हितेन्द्र पटेल का आलेख 'जरूरी होता है इतिहासकार के लिए तथ्य'

 

हितेन्द्र पटेल



'जरूरी होता है इतिहासकार के लिए तथ्य'


हितेन्द्र पटेल


अतीत के बारे में कई प्रकार से लिखा जाता है। जो बीत गई वह बात गई का भाव एक कवि इसलिए रखता है क्योंकि उसे लगता है कि बीती बातों को भूल जाने से ही मनुष्य बेहतर आज और आने वाले कल की तैयारी कर सकता है। इतिहास दृष्टि इस बात से सहमत नहीं होती। जो हुआ उसके साथ जो हो रहा है उसका संबंध है और जो भविष्य में होने जा रहा है उसका संबंध बीते हुए और चल रहे समय के साथ है।


देखा जाए तो इतिहास को ले कर बहुत सारे भ्रम बने हुए हैं। इतिहास अतीत के बारे में एक खास तरह की दृष्टि से विचार करता है और वह खास दृष्टि इतिहास के एक विशेष कालखंड की उपज है। 1650 से 1750 के बीच की शताब्दी में मानव समाज की सोच में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ। इस शताब्दी को हम 'इनलाइटनमेंट की शताब्दी' कहते हैं। इस दौरान विज्ञान, युक्तिवाद का प्रभाव बढ़ा और ज्ञान के आधार को आस्था से हटा कर बुद्धि (रीजन) को आधार बनाया गया। विज्ञान के प्रभाव से औद्योगिक क्रांति हुई तो सोच के स्तर पर एक नई दृष्टि का विकास हुआ जिसमें मनुष्य ने सोचा कि हम समाज को अपनी सोच से बदल सकते हैं, बेहतर बना सकते हैं। इस सोच से ही फ्रांस में क्रांति हुई। इसी प्रक्रिया के भीतर से कई चीजें निकलीं जिसमें से एक है इतिहास का नया दर्शन। अतीत अब मृत नहीं रहा बल्कि वर्तमान को समझने में सहायक हो गया। अब इसको नए तरीके से देखा जाने लगा, उसे संजोने का काम भी जरूरी हो गया। इसी दौरान मनुष्य समाज को बदल सकता है, प्रकृति को समझ कर उसका उपयोग कर सकता है, यह विचार भी प्रतिष्ठित हुआ। अब उसे ईश्वर जैसी किसी सत्ता से इसके लिए अनुमति की जरूरत नहीं रही। धर्म का विलोप नहीं हुआ लेकिन सोच में इसकी केंद्रीयता समाप्त हो गई।


इस परिवर्तन में जिस इतिहास का जन्म हुआ वह अतीत को सिर्फ तथ्य के आधार पर ही देखने को इच्छुक था। एक और जहां देकार्त (1596-1650) और बेकन (1561-1626) दर्शन और विज्ञान को एक नया आधार दे रहे थे वहीं वाल्टेयर, हीगेल, हॉम्बर्ट और रांके इतिहास के दर्शन की एक नई व्याख्या कर रहे थे। ये सब कांट (1724-1804) के इनलाइटनमेंट के प्रोजेक्ट के साथ थे, विज्ञान के साथ थे और इतिहास की इस नई व्याख्या के दर्शन के साथ थे। इतिहास में ईश्वर का स्थान अब नहीं था। इतिहास अब पूरी तरह से मानविक व्यापार था और उसके परिवर्तन की व्याख्या में ईश्वर की सत्ता का कोई रोल नहीं था। जितने भी ऐसे आख्यान थे जिसमें पारलौकिक सत्ता थी वे सब इतिहास से बाहर हो गए, मिथक बन गए।


इसके साथ ही भाषा के स्तर पर एक परिवर्तन हुआ। अब तक भाषा मिथकीय भाषा थी अब वह वैज्ञानिक बन गई, जिसका अर्थ हुआ कि ‘अब प्राचीन काल की बात है’ से काम नहीं चलने वाला था, कितनी पुरानी बात है यह बताना जरूरी हो गया। बहुत विशाल यथेष्ट नहीं रहा, कितनी संख्या थी, और उसके बारे में निश्चयपूर्वक कहने के लिए कहा जाने लगा। अब स्केल और ग्लोब दोनों इतिहास के संगी हो गए। किसी चीज को भी बिना बुद्धि के तराजू पर  तौलें मानने को तैयार नहीं थे।


ऐसा नहीं था कि सभी विद्वान इसी तरह की बातें करते थे। इस दौर में ही एक और चिंतक हुए हैं विको (1668-1744) जो मानते थे कि इस तरह से अतीत को देखना सही नहीं क्योंकि मनुष्य सभी चीजों को नहीं समझ सकता। मनुष्य के ज्ञान की सीमा उसके द्वारा निर्मित चीजों तक ही सीमित है। जिस चीज को उसने नहीं बनाया उसे वह ठीक से नहीं समझ सकता। वे इतिहास के लिए मिथ, रीति रिवाज, लोक गीत, सामाजिक नियम, भाषा इत्यादि चीजों को जरूर समझते थे।  उनके जीते जी उनकी बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। बाद में उनके इनलाइटनमेंट के बुद्धिमान विरोधी धारणाओं की सीमा को समझने में सहायक माना गया।


इनलाइटनमेंट को चुनौती मिलने का समय आते-आते इतिहास की पश्चिमी आधुनिक धारणा ने पूरी दुनिया में अपना प्रभाव बना लिया था। यूरोप, अमरीका और यूरोपीय उपनिवेशों में जिस इतिहास की धारणा का प्रचार हुआ वह यही था।


इस यूरोपीय इतिहास लेखन के दर्शन को मानने वाले इतिहास को एक नदी के रूपक की तरह देखते हैं। वर्तमान में आंखों के सामने बहती हुई नदी दिखलाई पड़ती है और जो हिस्सा पीछे का नहीं दिखता उसके बारे में वर्तमान से अनुमान किया जा सकता है। साथ ही जो भविष्य का हिस्सा नहीं दिखता उसका भी पूर्वानुमान किया जा सकता है। हेगल (1770-1831) इसी आधार पर इतिहास की सतत धारा को अपने ‘लेक्चर्स ऑन फिलासफी ऑफ हिस्ट्री’ में रखते हैं। इस दृष्टि से विचार करने से यह यह स्पष्ट था कि अतीत मर नहीं जाता है  उसकी परिणति वर्तमान में होती है, अतीत की कोख से वर्तमान का जन्म होता है। अब इतिहास का अध्ययन वर्तमान को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो गया। हेगल जब बर्लिन में अध्यापन कर रहे थे उसी समय अतीत की व्याख्या और विश्लेषण के आधार के रूप में इतिहास लेखन की एक वैज्ञानिक पद्धति का विकास हुआ। इसके अनुसार अतीत की व्याख्या और उसका वर्णन तथ्यों के आधार पर ही किया जा सकता था। तथ्यों पर विचार करते हुए  विश्वस्त लिखित स्रोतों को ही आधार माना गया। इसके अनुसार इतिहासकारों से ये अपेक्षा की गई कि वे सिर्फ तथ्यों को खोज-खोज कर रखने का काम करें और उन तथ्यों को अतीत को बयान करने दें। इतिहासकार अपने मतों को अगर तथ्यों से मिलाने की कोशिश करेगा तो घालमेल हो जाएगा। अगर वह पसंद या मत को रखेगा तो इससे इतिहास पक्षपातपूर्ण हो जाएगा, ऐसा इनका मानना था।


यह एक ब्रेक था। अब तक अतीत के बारे में लिखना साहित्य की तरह से लिया जाता था जिसमें इतिहास के सत्य को कहने को इतिहासकार के दायित्व के रूप में लिया जाता था, हर मोड़  पर उससे साक्ष्य नहीं मांगे जाते थे।


इस साक्ष्य के साथ इतिहास के आने का स्वागत भारत जैसे देश में भी हुआ जब 1860 के दशक में शिवप्रसाद सितारहिंद ने ‘इतिहास तिमिर नाशक’ जैसी किताब लिखी और इतिहास को अतीत के अंधकार को दूर करने वाली रौशनी के रूप में देखा।


इस तरह के साक्ष्य आधारित इतिहास लेखन को सबसे गंभीर चुनौती विलहेल्म डिल्थे से मिली।  उनका मानना था कि विज्ञान और मानविकी (इसमें इतिहास शामिल है) में एक बुनियादी  फर्क है। इतिहास में हम मूलतः अनुभव को समझना चाहते हैं जिसके कारण कोई अतीत का व्यक्ति वह करता है जो उसने किया। किसी घटना या व्यक्ति के बारे में जानने के लिए उसके उस समय या व्यक्ति के अनुभव संसार में उतरने की कोशिश करना जरूरी है। मानविकी में अध्ययनकर्ता का प्राथमिक दायित्व अनुभव जगत का अन्वेषण है। आज से सैकड़ों साल पहले के किसी व्यक्ति के कार्यों को समझने के लिए उस युग के तमाम स्रोतों से गुजर कर उसके अनुभवों का अनुमान विश्वासपूर्वक लगाया जा सकता है। उनके अनुसार हमारा अपना अनुभव बहुत सीमित होता है हम अपने इतिहास की समझ से और कला के अनुभवों से प्राप्त ज्ञान से एक पूर्ण परिपक्व मनुष्य के रूप में परिणत होकर सुदूर अतीत के अनुभवों तक पहुंच सकते हैं।


इस तरह की दृष्टि को और अधिक स्पष्ट रूप से रखने का कार्य आर जी कॉलिंगवुड ने किया। उन्होंने यह कहा कि इतिहासकार अतीत के  पात्रों के भीतर प्रविष्ट होता है, अतीत को अपने मन में पुनर्घटित (रिक्रिएट) करता है और इस बात को समझता है कि किसी व्यक्ति ने जो निर्णय लिया उसे क्यों लिया। विलहेल्म डिल्थे और कॉलिंगवुड के बीच का अंतर बस इतना है कि कॉलिंगवुड इसके माध्यम से अतीत के व्यक्ति के सोच तक पहुंचने की बात करते हैं जबकि डिल्थे उसके अनुभव तक।


इस तरह से सोचने वाले एक अन्य इतिहास चिंतक हैं इटली के सिसली निवासी बेनेडेटो  क्रोचे (1866-1952)। वे विको से प्रभावित थे और उनके भीतर इतिहास की वैज्ञानिक लेखन पद्धति के प्रति विश्वास नहीं था।


कहा जा सकता है कि इन तीनों में परंपरा के प्रति अधिक सचेत दृष्टि है और ये अतीत के बारे में सिर्फ उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इतिहास लेखन के पक्ष में नहीं हैं। इतिहास उनके लिए तथ्य संकलन से ज्यादा गहरी चीज थी। कई विद्वानों ने इस प्रसंग में सत्रहवीं शताब्दी के मध्य से शक्तिशाली हुए इनलाइटनमेंट की धारा के बरक्स एक और धारा की बात की है जिसमें विको की विशेष चर्चा इतिहास के प्रसंग में की जाती है। इस प्रकार एक विज्ञानवादी, भौतिकवादी, उपयोगितावादी धारा थी और दूसरी ओर यह धारा थी जिसमें परंपरा, सांस्कृतिक स्मृति और प्रकृति के साथ संबंधों पर अधिक ध्यान दिया गया था।


वापस अनुभव वाली डिल्थे की बात पर लौटते हैं। इस ओर कॉलिंगवुड नहीं जाना चाहते थे। उन्होंने अपने शुरुआती लेखन में 1916 (‘रिलीजन एंड फिलॉसफी)’ में अपने मूल सिद्धांतों को सूत्र रूप में रख दिया था। वह इसलिए क्योंकि उन्हें प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस तरह की आशंका थी कि अगर वे मारे जाते हैं तो कम से कम उनकी बातें इस किताब के माध्यम से रह जाएं। बाद में उनकी अन्य पुस्तकें आईं जिसमें 'आइडिया ऑफ हिस्ट्री' इतिहास के अध्येताओं के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। कॉलिंगवुड ने अपनी 1916 वाली पुस्तक में पांच प्रकार के अनुभवों की चर्चा की है। इसमें पहला और प्राथमिक अनुभव वे कला को मानते हैं। उसके बाद वे क्रमशः धर्म, विज्ञान, इतिहास और दर्शन को रखते हैं। इस संदर्भ में क्रोचे के अनुभव के बारे में विचार को जोड़ कर भी देख सकते हैं। क्रोचे अनुभवों के दो स्तरों की बात 1904 में लिखी अपनी पुस्तक में  करते हैं। ये दो स्तर हैं- पहले कलात्मक अनुभव में उच्च अनुभव को वे लॉजिक के अंतर्गत रखते हैं और निम्न को सौंदर्यशास्त्र के। दूसरे स्तर- प्रैक्टिकल में उच्च स्तर पर वे नैतिकता को रखते हैं और निम्न स्तर पर आर्थिक को।


क्रोचे कला और शिशु में एक समानता देखते हैं। दोनों में अनुभव कम होता है, पर यहीं अनुभव की सबसे प्राथमिक और नैसर्गिक अभिव्यक्ति होती है। एक तरह से यह मिट्टी है, बुनियाद है जिस पर अनुभव जनमते हैं। इस स्तर पर सत्य और असत्य का स्पष्ट विभाजन नहीं होता, दोनों ही मिले-जुले रूप में होते हैं, इस अंतर का कोई विशेष महत्व नहीं होता। कला कल्पना पर आश्रित है। कलाकार का उद्देश्य कलात्मक सौंदर्य की उपलब्धि है। कलाकार की दुनिया वास्तविक दुनिया से अलग तो नहीं होती, पर विशिष्ट होती है। कलाकार की दुनिया कलाकार के मन की स्वायत्त चीज नहीं है, बल्कि यह उसके अनुभव का आधारभूत अंश है।


अगले स्तर पर धार्मिक अनुभव आता है। कला में यथार्थ और कल्पना का अंतर स्पष्ट रूप में नहीं होता लेकिन धर्म में यह स्पष्ट होने लगता है। ईश्वर की आराधना में आराधक को धर्म अपना एक सत्य देता है। विश्वास और सौंदर्य का समावेश इस धार्मिक अनुभव में एक साथ होता है। वहां धर्म एक सत्य की ओर ले जाया जाता है जिसमें अनुभव करने वाले को विश्वास होता है कि यही सच है। धर्म से उसे उसका सच आस्था के आधार पर प्राप्त होता है। जब भक्त पूजा करता है वह एक सामूहिक कला की-सी प्रक्रिया में शामिल होता है। भक्त कलाकार की तरह स्वतंत्र नहीं होता। उसे जो धार्मिक शिक्षा मिलती है, उसमें ही उसे सौंदर्य और सत्य दोनों के अनुभव प्राप्त होते हैं। इस स्तर के अनुभव में भाषा और सत्य एक ही होते हैं।


कॉलिंगवुड के अनुसार अगले स्तर के अनुभव को विज्ञान में पाया जाता है, जहां आस्था की जगह सत्य केंद्र में आ जाता है। इसे वे कला और धर्म से आगे का अनुभव मानते हैं। भाषा और सोच यहां अलग दिखलाई पड़ते हैं। इसके पूर्व के अनुभव में भाषा और चिंतन का अंतर नहीं होता। विज्ञान ने विचार को प्रधान बनाया, भाषा को अनुयायी। इस तरह विज्ञान ने धर्म के अनुभव को आगे बढ़ाया। जहां धर्म ने सत्य का संधान करने की कोशिश की और भाषा में इसे पाया। अब विज्ञान के अनुभव में उनमें विभेद हुआ। धर्म की दुनिया में दो दुनिया थी- ईश्वर की दुनिया और मनुष्य की दुनिया। अब विज्ञान के अनुभव में बस मनुष्य की दुनिया ही बची। इस दुनिया में भाषा और सत्य अलग हुए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि कॉलिंगवुड ने विज्ञान को प्राकृतिक विज्ञान के अर्थ में नहीं लिया। उनके लिए विज्ञान की पद्धति महत्वपूर्ण है। यह विज्ञान की पद्धति ज्ञान को एक निर्दिष्ट (पर्टिकुलर) से यूनिवर्सल बनाने के लिए अमूर्ततन (एब्सट्रेक्शन) करती है और फिर निर्दिष्ट को भूल जाती है। वे विज्ञान के इस अमूर्तन को भौतिकी या रसायन शास्त्र के मामले में उपयोगी मान लेने को तैयार थे, पर जहां मानविक अनुभवों की बात हो वहां वे वैज्ञानिक अमूर्तता की सीमा को रेखांकित करते हैं।


इतिहास के अनुभव को कॉलिंगवुड विज्ञान के बाद का अगला और उन्नत पड़ाव मानते हैं। इतिहास कला से भिन्न है, क्योंकि यह वास्तविक घटना या व्यक्ति का अध्ययन है। धर्म भी किसी काल्पनिक विश्वास-मूर्ति का निर्माण करता है। इतिहास मस्तिष्क के बाहर की घटनाओं के बाहर की चीज का अध्ययन करता है। विज्ञान में अमूर्त (उस तरह की हर चीज) का अध्ययन है, किसी खास का नहीं। इतिहास किसी खास चीज का अध्ययन है। इतिहास देखता-परखता (ऑब्जर्व) करता है और फिर धारणा (परसेप्शन) का निर्माण करता है। विज्ञान सामान्यीकरण (जनरलाइजेशन) करता है।


इस आधार पर कॉलिंगवुड एक महत्वपूर्ण सूत्र देते हैं कि इतिहास का मूल तत्व धारणा (परसेप्शन) है। यह धारणा एक आधुनिक चीज है। आधुनिक युग के पहले यह नहीं थी। सिर्फ इतिहास ही निर्दिष्ट (कंकरीट) तथ्यों का अध्ययन करता है।


कलिंगवुड के अनुसार कलाकार का इतिहास भी होता है। धार्मिक दृष्टि से भी इतिहास लिखा जाता है और वैज्ञानिक दृष्टि से भी। पहली श्रेणी में वे शेक्सपियर के ऐतिहासिक नाटकों को रखते हैं। हिंदी के संदर्भ में हम जयशंकर प्रसाद के नाटकों को रख सकते हैं।


दूसरी श्रेणी में सेंट ऑगस्टिन के इतिहास का उन्होंने रखा है। इस इतिहास में प्रभु की दुनिया और मानव की दुनिया के बारे में लिखा जा सकता है। तीसरी श्रेणी में वे अगस्ट कामटे की पुस्तकों को रखते हैं। कॉलिंगवुड के अनुसार पूर्व निर्धारित धारणाओं के कारण कलात्मक, धार्मिक और वैज्ञानिक अनुभवों के इतिहास की सीमाएं हैं। जैसे धार्मिक इतिहास में एक और दैविक शक्तियां होती हैं और दूसरी ओर उनके शत्रु। इस तरह इतिहास नहीं लिखा जा सकता।


कोलिंगवुड के अनुसार इतिहासकार के दरवाजे से किसी भी तथ्य को लौटाया नहीं जाता है।


सबसे अंत में कॉलिंगवुड दार्शनिक अनुभव की बात करते हैं। दर्शन के पूर्व के सभी अनुभव अपने आपको पूर्ण मानते हैं और उनको अनुभव करने वालों को लगता है कि और किसी अनुभव की उनको जरूरत नहीं है। दर्शन के अनुभव के साथ ऐसा नहीं है। यह सभी सीमाओं का पर्यवेक्षक भी है और सबकी सीमाओं को समझता भी है। चारों में से किसी अनुभव को यह छोड़ता भी नहीं है। सभी को एकसाथ लाकर एक पूर्ण दृष्टि से अतीत को समझने की कोशिश करता है।


यहां हम वापस डिल्थे पर लौट सकते हैं जिन्हें लगता है कि हम अतीत के पैट्रन के अनुभवों को समझने के लिए उनके अनुभवों तक सभी प्रकार के उपलब्ध स्रोतों के आधार पर पहुंच सकते हैं।


क्रोचे से कॉलिंगवुड तक कई मतभेद हैं, पर उनके बीच बहुत साम्य भी है। कॉलिंगवुड ने क्रोचे की तीन पुस्तकों का अनुवाद किया था और उनसे संपर्क भी बनाए रखा था। क्रोचे इतिहासकार से यह अपेक्षा करते हैं कि वह इतिहास के पात्र की आलोचना नहीं करे उसे यह समझना चाहिए कि जो उसने किया क्यों किया। वह उस पात्र की तरफ से ही बोल सकता है। जिस क्षण वह उसकी आलोचना शुरू करता है उसकी क्षण वह इतिहासकार नहीं पक्ष लेने वाला (पार्टिजन) बन जाता है।


इतिहास पर सघन आशय की चर्चा की भारत में बहुत जरूरत है।



सम्पर्क


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बोरोपोल के निकट, बैरकपुर, 

36/71, ओल्ड कोलकाता रोड, 

कोलकाता–700123

 

मोबाइल : 9836450033

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