निशान्त पाठक की कविताएं
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| निशान्त पाठक |
दुनिया का सबसे निश्छल रिश्ता मां बेटे का होता है। मां के लिए उसका बेटा हमेशा बच्चा ही होता है, चाहें बच्चा जिस उम्र का हो जाए। दुनिया के प्रायः सभी कवि मां पर कविता लिखते हैं। युवा कवि निशांत द्वारा मां पर कविता लिखी कविता की पंक्तियां है : 'हम जान ही नहीं पाते थे/ उसके अपने भी/ कुछ दुःख होते हैं/ हमारे लिए तो/ वो मलहम थी/ जिसे किसी भी चोट पर/ लगा लेते थे हम/ हम नहीं समझ पाते थे/ क्यों करती है मां/ हाड़ तोड़ मेहनत/ अब कुछ कुछ/ जान पाता हूं/ जिंदगी की धूप/ उसे बैठने नहीं देती थी'। निशान्त के पास प्रेम पर कुछ छोटी छोटी लेकिन बेहतरीन कविताएं हैं। सहज सरल लेकिन अनुभवों से आबद्ध भाषा है। वे कम लिखते हैं। छपने के लिए भी कम ही भेजते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं निशान्त पाठक की कविताएं।
निशान्त पाठक की कविताएं
अचार की संस्कृति
अचार हमारे लिए
पीढ़ियों की विरासत
एक समूची संस्कृति है
दादी की दादी लगाती थीं अचार
नानी की नानी लगाती थीं अचार
मां भी लगाती है अचार
अब बहन भी
बचपन से
अचार हमारे जीवन का
सबसे रंगीन हिस्सा
किस्सा होता था
हम किसी भी चीज में
टांक देते थे इसे
अचार हमारे अभाव के दिनों
का साथी था
भरे पूरे दिनों में भी
भरपूर साथ है
खाने का कोई किस्सा हो
अचार उसमें मुखिया रहता
कभी अचार के साथ
खा लेते रोटी
चावल दाल अचार धरती का
सबसे स्वादिष्ट खाना होता
स्कूल टिफिन में भी
मां रख देती
थोड़ा अचार
अचार के स्वाद से
पता लग जाता
किन हाथों का
लगाया अचार है
दरअसल अचार
सिर्फ अचार नहीं होता
विरासत से छनता हुआ
प्रेम होता है
पूरी की पूरी
संस्कृति होती है
अब थोड़ा चिंतित हूं
अचार के बाजारुपन से
कहीं बाज़ार न खा जाए
हमारी विरासत को
एक पूरी संस्कृति को
और अचार में
रिसते हुए प्रेम को।
बसंत
मेरे जीवन में उतने ही बसंत रहे
जितने वर्ष
हम साथ रहे
हम प्रेम में रहे
तुम्हारा जीवन में आना
बसंत का आना था
और हमारा प्रेम में होना
बसंत हो जाना ..
अलग अलग कुछ न था
तुमने कहा सुख
मैने कहा दुःख
तुम हंस दी
मैं रो दिया
अलग अलग थी
हमारी भाषा
हमारे व्याकरण
फिर भी चलता रहा
हमारे बीच का अध्याय
कुछ पन्ने
तुमने पलटे
कुछ पन्ने मैंने
अब मै कहता हूँ
सुख
तुम कहती हो ..
दुःख
अब मै हँसता हूँ ..
तुम रोती हो..
भाषा और जिंदगी का
व्याकरण
अलग ना था
तुम भी सही थी
मैं भी
सुख और दुःख
हंसी और ख़ुशी
सब कुछ इसी के बीच था
अलग अलग कुछ ना था
अलग थी तो हमारे
समझने की भाषा।
उर्वरता
पत्तियां हरी होती हैं
धूप ताप हवा पानी के संतुलन से
आदमी भी हरा होता है
धूप ताप हवा पानी के संतुलन से
दोनों की
उर्वरता
प्रेम और भरोसे
की खाद पर टिकी होती है।
जिस दिन
जिस दिन पुरुष भी
अत्यधिक दुःख और पीड़ा की स्थिति में
उतनी ही सहजता से
बहा सकेंगे अपने आंसू
वैसे ही जैसे कोई भी
बह जाता है
अत्यधिक विषाद की स्थिति में
आंसुओं को लिंग भेद से
परे रखा जाएगा
वो भी मुक्त हो सकेंगे धीरे धीरे
और हल्के होते जाएंगे
अपने पुरुषत्व के भार से।
मामूली आदमी
एक मामूली आदमी
जब प्रेम करता है
वो देखता है चांद
और रोटी की कल्पना करता है
दिनभर हार तोड़ मेहनत करने और
थक कर चूर हो जाने के बाद
वह देखता है अपने
बच्चों के मुंह का निवाला
और चांद सी शीतलता पाता है
एक मामूली आदमी
अपने शरीर से
निकालता है खारा पानी ताकि
कितनों के कंठ सूखे ना रहने पाए
मामूली आदमी सब कुछ करता है
बस जता नहीं पाता अपने प्रेम को
एक मामूली आदमी
जब लौटता है घर
हारा हुआ नहीं लौटता
थका हुआ लौटता है
फिर वो आसमान नहीं देखता
देखता है ज़मीन
और एक चादर तान लेता है।
मैं उतना अद्भुत इंसान नहीं था
मैंने तुमसे कभी वादा नहीं किया था
तुम्हारे लिए चांद तारे तोड़ कर लाऊंगा
मैं उतना अद्भुत इंसान नहीं था
जो आकाश से उतरा हो
मैं पृथ्वी पर टहलता घूमता
हाड़ मांस का एक साधारण इंसान था
जो तुम्हारे लिए पकाना चाहता था रोटी
जिस की सुगंध में हमारा प्रेम घुल जाता
और उसकी गर्माहट में
हमारे प्यार की उष्मा महसूस होती रहती
किसान
बैठ कर रोटी तोड़ने वाले
सिर्फ रोटी ही नहीं तोड़ते
वो तोड़ देते हैं
रोटी देने वालों की
कमर भी
उनकी बरसात
उन्हें सुखा देती है
वो सूखे व्यक्ति
खेतों में खड़े हो कर
छूते हैं
मिट्टी की नमी को
और उसमें
सदियों की पीड़ा
को सान कर
गूंथते रहते हैं।
जैसे कोई बच्चा
सोना चाहता हूं ऐसे
जैसे सोता है
कोई बच्चा
बिना किसी बनावट के
उठना चाहता हूं ऐसे
जैसे उठता है
कोई बच्चा
बिना किसी अकुलाहट के
रोना चाहता हूं ऐसे जैसे रोता है
कोई बच्चा
बिना किसी रुकावट के
हंसना चाहता हूं ऐसे
जैसे हंसता है
कोई बच्चा
बिना किसी मिलावट के।
हरे होने तक
तुमने इन पत्तियों को सावन वे में देखा है
देखा है इसका हरा होना
कभी इन पत्तियों को पतझड़ में देखना
उनका सूनापन देखना
छूना उनका दुःख
तब ठीक ठीक जान पाओगे
हरे होने तक पहुंचने के लिए
कितने मौसमों से गुजरना पड़ता है।
मां पर कविता लिखना
जब भी लिखना चाहता हूं
मां पर कविता
लिख नहीं पाता
आंख लिखने लगती है
बचपन से मां
हमारे लिए
अलादीन का चिराग थी
हम जान ही नहीं पाते थे
उसके अपने भी
कुछ दुःख होते हैं
हमारे लिए तो
वो मलहम थी
जिसे किसी भी चोट पर
लगा लेते थे हम
हम नहीं समझ पाते थे
क्यों करती है मां
हाड़ तोड़ मेहनत
अब कुछ कुछ
जान पाता हूं
जिंदगी की धूप
उसे बैठने नहीं देती थी
जब तक हमारे पेट का
कोई भी हिस्सा
खाली रहता था
मां कुछ खाती नहीं थी
पूछने पर
मां कहती
भूख नहीं है अभी
अपने पैरों पर चलना सिखा कर
अपने पैरों पर खड़े होने के लिए
कई बार विदा किया
मां ने
हर बार उसके
हाथ नहीं हिलते थे
आंख हिल जाती थी
विदा करने के क्षणों से ले कर
लौटने तक
मां का कुशल क्षेम पूछना
अब दिनचर्या में शामिल था
आज जब हम अपने पैरों पर
खड़े हो गए हैं
आज भी
मां के वही सवाल हैं
खाना ठीक से खा लिया
तबीयत ठीक है
आज भी मां को
भूख नहीं लगती
हमें देखकर
अब जबकि मां की उम्र
कुछ ढल चुकी है
उसे भी जरूरत है
एक
मां की।
मैं और तुम
तुमने कहा प्रेम
मैंने दो अजूरी पानी भर कर
तुम्हें पिला दिया
गुनगुनी धूप में
एक कप चाय के साथ
तुम्हारे माथे को
हल्का सा सहला दिया
तुमने कहा भरोसा
मैंने तुम्हारे
दोनों हाथों को
कस कर पकड़ लिया।
प्रेम
प्रेम पकता है
धीरे-धीरे
धीमी आंच पर
जैसे पकती है
अम्मा की रोटी तवे पर
प्रेम की सुगंध
फैलती है चहुं ओर
जैसे फैलती है तवे पर
सिकती हुई रोटी की सुगंध
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9452588388




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