राय गोविन्द चन्द्र का आलेख 'प्रस्तर युग के भारतीय मिट्टी के बर्तन'
अपने अतीत को जानने की जिज्ञासा किसे नहीं होती। खासकर यह सन्दर्भ कि मनुष्य ने विकास के क्रम में किस तरह अपना और अपनी संस्कृति का विकास किया, किसी के लिए भी कौतूहल का विषय है। यह विकास धीरे धीरे और जरूरत के अनुसार हुआ। ये सभी खोजें दीर्घकालिक महत्त्व की साबित हुईं। पुरातत्व के अन्तर्गत इन विषयों का विशद अध्ययन किया गया है। कार्बन डेटिंग ने इस अध्ययन को प्रामाणिकता प्रदान की है। इसी क्रम में पुराविद राय गोविन्द चन्द्र ने अपने एक आलेख में इस बात का विश्लेषण करने का प्रयास किया है कि पाषाण काल के मनुष्यों ने किस तरह के मिट्टी के बर्तन बनाए। किस तरह चाक और आंवे की खोज हुई और पके हुए मिट्टी के बर्तन बनाए गए। आज भी हिन्दू धार्मिक परम्परा में मिट्टी के पके हुए बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह प्राचीन खोजें हिन्दू धार्मिक परम्परा का अटूट हिस्सा बन गईं। यह पूरा आलेख बहुत रोचक है और तारतीबवार मिट्टी के बर्तनों के बनाने की परम्परा को हमारे सामने रखता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राय गोविन्द चन्द्र का आलेख 'प्रस्तर युग के भारतीय मिट्टी के बर्तन'। यह आलेख राय गोविन्द चन्द्र की पुस्तक प्राचीन भारतीय मिट्टी के बर्तन से साभार लिया गया है जो चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी से प्रकाशित की गई थी।
'प्रस्तर युग के भारतीय मिट्टी के बर्तन'
राय गोविन्द चन्द्र
यह जानने की किस को इच्छा न होगी कि हमारे पूर्वज किस प्रकार के बरतन में अपना धान्य एकत्रित करते थे, किन में वे भोजन बनाते थे, किन में वे भोजन करते थे तथा किन में वे पेय द्रव्य पीते थे। धातु के बने विविध बरतनों के अतिरिक्त हमें प्राचीन स्थानों की खोदाई में विविध भाँति के मिट्टी के बरतन प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। इनमें हण्डियाँ, कसोरा, परई, कुण्डे, तश्तरी, भिक्षापात्र इत्यादि अनेक बरतन हैं जो नित्य प्रति साधारण जनता के व्यवहार में आते थे। ये सब एक ही आकार-प्रकार के नहीं हैं। भिन्न स्तरों से प्राप्त हुए वे मिट्टी के बरतनों के टुकड़े अलग- अलग काल के अलग-अलग ढंग के हैं। किसी-पर-किसी प्रकार की चित्रकारी है तो किसी-पर-किसी प्रकार की। किसी की ग्रीवा पतली है तो किसी की फैली हुई इत्यादि-इत्यादि। इनके बनाने में, इनकी मिट्टी मांडने में, सुखाने में, पकाने में, आकार-प्रकार में, रंगाई तथा चित्रकारी इत्यादि में जो उत्तरोत्तर विकास तथा परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं जिनमें मनुष्य के जीवन का इतिहास छिपा हुआ है क्योंकि मनुष्य बहुत प्राचीन काल से मिट्टी के बरतनों का व्यवहार करता आ रहा है और अब भी भारत में तो करता ही है। साधारण जनता तो इसी को अपने काम में आज भी लाती है। ऐसे महापुरुषों की संख्या अभी कम है जो चीनी के बरतनों में भोजन करते हैं। यही कारण है कि आज के इतिहासज्ञ अपनी सामग्री के अध्ययन में इन मिट्टी के टुकड़ों को विशेष महत्व प्रदान कर रहे हैं और यही कारण है कि हमारे संग्रहालयों में इनको एक विशिष्ठ स्थान प्राप्त हुआ है। आज इनके आधार पर प्रत्येक-काल के मनुष्य जीवन की परिस्थितियों का पता लगाया जा रहा है।
आज जो अध्ययन मनुष्य के जीवन के विकास का हो रहा है है उससे ऐसा पता लगता है कि प्राथमिक युग में मनुष्य को किसी प्रकार के बरतनों की आवश्यकता न थी। वह तो अपना जीवन कथा मांस तथा कच्चे फल खा कर व्यतीत कर लेता था। (1) उस युग में उसे पत्थर के हथियार ही सर्व उपयोगी होते थे। अति प्राचीनकाल में मनुष्य पत्थरों को दूसरे पत्थरों से एक ओर तोड़ कर नुकीला बना लेता था और उनसे काम लेता था। फिर उसने उन पत्थरों को दो-तीन ओर से तोड़ कर हथियार बनाना प्रारम्भ किया। इस युग में मनुष्य रहने के हेतु अपनी झोपड़ियाँ नहीं बनाता था। वृक्ष ही वर्षा, ग्रीष्म तथा हिम से उसकी रक्षा करते थे। कन्दराओं में वह निवास करता था, शिलाखण्ड ही उसकी शय्या थी, जलप्रपात तथा नदियाँ उसके जल संग्रहालय थे, तथा मारे हुए जानवरों के चमड़े उसके तन ढाँकने के काम आते थे। यह युग कब तक चला यह कहना कठिन है। तीसरा युग बरतनों के व्यवहार की दृष्टि से वह था जब मनुष्य मिट्टी की झोपड़ियों में तो रहने लगा था परन्तु मिट्टी के बरतनों का व्यवहार वह नहीं करता था। वह आखेट करके अपना भोजन प्राप्त कर लेता था। ऐसे जीवन का एक स्तर क्वेटा से चार मील दूर पर कील गुल मोहम्मद में प्राप्त हुआ है। (2) इसे पात्ररहित युग की संज्ञा दी जा सकती है।
प्रस्तर युग में मिट्टी के बर्तन
इस युग के पश्चात् का काल वह था जब मनुष्य हाथ से मिट्टी के बरतन बनाने लग गया था। ये बरतन प्रायः सादे रहते थे। भारत में कई स्थानों से इस प्रकार के मिट्टी के बरतन प्राप्त हुए हैं। जैसे ब्रह्मगिरि (3), क्वेटा (4), राना घुण्डई (5) इत्यादि। इन बरतनों की बनावट से यह पता चलता है कि मनुष्य ने इस युग में पेड़ की टहनियों से दौरी बनाना प्रारम्भ कर दिया था और मिट्टी को भली भाँति सान कर उसकी लोई बना कर हाथ से बेल कर मिट्टी की लम्बी-लम्बी डोरी बना लेता था। उसी को गोलिया कर बरतन का आकार बनाता था (फलक 1, क मोहनजोदड़ो से प्राप्त) पुनः उसे हाथ से चिकना कर के दबा कर स्थान-स्थान से उसको स्वरूप प्रदान करता था। इन बरतनों का आकार-प्रकार प्रायः पत्थर अथवा चमड़े के बरतनों की भाँति होता था। (फलक 1, आकृति ख, ग, घ, च, छ, ज) मिट्टी को सानने के पूर्व भली भाँति पत्थरों से उसे उस युग का मनुष्य कूँचता था। इस प्रकार बरतन बना कर उसे सूर्य की रश्मियों में सुखा लेता था। इन बरतनों के टूटे हुए कोर को देखने से उनके बनाने की विधि स्पष्ट हो जाती है। प्रायः ये बरतन गोल आकार के चौड़े मुँह वाले गोल पेंदी के बनते थे। जैसा हम फलक 1 (ख) और उसके पश्चात् की आकृति' (6) पर बने बरतनों में पाते हैं। फलक 1 पर कुछ बरतन जो ब्रह्मगिरि से प्राप्त हुए हैं उनके भी नमूने हैं। (7) इन बरतनों को बनाने के लिए मिट्टी छिछले जलाशयों से कदाचित् लायी जाती थी। ऐसे स्थान की मिट्टी पानी में रहने से सड़ जाती थी। इस मिट्टी को अपने यहाँ ला कर पुनः लोंदा बना-बना कर पृथ्वी पर वे लोग फेंकते थे जिसमें बुलबुले निकल जायें। कील गुल मोहम्मद से जो बरतन मिले हैं उन पर साधारण चटाई के चिन्ह हैं। इस छाप से (8) ऐसा ज्ञात होता है कि बरतन सूखने के पूर्व ये चटाई से दबा कर बराबर किये जाते थे। ब्रह्मगिरि में भी हाथ के बने मिट्टी के बरतनों में जो पूर्वकालीन हैं उनमें कुछ के ऊपर रेखाएँ चित्रित हैं जो पकाने के पश्चात् उन पर गेरू से बनायी गयी थी। इन रेखाओं का रंग भूरा बैगनी-सा ज्ञात होता है। (9) इनका काल 2000 वर्ष ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है। गुजरात में हरिपुर और लंघनाज से जो बरतन प्राप्त हुए हैं (10) वे भूरे पीले रंग के हाथ के बने और सूर्य की किरणों में सुखाये हुए हैं। ऐसा ज्ञात होता है कि इस युग के पूर्व ही कुछ खेती आरम्भ हो गयी थी तथा लोग पत्थर और हड्डी के अस्त्र व्यवहार में लाने लग गये थे। (11) धूप में सुखाये हुए ये बरतन जल्दी टूट जाते रहे होंगे और इनके बनाने में समय भी अधिक लगता रहा होगा जिससे मनुष्य को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता रहा होगा। ऐसा ज्ञात होता है कि किसी ने संयोगवश किसी बरतन को आग के पास छोड़ दिया होगा जिससे यह पता लगा होगा कि आग के पास यदि वे बरतन रख दिये जाँय तो वे पक जाते हैं। इस आविष्कार के पश्चात् कदाचित् पकाने के हेतु लकड़ी जला कर बरतनों के चारों ओर रख देते रहे होंगे जैसा आज भी अफ्रीका में करते हैं। यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि इस आविष्कार ने उस युग के मनुष्य के जीवन में एक क्रांति उत्पन्न कर दी होगी और आगे चल कर इसी आविष्कार ने आँवों को जन्म दिया होगा। ऐसा अनुमान होता है कि यह युग भी कुछ दिन चलता रहा। आँच में पकाये हुए हाथ के बने बरतन हलके भूरे रंग के और सिलेटी रंग के नागार्जुनकोण्डा से भी प्राप्त हुए हैं। परन्तु वे प्रस्तर युग के पीछे के काल के हैं।
चाक का आविष्कार
इसके पश्चात् हमें कुम्हार की चाक पर बने बरतन मिलने लगते हैं। गार्डन की राय है कि यह चाक भारत में पश्चिम से आयी (12) परन्तु यह विचार सर्वमान्य नहीं हो सकता। पाश्चात्य विद्वानों के इस निश्चय ने कि जो भी आविष्कार हुए वे सब पश्चिम में हुए और पश्चिम वालों ने हमको सभ्यता के सब चिन्ह प्रदान किये हमारे मन को बड़ा सन्दिग्ध कर रखा है। ईरान तथा मेसोपोटामियाँ की सभ्यता को भारत की सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राथमिकता देना उसी मनोवृत्ति का फल है। हम यह क्यों नहीं सोच सकते कि सिन्धु घाटी में चाक का प्रथम आविष्कार हुआ तथा सूर्य ने पूर्व से पश्चिम को प्रयाण किया, पश्चिम से पूर्व को नहीं या यों कहा जाय तो कदाचित् अनुचित न होगा कि प्रत्येक सभ्यता ने अलग-अलग जन्म लिया, अलग-अलग फली-फूली और अलग-अलग समय में आवश्यकतानुसार उसके आविष्कार हुए। (13) हमारे यहाँ तो ऐसी किंवदन्ती है कि असुरों ने चाक का सबसे पहिले आविष्कार किया (14) तथा इसी कारण मिट्टी के बने बरतनों का प्रेत कर्म में व्यवहार निषिद्ध है। सिन्धु घाटी की सभ्यता में नीचे के स्तरों से भी चाक के बने बरतन प्राप्त हुए हैं जिनको पिग्गट ने ईरान से प्राप्त बरतनों का समकालीन कहा है। (15) इससे भी यह सिद्ध होता है कि भारत में भी उसी काल में चाक का व्यवहार होने लगा था जब ईरान में हो रहा था।
इस चाक ने पूर्वकाल के मनुष्य के जीवन में जो परिवर्तन कर दिया होगा उसका हम अनुमान नहीं लगा सकते। इस अविष्कार को करने वाला असुर कौन था यह हमें पता नहीं, न हम यही कह सकते हैं कि इसका आविष्कार प्रथम कहाँ हुआ। ऐसा विचार उठता है कि किसी मेधावी बालक ने मिट्टी का एक लोंदा खेल में बनाया होगा और उसे गोल करने के लिए उस पत्थर को जिस पर यह बना था घुमा दिया होगा। हाथ में पकड़े हुए मिट्टी के उस लोंदे को गोल होते देख कर यह बालक उछल पड़ा होगा और वृद्धजनों ने इस नयी खोज से लाभ उठा कर मिट्टी का लोंदा पत्थर पर रख कर और उसे घुमा कर बरतन बनाना प्रारम्भ किया होगा क्योंकि लोंदे के आकार में आज भी मिट्टी चाक पर रखी जाती है, परन्तु उस घूमती हुई चाक से बरतन को अलग करना बहुत कठिन रहा होगा और उसे पत्थर की दुरिका से ही काट कर निकालते रहे होंगे। (16) धागे से काट कर बरतन को अलग करना तो बहुत पीछे का आविष्कार ज्ञात होता है।
इस चाक को हमारे पीछे के जीवन में इतना महत्त्व दिया गया कि विवाह इत्यादि शुभ कर्मों में (उत्तरी भारत में) तो इसका पूजन भी प्रचलित हो गया तथा प्रत्येक विवाह इत्यादि कर्म इन नये बनाये हुए मिट्टी के बरतनों से प्रारम्भ होने लगे। यह प्रथा प्राचीन समय से चली आयी हुई ज्ञात होती है जब चाक का हमारे सामाजिक जीवन में एक विशेष महत्व रहा होगा। वैदिक इण्डेक्स के अनुसार शतपथ में इसे कुलालचक्र की संज्ञा दी गयी है (शत० 11/8/1/1 वैदिक इण्डेक्स 1/171)। मिट्टी के बरतनों के आकार प्रकार तो आवश्यकता ने हमें बनाना सिखाया क्योंकि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। घूमती हुई चाक पर कुम्हार अपनी अंगुलियों से सीधे खड़े बरतन जिस फुर्ती से बना देता है उसको देख कर हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं, परन्तु उसके पीछे कितनी शताब्दियों के मनुष्य की असफलताओं का इतिहास है यह कभी हमारे ध्यान में नहीं आता।
परन्तु इस आविष्कार के पश्चात् भी सभी बरतन चाक से नहीं बनने लगे थे। कुछ हाथ से भी बनते थे जिसके उदाहरण हमें मोहनजोदड़ो और हडप्पा में प्राप्त होते हैं। (17) तथा क्वेटा में भी मिलते हैं। (18) इस प्रकार के बरतन इन नगरों में नीचे के स्तरों से प्राप्त हुए हैं। इनके आकार-प्रकार चाक के बरतनों के सहरा हैं। परन्तु ये उतने सुपर नहीं हैं। इससे ऐसा समझना युक्तिसंगत ज्ञात होता है कि चाक के बने बरतन उस काल में बनने प्रारम्भ ही हुए होंगे और महंगे होने के कारण हाथ के बने बरतन भी चलते रहे होंगे।
प्रस्तर युग को तीन भागों में विद्वानों ने विभक्त किया है। एक तो वह जिसमें मनुष्य पत्थर को एक ओर से कुछ दूसरे पत्थर के सहारे तोड़ कर चोखा कर लेता था। दूसरा वह काल जब इसी प्रकार कई स्थानों से पत्थर को चोखा करता था और उससे कुल्हाड़ी भी बनाता था तथा चोखा करने की इस क्रिया में जो पत्थर के टुकड़े निकलते थे उनको पुनः चोखा कर लेता था और उनसे तीर इत्यादि बनाता था। तीसरा युग वह था जिसमें इन छोटे टुकड़ों को भी यह व्यवहार में लाता था और पत्थर की कुल्हाड़ी को चिकना करने के लिये पत्थर पर रगड़ कर साफ करता था। भारत में प्रस्तर युग के बीच वाले काल के प्रस्तर-आयुधों के साथ कई स्थानों से मिट्टी के बरतनों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के बरतन सबसे पूर्व ब्रूसफूट को पटपाड तथा कुरनूल से दुधिया (अगेट) 1) तथा लहसुनिया के उपरत्न (चाल्सेडोनी) के बने हथियारों के साथ प्राप्त हुए थे। ये बरतन पीले भूरे रंग के हैं। (19) प्रस्तर युग के बीच के काल को दो भागों में बाँटा जा सकता है एक पहिले का काल और दूसरा पीछे का। लंघनाज से प्राप्त बरतन पहिले काल के हैं। दूसरे के गोदावरी की तलहटी में नासिक, जोरवे तथा बहाल (जो पूर्वी खान देश में है) से काली मिट्टी में पाषाण आयुधों के साथ प्राप्त काले रंग से चित्रित बरतन हैं। इनके साथ ताँबे की कुल्हाड़ी तथा आभूषण भी मिले हैं। (20) बहाल की खोदाई में श्री देशपाण्डे जी को इसी प्रकार की काली मिट्टी के ऊपर एक अलग सतह प्राप्त हुई है जिसमें उत्तरी काली चमक वाले बरतनों के टुकड़े मिले हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि काले रंग से चित्रित बरतन प्रायः ईसा पूर्व 1000 से 700 वर्ष के हैं। श्री देशपाण्डे जी को इसी प्रकार के चित्रित बरतन काली मिट्टी में पाषाण आयुधों के साथ नासिक जिले के भोजपुर नेवासा स्थान से भी प्राप्त हुए हैं जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि इस प्रकार के बरतन इन हथियारों के युग में बनने लगे थे।
मध्य भारत के माहेश्वर से श्री सांकलिया को भी इसी प्रकार के बरतन काली मिट्टी में पाषाण आयुधों के साथ-साथ प्राप्त हुए है। (21) इस प्रकार के बरतनों का विवरण दक्षिण भारत के मिट्टी के बरतनों के परिच्छेद में कुछ विशेष रूप से दिया गया है।
तीसरा प्रस्तर युग के उस काल में जिसमें चिकनी की हुई कुल्हाड़ी प्राप्त होती है तथा ताँबे की बनी कुल्हाड़ी और आभूषण भी प्राप्त होते हैं। मिट्टी के बरतन बहुतायत से मिलते हैं। इसी प्रकार का एक स्तर हरिद्वार के बटादराबाद में प्राप्त हुआ है (22) जहाँ से पत्थर के हथियारों के साथ साथ ताँबे की कुल्हाड़ी इत्यादि भी मिली हैं। (23) इस स्थान के बरतन पीले लाल रंग के हैं। मैसूर के ब्रह्मगिरि, हैदराबाद के कुलुर तथा महाराष्ट्र के नासिक और जोरवे में भी इसी प्रकार के स्तर मिले हैं। यहाँ के मिट्टी के बरतनों पर काली चित्रकारी है। ऐसे ही एक बरतन से जोरवे में चिपटी ताँबे की कुल्हाड़ी तथा हाथ के कड़े मिले हैं। इस युग के बरतनों को देखने से ज्ञात होता है कि मनुष्य किस प्रकार कष्ट सहता हुआ प्रकृति से लड़ता हुआ आगे बढ़ा है और छोटे से छोटे आविष्कार के हेतु उसको कितना समय लगाना पड़ा है।
सन्दर्भ
1. बी० डी० कृष्ण स्वामी, स्टोन एज इन इण्डिया, एंसियेंट इंडिया नं 3 (1947) पृष्ठ 12.
2. फेयर सर्विस-अमेरिकन म्युजियम नावियप्ट्स नं० 1587, सेप्टेम्बर 1952 पृष्ठ 18 तथा डी० एच० गार्डन - एंसियेंट इण्डिया, नं 10, 11. (1954-55) पृष्ठ 167.
3. कृष्णस्वामी - एंसियेंट इंडिया नं०3 (1947) पृष्ठ 39.
4. किल गुलमुहम्मद का द्वितीय स्तर, गार्डन - उपर्युक्त, पृष्ठ 167।
5. रास, ए चाल कोलोइक साइट इन नारदर्न बलूचिस्तान, जर्नल आफ नीयर ईस्टर्न स्टडीज, खण्ड 5 (1946) पृष्ठ 286 तथा आगे।
6. एस० ग्राहम बेड वर्क्स - टीच योर सेल्फ आर्केआलोजी पृष्ठ 73.
7. व्हीलर, - ब्रह्मगिरि एण्ड चन्द्रावली- एंसियेंट इण्डिया नं 4, पृष्ठ 226
8. फेयर सर्विस - उपर्युक्त, पृष्ठ 17, 18.
9. व्हीलर, - ब्रह्मगिरि एण्ड चन्द्रावली- एंसियेंट इण्डिया नं 4, पृष्ठ 222.
10. सांखलिया, इनवेस्टिगेशन इन हिस्टारिक आर्कियोलोजी ऑफ गुजरात (1946) पृष्ठ 138.
11. गार्डन- दो स्टोन इण्डस्ट्रीज आफ दो हालो सेन, एंसियेंट इण्डिया नंबर 6 (1950) पृष्ठ 73.
12. गार्डन, दी पाटरी इन्डस्ट्रीज आफ दी इंडो इरानियन वार्डर, एंसियेंट इन्डिया 10, 11, पृष्ठ 159.
13. ग्लिन, ई., डानियल, ए-हंड्रेड इअर्स आऊ आर्कियोलोजी, - पृष्ठ 208.
14. श्री माधव अनन्त फडके, असुरों का उत्कर्षापकर्ष, पृष्ठ 3.
15. पिग्गट - ए न्यू प्री हिस्टारिक सिरामिक फ्रॉम बलूचिस्तान-एंसियेंट इण्डिया, नम्बर 3, पृष्ठ 136,142
19. बी० डी० कृष्ण स्वामी - प्रोग्रेस इन प्री हिस्ट्री, एंसियेंट इण्डिया नंबर 9, पृष्ठ 67.
20. बी० डी० कृष्ण स्वामी- उपर्युक्त प्लेट 11.
21. श्री एच० डी० सांकलिया, बी सुब्बा राव, एस० बी० देव-एक्सकवेशन्स इन दी नर्मदा वैली - जरनल महाराजा सियाजी राव युनिवर्सिटी आफ बड़ौदा खण्ड 2, नम्बर 2, (1953)
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