सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'क्षणभंगुर होने का डर और कालजयी रचना का मोह'

 

सेवाराम त्रिपाठी 


व्यंग्य अपने आप में एक दो धारी तलवार की तरह होता है। इसका रास्ता उतना आसान नहीं होता, जितना आमतौर पर लोग सोच लेते हैं। सेवाराम त्रिपाठी के अनुसार 'न तो यह अगंभीर हो सकता है, न ही यह हास्यास्पद हो सकता है'। दोनों ही स्थितियां इसके अस्तित्व के लिए खतरनाक होती हैं। व्यंग्य कालजयी होने की न तो कोशिश करता है, न ही कोई दावा। यह तात्कालिक घटनाओं पर भी मारक तरीके से हमला कर सकता है। इन सब विषयों पर सेवाराम जी ने इस आलेख में गम्भीर विमर्श किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'क्षणभंगुर होने का डर और कालजयी रचना का मोह'।



'क्षणभंगुर होने का डर और कालजयी रचना का मोह'


सेवाराम त्रिपाठी 

   

   

आदमी क्षणभंगुर होने से डरता है। वो कालजयी होने के चक्कर में कई तरह के गैल रास्तों से गुजरता है। इधर न जाने कितनों को कालजयी होने की एक अजीब सी बीमारी लग गई है। आत्ममुग्धता भी कालजयी सूरत में ढल सकती है। कोई कैसे शाश्वत होने का दावा कर  सकता है। कोई लेखक समय समाज से मुठभेड़ किए बगैर कालजयी आत्ममुग्धता का शिकार हो जाए तो कोई क्या कर सकता है? यह उसकी साइट है। लेखक को अपने समय के सवालों से  हर - हाल में जूझना ही पड़ता है। मेरे ख्याल से वह कालजयी के चक्कर में नहीं हो सकता। अन्यथा वह घनचक्कर होता चला जाएगा। यह सब कुछ किसी भी सूरत में कोई स्वाभाविक प्रक्रिया तो है नहीं। लेकिन बाज़ार की चौधराहट में, स्वार्थपरताओं के महारास में और इलेक्ट्रानिक मीडिया के महामायाजाल से निरंतर ऐसा ही हो रहा है और धड़ल्ले से हो रहा है। अपने आपको चमकाने की अपने आपको प्रकाशित करने-कराने की भूख ने जायज-नाजायज का समूचा भेद ही मिटा दिया है। लोग-बाग राम-रगड़ा स्टाइल में सब कुछ डाऊनलोड कर रहे हैं और न जाने कितने प्रकार की प्रतिष्ठा के खेत जोत रहे हैं। जहां तक मुझे लगता है कि किसी भी प्रकार के पुछल्ला-पुछल्ली लगाने से कुछ समय का सुख ज़रूर प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन यह मामला दीर्घकालिक तो किसी भी सूरत में नहीं हो सकता। यह सभी व्यंग्य के बर्ताव पर और उसकी प्रकृति पर ही निर्भर है।  

       

मैं व्यंग्य को खांचों और सांचों में नहीं देखा करता। व्यंग्य को उसकी औकात में और संपूर्णता में ही देखना चाहिए। व्यंग्य किस धातु का है और उसकी योग्यता कितनी है। यही नहीं उसकी प्रतिष्ठा का संसार क्या है? प्रश्न है कि क्या व्यंग्य मनमाने की बात भी हो सकती है? क्या क्यों कैसे हम अक्सर किनारे ठेल देते हैं? कालजई और शाश्वत लगता है जुड़वा भाई भी हो सकते हैं या अलग भी। दोनों अकड़े-अकड़े फिरते हैं। कालजयी का विस्फोट होता है तो न जाने कितने लिक्खाड किस्म के प्राणी बड़े-बड़े संस्थानों में या तो सम्मानार्थी रूप में मिलते हैं या पुरस्कारार्थी। वे  हमेशा अपनी पवित्रताएं खुजलाते रहते हैं  या दनदनाते रहते हैं।

 



न जाने कितने प्रकार की मूर्खताएं दहाड़ रही हैं। इनका एरिया राजनीति से उठ कर साहित्य-संस्कृति की दुनिया में खलबली मचा रहा है और अपने उफान पर है। साहित्य में लिखने के गुब्बारे फूल पचक रहे हैं। परसाई जी ने एक निबंध में लिखा है - “परेशानी साहित्य की कसरत है। जब देखते हैं, ढीले हो रहे हैं, परेशानी के दंड पल लेते हैं। मांसपेशियां कस जाती हैं।”  साहित्य की दुनिया से गंभीरता कम हो चली है। इसलिए अक्सर वहां तरह तरह की कवायद होती रहती है। देश दुनिया में जो कश्मकश और जद्दोजहद है, उसको पीठ दिखा कर वो साहित्य में नई तरह के प्रक्षेपण करने लगते हैं। अपने अपने अहंकारों के टावरों में बैठ कर गनगनाने लगते हैं। जैसे उनके पास कालजयी होने का बुखार चढ़ आता है।

  

कभी परसाई जी से किसी ने कहा होगा कि आप शाश्वत साहित्य लिखिए। इस प्रसंग की परम तुच्छता पर विचार करते हुए परसाई जी ने सही ही लिखा है - “वे सट्टे का फिगर रोज नया लगाते थे, मगर साहित्य शाश्वत लिखते थे। वह मुझे वाल्मीकि की तरह दीमकों के बमीठे में दबे हुए लगते थे। शाश्वत साहित्य लिखने का संकल्प ले कर बैठने वाले मैंने तुरंत मरते देखे हैं… हममें से अधिकांश ने अपनी लेखनी को रंडी बना दिया है, जो पैसे के लिए किसी के भी साथ सो जाती है। सत्ता इस लेखनी से बलात्कार कर लेती है और हम रिपोर्ट तक नहीं करते।” (पवित्रता का दौरा)






ज़रूरी है कि हम अपने युग और दौर के बारे में ईमानदारी होना नितांत आवश्यक है। लेखक को अपने समय समाज के बारे में ईमानदार और जबावदेह होना चाहिए।” शाश्वत लिखने वाले तुरंत मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अपना लिखा जो मरता देखते हैं, वही अमर होते हैं - जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं है वह अनंत काल के प्रति क्या ईमानदार होगा।”


यूं तो व्यंग्य अपने आप में जीवन की मार्मिक समीक्षा है। व्यंग्य के ठसकदार लोग उसकी असलियत को  हर हाल में आलोचना में पाना चाहते हैं। इस समय व्यंग्य का सही मुहूर्त नहीं है इसलिए सब औने पौने इसी में हाथ आजमा रहे हैं। बेचारी आलोचना आख़िर क्या करे। वैसे व्यंग्य लेखन तो तात्कालिक चीज़ों को ही ज्यादा फोकस करता है। अपने समय की नज़ाकत और जद्दोजहद की पड़ताल करता है। तमाम विसंगतियों और अंतर्विरोधों को उजागर करता है। उसकी पक्षधरता ही तमाम तात्कालिकता और वर्तमानता के बावजूद  उसकी ऐतिहासिकता के तमाम रूप खोल दिया करती है। उस में ही वो सामाजिक सरोकारों के विभिन्न आयामों और माध्यमों का खुल कर इस्तेमाल करता है। व्यंग्य का कैसा व्यवहार किया जा है। यह उसकी प्रभाव क्षमता से ही आंका जा सकता है। है तो वो क्षणभंगुर ही लेकिन उसी में उसका तात्कालिक प्रभाव अनुस्यूत है। और उसकी मारक-क्षमता का अभूतपूर्व संसार भी देखा जा सकता है।वह व्यंग्यकार के जीवन-बोध और उसके वैचारिक रूपों में निहित है। उसकी उपयोग क्षमता पर निर्भर है। मैं नहीं समझता कि कोई उसको दीर्घजीवी बनाने की फ़िराक में हो सकता है। हो तो वही जाने। क्या करिएगा सत्ता व्यवस्था की तरह भले पूरे संविधान की जगह कोई मनुस्मृति की छतरी लगाना चाहता है और कोई पवित्रता का बाजा बजाना चाहता है। उसकी वर्तमानता और तात्कालिकता में ही उसका वैभव व्यवहार दीपित होता है। व्यंग्य को अपने समय से समाज से और राजनीति की विसंगतियों और अंतर्विरोधी खतरनाक स्थितियों से मुठभेड करनी पड़ती है। व्यंग्य को बच-बच कर थन्ना छूने से अलहदा होना पड़ता है। यदि उसने ऐसा नहीं किया तो गया काम से। व्यंग्य बेहद उत्तरदायित्वपूर्ण काम है। व्यंग्य फालतू में लाठी भांजने की चीज़ नहीं है। व्यंग्य का अगंभीर होना बहुत खतरनाक है। उसे हास्य और विनोद में घसीट देना तो और भी ज़्यादा खतरनाक और हास्यास्पद है।


जब चीजें हमें इतनी बेरहमी से रौंद रही हों, हमें समय समाज के सवालों से मुठभेड करना हो और वो कालजयी होने के गोलगप्पे खाने में जुट जाए। अपने भीतर ही भीतर तिलिस्म की गठरी में बंध जाए। व्यंग्यकार को यह जानना समझना ज़रूरी है कि व्यंग्य एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आवश्यकताओं को बेहद चुनौतीपूर्ण और संवेदनात्मकता तरीके संपादित करता है। लेखक का कम ठहरे हुए और फीके रंगों से नहीं चल सकता। लेखक को अपनी ज़मीन और चेतना का विस्तार लगातार करना होता है और अपने को सतत अपडेट। व्यंग्य कोई हँसी मज़ाक की दुनिया नहीं है। यह एक तरह से एकदम अकल्पनीय मामला है। अंत में राजेश रेड्डी के दो शेर पढ़ें - सभी की वास्तविकताएँ खुल जाएंगी।”


दुनिया का रेशा-रेशा उधेड़ें, रफ़ू करें

आ बैठ थोड़ी देर ज़रा गुफ्तगू करें

उनकी ये ज़िद कि एक तकल्लुफ बना रहे

अपनी तड़प कि आपको तुम, तुमको तू करें”



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की है।)



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