विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी 'ऊब महासागर'
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| विमल चन्द्र पाण्डेय |
आज का जीवन आपाधापी से भरा हुआ है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि तकनीक ने रहन सहन को आसान बनाया है। लेकिन इसके बावजूद मनुष्य की दिक्कतें बढ़ी हैं। जीवन में तनाव यानी कि टेंशन बढ़ा है। थोड़ी ही देर में लोग ऊब जा रहे हैं। इस ऊब ने डिप्रेशन को बढ़ाया है जिससे लोग आत्महत्या की तरफ उन्मुख हो रहे हैं। बड़े बुजुर्ग की बात ही क्या बच्चे तक आत्महत्या करने लगे हैं। मोबाइल ने जीवन जीने का तरीका ही बदल कर रख दिया है। इसने झूठ बोलना आसान कर दिया है। लोग बातों में दिन रात मशगूल रहते हैं हालांकि उसका कोई अभिप्राय नहीं है। इस प्रवृत्ति के मद्देनजर विमल चन्द्र पाण्डेय ने एक महत्त्वपूर्ण कहानी लिखी है 'ऊब महासागर'। अपनी कहानी में विमल लिखते हैं : "पूरी दुनिया मोबाइल से परेशान है। ये कहती है कि ये मुझसे परेशान है लेकिन ये भी दरअसल मोबाइल से ही परेशान है। अभी मैं देख रहा होता तो मुझे घूरने लगती लेकिन तब से पता नहीं किसको मैसेज पे मैसेज दागे जा रही है। पूछूँगा तो प्राइवेसी का घंटा बजाने लगेगी, पैट्रिआर्कल बोलने लगेगी। नरक कर के रख दिया है। दुनिया में सब कुछ इतना फिक्स हो गया है कि ये कब क्या बोलेगी, कब क्या करेगी, सब मुझे एक मिनट पहले पता चल जाता है। इसके मामले में मैं भविष्य देखने वाला हो गया हूँ। बिस्तर पे हो या किचेन में, रास्ते में हो या सिनेमा हॉल में, कब क्या बोलेगी मुझे मालूम है। इस तरह देखा जाए तो ऑफिस में क्या होगा, वहां कौन दोस्त क्या बोलेगा, बॉस किस नए बहाने से मेरी मारेगा, सब पता ही है। कुछ ऐसा नहीं है जो सरप्राइज कर दे। इतनी बोरियत भर गयी है आस-पास जैसे बोरियत का कोई बोरा उठा कर चल रहा हूँ। ये फ़कीर वाला झोला नहीं है कि कोई भी उठा के कहीं चल देगा, इसको रोज लादे-लादे जीना भी है और बढ़िया से जीते रहने की एक्टिंग भी करनी है। कोई एक भावना ऐसी हो जो इतनी प्रबल हो कि जीने का रस वहां से मिलता रहे लेकिन न गुस्सा बचा है, न हँसी न कोई असली दुःख जो सीने को भेदने के साथ पसलियों को भी भेद दे।" विमल हमारे समय के अनूठे कहानीकार हैं। अपने समय की समस्याओं को कहानी में बरतने का उनका संयम अलहदा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी 'ऊब महासागर'।
'ऊब महासागर'
विमल चन्द्र पाण्डेय
सबसे ज़्यादा चिंता आस-पास बढ़ते जा रहे शोर के बारे में होती है लेकिन उसके बारे में बात नहीं करता। मुझे लगता है मेरे बोलने से भी अगर शोर ही बढ़ना है तो क्या ज़रूरत है। जिसको जो मानना है, वो वही मानता है और उसे कोई बदल नहीं सकता। मैं कुछ ढंग की बात करना भी चाहूँ तो कोई सुनने को तैयार नहीं है। मिलने पर ‘कैसे हो’ का जवाब ‘एकदम बढ़िया’ ही देना पड़ता है।
सब कुछ तयशुदा ढंग से होने लगा है। पहले बनारस बनारस था, लखनऊ लखनऊ, बंगलौर बंगलौर और दिल्ली दिल्ली। अब सब जगहें, सब लोग एक जैसे हैं। ज़्यादा हुआ तो दो जैसे, एक दाईं तरफ चलने वाले एक बाईं तरफ। दाईं तरफ वालों को लगता है बाईं तरफ वालों की ही वजह से दुनिया की बैंड बजी हुई है। बाईं तरफ वाले सोचते हैं दाईं तरफ चलने वाले बुद्धि से पैदल हैं। कोई बीच में नहीं चल रहा। वहाँ कोई जाता भी है तो दोनों तरफ वाले उसको ट्रोल करने लगते हैं। उसको अपनी अपनी तरफ टैग कर के 99 अदर्स के साथ गूँथ देना चाहते हैं। जीवन इतना अनिश्चित कभी नहीं था। हम इतने बेजार भी कभी नहीं थे। फिर कुछ वक़्त पहले एक ऐसा वक़्त आया कि वक़्त कुछ देर के लिए रुक गया और ठोस से द्रव बन गया। अब वो बीत नहीं रहा पिघल रहा है। आइसक्रीम हाथ में हो तो किसी से बहस नहीं करनी चाहिए, न बहस का मज़ा आता है न आइसक्रीम का।
‘आज बाहर खाने चलें?’
‘क्यों बाहर जाना यार, कितना ऑइली होता है। फिर कमर दिखा के कहोगी देखो घट नहीं रहा।'
‘ठीक है, कुछ घर पे ही बनाती हूँ।'
‘आज सिर्फ बातें करते हैं। पहले तुम कहा करती थी कि तुम बातें नहीं करते, अब नहीं कहती।'
‘क्या फायदा, तुम दिन भर फोन में ही घुसे रहते हो।'
‘तुम ये बाहर डिनर का ऑफर ले कर आयी हो उसके पहले फोन ही देख रही थी।’
‘वैरी फनी! मैं रेस्टोरेंट का मेन्यू चेक कर रही थी।’
‘और रेस्टोरेंट में खाना खतम होने से पहले ओला उबर का किराया देखने लगोगी। हम लोग प्रेजेंट में कब रहेंगे?’
‘संडे है इसका मतलब ये नहीं सुबह से एक ही जगह पड़े-पड़े सारा दिन निकाल दो।’
‘आज म्यूजिक लगा के बैठते हैं वोडका ले कर। ढंग से बैठ के बात किये कितना दिन हो गया।’
‘मेरा मूड नहीं।’
‘पहले तो रहता था।’
‘पहले तुम हर तीसरे दिन दोस्तों के साथ पी कर नहीं आते थे।’
‘अरे स्ट्रेस कितना है यार लाइफ में।’
‘बोर कर दिया तुमने। जा रही हूँ खिचड़ी बनाने।’
‘शनिवार थोड़ी है आज।’
अखबार, टीवी, मोबाईल; दुनिया सब अचानक से इतना फिक्स लगने लगा है जैसे कहीं कोई चार्म नहीं। कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा जिसपे आश्चर्य हो। जो होता है लगता है पहले से मालूम था ऐसा ही होगा। हत्या, लूट, बलात्कार जैसे सिर्फ खबरों में हो रहा है। सच में ऐसा कुछ कहीं नहीं है। हर कोई ऑफिस से छूट के घर या बार में जा रहा है। घर जा कर उलटी थाली से ढका हुआ ठंडा खाना खा रहा है। औरतें अकेले वक़्त में अपने उन पुराने प्रेमियों से बात करने की कोशिश में लगी हैं जिन्हें छोड़ कर इस पति का चयन किया था। उन्हें भी नहीं पता क्या सही है क्या गलत। आदमी अपनी हर गलती की जिम्मेदारी औरत पर डालने को तैयार बैठा है। जिसने आज तक अपने बनाने खाने की जिम्मेदारी नहीं ली उससे उम्मीद करना बेमानी है। आदमी को अगर सुविधा मिले कि कोई उसकी जगह जा कर पेशाब कर आएगा तो वो एक जगह से नहीं उठेगा। खिचड़ी खाने से अच्छा बाहर जाना ही रहेगा लेकिन उसके लिए तैयार होना पड़ता है। किसी बात पर न ज्यादा गुस्सा आ रहा है न किसी चुटकुले पर खुल के हँसी। कोई खुल कर नहीं हँस रहा है। कोई खुल कर नहीं खाँस रहा है। सब कुछ अनिश्चित काल के लिए दबाया जा रहा है।
‘क्या हुआ मूड कैसे बदल गया?’
‘तुम्हारा चेहरा देख के। चमक उतर गई थी। हँसती रहा करो। सेक्सी लगती हो।’
‘टोन में वो रोमांस फ़ील नहीं हो रहा। लग रहा बिना मन के बोल रहे हो।’
हो सकता है। आदत हो सकती है। बिना मन के तो जी भी रहा हूँ। लेकिन हर चीज की कोई न कोई वजह होती है। कितना बड़ा है ब्रह्मांड और कितना टुच्चा है आदमी लेकिन खुद को खुदा समझने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मन धीरे-धीरे इतना अपने मन का हो गया है कि ठीक-ठीक नहीं समझ आता कि मैं कोई काम अपने मन से कर रहा हूँ या फिर मन मुझसे करवा रहा है।
‘क्या हुआ चिंटू, सीढ़ियों पर क्यों बैठे हो?’
‘पापा ने पनिशमेंट दी है अंकल, पूरा चैप्टर याद करूंगा तब अंदर लेंगे मुझे।’
‘क्या याद कर रहे हो?’
‘जॉगरफी।’
‘कितना याद हुआ?’
‘थोड़ा भी नहीं अंकल। आगे का याद कर रहा हूँ तो पीछे का भूल जा रहा है। बहुत स्ट्रेस हो गया है।’
‘किस क्लास में है तू चिंटू? तीन में ना? ये स्ट्रेस वस्ट्रेस कहाँ सीखा?’
‘सीखना क्या है अंकल, लाइफ कितनी टफ हो गई है आपको नहीं पता। कितने महासागर हैं बताइए।”
“चार हैं?”
“देखा? आपको नहीं याद। पाँच हैं महासागर।”
“नहीं बेटा, हमारे समय तो चार ही थे।”
“अब पाँच हैं अंकल। आपको जो याद है बताइए।
“प्रशांत महासागर, हिन्द महासागर, अंटार्कटिक महासागर, आर्कटिक महासागर।”
“बस?”
“हाँ!”
“एक और महासागर है अंकल। वो इधर ही एक्प्लोर हुआ है।”
“अरे, समन्दर है तालाब थोड़ी, ऐसे कैसे नया एक्सप्लोर हो जायेगा रातोंरात?”
“है अंकल। आप सोचिये, नाम बताइए।”
“अभी याद नहीं आ रहा, शाम को बताता हूँ. अभी ऑफिस जाना है।”
“बाय अंकल।”
‘बेटा शाम को मिलते हैं। बेस्ट ऑफ लक।’
‘आई डॉन्ट बिलिव इन लक। इट्स आल अबाउट हार्ड वर्क अंकल।”
अपार्टमेंट की चारदीवारी से बाहर निकलते ही एक दूसरा चेहरा लगाना पड़ता है। ऑफिस की बिल्डिंग में घुसने पर इस नॉर्मल सड़क पर चलने वाले बिना भाव के चेहरे से काम नहीं चलेगा। वहां लिफ्ट में एक दूसरा चेहरा लगाना पड़ेगा जिसमें मुस्कराहट सबसे आकर्षित करने वाली चीज होगी। फिर वहां से निकलते हुए लिफ्ट में ही ये रास्ते वाला चेहरा फिर इस अपार्टमेंट के गेट में घुसते ही वाचमैन के सैल्यूट पर घर में इस्तेमाल करने वाला चेहरा लगाना पड़ेगा। कई बार यहाँ का चेहरा गलती से वहाँ लगा लेता हूँ और शर्मिंदा होना पड़ता है।
“इतनी रात को सीढ़ियों पे क्यों चिंटू?”
“पापा ने मैथ्स लगाने को दिया था, गलत हो गए सवाल। उन्होंने बोला है सही कर लूँगा तो मुझे अंदर लेंगे।”
“चिंटू कुछ खाओगे?”
“नहीं आंटी। बहुत प्रेशर है परफोर्मेंस का, सिर्फ खाने पर ध्यान दूंगा तो करियर का कौन सोचेगा? पापा के पास पैसे का पेड़ तो है नहीं।”
“अरे तू कैसी बातें कर रहा है बच्चे, सब ठीक है. पापा हैं ना तुझे स्ट्रांग बनाना चाहते हैं। मैं बात करूँ पापा से?”
“नहीं अंकल, लाइफ में हमेशा कोई मेरे लिए खड़ा थोड़ी रहेगा। खुद की पर्सनालिटी पर काम करना पड़ेगा। आप जाओ।”
“गुड नाईट बेटा।”
“गुड नाईट अंकल। गुड नाईट आंटी।”
जो कुछ अच्छा था उसमें धुंध जम गयी है। पिछला बीता हुआ तेजी से डिलीट हो रहा है। दिमाग की हार्ड ड्राइव में स्पेस कम है। चेहरे भूलने लगा है, बातें भूलने लगा है लेकिन जहाँ पैसे की बात होती है वो न चेहरा भूलता है न नाम। पैसे इतने जरूरी पहले भी थे या इधर बीच ही कुछ हुआ है।
“बच्चा कर लेते हैं यार एक।”
“तुम तो बड़े हो जाओ पहले, रात में अभी भी डरावने सपने देख के चीखते हो।”
“तो क्या हुआ? जैसे मुझे गले लगा लेती हो, वैसे ही बच्चे को भी लगा लेना।”
“मैं क्या पालने के लिए ही हूँ? अभी तुम्हें पाल रही हूँ फिर बच्चा पालूं? प्लीज़।”
“मुझे लगता है कोई किसी को सुन नहीं रहा। सब सिर्फ अपनी बोल रहे हैं।”
“क्यों सुने कोई किसी को? कोई जितना भी बोल रहा है सिर्फ अपने फायदे की ही बातें कर रहा।”
“गुड नाईट।”
“गुड नाईट।”
“सो गयी क्या?”
“क्या हुआ?”
“हम लोग चिंटू के पापा मम्मी जैसे थोड़ी बनेंगे यार। अच्छे मम्मी पापा बनेंगे।”
“कुछ भी बोलूं तुम समझोगे नहीं फिर भी आज बताती हूँ। डर लगता है मम्मी बनने के नाम से. आज तक मैं कोई काम अच्छी फिनिशिंग के साथ नहीं कर पाती। बच्चा ख़राब पालूं, इससे अच्छा होगा ना कि ये रिस्क ही ना लूं?”
“ऐसा कुछ नहीं है, ये तुम्हारी मम्मी और बड़ी मम्मी की बातें हैं जो तुम्हारे दिमाग में भरी हुई हैं। उन्होंने तुम्हारे सबकांशस माइंड में बहुत कुछ ऐसा बैठा दिया है जिसके तुम अपोजिट हो। उस टाइम पैरेंटिंग का यही तरीका था लेकिन अब ऐसा नहीं है। मेरी नज़र से तुम जितनी फिनिशिंग करती हो, एक खुश परिवार चलाने के लिए बहुत है। आई लव यू।”
“ये बहुत दिन बाद ये वाला लव यू सुन के रियल वाला फील हुआ है। लव यू टू।”
“एक बात पूछूं?”
“पूछो।”
“आदित्य से बात करती हो क्या अभी भी?.... घूरो मत। ऐसे ही पूछा।”
“बहुत टाइम बाद उसने फेसबुक पे मैसेज किया था, एक दो दिन बात हुई थी। क्यों?”
“नहीं, ऐसे ही। मैंने सोचा है हफ्ते में एक फुल डे हम दोनों साथ रहेंगे। कहीं बाहर चलेंगे, कुछ पर्सनल प्लान करेंगे।”
“हूं।”
“हूं क्या!”
“सो जाओ, गुड नाईट।”
मौतें आस-पास इतनी आसानी से हो रही हैं कि सब कुछ नकली लगने लगा है। एक नाटक जो बेमन से तैयार किया गया है, मंचित हो रहा है। मौतें नाटक में हो रही हैं। तालियाँ नाटक में बज रही हैं। इन मौतों का ज़िम्मेदार कोई नहीं है और न कोई खोजना चाहता है। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। कोई सरकार पर इलज़ाम लगाता है, कोई कंपनियों पर, कोई स्कूल कॉलेज पर, कोई माँ बाप पर, कोई फसलों में हो रही यूरिया की मिलावट पर।
“क्या हुआ नीचे भीड़ कैसी है?”
“अरे वो बच्चे ने फांसी लगा ली।”
“कौन?”
“अरे वोही 416 वाले फ्लैट का।”
“अरे वो.... क्या तो नाम था... क्या दिमाग हो गया है.... क्या नाम था... हाँ चिंटू! क्या, कब, कैसे?”
“क्या मालूम, सेक्रेटरी ने पुलिस को फोन कर दिया तो मामला बढ़ गया. मीडिया भी आ गयी।”
“अरे यार, कितना प्यारा बच्चा था।”
किसी भी बात का अफसोस पांच मिनट से ज्यादा नहीं रहता। कोई भी ख़ुशी साढ़े तीन मिनट से ज्यादा नहीं टिकती। क्या चल रहा है आस-पास, समझ नहीं आता। लगता है अचानक जो दुनिया सामने आ गयी है, उसका निर्माण कहीं छिप के चल रहा था और अचानक सामने पेश कर दिया गया है। या शायद सब अंदेशे सामने थे और हम उस समय भी कुछ देख नहीं रहे थे, सिर्फ बोल रहे थे।
“आता हूँ टेरेस से हो कर।”
“ये रोज रोज टेरेस का क्या चक्कर है? सिगरेट फिर से शुरू? यही वैल्यू है प्रॉमिस का।”
“पकाओ मत, अपना ज्ञान अपने पास रखो।”
“हुआ क्या है तुमको?”
गर्मी बढ़ गयी है। बरसात कम होती जा रही है। पहले बच्चे देर रात तक पड़ोस में खेलते थे और माँ बुलाने जाए तो भी वहीँ सोने की ज़िद करते थे। अब बच्चे के बाहर रहने में थोड़ी देर हो जाये तो सिर्फ और सिर्फ बुरे खयाल ही आते हैं। अच्छे खयाल कुछ लोगों के लिए आवंटित कर दिए गए हैं. ज़्यादातर लोगों को उनके बुरे ख्यालों और बुरे सपनों के साथ अकेला छोड़ दिया गया है।
“क्या हुआ चिंटू, इतनी रात को टेरेस पर?”
“अंकल पापा ने कहा है जब तक हिस्ट्री की पूरी किताब याद नहीं होगी मुझे अंदर नहीं लेंगे।”
“कितना बचा है याद करने को?”
“बहुत है अंकल, इतिहास का सिलेबस इतना ज्यादा है कि कोई नहीं पढ़ता।”
“मैं बात करूँ पापा से?”
“नहीं अंकल, ज़िन्दगी में अपना बोझ खुद उठाना चाहिए। मुझे पढ़ाने के लिए मेरे पापा मम्मी अपने कितने अरमानों का गला घोंट रहे हैं, मुझे पता है।”
“ये अरमानों, गला, ये सब कौन सिखाता है बेटा?”
“मम्मी ने बोला है और ये भी कि मेरे कन्धों को मजबूत बनाना है क्योंकि मुझे उनका बोझ उठाना है।”
“क्या बकवास है।”
“सिगरेट नुकसान करती है अंकल।”
“हाँ बेटा, तुम मत पीना।”
“अंकल, पांचवा महासागर भी है, नाम याद आया?”
“नहीं बेटे चार ही हैं।”
“पाँचवा है अंकल, नया मिला है।”
“पता नहीं बेटा, मैंने तो क्लास में चार ही पढ़ा था.”
किसी एक के साथ मन मिल जाये तो पूरी दुनिया को नज़रअंदाज़ कर के भी जिया जा सकता है. जिसके लिए पूरी दुनिया से लड़ाई मोल ली, उसकी तरफ से एक छोटा सा भी झटका लगता है तो दुनिया की असलियत का बोध होता है. दुनिया सिर्फ अपने को खुश रखने में बर्बाद है फिर भी ख़ुशी है कि रोज़ बरोज़ दूर होती जा रही है। फिर भी कोशिश करते रहना पड़ेगा। अगर हमें खुद को खुश रखना नहीं आता या हम इसके लिए कोशिश नहीं करते तो हमारी प्रॉब्लम है. दूसरा कोई कहीं भी ख़ुशी खोज सकता है। कोई किसी को बांध के नहीं रख सकता।
“सुनो, सो गयी क्या?”
“क्यों, तुमसे क्या मतलब है, एक हफ्ते से मुझे ऐसे इग्नोर कर रहे हो जैसे मैंने क्या कर दिया. यार, हफ्ते में दो चार दिन अपने एक पुराने दोस्त से बातें कर लीं तो तुम्हारा मर्द जख्मी हो गया? सो पैट्रिआर्कल।”
“यार, क्या सही है क्या गलत, आजकल थोड़ा कम समझ में आता है। सॉरी।”
“अच्छा कोई बात नहीं, मैं समझती हूँ तुम अपसेट हो उस बच्चे को ले कर। तुमसे बातें करता था वो। फिर कुछ सोचा क्या उसके बारे में।”
“वो मुझे छत पे दिखाई दिया है, अभी थोड़ी देर पहले।”
“वैरी फनी। चलो सो जाओ, आओ इधर।”
“कोशिश करता हूँ सोने की।”
“नींद पूरी नहीं हो रही न, मैं सुला देती हूँ। थोड़ा और नीचे आओ। हाँ, सो जाओ अब।”
“कल चलेंगे यार डिनर पे, प्लान कैंसिल मत करना।”
“मैं तो प्लान बना रही हूँ, इट्स यू हू इज कैंसिलिंग एवरीथिंग।”
पूरी दुनिया मोबाइल से परेशान है। ये कहती है कि ये मुझसे परेशान है लेकिन ये भी दरअसल मोबाइल से ही परेशान है। अभी मैं देख रहा होता तो मुझे घूरने लगती लेकिन तब से पता नहीं किसको मैसेज पे मैसेज दागे जा रही है। पूछूँगा तो प्राइवेसी का घंटा बजाने लगेगी, पैट्रिआर्कल बोलने लगेगी। नरक कर के रख दिया है। दुनिया में सब कुछ इतना फिक्स हो गया है कि ये कब क्या बोलेगी, कब क्या करेगी, सब मुझे एक मिनट पहले पता चल जाता है। इसके मामले में मैं भविष्य देखने वाला हो गया हूँ। बिस्तर पे हो या किचेन में, रास्ते में हो या सिनेमा हॉल में, कब क्या बोलेगी मुझे मालूम है। इस तरह देखा जाए तो ऑफिस में क्या होगा, वहां कौन दोस्त क्या बोलेगा, बॉस किस नए बहाने से मेरी मारेगा, सब पता ही है। कुछ ऐसा नहीं है जो सरप्राइज कर दे। इतनी बोरियत भर गयी है आस-पास जैसे बोरियत का कोई बोरा उठा कर चल रहा हूँ। ये फ़कीर वाला झोला नहीं है कि कोई भी उठा के कहीं चल देगा, इसको रोज लादे-लादे जीना भी है और बढ़िया से जीते रहने की एक्टिंग भी करनी है। कोई एक भावना ऐसी हो जो इतनी प्रबल हो कि जीने का रस वहां से मिलता रहे लेकिन न गुस्सा बचा है, न हँसी न कोई असली दुःख जो सीने को भेदने के साथ पसलियों को भी भेद दे।
“अब रख भी दो फोन।”
“सॉरी, सॉरी, मेरी एक फ़ॉलोवर है, ब्रांड कोलाबोरेशन के लिए पूछ रही थी. तो? क्या आर्डर करना है?”
“जो चाहो।”
“अरे यार, यही बुरा लगता है. बाहर आये हैं अपनी पार्टिसिपेशन को बढ़ाने के लिए, ऐसे बढ़ेगी?”
“अच्छा कोई नहीं, पहले मंचूरियन मंगा लेते हैं फिर मेनकोर्स खाते हुए सोच लेंगे।”
“डन, और फ्रेश लाइम सोडा भी।”
“ओके, वेटर।”
“तुमने सच में उस बच्चे को देखा था छत पे?”
“हाँ, वो टहल-टहल के पढ़ाई कर रहा था।”
“तो उसी को सोच के तुम लॉस्ट हो कल से?”
“नहीं यार, मेरी प्रॉब्लम उससे बड़ी है।”
“क्या?”
“मैं बचपन में बहुत डरपोक था। बड़ा हुआ तो नॉर्मल लोगों की तरह थोड़ा कम हो गया डर लेकिन फिर भी गांव जाता हूँ तो अकेले रात में, भोर में खेत तक नहीं जाता।”
“तुम लोग अब भी खेत में जाते हो? डिस्गस्टिंग।”
“मजा आता है खुले में। सुनो तो। तो डर अभी भी लगता है लेकिन उसको देख के न उस टाइम डर लगा न बाद में, सोचने पे डर लगा। बहुत टेंशन हो गयी है।”
“ये तो अच्छी बात है। तुम असली मर्द हो, अकार्डिंग टू योर डेफिनेशन, टेंशन क्या है?”
“मैं बोल रहा था ना उस दिन कि ख़ुशी फील होना बंद हो गयी है।”
“हाँ, वो तो मुझे भी।”
“नहीं वैसे नहीं, वैसे तो दुख फील होना भी बंद हो गया है। पहले ऑफिस में कोई मरता था; उसके साथ घाट जाते थे, उसकी बीवी और छोटे बच्चों को देखते थे तो कलेजा फटता था। अब लगता है जल्दी सब ख़तम हो तो निकला जाये. बहुत टाइम लग रहा है।”
“अरे तो अच्छा है न अब कलेजा नहीं फटता. तुम भी ना, असली प्रॉब्लम क्या है तुम्हारी, अब तक पता लगाना सीख नहीं पाए।”
“तुम फिर से मोबाइल चलाने लगी। रख दो यार।”
“मैं आती हूँ वाशरूम से। एक्सक्यूज़ मी।”
“ओके।”
वो पलट कर जाती हुई सुंदर लग रही है। गुलाबी स्लीवलेस फ्रॉक और उस पर गुलाबी सैंडिल. ऊपर से नीचे तक गुलाबी गुलाबी। लौट के ये पक्का बोलने वाली है कि मैं बहुत खूबसूरत दिख रही हूँ, मेरी कुछ पिक्स निकाल दो। फिर कुछ रील बनवाएगी। इतना भी तय नहीं होना चाहिए सब कुछ। अचानक पता चले हमारी पीठ में एक सर्किट है और हम सब रोबोट हैं। एक जैसे चलते हैं, एक जैसे सोचते हैं, कोई अलग सोचना चाहता है तो उसको धक्का मार के गिरा देते हैं और फिर ख़ुशी ख़ुशी उसको उठाने के लिए हाथ देते हैं।
“सर योर ऑर्डर।”
“वेटिंग फॉर माय वाइफ। कैन यू सर्व इट आफ्टर फाइव मिनट्स।”
“नो सर, इट्स अगेंस्ट द पालिसी। यू नीड टू कॉल मैम टू एन्जॉय इट हॉट।”
“ओह, ओके।”
“थैंक यू सर।”
“ठीक है जाओ।”
“एनिथिंग एल्स सर?”
“नहीं यार, तुम जाओ।”
लेडिज बाथरूम को ले कर देश के सारे मर्द एक जैसी सोच नहीं रख सकते फिर भी काफी हद तक सच है। हर आदमी ने कभी न कभी लाइफ में एक बार लेडीज बाथरूम के अंदर जाने की इच्छा जरुर रखी होगी। बहुत पूरे भी करते होंगे, क्या पता। ये सब वाहियात बातें कहने के लिए कुछ छिछोरे दोस्त होने चाहिये नहीं तो ये बातें ख़तम नहीं होतीं, दिमाग में गैस के गोले की तरह घूमती रहती हैं।
बाथरूम में दो लड़कियों ने मुझे नाराज़ नज़रों से देखा है और निकल गयी हैं। बाकी कोई नहीं है। मैं उसको आवाज़ नहीं लगा रहा हूँ। एक धीमी आवाज़ देने के बाद मेरा दिमाग कोई हैरान कर देने वाला दृश्य सोचने लगा है। आखिरकार ऐसी जगह पर सोचने के लिए रोमांचक दृश्यों की कमी थोड़ी है। ये सब उसको बोलूं तो तुरंत परवर्ट बोल देती है। एक गे दोस्त के बारे में बता रहा था और हँस दिया, उसने होमोफोबिक बोल दिया, एक दिन आमिर खान और किरण राव के बारे में कुछ बोला तो कहती है तुम इस्लामोफोबिक हो। मैं क्या क्या और कितना कितना हूँ, ये नहीं आती मेरी लाइफ में तो पता ही नहीं चलता।
एक टॉयलेट दूर बनाया है। शायद ये स्टाफ ने अपने लिए बनाया होगा। हगने वाली जगह में भी लोगों को हायरार्की का ध्यान रखना है। मतलब सिविलियंस इधर मूतेंगे और स्टाफ के वीआईपी लोग दूर जा के वहां आराम से। वहां अँधेरा भी है थोड़ा, इधर की रौशनी ढंग से वहां तक पहुँच नहीं रही है। दरवाज़ा अंदर से बंद है। मेरा दिमाग तेज़ चलने लगा है। यहाँ कोई भूत मिल जाए तो मैं डर ही जाऊं थोड़ा। इस अकेले बाथरूम तक पहुँचा हूँ। झुक के नीचे देखने पर गुलाबी सैंडिल दिख रही है। हैरानी वाला दृश्य है। सैंडिल के साथ दो जूते भी हैं। मैं पीछे आ गया हूँ। मेरी धड़कनें तेज़ चलने लगी हैं। साँस भारी हो गयी है। अब मुझे क्या करना चाहिए। जो भी करूँगा, उसका कोई मतलब नहीं होगा। सबसे पहले तो अगर इतना छिप कर ये दोनों यहाँ हैं तो इनके अंदर कितना रोमांच चल रहा होगा। किसी का ऐसा रोमांच भंग करना ठीक नहीं। मेरी लाइफ में नहीं है, किसी की तो लाइफ में हो। मैं उठ कर एक तरफ चला गया।
मुझे अपने अंदर एक हलकी सी लहर उठती महसूस की। ये लहर न गुस्से की थी, न दुःख अफसोस की, न ख़ुशी की न कोई और। ये क्या था, मैं पहचानने की कोशिश में था। हम दोनों का रिश्ता एक नए मोड़ से गुज़र रहा है। अब इसके बाद क्या होगा? क्या हो सकता है? मैं उसको ब्लैकमेल कर सकता हूँ, लेकिन वो मेरी बीवी है, उसको ब्लैकमेल कर के लूँगा क्या। या मैं इसको ताने मारने के लिए इस्तेमाल कर सकता हूँ। ज़िन्दगी भर कुछ भी बढ़ के बोलेगी, बोल दूंगा कितना भी वाहियात आदमी हूँ मैं लॉयल तो हूँ। ये ऑप्शन मस्त है। एक वो महान बनने वाला भी है कि उसे बता दूं कि मैंने उसे आदित्य के साथ देख लिया। मुझे याद है तुमने उसे हमेशा दोस्त माना था लेकिन उसने तुम्हें कॉलेज के आखिरी दिन प्रपोज किया था। ऐसी बातों की याद पर कभी कोई धूल नहीं जमती। तुरंत याद आ जाती हैं। मेरी ओर से तुम्हें कोई रोक-टोक नहीं है। तुम जब चाहो उससे मिलने जा सकती हो। लेकिन ये नहीं बोल पाउँगा। ये बोलने में मेरा कैरेक्टर इतना बदल जायेगा कि मैं खुद को ही नहीं पहचान पाऊंगा। तो क्या करूँ? कुछ अलग करने का मौका है। खुद की नज़र में अब तक जितना भी नीच और जघन्य रहा होऊं, आज ये लाइफ डिफाइनिंग मोमेंट है। एकदम अलग सा एहसास है। मेरी लाइफ में इतना बड़ा तूफ़ान आ जायेगा, मैंने कभी सोचा भी नहीं था। आज नहीं तो कल सबके सामने आ ही जायेगा। कोई दोस्त मुझे थोड़ा भी हौसला देना चाहेगा तो साले को तुरंत बोलूँगा, भाई उसकी लाइफ है, उसको जो ठीक लगे वो कर सकती है। फाड़ दूंगा रिएक्शन दे के सालों की। ये चांस लाइफ को फिर से जीने का है, इसको वेस्ट नहीं करूँगा। एक नए इन्सान की खोज अपने भीतर फिर से करने का मौका है। पहली नौकरी मिली थी, तब जो थ्रिल आया था वो आज इतने बरसों बाद आ रहा है कि बता नहीं सकता।
“सर, इज मैम कमिंग?”
“या या, इन टू मिनिट्स।”
“ओके सर।”
“क्या हुआ इतना मुस्करा के क्या देख रहे हो?”
“देख रहा हूँ तुम इतनी खूबसूरत हो, मैं कभी कभी भूल जाता हूँ।”
“अच्छा, तो?”
“तो क्या, मुझे बीच बीच में याद दिलाते रहा करो। तुम्हारे जैसी लड़की पटाने जाता तो घंटा नहीं पटती मेरे से। भला हो माँ बाप का। आई लव अरेंज मैरिज.”
“वैरी फनी।”
“खाना कैसा है?”
“बहुत अच्छा। बहुत लम्बे समय के बाद इतना अच्छा फील कर रही हूँ।”
“फिर मुस्करा रहे हो? छोड़ के गयी थी तो एकदम बुझे बुझे थे, लौटी हूँ तो एकदम चमक रहे हो। लग रहा जीने का मकसद मिल गया है।”
“यही समझ लो।”
“अच्छा, वैरी फनी।”
(साभार : वनमाली कथा)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
विमल चन्द्र पाण्डेय
प्लाट नम्बर 130-131
मिसिरपुरा, लहरतारा
वाराणसी – 221002
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