सदानन्द शाही की कविताएं
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समय बीतने के साथ पुरानी चीजें बदलती हैं। हम स्वाभाविक रूप से कई जगहों पर आते जाते रहते हैं और इन बदलावों को शिद्दत के साथ महसूस करते हैं। ये जगहें हमारी स्मृति का अटूट हिस्सा बन जाती हैं। इस बीतते हुए वक्त के साथ ही इलाहाबाद भी काफी बदल गया है। अब वह इलाहाबाद से प्रयागराज हो गया है। इलाहाबाद का नाम ही नहीं, कई चीजें, बातें और रवायतें भी एक एक कर बदल गई हैं जिसे कवि सदानन्द शाही ने अपनी एक कविता में रेखांकित किया है। हाल ही में कवि का एक संग्रह 'माटी पानी' लोकायत प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। कवि को नए संग्रह के लिए बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं इसी संग्रह में प्रकाशित सदानन्द शाही की कुछ कविताएं।
सदानन्द शाही की कविताएं
कभी किसी यात्रा से लौटिए
कभी किसी यात्रा से लौटिए
तो लगता है कि
आप वही नहीं लौटे हैं
जो गए थे
कुछ का कुछ हो गये हैं
कभी कोई किताब आती है
और चुपचाप बदल देती है
आपके होने को
कभी कोई आवाज
कभी संगीत की कोई तान
कभी कोई दृश्य
कभी कोई चित्र
कभी कोई भाव
कभी कोई विचार
मन को छू लेता है
और कंचन कर देता है
आप भूल जाते हैं
अपना पता
अपना ठिकाना
वह सब भूल जाते हैं
जिसे भूल जाना चाहिए।
पत्थर का दुःख
दलदल से बचने के लिए
मेरे ऊपर आ खड़े होते हैं
लोग
और सूखते ही
चहकते हुए चले जाते हैं
न दुआ, न सलाम
न शुक्रिया, न खुदा हाफिज
जैसे कि मैं
निरा पत्थर होऊँ।
सब उनका है
कबूतर भी उनका
संदेश भी उनका
बाँचेंगे वही
सुनायेंगे वही
बतायेंगे वही
समझायेंगे वही
बुझायेंगे वही
उड़ायेंगे वही
सजायेंगे वही
नचायेंगे वही।
जो हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं
टूट चुका है रथ
कीचड़ में धंस गए हैं पहिये
लहूलुहान आत्मा पर
बाणों की बारिश जारी है
फँसे हुए पहिये
और धँसे हुए बाणों को
निकालने तक का
अवकाश नहीं है
युद्ध और प्यार में
सब कुछ को
जायज मानने वाले
किसी नियम या नैतिकता के गुलाम नहीं हैं
हारी हुई लड़ाई लड़ने वालों के लिए
नियम है
नैतिकता है, विधान है
हारी हुई लड़ाई लड़ने वाले
सहानुभूति की भीख नहीं माँगते समर्पण नहीं करते
पीठ नहीं दिखाते
वे क्षत-विक्षत अस्त्रों
और आहत आत्मा से युद्ध करते हैं
वे हार भले जायें
पराजित नहीं होते।
मैं कविता की दुनिया का स्थायी नागरिक नहीं हूँ
मैं कविता की दुनिया का स्थायी नागरिक नहीं हूँ
मेरे पास नहीं है इसका कोई ग्रीन कार्ड
कविता की दुनिया के बाहर
इतने सारे मोर्चे हैं
जिनसे जूझने में खप जाता है जीवन
इनसे न फुरसत मिलती है, न निजात
कि कविता की दुनिया की नागरिकता ले सकूँ
इसलिए जब तब
आता जाता रहता हूँ
कविता की दुनिया
बस पर्यटन है मेरे लिए
न कोई चुनौती
न कोई मोर्चा
न ही कोई किला
जिसे जीतने की बेचैनी हो
छुट्टियों में आता हूँ
बेपरवाह घूमता हूँ
थोड़ी-सी हवा
थोड़ा-सा प्यार
थोड़ी-सी भावुकता
बटोर कर रख लेता हूँ
जैसे ऊँट भर लेता है अपने गुप्त थैले में
ढेर सारा पानी
फिर लौट जाता हूँ
उसी दुनिया में वापस
जहाँ छोटे-मोटे मोर्चे
इन्तजार करते रहते हैं
जैसे बछड़े
गायों के लौटने का।
ये आवारा फूल क्यों खिले हुए हैं?
ये आवारा फूल क्यों खिले हुए हैं
इन्हें हमने तो नहीं लगाया था
फिर भी
खिले हुए हैं
कितने बेशरम हैं
न खाद, न पानी
न देख, न भाल
फिर भी टप्प से निकल आते हैं
जहाँ-तहाँ
जाने कैसी आदिम गन्ध लिए
महकने
टहकने
और दहकने लगते हैं
मुँह चिढ़ाते हुए-से
आवारा फूल।
व्याकरण के बाहर
जब शब्दों के अर्थ इस तरह बदलने लग जाएं
कि असभ्य लोग भक्त कहलाने लगें
कुटिल खल कामी
भगवान करार दे दिए जाएँ
बुद्धि और विवेक को भेज दिया जाय
काले पानी
भाषा गाली में सिम टकर रह जाय
शब्दों को सजग हो जाना चाहिए
शब्दों को चले जाना चाहिए
जंगलों में
लेनी चाहिए खूब तेज साँस
फेफड़ों में भर लेनी चाहिए आदिम हवा
इसके पहले कि ऑक्सिजन में जहर घुल जाय
धमाचौकड़ी करते हुए
शब्दों को निकल जाना चाहिए व्याकरण के बाहर।
झूठ जी से हालचाल
झूठ जी। आप किस देस के वासी हैं
झूठ जी! आप कहाँ से आये हैं
झूठ जी। आप की वल्दियत क्या है
झूठ जी! आपके बाल-बच्चे कितने हैं
झूठ जी। आप के कितने मुँह हैं
झूठ जी! आप बोलते किससे हैं
झूठ जी। आप बतियाते किससे हैं
झूठ जी! आप खाते किससे हैं
झूठ जी! आप क्या खाते हैं
झूठ जी! आप क्या पहनते हैं
झूठ जी। आप रहते कहाँ है
झूठ जी। आप जाते कहाँ हैं
झूठ जी! आप किससे मिलते हैं
झूठ जी! आप के संगी-साथी कौन हैं
झूठ जी! आप करते क्या हैं
झूठ जी। आप की रोजी-रोटी कैसे चलती है
झूठ जी ! आप इतने दिलफरेब कैसे हुए
झूठ जी ! आप फतहयाब कैसे हुए
झूठ जी ! महटिआइए नहीं
सच सच बताइए झूठ जी!
कितना अद्भुत है
कितना अद्भुत है
और
कितना विस्मयकारी
कि सारी दुनिया जीत लेने के बाद भी
आप अपने जूते
और दिमाग के
दायरे से
बाहर नहीं निकल सकते।
झुलसा देने वाली इस दुपहरिया में
मुझे मालूम था
कि कोई नहीं आने वाला
इलाहाबाद की इस झुलसा देने वाली दुपहरिया में
फिर भी करता रहा इन्तजार
अकेले बैठा
काफी पीता रहा
काफी हाउस
काफी हाउस जैसा नहीं था
वैसे इलाहाबाद ही कहाँ था
इलाहाबाद जैसा
मुश्किल था
सिविल लाइन में
सिविल लाइन को खोज पाना
वैसे ही
जैसे संगम में
सरस्वती को खोज पाना
वैसे तो
कहीं भी
सरस्वती को खोज पाना
मुश्किल है
बहरहाल
मैं यहाँ सरस्वती की खोज में नहीं आया
मैं तो यहाँ एक रेस्टोरेंट में बैठा
किसी के आने का इन्तजार कर रहा हूँ
यह जानते हुए भी
कि इस झुलसा देने वाली दुपहरिया में कोई नहीं आने वाला।
एक कोलाज
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का अतिथिगृह
कमरा नम्बर ग्यारह में
लेटा हूँ चुपचाप
जो कभी अपने को पूरब का आक्सफोर्ड
कहलाते हुए
इठलाया करता था
वही इलाहाबाद विश्वविद्यालय
आखिर इठलाने के लिए भी हमें
पूरब का ही सही
आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज ही होना था
एक तरफ की दीवाल का पूरा पलस्तर उचड़ गया है
जिससे
उस महान विश्वविद्यालय का गौरव-रेत
झर रहा है लगातार
सीलन की छाप लिए
उभर रही हैं तरह-तरह की आकृतियाँ
मुक्तिबोध की कविताओं के पात्र
प्रकट हो रहे हैं
दीवाल पर लटका टीवी स्तब्ध है
पूरी दीवाल ही टीवी स्क्रीन में बदल गयी है
उतरने लगी हैं
तरह-तरह की चित्र कथाएँ
विशालकाय कुर्सी पर पसरा है
डोमा उस्ताद
अध्यापकों की क्लास
लगाता है लगातार
औरांगऊटांग और ब्रह्मराक्षस
करते हुए सिरफुटौवल
आते हैं
जाते हैं
कि उभर आते हैं गांधी के दो बन्दर
तीसरे को तलाशते हुए
कभी दिखने लगती है
दिल के तख्त पर विराजमान भूल-गलती
ईमान का सिर कलम करती हुई
दीमक के बदले सुनहरे नायाब पंखों का सौदा करते
मक्कार बूढ़े
सिर खुजाते हुए
कि
अचानक कहीं से कोई गुप्त रिमोट कन्ट्रोल
होता है सक्रिय
चैनल बदलता
ताबड़तोड़
यह क्या!
इस महान और पुराने विश्वविद्यालय में घुसे चले आ रहे हैं
नये पुराने
सभी विश्वविद्यालय
किन्हीं अदृश्य हाथों की
कूची
अजीब से अजीबतर रंगों से तरबतर
चल रही है लगातार
नये पंचतंत्र की कहानियाँ रचते
शेर और गीदड़
लोमड़ी और कौवे
बन्दर और बिल्लियाँ
चला रहे हैं
साझी परियोजनाएँ
गांधी, टैगोर, महामना
लटके हुए दीवालों पर
ताकते हैं टुकुर-टुकुर
देखते हुए सब कुछ
(भागते हैं दम छोड़)
अखबार और टीवी चैनल
तरह-तरह की एजेन्सियाँ
विश्वस्तरीय घोषित करने पर
तुली हुई हैं
अलग-अलग फीस पर
डोमा उस्ताद
चकित हैं अपनी ही उस्तादी पर
बैठे-बैठे इतरा रहा है
कलंगी में खोंसे हुए अखबार
जो बताये जा रहे हैं उसे
कि
वही है विश्वस्तरीय विद्वान
और वह है
तो उसका विश्वविद्यालय भी
होगा ही विश्वस्तरीय
इस तरह
बन रहा है
उच्चशिक्षा का कोलाज
शानदार
विश्वस्तरीय
अन्तरराष्ट्रीय।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9450091420
09616393771
सरल,सहज और प्रभावी कविताएं। कहीं भी कोई अतिरेक नहीं।
जवाब देंहटाएंललन चतुर्वेदी
साधुवाद
जवाब देंहटाएंसदानन्द शाही