हेमन्त देवलकर की कविताएं

 

हेमन्त देवलकर


कवि परिचय


11 जुलाई 1972 को उज्जैन में जन्म। वर्ष 2000 से कविता, रंगकर्म, संगीत की शुरुआत।

अब तक कुल तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं : 'हमारी उम्र का कपास' , 'गुल मकई' और 'प्रूफ़ रीडर'।

कुछ नाटकों का लेखन व रूपांतरण।

वर्तमान में विहान ड्रामा वर्क्स नाट्य समूह में सौरभ अनंत के निर्देशन में अभिनय, गीत लेखन, संगीत सृजन में  सक्रिय।



मनुष्य के लिए सबसे अहम होता है : प्रेम। हालांकि जैसे जैसे हम सभ्यता के शीर्ष की तरफ पहुंच रहे हैं, यह लगातार छीजता जा रहा है। प्रेम को जमींदोज करने के लिए उस पर लगातार हमले हो रहे हैं, फिर भी यह प्रेम है कि हो ही जाता है। इसकी अपनी, निहायत अपनी भाषा होती है। जैसे कि कोई शिशु तमाम कोशिशें करते हुए, तमाम लोगों को सुनते हुए, आखिर एक दिन सारी चुप्पियों को पराजित करते हुए अपने मुख से अपनी भाषा के रूप में  अपना पहला शब्द उच्चरित कर ही देता है और हम उसकी बोली पर निसार हो जाते हैं। कवि हेमन्त देवलेकर उन सघन संवेदनाओं के कवि हैं जिनकी बदौलत यह दुनिया तमाम खतरों के बावजूद वास्तविक अर्थों में बनी और बची हुई है। और तमाम अविश्वासों के बीच ही बचा हुआ है मनुष्य का एक दूसरे पर विश्वास। हेमन्त लिखते हैं : 'प्रेम करते हुए पता चलता है/ कि व्यंजना का जादू भी होता है शब्द में/ कोई असंगत शब्द अचानक/ पर्यायवाची लगने लगता है।/ अगर भाषा की तमीज़ सीखनी हो/ तो प्रेम कर के ज़रूर देखो।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हेमन्त देवलकर की कविताएं।


हेमन्त देवलकर की कविताएं



म्याऊं


मैं चाहूंगा

कि आप बिल्ली के साथ रह कर ज़रूर देखें :

"म्याऊं" -

बस यही एक शब्द आता है बिल्ली को

बस इतनी-सी है भाषा उसकी


वह आपसे पचासों बार बोलेगी - "म्याऊं"

आप देखेंगे कि हर बार अलग है उसका मतलब,

और आप उसका कहा बखूबी समझने लगे हैं


तब आप यकीनन

एक मोटे शब्दकोश के बारे में सोचने लगेंगे, आप भाषा की सार्थकता को भी तौलने लगेंगे - लाखों शब्दों से घिरे होने के बाद भी

कैसी लाचारी है कि अपनी बात

समझा ही नहीं पाते हम

और खो देते हैं कितने-कितने जीवन।



पूँजीपति


कोरस -  पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति

एक - क्या मतलब है इसका?

दो - जो भी हो, हमें बहकावे में नहीं आना चाहिए

तीन - मतलब कौन नहीं जानता (विक्षिप्त हँसी) लेकिन यह मज़ाक  का वक़्त नहीं।


कोरस -  पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति

एक - कोई तो बताओ इस लफ्ज़ के मायने

दो - यह एक तिलिस्मी शब्द है, सरासर झूठा।

तीन - (विक्षिप्त हँसी) बिल्कुल अलादीन के चिराग़ की तरह


कोरस  - पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति

एक - तुम लोग नहीं बताओगे तो उन्हीं से जा पूछूँगा

दो - जैसे खोखला है यह शब्द खोखले हैं वे भी

तीन - वे फोर्ब्स की सूची में सबसे ऊपर छपा अपना नाम दिखाएंगे ( विक्षिप्त हँसी)। बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं।


कोरस -  पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति

एक - याने उनसे कोई मदद नहीं मिल सकेगी?

दो -  वे व्यापार करते हैं, मदद नहीं करते

तीन - वे हर जगह केवल मुनाफ़ा देखते हैं। उफ्फ़...घिन आती है उनके बारे में सोच कर। खुदा के लिए बंद करो ज़िक्र उनका।


कोरस -- बच्चे ले आये बच्चे ले आये बच्चे ले आये

एक  -  वो देखो, बच्चे बना कर ले आये खीर और दलिया

दो  -  बच्चों ने बची हुई गुल्लकें भी फोड़ दीं, वह बच्ची खिलौने बाँटने लगी है।

तीन  -  बाँटते वक़्त कितनी ख़ुशी है उनके लहूलुहान चेहरों पर।

जीते जी यह यह मंज़र देखते तो कितना अच्छा होता।

चलो, हम ख़ुशबू तो ले ही सकते हैं


(ग़ज़ा की तीनों नन्ही आत्माएं उड़ीं

और खीर के भगोने की भाप में तैरने लगीं। कोरस आत्माएं थोड़ा सा मुस्काईं) 



यह देश


यह देश अपना ही है

बिल्कुल अपना

लेकिन इतना भी अपना नहीं

कि हर कहीं थूकते फिरो

और वह सरेआम बेइज्जत होता रहे


यह देश दूसरों का भी है

बेशक सभी दूसरों का

लेकिन इतना भी दूसरों का नहीं

कि कहीं बहता हुआ नल दिखे

तो यह ख्याल आए

कि टोटी बंद मैं क्यों करूं?? 





बर्थ डे गिफ्ट


केक का क्या है

कटेगा और खप जायेगा।


मिठाई भी वैसी

बँटेगी और खत्म हो जायेगी।


कपड़े भी कहाँ अलग

पहने जायेंगे, फट जायेंगे।


खिलौने भी तो

खेलेंगे फिर टूट जायेंगे।


लेकिन किताब पढ़ी जाने के बाद भी

पढ़ी जायेगी, पढ़ी जायेगी

फिर भी खत्म होगी नहीं

बल्कि सबके भीतर बस जायेगी।



साहस


केवल वही एक ईश्वर है

जिसे खोजना और पाना है,

केवल एक ही पूंजी है

जो संभव कर देगी जीवन -

साहस। केवल साहस। केवल केवल साहस।


केवल एक ही शक्ति है

सार है जो जीवन का,

केवल एक ही औषधि है

मृत्यु डरती है जिससे,

केवल एक ही प्रमाण है

अपने ज़िंदा होने का

साहस। केवल साहस। केवल केवल साहस।  



अहं खुशास्मि


बड़ी गंभीर हालत में पहुंचा मैं

डॉक्टर के पास

और कहा -

हर छोटी छोटी बात पर दुखता है मेरा अहं

ऊँचाई से गिरने पर जिस तरह टूट टूट जाती

पसली - हड्डी

बिना गिरे भी ठेस लगती रहती अहं को


कुछ कीजिये डॉक्टर

बाहर से घाव मत टटोलिये

मैं भीतर से हूँ आहत, खून से लथपथ

हो सके तो किसी मज़बूत अहं का ट्रांसप्लांट कर दीजिये


डॉक्टर मेरी आँखों में टॉर्च की तरह झाँका

और ज़ुबाँ को परखते हुए हौले से मुस्कुराया

"तुम पहले व्यक्ति हो जिसने माना कि

यह भी एक गंभीर बीमारी है"


लेकिन देर बहुत हो चुकी है

तुम्हारी नस नस मे फैल चुका है अहं

तुम्हारी परछाई भी ग्रस्त है

अब तो कैंसर की तरह फैलने लगा है यह


बचने का अब केवल एक उपाय है -

चुन चुन कर खींच निकालना होगा अहं तुम्हारे शरीर से

तुम बच पाओगे इसकी कोई गारंटी भी नहीं

कहो, तो कर डालूँ ऑपरेशन?


कैसी भयानक बात थी

इससे बड़ी विकलांगता क्या होगी

मृत्यु से भी बड़ा एक डर देखा पहली बार

(कौन राज़ी होता?)


अपने आहत अहं को सहलाते-पुचकारते

मैं लौट आया वापस।





प्रेम में भाषा


ये प्रेम के शुरुआती दिन हैं।

इन दिनों से ज़्यादा संवेदनशील

और दुविधापूर्ण कुछ भी नहीं

कैसी अजीब बात है कि

इन दिनों का सारा दारोमदार टिका है भाषा पर।


कितनी सतर्कता से चुनना पड़ते हैं शब्द

जैसे वे शतरंज के मोहरे हों

शब्दों के अर्थ से ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है आशय

इन्हीं दिनों समझने लगा हूँ


मैं शब्द चुनता हूँ एकदम अपनी भावना के नजदीक के

लेकिन बहुत नज़दीक के भी नहीं

क्योंकि यह कोई निशानेबाज़ी नहीं है

एक असमाप्त मैराथन है


प्रेम करते हुए पता चलता है

कि व्यंजना का जादू भी होता है शब्द में

कोई असंगत शब्द अचानक पर्यायवाची लगने लगता है।

अगर भाषा की तमीज़ सीखनी हो

तो प्रेम कर के ज़रूर देखो।



भरोसा


दुनिया कोरस में विलापती है

"अब किसी का भरोसा नहीं रहा"


दुनिया पर एक आकाशवाणी गिरती है

"अब किसी का भरोसा नहीं रहा"


मैं लगभग अनिश्चय में

किसी सड़क पर अपनी गाड़ी दौड़ाता हूं

तभी कहीं से कोई आवाज़

मेरी ओर लपकती है

"भैया, स्टैंड!!!"


वह आवाज़ जैसे

दुनिया की दुआओं का कोरस हो


आश्चर्य से सोचता रहा

अपने जीवन की आपाधापी में खोए

उस अपरिचित आदमी को

मेरी गाड़ी का खुला हुआ स्टैंड कैसे दिखा होगा


भरोसा अभी भी बचा हुआ है, मैंने कहा

और एक दुर्घटना होने से बच गई



उनका घर


आग बरसाती दोपहर में

तगारियां भर भर कर

माल चढ़ा रहे हैं जो ऊपर

घर मेरा बना रहे हैं।


जिस छत को भरते हैं अपने हाड़ और पसीने से

वे इसकी छांव में सुस्ताने कभी नहीं आएंगे


इतनी तल्लीनता से एक एक ईंट की,

रेत मसाले की कर रहे तरी

वे इस घर में घूंट भर पानी के लिए नहीं आएंगे


दूर छांव में खड़े हो देखता हूं

वे सब पक्षियों की तरह दिन रात

जैसे अपना ही घोंसला बनाने में जुटे हुए

उनको शुक्रिया कहने का ख्याल भी मुझे नही आयेगा


एक दिन

सीमेंट चूने गारे से  लथपथ

यूं चले जायेंगे वे, जैसे थे ही नहीं


मुझे तसल्ली होगी कि उन्हें

मेहनताना दे कर विदा किया

लेकिन उनका बहुत-सा उधार

इस घर में छूट जाएगा।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


हेमंत देवलेकर

11 ऋषि वेली

वैशाली नगर, भोपाल


मोबाइल : 7987000769

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