सुजीत कुमार सिंह का आलेख 'पचहत्तर के विभूति नारायण राय और जोकहरा का पुस्तकालय'
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| जोकहरा का पुस्तकालय |
किताबें इसलिए महत्त्वपूर्ण होती हैं कि यह किसी भी व्यक्ति के जीवन और सोच को बदल कर रख देती हैं। सामंती मानसिकता के चलते दुर्भाग्यवश उत्तर भारत में पढ़ने की संस्कृति का विकास ही नहीं हो पाया। घरों में पुस्तक के नाम पर 'रामचरितमानस' जरूर मिल जाती है लेकिन इसे भी लोग अक्सर लाल-पीले कपड़े में लपेट कर अगरबत्ती दिखाने तक सीमित कर देते हैं। इस जड़ स्थिति को बदलने के क्रम में विभूति नारायण ने जोकहरा में पुस्तकालय की स्थापना की। अपने प्रयासों से विभूति जी ने निहायत ही पिछड़े जोकहरा को साहित्यिक केन्द्र के रूप में बदल दिया। सुजीत कुमार सिंह विद्यार्थी जीवन से ही इस पुस्तकालय से जुड़े रहे हैं और उनकी मिली जुली स्मृतियां हैं। अपने संस्मरण में सुजीत लिखते हैं : 'विभूति नारायण राय चाहते तो यह पुस्तकालय इलाहाबाद या आज़मगढ़ जैसे शहर में स्थापित कर सकते थे। कुछ पढ़े-लिखे लोग आलोचना करते थे कि विभूति जी को जोकहरा में पुस्तकालय नहीं खोलना चाहिए था। लेकिन भारत के गांव अब भी बहुत ही पिछड़े हुए हैं। तैंतीस साल पहले इस तरह का स्वप्न देखना और उसे साकार करना एक तरह की क्रांति ही है। गांव के बच्चे पढ़ें। वे सांस्कृतिक रूप से मजबूत हों। वे तर्क करना सीखें। अंधविश्वास और छुआछूत से दूर रहें - यह सब विभूति नारायण की सोच थी। दलित समाज से आने वाले अंगद दास को पुस्तकाध्यक्ष बनाया। अंगद दास से पहले, जब पुस्तकालय की नींव ही पड़ी थी, पुस्तकालय की देखभाल की जिम्मेदारी उन्होंने पिछड़े समाज के युवाओं को सौंपी थी।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुजीत कुमार सिंह का आलेख 'पचहत्तर के विभूति नारायण राय और जोकहरा का पुस्तकालय।
'पचहत्तर के विभूति नारायण राय और जोकहरा का पुस्तकालय'
सुजीत कुमार सिंह
जोकहरा जैसे रूढ़िवादी और सामंती मानसिकता वाले गांव में पुस्तकालय खोलना जोखिम भरा कार्य है। हिंदी समाज पता नहीं क्यों जाति पर बात करने, बहस करने से बचता है। भारतीय समाज में जाति ही सब कुछ है। लाटघाट बाजार को अगर केंद्र-बिंदु माना जाए तो इसके चारों तरफ जो भी गांव-देहात हैं, वहाँ आप को भूमिहार बिरादरी के लोग जरूर मिलेंगे। जोकहरा भूमिहार बाहुल्य गांव है। भूमिहार एक टिपिकल कौम है। हमारे क्षेत्र में इस जाति को ले कर न जाने कितनी कहावतें और मुहावरे प्रचलित हैं। लाटघाट बाजार के समीप बरहँपुर नामक एक गांव है। यह गांव प्रख्यात आलोचक शांतिप्रिय द्विवेदी का पैतृक गांव है। बचपन में अपनी बहन के यहाँ पढ़ने के लिए गए। इनकी बहन का विवाह अमिला में हुआ था। अमिला अलगू राय शास्त्री और झारखंडे राय जैसे देश-हितैषी नेताओं की भूमि है। जब मैं शांतिप्रिय द्विवेदी की आत्मकथा ‘परिव्राजक की प्रजा’ (1952) पढ़ रहा था तो उसमें यह छायावादी वाक्य पढ़ कर चौंका: “जीजी का घर प्रकृति के मनोरम स्थल पर था। घर के पीछे पेड़, पेड़ों की ऊंची धरती के नीचे अरण्यानी के हृदय से उत्सव की तरह फूट निकली नहर-जैसी पतली तलैय्या, उसके उस पार पेड़ों के झुरमुट से झांकता भूमिहारों का घर। उन दिनों अमिला में उन्हीं का दबदबा था। लोग-बाग उनसे आतंकित रहते थे।” 1915 के आस-पास अमिला में इस जाति का ‘दबदबा’ और ‘आतंक’ किस तरह का था – इसे अगर द्विवेदी जी खुल कर लिखते तो तमाम बातें स्पष्ट होतीं।
जब ‘हिंदी शब्दसागर’ के संपादकों ने कोश में विभिन्न जातियों का अर्थ देना भी निश्चित किया तब भूमिहार जाति के लोगों ने अपने जाति का अर्थ देख कर रोष प्रकट किया। दरअसल भूमिहार जाति अपने को ब्राह्मण मानती थी लेकिन खेती-बाड़ी का काम करने के कारण ब्राह्मण-वर्ग उन्हें ‘ब्राह्मण समुदाय’ से बहिष्कृत कर रखा था। इस तथ्य से सभी परिचित ही हैं कि जिसने हल का मूठ पकड़ लिया, वह ब्राह्मण धर्म का अधिकारी नहीं समझा जाता है। अतः ‘शब्दसागर’ के संपादकों ने इन्हें खेतिहर माना। खेतिहर मानने का फल यह हुआ कि बनारस में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पर हमला कराया गया। लाला भगवानदीन ने इस हमले का विरोध किया और एक आन्दोलन ही छेड़ दिया। मुज़फ्फ़रपुर और बनारस से इस जाति के लोगों ने जाति को संगठित करने के लिए जो पत्रिका निकाली, उसका नाम रखा – ‘भूमिहार-ब्राह्मण पत्रिका’। इस जाति का अगर आप विरोध करते हैं तो आपका मारा जाना तय है। आज से पन्द्रह-सोलह साल पहले जोकहरा में एक अनुसूचित जाति के बेगुनाह परिवार का मर्डर कर दिया गया था। इस हत्या-काण्ड को विभिन्न अखबारों ने मुख्य पृष्ठ पर छापा। तब मैं बनारस में था। शोध कर रहा था। अखबार पढ़ कर बहुत क्रोध आया। सुधीर शर्मा को एक पत्र लिखा। एक दिन लाटघाट चौक पर पुस्तकालय में काम करने वाली एक युवती मिली। दुआ-सलाम के बाद उन्होंने कहा कि “आपने सुधीर शर्मा को चिट्ठी लिखी थी।” मैंने कहा ‘हाँ’। उन्होंने बताया कि “शर्मा जी ने चिट्ठी सबको दिखा दिया है और बाबू साहब लोग आपसे बहुत ही नाराज हैं। आप को मारने के लिए भी कह रहे थे।” मारने की बात सुन कर मैं थर-थर काँपने लगा। सुधीर शर्मा पर गुस्सा आया कि पत्र तो निजी होते हैं। उसे सार्वजनिक करने की क्या आवश्यकता थी? मारने वाली बात सुन कर मैं अंदर-अंदर बहुत ही डर गया। जोकहरा पुस्तकालय की तरफ मेरे क़दम फिर कभी न बढ़े।
यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि श्री विभूति नारायण राय को ऐसे लोगों के बीच ही काम करना था। जोकहरा में पुस्तकालय स्थापित करना विभूति जी के लिए आसान न होता, यदि वे आईपीएस ऑफिसर न होते। ऑफिसर होने के नाते गांव-जवार के युवकों को उन्होंने रेवड़ी की तरह नौकरियां बाँटीं। रेवड़ी पाने वालों में दलित-पिछड़ी जाति के बच्चे भी थे। ये साहिबाना ठाट ही था कि रूढ़िवादी और सामंती प्रवृत्ति के लोग उनका विरोध न कर सके। वे अपने गांव के सजातीय लोगों के चरित्र को बखूबी जानते थे।
पुस्तकालय से मेरा परिचय पहली बार प्रवीण रंजन राय ने कराया। प्रवीण मेरे सहपाठी हैं। जोकहरा निवासी हैं। यह 1996 की बात है। यानी पुस्तकालय स्थापित हुए तीन साल हो चुके थे। आज जो जोकहरा का राजकीय इंटर कॉलेज है, तब राजकीय नहीं था। उसी स्कूल के एक कमरे में कुछ अलमारियों में किताबें रख दी गई थीं। रवींद्र कालिया आदि ने पुस्तकालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। 1996 में मैं हाईस्कूल पास कर इंटरमीडिएट में आ चुका था। प्रवीण रंजन ‘चकमक’ पत्रिका के दिवाने थे। ‘चकमक’ के किसी अंक में उनकी बाल-रचना ‘कोपलासी के आम’ छप चुका था। उनकी देखा-देखी मैं भी बाल साहित्य ला कर पढ़ता। धीरे-धीरे प्रेमचंद को भी पढ़ने लगा। इंटरमीडिएट पास करने के बाद विश्वविद्यालय के लिए आवेदन किया। प्रवेश परीक्षा में बैठा और उसमें उत्तीर्ण हुआ। लेकिन उस साल विकराल बाढ़ आने के चलते विश्वविद्यालय में प्रवेश प्रक्रिया बाधित हुई। मेरा प्रवेश अक्टूबर माह के अंत में हुआ। इस बीच प्रेमचंद को पढ़ गया। बाढ़ का प्रभाव गोरखपुर के साथ ही आज़मगढ़ के इस हिस्से में भी जबरदस्त था। गांव के चारों तरफ जल ही जल था। एक दिन किताब लेने पुस्तकालय गया। यह सोच कर कि पानी नहीं होगा या कम हो गया होगा। किन्तु जाने पर देखा कि पानी घुटनों के ऊपर तक है। वह दिन खूब याद है। उस रोज जब पुस्तकालय से लौटा तो हाथ में ‘मानसरोवर’ का कोई खंड था।
जब स्नातक में प्रवेश लेने गया तो वहाँ यह बताया गया कि आपने जो विषय लिया है, उसे बदल सकते हैं। मुझे यह जान कर अच्छा लगा क्योंकि पुस्तकालय के चलते हिंदी का असर तब तक मुझ पर हो चुका था। मैंने विषय बदल लिया। इस तरह हिंदी का मैं विधिवत् विद्यार्थी बना। यह सब लिखते हुए यही सोच रहा हूँ कि अगर जोकहरा का पुस्तकालय न होता तो क्या मैं हिंदी का एक शोधार्थी या लेखक बन पाता?
गोरखपुर तो गया पढ़ने लेकिन मैं नियमित कक्षाएं नहीं ले पाता था। पढ़ाई किसी तरह सरकती रही। स्नातक और परास्नातक के बाद शिक्षा स्नातक भी कर लिया। जब विश्वविद्यालयीय शिक्षा से मुक्त हुआ तो गांव में नियमित रूप से रहने लगा। अब मेरे सामने यह संकट खड़ा हुआ कि अब करना क्या है? चूँकि बीएड कर लिया था लेकिन बीए में संस्कृत विषय न होने के कारण मैं उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में हिंदी पढ़ाने के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया था। एक प्रकार से मैं तनाव की स्थिति का सामना कर रहा था।
मैं पढ़-लिख कर किसी अच्छे पद पर जाना चाहता था। एक दिन यह सोचते हुए जोकहरा पुस्तकालय गया कि वहाँ प्रतियोगी-परीक्षा संबंधी किताबों का अध्ययन किया जाए। यह 2003-04 की बात है। जब वहाँ गया तो निराशा हाथ लगी। तब तक श्री सुधीर शर्मा जोकहरा आ चुके थे। उनसे मेरी खूब बातें होती। अपने जीवन के अनेक संघर्षों को वे सुनाते। वे साहित्य की भी खूब बातें करते। कुछ किताबें हमने उन्हीं के सुझाव पर पढ़े। अपनी निजी किताबें भी वे पढ़ने के लिए मुझे देते। निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर आदि के साथ हुए पत्राचारों का जिक्र करते। निर्मल वर्मा लिखित कई पत्र उन्होंने दिखाए। एक दिन बातों-बातों में, मैंने उनसे श्री विभूति नारायण राय का डाक पता मांगा। उन्होंने एक काग़ज पर लिख कर दिया। मैंने अपने कैरियर के बारे में चर्चा करते हुए विभूति जी को एक अंतर्देशीय पत्र लिखा। यह भी लिखा कि मुझे यह सब किताबें चाहिए। किताबों की एक सूची भी उक्त पत्र में लिख दिया। ‘प्रतियोगिता दर्पण’ की भी मांग की। विभूति नारायण राय ने भी मेरे पत्र का सुन्दर-सा जवाब दिया। मुझे याद है कि उन्होंने मेरी लिखावट की प्रशंसा की थी और यह भी कहा था कि स्पेलिंग में कोई त्रुटि नहीं है और यह लाटघाट इलाके के एक विद्यार्थी के लिए गर्व की बात है। श्री सुधीर शर्मा को यह सब बात बताई तो वे बहुत प्रसन्न हुए।
इसी बीच सुधीर शर्मा का दिल्ली जाना हुआ। दिल्ली से लौट कर जब वे जोकहरा आए तो मुझे बुला कर कहा कि ‘साहब ने आपके लिए किताबों का गट्ठर भेजा है।’ मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि जितनी किताबों की मैंने डिमांड की थी, उससे कुछ ज्यादा किताबें उन्होंने भिजवाई थीं।
मुझे याद है, कि सुबह दस बजे खा-पी कर मैं साइकिल से पुस्तकालय पहुँच जाता और शाम तक वहीं बैठ कर पढ़ता। दो-तीन बजे के मध्य जब चाय की तलब होती तो सुधीर शर्मा बड़े प्रेम से चाय पिलाते। इसी बीच क्या हुआ कि सुधीर शर्मा के कारण मुझे साहित्य का ऐसा चस्का लगा कि मैं प्रतियोगी पुस्तकों को न पढ़ कर हिंदी की साहित्यिक किताबें पढ़ने लगा। किताबों को पढ़ते जाता और नोट्स भी लेते जाता। बाद में ये नोट्स मेरे लिए बड़े मूल्यवान साबित हुए। मैंने ऑफिसर बनने की चाह छोड़ दी। अब अध्यापक बनने के लिए सोचने लगा। संस्कृत विषय में मैंने दोबारा बीए किया। उत्तर प्रदेश में जितने भी शिक्षक भर्ती की परीक्षाएं होती थीं, उसमें मैं उत्तीर्ण होने लगा। लेकिन सरकारी व्यवस्था में जो साक्षात्कार होते हैं, उसमें धन उगाही खूब होती है। जिस जमाने में मैं साक्षात्कार दे रहा था, उस जमाने में बोर्ड का अध्यक्ष एक धन लुटेरा था। वह बिना पैसा लिए इंटरव्यू में अंक देता ही नहीं था। अतः यूपी छोड़ कर अन्य प्रांतों में भी मुझे भटकना पड़ा। जोकहरा पुस्तकालय में अध्ययन करते हुए जो नोट्स मैंने तैयार किए थे, वे इतने काम के साबित हुए कि उसी की बदौलत आज राजकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक हूँ।
साहित्य का कखग मुझे श्री रामानंद सरस्वती पुस्तकालय ने ही सिखाया। विभूति नारायण राय हर साल कम से कम तीन-चार राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित कराते थे। देश भर के हिंदी विद्वान जोकहरा जैसे पिछड़े गांव में इकट्ठा होते। वे निर्धारित विषय पर बहस करते। जोकहरा के आसपास के ग्रामीण श्रोता हिंदी विद्वानों को सुनने-देखने आते। उन संगोष्ठियों का नाम तो मैं भूल रहा हूँ लेकिन ‘राही मासूम रजा’, ‘हमारे समय में कविता’, ‘हमारे समय में कहानी’, ‘महादेवी वर्मा जन्मशती’ और ‘दिनकर जन्मशती’ पर जो कार्यक्रम हुए थे - खूब याद है। राही मासूम रजा वाले कार्यक्रम में मशहूर कथाकार कमलेश्वर का शानदार व्याख्यान भी खूब याद है। असगर वजाहत जी को मैंने जोकहरा गांव घुमाया था जो बार-बार यह कह रहे थे कि ‘मुझे ज़मींदार की कोठी दिखाओ।’
जब ‘बटला हाउस कांड’ में आज़मगढ़ का नाम जुड़ा और बदमाश मीडिया ने आज़मगढ़ को ‘आतंकगढ़’ घोषित कर दिया तब विभूति नारायण राय ने जोकहरा में देश भर के साहित्यकारों को इकट्ठा किया। हिंदी आलोचना के मूर्धन्य नामवर सिंह ने जोकहरा में एक जबरदस्त स्पीच दी। करीब हफ्ते भर नामवर सिंह आज़मगढ़ शहर में डटे रहे। शहर में स्थापित राहुल सांकृत्यायन, लक्ष्मी नारायण मिश्र की मूर्तियों पर माल्यार्पण किया। आज़मगढ़ के दिवंगत साहित्यसेवियों के परिजनों से मिले और दुनिया को बताया कि इसी आज़मगढ़ ने कभी नारा दिया था कि ‘भागो नहीं, दुनिया को बदलो’। आज़मगढ़ की जनता को नामवर सिंह ने आज़मगढ़ की महत्ता के बारे में बतलाया। यह बतलाया कि शिबली, हरिऔध, राहुल, कैफ़ी की यह धरती आतंक की धरती कैसे हो सकती है? अगर वे स्पीचें रिकॉर्ड होतीं तो नामवर सिंह और, विभूति नारायण राय ने मिल कर साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी थी, उसका एक उज्ज्वल पक्ष हिंदी जनता के सामने आता।
अपने शोधकार्य के दौरान जब मैं हिंदी नवजागरणकालीन पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन कर रहा था तब मुझे दलित जीवन पर अनेक कहानियाँ मिलीं। पहले तो उसे नजरअंदाज़ किया लेकिन मुझे ऐसा लगा कि ये कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं - अतः उन्हें एकत्र करने लगा। जब ठीक-ठाक सामग्री हो गयी तब उसका जिक्र मैंने विभूति जी से की। वे उत्साहित हुए। 2013 में, उन्होंने फ़ोन कर के, मुझे वर्धा बुलाया। तीन-चार रोज़ मैं वर्धा रहा। खूब बातें हुईं। उन्होंने मेरी किताब ‘शिल्पायन’ से प्रकाशित करवाई और 2014 के विश्व पुस्तक मेले में उसका भव्य लोकार्पण करवाया। एक रोज़ सुबह अपने आवास पर मुझे चाय के लिए बुलाया। बातचीत शुरू हुई।
“तुम यहाँ आना चाहोगे?”
“कहाँ?”
“यहीं। विश्वविद्यालय।”
मैं उन्हें एकटक निहारता रहा। वर्धा से ले कर जोकहरा तक एक तस्वीर मन-मस्तिष्क पर खींच गई। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में, विभूति जी के आलोचक, उनके बारे में जो अनाप-शनाप लिख रहे थे – वे सारी बातें दिमाग में गूंजने लगीं। वर्धा में ही जोकहरा के एक व्यक्ति को देखा, जो मुझे देखकर व्यंग्य करता था और कहता था – ‘लगे रहो! तुम्हें भी नौकरी मिल जाएगी।’ जोकहरा के ऐसे तमाम भूमिहार बिरादरी के नौजवान याद आने लगे जो यह सोचते थे कि मैं पुस्तकालय पढ़ने के लिए नहीं आता अपितु विभूति नारायण राय से नौकरी के सिलसिले में आता हूँ। ऐसा कुछ नहीं था मेरे मन में। जब यह सब कुछ लिख रहा हूँ तो मैं तीन नौकरी लोक सेवा आयोग से और एक माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड (इलाहाबाद) से पा चुका हूँ। तीन नौकरी छोड़ कर चौथी कर रहा हूँ। हाँ, यहाँ तक पहुंचने में मैं श्री रामानंद सरस्वती पुस्तकालय के योगदान को नहीं भूल सकता। आज जो कुछ भी हूँ - श्री रामानंद सरस्वती पुस्तकालय के कारण हूँ।
“नहीं।”
“क्यों?”
“आप पर तरह-तरह के आरोप लगे हैं। लग रहे हैं। आप का चरित्र हनन कर रहे हैं लोग। जातिवाद का भी आरोप लगा रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से एक आरोप और लगे आप पर।”
विभूति नारायण राय यह सुन कर कुछ क्रोधित हुए। कहने लगे कि “मैं किसी से नहीं डरता। मैं आरोपों से भी नहीं डरता। जितना काम मैंने यहाँ किया है, उतना कोई नहीं कर सकता। यहाँ आना चाहते हो तो स्वागत है।”
मैं चुप रहा। अगले दिन जब जाने के लिए हुआ तो कुछ पैसे कम पड़ रहे थे। उन्होंने घर के अंदर जा कर मुझे रुपये दिए। मैं पैसा नहीं लेना चाहता था लेकिन उन्होंने पितातुल्य डाँट के साथ पैसा मेरी जेब में डाल दिया। बहुत खराब लगा। सोचा, यह पैसा पुस्तकालय को वापस कर दूंगा - किसी भी बहाने।
विभूति नारायण राय चाहते तो यह पुस्तकालय इलाहाबाद या आज़मगढ़ जैसे शहर में स्थापित कर सकते थे। कुछ पढ़े-लिखे लोग आलोचना करते थे कि विभूति जी को जोकहरा में पुस्तकालय नहीं खोलना चाहिए था। लेकिन भारत के गांव अब भी बहुत ही पिछड़े हुए हैं। तैंतीस साल पहले इस तरह का स्वप्न देखना और उसे साकार करना एक तरह की क्रांति ही है। गांव के बच्चे पढ़ें। वे सांस्कृतिक रूप से मजबूत हों। वे तर्क करना सीखें। अंधविश्वास और छुआछूत से दूर रहें - यह सब विभूति नारायण की सोच थी। दलित समाज से आने वाले अंगद दास को पुस्तकाध्यक्ष बनाया। अंगद दास से पहले, जब पुस्तकालय की नींव ही पड़ी थी, पुस्तकालय की देखभाल की जिम्मेदारी उन्होंने पिछड़े समाज के युवाओं को सौंपी थी। उपेन्द्र मौर्य जिनमें एक थे। विभूति जी जानते थे कि ऊंची जाति के लोग दलितों-पिछड़ों को पुस्तकालय में आने ही नहीं देंगे। एक किस्सा सुनिए –
जब मैं असगर वजाहत साहब को जोकहरा गांव घूमा रहा था तो एक घनी नीम की छाया देख कर वे खटिया पर बैठ गए। यह दलित बस्ती थी। असगर वजाहत साहब की मैं नोटिस ले रहा था कि वे गांव वालों से खूब बतिया रहे थे और कुछ नोट्स भी करते जा रहे थे। पास ही खड़े एक युवक से जब यह पूछा गया कि “आप पुस्तकालय जाते हैं?”
उसने कहा कि “हाँ, पहले जाता था, अब नहीं।”
“क्यों?”
“क्योंकि एक दिन जब गया था और कुर्सी पर बैठा था। तब फलाँ बाबू साहब के लड़के ने कहा कि चमार हो कर कुर्सी पर बैठे हो? तुम भी पढ़ोगे तो भैंस कौन चराएगा और खेती कौन करेगा? उन लोगों ने मुझे फूहड़-फूहड़ गाली भी दी। तब से पुस्तकालय नहीं जाता।”
संझा के वक्त असगर वजाहत साहब पुस्तकालय पहुंचे। भारत भारद्वाज ने पूछा कि “कहाँ थे? मैं आपको कब से ढूँढ़ रहा हूँ।” असगर जी ने कहा कि “गांव घूमने गया था। ‘आधा गांव’ नहीं पूरा गांव घूमा। इस गाँव के हालात बहुत खराब हैं। अब क्या कहूं?” असगर साहब की उदासीनता और माथे पर जो शिकन थी – उसे कैसे व्यक्त करूँ मैं यहाँ!
तो इस तरह की संकीर्ण मानसिकता वाले गांव में पुस्तकालय खोलना आठवें अजूबे से कम नहीं। विभूति नारायण राय यह सब जानते थे। अतः अंगद दास को पुस्तकालय की जिम्मेदारी सौंपी। पुस्तकालय के सचिव से भी उन्होंने यह कह दिया कि ‘‘आप अंगद जी को जमीन पर नहीं बैठाएंगे। चारपाई पर ही बैठाएंगे।” ये सब परिवर्तन अपने गांव में विभूति जी कर रहे थे। संगोष्ठियों में मेहमानों के लिए जो भोजन आदि बनता - उसे गांव के दलितों-पिछड़ों से वे जान-बूझ कर बनवाते। पहले तो लोगों ने नाक-भौं सिकोड़ा लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। सुप्रसिद्ध कवि श्रीप्रकाश शुक्ल ने अपनी एक कविता ‘जिक्र-ए-जोकहरा’ में अंगद दास के बाटी-चोखे का जिक्र किया है।
श्री रामानंद सरस्वती पुस्तकालय अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तो जाना ही गया, स्थानीय स्तर पर भी यहाँ अनेक गतिविधियाँ होती रहती हैं। प्रवीण रंजन राय ने 1999 में पहली बार ‘सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता’ आयोजित करवाई। विभूति जी का सख्त आदेश था कि ‘प्रतियोगिता में बेईमानी न हो और पुरस्कार किसी दलित-पिछड़े को ही मिले।’ ‘सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता’ अनेक वर्षों तक आयोजित होता रहा। साथी प्रवीण ने यह बहुत अच्छा काम किया था। विभूति जी भी इसमें रुचि लेने लगे थे। कई बार तो पुरस्कार वितरण में वे स्वयं आए। प्रतियोगिता में स्थान पाने वाले अनेक बच्चे आज सरकारी नौकरी में हैं। इसे मैं व्यक्तिगत रूप से प्रवीण की उपलब्धि कहूँगा कि वे अपने काबिल मित्रों – ब्रजेन्द्र कुमार शर्मा आदि - के साथ सालों-साल यह प्रतियोगिता आयोजित करवाते रहे।
गांव-देहात के गरीब बच्चे, जिनके माता-पिता अनपढ़ हैं, किताब क्या चीज़ होती है - वे नहीं जानते। किताब का स्पर्श कितना सुखद होता है! पढ़ना कितना आनंददायक होता है। कविता की पंक्तियाँ हमारे जीवन को कैसे बदल देती हैं! इन गरीब, दबे-कुचलों को यह सब पहली बार श्रीरामानन्द सरस्वती पुस्तकालय ने बताया। कवि का मतलब क्या होता है? साहित्यकार क्या बला है? ज्ञान-विज्ञान किस चिड़िया का नाम है? जोतिबा फूले, डॉ. अम्बेडकर, राहुल सांकृत्यायन, भगत सिंह, पेरियार इत्यादि की वैचारिकी क्या है? इन लोगों ने क्या लिखा है? ईश्वर है या नहीं? धर्म को किसने ईजाद किया और क्यों ईजाद किया? अछूत गरीब क्यों हैं? समाज में ऊँच-नीच को किन दुष्टों ने बनाया और क्यों बनाया? इन सब बातों से परिचित कराया - विभूति नारायण राय ने। उन्होंने इन गरीब बच्चों को पढ़ने-लिखने की उर्वर ज़मीन मुहैया कराई। दलित लड़कियों को बोलना सिखाया। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (नई दिल्ली) से आए कलाकारों ने इन ग्रामीणों को नाटक का मतलब समझाया। बच्चे-युवक-युवतियाँ नाटक में भाग ले कर खिलखिला पड़े। ये खिलखिलाना कितनी बड़ी उपलब्धि है, इसे शहर का बुद्धिजीवी नहीं समझ सकता। गाँव का वह सामंती अध्यापक नहीं समझ सकता जो पुस्तकालय में राजेंद्र यादव संपादित ‘हंस’ को हाथ में ले कर अपने एक सजातीय प्राध्यापक से कहता है कि “ई तऽ बड़ा ओईसन बा।”
[‘रचना क्रम’ जुलाई 2025 – जून 2026 से साभार]
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| सुजीत कुमार सिंह |
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सुजीत कुमार सिंह
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