स्वप्निल श्रीवास्तव की कहानी 'नौवीं मंजिल के कारनामे'






भ्रष्टाचार हर शासन व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती की तरह से रहता आया है। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की शासन व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में लिखता है कि जिस तरह मछलियां पानी में रहते हुए कब पानी पी लेती है पता नहीं चलता, उसी तरह से नौकरशाही में उस समय भ्रष्टाचार व्याप्त था। फिरोज तुगलक के समय में उसके युद्ध मंत्री दीवान ए आरिज़ के पास तेरह करोड़ की संपत्ति थी जो राज्य की दो वर्ष की आय के बराबर थी। 

आमतौर पर ईमानदार माने जाने वाले अंग्रेजी शासन व्यवस्था के दौरान अंग्रेज नौकरशाहों में व्यापक तौर पर भ्रष्टाचार व्याप्त था। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स पर तो ब्रिटिश संसद में महाभियोग तक चलाया गया। लॉर्ड क्लाइव से शुरू हुआ भ्रष्टाचार का यह अंतहीन सिलसिला अबाध रूप से ब्रिटिश शासन के अन्त तक चलता रहा। इसी का यह परिणाम था कि सोने की चिड़िया कहा जाने वाला भारत मिट्टी की चिड़िया भर रह गया। आजादी के बाद उम्मीद थी कि हम भारतीय ईमानदारी से काम करते हुए एक सशक्त भारत का निर्माण करेंगे लेकिन यह कपोल कल्पना ही साबित हुई। जाहिर सी बात है कि अंग्रेजों ने जिस शासन व्यवस्था की नींव भारत में डाली, उसमें लूट खसोट के लिए पर्याप्त स्पेस बनाए रखा। भ्रष्टाचार की बात कर हमारे यहां सरकारें तक बनीं लेकिन फिर वही ढांक के तीन पात। साहित्यकारों ने भ्रष्टाचार को स्वाभाविक रूप से अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। इस सन्दर्भ में मार्कण्डेय की कहानी भूदान की याद आती है। श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास राग दरबारी से कौन परिचित नहीं है। इधर स्वप्निल श्रीवास्तव ने एक कहानी लिखी है जिसमें भ्रष्टाचार के स्वरूप को उद्घाटित किया गया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव की कहानी 'नौवीं मंजिल के कारनामे'।


'नौवीं मंजिल के कारनामे'

         


स्वप्निल श्रीवास्तव 


संदीप का मुख्यालय अमेरिका की गुप्तचर संस्था सी. आई. ए. की तरह रहस्यमय था। वह चौदह मंजिला इमारत की नौवीं मंजिल पर स्थित था, उसे देख कर डर लगता था जो किसी काम से इस दफ्तर में आता था, उसके पसीने छूट जाते थे। इस इमारत का नाम देश के बड़े राजनेता के नाम पर रखा गया था जिसने देश को आजाद करने में महती भूमिका निभाई थी लेकिन इस बिल्डिंग में मातहतों को गुलाम बनाने का कारोबार किया जाता था। जो गुलाम नही बन पाता था, उसे तरह तरह की यातनाएं दी जाती थी।

   


उस मंजिल के पहले नंबर के चैंबर में बास बैठते थे, संदीप उन्हे बिग ब्रदर कहता था। यह संज्ञा उसे जार्ज ऑरवेल के उपन्यास '1984' से हासिल हुई थी। बॉस इस चैंबर में बैठे हुए पूरे सूबे का जायजा लेता रहता था। वह जो कुछ कहता था, वह उसका हुक्म होता था।


   

नौवीं मंजिल पर आठ–दस छोटे–छोटे चैंबर बने हुए थे जिसमें बास के मातहत अधिकारी बैठे रहते थे, उनके अलग–अलग इलाके थे जिस पर वे शासन करते थे। मुख्यालय में चैंबर के अतिरिक्त दो हाल थे जिसे कई हिस्सों में बांट दिया गया था। उनके प्रवेश द्वार पर एक पर्दा लटका रहता था, जो पंखे की हवा से हिलता रहता था। ये बाबुओं के चैंबर थे – बाबू नाम के ये जीव बहुत ताकतवर थे, उन्हें हर अधिकारी की जन्म कुंडली और कारनामों की जानकारी थी। बॉस तो आते–जाते रहते थे लेकिन बाबू लोग इस महकमें के मुस्तकिल कर्मचारी थे। वे बॉस को फ़ीडबैक देते रहते थे।

   


कोई अधिकारी सहज मुख्यालय नहीं जाता था। बास और उसके मातहत अधिकारी उसे कोई न कोई चार्जशीट और स्पष्टीकरण भेजते रहते थे। उनका उद्देश्य यह था कि कोई अधिकारी फील्ड में चैन से न बैठ पाए, उन्हें बुला कर उनका दोहन किया जाता था। उन्हे बैड इंट्री और तबादले का भय दिखाया जाता था। जो अधिकारी नौकरी को एक व्यवसाय की तरह करते थे, वे अपनी पोस्टिंग मालदार  जिले में करवाते थे, उनसे सब अधिकारी प्रसन्न रहते थे। वे हर महीने उन्हें लिफ़ाफ़े पहुंचाते रहते थे।

  


जिन्हें यह गणित नही आती थी, वे मुख्यालय के कोपभाजन बनते रहते थे। संदीप उनमें से एक था। इस नौकरी में काबिलियत की कोई जरूरत नहीं थी बस प्रवंधन कला में निपुण होना चाहिए, यह सबके बस की बात नही थी। संदीप अपने आप को बदल नही सका, उसके साथ के कई अफसर जो शुरू–शुरू में शरीफ थे, विभाग में आने के बाद अव्वल दर्जे के चलता–पुर्जा बन गये। वे मीटिंग में सीना चौड़ा कर के आते थे और कालर उठा कर चल देते थे। वे संदीप जैसे अफसरों को हिकारत से देखते थे। संदीप को यह अफसोस होता था कि वह उन जैसा क्यों नही बन पाया। इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी, उसका मूल स्वभाव ही ऐसा था कि वह अपने आप को बदल नहीं पाया। 

 


बॉस से मिलने की बात छोड़िए बाबुओं से भी मिलना कठिन काम होता था, कोई उनसे मिलने जाता था तो वे सिर नहीं उठाते थे। वे फ़ाइल में मुंह  गड़ाए रहते थे जैसे कोई जरूरी काम निपटा रहे हों। उनकी मुख–मुद्रा गंभीर होती थी। लेकिन जैसे उनकी जेब में लिफाफा डाल दिया जाता था, उनकी देह में हरकत शुरू हो जाती थी। संदीप को ये बाबू वजन बताने की मशीन की तरह लगते थे - जब तक उनके मुंह में सिक्का न डालो तब तक वजन और भविष्य नहीं बताते थे। अधिकतर बाबू वजन बताने की मशीनें थे।

  


इस महकमे के चपरासी महकमें के सबसे छोटे पुर्जे थे लेकिन बला के दुष्ट थे। बॉस से मिलना हो तो न मिलने का कोई न कोई बहाना बता देते थे –जैसे सर किसी जरूरी फ़ाइल में उलझे हुए हैं अभी नही मिल सकते। उनके साथ वही व्यवहार करना पड़ता था जो बाबुओ के साथ किया जाता था यानी मशीन में पैसा डालो फिर चमत्कार देखो। इस विभाग में सभी पैसे के यार थे, सबकी आँख में सूअर का बाल था।

  



  

प्रायः इस विभाग में वरिष्ठ आई. ए. एस. अधिकारी  आला अफसर बनकर आते थे। यह ऐसा संवर्ग था जिसे सर्वज्ञ और प्रतिभाशाली माना जाता था। वे ही बजट बनाते थे, वे ही टेक्निकल विभागों को संचालित करते थे। उनके लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नही होती थी –वे मन्त्रियों के विभाग दक्षता के साथ संभालते थे। वे आलू, टमाटर जैसी सब्जियों की तरह थे जो हर तरह के व्यंजन में खप जाते थे। ऐसे लोग संदीप के विभाग में आते रहते थे।

   


जब वे आते तो सीधी–सादी गाय की तरह लगते थे, कुछ दिनों बाद सांड की तरह मरकहे हो जाते थे। उनके भीतर सींग उग आती थी – यह सब कुछ आकस्मिक नहीं होता था। महकमें में एक काकस वर्ग था जो उन्हें पारंगत करता रहता था। हालांकि वे मूल रूप से भले नहीं होते थे। संदीप ने देखा कि कभी एक संवेदनशील अधिकारी आए – शुरू से वे लोगों के प्रति संवेदनशील बने रहे लेकिन कुछ महीने के बाद उनकी प्रतिभा उजागर होने लगती थी। उन्होंने विभाग को ताश के पत्ते की तरह फेंट दिया था जो उन्हें उपयुक्त नहीं लगे उनकी पोस्टिंग ऐसी जगह की –जिसे महकमें में काला–पानी की संज्ञा दी जाती थी।

  


ऐसे अफसर बहुत दिनों तक विभाग में तिहटते नहीं थे, कुछ दिनों तक अपने पद का लाभ उठाते हुए किसी दूसरे पद चले जाते थे। जाते समय वे लीद फैला देते थे जिसे आने वाला अधिकारी महीनों तक साफ करता था। बहुत दिनों बाद जब महिला आला–अधिकारी आयी तो संदीप को लगा कि इनकी कार्यप्रणाली पुरूष – अधिकारियों से भिन्न होगी। बाद में उसे पता चला कि इस व्यवस्था में स्त्री–पुरूष अधिकारियों में कोई विभेद नहीं है। सब एक ही आंवे से निकले हुए हैं। सब की संस्कृति एक ही है।

   


यह आला अधिकारी देखने में बलिष्ठ थी, चेहरे पर स्त्रीत्व का कोई भाव नहीं आता था। उनका चेहरा एक नाराज चेहरे सा लगता था – जैसे वे दुनिया से खफा हों। महिला होते हुए वे पुरूषोचित थी, चालीस–पैंतालीस की उम्र में भी अविवाहित थीं। कुछ लोग यह भी मानते थे कि उनके रूक्ष व्यवहार के पीछे उनका अविवाहित होना एक कारण था। दिन भर कोई न कोई षडयंत्र बुनती रहती थी, उसे अधिकारियों पर आजमाती रहती थी। उन्हें इस खेल में मजा आता था – यह एक तरह से चूहे और बिल्ली के खेल जैसा कौतुक था।

   


जब मासिक बैठक सजती थी तो वे सभा कक्ष में उनके पथरीले चेहरे को देख कर मूर्छित हो जाते थे। उनकी भाषा में व्यंग और अधिकारियों को अपमानित करने का भाव था। वे अकेले रहती थीं और स्वभाव से बोहेमियन थीं, हर शाम क्लब जाती थीं और रंगीन हो कर लौटती थीं। कभी दफ्तर के बाद अपनें बंगले पर जाती फिर क्लब ज्वाइन करती थीं। बाज दफे जब मूड खराब हो जाता था, वे दफ्तर से क्लब चली जाती थीं। घर में उनका कोई इंतजार करने वाला नहीं था। मेड सर्वेन्ट को भी उनके न आने से आराम रहता था।

  


स्त्रियों के जीवन में जो नैतिकता होती थी, उसे तोड़ती रहती थीं, इसका उनको कोई अफसोस नहीं होता था। उनसे बड़े अधिकारी उनसे भयभीत होते थे, उनकी भाषा पर कोई नियंत्रण नहीं था। कभी–कभी लगता था कि उनके अंदर एक बनैला जानवर छिपा हुआ था। जब वे क्रोधित होती थीं तो उनके नथुने फड़कने लगते थे।

  


विभाग में कुछ ऐसे अधिकारी थे जो उन्हें साध लेते थे – उनके प्रति वे कृपालु बनी रहती थीं। संदीप इस तरह के पक्षपातपूर्ण रवैये को जानता था। जो अधिकारी उनकी मांग की पूर्ति करता था, वह उनकी गुड लिस्ट में आ जाता था।

   


सूबे के हर जनपद को राजस्व प्राप्ति के लक्ष्य दिये जाते थे और हर माह के प्रथम हफ्ते में उसकी समीक्षा होती थी। इस तरह की बैठके जनपद में भी होती थी जिसे उस क्षेत्र के आयुक्त और जिलाधिकारी बारी-बारी आयोजित करते थे। जिसकी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती थी, उसके कारण नहीं सुने जाते थे बल्कि लक्ष्य प्राप्ति न करने के कारण अधिकारियों को अपमानित  किया जाता था। जो कोर–कसर रह जाती थी, वह मुख्यालय में पूरी हो जाती थी।

  


इस तरह की मीटिंग कभी मुख्यालय और कभी सचिवालय में आयोजित की जाती थी। वह विभाग का ऐसा दौर था जब विभाग प्रतिकूल स्थिति में चल रहा था। मंदी का समय था, राजस्व मुश्किल से एकत्र हो रहा था। शासन को राजस्व चाहिए था ताकि शासन की योजनाएं सुचारू रूप से चल सके। मंदी के बावजूद  सरकारी खर्चे में कोई कोताही नहीं की जा रही थी, मंत्री एंव नौकरशाह की शान में कोई कमी नहीं थी। कर एवम करेत्तर विभाग के अधिकारी शासन को टैक्स बटोर कर दे रहे थे। राजनेता और आला–अधिकारियों के रहन–सहन और विलासिता बढ़ती जा रही थी।

          


मुख्यालय और शासन की बैठकों में कोई अंतर नहीं था। संदीप के बॉस की मैडम अकेले ही काफी थीं, वह अपनी सेना को अकेले रौंद सकती थी। उनके तानाशाही रवैये से पूरा विभाग परेशान था लेकिन कोई चा-चूं नही कर सकता था। सबको पता था कि वह किस स्तर तक जा सकती हैं, जो उनकी बातों का जबाब देता था, लक्ष्य प्राप्त न होने के वाजिब कारण गिनाता था, उसके विरूद्ध विभागीय कार्यवाही प्रस्तावित कर दी जाती थी। वे कोई न कोई कौवा मार कर टांग देती थी ताकि अधिकारियों में हड़कंप मच जाए।  

  


जहां आमदनी और खर्चे में कोई संतुलन न हो, वहाँ बजट गड़बड़ा जाता है। शासन का भी यही हाल था। शासन के पत्र मुख्यालय में आते थे जिसमे लक्ष्य प्राप्त न होने के कारण पूछे जाते थे। महकमे में कर के स्रोत कम होते जा रहे थे इसलिए लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी। बॉस मैडम ने अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही तेज कर दी थी। स्पष्टीकरण, चार्जशीट और मुख्यालय से सम्बद्ध करने की कवायद शुरू हो गयी थी। ट्रांसफर तो मई–जून के महीने में होते थे लेकिन उसकी तोड़ निकाल ली गयी थी। अधिकारियों को किसी न किसी जनपद से सम्बद्ध कर दिया जाता था। यह ट्रांसफर से बड़ा दंड  था, अधिकारी अपने बाल–बच्चों को छोड़ कर जिले–जिले भटक रहे थे। बहुत से अधिकारी अपना मानसिक संतुलन खो चुके थे। उनकी बी. पी. और मधुमेह बढ़ गया था।

  


संदीप को उसके जिले से तीन सौ कि. मी. दूर फेंक दिया गया था। वह और बच्चे अलग-अलग तड़फ रहे थे। माह-दो माह में आना जाना हो पाता था। इसी बीच उसका एक्सीडेंट हो गया था जिसकी सूचना उसने बच्चों को नहीं दी थी कि कहीं वे बेवजह परेशान न हो जाए। अच्छी खबरे लोगों तक देर में पहुँचती है लेकिन बुरी खबरों के फैलने की गति तेज होती है। यह खबर संदीप की पत्नी के पास पहुँच गयी थी, वे रोते पीटते  उसके पास पहुंची और पहला सवाल यही किया कि आपका एक्सीडेंट हो गया सारी दुनिया जान गयी और आपने मुझे बताया नहीं। उसने बताया कि यह बात उसने जानबूझ कर नहीं बतायी ताकि परेशानी न बढ़ जाय।

   


लेकिन उसकी पत्नी को यह बात समझ में नही आयी। हालांकि यह कोई बड़ी दुर्घटना नहीं थी। बस उसकी जीप एक ट्रेक्टर से टकरा गयी थी, घुटने और हाथ में चोट लग गयी थी। संदीप को लगता था कि स्त्रियों को कोई बात समझाना मुश्किल काम है। उसे मैडम पर क्रोध आ रहा था कि आखिर उन्हें इस तरह की कार्यवाहियों से क्या हासिल होगा। लोग यहाँ तक कहते थे कि उन्होंने शादी नहीं की है तो उन्हें क्या पता चलेगा कि बच्चों की तकलीफ क्या होती है। कोई महिला–अधिकारी इतनी क्रूर हो सकती है संदीप ने सोचा तक नहीं था। स्त्रियों को वह कोमल समझता था लेकिन यहाँ स्थिति उलटी  थी। 

   


शासन से असंतोष का पत्र आने पर वे बौखला गयी थीं, उन्होंने शासन को प्रस्ताव दिया कि मीटिंग कभी–कभी सचिवालय में  आयोजित कर ली जाए और उस मीटिंग में मंत्री, सचिव आदि अधिकारी भाग लें। इससे अधिकारियों में खौफ बना रहेगा और शासन भी वस्तुस्थिति से वाकिफ होता रहेगा। वे अपनी गेंद दूसरे के पाले में डाल कर अपना पिंड छुड़ाना चाहती थीं। 

     



     

सचिवालय मुख्यालय से ज्यादा खतरनाक जगह थी। मुख्यालय की मीटिंग का संदीप को अभ्यास हो गया था लेकिन सचिवालय  तो साक्षात नरक था। वहाँ के अधिकारी यमलोक के बाशिंदे लगते थे, चेहरे पर क्रूरता का भाव होता था। वे सीधे मुंह बात मीटिंग करते थे, कोई अधिकारी अगर उनके चंगुल में फंस जाय तो उसका सत्यानाश हो जाय। सचिवालय में कोई आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता था, स्वागत कक्ष में–उसकी फ़ोटो खींची जाती थी, जिस पर संबंधित सेक्सन और अधिकारी का नाम दर्ज होता था। सुरक्षा में तैनात सिपाही प्रवेश पत्र की जांच के बाद  आगे बढ़ने की अनुमति देते थे। 

  


जब मीटिंग की तारीख आती तो अधिकारियों का ब्लड प्रेसर बढ़ने लगता था। बाज अधिकारी डिप्रेशन की दवा का सेवन करने लगते थे। उनका पूजा–पाठ बढ़ जाता था। जैसे बध के लिए भेड़े इकट्ठा की जाती थी, उसी तरह सचिवालय के प्रवेश द्वार पर अधिकारी जमा हो जाते थे। वे किंचित घबड़ाये हुए रहते थे जैसे किसी कत्लगाह में जा रहे हों। वे भीतर–भीतर अपने इष्टदेव की आराधना करते रहते थे – ही भगवान मुझे  बचा लो।

     


सभा–कक्ष  बहुत भव्य था, उसमें चारों ओर से कुर्सियाँ लगी हुई थी। बीच की जगह में रंग–बिरंगे फूल सजे हुए थे –देखने में ये असली फूल लगते थे लेकिन ये नकली फूल थे। बड़े अधिकारियों की कुर्सियाँ गद्देदार थीं, विभाग के अधिकारियों की कुर्सियाँ मामूली थीं। जैसे देवता वैसी पूजा। धीरे–धीरे बड़े छोटे अधिकारी आते रहते थे। मंत्री को सचिव ले आते थे और सचिव मैडम के साथ आते थे। वे बड़े–छोटे अधिकारी का एहसास दिला देते थे।

   


इसे सभा कक्ष नही कहा जा सकता, कोर्ट  मार्शल कक्ष जरूर कहा जा सकता था। इसमें  पूरे प्रदेश के अधिकारी बैठते थे, कोई सामान्य नहीं लगता था। अधिकारी ऐसे लगते थे कि जैसे उन्हें कोई सजा सुनाई जानी हो। सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। जिनके लक्ष्य पूरे नहीं होते थे उन्हें चुना जाता था। ऐसे लोग डरे डरे रहते थे कि कब उनका नंबर आ जाए। जिसे जबाबतलबी के लिए खड़ा किया जाता था वह जब राजस्व की पूर्ति न होने का कारण बताता था, उसे नहीं माना जाता। सीधे जिलाधिकारी को फोन मिला कर बताया जाता था कि अमुक बेहद नकारा अफसर है, उस पर नजर रखे। इस तरह जनपद में उसकी छवि खराब की जाती थी। मुख्यालय के लकड़बग्घे उसके पीछे लगे रहते थे।

  


सभा कक्ष से निकलने के बाद वे उदास उदास  निकलते थे जैसे श्मशान से लौट रहे हो लेकिन टाप टेन वाले अफसर के चेहरे पर कोई तनाव नहीं दिखाई देता था। विभाग के टाप टेन ऐसे थे जिन्हें मालदार पोस्टिंग मिलती थी। मुख्यालय से ले कर मुख्यालय तक उनके संपर्क थे वे बॉस के चहेते अफसर थे। वे बॉस को हर तरह से कृतार्थ करते रहते थे। विभाग में कोई बॉस आता तो वे उन्हें पटा लेते थे। शासन से उनके खिलाफ कोई आदेश आता तो बॉस उनकी रक्षा करते थे। जो लोग लक्ष्य की पूर्ति करते थे और लक्ष्य को संतुष्ट नही कर पाते थे, वे बास के  कोपभाजन बनते थे।

 


संदीप के एक मित्र थे के. के. सिन्हा, उनकी पोस्टिंग पहाड़ी जिले में हुई थी। वहाँ अच्छी खनिज मिलती थी। उनका लक्ष्य की पूर्ति  पंचानबे फीसदी के आस-पास होती थी। टाप टेन का टारगेट उनसे कम था, वे भी मीटिंग में डांटे जाते थे। यह सब बॉस और उनके बीच एक अभिनय ही होता था। लेडी बॉस मीटिंग में कुछ लोगों को चुन लेती थी और उन पर रोब गालिब करने के साथ उन्हें अपमानित करते थी। सिन्हा जी को वह बुरी तरह से लताड़ती थी। संदीप हर मीटिंग में यह दृश्य देखता था।

   


दो चार मीटिंग के बाद उसके देखा कि मैडम का स्वर उनके प्रति मुलायम हो गया था, उनका लक्ष्य भी पंचनाबे फीसदी से घट कर नब्बे प्रतिशत हो गया था। संदीप इस रहस्य को समझ नहीं पाया था। वह सोच कर हैरान था कि आखिर ऐसा क्या जादू हो गया था कि बास ने उनके प्रति अपनी राय बदल दी है। उसने सिन्हा से पूछा – दोस्त ऐसा क्या करिश्मा हो गया है कि बॉस तुम्हारे प्रति दयालु हो गयी है जब कि यह सब उनके मूल स्वभाव के विरूद्ध है। सिन्हा ने संदीप को गोल–मोल जबाब दे कर उसे टरका दिया था। संदीप इस अफ़साने की हकीकत जानना था।




मीटिंग के बाद कुछ अधिकारी मीटिंग के तनाव से राहत पाने के लिए मयखाने की शरण में चले जाते थे। मुख्यालय के बगल में एक होटल था जिसके बार हाउस में लोग चले जाते थे। उस बार में अनेक दुखियारों से मुलाकात होती थी। लोग पीने के बाद लोगों अपने दुःख को बाटते थे। मीटिंग खत्म होने के बाद संदीप ने सिन्हा को पीने का प्रस्ताव दिया जिसे सिन्हा ने स्वीकार कर लिया था। विभाग में लोग पीने का अवसर ढूंढते रहते थे। मुफ़्त की दारू किसे नहीं अच्छी लगती है। महकमें में रिंदों की संख्या अच्छी–खासी थी। कुछ लोग तो रोज नियमित रूप से पीते थे। उन्हें शाम को कोई न कोई शिकार मिल जाता था। वे अपने जेब के पैसे से नहीं पीते थे। पूरी नौकरी में मुफ्तखोर बने रहे।

  


होटल का बार-हाउस काफी सजा–संवरा था। उसके भीतर शराब की गंध व्याप्त थी। पीने वालों की मुख–मुद्रायें सहज नहीं थी। जो ज्यादा पी लेते थे उनकी आवाज लड़खड़ाने लगती थी।बहुत कम लोग थे जो अपने पर नियन्त्रण किये हुए थे। बार हाउस में एक बड़ा सा हाल था जिसमें मेज कुर्सियाँ लगी हुई थी। जो लोग छिप कर पीना चाहते थे उनके लिए केबिन बने हुए थे। कई बार संदीप ने उस केबिन में लड़कियों और औरतों को देख चुका था। लोग उनके साथ आते और खामोशी के साथ पी कर चले जाते थे।

   


संदीप ने केबिन का चुनाव किया ताकि उनकी बातचीत बाहर न जा सके। संदीप की योजना थी कि वह सिन्हा को एक–दो पैग पिला उस रहस्य को जान लेगा जिसके लिए वह बेताब था। वह जानता था कि जो बात आदमी होश में नहीं कह पाता है वह तरल होने के बाद कबूल देता है। संदीप ने सिन्हा की मनपसंद दारू के साथ चिखना भी मँगा लिया था। वह चाहता था कि एक दो पैग पीने के बाद मूल मुद्दे पर आएगा अन्यथा सिन्हा को पता चल जाएगा कि प्लान  के तहत उन्हें बुलाया है। वह कोई खतरा नहीं उठाना चाहता था। दो तीन पैग के बाद सिन्हा की चेतना खुल चुकी थी।

  


वह मैडम के खिलाफ अंड–बंड बोलने लग गये थे। उनके खिलाफ वे असंसदीय भाषा का प्रयोग करने लगे थे – बोले कि वह साली बहुत हरामी है उसने हमारा खून चूस लिया है। संदीप को लगा कि लोहा गर्म है अब हथौड़ा ठोक देना चाहिए। संदीप ने पूछा – क्या बात है सिन्हा साहब। किसी समय वह आप पर हमलावर थी अब काफी उदार हो गयी है?



यार संदीप मुझे इस उदारता की लंबी कीमत चुकानी पड़ी है। एक बार उनके बंगले पर गया और पूछा – मैडम आप मुझसे इतनी नाराज क्यों है तो उन्होंने कहा – अकेले-अकेले पहाड़ को लूट रहे हो। तुम्हें मैं ऐसी जगह पोस्ट कर दूँगी कि तुम्हें पानी नसीब नहीं होगा।

 


उनकी इस बात को सुन कर मैं कांप गया। मैंने उनसे पूछा – आप आदेश दें कि मैं आपके लिए क्या करूँ? उन्होंने मुझसे कहा – अगर ट्रांसफर से बचना चाहते हो तो कल पचास हजार रूपये लेकर आ जाना और हर महीने बंधी हुई रकम देते रहना। तुम्हें पता है कि ऊपर के लोगों के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है।



मेरे लिए अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था। मैं जानता था कि इस मामले में वह लालची और जिद्दी महिला है। उसके इस आदत से शासन के बड़े अधिकारी परिचित थे।



सिन्हा का कबूलनमा सुन कर संदीप को बहुत राहत मिली। उसे अंदाजा तो था ही कि बिना दिए–लिए कोई काम नहीं होना है। नौकरशाहों की यही मूल प्रकृति थी। लूट–पाट का खुला खेल चल रहा था। संदीप को इस रहस्य के उद्घाटन के बाद खुशी नहीं बल्कि राहत मिली थी। साथ ही साथ वे सिन्हा के दुःख से आहत हो गया था।

  


रात के दस बज चुके थे। सड़कों से भीड़ कम हो रही थी। वे भरे मन से अपने–अपने घर की तरफ लौट रहे थे।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


स्वप्निल श्रीवास्तव 

510 – अवधपुरी कालोनी –अमानीगंज 

फैजाबाद -224001 


मोबाइल -  9415332326

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