अरुण देव द्वारा कुमार अंबुज की चयनित 75 कविताओं पर समीक्षा 'असंभव का संभव प्रयास'


कुमार अंबुज 


आमतौर पर कवियों के कविता संग्रह से हम उसकी सोच और संवेदनाओं से परिचित होते हैं। लेकिन जब बात कवि की  चयनित कविताओं के संग्रह की हो, तो अभिप्राय बदल जाते हैं। संकलनकर्ता को कविताएं संकलित करते समय हमेशा सजग और सतर्क रहना पड़ता है क्योंकि उसके सामने कवि की श्रेष्ठतम कविताएं प्रस्तुत करने की चुनौती होती है। यह चुनौती तब और कठिन हो जाती है जब बेहतरीन कविता लिखने वाले कवि का चयनित संग्रह तैयार करना हो। कुमार अंबुज हमारे समय के उम्दा कवि हैं। अरुण देव ने उनकी पचहत्तर कविताओं का एक संकलन तैयार किया है। अरुण खुद भी कवि हैं। कविता के मर्म को अच्छी तरह जानते पहचानते हैं। कुमार अंबुज की कविताएं संकलित करते समय उनका यह हुनर काम आया है और उन्होंने कविताओं का बेहतरीन चयन किया है। इस संकलन पर एक नज़र डाली है कवि यतीश कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अरुण देव द्वारा कुमार अंबुज की चयनित 75 कविताओं पर समीक्षा 'असंभव का संभव प्रयास'।



असंभव का संभव प्रयास

 (75 कविताएँ - कुमार अम्बुज)

कविताओं का चयन- अरुण देव 


यतीश कुमार


कविता संग्रह पर अपनी बात रखने से पहले इस संग्रह की कविताओं के संकलनकर्ता अरुण देव अपनी प्रस्तावना में बहुत सुंदर और संदर्भगत बात कहते हैं कि यह असंभव का संभव प्रयास है। अर्जित जिजीविषा और स्मृति का सातत्य है कविता। उनकी इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ कि यहाँ शब्द अपने अर्थ में अधिकतम कविता संभव करते हैं। चार सौ कविताओं में से पचहत्तर कविताएँ चुनने में अरुण जी को कितनी मशक़्क़त करनी पड़ी होगी, यह हर वह पाठक समझ सकता है जिसने कुमार अम्बुज की किसी भी कविता की किताब को पढ़ा होगा।


नागरिक की तरह धीरे-धीरे अनाथ होते देखना और देखना निडरता को धीरे-धीरे चूसते हुए स्वार्थ को! यहाँ जो धीरे-धीरे घट रहा है वह पढ़ते हुए बहुत तेज़ी से धक से कील की तरह चुभता चला जा रहा है। कविता अपना काम कर रही है। उसके कई कामों में एक काम जगाना भी है। जगाते हुए चुभाना है और बताना है कि मत देखो पड़ोसी के दुःख को, पड़ोस के दुःख की तरह।


कविता के केंद्र में विचार है और अमूर्त को मूर्त किया जाता है, अनुभव का आवरण चढ़ा कर। डर जब सामूहिक स्थिति है, तब कवि निर्भीक लिखता है 


“मैं डरता हूँ कि एक डरे हुए निडर समाज में रहता हूँ।” 


कवि की पैनी दृष्टि उस कोने पर पड़ती है जहाँ सूर्य किरण वक्र होकर बिखर जाती है। उजाड़ और मनुष्य का अकेलापन, दोनों के इस विडंबना-भाव को महसूस करता है कवि और रच देता है कविता, 'उजाड़’। 


सामान्य सी चीजों से असामान्य अनुभूति को पृथक करने की कला, प्रकाश में स्मृति की सुरंग का रास्ता दिखा देती है और अपनी दोहराई ग़लतियों को सुधारने का निहित संदेश भी आपके सामने प्रस्तुत हो जाता है। कविता का जादू इसे ही कहते हैं।  


कवि का कर्म बदलाव को रेखांकित करना भी है, ख़ासकर वैसे बदलाव को, जो बवंडर की तरह नहीं अपितु घास के रंग की तरह आये। पहले हरी फिर पीली फिर सफ़ेद और बदल कर फिर हरी हो जाये, ऐसे  बदलाव का पता ही नहीं चल पाता। यहाँ तक कि आज घास प्लास्टिक की भी हो गई है और हम उसकी हरियाली से खुश हैं और सच में हम अब आदी हो गए हैं कृत्रिमता को प्राकृतिक समझने के। इसलिए कवि कहता है, क्रूरता जब आएगी तब लंबे समय तक हमें पता ही नहीं चल पाएगा उसका आना। क्या पता वो व्याप्त हो आज पूरी तरह, ज़रा नज़र घुमा कर देख लो अपने भीतर भी और बाहर भी शायद इसके कुछ छींटे तुम्हारे मन पर भी मिल जाएँ। 


कवि सही कोशिश तो कर रहा है, अदृश्य को दृश्य में लाने की। एक अनवरत प्रयास, अदीठ को दीठ बनाने का। 


“मैं कई रातों से परेशान हूँ

चंदेरी के सपने में दिखाई देते हैं मुझे

धागों पर लटके हुए कारीगरों के सिर”


मैं अब आगे नहीं बढ़ पा रहा, अब जैसे वे धागे उलझ चुके हैं मुझसे, मेरे पैरों से, बदलाव की उम्मीद के धागे हैं, जो मुझे उसका कारक बना कर कारण के निदान की माँग कर रहे हैं। कविता की ऐसी जादुई शक्ति से परिचित एक पाठक बस अभी कुछ देर मौन चाहता है पर अगले ही पल इसी मौन को निगलने आ गई है अगली कविता, 'चुपचाप’। 


फिर कहता हूँ कवि की पैनी नज़र हर उस नकारात्मक या सकारात्मक बदलाव पर है, जो चुपचाप घटित होता जाता है, जिसके होने का अहसास वातावरण को भी नहीं कि कैसे साँसे उसकी भी घटती जा रही हैं। जीने के अन्दाज़ का आयतन घटता जा रहा है, जबकि विज्ञान कह रहा है औसत उम्र हर रोज़ बढ़ रही है। लोग अमरता की ओर बढ़ रहे हैं, पर क्या करेंगे इतने सारे नकारात्मक बदलाव के साथ लम्बी उम्र जी कर। सच कितना दुष्कर हो जाएगा यूँ  जीना, जब होता जा रहा है कल, आज से ज़्यादा दुष्कर!






असल में यह सब सामाजिक जीवन में आये हस्तक्षेप के इर्द गिर्द घूम रहा है। इस हस्तक्षेप से उठती आवाज़ कवि की नींद की छाती पर बैठ गई है और कवि की कराह चिह्नित कर रही है हर उन आवाज़ों को, जिन्हें नींद नहीं आ रही और जिनके कानों में गूँज रही है कविता 'रात तीन बजे।'


'किवाड़’ कविता पढ़ते हुए लगा, कविता का कहन कैसा होना चाहिए इसे समझने के लिए, इससे सुंदर कविता भला और क्या होगी। कवि प्यासे कंठ वाली गौरैया के लिए उतना ही चिंतित है, जितना पतंग उड़ाने की उम्र में, पतंग बनाने वाले बच्चों के लिए। कवि उदास है ‘उदास’ कविता लिख कर और पाठक उदास है समय की इस बेबसी पर, जो सब जानता है फिर भी ख़ुद को नहीं कह पाता, रिस्टार्ट!


मामूली को ख़ास बनाने वाला कवि, अनचिन्ही चीजों पर रखता है अपनी नज़र। अभी-अभी मैं कुछ पंक्तियों से दोबारा गुजर रहा हूँ और गुजरते हुए दर्दीले शब्दों से नहा गया। लिखा है -


एक बेताल है मेरे भीतर

जो हमेशा मेरे बाहर विचरता है 

बाहर कुछ भेड़िये शब्द हैं 

जो मेरे भीतर घात लगाये बैठे हैं

बेचैनी एक जोक की तरह

ज़िंदगी की पिंडली पर चिपकी हुई

भटक रहा हूँ मैं दसों ज्ञात दिशाओं में

संवेदनाएँ मुझे

स्पंज की तरह निचोड़ रही हैं।


द्वन्द में फँसा कभी, अभी इसी समय युद्ध करना चाहता है। तोड़ना चाहता है सब मरीचिका और जीना चाहता है इस पल को इसी पल में ! 


दोस्त के पिता की मौत पर कवि लिखता है -


जो कंधा दे रहे थे 

वे एक तरफ़ से भीग रहे थे कम

बारिश में दहक रही थी चिता


कवि के भीतर बारिश हो रही होगी संवेदनाओं की, सांत्वना देने के लिए कोई शब्दों से ख़ाली हो गया होगा वह और उसकी स्मृति भी। आगे रुक कर विस्मृति से जागता हुआ वही कवि दूसरी कविता में लिखता है -


“पिता जानते हैं 

वे घर में हैं अपने बेटों के 

मगर उस तरह नहीं जैसे बेटे थे उनके घर में”


और फिर लिखता है -

“उनकी काली पनीली आँखों में मोतियाबिंद पक रहा है”


पिता को ले कर उसकी दृष्टि और संवेदना दोनों बह चली एक साथ और उन दोनों में से किसी एक को भी रोकना उसके बस में नहीं। पता नहीं क्यों, पर जब 'असाध्य रोग’ कविता पढ़ता हूँ तो लगता है कवि अपनी नहीं अपने पिता की पीड़ा की बात कर रहा है और इसलिए बात करता है एक निरुपाय उम्मीद की!


कीड़े कुतर रहे हैं खामोशी का पर्दा। इतनी सूक्ष्मता कहाँ से लाते हो कवि! कवि की चिंताओं में वह हर अपेक्षित जीवित या निर्जीव है, जिस पर धूल पड़ने लगी है, यहाँ तक की मानवता पर भी। उसे चिंता है हारमोनियम की मरम्मत करने वाले बूढ़े की, बाज़ार की फैलाहट में छिपा हुआ पेशाबघर के पास भी एक ज़रूरी सवाल होगा या उस कुत्ते और मेडक की मौत के बारे में चिंतित होना कौन सिखाता है तुम्हें? कौन समझाता है कि गिरते हुए पत्ते किसी का इंतज़ार नहीं करते। इन गिरते-उड़ते पत्तों की संवेदनाओं को कैसे उकेर लिया तुमने! सच पढ़ते हुए बस विस्मय और आश्चर्य का आलम है और इस आलम में आँखें चौड़ी होती जा रही हैं। इन चौड़ी आँखों में कविताओं के अर्थ बड़े होते दिख रहे हैं।


अरुण देव 


यह सब रचते हुए वह कह उठता है “एक स्त्री पर कीजिए विश्वास” अपने अंधेरे से निकाल कर देगी वही एक कंदील। वे फिर लिखते हैं -


जो छले गये स्त्रियों से

वे छले गये हैं अपनी हाय कामनाओं से।


मैं इस समय थोड़ी देर के लिए इस संशय में हूँ कि कवि स्त्री की बात कर रहा है या कि स्त्रीतत्व की!


इसके बाद नज़र पड़ती है खाना बनाती स्त्रियों पर जहाँ लिखा है “आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़” और पढ़ने के बाद घण्टों उस झनझनाहट में फँसा रहा, जहाँ स्मृतियों की झिल्ली काँप रही है।


एक जगह लिखा है, दूरी चीजों को टिमटिमाते नक्षत्रों में बदल देती है। क्या दूर होना कम होना है? सोचता हूँ पढ़ते हुए कि क्या पिता का प्रेम सच में टिमटिमाता है, या ये कवि का अनुभव नहीं कल्पना है। पर यह भी सच है कि पिता टिमटिमाते हुए प्यार करना चाह कर भी डाँट देते हैं और परिवार पालने का स्वप्न टिमटिमाता है पिता की आँखों में शहीद होने तक, जिसका किसी को पता नहीं चलता।


यह एक संयोग ही कहलाएगा कि `अड़तालीस साल का आदमी’ कविता पढ़ते समय मेरी उम्र भी अड़तालीस ही है और मुझे यह लग रहा है कि यह कविता मेरे लिये ही लिखी गयी है। 


कवि का चिंतित व्याकुल संवेदनशील मन अपने आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदार, माँ-पिता, भाई-बहन सब के बारे में लिखते-लिखते हर थोड़ी देर बाद कोसता है तानाशाह को। घर की चिंता व्यापक हो कर नगर और प्रदेश की चिंता में बदल जाती है, फिर जैसे दूध में उफान आने के बाद झाग बैठने लगता है, उसी तरह कवि वापस प्रेम, पत्नी और पिता की ओर लौटता हुआ चिंतित दिखता है फिर रुक जाता है तीखी ढलान पर रुकी हँसी की ख़ातिर।


एक और बात ग़ौर करने वाली है कि जितनी जगह तानाशाह को दिया है कवि ने उतनी ही जगह कवियों के बारे में भी दर्ज करता है, यहाँ तक कि 'कवि की अकड़' तक भी! लगता है दो अनंत बिंदुओं को एक साथ, साध रहा है।


इस किताब के अंत में 'कुछ समुच्चय’ शीर्षक के नाम से, कई शब्दों के देखने का कवि का अपना नज़रिया है, जिसे दो तीन बार पढ़ने के बाद लगेगा कि यह शृंखला इतनी जल्द ख़त्म क्यों हो जाती है। अभी तो कवि को पूरी किताब सिर्फ़ इसी शीर्षक से लिखनी चाहिए।


अंत में अरुण देव को विशेष बधाई इस बेहतरीन संकलन के संपादन के लिए। यह किताब कुमार अम्बुज की कविताओं के साथ अरुण देव की बेहद सारगर्भित विस्तृत प्रस्तावना, जिसमें छहों कविता संकलन को बारी-बारी से डिकोड किया गया है, के लिए भी पढ़ी जानी चाहिए। समीक्ष्य भाषा सराहनीय है और कविता के सुंदर सटीक विस्तार की तरह मिलती है।


प्रकाशक : नयी किताब प्रकाशन, ग्राउंड फ्लोर, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली 110032





सम्पर्क


यतीश कुमार 

मोबाइल :  08420637209



टिप्पणियाँ

  1. पढ़ते हुए एक जागरूक पाठक जो स्वयं रचनाकार है .किन प्रतिक्रियाओं से गुजरता है ,उसे यहाँ ज्यों का त्यों महसूस किया जा सकता है.अच्छा चयन,चैतन्य और प्रिय कवि और पाठकीय अनुभवों की रॉ साझेदारी.मेरा मूल्यवान प्राप्य 👌🏻🤝

    जवाब देंहटाएं
  2. रेखा कस्तवार की टिप्पणी

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं