हरीश चन्द्र पाण्डे का संस्मरण 'बिसनाथ को सहेजे चलते विश्वनाथ त्रिपाठी'

 

विश्वनाथ त्रिपाठी 


स्मृतियों को सहज रूप में व्यक्त कर पाना आसान नहीं होता। विश्वनाथ त्रिपाठी के पास अतीत की तमाम ऐसी स्मृतियां हैं जिनसे हो कर गुजरते हुए हम खुद भी समृद्ध होते हैं। इन स्मृतियों को संजोने के क्रम में वे लोक और शास्त्र के द्वंद्व को भी ध्यान में रखते हैं और एक समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं। एक तरफ जहां वे अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी पर 'व्योमकेश दरवेश' जैसी अप्रतिम किताब लिखते हैं वहीं दूसरी तरफ वे 'गुरु जी की खेती-बारी' नाम से शिष्यों के संस्मरण भी करीने से दर्ज करते हैं। एक तरफ उनके पास 'नंगातलाई का गांव' है तो दूसरी तरफ 'बिसनाथ का बलरामपुर' है। इलाहाबाद के साथ तो विश्वनाथ त्रिपाठी का एक स्नेहिल नेह नाता ही रहा है। इलाहाबाद में ही ससुराल होने के चलते यहां उनका काफी आना जाना लगा रहा और यहां के रचनाकारों से उनका आत्मीय संबंध स्थापित हुआ जो आजीवन बना रहा। पाखी पत्रिका ने अपना सितम्बर-नवम्बर 2025 अंक विश्वनाथ त्रिपाठी पर ही केन्द्रित किया है। इस अंक में हरीश चन्द्र पाण्डे का एक संस्मरण प्रकाशित हुआ है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हरीश चन्द्र पाण्डे का संस्मरण 'बिसनाथ को सहेजे चलते विश्वनाथ त्रिपाठी'।



'बिसनाथ को सहेजे चलते विश्वनाथ त्रिपाठी'


हरीश चन्द्र पाण्डे 


मुझे ठीक से याद नहीं कि मैं विश्वनाथ त्रिपाठी जी से पहली बार कब और किस अवसर पर मिला था। शायद केदार जी (केदार नाथ अग्रवाल) जी के जन्म दिन पर प्रति वर्ष बांदा में आयोजित किए जो वाले कार्यक्रम के अवसर पर 1990 के बाद किसी वर्ष। आर्य कन्या इंटर कॉलेज के सभागार में मंच पर झक सफेद परिधान में, चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कुराहट लिए बैठे अपनी ही कविताओं की नृत्य प्रस्तुतियों को देखते हुए केदार जी 'मांझी न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता...'। मंच पर उनके अगल-बगल बैठे विश्वनाथ त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, सत्य प्रकाश मिश्र, कमला प्रसाद आदि। संचालन अशोक त्रिपाठी और शेष दृश्य-अदृश्य कार्य निपटाते नरेंद्र पुण्डरीक अपने अन्य साथियों के साथ। यूं इलाहाबाद में 1988 में भैरव प्रसाद गुप्त की सत्तरवीं जन्म वर्षगांठ पर आयोजित ऐतिहासिक समारोह में वे रहे ही होंगे पर वहां साहित्यकारों के उमड़े हुजूम में व्यक्तिगत संपर्क की गुंजाइश कम ही थी। हिंदी का वृहद संसार वहां उपस्थित था। हिंदुस्तानी अकादमी में ही बाद के वर्षों की एक घटना कौंध रही है। वहां कोई बड़ा कार्यक्रम आयोजित था। रामकमल राय अकादमी के अध्यक्ष थे। साहित्यिक सरगर्मियां काफी बढ़ गई थीं। एक सज्जन मंच से उतरने का नाम नहीं ले रहे थे। उनके हाथ में काफी बड़ा पुलिंदा था। थोड़ी देर बाद त्रिपाठी जी उठ कर बाहर टहलने लगे। उनका वक्तव्य संभवतः दूसरे दिन था। भाषण खत्म न होता देख उन्होंने मुझसे कहा चलो कॉफी हाउस हो कर आते हैं। जो गाड़ी उन्हें ले कर आई थी, उसके ड्रइवर से चलने को कहा। गाड़ी में हम बैठे ही थे कि एक युवा लेखक तेज कदम गाड़ी की ओर यह कहते आया कि मैं भी चलूंगा। त्रिपाठी जी ने ड्राइवर से कहा कि रोकना नहीं, चले चलो। फिर बोले-जिसके पास स्वाभिमान नहीं, वह लेखक नहीं हो सकता। यह लेखक की एक परिभाषा थी या कह लें एक अनिवार्य अर्हता। जिसे सुना नहीं गुना जाना चाहिए। मैं नहीं जानता उस युवा लेखक को कैसा लगा होगा। लेकिन इससे विश्वनाथ जी के व्यक्तित्व की एक झलक जरूर मिल गई।



इलाहाबाद में उनका आना अंतरालों पर होता रहा। उनकी ससुराल भी यहीं इलाहाबाद में है। भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, अमरकांत और शेखर जोशी से उनकी आत्मीयता रही है। राजेंद्र कुमार उनके अनन्य हैं। शेखर जी के साथ तो दोस्ताना ही समझिए। भैरव जी के यहां जाना हुआ तो शेखर जोशी के साथ ही। उनके पास भैरव जी के कई किस्से हैं। शेखर जी के साथ एक बार भैरव जी के यहां गए तो आधा घंटा बीत जाने पर भी कुछ नहीं आया तो शेखर जी ने कहा 'अरे भैरव जी ये दिल्ली से आए हैं। कुछ पानी, चाय।' भैरव जी ने कहा- 'ये तुम्हारे यहां से पी आए होंगे।' त्रिपाठी जी लिखते हैं- मैं उनके पुत्र बबुआ की शादी में नहीं गया था इसी से वे नाराज थे।


त्रिपाठी जी रस ले-ले कर इन किस्सों को सुनाते हैं। अमरकांत जी को वे बड़े भाई-सा आदर देते रहे। अमरकांत जी लगभग छह वर्ष तक मेरे मोहल्ले गोविंदपुर में मकान बदल-बदल कर रहे। त्रिपाठी जी उनसे मिलने आते। एक बार उनके लिए उनके प्रिय भोजन मछली मंगवाई गई। त्रिपाठी जी व्यंजन प्रिया हैं। अपने संस्मरणों में उन्होंने इसका जिक्र किया है। दिनेश कुशवाह की तो एक कविता ही है-'डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना।' वे देशजता के परम आग्रही व्यक्ति हैं और विवेकशील आलोचक। उनके व्यक्तित्व में सूफियाना मस्ती शायद गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी के सान्निध्य से आई होगी जिनके प्रति अपना दायित्व वे 'व्योमकेश दरवेश' लिख कर अदा करते हैं। अपने दूसरे गुरु विश्वनाथ मिश्र को भी उन्होंने खूब सराहा है। दोनों की तुलना करते हुए वे बताते हैं 'द्विवेदी भी साहित्यकार बड़े हैं जबकि मिश्र अध्यापक।' वे सर्वश्रेष्ठ अध्यापक हैं। अपने गुरुवृंदों पर लिखने के साथ-साथ से अपने शिष्यों पर भी लिखते हैं 'गुरु जी की खेती-बारी' शिष्यों के संस्मरण हैं।





अन्य छात्रों में भी उनकी रुचियों की फेहरिस्त है। नरगिस और गीता बाली श्रेष्ठ अभिनेत्रियां हैं तो संजीव कुमार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता। लेखनी में अलसितों का चयन उनकी प्राथमिकता है। खडक सिंह खनी की आत्मकथा पुस्तक 'सूरज को तो उगना ही था' पता नहीं कितने लोगों की निगाह से गुजरी होगी या निगाहों से गुजरने के बाद विवेच्य समझी गई होगी पर विश्वनाथ जी गुणवत्ता की प्रथम पायदान पर रखते हुए इस कृति पर लिखते हैं। खडक सिंह खनी की यह आत्मकथा, जो एक वामपंथी कार्यकर्ता रहे, विडंबना बोध से भरी है। लेख 'खडक सिंह खनी : एक असाधारण आत्मकथा' में वह कहते हैं-


'यह आत्मकथा आज के जमाने में आंदोलनकारियों व लेखकों के लिए आदर्श है- आदर्श जो इतना यथार्थ है कि यथार्थ से भी ऊपर लगता है।' खडक सिंह खनी को अपने संघर्ष के दिनों में अपनी पत्नी के परकीय प्रेम का पता चलता है। अपने वैचारिक स्वप्नों के प्रति प्रतिबद्धता, कर्मठता, ईमानदारी, अर्थाभाव संकट और पारिवारिकता के असमर्थ निर्वहन की कथा। रोमांच और घटनाओं से भरी। पत्नी-त्याग की पूर्व रात्रि दोनों का रोना। पत्नी वियोग में 'दर्द इतना बढ़ गया कि मैंने उसकी यादों में 'किस्मत की हो कर' नाम से एक उपन्यास लिख डाला। और फिर परित्यक्त पत्नी की परोक्ष संस्तुति पर दूसरी शादी का उसी गांव में होना। और फिर अपने रक्त कैंसर से संघर्ष...।





लोक व शास्त्र को ले कर उनमें एक समन्वय दृष्टि हैं। लेकिन लोक उनका स्थाई ठौर है। वहां वे बेलौस सहज और खुले हैं। उनके तुलसी लोकवादी हैं। खुद विश्वनाथ बतकही में विसनाथ हो जाते हैं। गांव-जवार और बचपन को बिसनाथ की आंखों से ही देखा जा सकता है। 'नंगातलाई का गांव' या 'विशनाथ का बलरामपुर' शरारती चश्मों से नहीं देखे जा सकते। न लक्खा बुआ दिखेंगी और न बिस्कोहर के मौलवी साहब, ये सीख देते हुए कि अपने से छोटे से मिलो तो तुम्हें पहले अपना हाथ बढ़ाना चाहिए और बड़े, बुजुर्ग या बड़े पद वाले से मिलो तो, जब पहले वह हाथ बढ़ाए तब तुमको हाथ बढ़ाना चाहिए। छोटे के लिए एक हाथ बढ़ाओ और बड़े के बढ़े हुए हाथ को दोनों हाथों से थामो। यही बिसनाथ जब कबियाते हैं ('बिसनाथ कबि बन गए' आत्मकथ्य) तो बिस्कोहर में प्रेमचंद की प्रतीति करते हैं, जो बैलों की सानी कर रहे पिता से मिलते हैं। कविता व संग्रह का नाम ही होता है 'प्रेमचंद बिस्कोहर में'। मजे की बात यह है कि त्रिपाठी जी प्रेमचंद को बिस्कोहर में कल्पित करते हैं और शेखर जोशी नंगातलाई को अपने गांव ओलियागांव में कल्पित करते हैं। समकक्ष पात्रों को देखते हैं जिनमें विधवा लक्खा बुआ भी है, देहोत्सव मनाती हुई।


विश्वनाथ जी की आलोचना भाषा प्रवहमान है। जटिल या गुंजलक नहीं। उनका मानना है कि आलोचना की संस्कृति के निर्णय में सामाजिक चेतना एक घटक है। सामाजिक चेतना न होती तो निराला की 'विधवा' कविता या 'तोड़ती पत्थर' की स्वाभिमानी 'मार खा रोई नहीं' हो सकती। वे कहते हैं कबीर और तुलसी कम करुणामय नहीं थे पर वे सती को आदर्श मानते थे। पर निराला विधवा को 'इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी' कहते हैं। क्योंकि सौंदर्यबोध का मनु फटे कपड़े पहने, भूखा-प्यासा कारागार में कैद है। हरिजन गाथा का नायक कलुआ दलित काला कलूटा है। काव्य-नायकों में यह परिवर्तन सामाजिक चेतना के बिना असंभव था। यह हमारी सांस्कृतिक चेतना के विकास का सूचक है, जिसे पहचानना आलोचना संस्कृति का काम है।





त्रिपाठी जी में नया सुनने-जानने की एक भूख है। कुछ नया सुन उनकी जिज्ञासु आंखें फैल जाती हैं। एक दिन फोन पर बातचीत में मैंने पी. सी. जोशी (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव) पर गार्गी चक्रवर्ती द्वारा लिखित जीवनी के एक प्रसंग की चर्चा की। प्रसंग कल्पना दत्त के साथ उनकी शादी का था जो परम सादगी के साथ बंबई के पार्टी मुख्यालय की छत पर चाय-बिस्कुट के साथ संपन्न हो गई। बाद में पी. सी. जोशी के एक रिश्तेदार ने कल्पना दत्त के लिए एक साड़ी भेंट स्वरूप भेजी तो उस साड़ी के झंडे बना लिए गए। फोन पर इस वाकये को सुनाते हुए मैंने अपनी यह जिज्ञासा प्रकट की मजाज लखनवी का यह शेर कहीं इसी घटना की उपज तो नहीं?


तिरे माथे पे ये आंचल बहुत खूब है लेकिन

तू इस आंचल का परचम बना लेती तो अच्छा था।


रुको-रुको उन्होंने तुरंत ही कहा। फिर से बताओ यह प्रसंग। वे बहुत उत्साहित थे। मैंने कहा मैंने यह किताब कुछ माह पूर्व पढ़ी थी। मैं मोटा-मोटी याददाश्त के आधार पर बोल रहा हूं। अच्छा ठीक है किताब ढूंढ़ लो-मैं कल फोन करूंगा। मैं इसे 'कथा देश' पत्रिका में अपने स्थाई स्तंभ 'कबियन की वार्ता' में देना चाहता हूं, तुम्हारा संदर्भ देते हुए। किताब ढूंढी मगर नहीं मिली। इधर घर में दीमकों ने हमला कर रखा था।


कई किताबें लुग्दी में बदल गईं थी। मुझे लगा यह पुस्तक भी गई शायद। दूसरे दिन उनका फोन आ गया। मैंने बताया किताब नहीं मिली। गूगल सर्च कर इतना पता लग पाया कि उनकी शादी 1943 में हुई थी। उसके बाद ही मजाज़ ने यह शेर/ गज़ल कही होगी। ना ना! मैंने अलीगढ़ यूनीवर्सिटी फोन कर पता लगा लिया है। मजाज़ की यह ग़ज़ल 1937 की है। अलीगढ़ में ही कही गई। अब मामला बिल्कुल उलट गया था। यानी नववधू कल्पना दत्ता की साड़ी के परचम बनाए जाने की प्रेरणा के पीछे यह शे'र रहा होगा। 'कथादेश' के अगले अंक में 'कबियन की वार्ता' में यह प्रसंग प्रकाशित हो गया। बाद में यह किताब मुझे दुबकी हुई मिल गई। मेरे याददाश्त के आधार पर बताए लेख में एकाध जगह अंतर था। जैसे याद के साथ बिस्कुट की जगह समोसा बता देना और साड़ी को सास द्वारा भेजा जाना बताना, जबकि यहां किसी रिश्तेदार द्वारा भेजा गया जाना दर्ज था। इस शादी के सादे समारोह में वर पक्ष की ओर से बी. टी. रणदिबे प्रतिनिधि थे और वधू पक्ष की ओर से मुजफ्फर अहमद।


विश्वनाथ जी के पास किस्सागोई की जबर्दस्त कला है। उन्हें सुनना हो या पढ़ना, वे बांध लेते हैं। भांति-भांति के किस्से हैं उनके पास। समय का पता ही नहीं चलता। उनसे बात करते हुए आप अकेले नहीं, बल्कि अपने परिवार के प्रतिनिधि के रूप में होते हैं। वे आपसे परिवार और गांव-जवार का पूरा हाल लेंगे। इधर पत्नी के निधन के बाद वे अपने एकाकीपन को लिखत-पढ़त द्वारा साध रहे हैं। इस उम्र में भी स्मृति उनका पूरा साथ दे रही है और उनके श्रृंखलाबद्ध संस्मरण 'तद्भव' में पढ़ने को मिल रहे हैं। बात करते-करते कभी फूट पड़ते हैं। एक अपराधबोध-सा कि पत्नी का जितना खयाल रखा जाना चाहिए था, नहीं रख पाया। यह बोध पहले भी था। 'पत्नी' शीर्षक कविता में वह कहते हैं-


'यह एक रिश्ता है कि

वह मेरे बौने व्यक्तित्व का विष पीती है,

और बच्चों को दूध पिलाती है


बेटियां जो शादी के बाद चली गई उनके प्रति अनुराग 'बरवै' कविता में इस तरह आए की पीढ़ी में अग्रसारित होता है।


'बिटिया गइ ससुरारे लइ गइ जीउ बिटियाक बिटिया पाएन पाएन जीउ'


बिटिया की बिटिया पा कर आत्मीय तसल्ली पाने वाले विश्वनाथ जी कविता-परिवार में खुद को तुलसी, रहीम, त्रिलोचन की बरवै परंपरा से जुड़ाव महसूस करते हैं-


'तुलसी रहिमन तिरलोचन कई रीत

बरवै भाखे विसनथउक मन प्रीत


मैं विश्वनाथ त्रिपाठी के दीर्घ और स्वस्थ जीवन की कामना करता हूं।


हरीश चंद्र पांडे 



हरीश चन्द्र पाण्डे 

'कुछ भी मिथ्या नहीं है', 'एक बुरूंश कहीं खिलता है', 'भूमिकाएं खत्म नहीं होती', 'असहमति' और 'कछार कथा' काव्य-संग्रह प्रकाशित। कहानी संग्रह 'दस चक्र राजा' और एक बाल-कथा संग्रह 'संकट का साथी' शीर्षक से प्रकाशित।

कविताओं के कुछ अनुवाद बांग्ला, तेलुगु, ओड़िया, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मैथिली आदि भाषाओं में प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।

'सोमदत्त पुरस्कार', 'केदार सम्मान', 'ऋतुराज सम्मान', 'हरिनारायण व्यास सम्मान', 'शमशेर सम्मान' आदि से विभूषित।



संपर्कः


अ/114, गोविंदपुर कॉलोनी

इलाहाबाद


मोबाइल : 9455623176

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