ध्यान सिंह की डोगरी कविताएं, अनुवाद कमलजीत चौधरी
ध्यान सिंह |
कवि कर्म आम तौर पर आसान नहीं होता। कवि की नियति औरों से बिलकुल अलग होती है। सामाजिक दायित्वों के प्रति सन्नद्ध रहने की उसकी नैतिक जिम्मेदारी होती है। इसी क्रम में उसकी सत्ता के साथ टकराहट भी होती रहती है। कई बार कवि को अपने शब्दों का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। लेकिन जो इन सबसे घबरा जाए, वह कवि कैसा? कवि की नियति ही संघर्ष की होती है। डोगरी कवि ध्यान सिंह कवि नियति की तरफ इंगित करते हुए उचित ही लिखते हैं यहाँ अनेक तरह के भूत रहते हैं - 'मेरा यह दिल/ एक भूत-बंगला है/ यहाँ अनेक तरह के भूत रहते हैं/ यह इसमें रचते-बसते/ भूती-पंगे लेते रहते हैं/भूत से वर्तमान तक/ इनका उतार नहीं हुआ/ और न ही होगा।' ध्यान सिंह की डोगरी कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया है कवि कमलजीत चौधरी ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ध्यान सिंह की डोगरी कविताएं।
ध्यान सिंह की डोगरी कविताएं
(हिन्दी अनुवाद कमलजीत चौधरी)
साया
पेड़; जलस्रोतों के किनारे खड़े हैं
पेड़; इनके ऊपर छाया करते
आग फाँकते;
तपते रहते।
तपी हुए छायाओं को पानी
तारी^ नहीं लगाने देता
सतह पर ही इन्हें नचाता
विश्राम ज़रा न करने देता।
और बहता जल
अपनी ही लहरों पर अठखेलियाँ करता।
और सूरज दिन भर चलता रहता।
इस उधारी जीवन-यात्रा को
जब संध्याकाल में पनघट मिलता
उसी बेला में जलते-बलते; मेरा साया भी घर लौटता।
००
तारी^- डुबकी
तसल्ली
माँ की गोद में
दुग्धपान करता
लोरियाँ सुनता... हूँ हूँ करता ग़रीब बच्चा
बिटर-बिटर तारे देखता
उन्हें पाने के लिए बाहें फैलाता
नहीं सोने की ज़िद करता।
तो माँ उसे कहती है:
अभी सो जाओ,
तुम्हारे पिता बाहर
आकाश-पेड़ को झकझोर रहे हैं :
जैसे चुनते हो तुम बेर
सुबह उठ कर तारे भी चुन लेना।
बच्चा सो जाता है
माँ जागती रहती है...
××
मरम्मत
देह के घिसे-टूटे अंगों की मरम्मत
होती रहती है
हो रही है।
भाव-दोषों की भी मरम्मत
होती रहती है
हो रही है।
घड़ी के पुर्जों की मरम्मत
होती रहती है
हो रही है।
समय-सुई की मरम्मत क्यों नहीं होती
क्यों नहीं हो रही?
××
पत्थर-शब्द
जीवन जीने में
पत्थरों का बड़ा दखल रहा
इन्हें सिर्फ इसलिए नहीं पूजता
कि इनसे अंदरूनी चोट भी लगती है
या इनसे आग भी बलती है।
इस खारे रूखे-सूखे दौर में
मेरे ये पत्थर-शब्द
कविता को ताप देते
सताते रहते हैं
बेशक इन पत्थर-शब्दों से
कुछ लोगों को दुःख भी पहुँचता है
मगर समय की देनदारी देखते हुए
पत्थर तो पत्थर
मिट्टी के चाकू भी
चली^ मारते हैं
...
पत्थर; 'होने' के सरोकार हैं
शिव-रूपी पत्थरों का तांडव चाहता हूँ
पत्थरों पर कविताएँ वारना चाहता हूँ।
××
चली^ - पत्थर फेंकने को, चली मारना कहते हैं।
मंडियां
पत्थर-मंडी में जा कर
पत्थर ही तोड़ता रहा
तोड़-तोड़कर फेंकता रहा
पत्थर-शिला मानता रहा
इनकी वंदना करता रहा
शीशा-मंडी में जा कर
किरच-किरच होता रहा
अपने आप को चुभता रहा
अपने आप से घटता रहा
अपनी ही निंदा करता रहा
लकड़-मंडी जा कर
सूखी लकड़ियां दलता^ रहा
दीमक की तरह चाटता रहा
अपने भीतर; कोटर करता रहा
चिंगारी से भी डरता रहा
कोयला-मंडी जा कर
अँधेरे में ही फँसता रहा
धूल-धुआँ खाता रहा
हाथ-मुँह स्याह करता रहा
लोहा-मंडी जा कर
कच्चा लोहा झाड़ता रहा
झाड़ झाड़कर चंडता रहा
चंडते चंडते कुछ गाँठता रहा
मगर धुरअन्दर ज़ंग लगता रहा
आदम-मंडी जा कर
भीड़ से बचता रहा
बच-बचकर चलता रहा
संकेत समझ खाँसता रहा
दलालों को झिड़कता रहा
लकड़ी की
कोयले की
लोहे की
मनुष्य की मंडी में जा कर
भूख प्यास रही नहीं
फिर भी रोटी, पानी और सांस माँगता रहा
इसी तरह जीवन हंडता^ रहा।
××
दलता रहा^ - चीरता रहा
हंडता रहा^ - निभता रहा
कवि-नियति
मेरा यह दिल
एक भूत-बंगला है
यहाँ अनेक तरह के भूत रहते हैं
यह इसमें रचते-बसते
भूती-पंगे लेते रहते हैं
भूत से वर्तमान तक
इनका उतार नहीं हुआ
और न ही होगा।
××
कुत्ता
अपना त्राण हरता हूँ
बात अपनी ही मानता हूँ
जीने के लिए सब सहता हूँ
पागल होने से डरता हूँ
हवा की रमज समझता हूँ
आहट खटका तनिक न भाता
मगर खुद; भौंकता रहता हूँ
अजनबियों को घूरता हूँ
अपनी परछाई सहता हूँ
डर कर पानी पीता हूँ
सांस लेता हूँ: फाँकते-फाँकते
रोटी खाता हूँ: झाँकते-झाँकते
मैं जो हुआ; कुत्ता हुआ
कुत्ते की तरह फिर; क्यों न मरा
छाया सा गुत्थमगुत्था रहूँ
सुरती में सोता-जगता हूँ
लेकिन लोक का कुत्ता हूँ
टैहलदार भी
खबरदार भी
चिंता से बंधा आठ पहर भी
सोच का तलबगार हूँ
ऐसा पैहरेदार हूँ
हर मौसम में
खड़ा ही रहूँ
दिखूँ चाहे सुत्त-बसुत्ता^
...
आऊं^ अपना-आप का कुत्ता...
××
सुत्त-बसुत्ता^- सोता-जागता
आऊँ^- मैं
ध्यान सिंह जी का परिचय:
ध्यान सिंह जी का जन्म 2 मार्च, 1939 ई को जम्मू के घरोटा नामक गाँव में हुआ। वे डोगरी के वरिष्ठ कवि-कथाकार-लेखक व अनुवादक हैं। विभिन्न विधाओं में इनकी लगभग 60 किताबें प्रकाशित हैं। इनकी कविताई में राजनैतिक और सामाजिक चेतना का स्वर सुना जा सकता है। साहित्य में ही नहीं; बल्कि इनकी जनपक्षधरता इनके व्यवहार में भी देखी जा सकती है। वे श्रमिक संघ के कार्यकर्ता हैं। आज भी गाँव में रहते हैं। सक्रिय हैं, और संस्कृति-संरक्षण हेतु कार्य करते हैं। इन्होंने साहित्यिक कार्यक्रमों के अलावा खेलकूद आयोजनों भी करवाएँ हैं। 2015 में इन्हें 'परछावें दी लो' शीर्षक कविता संग्रह पर 'साहित्य अकादमी', 2014 में 'बाल साहित्य' पुरस्कार, 2022 में 'दीनू भाई पंत सम्मान' के अलावा डोगरी साहित्य सेवा के लिए 2023 में स्टेट अवॉर्ड मिला है। 'कल्हण' का डोगरी अनुवाद भी इनकी एक उपलब्धि है।
सम्पर्क:
ध्यान सिंह
गाँव व डाक- बटैहड़ा
तहसील व ज़िला- जम्मू, पिन कोड- 181206
जम्मू-कश्मीर
फोन नम्बर- 9419259879
कमलजीत चौधरी |
कमल जीत चौधरी हिन्दी के सुपरिचित कवि- लेखक और अनुवादक हैं। 'अनुनाद सम्मान' के अंतर्गत 2016 में इनका पहला संग्रह, 'हिन्दी का नमक' प्रकाशित हुआ था। इनकी चुनिंदा कविताओं का एक संकलन (2022) भी प्रकाशित है। इसके अलावा इनके द्वारा संपादित किया गया एक कविता-संग्रह, 'मुझे आई. डी. कार्ड दिलाओ' (2018) भी प्रकाशित हुआ है। इनकी कविताएँ, आलेख, अनुवाद और कथाएँ हिन्दी की लगभग साठ पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इसके अलावा इनका लेखन हिन्दवी, कविता कोश, सदानीरा, पोयम्स इंडिया, पहली बार, अनुनाद, जानकी पुल, सिताब दियारा जैसे अनेक ब्लॉग्स और वेबसाइट्स पर भी लाइव है। इन्हें पाखी पत्रिका का प्रतिष्ठित 'शब्द साधक कविता सम्मान' भी प्राप्त है। इनका सद्य प्रकाशित कविता संग्रह 'दुनिया का अंतिम घोषणापत्र' चर्चा में है।
सम्पर्क :
कमल जीत चौधरी
गाँव व डाक- काली बड़ी (रेलवे क्रॉसिंग साम्बा के नज़दीक)
तहसील व जिला- साम्बा
पिन कोड- 184121
मेल आई डी- kamal.j.choudhary@gmail.com
प्रिय 'पहली बार' धन्यवाद! ज़िंदाबाद!
जवाब देंहटाएंध्यान सिंह जी ने भीबआपको शुभकामनाएँ भेजी हैं।
~ कमल जीत चौधरी
टिप्पणी इस प्रकार पढ़ें:
हटाएंप्रिय 'पहली बार', धन्यवाद! ज़िंदाबाद!
ध्यान सिंह जी ने भी आपको शुभकामनाएँ भेजी हैं।
~ कमल जीत चौधरी
ध्यान सिंह जी कविताएं और आपका अनुवाद। रूह को आनंदित करती कविताएं । चिंतन की दिशा की ओर ले जाती ये कविताएं। बहुत - बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंडॉ. भगवती जी, इस आत्मीय टिप्पणी के लिए आभार!
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