राजेन्द्र कुमार की कविताएं

 

राजेन्द्र कुमार


आमतौर पर यह माना जाता है कि कवि को कोई स्पष्टीकरण देने से बचना चाहिए और इसकी कोई खास जरूरत भी उसके लिए नहीं होती। लेकिन जब बात कविता की हो तो विषय कुछ भी हो सकता है। स्पष्टीकरण अपनी बात को पुख्तगी के साथ रखने का प्रयास होता है। कवि अपनी इस कविता में लिखते हैं : 'बात यह है कि मैं जीवन में इतना डूब गया हूं/ कि मौत मुझे सतह पर नहीं पा सकती' यह पंक्ति काफी महत्वपूर्ण है। कवि जीवन से गहरे तौर पर जुड़ा हुआ है। कवि की तमाम कविताएं इसकी तस्दीक करती हैं। हालांकि राजेंद्र कुमार की छवि एक आलोचक की है लेकिन आलोचना में भी उनका कवि स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। आज राजेंद्र कुमार जी 81 वर्ष के हो गए। जन्मदिन पर प्रिय कवि को बधाई और शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राजेंद्र कुमार की कविताएं।



राजेन्द्र कुमार की कविताएं 



स्पष्टीकरण


यह बात नहीं कि मैं जीवन से ऊब गया हूँ

बात यह है कि मैं जीवन में इतना डूब गया हूँ

कि मौत मुझे सतह पर नहीं पा सकती ।


हाँ, उसे मिल सकते हैं

                  मेरी उखड़ी हुई साँसों के बुलबुले

                  जो हैं इतने ज़्यादा चुलबुले

                  कि इन गहराइयों में भी

                  मुझसे लड़ कर

                  भँवरों में पड़कर

                  जा ही धमकते हैं सीने पर सतह के


निःसन्देह मौत उन्हें पा सकती है

पर मुझे वह सतह पर नहीं पा सकती।



मिट्टी के ढेले


सह कर सूरज का प्रखर ताप

मिट्टी के छोटे-छोटे

कुछ ढेले-

पत्थर बन निस्पंद पड़े थे,


सहसा सुनाई दी

              किसी की पद्चाप...

बड़ी-बड़ी बूँदें आईं

घुल गए पिघल गए-

          मिट्टी के ढेले

                 आप ही आप!

          और फिर, तरल बन

            बह गए

                 चुपचाप!


पता नहीं क्यों

मन और उदास हो गया है!



शर शैय्या पर 


एक बहुत बड़ा मैदान

उस मैदान में एक बहुत बड़ी भीड़

उस भीड़ में एक बहुत उदास आश्चर्य...


ख़ुशी अगर है

तो उन आँखों में टँकी है

जो अपने चेहरे के अनुपात में

               बहुत

               छोटे हैं


इसी मैदान के एक कोने में

उस भीड़ के 

शोर की शर-शैय्या पर

लेटा है चित्त-

कोई मौन


शायद यह कोई-

नहीं है हमारा अपना






इतिहास और नदी


हम नदियों के बहाव में

मोड़ आते हैं

लेकिन हमें

तोड़ नहीं पाते हैं

             अपने उत्स से-

यही हमारी महानता है !


हमारा नाम गंगा हो या पद्मा

कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता

फ़र्क़ पड़ता है

छिछले तालाब को नदी कहने से

या

नदी को

वहशियाना तालाब कहने से


ग़लत नाम देने का

कोई भी प्रयास

ज़्यादा से ज़्यादा यही हो सकता है न-

कि इतिहास के किसी पन्ने पर

भद्दी स्याही ढरक जाए;


इससे हमारी पहचान नहीं ढकेगी

न ग़लत साबित होगी,

हमें विश्वास है ।


क्योंकि भूगोल को हमने कभी

भ्रम में नहीं रक्खा

क्योंकि इतिहास को हमने

जिया है ।



शापमुक्त होने तक


ऐसी हर खिड़की पर

जो बाहर की ओर खुलती है

लटके हैं कई-कई चेहरे।

अंकित है हर एक पर

अभिशापित होने का भाव ।


बहुतों ने

आँख के गुलेल से

दृष्टि के पत्थर फेंक कर

इन पर अपना निशाना

आजमाना चाहा;


कुछ सफ़ल भी हुए

लेकिन इन चेहरों पर अंकित

भाव नहीं बदले हैं

हाँ, मुद्राएँ ज़रूर बदली हैं।


शायद

इन्हें तलाश है किसी ऐसे-

दृष्टि के स्पर्श की

जो शीशे-सा चटका दे इन्हें

और फिर हर चटके चेहरे को

शाप-मुक्त होने तक

यों ही लटका रहने को

उनके हाल पर छोड़ दे।



चन्द्र ग्रहण को देख कर 


चाँद पूरनमासी का

कितना छविमान हुआ करता है

किन्तु आज इस पर 

छाया जो पड़ गई 

मेरी इस धरती की,

कौन अपाहिज-सा दिखता है यह


फीकी-सी

दिखती है सारी की सारी छवि

और जब कि 

केवल छाया ही धरती की

पड़ी है।


बेचारा यह

कैसा दिखेगा जब

उतरेगी इस पर हमारी यह धरती

वास्तव में!





सनक


किसी बहके हुए क्षण की सनक थी-

कि मैं अपनी ग़लतियों को सुधार लूँ ।

लेकिन ज़िन्दगी कोई कॉपी नहीं है कि उस पर

ग़लतियों के नीचे नैतिकता से

-नैतिकता भी कोई स्याही नहीं है-

निशान लगाऊँ

और फिर अभ्यास करूँ ग़लतियाँ सुधारने का

अभ्यास और अभ्यास...



सब कुछ- और ज्यादा और ज्यादा


थे तो हम सब एक साथ

पर, हर एक में

सबसे अलग दिखने का उत्साह

इतना अधिक था

कि और अधिक

अकेले होते जाते रहे हम सब


और ज्यादा प्रगतिशील

और ज्यादा जनवादी

साबित होने की होड़

सबमें व्यापी इतनी एक-सी

कि कम होते गए

अपने आप में

एक होते हुए भी हम सब


बेशक

चलते हैं सब मिले मिले ही

पर और ज्यादा और ज्यादा होने के चक्कर में

याद ही नहीं रह जाता

कि मिलना है कहां?



ओसामा बिन लादेन 


ओसामा बिन लादेन

तुम्हारे नाम का तुम्हारी भाषा में क्या

अर्थ होता है, मुझे नहीं मालूम,

लेकिन मेरी भाषा में

एक बहुत बड़ा हादसा यह हो रहा है

कि तुम्हारा नाम सिर्फ़

एक ही अर्थ दे रहा है

और, वह अर्थ है- 'मुसलमान'!


मुझे पूरा भरोसा है

तुम्हारी भाषा में तुम्हारे नाम का

ज़रूर कोई न कोई प्रीतिकर अर्थ होता होगा


कोई माँ-बाप

अपने बेटे का कोई अप्रीतिकर नाम

रख ही नहीं सकते


ओसामा बिन लादेन,

तुम बहुत ताक़तवर हो

तुम्हारी ताक़त देखकर तुम्हारे वालिदेन को

कैसा लगता होगा, क्या तुम बता सकते हो?

पूरे यक़ीन से!


या, यक़ीन करने का ज़िम्मा

सौंपकर अपने अनुयाइयों को

तुम्हें कुछ भी यक़ीन नहीं करना है?


तुम कितने ताक़तवर हो

ओसामा,

लेकिन कितने कमज़ोर!

कि तुम अपनी ताकत का कोई ऎसा

इस्तेमाल नहीं कर पा रहे, जिससे

मेरी भाषा में तुम्हारे नाम का अर्थ

सिर्फ़ 'मुसलमान' न निकाला जाए

न मुसलमान होने का अर्थ

सिर्फ़ दहशतगर्द!



आतंकवादी


वे सब भी

हमारी ही तरह थे,

अलग से कुछ भी नहीं

कुदरती तौर पर


पर, रात अँधेरी थी

और, अँधेरे में पूछी गईं उनकी पहचानें

जो उन्हें बतानी थीं

और, बताना उन्हें वही था जो उन्होंने सुना था

क्योंकि देखा और दिखाया तो जा नहीं सकता था कुछ भी

अँधेरे में

और, अगर कहीं कुछ दिखाया जाने को था भी

तो उसके लिए भी लाज़िम था कि

बत्तियाँ गुल कर दी जाएँ


तो, आवाज़ें ही पहचान बनीं-

आवाज़ें ही उनके अपने-अपने धर्म,

अँधेरे में और काली आकारों वाली आवाज़ें

हवा भी उनके लिए आवाज़ थी, कोई छुअन नहीं

कि रोओं में सिहरन व्यापे ।

वो सिर्फ़ कान में सरसराती रही

और उन्हें लगा कि उन्हें ही तय करना है-

दुनिया में क्या पाक है, क्या नापाक


गोकि उन्हें पता था, किसी धर्म वग़ैरह की

कोई ज़रूरत नहीं है उन्हें अपने लिए

पर धर्म थे, कि हरेक को उनमें से

किसी न किसी की ज़रूरत थी

और यों, धर्म तो ख़ैर उनके काम क्या आता,

वे धर्म के काम आ गए ।


धर्म जो भी मिला उन्हें एक क़िताब की तरह मिला-

क़िताब एक कमरे की तरह,

जिसमें टहलते रहे वे आस्था और ऊब के बीच

कमरा-- खिड़कियाँ जिसमें थीं ही नहीं

कि कोई रोशनी आ सके या हवा

कहीं बाहर से

बस, एक दरवाज़ा था,

वह भी जो कुछ हथियारख़ानों की तरफ़ खुलता था

कुछ ख़ज़ानों की तरफ़


और इस तरह

जो भी कुछ उनके हाथ आता- चाहे मौत भी

उसे वे सबाब कहते

और वह जंग- जिसमें सबकी हार ही हार है

जीत किसी की भी नहीं,

उसे वे जेहाद कहते।






वही बात प्रतिपक्ष में


वही बात जब वह बोल रहा था

मुझे लग गया था, वह भाषण दे रहा है

वही बात जब मैं बोल रहा था

मैं खुद अपने को खामोश खड़ा पा रहा था

कटघरे में भाषा के


वह मंच पर था सार्वजनिक

भीतर से डरा

बाहर से निर्भय


मैं अपने भीतर था

रेत पर तड़पती

मछली-सी निर्भयता के साथ-

बाहर आने से डरता हुआ


वही बात उसके

कमल मुख से निकलते ही

नारे-सी लोके जाने को

होंठ ही होंठ पा गई थी

वही बात मेरे अंदर ही अंदर घुट रही थी

मेरी ही सांसों की टोका-टाकी से

वही बात

किस तरह मैं लाऊं

कविता से बाहर

अपनी कविता से?



वे जीते- हारा लोकतंत्र


अब क्या था?

मतदान-केंद्र पर लाइन में में खड़ा हुआ था।


पता चला

मतदान-सूची में तो मेरा नाम नहीं है।

समझ गया मैं, बिन पूछे ही-

यह तो उनका काम नहीं है

जांचें-परखें

कि क्यों नहीं हूँ मैं सूची में


अलबत्ता आगाह किया सब मुलाजिमों ने

‘जाओ

घर जाओ सही-सलामत

लोकतंत्र में मिला सुदामा के तंदुल-सा

जो कुछ

उसमें अपनी खैर मनाओ


भारतमाता की जै बोलो

और रहो आश्वस्त

कि हारे हुए लोकतंत्र के

तुम प्रहरी हो!’



अर्थ कितना


शब्द को कितना अर्थ चाहिए?

इतना कि हम कहें "पानी"

और बुझ जाए प्यास?

या इतना कि हम कहें "पानी"

और बढ़ जाए प्यास?



मैं-तुम


पेड़ में

किसी पत्ते की तरह

गुम हो जाता हूं मैं

तुम हवा सी

आओ सरसराती

पूरे पेड़ में

ढूंढ निकालो मुझे

छू कर






बाहर भीतर


वह हमारे बाहर है

वह पाँवों के नीचे बारूद के फूल बिछाता हुआ

वह हमारे भीतर भी है 

जासूस-सा

हमारी शिराओं को टटोलता हुआ

अनुच्चारित-सा कुछ बोलता हुआ

हमारी हर धड़कन के जवाब में


सभ्य दिखने के चक्कर में

हम जिन नाख़ूनों को कुतर डालते हैं

उन्हीं से वह अपनी भयानक उँगलियों के कवच

                             तैयार करता है


और वह

हमारे भीतर-बाहर के बीच भी कहीं है

हमारे त्वग्संवेदन को

कुंठित करता हुआ 

यानी उस पर

सुखाभासी बाम का लेप करता हुआ


वह एक स्तर पर मरकर भी

दूसरे पर

तुरन्त जी सकता है

पसारकर अपनी 

खुरदुरी रसना

हमारी आँखों का संकल्प-रस--

सारा का सारा-- पी सकता है!



छाया-दर्प


छाया ही दिखी

जिसने कहा - मैं तुम्हारी हूं।

रोशनी जिधर से आ रही थी, उधर तो

मेरी पीठ थी।


छाया से मैने कहा -

लो, मैं तुम्हारी तरफ पीठ कर लेता हूं....

छाया मुस्कुराई -

तब भी मैं रहूंगी

तुम्हारी ही।


फर्क सिर्फ यह होगा

कि तुम्हें दिखूंगी नहीं।

संबंध-भाव का यह दर्प

रोशनी में कहां?



माँ सरस्वती से


भाषा में- कब से खोज रहा हूँ

मैं तुम्हें!


तुम्हारे चित्र मेरे पास हैं

राजा रवि वर्मा के हाथों बने से ले कर

मकबूल फिदा हुसैन के हाथों तक के बने


इन चित्रों से मिलान करते हुए भी

तुम्हें पहचानने की कोशिश की-

पर नाकाम

भाषा के जंगल में घना अंधेरा है

और तुम कहीं होगी

तो प्रकाश की तरह ही होगी

इससे कम की

न मैं कल्पना कर सकता हूँ

न कामना


जंगल खामोश है

बस, अपने ही पांवों के नीचे

सूखे पत्तों की चरमराहट

महसूस करता हूँ जब कभी

लगता है मैं चल रहा हूँ

वरना सब कुछ रुका है यहाँ

ठहरा-ठहरा-सा

जंगल के हर मोड़ पर

घात लगाए दिख जाते हैं

अदृश्य आखेटक


खामोशी में जब तब झांकते

शब्द-शब्द पर निशाना साधते!

चित्र में-जो मेरे हाथ में है-

तुम्हारे हाथ में कमल है

पर उसमें न कोई गंध है जो हवा को

सुवासित कर सके


न वह सूखता है कभी न मुरझाता

वीणा भी है चित्र में

तुम्हारी उंगलियां जिसके तारों पर हैं

पर न कोई गति

न झंकृति…


मुझे नहीं चाहिए-तुम

निरी मूर्तिवत-नितांत अपार्थिव

नितांत अलौकिक


वसंत में

प्रकृति के शृंगार को खिले जो फूल

वे भी तोड़ लिए जाएं

तुम्हारे गतिहीन चरणों पर चढ़ाए जाने को

मुझे काम्य नहीं है यह


मैं तुम्हें सजीव देखना चाहता हूँ

पूरी की पूरी पार्थिव-

अपनी मटमैली भाषा में!

मैं फूल नहीं

अपनी श्वासों से सुरभित

कुछ शब्द तुम्हें अर्पित करना चाहता हूँ


शब्द-जो बड़े जतन से

जंगल की वीरानी में

घात लगाए आखेटकों से बचाकर

किसी तरह तुम्हारे लिए सहेजे हॅूं मैं!

मैं तुम्हें सजीव देखना चाहता हूँ

पूरी की पूरी मानवी


बस, तुम इतनी पात्रता मुझे दे दो

कि मैं तुम्हारी वीणा के तारों को छू दूँ

झंकृति-सी तुम खुद ही

बज उठोगी मुझमें

मां, बस इतनी पात्रता दे दो मुझे!



सम्पर्क 


12बी/1, बंद रोड, 

एलनगंज, इलाहाबाद

 (प्रयागराज)-211002

 


मोबाइल - 9336493924

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