्तनों के साथ कायम है!


वैसे भी पत्रों की एकमात्र विशेषता राज्य से सम्बंधित ही नहीं है अपितु व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार या ख़त-किताबत की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है! वैसे यहाँ भी पत्रों का महत्त्व किन्हीं दो व्यक्तियों के संबंधों को बयान करने तक सीमित नहीं रहता, अपितु उनके माध्यम से समकालीन समाज, और सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने की समझ के लिए तत्कालीन समय का जीवंत परिचय मिल जाता है और किसी भी समय के पूरे परिवेश की निर्मिति के चलते इतिहास के विद्यार्थियों/ शोधार्थियों के लिए प्राथमिक सूचना स्रोत होते हैं। वैसे भी इतिहास अब घटनाओं तक सीमित न हो कर किसी भी घटना के के प्रति तत्कालीन लोगों आग्रह करता है। अतः पाती चिट्टी-पत्री अब इस युग में ऐतिहासिक सामग्री ही नहीं, अमूल्य, लुप्तप्राय धरोहर सी हो गयी है।


वाकई वो गुज़रा दौर - चिट्ठी पाती का दौर था, रूमानियत का दौर था; पत्राचार साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित हो रहा था और नई घटनाओं को उद्घाटित करने से ले कर घटनाओं पर नवीन प्रकाश डाल कर उनको नए मोड़ देने का सामर्थ्य इन्हीं पत्रों में था - जैसे ही प्रकाश में आते थे, नये आविष्कार की शक्ल अख्तियार कर लेते थे और कभी-कभी किसी भी हथियार से ज्यादा खतरनाक हो जाते थे! तो रूमानियत से ले कर रहस्योद्घाटन से खतरनाक खलनायक की भूमिका तक निभा जाते थे ये पत्र और चिट्ठी-पाती का संसार।


हमारे एक साथी को तो अपने स्कूल से टी. सी. इसीलिए मिल गयी थी क्योंकि उनका प्रेम-पत्र हमारी अध्यापिका ने ज़ब्त कर के कड़क प्राचार्य जी को सौंप दिया था! कितने प्रेम प्रकरण परवान चढ़े, कितने टूटे दिलों की भड़ास अभिव्यक्त हुई और आप माने न मानें साहित्य की अभिवृद्धि निश्चित ही हुई, समाज में किसी की किरकिरी हुई हो, क्या मतलब? खैर टी.वी. चैनेलों के दौर से पहले इन पत्रों चिट्ठियों की अपनी दुनिया थी, उसका गजब विस्तार था; 'कर लो दुनिया मुट्ठी में' जैसे उद्घोष से पूर्व मुट्ठी से रेत सी फिसल जाती थी जब किसी का पत्र 'लीक' हो जाता है। जैसे आज प्रश्नपत्र 'लीक' करने की होड़ सी लगी रहती है। एक दौर में पत्रों को लीक करने की चाह रहती थी...। संभवतः पत्रों से ही यह बीमारी प्रश्न-पत्रों तक इस दौर में पहुंची जब पत्र महत्त्वहीन से होने लगे?


कहाँ तो ट्रेन का नामकरण इन चिट्ठियों के चलते 'मेल ट्रेन' पड़ा वहीं सामान्य ज्ञान के लिए 'आर. एल. ओ.'  ('रिटर्न लेटर ऑफिस') और 'डी. एल. ओ' ('डेड लेटर ऑफिस') यानी पत्र वापसी का कार्यालय और वापस न हो पाये जाने वाले पत्रों के कार्यालयों की जानकारी भी उसी गुज़रे दौर में पढ़ना रटना ज़रूरी था! अब इनकी जानकारी के बिना ही अभ्यर्थी 'ऑनलाइन ज्ञान' के अधिकृत अधिकारी हैं! हम रहते तो इलाहाबाद में थे और हैं पर हमारा गाँव आगरा जनपद में बाह तहसील में जमुना के दक्षिणी तट पर बटेश्वर (जो यमुना के उत्तरी तट पर अवस्थित है) के निकट ही है। शायद इसीलिए इलाहाबाद में रहना बड़ा था। एक तो यमुना का संगम यहाँ हो जाता है तो इससे आगे 'छोरा जमुना किनारे वाला' और कहाँ जाता? दूसरे, जब 1836 में पश्चिमोत्तर प्रान्त बना तब अँगरेज़ बहादुर ने इलाहाबाद के विषय में राजधानी की परिकल्पना की किन्तु कलकत्ता की राजधानी वाले कंपनी बहादुर की सरकार को मुगलों की राजधानी अधिक मुफीद लगी और दो-तीन माह में ही आगरा राजधानी हो गई! फिर जब 1857 हो चुका और कंपनी बहादुर से सत्ता महारानी के हाथों में आ गई और उसकी उद्घोषणा इलाहाबाद में हुई तब प्रांतीय राजधानी भी यहीं आ गयी!


लेकिन जैसा आम भारतीयों के साथ होता है, गाँव आना जाना लगा ही रहा, जिनके गाँव नज़दीक होते वे तो गाहे-बगाहे गाँव हो आते लेकिन हम लोग तो गर्मियों की छुट्टियों में ही ग्राम-प्रवास करते थे। इस प्रवास में दिनचर्या का एक महत्त्वपूर्ण चरण था स्नान आदि के बाद और भोजन से पूर्व दिन के लगभग ग्यारह बजे के बाद गाँव के कॉलेज से पूर्व डाकघर में अपनी-अपनी डाक लेने जाते थे। ये डाक गाँव में आने वाली 'मेल बस' से आगरा से आती थी। चिट्ठियों के साथ पत्रिकाओं के आमद की भी उत्सुक प्रतीक्षा होती थी और जो लाया उसको पहले पढ़ने का अधिकार के तहत पहले पाठक होने का सुख मिलता और यश भी खुद ले लेते थे!


उस दौर में जिस एक व्यक्ति का सबसे ज्यादा महत्त्व था वह डाकिया ही था। लोग अपने घरों के खिड़कियों, दरवाज़ों और गेट पर वैसे ही टकटकी लगाये रहते जैसे प्रेमी-प्रेमिकाएँ एक-दूजे के लिए आतुरता से प्रतीक्षारत रहते? इसीलिए ऐसे गीत भी लिखे जाते 'डाकिया डाक लाया, डाकिया डाक लाया' लेकिन जब पाती-चिट्ठी, डाक-डाकियों का दौर गुज़रने को हुआ तो गुलज़ार साहब की नजूम को जगजीत सिंह ने आवाज़ दी, 


'वो खत के पुर्जे उड़ा रहा था, 

हवाओं का रुख दिखा रहा था'


हवाओं का रुख साफ होता गया कि अब खतों का दौर हवा में विलीन होने को ही है और लगभग हो ही गया। पहले डाकिये को होली, दिवाली, ईद-बकरीद, क्रिसमस, आदि पर मिठाई के साथ नज़राने (?!) के रूप कुछ रुपये भी दिए जाते थे अब उम्र की इस मोड़ पर डाकिये बाकायदे चरण स्पर्श करने लगे तब हमने कुछ अधिक धन देने की पेशकश की समाज में मर्यादा और उम्र के अनुरूप मगर एक नहीं कम से कम तीन-चार डाकियों ने एक के बाद एक क्रम में इंकार कर दिया! उन सब का एक ही तर्क था कि आप जैसों की वजह से हमारी सरकारी नौकरी चल रही है वरना अब कितने लोग चिट्ठी-पटरी, पत्रिकाओं की आमद के लिए सरकारी डाक व्यवस्था पर भरोसा करते ही हैं!



संपर्कः 


मोबाइल: 9452799008

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