विनोद दास का आलेख 'आलोचक के सिरहाने कविता - डॉक्टर नामवर सिंह'

 

नामवर सिंह 


हिन्दी आलोचना की कोई बात आज भी प्रोफेसर नामवर सिंह के बिना पूरी नहीं होती। इस बात में कोई दो राय नहीं कि वे विद्वता के पर्याय थे। उनका अध्ययन व्यापक था। इस अध्ययन के चलते ही उनके व्याख्यान सारगर्भित ही नहीं लाजवाब भी होते थे। आज उनके जन्मदिन पर विनोद दास ने एक आत्मीय संस्मरण लिखा है। नामवर जी की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि विनोद दास का आलेख 'आलोचक के सिरहाने कविता - डॉक्टर नामवर सिंह'।


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आलोचक के सिरहाने कविता - डॉक्टर नामवर सिंह'


विनोद दास 

 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि केदार नाथ सिंह के साथ उनके घर में बैठा हूँ। उनसे समकालीन कविता पर संवाद चल रहा है। अचानक वह पूछते हैं, ”नामवर जी से मिले?” उनके इस नुक्ते पर मेरी साँस थोड़ी देर के लिए रुक जाती है। नकार की मुद्रा में सिर हिलाने के साथ मैं कहता हूँ, "नहीं।” न जाने क्यों केदार जी यह सवाल अक्सर पूछते हैं जब मैं उनसे मिलने जाता हूँ। 


दूसरा दृश्य :

यह एक अच्छा संयोग है कि केदार जी के साथ जा रहा हूँ कि सहसा जवाहरलाल नेहरू परिसर के बस अड्डे पर सहसा नामवर जी दिख जाते हैं। केदार जी उनसे मुलाकात कराते हैं। धोती-कुर्ता में सुगठित लम्बी कद-काठी। उन्हें देख कर अनायास डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी की याद आती हैं। नामवर जी मेरी तरफ़ तिरछी नज़र डालते हैं। मेरे नमस्कार का उत्तर देते हुए ठहरी बस पर फौरन चढ़ते हुए केदार जी से कहते हैं कि वह अमुक छात्र को देखने अस्पताल जा रहे हैं। वह सीरियस है।


तीसरा दृश्य :

समकालीन आलोचना के क्षेत्र में आप किन्हें महत्त्वपूर्ण आलोचक मानते है, एक इंटरव्यू के दौरान यह सवाल पूछने पर साहित्य के शीर्ष साहित्यकार अज्ञेय एक दो नाम गिनाने के बाद मुझसे कहते हैं कि “नामवर सिंह जी की आलोचना से कई बार ऐसा लगता है कि साहित्य की समझ तो उनको है लेकिन वह पूरी तरह प्रकट नहीं होती क्योंकि मतवाद के बन्धन के बाहर वह जाना नहीं चाहते। इसलिए जो वह मानते हैं या अनुभव करते है और जो लिखते हैं, उसमें लगातार अन्तर होता है। उनके अनुभव और लिखने में फाँक है।” 


चौथा दृश्य : 

एक कार में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजय देव नारायण साही के साथ मैं भी हूँ। उन दोनों के  बीच इलाहाबाद को ले कर हास-परिहास चल रहा है। उनकी बातचीत की सुई अचानक नामवर सिंह पर ठहर जाती है। साही जी अचानक कहकहा लगा कर कहते हैं कि नामवर की आलोचना पुस्तक “कविता के नए प्रतिमान” के लिए नामवर को मिले साहित्य अकादमी के पुरस्कार का आधा हकदार मैं हूँ। उन्होंने उस किताब में सबसे ज़्यादा मुझे उद्धृत किया है। सर्वेश्वर जी दबी हँसी हँसते हैं। 



कुछ अन्य दृश्यों का कोलाज :

साहित्य संसार में कोई कहता कि इस मुद्दे पर नामवर जी की राय नहीं आई है। उनकी राय को लेकर साहित्य की दुनिया में बेकरारी है। किसी मुद्दे पर कोई कहता कि इस मुद्दे पर नामवर जी  की राय अलहदा है। कोई किसी पुस्तक विमोचन सभा में किसी के कान के पास जा कर फुसफुसा कहता कि यह किताब राजकमल से न छपती अगर नामवर जी सिफ़ारिश न करते। कोई किसी को इशारा कह कर कहता कि उसे नौकरी अमुक कॉलेज या विश्वविद्यालय में नामवर जी की कृपा से मिली है। कोई गुब्बारे से फूला हुआ अपने साहित्यिक मित्रों के बीच गरूर से सिर भारी करके इसलिए टेढ़े-टेढ़े चलता कि उसकी रचना पर नामवर सिंह ने अपने व्याख्यान में जिक्र किया है। उनके समवयसी साहित्यकार चिढ़ते कि काश! नामवर जी कभी मेरी रचना के बारे में कुछ आप्त वचन बोलते। 


यह अद्भुत है कि साहित्य के केन्द्र में कोई रचनाकार नहीं, आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह हैं। 


सच कहूँ! उन दिनों हिन्दी साहित्य की डूबती-उतराती दुनिया में नामवर जी का तिलिस्म मुझे समझ में नहीं आता था। ऐसे क्षणों में अपनी अज्ञानता पर कोफ़्त भी होती थी। नामवर जी की आलोचना जगत में दुन्दुभी बजती थी और मैं उनकी दुनिया से बाहर था।


एक कारण शायद यह था कि मैं तब तक हिन्दी आलोचना कम पढ़ता था। कुँवर नारायण जी के यहाँ “आलोचना” पत्रिका रैक पर रखी देखता था। उसमें आयी कविता को पढ़ कर मैं उसे उलट-पलट कर रख देता था। कभी उसे माँग कर पढ़ने के लिए नहीं ले जाता। हालाँकि “पूर्वग्रह” पत्रिका में प्रकाशित मलयज के आलोचनात्मक लेखों को पढ़ना मुझे प्रिय था। दूसरे, हिन्दी साहित्य का मैं छात्र नहीं था जिसके चलते अकादमिक क्षेत्र में नामवर जी के वर्चस्व के महत्त्व को जानता-समझता नहीं था। खुद कुछ ऐसा लिखा नहीं था कि प्रकाशन के लिए उनकी सिफ़ारिश या उनकी सम्मति के लिए मेरे भीतर कोई ऐषणा हो। नामवर जी के बारे में यह मशहूर था कि वह अद्भुत वक्ता हैं लेकिन मैंने पटना प्रवास के पहले उनका कोई व्याख्यान भी नहीं सुना था। एक तरह से मैं नामवर जी के प्रभामण्डल के बारे में सुनता जरूर था लेकिन वह मुझे एक भ्रम की तरह लगता था। 


साहित्यकार से रिश्ता जोड़ने के लिए उतना मिलना नहीं, जितना पढ़ना जरूरी होता हैं। किताब के पाठ से हम लेखक के रूप-रंग और आँखों को पहचान लेते हैं। उसकी आवाज़ सुन पाते हैं, उसके स्पर्शों को छू पाते हैं, उनके इशारों को समझ पाते हैं, उसके मन को पढ़ पाते हैं। इस दृष्टि से नामवर जी से के रचनात्मक व्यक्तित्व से मेरा पहला परिचय तब हुआ जब पटना में राजकमल प्रकाशन से खरीद कर मैंने उनकी किताब “इतिहास और आलोचना” पढी। उस किताब ने मुझे बाँध लिया। एक तरह से उनकी आलोचकीय ज़मीन से परिचय हुआ। उनके प्रति उदासीनता की बर्फ़ टूटी। फिर मैं उनकी किताब 'छायावाद', 'कविता के नये प्रतिमान' और 'कहानी-नयी कहानी' एक साथ ले आया। उन्हीं दिनों पटना में अरुण कमल के जरिये डॉक्टर नन्द किशोर नवल और डॉक्टर खगेन्द्र ठाकुर से परिचय हुआ। इन तीनों के बातचीत में नामवर जी की चर्चा अनायास आ जाती थी। 


नामवर जी उन दिनों बिहार बहुधा आते थे। मैंने उनके कई व्याख्यान सुने। उनके व्याख्यान इतने सुगठित, सुविचारित होते थे जैसे कोई वह लेख पढ़ रहे हों। यही नहीं, उनके व्याख्यानों में किसी भी विषय को देखने का नज़रिया कुछ अलग होता था। अब मेरा उनके प्रति आकर्षण बढ़ने लगा। आलोचना में मेरी रूचि जगने लगी। डॉक्टर नन्दकिशोर नवल ने आलोचना पत्रिका के लिए एक दो लेख भी लिखवाये। राजेश जोशी जी ने अपनी पत्रिका “इसलिए" के लिए विष्णु नागर पर आग्रह करके मुझसे लिखवाया। 





आपको यह पूर्वरंग उबाऊ लग सकता है और भूल-भुलैया भरा भी। लेकिन नामवर जी से मेरी पहली ठीक-ठाक मुलाक़ात रोचक थी। दरअसल उन समय कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी की किताब "कुछ पूर्वग्रह” प्रकाशित हुई थी। अशोक वाजपेयी की आलोचना की किताब “फिलहाल” मैं पढ़ चुका था। वह किताब मुझे अकादमिक आलोचना से कुछ इतर और विचारोत्तेजक लगी थी। उन दिनों अशोक वाजपेयी की सांस्कृतिक जगत में धूम मची थी। वैसे अभी भी रज़ा न्यास के जरिए मची रहती है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के भरोसेमन्द अफ़सर होने के कारण भारत भवन सरीखे कला भवन का निर्माण करवा कर वह राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुके थे। इसी बीच दिसम्बर 1984 में यूनियन कार्बाइड की कीटाणुनाशक फैक्ट्री में मिथायल गैस रिसाव से भोपाल लगभग 15000 लोगों की मौत हो गयी। लगभग छह लाख लोग इस त्रासदी से प्रभावित हो गये। आजादी के बाद भारत में यह सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी थी। 


भारत भवन में विश्व कविता का आयोजन पूर्व निर्धारित था। भोपाल गैस त्रासदी के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी के बड़े हल्के में इस आयोजन को रद्द करने की माँग उठने लगी। अशोक वाजपेयी इसे आयोजित कराने पर आमादा थे। आयोजन कराने के पक्ष में उनकी यह दलील अत्यन्त असम्वेदनशील थी जब उन्होंने यह कहा कि मरने वाले के साथ लोग मर नहीं जाते हैं। उनके इस वक्तव्य और आयोजन का विरोध पूरे देश में हुआ। 


दिल्ली में मंगलेश डबराल, विष्णु नागर, असद जैदी सरीखे एक युवा रचनाकारों का समूह हमलावर था तो उधर लेखक संघों के साथ “पहल” पत्रिका भी सख्त विरोध कर रही थी। अशोक वाजपेयी ने भव्य आयोजन कराया। जहाँ तक मुझे याद है कि इस आयोजन में रघुवीर सहाय ने भी शिरकत की थी। कुछ समय बाद अशोक जी का अज्ञेय प्रेम उमड़ आया। जिस अज्ञेय को “फिलहाल” पुस्तक में वह बूढ़ा गिद्ध कह चुके थे, वह उन्हें आदरणीय लगने लगे। भारत भवन को अमेरिकी संस्था फोर्ड फाउंडेशन से इमदाद मिल रही है, यह भी आरोप लगने लगा। नामवर जी और अशोक जी के बीच भी खटास आ गयी। पहले नामवर जी भारत भवन के स्टार अतिथि वक्ता होते थे, फिर उन्होंने  वहाँ आना जाना तज दिया। बहरहाल इस माहौल में मुझे “पहल” पत्रिका के सम्पादक ज्ञानरंजन जी ने अशोक जी की आलोचना पुस्तक “कुछ पूर्वग्रह” पर लिखने के लिए आग्रह किया। मैंने कुछ ना-नुकुर की। ज्ञानरंजन जी को जो जानते हैं, वह सहज समझ सकते हैं कि वह कितना दबाब बना कर लिखवाते थे। हालाँकि उन्होंने कभी भी मुझसे किसी लाइन पर लिखने के लिए नहीं कहा। अशोक वाजपेयी की किताब “कुछ पूर्वग्रह” पर मेरा लेख पहल में छपा। मेरा लेख पोलेमिकल था और कुछ तीखा भी। पहल के इसी अंक में अशोक जी की कविताओं पर भी एक क्रिटिकल लेख था। पहल में छपा मेरा लेख खूब पढ़ा गया। अशोक जी के कुछ प्रेमी नाराज भी हो गये। दिलचस्प यह कि अशोक जी ने कभी भी इस लेख के बारे में चर्चा नहीं की। मेरे ख्याल से अपनी आलोचना को ले कर वह थोड़ा सहिष्णु रहते हैं या शायद अपनी आलोचना का जिक्र करने की क्षुद्रता में उनका विश्वास नहीं है।  


वह शाम मुझे हूबहू याद है। 


नामवर जी का पटना में व्याख्यान था। शायद मार्क्स पर। नामवर जी को सुनने के लिए पटना का पढ़ा-लिखा समाज उमड़ पड़ा था। पूरा हॉल भरा हुआ था। अरुण कमल, अपूर्वानन्द और कुछ मित्रों के साथ हॉल के बाहर हम नामवर जी का इन्तज़ार कर रहे थे। जैसे उनकी कार आयी और खगेन्द्र जी के साथ नामवर जी उतरे, अरुण कमल और अपूर्वानन्द अपने कुछ युवा मित्रों के साथ उनकी अगवानी के लिए आगे बढ़े। उनसे अपरिचित होने के कारण संकोच से मैं अपनी जगह ठहरा रहा। नामवर जी अपनी कुर्ता-धोती की धज के साथ भीड़ से घिरे छोटे कदमों के साथ चल रहे थे। नामवर जी वैसे तेज कदमों से चलते हैं लेकिन सभा-गोष्ठियों में उनकी चाल बदल जाती। उनके डग छोटे हो जाते। अचानक मैं देखता हूँ कि वह मेरे सामने खड़े हैं। हडबडा कर मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। वह कहते है, विनोद दास जी! आपने अशोक पर बहुत अच्छा लिखा।” मैं सकपका गया। समझ नहीं पाया कि क्या कहूँ। मेरे होंठ इतना भर कहते है, ”जो मेरी थोड़ी समझ थी, वैसा लिखा।” “नहीं! विनोद दास जी आपने जैसा लिखा, वैसा मैं भी नहीं लिख सकता था। आपने अशोक के अंतर्विरोधों को सही पहचाना।’ मेरी घिग्घी बँध गयी। हाथ जोड़ कर कहा, “ऐसा कुछ नहीं”। नामवर जी आगे बढ़ गये। नामवर जी का उस रोज़ व्याख्यान अद्भुत था। उस दिन मेरा ध्यान उसके शब्दों पर कम केन्द्रित हो रहा था। मेरे कानों में बस नामवर जी के शब्द रह रह कर कौंध रहे थे। अगले दिन उन्होंने खगेन्द्र ठाकुर जी से मुझसे मिलाने को कहा। वह राजकीय अतिथि निवास में ठहरे थे। खगेन्द्र जी के साथ उनसे मिलने गया। उन्होंने वही बात दोहरायी और यह जोड़ा कि आलोचना पत्रिका में मैं लिखूँ। जब मैंने कहा कि डॉ नन्द किशोर नवल जी ने कुछ समीक्षाएँ लिखवायी हैं। इस पर उन्होंने कहा, “आप जो भी लिखना चाहे, लिख कर सीधे मुझे भी भेज सकते हैं।”

 

फिर मेरा तबादला लखनऊ हो गया। लिखना थोड़ा बाधित हो गया। फिर मैंने कविता की एक छोटी पत्रिका “अंतर्दृष्टि” निकालनी शुरू की। उन्हें पत्रिका अच्छी लगी। शमशेर बहादुर सिंह से लिया मेरा साक्षात्कार उन्हें पसन्द आया। इसी बीच पहल  पत्रिका में केदार नाथ सिंह के कविता संग्रह “अकाल में सारस” पर मेरी लिखी समीक्षा छपी। समीक्षा केदार जी की काव्य दृष्टि को रेखांकित करते हुए थोड़ा क्रिटिकल थी। केदार जी रुष्ट हो गए थे। वे दिन नहीं रहे जब दिल्ली जाने पर जेएनयू जाने का उत्साह केदार जी से मिलने के लिए होता था। दरअसल नामवर जी भी वहीं रहते थे। 


एक दोपहर जब मैं एक बैठक में भाग ले कर लखनऊ स्थित अपने दफ़्तर की सीट पर लौटा, मेरे वरिष्ठ सहकर्मी ने लगभग चकित स्वरों में बताया कि डॉक्टर नामवर सिंह आपसे मिलने आए थे। उनके साथ हिन्दी संस्थान के निदेशक मधुकर द्विवेदी भी थे। वह होटल में ठहरे हैं। शाम को मिलने के लिए आमन्त्रित किया है। यह भी कहा है कि इसकी खबर कामता नाथ जी को भी मैं दे दूँ। कामता नाथ जी का दफ़्तर भारतीय रिज़र्व बैंक मेरे बैंक के करीब ही था। मैंने उन्हें खबर पहुँचा दी। दरअसल हिन्दी संस्थान पुरस्कार समिति की बैठक में हिस्सा लेने नामवर जी लखनऊ आए थे। 


जब मैं शाम को उनसे मिलने होटल पहुँचा तो होटल की लॉबी में कामता नाथ जी और कवि कुबेर दत्त मिल गये। कुबेर दत्त दूरदर्शन में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव थे। दूरदर्शन पर प्रसारित विनोद दुआ के लोकप्रिय कार्यक्रम जनवाणी के संयोजक भी रह चुके थे। उन दिनों कुबेर दत्त का तबादला सज़ा के तौर पर लखनऊ कर दिया गया था। मयनोशी में कुछ अराजक होने के बावजूद कुबेर दत्त गर्मजोशी से भरे एक अद्भुत सृजनात्मक व्यक्तित्त्व थे। लखनऊ दूरदर्शन के लिए उन्होंने महादेवी वर्मा को राज़ी कर के उन पर कई एपिसोड का एक ऐतिहासिक कार्यक्रम तैयार किया था। हम तीनों साथ ही नामवर जी के कमरे में गये। कुबेर दत्त के पास अखबार में लिपटी सुरा की बोतल भी थी। मेरे लिए चाय मँगायी गयी। उस रात नामवर जी को मैंने नए रंग में देखा। कुबेर दत्त ने भी नामवर जी से कुछ निजी अटपटे सवाल पूछे। नामवर जी उन सवालों से जरा भी विचलित नहीं हुए। कुबेर दत्त की उदंडता को लेकर जितना मैं भौचक और दुखी था, नामवर जी की सहनशीलता देख कर उतना ही अधिक उनका प्रशंसक बन गया। पान रंगे दाँतों की मन्द-मन्द मुस्कराहट के साथ दूरदर्शन के किस्सों से ले कर धर्मवीर भारती, अज्ञेय, कमलेश्वर के बारे में उन्होंने अपनी बेबाक राय रखी। बातचीत के क्रम में उन्होंने यह जरा भी नहीं जताया कि एक कम उम्र का कवि उनकी निजी बातें सुन रहा है। चलते समय मैंने नामवर जी से कहा कि आप लखनऊ आये हैं तो इसका लाभ लखनऊ के रचनाकारों को मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि जरूर! मैं तैयार हूँ। आप जहाँ कहेंगे, मैं हाज़िर रहूँगा। 


सच कहूँ! उनकी बात पर मुझे यकीन नहीं हो रहा था। 


गेंद अब मेरे पाले में थी। मेरे पास कोई ऐसी जगह का बन्दोबस्त न था जहाँ उनका कार्यक्रम कराया जा सके। सहसा मुझे उनके एक शिष्य की याद आयी जो एसूरेंस कम्पनी में हिन्दी अधिकारी थे। उनका एक ट्रेनिंग सेन्टर इन्दिरा नगर “बी” ब्लॉक में था। अगली शाम के लिए वहाँ आयोजन तय हो गया। फोन से अपने परिचितों को खबर मैंने कर दी। अनौचारिक बातचीत की रूपरेखा थी। कुँवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल, मुद्राराक्षस, कामता नाथ, रवीन्द्र वर्मा, रमेश दीक्षित, अजय सिंह, राकेश, वीरेन्द्र यादव आदि आ गये थे। अधिक लोग नहीं थे। अचानक नामवर जी ने कहा कि विनोद दास जी, किस विषय पर आप सुनना चाहते हैं? इस पर वीरेन्द्र यादव जी ने कहा कि वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य पर आपकी राय हम जानना चाहते हैं। 


नामवर जी वक्तव्य की मुद्रा में आ गये। उन्होंने अपना व्याख्यान गाँधी और टैगोर के पत्राचार से शुरू किया जिसमें दो दृष्टियों की टकराहट को रेखांकित करते हुए उन्होंने उनकी परिवर्ती सहमति बिन्दुओं पर प्रकाश डाला। फिर बताया कि आज़ादी के बाद नेहरू ने किस तरह देश के सभी मुख्य सड़कों का नाम महात्मा गाँधी रोड और देश के सभी महत्त्वपूर्ण नगरों में रवीन्द्रालय के नाम से कला भवनो के निर्माण के लिए आदेश जारी किया था।फिर नामवर जी ने भारत भवन की सांस्कृतिक चेतना की आलोचना की। उनके व्याख्यान के बाद रमेश दीक्षित और अजय सिंह ने कुछ सवाल पूछे। मैं इस व्याख्यान को अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना चाहता था लेकिन टेप रिकॉर्डर पर उसकी रिकॉर्डिंग की गुणवत्ता खराब होने के कारण ऐसा न हो सका। मैं इस बात पर हतप्रभ था जिस नामवर सिंह को सुनने के लिए पटना में डॉक्टर खगेन्द्र ठाकुर को इतना तामझाम करना पड़ता था, वह इतनी सहजता से लखनऊ में सम्पन्न हो गया था जबकि मैं न तो नामवर जी का कभी छात्र रहा था और न ही उनकी पाँव पूजामण्डली का सदस्य। निश्चय ही यह नामवर जी की सदाशयता थी।   


उनकी सदाशयता की दूसरी मिसाल जयपुर में देखने को मिली। जयपुर के वरिष्ठ कवि और सम्पादक चन्द्रभान भारद्वाज दिल्ली नामवर सिंह से अपनी किताब का विमोचन उनसे कराने के लिए गए तो उन्होंने बताया कि वह जयपुर विश्वविद्यालय की बैठक में जल्दी आने वाले हैं, तब आप कर लीजियगा लेकिन यह कार्यक्रम का आयोजन विनोद दास की देखरेख में होगा। चन्द्रभान भारद्वाज वरिष्ठ कवि थे। “सम्प्रेषण” नामक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन भी करते थे। वह मुझ से मिलने घर आए। कार्यक्रम आयोजित करने के लिए मुझ पर नैतिक दबाव बनाया। मैं कार्यक्रम करने की स्थिति में नहीं था। दुबारा फिर घर आये और कहा कि उन्होंने नामवर सिंह से फोन पर बात की है। नामवर जी ने आपसे ही सम्पर्क करने को कहा है। मेरे लिए यह बड़ी चुनौती थी कि जयपुर सरीखे नए शहर में साधनहीन होने के बावजूद यह आयोजन कैसे सम्पन्न कराया जाए। नामवर सिंह जी से मेरी कोई बात नहीं हुई थी। मैंने जवाहर कला भवन के वरिष्ठ अधिकारी और कवि हेमन्त शेष से सम्पर्क किया लेकिन उन्होंने नियमों का हवाला दे कर मना कर दिया। आखिरकार अपने सहयोगी सुनील पाण्डेय के सहयोग से राधाकृष्ण राजकीय लाइब्रेरी में जगह मिल गयी। राजस्थान पत्रिका के एक कोने में भारद्वाज जी ने अपने किताब की विमोचन की खबर प्रकाशित कराई थी। सुखद यह रहा कि वह सभागृह भर गया। नामवर जी ने किताब का विमोचन किया। हमेशा की तरह विचारोत्तेजक भाषण दिया जिसमें उन्होंने यह रेखांकित किया कि लोकतन्त्र में सिर्फ़ चुनाव को ही प्राथमिकता देना उसके मूल प्रकृति को कमतर करना है। हिटलर भी चुनाव जीत कर आया था। अगले दिन नवभारत टाइम्स के पहले पन्ने पर इस कार्यक्रम की रिपोर्ट कवि-पत्रकार संजीव मिश्र ने की। इन दोनों प्रसंगों का उल्लेख करने के पीछे यह संकेत करना था कि नामवर जी हमेशा हानि-लाभ का गणित नहीं करते थे। मुझे नहीं लगता था कि मैं उनके किसी काम आ सकता था। फिर भी उन्होंने मुझ पर भरोसा किया। 





नामवर जी अपनी आलोचना पत्रिका के लिए रचनाएँ जुटाने हेतु एक सतर्क आँख रखते थे। लखनऊ के दौरे के समय उन्होंने आलोचना पत्रिका के लिए युवा कवियों मंगलेश डबराल, असद जैदी, विष्णु नागर, अरुण कमल, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल आदि पर आलोचना की एक शृंखला चलाने का प्रस्ताव मुझे दिया। प्रस्ताव मूल्यवान था। लेकिन आलोचना लिखने से मेरा मन उचट गया था। जब मैंने कहा,” अब मैंने आलोचना न लिखने का फैसला लिया है।” शायद वह कुछ भाँप गये थे। उन्होंने कहा कि आपने “बाबू साहेब” पर ठीक लिखा था। एक क्षण तो मैं समझ नहीं पाया कि वह बाबू साहेब किसे कह रहे हैं। फिर ख्याल आया कि शायद वह कवि केदार नाथ सिंह का ज़िक्र कर रहे हैं। अगर मैं उस दिन नामवर जी का प्रस्ताव मान जाता तो शायद आलोचना में कुछ हाथ आजमा लेता। यह सोच कर आज अफ़सोस होता है कि आलोचना पत्रिका के लिए उस समय कुछ नहीं लिख पाया जबकि उन्होंने मेरी पतली छोटी सी पत्रिका “अंतर्दृष्टि” के लिए दो अंकों में अपने दो लेख भी दिए जो शायद उनके व्याख्यान थे। 


नामवर जी विनोदप्रिय भी थे। कोई हास्यभरी उक्ति या मज़ाक करके जब वह मुस्कारते थे तो उनकी हँसी में मुझे उनके गुरुवर हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की निर्मल छाया दिखती थी। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की चर्चा चली है तो सहसा मेरे मन में कौंधता है कि नामवर जी अपने व्याख्यान में किसी न किसी प्रसंग में अपने गुरु द्विवेदी जी और रवींद्र नाथ ठाकुर का जिक्र ज़रूर करते थे। उनका यह गुरु प्रेम मुझे कुछ-कुछ नामवर सिंह के शिष्य डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी में भी दिखता है। हाँ तो नामवर जी की विनोदप्रियता की बात हो रही थी। उनकी विनोदप्रियता की मीठी मार एक बार सार्वजनिक रूप से मुझे भी सहनी पड़ी। उस वर्ष श्रीकान्त वर्मा सम्मान के लिए मुझे चुना गया था। कार्यक्रम त्रिवेणी सभागार में चल रहा था। मंच पर केदार नाथ सिंह, नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी थे। संचालन कवि-गद्यकार अजित कुमार कर रहे थे। हॉल खचाखच भरा था। आगे की कुर्सियों पर डॉक्टर मैनेजर पांडेय, अशोक वाजपेयी, कुँवर नारायण, मनोहर श्याम जोशी आदि आसीन थे। निर्णायक समिति में शायद नामवर जी, कृष्णा सोबती जी, मनोहर श्याम जोशी जी, विष्णु खरे और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी थे लेकिन विष्णु खरे और कृष्णा सोबती जी सभा में मुझे नहीं दिखायी दिए। अध्यक्ष रूप के रूप में नामवर जी को बोलना था। उन्होंने मुझे बधाई देते हुए चुटकी ली कि विनोद दास उतने उम्रदराज़ नहीं हैं जितना बाहर से दिखते हैं। दरअसल उनका इशारा मेरे सिर पर कम केशों को ले कर था। उनकी इस उक्ति पर पूरा हॉल ठहाकों से भर गया। मुझे भी कुछ झेंप लगी। अपने लेखों और व्याख्यानों में भी उनके हास-परिहास के अनेक रूप देखने को मिलते थे। उस सभा में बोलते हुए अपने आत्मकथ्य में मैंने यह स्वीकार किया कि जब मैं राज्यसभा सचिवालय में कार्यरत था, तब श्रीकान्त वर्मा भी राज्य सभा सदस्य थे लेकिन आपातकाल में काँग्रेस की भूमिका ले कर उनसे मिलने के लिए कभी मेरे मन में उत्साह नहीं जगा जबकि मैं उनकी कविताओं और अनुवादों का प्रशंसक था। यह बात नामवर जी को नागवार लगी और उन्होंने इस पर तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। 


नामवर जी से मेरा संवाद विरल था। वैसे कोलकाता में जब भी कोई उनका व्याख्यान होता तो मैं सुनने जरूर जाता। नामवर जी का दूसरी भाषाओं के साहित्यिक समाज में भी सम्मान था। यह सम्मान उन्होंने अपनी मेधा, श्रम और व्यक्तित्व से अर्जित किया था। जहाँ वह अपने व्याख्यानों के लिए सुव्यवस्थित तैयारी करते थे, वहीं दूसरी और उनकी सबल स्मृति उनका बड़ा सम्बल थी। उन्होंने नज़रूल शताब्दी पर जब टैगोर और नज़रूल की कविताओं का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए अपना व्याख्यान कोलकाता में दिया तो हॉल में बैठे बांग्ला के अनेक लेखकों और विद्वानों को मैंने यह कहते हुए सुना कि यह अद्भुत व्याख्यान था। पश्चिम बंगाल में किसी गैर बांग्लाभाषी के लिए बांग्लाभाषियों से प्रशंसा पाना कितना मुश्किल होता है, यह केवल वहाँ रह कर ही समझा जा सकता है। 


इसी प्रकार नामवर जी का सम्मान ज्ञान के दूसरे क्षेत्र के अनुशासनों के विद्वानों में भी था। एक बार दिल्ली के कांस्टीटूयशन क्लब में राष्ट्रीयता पर एक संवाद आयोजित था जिसमें इतिहास के विद्वान और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विपिन चन्द्र मुख्य वक्ता थे। नामवर जी कार्यक्रम के अध्यक्ष थे। जयपुर से संयोग से मैं दिल्ली आया हुआ था। मुझे याद है कि उस संगोष्ठी में नामवर जी ने अपने अध्यक्षीय अभिभाषण में विपिन चन्द्र की राष्ट्रीयता के बारे में की गयी एक-दो स्थापनाओं को प्रश्नांकित किया था। यही नहीं, उनके खतरों के बारे में भी सुझाया था। उस दिन उन दोनों में तीखी नोक-झोंक भी हुई। पहली बार इस तरह दो बड़े विद्वानों की बीच वाद-विवाद और सम्वाद का अपूर्व दृश्य मुझे देखने को मिला। सुनते हैं कि ऐसे दृश्य जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आम थे जहाँ उन्होंने लम्बे अरसे तक अध्यापन किया था। यही नहीं, उनकी अध्ययनशीलता और विश्लेषण शक्ति के प्रति दूसरे ज्ञान-विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वानों के बीच उनका गहरा सम्मान भी था। उस दिन यह लगा कि काश! मुझे  भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने का अवसर मिला होता। नामवर जी ने जिस तरह वहाँ का पाठ्यक्रम तैयार किया और उर्दू तथा हिन्दी को जोड़ने का काम किया, वह सचमुच ऐतिहासिक था। इसी तरह संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष ए. आर. किदवई के अनुरोध पर हिन्दी को आयोग में लागू करने और उसका पाठ्यक्रम तैयार करने में उनके अपूर्व योगदान को नहीं भूलना चाहिए।    


कोलकाता की एक सुबह थी। 

मैं दफ़्तर जाने की तैयारी कर रहा था। अचानक फोन की घंटी बजी। 


रिसीवर से आवाज़ आयी। ”मैं नामवर सिंह बोल रहा हूँ।” मैं अकबका गया। नमस्कार किया। नमस्कार का उत्तर दे कर उन्होंने कहा, ”आप वागर्थ बहुत शानदार निकाल रहे हैं।” मैं हतप्रभ था कि उन्हें मेरे घर का फोन नम्बर कहाँ से मिला। बहरहाल उन्होंने बधाई दे कर मेरी सुबह खुशनुमा बना दी। 





वागर्थ में नामवर सिंह का इंटरव्यू प्रकाशित करना चाहता था। उनके इंटरव्यू बहुतायत में छपते रहते थे। इसका एक कारण था कि उनसे लिखित लेख प्राप्त करना सबको कठिन लगता था। अपने विचारों को मौखिक रूप से व्यक्त करने में नामवर जी दक्ष थे। मेरी इच्छा थी कि उनका यह साक्षात्कार कुछ अलग हो। नामवर जी ने स्त्री लेखन के बारे में क्या राय रखते हैं, इस पर कभी उन्होंने कुछ अपने विचार व्यक्त नहीं किए थे। उनके इस अज्ञात पक्ष पर इंटरव्यू के लिए कवयित्री अनामिका जी से अनुरोध किया। उदारमना अनामिका जी राज़ी हो गयीं। अनामिका जी का कहना था कि मैं नामवर जी को इसके लिए राज़ी करा लूँ। नामवर जी जब बात हुई तो वह इंटरव्यू के लिए राजी हो गए लेकिन वह इस विषय पर अनामिका जी से इतर किसी और से बातचीत के लिए इच्छुक थे। नामवर जी की यह सदाशयता थी कि बाद में मेरे दृढ़ आग्रह के बाद वह इंटरव्यू देने के लिए राजी हो गए। वह इंटरव्यू वाकई कुछ अलग था।


नामवर जी ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी से ले कर देश की अनेक अकादमियों की पुरस्कार समितियों में रहते हुए अनगिनत वरिष्ठ और युवा लेखकों के मस्तक पर गौरव मुकुट पहनाते थे लेकिन वरिष्ठ आलोचकों के लिए ऐसे सम्मानों का प्रावधान तब संस्थाओं में कम था। जिन दिनों मैं भारतीय भाषा परिषद से जुड़ा था, वहाँ उन दिनों 2001-02 के लिए भारतीय भाषाओँ की सृजनात्मकता को सम्मानित करने के लिए रचना समग्र पुरस्कार देने पर विचार चल रहा था। उर्दू, मराठी, उड़िया, कन्नड़, बांग्ला, राजस्थानी और हिन्दी के लिए पुरस्कारों के लिए लेखकों से नाम आमन्त्रित किए गए थे। अन्तिम चयन सूची के निर्णय के लिए विचार-विमर्श के बाद जो नाम तय किए गए, उनमें यू. आर. अन्नतमूर्ति (कन्नड), सीताकान्त महापात्र (उड़िया), दिलीप चित्रे (मराठी), बादल सरकार (बांग्ला), बलराज कोमल (उर्दू), डॉक्टर नामवर सिंह (हिन्दी), विनोद कुमार शुक्ल (हिन्दी), श्याम महर्षि (राजस्थानी) थे। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इन नामों के चयन में परिषद की समिति और सचिव ने मुझसे भी परामर्श किया था। मेरी संस्तुति पर उदारतापूर्वक विचार किया था। 22 मार्च 2003 को भारतीय भाषा परिषद के सभागार में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांग्ला की समादृत लेखिका और समाज सेवी महाश्वेता देवी की अध्यक्षता में यह भव्य आयोजन हुआ। इस कार्यक्रम का निमन्त्रण पत्र अत्यन्त कलात्मक था जिसकी अनूठी कल्पना परिषद की सचिव डॉक्टर कुसुम खेमानी ने की थी। समकालीन समय की चुनौतियों पर दूसरे सत्र में परिसम्वाद था जिसमें पुरस्कृत लेखकों के अलावा आलोचक डॉ शम्भू नाथ, उत्तम सेन गुप्ता और खाकसार भी था। शाम को विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं पर रंगकर्मी परनब मुख़र्जी द्वारा तैयार किये गये नाट्य कोलाज की अद्भुत सृजनात्मक प्रस्तुति हुई। नामवर जी को जब बांग्ला की कथाकार महाश्वेता देवी सम्मानित कर रही थीं तब उनकी आँखों में मुझे वैसी ही चमक दिख रही थी जिस तरह किसी युवा लेखक की आँखों में होती थी जब वह उसे स्वयं अपने हाथों से पुरस्कृत करते थे। 


नामवर जी से शिकायतें भी रही हैं। वह कभी-कभार कुछ ऐसा करते थे कि अनेक बार हम हतबुद्धि रह जाते थे। आरक्षण पर उनका नकारात्मक वक्तव्य कि आरक्षण रहा तो ब्राह्मण, क्षत्रिय के लड़के भाड़ झोंकेगे तो कभी किसी अधिकारी की किताब का विमोचन करते हुए उसे मुक्तिबोध के समकक्ष बताना सरीखे ऐसे अनेक प्रसंग रहे है जिनको ले कर हमारे जैसे उनके अनेक प्रशंसकों को गहरी निराशा भी होती रही है। यह अकारण नहीं था कि नामवर जी के शुरुआती दौर में किसी के नामोल्लेख से साहित्य में उसकी रचनाओं को पाठक और साहित्यकार उत्साह से खोजते थे, वहीं बाद में उनके वक्तव्यों की साख का आलम यह हो गया था कि हिन्दी के कवियों-कथाकारों की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में उनके नामोल्लेख से लोग बस हँस कर उसे टाल देते थे। एक ऐसा पढ़ा-लिखा विद्वान् और सांस्कृतिक-अकादमिक दुनिया का महाबली किन कारणों से अपने जीवन के आख़िरी चरण में एक ऐसे सांस्कृतिक आयोजन में अपने सम्मान के लिए आतुर होकर जाता है जिसकी वैचारिक नीतियों का वह आजन्म विरोध करता रहा हो, इसकी गुत्थी मुझे कभी समझ में नहीं आयी। विडम्बना यह कि उस सम्मान में नामवर जी का सार्वजनिक रूप से अपमान होता है और भारत का सबसे प्रखर वक्ता ऐसे समय पर चुप रहता है। क्या यह उनकी अपनी बढ़ती उम्र के असर था या वह भीतर से ऐसे ही थे जिसे उन्होंने विचारों के कुर्ते के नीचे ढांप रखा था या यह ऐसा समय था जब हर शय बिकने के लिए तैयार था तो उस दौर में उनकी यह फिसलन थी, मैं कह नहीं सकता। मनुष्य के ऐसे क्षरण पर अध्ययन करने की ज़रूरत है कि किन स्थितियों में वह अपनी आस्था को तिलांजलि देकर अंतर्विरोधों की पोटली बन जाता है। एक बात मैंने और नोट की थी कि सत्ता के शीर्ष लोगों से हेलमेल रखने की ललक नामवर जी में थी। राजनेता चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, नटवर सिंह से अपनी मैत्री का प्रदर्शन करने में वह गौरव महसूस करते थे। तुलसी दास पर डॉक्टर राम विलास शर्मा ने क्यों नहीं लिखा, इस पर बात करते हुए लक्ष्मण यादव से नामवर जी एक इंटरव्यू में कहते हैं कि “हम लोग आमतौर से द्विधा विभक्त होते हैं। दो हिस्से होते हैं आदमी के। अपने लोक जीवन की एक सीमा होती है और आदर्श जो सोचते हैं, वह भावलोक है जिसमें हम मुक्त होना चाहते हैं।” मुझे लगता है कि यह बात स्वयं नामवर जी पर भी लागू होती है।   





नामवर सिंह की साहित्य के अलावा अन्य कलाओं में रूचि कम थी। उनकी छवि बेहद गम्भीर विद्वान की थी। एक बार मुम्बई विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में आये तो विविध भारती के उद्घोषक युनूस खान ने मुझसे नामवर जी से फिल्मों के बारे में एक इंटरव्यू करने के लिए आग्रह किया। पहले नामवर जी ने किसी दूसरे विषय पर बातचीत करने के लिए जोर दिया लेकिन बाद में वह फिल्मों पर बातचीत के लिए तैयार हो गये। उन्होंने पहली फिल्म कब देखी और उसका उनके मानस पर क्या प्रभाव पड़ा, यही नहीं, उन्होंने अपनी पसन्द की सिनेतारिकाओं के बारे में भी उत्साह से बताया। इस बातचीत से मुझे उनकी उन संवेदनाओं के अवयवों का पता चला जिससे उन्होंने अपनी आलोचना की रूखे सूखे गद्य को सरस बनाने में सफलता मिली थी। 


उनसे आख़िरी मुलाक़ात मुम्बई के उस आयोजन में हुई थी जिसे केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा ने आयोजित किया था। दोपहर में भोजन करते समय भी वह मुझसे मुम्बई महानगर के साहित्यिक परिदृश्य के बारे में चर्चा करते रहे। शायद ऐसी हल्की-फुल्की गपशप उनके स्वभाव का हिस्सा रहा है जो उनके लिए सूचना तन्त्र की तरह काम करता था। यह अकारण नहीं था कि देश के हर शहर के साहित्यिक तलघर में क्या पक रहा है, इसकी ख़बर उन्हें सबसे अधिक रहती थी। खानपान में उनका सन्तुलन मैंने कई बार देखा था। उनके सुगठित शरीर का भी यह एक राज़ था। एक राज उन्होंने मुझसे यह भी साझा किया था कि वह रात में चावल नहीं खाते और सोते समय कविता की कोई किताब उनके हाथ में ज़रूर होती है। कविता पढ़े बिना वह नहीं सोते। यहाँ यह उल्लेख करना असंगत न होगा कि नामवर जी मूलतः कवि थे। वह शुरुआती दौर में कविता लिखते थे और मंचों पर कवितापाठ भी करते थे।  


हिन्दी में आज ऐसे कितने कविता के आलोचक हैं जिनके सिरहाने मोबाईल की जगह कविता की किताब होती है, मैं नहीं जानता। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे आलोचक विरल ज़रूर होते जा रहे हैं।



विनोद दास 



सम्पर्क 


मोबाइल : 09867448697

टिप्पणियाँ

  1. निस्संदेह वे नामवर ही रहेंगे......बेमिसाल, नायाब और हिंदी साहित्य जगत की हस्ती;सारगर्भित आलेख के लिए साधुवाद

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