अंकित नरवाल का आलेख 'विश्वनाथ त्रिपाठी : सामाजिक दायित्व निर्वहन का आलोचक'

 

विश्वनाथ त्रिपाठी 


विश्वनाथ त्रिपाठी हमारे समय के शीर्ष आलोचक हैं। वे उन आलोचकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी एक अलहदा आलोचना पद्धति न केवल ईजाद की बल्कि उसे आलोचना की दुनिया में स्थापित भी किया। त्रिपाठी जी का मानना है कि आलोचना का एक सामाजिक दायित्व भी होता है और उसे इस दायित्व का निर्वहन करना पड़ता है। सामाजिकता के बिना आलोचना जैसे आत्महीन सी हो जाती है। उनकी आलोचना उस तार्किकता की पक्षधर है जिसका विकास वैज्ञानिक चेतना से होता है। युवा आलोचक अंकित नरवाल त्रिपाठी जी के आलोचना की तहकीकात करते हुए लिखते हैं "त्रिपाठी जी विचारधारा के बड़े होने को उतना महत्त्वपूर्ण नहीं मानते, जितना महत्त्वपूर्ण यह है कि वह किसी व्यक्ति को भी बड़ा बना रही है या नहीं। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के क़ायल हैं। ‘हिन्दी’ भाषा के संबंध में पनपने वाली विभिन्न बहसों पर की गई उनकी टिप्पणियाँ यह सिद्ध कर देती हैं कि उनके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण किस हद तक महत्त्वपूर्ण है और भाषा के संबंध में उसको प्रयुक्त करने वाले व्यक्ति की नीयत भी।" पाखी का हालिया अंक विश्वनाथ त्रिपाठी पर ही केन्द्रित है। अंकित नरवाल का आलेख इस अंक से ही साभार लिया गया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अंकित नरवाल का आलेख 'विश्वनाथ त्रिपाठी : सामाजिक दायित्व निर्वहन का आलोचक'।



'विश्वनाथ त्रिपाठी : सामाजिक दायित्व निर्वहन का आलोचक' 


अंकित नरवाल



डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी आलोचना के जिस दौर में विकसित हुए वह ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ के द्वन्द्व से आक्रांत रहा है। एक ओर अपनी पूरी तेजस्विता के साथ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की परंपरा में विकसित हुई आलोचना, जो युगीन मूल्यों और परिवेशगत अध्ययन को आधार बना रही थी, वह पूरे हिन्दी परिदृश्य पर हावी थी और दूसरी और त्रिपाठी जी के गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनुप्राणित लोक से विकसित होती दूसरी परंपरा। इन दोनों के अतिरिक्त डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह द्वारा विकसित क्रमशः हिंदी की जातीय अस्मिता और मार्क्सवाद में अन्तर्निहित मूल्यों से खाद-पानी पाती हाशिये पर खड़े आदमी को केन्द्र में लाने की उम्मीद भरी आलोचना पद्धति, जो रचना में मौजूद हर तरह के छद्म से लोहा लेती है। इनके साथ-साथ रीतिकालीन शास्त्रीय परंपरा और वह आधुनिक आलोचना भी, जो केवल रचना की भाववादी समझ पर ही दो खेमें बना कर तुलनात्मक अध्ययन करने में जुटी थी, अपनी तरह से आलोचना के लिए रास्ता निकाल रही थी। 


यह पूरा वातावरण एक ओर जहाँ आलोचना के लिए उर्वर ज़मीन तैयार कर रहा था, वहीं उसके अन्तर्विरोधों को भी जन्म दे रहा था। इन सबके बीच त्रिपाठी जी पर आलोचना के सामाजिक दायित्व से जुड़ी इस उत्तर आलोचनात्मक पद्धति का गहरा असर रहा है। वे भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं, किंतु आलोचना का सामाजिक दायित्व उन्हें बार-बार रचना के भीतर मौजूद उस अंश को देखने के लिए मजबूर करता रहा है, जिसे सभ्यता के आवरण की परतें अक्सर छुपाती रही हैं। वे मानते हैं कि, ‘आलोचक का दायित्व यह है कि वह संवेदना-शून्यता की स्थिति में मानवीय संवेदना उकसाने वाली रचनात्मकता की पहचान करे और कराए। सौन्दर्य और नैतिकता की सूक्ष्म व्यंजनाओं को उजागर करे।’ (विधाओं की विरासत, पृष्ठ- 49) सच्चा आलोचक रचना में डूब कर विवेकपूर्वक निष्कर्ष निकालता है। ‘सच्चे समालोचक की बहुत बड़ी पहचान यह है कि आलोच्य कृतियों के उत्कृष्ट स्थलों को वह पहचान सका है या नहीं। महत्त्वपूर्ण समीक्षक समकालीन रचनाकारों को निर्देश देता है, उन्हें प्रभावित करता है और कालजयी क्लासिक साहित्य का पुनर्मूल्यांकन करता है। प्राचीन साहित्य की वह युगानुकूल व्याख्या करता है, उनमें अपने युग की दृष्टि से देखे हुए सौंदर्य को ढूँढ़ निकालता है और इस तरह उन्हें वह फिर से सन्दर्भवान बनाता है। महान साहित्य इसी प्रकार जातीय चिन्तन और भावना का अंग बना रहता है।’ (हिन्दी आलोचना, पृष्ठ - 68) एक प्रयत्नशील आलोचक विगत परंपरा और युगीन आधुनिकता के बीच साझा पुल निर्मित करता है। त्रिपाठी जी जब स्वयं भी ‘रासो साहित्य’ और ‘तुलसीदास' का अपने ढंग से मूल्यांकन करते हैं, तो उनके ज़हन में सच्चे आलोचक की यह दीक्षा पूर्णतः काम करती दिखलाई पड़ती है। उनकी तुलसीदास के संबंध में ‘लोकवादी व्याख्या’ और रामचन्द्र शुक्ल की कविता-व्याख्या के संबंध में यह कहना कि, 'कविता का उद्देश्य लोक-सामान्य भाव-भूमि पर पहुँचा देना, यह उनकी साहित्यिक जनतांत्रिक परंपरा में गहरी आस्था का परिचायक है’,  इसी पक्ष की ओर झुकी हुई माननी चाहिए।

यदि साफ़-साफ़ शब्दों में कहा जाए, तो किसी भी दौर की आलोचना केवल कृतियों के अध्ययन का एक रास्ता भर नहीं होती है। या फिर कक्षाओं में छात्रों के लिए कुंजी की तरह प्रस्तुत हो जाने भर से ही उसके दायित्व की इतिश्री नहीं होती। एक आलोचक का दायित्व अपने परिवेश के भीतरी संकटों, परिवर्तनों और बदलावों की द्वन्द्वात्मक प्रणाली को पहचान कर उसके पीछे के उपक्रम से लोहा लेना भी है। त्रिपाठी जी विचारधारा के बड़े होने को उतना महत्त्वपूर्ण नहीं मानते, जितना महत्त्वपूर्ण यह है कि वह किसी व्यक्ति को भी बड़ा बना रही है या नहीं। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के क़ायल हैं। ‘हिन्दी’ भाषा के संबंध में पनपने वाली विभिन्न बहसों पर की गई उनकी टिप्पणियाँ यह सिद्ध कर देती हैं कि उनके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण किस हद तक महत्त्वपूर्ण है और भाषा के संबंध में उसको प्रयुक्त करने वाले व्यक्ति की नीयत भी। वे लिखते हैं, ‘विश्लेषण और वैज्ञानिकता के इन दुश्मनों ने हिन्दी को कुछ ऐसी चीज़ बना रखा है मानो वह एक हज़ार वर्षों की उत्तरी भारत की साधारण जनता की आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति न हो, मानो वह चौके में छुआछूत बनाए रखने वालों का साहित्य हो; मानो वह सिर्फ ‘शाकाहारियों’ का साहित्य हो, सिर्फ हिन्दुओं का - और उसमें भी केवल सवर्णों का हो, जैसे उससे और गो-रक्षा आन्दोलन से कोई गहरा लगाव हो। जैसे हिन्दी अपने अलावा भारत की और संसार की सारी भाषाओं की दुश्मन हो। नीयत यह और हौसला हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने और उसे यू. एन. ओ. की भाषाओं में स्थान दिलाने का। मैं इस हौसले को नहीं, नीयत को ग़लत समझता हूँ।’ (विधाओं की विरासत, पृष्ठ- 52)



विश्वनाथ त्रिपाठी आलोचना को एक सांस्कृतिक कर्म मानते रहे हैं। जहाँ साहित्य संस्कृति का हिस्सा है, वहाँ फिर आलोचना संस्कृति की संस्कृति बन जाती है। साहित्यिक-सौंदर्य का विश्लेषण भी आलोचना की संस्कृति का हिस्सा है। इसका विश्लेषण करते हुए आलोचना उसके विवादी स्वर की भी परख करती चलती है। जो आलोचना सांस्कृतिक चेतना के विकास को पहचानने वाली चेतना के विकास को नहीं समझती, वह समाज के विकास में पिछड़ जाती है। आलोचना सामाजिक चेतना में आने वाले बदलावों को यदि नहीं पहचानती, तो वह आलोचना-संस्कृति का ठीक से निर्वाह नहीं कर पाती। ऐसी आलोचना न तो सांस्कृतिक विरासत का ठीक से परिचय दे पाती है और न सामयिक साहित्य के विषय में कोई ठोस राय निर्मित करने का खतरा उठाती है। ऐसी आलोचना केवल भावनात्मक व्याख्या भर बन कर रह जाती है। जो आलोचना अपनी समय की रचनात्मकता से नहीं टकराती, फिर वह निःसंदेह अपनी विरासत से टकराने का साहस भी नहीं ही पा सकती। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन वाजिब ही है कि जो आधुनिक साहित्य को नहीं समझता वह मध्यकालीन साहित्य को समझने का सामर्थ्य भी नहीं पा सकता। आज हम इस कथन को उलट कर भी पढ़ सकते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी का आलोचना क्रम जहाँ, मध्यकालीन साहित्य की पुनर्व्याख्या करता है, वहीं आधुनिक साहित्य से भी दो-चार होता है। उनकी आलोचना के एक सिरे पर तुलसीदास-मीरां हैं, दूसरे सिरे पर हरिशंकर परसाई और अपने समय की कहानी। आलोचना के ये दोनों सिरे जिस बिन्दु पर आ कर मिलते हैं, वह है अपने समय के क्राइसिस को देख और दिखा सकने वाली कृतियों की पहचान। उनके यहाँ कोई महिमा मंडित हो कर नहीं आया है, बल्कि सब सामाजिक विद्रूपताओं और सामयिक युग-बोध से जुझ कर निकले हैं। चाहे वे मीरां, तुलसी हों, या फिर परसाई जी। उनकी आलोचना का स्थाई पक्ष अपने साहित्य के समय और परिवेश की द्वन्द्वात्मकता को समझने वाली रचनाधर्मिता की ओर झुका हुआ है। 

त्रिपाठी जी आलोचक और पाठक के बीच एक स्थाई संबंध मानते रहे हैं। आचार्य शुक्ल की आलोचना के क़ायल भी इसी वजह से हैं कि वह अपने समय से संवाद करती है। वे मानते हैं कि, ‘व्यक्ति अपने जीवन में जिन वस्तुओं, व्यक्तियों या दृश्यों के संपर्क में आता है, वे उसके भाव -जगत का निर्माण करते हैं। यह भाव-जगत व्यक्ति के बाह्यांतर जगत के आधार पर निर्मित होता है। यह अन्य व्यक्तियों के भाव-जगत के समान भी होता है और उनसे भिन्न भी। अच्छा पाठक काव्य को अपने निजी जगत में उतार लेता है, बुरा पाठक नहीं उतार पाता। पाठक कवि द्वारा अभिव्यक्त भावों को - ये भाव कवि के जगत के घनीभूत रूप हैं जो शब्दों में बँधकर हमारे पास आते हैं, अपने भाव जगत में उतार लेता है। आलोचक भाव को उस संदर्भ में देखता है जो उनका मूल स्रोत है। जो आलोचक इस संदर्भ को खोल सकता है, उसकी व्याख्या कर सकता है, वही सफल कहा जाएगा। आलोचना की सार्थकता रसास्वादन में पाठक की सहायता करना है। जिसे हम रसास्वादन कहते हैं, वह क्या है? वह वस्तुतः शब्दों द्वारा संकेतित जगत में लीन हो जाना है।’ (हिन्दी आलोचना, पृष्ठ- 104) अच्छा आलोचक सांकेतिक अर्थों को प्रकाश में लाता है। वह उन अर्थों को अपने ‘दृश्य जगत्’ में न केवल विकसित होता दिखाता है, बल्कि उसके लिए ‘दृश्य जगत्’ से अर्थ छवियाँ भी इकट्ठी करता है। महान दार्शनिक अरस्तू ने साहित्यिक विश्लेषण के लिए जिस ‘घड़ा निर्माण प्रकिया’ को प्रयुक्त किया था, वह भौतिक जगत् की अर्थ छवियों को प्रयोग में लाने वाली यही प्रक्रिया थी। आचार्य शुक्ल की ‘रस मीमांसा’ ऐसे अनेक उदाहरणों से भरी हुई है, जो ‘आलम्बनत्व धर्म’ की व्याख्या के लिए साधारण सूत्रों को खोजती है। 




विश्वनाथ त्रिपाठी अपने पूर्ववर्ती आलोचना का मूल्यांकन करते हुए साहस का परिचय देते हैं। वे जहाँ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान को अद्वितीय मानते हैं, वहीं उनकी सीमाओं की ओर भी ध्यान दिलाते हैं। उन्होंने जहाँ आलोचना में उनके आगमन को समूचे भारतीय साहित्य-शास्त्र का आधुनिकीकरण माना, वहीं उनके अन्तर्विरोधों को भी देखा। वे लिखते हैं, ‘शुक्ल जी हृदय दशा की मुक्ति ‘प्रस्तुत’ में ही मानते हैं। जो कुछ है, उसी में लीन या मग्न होने पर उन्होंने हृदय की मुक्तावस्था मानी थी। लेकिन यहाँ वे प्रस्तुत या वर्तमान में नहीं बल्कि अतीत में मुक्ति ढूँढ़ते हैं। अतीत जीवन का नित्य दर्पण कैसे है? वह अतीत का दर्पण है। वर्तमान का दर्पण वर्तमान ही हो सकता है। वर्तमान में अतीत अन्तर्भुक्त होता है।’ (आलोचना, पृष्ठ- 65) वहीं दूसरी ओर डॉ. नगेन्द्र के छायावाद संबंधी मूल्यांकन में भी उन्हें सर्वथा दोष दिखाई देता है। वे लिखते हैं, ‘छायावाद द्विवेदी युगीन स्थूलता और भौतिकता के प्रति सूक्ष्मता का विद्रोह था। डॉ. नगेन्द्र साहित्य के परिवर्तनों को युगीन शक्तियों से प्रभावित विकास के रूप में नहीं, स्थूलता और सूक्ष्मता के सन्दर्भ में देखते हैं। परिवर्तनों को देखने का यह सन्दर्भ ठीक नहीं जँचता। छायावाद द्विवेदी युग का उससे विद्रोह नहीं, उसका विकास था। यह नहीं हुआ कि द्विवेदी युग की सारी विशेषताओं ने उसे छोड़ दिया। छायावाद द्विवेदी युग की कई विशेषताओं को साथ लिए हुए विकसित हुआ है।’ (आलोचना, पृष्ठ- 155) 

विश्वनाथ त्रिपाठी की आलोचना केवल अपने पूर्ववर्ती आलोचना के अनुमोदन से विकसित नहीं हुई है, बल्कि उन्होंने अपने ढंग से उन प्रवृत्तियों को व्याख्यायित किया है, जिनसे हो कर साहित्यिक परंपराएँ बनी हैं। यहाँ वे उन आचार्यों से टकराए भी हैं और उनसे दृष्टि पा कर युगीन साहित्य के मूल्यांकन में परिणत भी हुए हैं। 

विश्वनाथ त्रिपाठी सैद्धांतिक आलोचना के आग्रही नहीं हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि, ‘केवल सिद्धांत को ध्यान में रख कर न तो साहित्य रचा जाता है, न आलोचना की जा सकती है। रचना और आलोचना की प्रक्रिया में सिद्धांतों का भी परिष्कार होता है। केवल सिद्धांत ही रचना और आलोचना को प्रभावित नहीं करते, आलोचना और रचना भी सिद्धांतों को प्रभावित करती है।’ (आलोचना, पृष्ठ- 176) 

विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी आलोचना के पूरे विकास-क्रम को द्वन्द्वात्मक आलोक में विकसित होता पाते हैं। उनकी स्पष्ट धारणा है कि ‘जन-समूह की भावनाओं का आग्रह कर के ही हिन्दी की आलोचना रीतिकालीन केंचूल उतार कर आधुनिक बनी थी।’ (हिन्दी आलोचना, पृष्ठ- 19)  इस आधुनिकता के उन्हें तीन स्पष्ट भेदक लक्षण दिखाई देते हैं- यथार्थ बोध, विषमता बोध और इस विषमता से उबरने की छटपटाहट। किसी भी साहित्यकार में यथार्थ-बोध के जगने पर ही उसे अपने आस-पास की विषमताएँ स्पष्ट दिखलाई पड़ती हैं। इन विषमताओं का दिखलाई पड़ना ही साहित्यकार का दाय नहीं है, बल्कि इन विषमताओं पर प्रहार करने से ही साहित्यिक दायित्व का निर्वहन होता है। हिन्दी की शुरुआती आलोचना में ही जब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपना ‘नाटक’ नामक निबंध लिखते हैं, तो जिन पाँच उद्देश्यों की ओर वह ध्यान दिलाते हैं, वे अपने आप में इस आधुनिकता के परिचायक हैं। वे उद्देश्य हैं- शृंगार, हास्य, कौतुक, समाज-संस्कार, देश वत्सलता। यदि समाज-संस्कार और देश वत्सलता को सामाजिक विषमताओं पर कुठाराघात करके विकसित किया जाए, तो सामाजिक दायित्व निर्वहन में लेखकीय भूमिका सहज ही प्रमुखता पा जाती है। 



विश्वनाथ त्रिपाठी ने जिन चार लेखकों को अपनी आलोचना का विषय बनाया है- वे हैं - तुलसीदास, मीरां, हरिशंकर परसाई और केदार नाथ सिंह। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने समय की महत्त्वपूर्ण कहानियों पर भी लिखा, हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में भी परिणत हुए, किंतु उनका एकनिष्ठ मूल्यांकन उक्त चार लेखकों पर ही केन्द्रित रहा। यहाँ मूल्यांकित ये चारों लेखक अपने-अपने समय की सामाजिकता के न केवल प्रतिनिधि लेखक रहे हैं, बल्कि तीनों ने अपने-अपने समाज से खासा संघर्ष करके वह मुकाम हासिल किया है, जिससे वे अद्वितीय बन सके। तुलसीदास को ‘लोकवादी कवि’ सिद्ध करते हुए त्रिपाठी जी ने उनकी लोकप्रियता को जनता की धर्म-भीरूता से काट कर, उनकी कविता में वर्णित सामाजिक संरचना पर केन्द्रित किया है। उनसे पूर्व हुई तुलसी-विवेचन पर भी उनकी निगाह रही है। आचार्य शुक्ल की मान्यताएँ उन्हें लोक-मंगल का कवि तो सिद्ध करती हैं, किंतु अपनी पूर्व परंपरा से भिन्न उनके वास्तविक लोक से उनकी रचना को जोड़ने कास काम त्रिपाठी अपनी इस पुस्तक से करते हैं। वे वाल्मीकि और भवभूति के राम से भिन्न तुलसी के राम को लोकवादी सिद्ध करते हैं। वे लिखते हैं, ‘राम का स्वरूप कवियों ने अपने युग के आदर्शों पर निर्मित किया। वाल्मीकि, भवभूति, तुलसी और निराला के ‘रामों’ में जो अन्तर है उसका कारण इन महा-कवियों के युग-बोध का अंतर है।… राम कथा में एक प्रसंग ऐसा है जहाँ वाल्मीकि और भवभूति के राम शम्बूक नामक शूद्र का वध करते हैं। उस बेचारे का क़सूर यह था कि शूद्र हो कर भी तपस्या कर रहा था। शूद्र हो कर तपस्या। असहिष्णु वर्णाश्रम व्यवस्था की दृष्टि में यह महान अनर्थ था। शूद्र तपस्वी का वध करते हुए राम के रूपों की जो भिन्नता वाल्मीकि और भवभूति के यहाँ मिलती है वह ध्यान से देखने की चीज़ है, और तुलसी ने राम का वह रूप छोड़ ही दिया, यह भी विचारणीय है।’ (लोकवादी तुलसीदास, पृष्ठ- 25) वाल्मीकि के राम के हृदय में शूद्र का वध करते समय कोई अन्तर्द्वन्द्व नहीं है। भवभूति के राम के मन में अन्तर्द्वन्द्व है। उनके मन में क्षणिक करुणा जगती है -


“रे हस्त दक्षिण। मृतस्य शिशोर्दि्वजस्य

जीवातवे बिसृज शूद्रोमुनौ कृपणम्

रामस्य गात्रमसि दुर्वह गर्भ खिन्न-

सीता विवासनपटोः करुणा कुतस्ते।”

इनके विपरीत तुलसी के यहाँ इस प्रसंग के लिए जगह नहीं है। यह तुलसी का अपना युग-बोध है, जहाँ यह कार्य क़तई स्वीकार्य नहीं हो सकता। त्रिपाठी जी ने तुलसी के लोकवादी आलोक में इसे न केवल पहचाना है, बल्कि उनकी दृष्टि में यही हमारी खोज का विषय भी होना चाहिए कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह त्रिपाठी जी की आलोचना दृष्टि ही है, जो रचना को सामयिक विद्रूपताओं की कसौटी पर कस कर मूल्यांकित करती है।   

तुलसी के राम निषाद, गिद्ध, शबरी और बन्दर- भालुओं के अत्यंत प्रिय हैं। ये राम के प्रिय भी हैं। यह प्रेम की आपसदारी उन्हें अपनी पूर्व राम-कथा से भिन्न जिस कारण करती है, वह तुलसी का अपना समय है और उसका गहरा युग-बोध। तुलसीदास की यह व्यावहारिक व्याख्या त्रिपाठी जी की सामाजिक दायित्व और साहित्यिक उपादेयता के आपसी गठजोड़ पर केन्द्रित द्वन्द्वात्मक आलोचना पद्धति का ही परिचय देती है। यहाँ उनकी यह धारणा ही काम करती दिखती है कि, ‘प्रगतिशीलता समय सापेक्ष्य है। इसका तात्पर्य यह भी है कि हमें साहित्यकारों की प्रगतिशीलता की जाँच उनकी समकालीनता के संदर्भ में करनी चाहिए।’ (हिन्दी आलोचना, पृष्ठ- 132)



दूसरी ओर, त्रिपाठी जी ने पूँजीवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आपसी गठजोड़ से हमारे सारे सांस्कृतिक मूल्यों को विज्ञापन बना देने वाली सामयिक प्रवृत्ति से गहरा खतरा महसूस किया है। वे मानते हैं कि, ‘विज्ञापन हमारे युग का सबसे बड़ा और घातक मुखौटा है। वह आर्थिक शोषण के लिए राजनीति, चरित्र, संस्कृति, मानसिकता को विकृत करता है। नारी को शारीरिकता में सीमित करता है। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीवाद सामन्ती दृष्टि का ही विकास है। इसके लिए क्षणवाद एवं व्यक्तिवादी अनुभववाद सहायक होते हैं।’ (विधाओं की विरासत, पृष्ठ- 130)

भारत आज जिस दौर से गुजर रहा है, वह उत्तर पूँजीवाद, उत्तर-सत्यवादी युग का भारत है। यह वह भारत है, जिसने विभिन्न दौरों में आन्तरिक तनाव और बाहरी हस्तक्षेपों से लोहा लिया है। यह वही भारत है, जिसे हज़ारों साल की पुरानी सभ्यता के उत्तराधिकार से एक दौर में वंचित कर दिया गया था। उसने संघर्षरत रह कर फिर उसको नये सिरे से खोजा है। यह संघर्ष उसका एक ओर जहाँ धर्म व मिथकों से रहा है, वहीं दूसरी ओर पश्चिमी दुनिया से आने वाले, अनेक आधुनिक चुनौती देने वाले विचारों से तालमेल बैठाने की चिंता के साथ रहा है। आज हमें यह पड़ताल करने की आवश्यकता है कि इस गहरे संकट-बोध का मुक़ाबला करने की इच्छा और इस चिन्ता से कितनी आलोचना उद्भूत हुई है। साथ ही हमें यह भी देखने कि आवश्यकता है कि किस आलोचक की आलोचना इस चिन्ता से प्रस्थान कर रही है और कौन इससे एकदम बेख़बर हो कर लिखे जा रहे हैं? कला और साहित्य हमें किसी आश्चर्य-लोक में ले जा कर प्रभावित नहीं करते। वे हमारे साधारण जीवन से ही हमें और अधिक परिचित कराते हैं। जो आलोचक रचना में दर्ज इस जीवन को अपने आस-पास के साधारण जीवन से नहीं जोड़ पाता, वह रचना की ऊँचाई को न तो स्वयं पकड़ पाता है, न उसके पाठक। इन अर्थों में विश्वनाथ त्रिपाठी जी एक उम्मीद के आलोचक हैं। वे अपने समय के क्राइसिस को पकड़ने वाली रचनाधर्मिता की पहचान से जुड़े रहे हैं।


(पाखी के हालिया अंक से साभार।)


अंकित नरवाल



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