राजीव जोशी की कहानी 'वो गुलाब'

 

राजीव जोशी


सामान्यतया 'हां' और 'ना' जैसे शब्द छोटे दिखते हैं। लेकिन कई बार परिस्थितियां कुछ ऐसी होती हैं कि इन शब्दों को कह बोल पाना बहुत कठिन होता है। खासकर उन महिलाओं के लिए जिनके 'हां' या 'ना' की परवाह यह समाज करता ही नहीं और उसकी व्याख्या कुछ अपने तरीके से ही कर लेता है। युवा कहानीकार राजीव जोशी की कहानी वो गुलाब इस परिप्रेक्ष्य को करीने से उद्घाटित करती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राजीव जोशी की कहानी 'वो गुलाब'।



वो गुलाब


राजीव जोशी


ढक्कन खुलते ही गुलाब के तरोताजा फूल की महक नाक तक पहुंची। डिब्बे में देखा तो एक मरून गुलाब अपनी डण्डी को चारों ओर गोल घुमाए, तीन-चार पत्तियों के साथ पड़ा था। एकदम फिट्ट। बड़ी जिज्ञासा से मैंने वह छोटा डिब्बा खोला था। टिफिन केस के डिब्बों से छोटे साइज का यह डिब्बा किसी टैक्सी गाड़ी में लटक कर आए यात्री की तरह केस बैग के किनारे ठूँसा हुआ, मेरे पास पहुंचा था। वैसे तो सबसे पहले टेबल में यही उतरा था लेकिन फिर वहीं पड़ा रह गया। भूख इतनी लगी थी कि बड़े डिब्बों की तरफ पहले हाथ गया। फिर जो खुला उसके पास गले से उतरते-उतरते दूसरे डिब्बे खुलते गए। पता नहीं भूख वजह थी या लजीज खाना, सब कुछ बड़ा स्वादिष्ट लग रहा था। लटक कर आया यह छोटा डिब्बा टिफिन के सारे डिब्बे चाट कर खाली होने के बाद भी वैसा ही पड़ा रह गया था। उसे तो समेटने से पहले बस इसलिए देखा गया था कि अरे, इसे तो देखना ही भूल गयी। ये गुलाब अतीत के कुछ और पन्ने खोल गया।


इन दिनों सब कुछ रूटीन से हट कर चल रहा था। एन. एस. एस. कैम्प में बालिकाओं के साथ ड्यूटी थी। पूरी तैयारी से वहीं रुकने का सामान लेे कर आयी थी। शाम होने से पहले ही सरोज मैडम आदतन एक हाथ पीछे से दूसरी ओर के कन्धे में रख कर थोड़ा अपनी ओर पिचका कर बोली, “कैसा लग रहा है, कुन्नी?” एक बार अपना घर का नाम क्या बता बैठी असल नाम ही भूल गयी। पहले दिन वाला कनक कुनाल मैम का सम्बोधन अब कुन्नी या मेरी ‘कुनिया‘ तक आ गया था। पता नहीं प्यार ही इतना था या काम आने वाली लड़की से मीठा बोलने की मजबूरी, मगर बड़ी मिठास होती इस औरत के बात करने के अन्दाज में।


“आज यहीं रहेगी?” थोड़ा और अपने करीब दाब कर उसने पूछा।


“घर जाने कौन देगा मुझे? कह कर मुस्कराते हुए मैंने भी एक सवाल में ही उत्तर दे दिया। 


“चली जा मेरी बहन! आज तेरी ये दीदी रहेगी इधर, कल शाम तक आ जाना।” दूसरा हाथ गज्जब अन्दाज में ऊपर उठाते हुए वह बोली। “पूरी तैयारी से आयी ही हूँ, कोई दिक्कत नहीं है, रह लूंगी, तीन ही रात की तो बात है फिर आपका ही का टर्न है, रह लेना।” मैंने सामान्य जबाब दे दिया। “मेरे से ड्यूटी बदल दोगी तो मैं अपनी भानजी की मेंहेंदी अटेंड कर पाऊंगी।” कह कर वह खुशामदी अन्दाज में मुझे देखने लगी। मैं तो हर बार सबकी मान लेने को बैठे ही रहती थी। पता नहीं ‘ना‘ क्यों नहीं होती मुझसे। शायद ‘ना‘ कहने की कोई वजह ही नहीं होती मेेरे पास। इन सबके पास काम होते हैं- सालगिरह, बर्थडेज, मेंहदींज, श्राद्ध, जाने क्या-क्या। कभी वास्तव में परेशानियां होती, कभी मेरा यूज करने के लिए यह थोड़ा और बड़ी बना कर भी प्रस्तुत की जाती। अपना काम मुझे भिड़ा कर मुक्ति पाते समय यह परेशानी बड़ी ही गम्भीर किस्म की हो जाती। मैं भांप भी जाती, लेकिन ‘ना' न हो पाती। पता नहीं, हां कर देने में ही संतोष होता था या किसी के रूठ जाने के डर से ‘हां' बोल देती थी। कई बार तो इसके बाद असुविधाओं से घिर जाती थी। 


“ना कहना सीखो मैडम!” मुस्कराते हुए पीछे से आवाज आयी। सरोज मैडम जितना दूर जाती जा रही थी उतना ही पास आते-आते मुस्कराते हुए नरेंद्र ने कहा। “ओह! तो सब सुना जा रहा था, ये तो सिर्फ ड्यूटी बदलने वाली बात है।” मैंने झेंप मिटाते हुए कहा। नरेन्द्र पिछले कुछ महीनों से इस बात को नोटिस कर रहा था। मुझे एहसास कराए जा रहा था कि मुझमें ‘ना' कहने का साहस ही नहीं। पहली बार किसी ने यह ध्यान दिलाया था। बात इतनी तार्किक तरीके से रखी गयी कि मुझे सोचने को मजबूर कर दिया। समाजशास्त्र और संस्कृत डिपार्टमेंट एक ही गैलरी में था तो अक्सर मुलाकात हो जाया करती। बाद में वो दिन में किसी समय बैठने आ जाता। अब तो फुरसत मिलते ही बैठने आ जाता। उसकी व्याख्याएं समाजशास्त्रीय होती थी या मनोवैज्ञानिक, पता नहीं, होती बड़ी तार्किक थी। हर बात पर मेरी ‘हां' पर भी उसके लॉजिक ऐसे थे कि मुझे उसने सोचने को मजबूर कर दिया। जब भी ऐसा वाकया आता, वीरेन्द्र डंगवाल की एक कविता सुनाता, ‘इतने भले न बनो साथी, जितना भला होता है सरकस का हाथी'। अपनी इस आदत को मैंने कभी नोटिस नहीं किया। मैंने कैम्प साइट से घर लौटने की तैयारी की। घर जाने का कोई इरादा नहीं था, अपनी एक और ‘हां‘ से जबरन जाना पड़ रहा था। परछाइयां लम्बी हो चली थीं। सूरज अपनी धूप की चादर नीचे घाटी से समेटते हुए आ कर मेरे आस-पास की पीली-पीली धूप भी समेटने में लगा था। सड़क पर पहुंचने के लिए मैंने सामने का मैदान पार किया। अपनी ‘हां-ना' पर सोचते हुए सड़क पर पैदल चलने लगी। पैदल जाने का तो बिल्कुल मन नहीं हो रहा था। तभी पीछे से स्कूटी आ कर रूकी, “मैडम बैेठिए, नरेंद्र सर ने आपको छोड़ आने को बोला था।” लड़का हमारा ही स्टूडेण्ट था, ‘हां‘, कह कर चुपचाप बैठ गई।


नरेंद्र इन दिनों कुछ ऐसे काम कर के चौंका दे रहा था। उसकी मदद अक्सर वक्त पर पहुंच जा रही थी। वह मेरी जिन्दगी में ‘इनवाल्व' हो रहा था। पता नहीं, वो कैसे ठीक समय पर मेरी जरूरत समझ जा रहा था। मेरी तो किसी से कोई हेल्प लेने की आदत ही नहीं रही थी। आदत क्या नहीं रही थी, मैंने छोड़ दी थी। अपनी जिन्दगी की गठरी खुद ही सिर पर धरे मैं जाने कब से चली आ रही थी। मेरी जिन्दगी ने ही मुझे ऐसे चलना सिखाया था। परिस्थितियों ने पता नहीं किस दिन से मुझे ऐसे गढ़ना शुरू किया होगा। मुझे एहसास तब हुआ जब मैंने इण्टर पास किया। आगे पढ़ने का कोई रास्ता ही नहीं दिखा। इण्टर तक तो घर के पास ही स्कूल था। सरकारी स्कूल में खाना, ड्रेस, किताबें मिल जाती। घर से आ-जा कर काम हो गया। हायर एजुकेशन दूर थी। अपनी शिक्षा का समापन नजर आ रहा था।   

         

बहुत दिनों बाद आंख के कोने से एक आंसू लुढ़क आया। ये तो स्कूटी में हवा लगने से भी लाजिमी था इसलिए छुपाना सरल रहा। स्कूटी झटके से रूकी, मैं उतरी, मुंह पोछा, पलटने को थी कि- “मैडम, सर ने खाना भी भेजा है” कहते हुए उसने एक थैला निकाला और मुझे थमा कर वापिस चल दिया। 


बहुत रात तक पढ़ती रही। सोने से पहले टिफिन खोला। टिफिन में आलू के गुटके, पांच-छः पूरियां, अचार का टुकुड़ा और थरमस में चाय थी। सब कुछ निपट गया। आखिरी पूरी के नीचे एक पर्ची रखी थी- ‘अभी इतना ही पका है'। मैंने उसकी फोटो खींची। ह्वैट्सएप्प पर टैग करते हुए नरेंद्र को भेज दिया- ‘इतना ही बहुत है, धन्यवाद'। जबाब आया- कल भी आ जाएगा। “ना” लिख कर मैंने भी मुस्काता इमोजी चिपका दिया। मेरी ‘ना' वाला मजाक वह समझ गया था। तभी फेसबुक नोटिफिकेयन पर नजर पड़ी। ‘तनुज अपडेटेड हिज स्टेटस'। भाई की खबर मिलने का अन्तिम तार फेसबुक ही बचा था। देखा तो गार्ड की ड्रेस पहने किसी गेट पर खड़ा फोटो पोस्ट किया था। वर्दी तो सेक्युरिटी गार्ड्स की ऐसी शानदार होती है कि कोई कर्नल भी शर्मा जाए। तीखी घुमावदार मूंछें भी दिखाई दे रही थी। घर से इतनी दूर, मिलता ही क्या होगा, कैसे गुजारा होता होगा, पता नहीं। मुझसे दो क्लास ही पीछे पढ़ता था। इण्टर के बाद शहर जा कर एक दुकान में काम करने लगा। संघर्ष हमारे एक जैसे ही थे। एक ही घर-परिवार और समाज ने हमें गढ़ा था। हमारा समाज एक बड़े होते लड़के के मन को जैसा गढ़ सकता था, वैसा ही मेरा भाई था। मैं इस बात को अब समझ सकती थी। उसकी गरीबी और संघर्षाें को देख कर दया आती। पुराना गुस्सा जाता रहा था। मां जब पेड़ से गिर कर घायल हो कर अस्पताल लायी गयी थी, वह तो सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी में गुजरात ही था लेकिन मैं पहुंच गयी थी। मां ने इलाज के लिए दो-एक दिन ही समय दिया। मैंने गिरने की खबर मिलते ही उसे अस्पताल लाने को कहा। अबकी चोट जिन्दगी भर की चोटों से इतनी गहरी थी कि मुक्ति दे गयी। भाई ने शर्त रख दी कि मैं जब तक वहां रहूंगी वो अन्त्येष्टि के लिए भी नहीं आएगा। पिता ने भी कह दिया कि “कुन्नी, मां-बाप मर गए क्यों नहीं सोच लेती तू?” मैंने भी अस्पताल के पेमेंट निपटाए। एम्बुलेंस और गाड़ियों का एडवान्स पैसा चुकाया। पुत्र के लिए मैदान छोड़ दिया। फिर घर को भुला ही दिया। पिता के गुजरने के दिन भी नहीं गयी। 




           

भाई का मन बिल्कुल भी नहीं बदला था। वही विचार, वही अकड़। मेरी सफलता भी अब उसे अपनी हार लगती थी। मेरे साथ उसकी आखिरी मुलाकात की ही यादें थीं। उन दिनों मेरी शादी करने के लिए पूरा कुटुम्ब एकजुट कोशिशों में लगा था। समाज ने लड़कियों की जिम्मेदारी से निपटने के लिए शादी का रास्ता चुना ही था। शहरों में बसे लोग अपने बेरोजगार लड़कों के लिए लड़कियां ढूंढने पहाड़ी गांवों में पहुंच रहे थे। पिछले दशकों में लिंगानुपात बिगड़ने का असर दिखने लगा था। लड़कियों का अकाल-सा हो गया था। बड़ा चालाक तर्क दिया जा रहा था कि पहाड़ की लड़कियां संस्कारी होती हैं। ऐसे रिश्ते मेरे घर भी कम नहीं पहुंच रहे थे लेकिन मुझे कोई ले जाने को तैयार न होता। मेरी एक आंख ने मुझे बचा रखा था। सब बच्चों की तरह मैं भी दो खूबसूरत आंखों के साथ पैदा हुई थी। दादी अपने छोटे-मोटे काम करते मुझ पर नजर रखा करती। इसी दौरान कभी आंख में अन्दर खरोंच आ गयी। दादी बताती हैं कि चाची ने आंख में अपनी छाती का दूध भी डाला। आंख बहुत दिनों तक लाल रही। फिर थोड़ा सिकुड़ गयी। उसमें थोड़ी-थोड़ी देर में कीच लग जाती। इस आंख से बस अंधेरा-उजाला ही दिख पाता। जब तक इसे पोछने की अकल आती, मेरा नाम ‘गिदड़ै' पड़ गया था। इसी की वजह से मुझे अब तक निपटाया नहीं जा सका। पहली बार मेरे आंख का इलाज किए जाने की बातें होने लगी। मामा के साथ बरेली भेज कर मेरे आंख का इलाज कराया गया। एक ऑपरेशन हुआ। कीच बहना तो बन्द हो गया लेकिन उस पर मोटा-सा चश्मा चढ़ गया। चश्में के अन्दर मेरी एक आंख छोटी एक बड़ी दिखने लगी।         


भाई शहर के एक दूकान मे काम करने लगा था. उसका कमरा कॉलेज के पास हो जाने से मेरे अन्दर पढ़ने का सपना फिर कुलबुलाने लगा था। भाई को भी तैयार खाना मिल जाएगा, मेरी भी पढ़ाई हो जाएगी। मुझे लगा कि मेरी किस्मत से सब ठीक हो गया है। मां से बी. ए. करने की बात की। उसने पिता से कहा। पिता ने भाई से। सब मान गए लेकिन भाई अपने साथ मुझे रखने को तैयार नहीं हुआ। वो घर में किसी की सुनता ही नहीं था। पिता शराब पी कर हंगामा मचाते तो एक-दो साल से इसके आक्रामक रवैये से डर कर चुप हो जाते। हमें शुरूआत में उसका ये रवैया अच्छा लगने लगा था। मां कहती, “अब तनुज थोड़ा बड़ा हो गया है” लेकिन इस बार उसका आक्रामक रवैया किसी को अच्छा नहीं लगा। मां और मेरे लिए पहले पिता की दहशत थी, अब भाई की। दो दिन की छुट्टी में घर आया तो मेरी बहस हो गयी। “तेरे मना करने से मैं पढ़ने का इरादा छोड़ने वाली नहीं हूं। तू नहीं आने देगा तो अपनी व्यवस्था खुद करूंगी।” यह सुनना था कि उसने मेरे मुंह में थप्पड़ जड़ दिया। मेरे उसी आंख के पास असह्य पीड़ा हो गयी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। भाई-बहिनों के बीच का झगड़ा जैसा होता है, वैसे ही मैं भूल जाती। शायद बहिन ही पहले भूलती भी है। हर बात पर उसके बतंगड़ से थोड़ा डर भी लगने लगी। इस बात से शायद वो सहज होता होगा कि मैं अब बहस कम करती थी। उसका पुरूष अहंकार तुष्ट होने लगा था। इस बार उसे चुनौती मिल गयी थी। उसी शहर में मैंने अपनी व्यवस्था करने की बात कर दी थी, सो बात आगे बढ़ गयी थी। फिर कॉलेज न भेजने के लिए लड़कियों के सामने जो तर्क आते हैं, वे सब जुबान पर आ गए। 


“मोबाइल पर स्टेटस नहीं देखता मैं तेरे, जाने कितने लड़कों से चैट करती होगी, वहां कमरा कर के रहने के इरादे मैं सब जानता हूं। 


“तो अपने साथ क्यों नहीं रखता? अपने साथ रखेगा नहीं, अकेले रहने नहीं देगा, दो साल से घर में पड़ी हूं, मेरे साथ वालों का इस साल बीए हो जाएगा।” मैंने फिर जबाब दे दिया।


वह फिर मारने आया। मां बीच में आ गयी। जाने क्या-क्या बोला उस दिन उसने। उसके अन्दर इतना कुछ होगा, मैंने कभी सोचा नहीं था। घिन आ गयी मुझे। फाइनली उसने अपना डिसीजन सुना दिया कि “तू वहां आएगी तो मेरे यहां मत आना, और मेरे साथ आज से कोई रिश्ता भी मत रखना।” मैं उस दिन बहुत देर तक रोते रही थी। मेरी ‘हां-ना' गढ़ने की बुनियाद में ऐसी न जाने कितनी बातें थीं, जिन्हें नरेंद्र नहीं जानता था। मेरे मन की अतल गहराईयों में पता नहीं कितनी परतें थीं। उन्हें कभी इस नजरिए से मैंने खोला ही नहीं था। मेरे ‘हां-ना' कहने का साहस बनाने-बिगाड़ने में कितने ही घटनाओं का हाथ था। मेरी शादी हो जाती तो मेरे घर में कोई भी मेरी पढ़ाई की बात में मेरे साथ न होता। शादी हो नहीं रही थी, थोड़ा पढ़ जाती तो शादी के लिए प्वाइंट बढ़ जाते। किसी तरह निपट जाती तो सब निवृत्त हो पाते। भाई ने तो यह बात साफ कह भी दी थी। इन सब को निवृत्त कर देने का मन करने लगा था। शादी हो जाती तो कर ही लेती। मर जाने का विकल्प तो था, लेकिन इतना हारी नहीं थी अभी। इसके लिए और पस्त हो जाना जरूरी होता होगा। 


रोज बकरियां चराना, घास काटना, जानवरों की देखभाल करना और भोजन पकाने में मां की मदद करना, ही मेरी जिन्दगी थी। इसके अलावा मैंने एक ही बात सीखी थी- कहांनियां पढ़ना और संस्कृत रटना। पुस्तकालय वाले सर हमें किताब देते रहते थे, किताब लौटाने जाते तो जमा करते-करते कोई बात बताते और बाकी इस किताब में पढ़ना कह कर, एक और किताब थमा देते, यह सिलसिला चलता रहा। इण्टर पास के बाद भाई से ही किताब मंगाती। वो तो नहीं पढ़ता, मैं पढ़ कर लौटाती तो नई किताब आ जाती। वो किताबें बकरियां चराते समय किन पत्थरों में बैठ कर पढ़ी, आज भी याद आते हैं। लाइब्रेरी वाले सर संस्कृत विद्यालय से पढ़े थे। मुझसे संस्कृत में ही बोलते। मुझे जबाब देना तो नहीं आता लेकिन सुनने में बड़ा अच्छा लगता था। "कनक, भवान् संस्कृतस्य प्राध्यापकः भवितुम्, बहु पठतु। (कनक, संस्कृत की प्रोफेसर बनना है तुम्हें, खूब पढ़ो।) ये बात वे रोज कहते। साथियों के सामने कहते तो मैं शरमा जाती। इसलिए संस्कृत पढ़ने में रूचि बढ़ती गयी। 


दो साल से पढ़ाई के नाम पर थोड़ी कहांनियां और संस्कृत ही रह गया था। इधर मेरे कॉलेज की बात पर घर का हंगामा पूरे कुटुम्ब का मुद्दा बन गया। मेरे जीजा जी ने अपनी बुवा के लड़के को मेरा नम्बर दिया और बी. ए. का प्राइवेट फॉर्म भरवा देने को कहा था। इस दौरान उसे मुझसे कई बार बात करनी पड़ी। डॉक्यूमेंट्स भेजने, विषय पूछने से ले कर अन्य बहुत-सी बातें। बातें करने में बड़ा सभ्य और मददगार लड़का था। कई बार मैं खुद भी बात करके उससे कोई बात पूछ लेती। किसी न किसी बहाने बात होती रहती। किताबें लेने और साइन करने तो जाना ही था। अचानक विकलांग कैम्प लगने की खबर मिली। एक आंख बन्द होने से अब मैं विकलांग हो गयी थी। बड़ा अजीब लगा लेकिन इसी कैम्प की वजह से मुझे बहुत दिनों बाद घर से बाहर निकलने का मौका मिल गया। फॉर्म भी भरा गया और किताबें भी मिल गयीं। उसने पूरी मदद की। सारे काम निपटा कर शाम को स्टेशन में भी छोड़ने आया लेकिन गाड़ी नहीं मिली। उसी के घर जाना पड़ा। जीजा जी के बुवा का घर था, रिश्तेदारी थी ही तो जाना बहुत असहज भी नहीं था। 


जीजा जी के फूफा जी रिटायर्ड फौजी थे, बुवा पहले ही गुजर गयी थी। जब हम पहुंचे तो वे सब्जी काट रहे थे। मेरे हाथ मुंह-धो कर आने तक सब्जी कट चुकी थी। आगे का काम मैंने पकड़ लिया। रोज ये काम लड़के के साथ मिल कर करते होंगे। लड़का तो आज भी मेरी मदद कर रहा था लेकिन वो बैठ गए। अपरिचित किचन में मदद के बिना काम चल भी नहीं रहा था। किचन के कोने पर फ्रीज के ऊपर एक शीशे के गिलास में कुछ गुलाब रखे थे। फ्रीज खोलने में पूरा पॉट हिल रहा था। टूटने के डर से मैंने हटा देने को कहा। उसने उसे हटाया और मुस्कराते हुए एक गुलाब मेरी ओर बढ़ाया। मैंने दरवाजे की तरफ देखा कि कोई देख न ले। कुछ भी बोल कर बखेड़ा खड़ा करने के बजाय उसे पकड़ा और वापिस उसी गिलास में डाल कर चेहरे से नाराजगी व्यक्त की। तभी फौजी पिता किचन में आ भी गए। “अपना ही घर समझो बेटा, आज हम भी बैठ कर खा लेते हैं।” अपना ही घर जैसा लगा था मुझे भी। रात को सब खा-पी कर सो गए। किचन से निकलने तक बेटा अपना सामान ले कर बैठक में शिफ्ट हो चुका था। मुझे अपना कमरा दिखा कर बोला, “आप इधर सो जाइए।” मैं भी जा कर सो गयी।  


यह घटना आज मेरे ‘हां-ना' से जुड़ गयी। रात को किसी आवाज के एहसास से मेरी आंखें खुली। मैंने देखा कि उनका लड़का मेरे कमरे में था। धीमे आवाज में बोला, “किताब लेनी थी।” मैं झटके से बैठ गयी थी। उतनी ही धीमी आवाज में बोली, “ले लीजिए।” उसने किताब ली और जाने के बजाय बिस्तर के कोने में बैठते हुए बोला, “नींद नहीं आई?” मैं कुछ बोलती इससे पहले ही मेरे मुंह पर हाथ रख कर बोला, “पापा सुनेंगे”। फिर उसने हाथ नहीं हटाया और मुझसे चिपट गया। मुझे डरता देख कर उसने चुप रहने का इशारा किया। अकस्मात उसके करीब आने से मैं ढह गयी। उसने छोड़ा नहीं। अब मेरी समझ में आ गया कि क्या होने जा रहा है। दरवाजे की तरफ नजर घूमाई तो जो कुण्डी मुझसे ठीक से लग नहीं पायी थी, अब चढ़ाई जा चुकी थी। समझ में नहीं आया कि कैसे बचूं? पूरा जोर लगाया। हल्ला मचाना एक उपाय हो सकता था। पता नहीं, क्यों संकोच हो रहा था। हर पल वह आगे बढ़ता ही जा रहा था। ‘बहुत देर की जिद्दोजहद के बाद वह गहरा दर्द दे कर चला गया। मैं स्तब्ध रह गयी। बिस्तर पर जाने कितनी देर जड़ बैठी रह गयी। पता नहीं कितना समय यूं ही बीता। बाहर की तरफ हल्की पदचाप सुन कर मेरी तन्द्रा टूटी। फौजी बुजुर्ग मॉर्निगं वॉक पर निकल चुके थे। घड़ी में देखा तो सुबह के चार बजे थे। चारों ओर का अंधेरा, घना हो कर मेरे अन्दर जम चुका था। मैंने बाथरूम में घुस कर बहुत रगड़ कर नहाया लेकिन बदन से चिपका अपमान बह नहीं सकता। बैग के साथ उसे भी लेकर मैं निकल पड़ी। बिना मिले ही निकल जाने का कोई वाजिब कारण कभी नहीं बता पायी तो एक मददगार जीजा जी भी हाथ से निकल गए। लेकिन उस रात के हमलावर को कभी सामने आने की हिम्मत नहीं पड़ी। 




मैं नरेंद्र को बुला कर बताना चाहती हूं। वो कहता है- ‘ना‘ कहना सीखो, मैं कहना चाहती हूं ‘ना‘ सुनना सीखो। मैंने ‘ना‘ ही तो कहा था। ‘ना‘ जताने के कई तरीके हो सकते थे, जो मेरे दिमाग में उस वक्त आया वही तो किया जा सकता है। हर परिस्थिति में ‘ना' कहने के लिए कितना क्रिएटिव होना होगा मुझे? जब उसने किचन में वो गुलाब दिया और मैं कुछ न कह पायी तो उसने शायद मान लिया कि मैं ‘ना' न कर पाऊंगी। मैं स्वीकार करना चाहती हूं कि मुझे ‘ना' कहना नहीं आता। यह बात जो मेरे दिल में आज तक दफन है। उसे सुन कर मुझे जो जबाब मिलेगा, मैं जानती हूं- “तू चिल्लाई क्यों नहीं?” बात भी सही है, एक तमाशा ही तो होता? तमाशा कर देना था मैंने? सवाल यह भी है कि अपनी एक ‘हां' एक ‘ना' सुनाने के लिए हर बार तमाशा ही करना पड़ेगा मुझे? 


नरेंद्र की बातों ने जिन्दगी में एक ब्रेक लगा दिया था। कभी-कभार ऐसे ठहर कर पीछे पलटना भी चाहिए। जिन्दगी के तेंतीसवें साल में आज मेरे जीवन की तहें खुल रहीं थीं। मैं चुन-चुन कर अपनी ‘हां-ना' ढूंढ रही थी। छोटी-छोटी घटनाएं तो जैसे रोज की थी। उनसे जीवन में फर्क नहीं पड़ता परन्तु मुझे लगा उनसे बड़े निर्णयों में ‘हां-ना' कहने की हिम्मत तो बनती ही है। कोई फर्क पड़े न पड़े अपनी ‘हां‘ की जगह ‘हां‘ और ‘ना‘ की जगह ‘ना‘ दर्ज कराने की आदत होनी चाहिए। मुझे लगा कि ये डर तो बिल्कुल नहीं था। एक संकोच था जिसे मैं परिभाषित नहीं कर पा रही थी। मेरी जिन्दगी के पन्नों में मेरे साहसी फैसले भी थे। एक अकेली लड़की ने अपने लिए शहर में कमरा ढूंढा और थोड़ा बहुत सामान ले कर घर से निकल पड़ी थी। दिव्यांग पेंशन और प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर के अपना खर्च चलाया। लेकिन मुझे नरेंद्र की बात से बार-बार सहमत होना पड़ रहा था। 


प्राइवेट स्कूल में मेरी नौकरी ही इसलिए लगी थी कि मैंने अपना रिज्यूम संस्कृत में लिखा था। इण्टरव्यू के दिन मुझसे संस्कृत में परिचय देने और कुछ श्लोक सुनाने को कहा गया। मैंने रटे थे, जैसे-तैसे  सुना दिए। यह मान लिया गया कि मैं संस्कृत भाषा में धारा-प्रवाह बोल सकने में सक्षम हूं। हिन्दी भाषा के एक सीनियर ने जब मेरी तारीफ की तो मैंने उन्हें अपनी असलियत बता दी- “इतनी भी नहीं आती सर, नौकरी पाने के लिए जितना जोर था, सब लगा दिया, अब यहां बने रहने के लिए सीखना जरूरी है।” उनसे मुझे किताबें मिलने लगीं। मुझे बड़ी मदद मिली। कुछ दिनों के बाद मैंने गौर किया कि जिस प्रकरण को पढ़ने के लिए वे किताब देते हैं, उसी पर गुलाब की कुछ पंखुड़ियां पड़ी होती। मैं इग्नोर कर के किताब लाती और लौटा देती, शायद गुलाब भी कोई संदेश था और इगनॉर करना भी कोई संदेश ले कर गया। मुझे फिर भी ‘वो गुलाब‘ याद न आया। एक दिन उन्होंने पंखुड़ियों का जिक्र कर दिया। मैं कुछ कहती इससे पहले ही हाथ पकड़कर बोलना शुरू किया। हाथ झिटक देने का मन किया। बहुत सख्त शब्दों में ‘ना‘ बोलने का मन किया लेकिन बोल न सकी। पिआन के आने से उन्होंने हाथ छोड़ा और मुझे वहां से निकलने का मौका तो मिल गया लेकिन किताबें मिलने का सिलसिला बन्द हो गया। क्या इस एहसान के कारण मैंने ‘ना‘ नहीं कहा? मेरे अन्दर ‘ना‘ कहने का साहस नहीं था? या ये किसी के बुरा मानने का डर था? मैं ठीक से समझ नहीं पा रही थी।   


अतीत आज मेरे सामने खड़ा हो गया था। प्राइवेट पढ़ाई, फिर नेट- पी-एच. डी., प्राइवेट स्कूल की नौकरी और यात्राएं। सब कुछ अकेले। गंतव्य तक पहुंचने की खबर किसी को देनी ही नहीं थी। कौन बैठा था जो मेरी खबर लेता। मैं अब बगावती लड़की थी। ऐसी लड़कियों के लिए घर वाले जैसे कहते हैं, वैसा ही व्यवहार किया था सबने- “मर गयी हमारे लिए तू।” जो रिश्तेदार तब ये कह नहीं पाए थे, उनके पास फोन करके तारीफ करने के मौके थे लेकिन अब मन इनसे भी जुड़ता नहीं था। मैंने अकेले जीना सीख लिया था। इसी बीच ‘हां-ना‘ खोजते सबकी याद आ गयी वरना अब याद करने का समय भी नहीं रहा। संस्कृत विभाग में मेरे अलावा एक ही सीनियर प्रोफेसर थे इसलिए काम बहुत था। बचे हुए समय में स्टूडेंट्स से बातें और अपना पढ़ना-लिखना, जिन्दगी बिना पीछे पलटे ही चल रही थी। बिस्तर में लेट कर नींद आने तक का समय ही फालतू था, वह भी तब, जब नींद पहले न आ पहुंचे। सरोज मैडम ने घर भेज कर और मनोज ने खाना भेज कर फुरसत दे दी थी। 


सुबह नींद खुली तो रोशनदान से मोटी-सी धूप सामने की दीवार पर पड़ रही थी। उठने की कोई जल्दी नहीं थी। शाम तक कैप्प साइट पर पहुंचना था। रात भर सोचने के बाद मेरी ‘हां-ना‘ इस नतीजे पर पहुंची कि मेरे अन्दर साहस की कमी नहीं, बस लोगों की परवाह है। किसी को नाराज न कर बैठने की परवाह। सबकी भौहें देख कर जीते-जीते शायद ये आदत ही पड़ गयी। इसलिए जो संकोच हैं, उसे खत्म करना होगा। यह काम आसान नहीं लग रहा था। आराम से उठ कर नहाया। नरेंद्र ने कल शाम ही खाना भेज देने की बात कही थी। खाना आते-आते इतनी देर हो गयी कि भूख लग गयी। उसी खाने के साथ ‘वो गुलाब‘ वाला टिफिन आया था। ‘हां-ना‘ में फंसी मैं, फिर एक ‘हां-ना‘ में फंस गयी। उस टिफिन के छोटे डिब्बे को अलग से अपने पर्स में रख कर एनएसएस कैम्प में पहुंच गयी। “मैं तेरी ही इन्तजारी में थी, चलती हूं, हां। एक दिन लेट हो आऊंगी तो चला लेगी न?” सरोज मैडम तो जैसेे जाने को ही बैठी थी। “ना, बिल्कुल नहीं। मेरा बहुत जरूरी काम है। आप समय पर आ जाना।” मेरा कड़ा और तपाक उत्तर सुनते ही सरोज मैडम बड़े आश्चर्य से विदा हुई। ताली बजाते हुए नरेंद्र पीछे से करीब आता जा रहा था। उसकी परछाई लम्बी होती हुई सरोज मैडम से आगे तक पहुंची थी। ताली बजाने के इशारे के बाद उसे मेरी ‘ना‘ पर कोई टिप्पणी करने की जरूरत नहीं थी। मैंने ही बोलना शुरू किया। कल शाम से अपने अन्तस की एक-एक खुली परत मैंने उसे दिखा दी। परछाइयां मैदान से गायब हो गयीं थी। मेरे चुप होने के बाद खामोशी इतनी लम्बी हो गयी कि पहाड़ी के ऊपर से चांद उचक कर देखने आ गया। ”टिफिन केस में एक छोटा डिब्बा मिसिंग था” मनोज ने खामोशी तोड़ी। मैंने पर्स से बाहर निकाल कर उसे थमा दिया। फिर मुस्काते हुए कहा ‘ना‘। वह जोर से हंसा- “अब ‘हां‘ कहना भूल गयी, कुन्नी मैडम।“ फिर हंसते हुए चला गया। मैं उसे ओझल होने तक देखते रही। सब कुछ सुनने के बाद वाला ‘हां‘ भी कितनी सहजता से बोल गया। मेरा ‘हां‘ मेरे भीतर ही घुट कर रह गया। 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं)


सम्पर्क 


मोबाइल : 9411347601 

    

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