सुनील कुमार पाठक का आलेख 'भक्ति, राष्ट्रीयता और सामाजिक सद्भावना का संगम : मास्टर अजीज का काव्य'

 



धार्मिक सद्भाव की हमारे यहां एक सशक्त परम्परा रही है। कवियों ने इस सद्भाव को अपनी रचनाओं में भी व्यंजित करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। इस क्रम में भोजपुरी के कवि मास्टर अजीज का नाम महत्त्वपूर्ण है। मुस्लिम कवियों ने कृष्ण भक्ति को ले कर अनेक कृतियां रची हैं। रसखान इसके महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। लेकिन राम को ले कर काव्य रचने वाले मुस्लिम कवि दुर्लभ हैं। मास्टर अजीज इस अर्थ में बिरले कवि हैं। कीर्तन परम्परा में लिखी गईं मास्टर अजीज की कविताएं भोजपुरी क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं और एक अलग वितान रचती हैं। एक और बात, मास्टर अजीज की आज कोई भी तस्वीर उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि उनके परिवार वालों के पास भी उनकी कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुनील कुमार पाठक का आलेख 'भक्ति, राष्ट्रीयता और सामाजिक सद्भावना का संगम : मास्टर अजीज का काव्य'।     



'भक्ति, राष्ट्रीयता और सामाजिक सद्भावना का संगम : मास्टर अजीज का काव्य'     

                     

डाॅ. सुनील कुमार पाठक

 

'भोजपुरी के रसखान' के रूप में समादृत  कीर्तनिहा-कवि मास्टर अजीज की कविता में भक्ति, राष्ट्रीयता और सामाजिक समरसता की त्रिवेणी संगमित है। भारतीय राष्ट्रीय नवजागरण की भावभूमि पर खड़ी मास्टर अजीज की कविता में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, 1942 के अगस्त क्रांति आन्दोलन आदि की क्रांतिकारी भावना और वैचारिक ऊष्मा का व्यापक प्रभाव पड़ा है। आजाद मुल्क के सपनों की सुगबुगाहट और मानव जीवन की आकांक्षाओं-आशाओं के सुनहले रंगीन चित्र भी मास्टर अजीज की कविताओं के कैनवास पर उगते-उभरते दिखते हैं। अवश-निर्बल नि:शक्त जन की करुण पुकार के साथ-साथ, सामाजिक सदाशयता और समरसता के लिए रचनात्मक प्रयास उनकी कविताओं के प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहे हैं। अजीज जी की भक्ति-भावना जीवन की वीतरागिता ओर उन्मुख न हो कर संघर्ष और कठिन साधना में तल्लीनता को ही श्रेष्ठ मानती है। दरअसल, आम भोजपुरिहा के जीवन का जुझारूपन ही मास्टर अजीज की कविता का प्राण-तत्व है।


           

मास्टर अजीज का  जीवनवृत्त      

 

मास्टर अजीज का जन्म बिहार के सारण जिलान्तर्गत मढ़ौरा थाना के अधीन कर्णपुरा गाँव में 10 मार्च 1910 को हुआ था।उनके पिता का नाम रसूल बख्श था। वे कलकत्ता शहर में भवन-निर्माण के कार्यों से जुड़े एक बड़े ठीकेदार थे। उनका परिवार एक सुखी-सम्पन्न परिवार था। कलकत्ता के टीटागढ़ में इनके पिता ने एक अपना बढ़िया मकान भी बना रखा था।पिता के साथ रहते हुए कलकत्ता में ही मास्टर साहब ने उर्दू, अरबी, फारसी, हिन्दी और बांग्ला भाषा की शिक्षा प्राप्त की। बाद में पिता की असामयिक मृत्यु के कारण अजीज साहब को अपने गाँव कर्णपुरा आ जाना पड़ा। यहाँ पहुँच उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, भोजपुरी आदि भाषाओं के साहित्य का भी अध्ययन किया।  एक संघर्षमय जीवन-यापन के साथ-साथ सामाजिक समानता और सौहार्द के प्रति मास्टर साहब की प्रतिबद्धता बेमिसाल थी। वे संकीर्ण धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठ कर हिन्दू देवी-देवताओं के प्रति उतनी ही भक्ति-भावना से प्रेरित थे जितने वे इस्लाम धर्म के त्याग, बलिदान, सहिष्णुता आदि से अनुप्राणित थे। राम, कृष्ण, शिव के प्रति भी उनकी उतनी ही आस्था थी जितनी इस्लाम की त्यागशीलता और तौहीद, नमाज, रोजा, जकात आदि में उनकी निष्ठा थी। वे धर्म को मानवता के आभूषण के रूप में स्वीकार करते थे। अजीज साहब धार्मिक मदान्धता और कट्टरता को मनुष्यता की भावना के विपरीत मानते थे। वे अपने कीर्तनों में बराबर मानवता के पथ पर चलते हुए सामाजिक सद्भावना हर हाल में बरकरार रखने की गुजारिश करते थे।

            

मास्टर अजीज का देहावसान कैंसर रोग के कारण 05 मई 1973 को 63 वर्ष की उम्र में हो गया। कर्णपुरा में अपने कमरे में बैठे वे जब अपने एक संगी हजारी मियाँ से बातें कर रहे थे तो उन्हें अपनी कमर में असह्य पीड़ा महसूस हुई। उन्होंने हजारी से कहा- "अब बैठ नहीं सकता लेट जाता हूँ। तकिया पर सर रख कर मास्टर अजीज ऐसे लेटे कि फिर कभी उठ नहीं सके। उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनके इंतकाल के बाद कबीर की ही भाँति एक विवाद उठ गया। काफी संख्या में हिन्दू और मुसलमान उनके पार्थिव शरीर के दर्शन को पहुँचे। जितने पुरुष उतनी ही महिलाएँ। सबकी आँखों में आँसू। बड़े बुजुर्ग उनके अंतिम संस्कार की बातें करने लगे। हिन्दू चाहते थे कि चूँकि अजीज जी के हिन्दू प्रशंसक ज्यादा हैं, अतः उनका दाह-संस्कार किया जाए जबकि मुसलमान अनुयायी उन्हें कब्र में दफनाये जाने के पक्षधर थे। तरैया थाना क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित और सर्वमान्य सम्भ्रान्त मित्र थे मास्टर अजीज के, जिनका नाम था-पंडित जगदीश्वर पांडेय। हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय में उनकी समान स्वीकार्यता और लोकप्रियता थी। उभय पक्ष उनकी बातों की कद्र करते थे। पांडेय जी ग्रामीण वैद्य के रूप में भी लोगों के लिए काफी उपकारी थे। दोनों पक्षों की स्वीकृति से उन्होंने मास्टर अजीज साहब की पत्नी महलूदन बेगम जी से बात की। किवाड़ की ओट से ही बेगम ने बताया कि अजीज साहब की इच्छा थी कि वे जब भी मरें उन्हें पुराने कब्रिस्तान में नहीं बल्कि अलग किसी खेत में दफनाया जाए। पांडेय जीने घर के बाहर आ कर अजीज साहब के छोटे लड़के जब्बार साहब के सामने यह बात सार्वजनिक की और तब जा कर दोनों समुदाय के लोग इस बात पर राजी हो गये कि घर के दक्षिण में स्थित मास्टर साहब की ही जमीन में उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें दफनाया जाए।ऐसा था उस समय का सामाजिक सौहार्द - जहाँ एक दूसरे की भावना का भरपूर सम्मान करने की रवायत थी। मास्टर अजीज की मृत्यु के दसवें दिन गाँव में महाभोज का आयोजन किया गया। अलग-अलग शामियानों में भजन-कीर्तन और प्रवचन के साथ-साथ कुरान का पाठ और मिल्लाद भी सम्पन्न हुए। 20वीं शताब्दी में समाज में धार्मिक सदाशयता और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने वाली यह अनोखी घटना थी जिससे आज सबक लिया जा सकता है।

               

मास्टर अजीज भारत की उस गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक-पुरुष थे जो युगों से भारत की सांस्कृतिक एकता और सद्भावनामूलक समृद्ध विरासत का पूँजीभूत रूप रही है।


                

साहित्यिक-सांस्कृतिक अवदान              

              

मास्टर अजीज मूलतः एक कीर्तनिहा भक्त कवि थे जो अपने कीर्तन-गायन के जरिए समाज में भक्ति, राष्ट्रीयता  और सामाजिक सद्भावना का ताना-बाना बुन रहे थे। उनकी रचनाओं को 'मास्टर अजीज के कीर्तन' शीर्षक से प्रथम खंड के रूप में सम्पादकद्वय डाॅ. नागेन्द्र प्रसाद सिंह एवं एम. जब्बार आलम (अजीज साहब के पुत्र) ने प्रकाशित कराया है। मास्टर अजीज पर केन्द्रित दो पुस्तकें -


1.भोजपुरी रत्न मास्टर अजीज (सम्पादक- एम. जब्बार आलम, 2017, प्रगतिशील लेखक संघ, पटना) एवं 

2.भक्त कवि मास्टर अजीज (सम्पादक- प्रो. एम. जब्बार आलम, 2022, मास्टर अजीज शोध संस्थान, कर्णपुरा, सारण) 


प्रकाशित हुई हैं। पहली पुस्तक में अजीज साहब के व्यक्तित्व-कृतित्व पर केन्द्रित कुल आठ आलेख संग्रहित हैं एवं इसके दूसरे खंड में अजीज साहब की निर्गुण भक्ति, राम भक्ति, कृष्ण भक्ति, शिव भक्ति, राष्ट्र भक्ति, सामाजिक सरोकार तथा अन्य विविध विषयों से जुड़ी रचनाओं को प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक की भूमिका हिन्दी के प्रसिद्ध समीक्षक डाॅ. खगेंद्र ठाकुर ने लिखी है। दूसरी पुस्तक 'भक्त कवि मास्टर अजीज' में मास्टर अजीज के काव्य-संसार पर प्रकाश डालने वाले कुल पन्द्रह आलेख संग्रहित हैं।

                  

मास्टर अजीज का काव्य-संसार बहुआयामी और व्यापक है।इसमें धर्म, भक्ति, दर्शन, देशभक्ति, समाज-सुधार आदि की बातें काफी गहराई तथा उदार चिंतन और सोच के साथ पिरोया गयी हैं। अजीज साहब बाबा तुलसी की तरह समन्वयवादी चेतना के कवि हैं। निर्गुण-सगुण, ज्ञान-भक्ति, लोक-शास्त्र, परम्परा-प्रगति-सबका समुचित समन्वय अजीज जी की कविता में देखने को मिलता है। उनकी भक्ति-साधना पौराणिक एवं प्राचीन कथा-प्रसंगों में रमे  रहने के साथ-साथ आधुनिकता वैचारिकता का भी समाहार करती चलती है। वे वेद-पुराण के साथ-साथ कुरान की बातों के मर्म को भी आम जन को समझाते थे-


" वेद पुरान पढ़s चाहे कुरानवा

   कहत अजीज हउवे एके संतानवा

   होखs तू चमार चाहे होखs तू बाभनवा

   मरला के बाद जइबs एके असमनवा।"

            

अजीज साहब की भक्ति-भावना पर कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, रसखान प्रभृति श्रेष्ठ भक्त कवियों का भरपूर असर है। वस्तुतः अजीज साहब भक्ति की सभी परम्पराओं को समान भाव से देखते थे।

               

मास्टर अजीज ने राम, कृष्ण, शिव से जुड़े भजनों के अतिरिक्त देशभक्ति के रंग में पगी रचनाएँ भी लिखी है। निर्गुण भक्ति से जुड़े उनके पदों में धार्मिक बाह्याडम्बर पर प्रहार के साथ-साथ निर्गुण-निराकार ब्रह्म की आराधना की बात कही गयी है। उनके पद -'दियरवा कहँवा से हम पाईं', 'राम कहs राम कहs,राम कहs मनवा', 'भजन बिना जनम अकारथ जाई', 'रे मूरख निपट अनारी' , 'रटत-रटत रहीं पिया के नगरिया', 'सखिया झूठ हs ई दुनियाँ रंगीली', 'पियासे मरत काहे मछरिया', 'रमइया भजs रामा हो सियारामा', 'आपन कुशल चाहs हट जा मायाजाल से, 'भजन बिना जइब कवना ओरी', 'हमनीं माया में भुलइलीं', 'पुन कुछ ना कइलीं हो', 'भजन अबहूँ से करीलs हो नादान बुढ़ऊ', 'रे सुगना सत के बोली बोलs', 'राम नाम कहs बिहान भइल तोता, 'भगवान सुनीला कि नाना रूप बनवलीं हँ', 'राम के लगावल फुलवा खिले फुलवरिया', 'सुगना जीव जतन अनमोल', 'ई दुनिया माटी रे माटी', 'पिया-पिया रटते-रटते भइलीं जोगिनिया', 'चललीं ओढ़ के लाल चुनरिया' आदि पदों में अजीज साहब की निर्गुणिया भक्ति के दर्शन होते हैं।

          

उनकी निर्गुण भक्ति-धारा के काव्य के तौर पर इन पंक्तियों को देखा जा सकता है-


"पियासे मरत काहे मछरिया

छन में उगत छन में डूबत छन में धावे कगरिया

छन -छन छउके छछने- पियासे धूनत रहे कपरिया


×××


जल में जिअत, जल में मुअत, केहू ना लेत खबरिया

जल जीवन हsभेद न जानत, माया के बाँटत रसरिया

माया के बस मरम ना जाने, गला में डालत  फँसरिया

सत-सागर जल परम ब्रह्म के, ऊपर बा माया के बजरिया

गेयानहीन मूरख ना बूझे, पदारथ सत् भितरिया

बिना गुरु ज्ञान कहाँ से पावे, चल जा गुरु के नगरिया

कहत अजीज राम नाम के, भरि-भरि ले जा गगरिया।"

                       

मास्टर अजीज के इस पद में कबीर के पद 'पानी बीच मीन पियासी' की तरह सांसारिक मोह-माया से उबरते हुए भीतरी सत् पदार्थ के बोध को आवश्यक बताया गया है। गुरु ज्ञान की महिमा का बखान एवं 'राम' नाम के मर्म को समझाने की कोशिश की गई है।

               

'हमनीं माया में भुलइनीं', 'पुन कुछ ना कइलीं हो', 'ए सुगना सत् के बोली बोल', 'चललीं ओढ़ के लाल चुनरिया' आदि पदों में कबीर की निर्गुण भक्ति-भावना को देखा-परखा जा सकता है।

                  

रामभक्ति से जुड़े पदों में रामकथा के विभिन्न मार्मिक प्रसंगों के जरिए राम के शक्ति, शील और सौन्दर्य से परिपूर्ण छवि को उकेरा गया है। अजीज जी के एक पद की पंक्तियाँ देखने लायक हैं-


"रामजी के हो रतनार बाड़े नैना

साँवली सुरति के का छवि बरनी,

 छवि कवि कहे में सकै ना हो 

  रतनार बाड़े नैना....।


   ×         ×        ×        ×           ×


जैसे रस चुवेला आम-महुइया,

ओइसे रस चुवेला बैना, रतनार बाड़े नैना ।"

                   

अजीज साहब का एक बहुत प्रसिद्ध पद है जिसमें आदिवासी-वनवासी प्रभु श्रीराम से उनका परिचय पूछते हैं-


 "कर जोरी कहीं हम पइयाँ पड़िले,

बबुआ बोलs ना, कहँवा बा घरवा तोहार, 

बबुआ बोलs ना

बाबूजी के नाम आपन तनिक बतइब, बबुआ बोलs ना 

कइसन बारी मइया तोहार, बबुआ बोलs ना 

अतने उमरिया में जंगल भेजवली, बबुआ बोलsना।"                 


केवट-प्रसंग से जुड़े एक पद की पंक्तियाँ हैं-


"चरनिया धोआलs ए रघुरइया

बिना पग धोये नइया ना चढ़ाइब, 

चाहे करs कोटिन उपइया।"

              

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जंगल में सीता के वियोग में एक साधारण मनुष्य की भाँति बिलखते-घूमते अपनी प्राणेश्वरी सीता का पता पूछते नजर आ रहे हैं-


"कवन रहिया सिया गइली दे के बिपतिया

नाहीं कहीं लउके कवनों चिन्हवा-निशनिया।"

               

इस तरह, अयोध्या राज से निष्कासित रामप्रिया सीता की व्याकुलता भी हृदयविदारक है-


"कलपेली सियारानी राम के वियोगवा 

तोहर धनवा बिलखेला वनवाँ हो राम

कवन कसूर कइनीं घर से निकालल गइलीं

केहू ना बतावे इहो बतिया हो राम

इयाद करीं फाटे छाती एको ना पेठवले पाती

पिरितिया काहे के लगवलs हो राम।"

              

सीता की प्रश्नाकुलता में नारी-सशक्तीकरण की आधुनिक मनोभावनाएँ शामिल दिखती हैं। अकारण अपवाद या अपयश से प्रताड़ित होने की सजा एक नारी को दिये जाने पर सीता का सवाल आज भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है।

              




मास्टर अजीज ने अपनी भक्ति-भावना में भी मानवीय संवेदनाओं को सन्निहित करते हुए उसे लोकोत्तर होने से बचा लिया है। इस तरह,भक्ति की लोकोपयोगिता सिद्ध करने का उनका प्रयास भी परम प्रणम्य हो गया है।

            

कृष्णभक्ति से जुड़े उनके कुछ पदों-गीतों को भी देखना समीचीन प्रतीत होता है। राम कथा की ही भाँति कृष्ण कथा के प्रमुख सभी प्रसंगों पर आधारित मास्टर अजीज के पद अत्यंत मार्मिक एवं भावपूर्ण बन सके हैं।

               

कृष्ण के बालरूप का  वर्णन करते मास्टर अजीज का एक पद है-


"अँगनवा में खेलत बाल कन्हैया

उठत-गिरत, रोअत-कानत छोट अबहीं बा पइयाँ।"

     

इन पंक्तियों को देख कर सूर द्वारा किया गाया कृष्ण का बाल-वर्णन याद हो आता है-


"घुटुरनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए।"   

                

कृष्ण के वियोग में गोपियों की विरह-वेदना भी हृदय को विदीर्ण कर देने वाली है-


"छोड़ि के भवनवाँ  साम गइलें मधुवनवा 

परनवा कइसे राखब हो साम

कहिके गइले साम आइब हम सवनवाँ

अरमानवाँ कइसे राखब हो साम 

गवना के सरिया हमरो भइले ना धूमिलिया

सगुनवा कइसे भाखब हो साम

ताकत-ताकत हमरो अँखिया पिरइले 

पियर भइले हमरो देहिया हो राम।"

            

ताकते- ताकते आँखों की पीड़ा और देह के पियराते जाने की व्यंजना में कवि की अभिव्यक्ति-शैली का भी कमाल देखते बनता है।

            

कृष्ण की मुरली को ले कर भी कवि की काव्य-अभिव्यंजना अद्भुत है-


"कान्हा रोज-रोज बुलावेला तोहार मुरली

कभी कुहुकावे कभी आग लगावे  

मन बहकावे कभी मदन जगावे

सुतल नेहिया जगावेला तोहार मुरली।"

         

'गोपी-उद्धव-संवाद' के प्रसंग में भी गोपियों की वाक्-चातुरी, तर्क-निपुणता और कृष्णानुराग अजीज साहब के कवि की श्रेष्ठता को उजागर करते हैं-


"उधो! ना चली तोहार चतुराई

लाख चौरासी भटकि-भटकि के ई मानुस तन पाई

इहो रतन धन माटी लागे दनाई में पड़ल खटाई

कंचन-काया हृदय बसेला ओमें श्याम समाई।"

           

अजीज के इस पद में भी गोपिकाएँ निर्गुणमार्गी ज्ञान की गठरी लिए ब्रज पहुँचे उद्धव को प्रेम का पाठ पढ़ा कर विदा कर देती हैं। सूर के पद "उधो मन नाहीं दस-बीस" - सी ही तर्कशीलता और प्रेमाभक्ति का प्रतिपादन अजीज जी के इस पद में भी है।

               

शिव भक्ति से जुड़े पदों में भी शिवकथा के विभिन्न स्थलों को लेकर मार्मिक पदों की रचना अजीज जी ने की है। शिव की अद्भुत बारात का चित्रण एक पद में द्रष्टव्य है-


"अरे बाप रे बाप! शिवजी के अजबे बरिअतिया

अइसन दुलहा सखी कतहीं ना मिलिंहन

ढूँढ़ि आवे हाथ ले के बतिया

सेहरा ना टोपी माथे नाहीं बा मउरिया

जट्टा ऊपर गंगा के लहरिया

चन्दन ना टीका मुँहे पान ना सुपरिया

अंग-अंग लागल भभुतिया।"

           

ईश्वर-भक्ति के साथ-साथ मास्टर अजीज ने अपनी देश भक्ति की भावना को भी अपने गीतों और पदों में अभिव्यक्ति दी है। सारण जिला (बिहार) के मढ़ौरा में अंग्रेजों के साथ हुए स्थानीय ग्रामीणों की भिड़ंत का मास्टर अजीज के एक गीत में बड़ा ही सजीव चित्रात्मक वर्णन है-


"गोराई कर देलक चढ़ाई

केहू का कुछ ना बुझाई

कइसे होई अब लड़ाई

          ओ मढ़ौरा में।


बन्दूक छूटल धड़ाधड़

चिरई उड़ल फड़ाफड़

गोली बरसल झराझर

          ओ मढ़ौरा में।


×         ×        ×


गोली चले धड़ाधड़

रोड़ा बरसे तड़ातड़

केहू मारे फेंक पथर

            ओ मढ़ौरा में।


ओने अंग्रेजी के टोली

एने किसानन के टोली

गूँज जय हिन्द के बोली

              ओ मढ़ौरा में।"

              

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जघन्य हत्या को ले कर भी कवि की पीड़ा उनके एक गीत में काफी रोष और उद्वेलन के साथ फूटी है-


"कौन मरलस हमरा गाँधी के गोली रे, 

दनादन बम के गोला!

पूजा करे जात रहलन बिड़ला भवनवा

उहँवा से निकले हे राम के बोली रे,

दमादम बम के गोला!


×             ×              ×              ×


पाप के दाग कभी छूटहूँ न पावे

रंग लs कतनो दामन के चोली रे, 

दनादन बम के गोला !"

                

कवि आजादी मिल जाने के बाद भी सतत जागरूकता और उत्तरदायित्व-बोध की जरूरत खूब समझते हैं, तभी तो कहते हैं-


"सिर पर चढ़ल सुराज-गगरिया,

डगरिया सम्हार के चलिहs।"

                

स्वातंत्र्योत्तर भारत में सामाजिक अन्याय और गैरबराबरी, साम्प्रदायिकता, धार्मिक मदान्धता, आर्थिक असमानता, पूँजीवाद के प्रकोप, प्राकृतिक प्रदूषण और जनसंख्या-वृद्धि की विकट समस्या, बाजारवाद और असंस्कृति के फैलाव-आदि से कवि बेहद चिंतित है। भक्ति के प्रति आस्थावान कवि सामाजिक सरोकार से जुड़े विषयों के प्रति भी पूरी तरह संवेदनशील है। वह ईश्वर से नाइंसाफी दूर करने की गुहार लगाता है-


"सुनिला कि भगवन! रउरे सबके जनमाइले 

ओकरा के दिहलीं रउआ महल-अटरिया

हमरा रहे के बा टूटही मड़इया

पानी से भींजेला देह, बबुआ के लुकाइले।"

                     

एक दूसरे पद में भी कवि कहता है-


"अब ना करब बेगारी जमींदारन के 

भूखे ना पियासे रहब, केहू से ना दुख कहब

कुछ खाएब कुछ दिहब भिखारिन के।

ऊँच-नीच के भागी भूत, मिट जाई छुआछूत

ओरहन ना सुनब पनिहारिन के 

मर्जी से करब काम, साहेब नाहीं रोब-दाब

केहू इज्जत ना लूटी बनिहारिन के।"

          

सामाजिक असमानता, शोषण, छुआछूत, ऊँच-नीच आदि की बुराइयों से मुक्ति-कामना कवि के निर्मल मन का अभीष्ट है।

               

राजनीतिक विद्रूपताओं को ले कर भी मास्टर अजीज की पंक्तियाँ काबिलेगौर हैं-


"ठोढ़वा पर हँसी बाकिर अँखिया में लोर बा

गाँवे का माटी से मिलल सोना जइसन काया 

जीत चुनाव नेता बनि गइलन, भूललन दाया-माया

गाँव-गँवई सब उफर पड़त बा, दिल्ली पर टिपोर बा।"

            

रोजगार को ले कर गाँवों से शहरों की ओर होने वाले पलायन को ले कर भी कवि की चिन्ता स्वाभाविक है-


"आँख से ना लोर निकले, 

मुँह से ना बतिया, 

ए सखिया!

पियऊ गइलन कलकत्ता, 

ए सखिया!"

                   

धार्मिक बाह्याचार, पाखंड और आडम्बर को ले कर भी कवि के विचार बहुत स्पष्ट हैं। वह साफ तौर पर कहता है-


"भिखारी ना जोगी होइहें, गेरुआ वस्त्र रंगवला से

हिन्दू ना पंडित होइहें, चन्दन का लगवला से 

मुस्लिम ना मुल्ला होइहें, दाढ़ी का बढ़वला से

मूरख ना नेता होइहें, खादी का झमकवला से।"

                     

कवि धार्मिक सहिष्णुता और सदाशयता को मानव-जीवन की पूँजी मानता है। उसकी मान्यता है कि सभी धर्मों का सार एक ही है- परदुःखकातरता, मनुष्यता की राह का अनुसरण। राम, रहीम, ईसा मसीह - सभी ईश्वर के ही अलग-अलग नाम हैं। कवि का कथन है-


"हमार एके गो मालिक श्रीराम भइलन 

उहे आदिल, अल्लाह, सुभान भइलन।"

          

कवि मास्टर अजीज अपने गीतों और पदों को संगीतमय कीर्तन के जरिए आम जन में प्रस्तुत करते थे। कीर्तन के साथ-साथ प्रवचन भी वे बहुत बढ़िया करते थे जिसे सुनने के लिए काफी दूर-दूर से लोग जुटते थे। आम जनता से सीधे जुड़ा यह कवि अपनी कविताई के जरिए सहज भावपूर्ण संवाद स्थापित कर लेने में माहिर था। आम जनता घंटों बैठी अजीज जी के भक्तिमय, ज्ञानमय और सामाजिक सद्भावनामूलक कीर्तन-प्रवचन को सुन आनन्दित होती थी। ब्रजभाषा के 'अष्टछापी कवियों' की भाँति भोजपुरी का यह कीर्तनिया कवि अपने समकालीन नामी-गिरामी  कीर्तनकारों में तो वरेण्य था ही, लोकप्रिय कवियों और आम जन में भी काफी समादृत था। आम जन और शिष्ट वर्ग-दोनों से उसे भरपूर सम्मान मिलता था। सुप्रसिद्ध समालोचक डाॅ. खगेन्द्र ठाकुर लिखते हैं- "मास्टर अजीज का रचना-संसार बहुत विस्तृत है। उसमें धर्म, भक्ति, दर्शन, नैतिकता, राष्ट्रीयता और समाज-सुधार की चेतना लगातार व्यक्त हुई है। धर्म के आधार पर मनुष्य में वे विभेद नहीं करते। सबको समान धरातल पर रख कर देखते हैं।" ('भक्त कवि मास्टर अजीज'- सम्पादक - प्रो. एम. जब्बार आलम, पृष्ठ-41, मास्टर अजीज शोध संस्थान, कर्णपुरा, सारण, 1922)

                  

समासतः कहा जा सकता है कि भोजपुरी का यह भक्त कवि सत्यम, शिवम, सुन्दरम का सम्पूर्णतः आराधक है। इनके काव्य में कबीर का सत्य और बाह्याडम्पर विरोध, तुलसी का शिवत्व और समन्वय का भाव तथा सूर का लालित्य-बोध और सौन्दर्यविधायी काव्य-विवेक समाहित है। मास्टर अजीज की कविता जितनी लोकधर्मी है, उतनी ही शिष्ट और सुसंस्कृत जन की जिह्वा पर भी वास करने वाली है। लोक और शास्त्र सम्बलित उनका काव्य-जगत् ज्ञान और प्रेम, राग और विराग, निर्गुण और सगुण, भाव और विचार, कल्पना और यथार्थ, अनगढ़पन और सौकर्य-सबका संतुलित समन्वय और समाहार प्रस्तुत करने वाला है। हृदय की भावातुरता, देशज संवेदना और वैचारिक विमलता से परिपूर्ण मास्टर अजीज की कविता भोजपुरी साहित्य का अनुपम आकर्षण है।

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