रुचि बहुगुणा उनियाल का सस्मरण 'तीमारदार की व्यथा-कथा, भाग-1'

 



आमतौर पर लोग बीमार की ही बात करते हैं। लेकिन वे उस तीमारदार को भूल जाते हैं जो बीमार के साथ हर वक्त मुस्तैदी के साथ मौजूद रहता है। यह तीमारदार सामान्यतया बीमार का संबंधी ही होता है जो उसकी सतर्कता के साथ केवल देख रेख ही नहीं करता बल्कि उसकी बीमारी से जुड़ी तमाम जांच और दवा वगैरह का भी तत्पर हो कर इंतजाम करता है। वह बीमार का उत्साह बढ़ाने का काम करता है जिससे बीमार निराशा के भंवर में उलझ कर न रह जाए। इस तरह तीमारदार की भूमिका अहम हो जाती है। लेकिन यह तीमारदार हमेशा नेपथ्य में ही रहता है। रुचि बहुगुणा उनियाल एक कवयित्री हैं। उन्होंने इस पहलू के उस अदृश्य पक्ष को सामने लाने का कार्य किया है जो प्रायः उपेक्षित रह जाता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का सस्मरण 'तीमारदार की व्यथा-कथा, भाग-1'।



'तीमारदार की व्यथा-कथा, भाग-1'


रुचि बहुगुणा उनियाल


गठिया के दर्द से लरज़ती कलाई पर सूजन देख कर नवनीत जी का दिल पिघल गया। बड़ी मुश्किल से अपनी आँखों की नमी छुपाते हुए बोले, 


‘तुम आराम से गर्म पानी से सिकाई कर लो, तब तक मैं होटल से खाना ले आता हूँ ‘! 



यह मात्र खाना लाने भर की बात नहीं थी बल्कि एक आश्वस्ति भी थी कि कोई भी परिस्थिति हो नवनीत जी मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। दोनों बच्चों की ज़िम्मेदारी और उसपर ऐसा असाध्य रोग जो प्राणों की डोर छूटने तक साथ निभाने वाला हो। जब से दूसरे बच्चे के रूप में बेटे का जन्म हुआ ठीक तभी से गठिया ने मेरी देह को ठौर बना लिया था। मुझे तो यह पीड़ा झेलनी ही है क्योंकि यही मेरा प्रारब्ध है लेकिन, नवनीत जी के समर्पण और धैर्य को देख कर यदा-कदा मुझे अचंभा होता है कि, वो बिना किसी शिकायत मेरे साथ मेरी शक्ति बन कर खड़े हैं।


         

एक रोगी के साथ वाले व्यक्ति की मनोदशा और परिस्थिति का आँकलन करना तक संभव नहीं होता किसी के लिए। मेरी बेटी के होने से पहले सैकड़ों बार ऐसी-ऐसी परिस्थितियों में नवनीत जी घिरे हैं कि उनके विषय में सोच कर भी झुरझुरी हो जाती है। एक बार एक टेस्ट देहरादून में डॉक्टर ज्योति शर्मा जी ने लिखा मुझे, जब तक सफलता नहीं मिलती या यूँ कहें कि समस्या हल नहीं होती तब तक मरीज़ डॉक्टर के लिए एक तरह की प्रयोगशाला ही होता है। जब तक सकारात्मक परिणाम नहीं मिलता मरीज़ पर, अपने अनुभवों का प्रयोग करना डॉक्टर की मजबूरी भी होती है और एक प्रकार का अवसर भी। यह टेस्ट ख़ाली पेट होना था जिसका मुझे या नवनीत जी को पता नहीं था। हम दोनों अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टर ने मुझे अंदर चेकअप रूम में आने के लिए और नवनीत जी को बाहर वेटिंग एरिया में बैठने के लिए कह दिया। मुझे एक बार अंदर ले जाने के बाद तरह-तरह के टेस्ट किए गए जिनमें खून, पेशाब, एक्स-रे से ले कर अल्ट्रासाउंड और तमाम तरह के टेस्ट शामिल थे। इन टेस्ट्स के बाद डॉक्टर ने मुझे बिना बताए और बिना बाहर नवनीत जी को सूचना दिए ही भर्ती कर लिया। सोचिए कितनी अकुलाहट हो रही होगी उन्हें बाहर बैठे-बैठे? उस पर तुर्रा ये कि अंदर क्या हो रहा है क्या नहीं? ये भी उन्हें नहीं पता, चूंकि बताया ही नहीं गया। गर्मियों के दिनों में जब सारी दुनिया दोपहर में आराम करती है तब मेरे पति वेटिंग एरिया में भूखे-प्यासे अपनी पत्नी की चिंता में चक्कर काट रहे थे। लगभग पूरा अस्पताल खाली हो चुका था। चूंकि दोपहर के समय कोई भी नहीं रुकता अस्पताल में, अलावा भर्ती मरीज़ों और उनके तीमारदारों के, जो कि अक़्सर ही जचगी के बाद रुके होते हैं, जच्चा-बच्चा वॉर्ड में। तो जाहिर है कि वो किसी दुःख या पीड़ा में नहीं बल्कि अपनी खुशी में रुके होते हैं। जब हमारे पास परिणाम अच्छा हो तो छोटे-बड़े कष्ट हमें दुःख नहीं देते बल्कि खुशी ही होती है। 


       

खैर….. नवनीत जी ने इंतज़ार करते-करते गर्मियों की पूरी लंबी दोपहर काट दी, अब शाम घिर आई थी लेकिन डॉक्टर तो मेरे साथ-साथ और भी तमाम महिला मरीज़ों के साथ पर्याप्त व्यस्त थी तो बाहर कैसे निकलती। लेकिन जो स्टॉफ भी बाहर जा रहा था उनमें से भी किसी ने नवनीत जी को सूचित नहीं किया, अब चूँकि पर्याप्त संयम रखते हुए नवनीत जी ने पूरा दिन काट लिया था तो क्रोध आना भी स्वाभाविक ही था। जैसे ही डॉक्टर बाहर निकली कि नवनीत जी के क्रोध से उनका सामना हुआ, 



“आपको पता भी है कि कितनी मुश्किल होती है इस तरह की लापरवाही से अटेंडेंट को? क्या आपके अस्पताल में यही व्यवस्था है कि मरीज़ के साथ वाले लोगों को इस तरह बिना कोई सूचना अकेला और परेशान छोड़ दो? मैं सुबह से अपनी वॉइफ़ के लिए हजार बार आपके स्टॉफ से पूछ चुका हूँ लेकिन एक बार भी मुझे कुछ नहीं बताया गया, ऐसा कौन सा टेस्ट आप कर रही हैं जिसमें इतना समय लग रहा है कि सुबह के आठ बजे से शाम के साढ़े छः बज गए हैं और मुझे पता तक नहीं है। और न ही मुझे अंदर उसके पास आने दिया जा रहा है, अगर अंदर उसे कुछ भी हुआ तो याद रखिएगा कि मैं आपको और इस अस्पताल को छोड़ने वाला नहीं हूँ“! 



नवनीत जी का बुरी तरह क्रोधित रूप देख कर डॉक्टर एक मिनट के लिए सहम गई, तुरंत ही अपने हाथ जोड़ कर उसने नवनीत जी से माफ़ी मांगी और उनके कंधे पर हाथ रख कर बोली, 

‘मिस्टर उनियाल जी मैं अपने स्टाफ की लापरवाही के लिए माफी मांगती हूँ, मैंने उनसे कहा था कि आपको बता दें कि आपकी वॉइफ़ का बेहोशी की दवा दे कर एक टेस्ट होना है लेकिन उन्होंने नहीं बताया जिससे आप परेशान हुए। आइए मेरे साथ अंदर आपकी वॉइफ़ बिलकुल ठीक हैं और अब होश में भी हैं इसलिए घबराइए मत, आइए’। 



नवनीत जी को ले कर जब डॉक्टर अंदर आयी तो भूखे-प्यासे नवनीत जी की आँखों में मुझे देख कर आँसू झिलमिला गए। उन्होंने पास आ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 

‘बहुत दर्द हुआ क्या रुचा? इन लोगों ने मुझे बताया ही नहीं कि तुम्हारा कोई ऐसा टेस्ट भी है बेहोश करके किया जाने वाला। मुझसे एक बार भी कोई साइन तक नहीं लिया गया, जबकि बेहोशी की दवा देने से पहले अटेंडेंट की परमिशन लेनी होती है, तुम्हें इस तरह तकलीफ़ में देखने से तो अच्छा है कि हम बिना संतान के जीवन जी लें’! नवनीत जी ने डॉक्टर को बुरी तरह क्रोधित हो कर घूरते हुए मुझसे कहा। 


    

मेरे मुस्कुरा के उन्हें शांत करने के बाद डॉक्टर ने उनसे फिर से माफ़ी मांगी। तब जा कर नवनीत जी थोड़ा शांत हुए। जो नवनीत जी एक घड़ी भूखे पेट नहीं रह पाते उन्होंने पूरे दिन से कुछ नहीं खाया था तो कैसा उनका मन हो रहा होगा यह मैं बहुत अच्छी तरह जानती थी। इसलिए उन्हें कहा कि मुझे भूख लगी है नवनीत जी, नवनीत जी फौरन मेरे लिए खाना लाए और तब जा कर उन्होंने भी खाया। 



        


कुछ स्मृतियाँ, अच्छी-बुरी दोनों, मस्तिष्क में ऐसी गहरी पैठी होती हैं कि हमारे चाहने न चाहने से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता वो जब मर्ज़ी आ कर हमारी संवेदनाओं के तारों को झंकृत कर जाती हैं और हम देर तक उनमें डूबते-उतराते रहते हैं। 

        


ऐसी ही एक स्मृति मेरे हृदय से मस्तिष्क को जाती एक नस में छुपी बैठी है। बात सन् 2005-2006 की है। देहरादून में एक गायनोकालॉजिस्ट डॉक्टर हैं, डॉक्टर रेखा श्रीवास्तव। तब मेरा केस वो ही देख रही थी। उन्होंने कहा कि वो मेरी दोनों फेलोपियन ट्यूब देखना चाहती हैं कि कहीं उनमें कोई समस्या तो नहीं। यह एचएसजी टेस्ट एक ख़ास क़िस्म की डाई फेलोपियन ट्यूब में डाले जाने वाली प्रक्रिया होती है जिससे पता लगाया जाता है कि कहीं ट्यूब बंद तो नहीं। एक स्त्री जो इस प्रक्रिया से गुज़रती है वो भलीभाँति जानती है कि यह कितनी पीड़ादायी प्रक्रिया है। 


  

ख़ैर…. नवंबर का महीना था और गुलाबी ठंड बढ़ कर थोड़ी ज़्यादा हो गई थी। इस मौसम में टू-व्हीलर से यात्रा करना कम ही लोग पसंद करते हैं लेकिन जब आप संयुक्त परिवार में हों तो सब साधन होने के बाद भी अक्सर ही आपको अनचाहे वो करना पड़ता है जो आपने न चाहा हो, जो कष्टकारी हो। घर में ससुर जी के पास चार-पहिया वाहन तब से रहा जब वो खुद अठारह बरस के थे। नरेंद्र नगर में तब गिने-चुने तीन लोगों के पास गाड़ी थी जिसमें एक नरेन्द्र नगर के राजा, तो दूसरे मेरे ससुर जी थे, तीसरे थे खोसला जी, जिनके यहाँ बहुत समय बाद ही गाड़ी आयी थी। गाड़ी के होते हुए भी हम दोनों पति-पत्नी नवनीत जी के स्कूटर से देहरादून निकले। इसका कारण था कि हमारे आने से पहले ही घर में इस बात को लेकर पर्याप्त तमाशा किया जा चुका था कि हम तो रोजाना घूमने निकल जाते हैं। किसी तरह माँ-पिता जी ने सबको शांत कराया और हम दोनों को भेजा। लेकिन नवनीत जी जितने सज्जन और शांत स्वभाव के व्यक्ति हैं उतने ही स्वाभिमानी भी। उन्होंने साफ़ मना कर दिया गाड़ी के लिए और अपना स्कूटर निकाल लिया जो उन्होंने अपनी मेहनत की कमाई से लिया था। 


    

हम दोनों निकले तो नरेंद्र नगर के जंगल में मुझे बहुत ज़्यादा ठंड लगनी शुरू हो गई, इसका कारण शायद ये भी रहा हो कि मुझे घबराहट होती थी डॉक्टर के पास जाने में और टेस्ट के नाम पर लगने वाली इंजेक्शन की सुई से। नवनीत जी ने अपनी लेदर जैकेट की जेबों में मेरी हथेलियां डलवा लीं। बुरी तरह काँपती हुई मैं और सुन्न पड़ चुकी मेरी हथेलियों को संभालते, पुचकारते नवनीत जी की वो छवि स्मरण करती हूँ तो मन में उनके लिए जो सम्मान है वो हज़ार गुना बढ़ जाता है हर बार। संतान होना न होना क्या केवल पत्नी के लिए महत्त्वपूर्ण होता है? क्या पति को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह पिता बने और उस अप्रतिम संबंध को जी सके? नहीं बल्कि यह दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। किन्तु अक्सर ही पति को संवेदनाएँ छिपा कर ख़ुद को मज़बूत रखना पड़ता है। ठीक इसी तरह नवनीत जी भी अपने मनोभाव, अपनी चिंताएं छुपाए हुए मुझे संभाल रहे थे और संभालते आए हैं अब तक। 


    

हम दोनों जैसे-तैसे देहरादून पहुँचे, जैसे-तैसे इसलिए लिखा कि मैं ठिठुरन से परेशान रही और नवनीत जी मुझे संभालने के चलते। चूंकि डॉक्टर पहले ही बोल चुकी थी कि अगर ये घबरा गयी तो टेस्ट में मुश्किल होगी। बहरहाल पहुँचे तो डॉक्टर ने थोड़ी देर बाद मुझे बुलाया, ये एक तरह का एक्सरे ही होता है जिसमें डाई डाल कर देखा जाता है कि कहीं मार्ग बाधित तो नहीं। 


                    

मेरी घबराहट का आलम ये था कि डॉक्टर ने अपने पास बैठने के लिए कहा और मैंने थरथराते हुए उन्हीं का हाथ पकड़ लिया। उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की, कि बहुत सामान्य सा टेस्ट होना है आप घबराइए मत रुचि, लेकिन मैं शांत होने के बजाय रोने लगी। अब डॉक्टर की मुसीबत बढ़ गई तो उन्होंने नर्स को बाहर वेटिंग एरिया में बैठे नवनीत जी को बुलाने भेज दिया। थोड़ी देर में ही नवनीत जी अंदर आ गए। डॉक्टर ने मुझे देखते हुए उन्हें कहा, 



“उनियाल जी कैसे संभालते हैं आप इन्हें? इनसे ज़्यादा हिम्मत वाली तो कोई भी स्कूल जाती लड़की होगी। ये तो छोटी बच्ची की तरह रो रही हैं, आप ही समझाइए इन्हें अब, ऐसे घबराएंगी तो टेस्ट होना मुश्किल है आज”। 



नवनीत जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और समझाने लगे कि हम इस टेस्ट के लिए ही तो आए हैं न रुचा इतनी दूर। लेकिन मेरी घबराहट और थरथराहट कम हो ही नहीं रही थी। अब नवनीत जी ने अपना अंतिम दाँव चला और बोले, 



“ठीक है, चलो घर चलते हैं वापस। न भी हो बच्चा तो क्या हुआ फिर तुम मत घबराओ। मैं सबको समझा लूँगा"। 



मुझे जैसे झकझोर के जगाया हो उन्होंने नींद से। नज़र उठा कर उनकी ओर देखा तो वो मुस्कुरा रहे थे। मन में कचोट हुई कि क्या मुझे ही सुनना पड़ता है बच्चा न होने के लिए? क्या इन्हें कोई कुछ नहीं बोलता होगा? बल्कि ये तो दुकान में होते हैं और पत्रकार होने के नाते सामाजिक सक्रियता भी मुझसे हज़ारों गुना ज़्यादा ही है, तो क्या इस तरह मेरा हिम्मत हारना ठीक है? 



आँसू पोंछ कर मैं मुस्कुरा दी, डॉक्टर को देखते हुए मैंने कहा, ‘चलिए कहाँ होना है ये टेस्ट’? 



डॉक्टर भी हंस पड़ी और नवनीत जी को देखते हुए मेरे पास आयी। फिर मेरे गालों को थपथपाती बोली,


 

‘गुड गर्ल, मानना पड़ेगा उनियाल जी आपको! मैं इतनी देर से समझा रही थी लेकिन चुप नहीं हुई रुचि और आपकी बात सुनते ही टेस्ट के लिए भी तैयार हो गई‘! 





नवनीत जी मुस्कुराए और मैं बाहर नहीं जाऊँगा बल्कि रुचि के साथ ही अंदर चलूँगा अगर आप परमिशन दें तो, कह के मुझे देखने लगे। जीवनसाथी के साथ से बड़ी शायद ही कोई आश्वस्ति होती होगी इस संसार में। मैं मंत्रमुग्ध सी डॉक्टर के पीछे-पीछे एग्जामिन रूम में चल दी, नवनीत जी कोने में खड़े हो गए और डॉक्टर मुझे चेक करने लगी। 



थोड़ी देर बाद मुझे प्रोसिजर के लिए डॉक्टर के साथ जाना पड़ा, नवनीत जी बाहर ही खड़े रहे। लगभग दस से पंद्रह मिनट का टेस्ट था। मुझे डाई डालते समय पता नहीं चला। लेकिन डॉक्टर ने नवनीत जी को पहले ही बता दिया था कि अब इन्हें बहुत ज़्यादा दर्द होगा, आप संभाल कर ले जाना। 



थोड़ी देर में मुझे बाहर भेज दिया गया, रिपोर्ट आने में बीस मिनट लगने वाले थे। हम दोनों बाहर बैठे व्यग्रता से रिपोर्ट का इंतज़ार कर रहे थे। लगभग पाँच मिनट बीते होंगे कि नवनीत जी बाहर की एक कैंटीन से खाने के लिए कुछ लाए जिसमें रस्क और दूध के साथ एक नमकीन का पैकेट था। मैं नहीं खाना चाहती थी लेकिन नवनीत जी भी मानने वाले नहीं थे। अपनी क़सम दे कर मुझे खाने के लिए मना लिया उन्होंने। मैंने तीन-चार रस्क और दूध खत्म किया ही था कि मुझे पेट में दर्द होने लगा। 


      

एक तीमारदार जिसके सिर पर न केवल मरीज़ की ज़िम्मेदारी है बल्कि वो भूखा-प्यासा भी है और उसे ही अकेले हाथ सब कुछ संभालना भी है, मरीज़ को लाना-ले जाना, उसे भावनात्मक संबल देना, अस्पताल का ख़र्च चुकाना, खाने की व्यवस्था करना और सबसे महत्वपूर्ण अपना भी ख़याल रखना, वो भी तब जब डॉक्टर की हर सकारात्मक और नकारात्मक बात का असर सीधा उसके अपने जीवन से जुड़ा हो। क्या ये इतना सरल है कि इसे हंसी-मज़ाक समझ कर तीमारदार की मेहनत और समर्पण को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए?, हरगिज़ नहीं! 


      

नवनीत जी मुझे तड़पता देख कर बेचैनी से कभी मेरा सिर सहला रहे थे तो कभी पीठ। इस स्थिति में मेरी रुलाई छूट गई और मैं बिना आसपास की भीड़ को देखे अच्छी तरह बिलख कर रोने लगी। नवनीत जी फटाफट अंदर डॉक्टर के पास गए और उन्हें बताया कि रुचि को असहनीय पीड़ा हो रही है कोई दवा दीजिए प्लीज़। लेकिन डॉक्टर ने कहा कि यह तो होना ही था उनियाल जी, आप घबराइए मत एक डेढ़ घंटे तक स्थिति ऐसी ही रहेगी। नवनीत जी के पूछने पर कि क्या उसे गर्म पानी की बोतल से सिकाई करवा दूँ, डॉक्टर ने उसके लिए भी मना कर दिया। नवनीत जी उदास मन बाहर चले आए। अब तक दर्द बढ़ने की वजह से मेरी हालत ख़राब होने लगी थी। इस तरह छटपटाती मैं अब तक उल्टियां करने लगी थी। नवनीत जी मुझे चुप कराने की असफल कोशिश करते हुए मेरी पीठ सहलाते जा रहे थे। मैंने तो फ़िर भी कुछ खा ही लिया था लेकिन नवनीत जी भूखे पेट ही थे। इस सब में समय कब गुजर गया हम दोनों को ध्यान ही नहीं आया। बीस मिनट तो कब के गुज़र चुके थे। अंदर डॉक्टर के केबिन से एक नर्स ने मेरे नाम की पुकार लगायी, 



‘रुचि के साथ कौन है? अंदर आइए ‘! 



नवनीत जी बगल में बैठी एक महिला को मेरा ध्यान रखने के लिए कह कर जल्दी से अंदर चले गए। डॉक्टर ने नवनीत जी को बताया कि आपकी पत्नी की दोनों फेलोपियन ट्यूब बंद हैं, इस तरह बच्चा होने की संभावना लगभग शून्य ही समझिए। लुटे-पिटे से नवनीत बाहर निकले, मैंने असहनीय दर्द में भी नज़रें उठा लीं ताकि उनका चेहरा देख कर पता चले कि रिपोर्ट कैसी रही। लेकिन नवनीत जी ने जैसे ही मुझे देखा तुरंत अपना मन संभाल लिया और एक मुस्कान उनके चेहरे पर चली आई। मैंने उनसे जानना चाहा कि रिपोर्ट में क्या है तो उन्होंने मुझे उठाते हुए बड़ी ही सफाई से बात टाल दी। मैं असहनीय दर्द में थी लिहाजा कुछ भी नहीं बोल पायी। शाम घिरने लगी थी और हमें कम से कम मेरे मायके तक पहुँचना ही था। 



सोचिए कि कैसा होगा उनका मन उस वक़्त जब डॉक्टर ने कहा कि मुझे कभी संतान नहीं हो सकती? क्या उन्हें रोना नहीं आया होगा? क्या उन्होंने कोई मजबूत कंधा नहीं तलाशा होगा जिस पर सिर टिका कर वो भी खुल के रो सकें? क्या उन्होंने नहीं चाहा होगा कि जिससे मन बांटा, आत्मा जोड़ी, उसे एक बड़ा सच बताएं? ज़रूर चाहा होगा! लेकिन विवशताओं में घिरे नवनीत जी चुप लगा गए। मेरा हाथ थामे वो अस्पताल से बाहर ले आए। अब समस्या ये थी कि मैं भयानक पीड़ा में थी और शाम घिरने लगी थी। उस पर तुर्रा ये कि हम दोनों नवनीत जी के स्कूटर पर आए थे, मुझे सही-सलामत ले कर मेरे मायके पहुँचना उनकी पहली प्राथमिकता थी। इसलिए एक कड़ा निर्णय लेते हुए उन्होंने मुझे अस्पताल के स्टॉफ की मदद से अपने पीछे बिठा लिया। धीरे-धीरे स्कूटर चलाते नवनीत जी हम दोनों को लिए रायपुर क्रॉस कर गये। अब तक अँधकार अपनी चादर फैला चुका था। पिछली सीट पर बैठी मैं अपने मन में रिपोर्ट को ले कर चिंतित भी थी और अपने असहनीय दर्द से बुरी तरह टूटी हुई भी। नवनीत जी के मन में इतनी उथल-पुथल थी कि वो बिलकुल चुप्पा हो गए थे। एक ही स्कूटर पर दो लोग, दोनों एक-दूसरे के पूरक, और फिर भी इतने खामोश जैसे दो बिलकुल अलग-अगल दुनिया हों। 

     

      

हम दोनों कालीमाटी गाँव के आसपास पहुँच गए थे लेकिन मेरा दर्द बढ़ता ही जा रहा था। इतना ज्यादा बढ़ गया कि मैं स्कूटर की सीट पर दोहरी होते-होते ही स्कूटर से गिर गई। इस जगह शरदबाला स्मृति वाटिका नामोल्लेख से एक आम का बागान है। नवनीत जी अपने मन की उथल-पुथल में ऐसे घिरे थे कि उन्हें एहसास ही नहीं हुआ मेरे गिर जाने का। काफ़ी आगे निकल कर उन्हें अनुभव हुआ कि स्कूटर अचानक हल्का सा हो गया है, जाहिर है कि मेरे गिर जाने के कारण ही ऐसा हुआ था। नवनीत जी ने झटके से स्कूटर रोका तो मुझे नदारद देख बुरी तरह घबरा गए। उन्होंने फौरन स्कूटर मोड़ लिया और मुझे ढूँढते हुए शरदबाला स्मृति वाटिका तक आ गए। देखा तो मैं पेट पकड़े सड़क पर ही लगभग अधलेटी अवस्था में रो रही हूँ। उन्होंने तुरंत स्कूटर रोक कर मुझे उठाया। अब मेरे गिर जाने से उन्हें बहुत घबराहट हो गई थी इसलिए ऐसे वापस ले जाना उन्हें ठीक नहीं लग रहा था। पिछली सीट पर मुझे जैसे-तैसे बिठा कर उन्होंने मुझे मेरे ही दुपट्टे से ख़ुद से बांध लिया। बहुत संभालते हुए और मुझसे बात करते हुए नवनीत जी मुझे मेरे मायके तक ले आए। 




       

घर पहुँचने पर माँ और छोटा भाई तुरंत बाहर निकले, मेरे पापा जी उस समय मानस का पाठ कर रहे थे। मुझे माँ, नवनीत जी और नितिन ने बड़ी मुश्किल से स्कूटर से उतारा, इतनी देर में बड़ा भाई भी बाहर आ गया। मेरी ऐसी मर्मांतक स्थिति देख कर मेरी माँ के आँसू आ गए। भाई और नवनीत जी मुझे दोनों ओर से संभालते हुए अंदर ले गए। मैं अधमरी सी हो कर सीधी बिस्तर पर लेट गई। नींद तो क्या ही आनी थी इतने भयानक दर्द में, मैं आँसुओं से भीगी आँखों से नवनीत जी को एकटक देखने लगी। मेरी आँखों में आँसुओं के साथ तैरते सवाल नवनीत जी ने तुरंत पढ़ लिए। 

             

               

मेरी माँ नवनीत जी के लिए पानी ले आयी, बड़े भाई ने उनके मेरे पास बैठने के लिए एक कुर्सी लगा दी। नवनीत जी चुप्पा हो कर धीरे-धीरे मेरा सिर सहलाने लगे। उनकी आँखें बहुत कुछ बोल रही थीं लेकिन वो शायद उचित शब्द ढूँढ रहे थे जिनमें पिरो कर कड़वी सच्चाई को मुझे और सबको बता सकें। उन्होंने माँ के हाथ से पानी का गिलास ले कर एक सांस में पूरा पानी पी लिया। अब तक मेरे पापा भी अंदर आ गए थे, नवनीत जी को हमेशा मेरे पापा से बहुत संबल मिलता रहा था। मैं कभी माँ नहीं बन सकती यह ख़बर कोई हंसी-मज़ाक नहीं थी कि यूँ ही कह दी जाए। नवनीत जी की परिपक्वता उन्हें यह ख़बर मुझे बताने से रोके हुए थी। लेकिन मेरे पापा ने जैसे ही उनके कंधे पर अपना हाथ रखकर पूछा तो नवनीत जी के भीतर का बच्चा आश्वस्त होकर अपना दुःख बांटने को तैयार हो गया, उनकी गहरी बड़ी-बड़ी आँखों में नमी उतर आयी। उन्होंने बहुत धीमे से पापा को बताया कि रुचि की दोनों फेलोपियन ट्यूब बंद हैं और डॉक्टर के अनुसार रुचि के माँ बनने के आसार लगभग शून्य से एक प्रतिशत ही हैं। 


                     

मेरी देह जैसे इस बात को सुन कर सुन्न पड़ गई हो। पता तक नहीं चला कि कब आँखें बहने लगीं। नवनीत जी ने आगे बढ़ कर मुझे ज़ोर-से अपने सीने में भींच लिया। कितनी मर्मांतक स्थिति रही होगी कि मैं अपने माता-पिता की उपस्थिति के बावजूद उनके पास अपना कष्ट नहीं बांट पा रही थी। न ही वो दोनों और न ही दोनों भाई ही मुझे इस दुःख में सांत्वना का एक भी शब्द बोल पाए। दरअसल ब्याह के बाद शायद इतना सगा कोई रिश्ता नहीं होता जितना सगा जीवनसाथी हो जाता है। यहाँ तक कि अपनी कोख में नौ महीने पालने वाली माँ और अपने जन्मदाता पालनहार पिता से भी अधिक सगा और हमदर्द बन जाता है जीवनसाथी। उन्होंने मुझे दुलारते हुए कहा, ‘रुचा ऐसे न रोना, तो क्या हुआ फिर अगर बच्चा नहीं हो सकता? हम दोनों तो हैं न एक-दूसरे के साथ, बस काफ़ी है।'



मैं न जाने कितनी देर तक उनसे लिपटी रोती रही, मेरे माँ-पिता जी दोनों नम आँखें लिए चुपचाप देखते रहे, फिर मेरे पापा ने कहा, ‘तो क्या हुआ फिर एक ही डॉक्टर थोड़े ही है दुनिया में, किसी और डॉक्टर को दिखाएंगे बेटा ऐसे मत रो तू’। माँ मुझे रोता देख कर रोई तो दोनों भाई भी नम आँखें लिए स्तब्ध रह गए। 


                   

आज दोनों बच्चों को लाड़ करती हूँ तो नवनीत जी के लिए वह कठिन समय और हम दोनों के लिए वो कष्टदायी स्मृतियाँ आ कर अक़्सर ही मेरी आत्मा को भिगो जाती हैं। कि कितने संयम और प्रेम से उन्होंने अपने साथ न केवल मुझे संभाला बल्कि उसके साथ ही परिस्थितियों से भी कभी हार नहीं मानी, और मेरी हिम्मत बन कर सदैव मेरा साथ निभाया।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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