अमरकान्त की कहानी 'जि़न्दगी और जोंक'
अमरकांत |
अमरकान्त ऐसे कहानीकार हैं जिनके बिना हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण विधा कहानी की कोई भी बात पूरी नहीं होती। निम्नमध्यवर्गीय जीवन के अप्रतिम कथाकार अमरकान्त सीधी सरल भाषा में अपने कथानक को इस प्रकार गढ़ते हैं कि सहसा यह विश्वास ही नहीं होता कि हम गल्प की दुनिया में विचरण कर रहे हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाले कथ्य को भी तटस्थ भाव से प्रस्तुत करने में अमरकान्त जी का कोई सानी नहीं है।
अमरकान्त जी उन चुनिन्दा कहानीकारों में से एक हैं जिनके पास एक साथ एक से बढ़ कर एक कई बेहतरीन कहानियां हैं। 'दोपहर का भोजन', 'डिप्टी कलक्टरी', 'हत्यारे', 'जिंदगी और जोंक', 'बहादुर', 'फर्क', 'कबड्डी', 'मूस', 'छिपकली', 'मौत का नगर', 'पलास के फूल' से ले कर 'बउरैया कोदो' तक बेहतरीन कहानियों की एक असमाप्त और लम्बी फेहरिस्त है।
अमरकांत का एक वक्तव्य कहानी लेखन के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है - 'जो आपके सामने घटित हो रहा है सिर्फ वही रचना नहीं है बल्कि उसे देख कर, अपने चारों ओर देखने के बाद आपके भीतर जो घटित हो रहा है, वह रचना है।” अपने इस कथन को अमरकांत ने अपनी कहानियों में बेहतर तरीके से लागू किया है।
अपनी कहानियों में अमरकांत ने आम आदमी के मनोविज्ञान को बहुत बारीकी से चित्रित किया है। कहीं उसकी जिजीविषा का प्रश्न महत्वपूर्ण है तो कहीं उसके अस्तित्व का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है। आम आदमी के अधूरे सपनों, उसकी अधूरी इच्छाओं को अमरकांत उनकी तमाम कमजोरियों के साथ चित्रित करते हैं। भारतीय मध्यवर्गीय तथाकथित आदर्शों के घटाटोप में छटपटाते आम आदमी की पूर्ण संवेदना यहाँ मुखरित हुई है।
'जिंदगी और जोंक' अमरकांत की प्रतिनिधि कहानी है। इस कहानी का नायक वह रजुवा है जिसको अपना नाम तक नहीं मिल पाता। कहानी पढ़ते हुए सामान्य तौर पर ऐसा लगता है कि रजुआ की जिंदगी में अपमान और हिकारत के अलावा कुछ भी तो नहीं है। यानी जीने के लिए जिसकी जरूरत एक आम आदमी को होती है वह तक उसे मयस्सर नहीं। लेकिन रजुवा अपनी जिंदगी को अलग अंदाज में जीने की कोशिश करता है। यह अंदाज एक अभावग्रस्त आदमी का अंदाज है। इस अभाव में भी वह जीने के बहाने खोज लेता है और वह अजीब से हँस कर, कबीर की उल्टी-सीधी बानियाँ बोल कर, उस समय के प्रचलित नारे लगा कर जीवन को एक अर्थ देने की कोशिश करता है। वह रजुआ जिसको हैजा होने पर समाज मरने के लिए छोड़ देता है, एक पगली को सहारा देने की कोशिश करता है। आधुनिकता ने आदमी को प्रायः संवेदनहीन बना दिया है। लेकिन आम आदमी अपनी संवेदनाओं को आज भी बचाए हुए है। रजुवा तक में यह संवेदना महसूस की जा सकती है। भिखारी जैसे दिखने वाला रजुवा स्वाभिमानी भी है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वह भीख नहीं मांगता, बल्कि काम कर के खाना चाहता है। उसका जुझारूपन अद्भुत है।
आज अमरकांत जी का जन्मदिन है। उनकी स्मृति को पहली बार की तरफ से नमन। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अमरकांत की चर्चित कहानी 'जि़न्दगी और जोंक'।
'जि़न्दगी और जोंक'
अमरकांत
मुहल्ले में जिस दिन उसका आगमन हुआ, सबेरे तरकारी लाने के लिए बाज़ार जाते समय मैंने उसको देखा था। शिवनाथ बाबू के घर के सामने, सड़क की दूसरी ओर स्थित खँडहर में, नीम के पेड़ के नीचे, एक दुबला-पतला काला आदमी, गन्दी लुंगी में लिपटा चित्त पड़ा था, जैसे रात में आसमान से टपक कर बेहोश हो गया हो अथवा दक्षिण भारत का भूला-भटका साधु निश्चिन्त स्थान पाकर चुपचाप नाक से हवा खींच-खींच कर प्राणायाम कर रहा हो।
फिर मैंने शायद एक-दो बार और भी उसको कठपुतले की भाँति डोल-डोल कर सड़क को पार करते या मुहल्ले के एक-दो मकानों के सामने चक्कर लगाते या बैठ कर हाँफते हुए देखा। इसके अलावा मैं उसके बारे में उस समय तक कुछ नहीं जानता था।
रात के लगभग दस बजे खाने के बाद बाहर आ कर लेटा था। चैत का महीना, हवा तेज चल रही थी। चारों ओर घुप अँधियारा। प्रारम्भिक झपकियाँ ले ही रहा था कि 'मारो-मारो' का हल्ला सुन कर चौंक पड़ा। यह शोरगुल बढ़ता गया। मैं तत्काल उठ बैठा। शायद आवाज शिवनाथ बाबू के मकान की ओर से आ रही थी। जल्दी से पाँव चप्पल में डाल उधर को चल पड़ा।
मेरा अनुमान ठीक था। शिवनाथ बाबू के मकान के सामने ही भीड़ लगी थी। मुहल्ले के दूसरे लोग भी शोरगुल सुन कर अपने घरों से भागे चले आ रहे थे। मैंने भीतर घुस कर देखा और कुछ चकित रह गया। खँडहर का वही भिखमंगा था। शिवनाथ बाबू का लड़का रघुवीर उस भिखमंगे की दोनों बाँहों को पीछे से पकड़े हुए था और दो-तीन व्यक्ति आँख मूँद तथा उछल-कूद कर बेतहाशा पीट रहे थे। शिवनाथ बाबू तथा अन्य लोग उसे भयजन्य क्रोध से आँखें फाड़-फाड़कर घूर रहे थे।
भिखमंगा नाटा था। गाल पिचके हुए, आँखें धँसी हुइर्ं और छाती की हड्डियाँ साफ बाँस की खपचियों की तरह दिखायी दे रही थीं। पेट नाँद की तरह फूला हुआ। मार पड़ने पर वह बेतहाशा चिल्ला रहा था, "मैं बरई हूँ, बरई हूँ ․․․․"
"साला छँटा हुआ चोर है, साहब!" शिवनाथ बाबू मेरे पास सरक आये थे, "पर यह हमारा-आपका दोष है कि आदमी नहीं पहचानते। गरीबों को देख कर हमारा-आपका दिल पसीज जाता है और मौका-बे-मौका खुद्दी-चुन्नी, साग-सत्तू दे ही दिया जाता है। आपने तो इसको देखा ही होगा, मालूम होता था महीनों से खाना नहीं मिला है, पर कौन जानता था कि साला ऐसा निकलेगा। हरामी का पिल्ला․․․!" फिर भिखमंगे की ओर मुड़ कर गरज पड़े, "बता साले, साड़ी कहाँ रखी है? नहीं वह मार पड़ेगी कि नानी याद आ जायेगी।"
उनका गला जोर से चिल्लाने के कारण किंचित बैठ गया था, इसलिए सम्भवतः थक कर वह चुप हो गये। पीटने वालों ने भी इस समय पीटना बन्द कर दिया था, लेकिन शिवनाथ बाबू के वक्तव्य से रामजी मिश्र का शोहदा पहलवान लड़का शम्भु अत्यधिक प्रभावित मालूम पड़ा। वह अभी-अभी आया था और शिवनाथ बाबू का बयान समाप्त होते ही आव देखा न ताव, भीड़ में से आगे लपक, जूता हाथ में ले, गन्दी गालियाँ देते हुए भिखमंगे को पीटना शुरू कर दिया।
"एक-डेढ़ हफ्ते से मुहल्ले में आया हुआ है," शिवनाथ बाबू जैसे निश्चिन्त हो कर फिर बोले, "लालची कुत्तों की तरह इधर-उधर घूमा करता था, सो हमारे घर में दया आ गयी। एक रोज उसे बुला कर उन्होंने कटोरे में दाल-भात-तरकारी खाने को दे दी। बस क्या था, परच गया। रोज आने लगा। खैर, कोई बात नहीं थी, आपकी दया से ऐसे दो-तीन भर-भिखमंगे रोज ही खा कर दुआ दे जाते हैं। यह घर में आने लगा तो मौका पड़ने पर एकाध काम भी कर देता था, अब यह किसको पता था कि आज यह घर से नयी साड़ी चुरा लेगा।"
"आपको ठीक से पता है कि साड़ी इसी ने चुरायी है?"
मेरे इस प्रश्न से वे बिगड़ गये। बोले, "आप भी खूब बात करते हैं! यही पता लग गया तो चोर कैसा? मैं तो खूब जानता हूँ कि ये सब चोरी का माल होशियारी से छिपा देते हैं और जब तक इनकी बड़ी पिटाई न की जाये, कुछ नहीं बताते। अब यही समझिए कि करीब नौ बजे साड़ी गायब हुई। जमुना का कहना है कि उसी समय उसने इसको किसी सामान के साथ घर से निकलते हुए देखा। फिर मैं यह पूछता हूँ कि आज दस वर्ष से मेरे घर का दरवाजा इसी तरह खुला रहता है, लेकिन कभी चोरी नहीं हुई। आज ही कौन-सी नयी बात हो गयी कि वह आया नहीं और मुहल्ले में चोरी-बदमाशी शुरू हो गयी! अरे, मैं इन सालों को खूब जानता हूँ।"
वह भिखमंगा अब भी तेज मार पड़ने पर चिल्ला उठता, "मैं बरई हूँ, बरई हूँ, बरई हूँ․․․" स्पष्ट था कि इतने लोगों को देख कर वह काफी भयभीत हो गया था और अपने समर्थन में कुछ न पा कर बेतहाशा अपनी जाति का नाम ले रहा था, जैसे हर जाति के लोग चोर हो सकते हैं, लेकिन बरई कतई नहीं हो सकते।
नये लोग अब भी आ रहे थे। वे क्रोध और उत्तेजना में आ कर उसे पीटते और फिर भीड़ में मिल जाते और जब लगातार मार पड़ने पर भी उसने कुछ नहीं बताया तो लोग खामखाह थक गये। कुछ लोग वहाँ से सरकने भी लगे। किसी ने उसे पेड़ में बाँधने और किसी ने पुलिस के सुपुर्द करने की सलाह दी। मैं भी कुछ ऐसी ही सलाह दे कर खिसकना चाहता था कि शिवनाथ बाबू का मँझला लड़का योगेन्द्र दौड़ता हुआ आया और अपने पिता जी को अलग ले जाते हुए फुस-फुस कुछ बातें कीं।
कुछ देर बाद शिवनाथ बाबू जब वापस आये तो उनके चेहरे पर हवाइयाँ-सी उड़ रही थीं। एक-दो क्षण इधर-उधर तथा मेरी ओर बेचारे की तरह देखने के बाद वह बोले, "अच्छा, इस बार छोड़ देते हैं। साला काफी पा चुका है, आइन्दा ऐसा करते चेतेगा।"
लोग शिवनाथ बाबू को बुरा-भला कह कर रास्ता नापने लगे। मैंने उनकी ओर मुस्करा कर देखा तो मेरे पास आ कर झेंपते हुए बोले, "इस बार तो साड़ी घर में ही मिल गयी है, पर कोई बात नहीं। चोर-चाई तो रात-रात भर मार खाते हैं और कुछ भी नहीं बताते।" फिर बायीं आँख को खूबी से दबाते हुए दाँत खोल कर हँस पड़े, "चलिए साहब, नीच और नींबू को दबाने से ही रस निकलता है!"
कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि उस दिन की पिटाई के बाद भी खँडहर का वह भिखमंगा मुहल्ले में टिके रहने की हिम्मत कैसे कर सका? हो सकता है, उसने सोचा हो कि निर्दोष छूट जाने के बाद मुहल्ले के लोगों का विश्वास और सहानुभूति उसको प्राप्त हो जायेगी और दूसरी जगह उसी अनिश्चितता का सामना करना पड़ेगा।
चाहे जो हो, उसके प्रति मेरी दिलचस्पी अब और बढ़ गयी थी। मैं उसको खँडहर में बैठ कर कुछ खाते या चुपचाप सोते या मुहल्ले से डग-डग सरकते हुए देखता। लोग अब उसको कुछ-न-कुछ दे देते। बचा हुआ बासी या जूठा खाना पहले कुत्तों या गाय-भैंसों को दे दिया जाता, परन्तु अब औरतें बच्चों को दौड़ा देतीं कि जाकर भिखमंगे को दे आयें। कुछ लोगों ने तो उसको कोई पहुँचा हुआ साधु-महात्मा तक कह डाला।
और धीरे-धीरे उसने खँडहर का परित्याग कर दिया और आम सहानुभूति एवं विश्वास का आश्चर्यजनक लाभ उठाते हुए, जब वह किसी-न-किसी ओसारे या दालान में जमीन पर सोने-बैठने लगा तो लोग उससे हल्के-फुल्के काम भी लेने लगे। दया-माया के मामले में शिवनाथ बाबू से पार पाना टेढ़ी खीर है, किन्तु भिखमंगा उनके दरवाजे पर जाता ही न था।
लेकिन एक दिन उन्होंने किसी शुभमुहूर्त में उसे सड़क से गुजरते समय संकेत से अपने पास बुलाया और तिरछी नजर से देखते हुए, मुस्करा कर बोले, "देख बे, तूने चाहे जो भी किया, हमसे तो यह सब नहीं देखा जाता। दर-दर भटकता रहता है। कुत्ते-सुअर का जीवन जीता है। आज से इधर-उधर भटकना छोड़, आराम से यहीं रह और दोनों जून भरपेट खा।"
पता नहीं, यह शिवनाथ बाबू के स्नेह से सम्भव हुआ या डर से, पर भिखमंगा उनके यहाँ स्थायी रूप से रहने लगा। उन्हीं के यहाँ उसका नाम-करण भी हुआ। उसका नाम गोपाल था, लेकिन शिवनाथ बाबू के दादा का नाम गोपाल सिंह था, इसलिए घर की औरतों की ज़बान से वह नाम उतरता ही न था। उन्होंने उसको 'रजुआ' कहना आरम्भ किया और धीरे-धीरे यही नाम सारे मुहल्ले में प्रसिद्ध हो गया।
किन्तु रजुआ के भाग्य में बहुत दिनों तक शिवनाथ बाबू के यहाँ टिकना न लिखा था। बात यह है कि मुहल्ले के लोगों को यह कतई पसन्द न था कि केवल दोनों जून भोजन पर रजुआ शिवनाथ बाबू की सेवा करे। जब भगवान ने उनके बीच एक नौकर भेज ही दिया था तो उस पर उनका भी उतना ही अधिकार था और उन्होंने मौका देख कर उसको अपनी सेवा करने का अवसर देना आरम्भ कर दिया। वह शिवनाथ बाबू के किसी काम से जाता तो रास्ते में कोई न कोई उसको पैसे दे कर किसी काम की फरमाइश कर देता और यदि वह आनाकानी करता तो सम्बन्धित व्यक्ति बिगड़ कर कहता, "साला, तू शिवनाथ बाबू का गुलाम है? वह क्या कर सकते हैं? मेरे यहाँ बैठ कर खाया कर, वह क्या खिलायेंगे, बासी भात ही तो देते होंगे!"
रजुआ शिवनाथ बाबू से अब भी डरता था, इसीलिए उनसे छिपा कर ही वह अन्य लोगों का काम करता। किन्तु उसको पीटने का और व्यक्तियों को भी उतना ही अधिकार था। एक बार जमुना लाल के लड़के जंगी ने रजुआ से तीन-चार आने की लकड़ी लाने के लिए कहा और रजुआ फौरन आने का वायदा करके चला गया। पर वह शीघ्र न आ सका, क्योंकि शिवनाथ बाबू के घर की औरतों ने उसे इस या उस काम में बाँध रखा। बाद में वह जब जमुना लाल के यहाँ पहुँचा तो जंगी ने पहला काम यह किया कि दो थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिये, फिर गरज कर बोला, "सुअर, धोखा देता है? कह देता नहीं आऊँगा। अब आज मैं तुझसे दिन-भर काम कराऊँगा, देखें कौन साला रोकता है! आखिर हम भी मुहल्ले में रहते हैं कि नहीं?"
और सचमुच जंगी ने उससे दिन-भर काम लिया। शिवनाथ बाबू को सब पता लग गया, लेकिन उनकी उदार व्यावहारिक बुद्धि की प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जाता, क्योंकि उन्होंने चूँ तक नहीं की।
ऐसी ही कई घटनाएँ हुईं, पर रजुआ पर किसी का स्थायी अधिकार निश्चित न हो सका। उसकी सेवाओं की उपयोग-सम्बन्धी खींचातानी से उसका समाजीकरण हो गया। मुहल्ले का कोई भी व्यक्ति उसे दो-चार रुपये दे कर स्थायी रूप से नौकर रखने को तैयार न हुआ, क्योंकि वह इतना शक्तिशाली कतई न था कि चौबीस घण्टे नौकर की महान जिम्मेदारियाँ सँभाल सके। वह तेजी के साथ पचीस-पचास गगरे पानी न भर सकता था, बाज़ार से दौड़ कर भारी सामान-सौदा न ला सकता था, अतएव लोग उससे छोटा-मोटा काम ले लेते और इच्छानुसार उसे कुछ-न-कुछ दे देते। अब न वह शिवनाथ बाबू के यहाँ टिकता और न जमुना लाल के यहाँ, क्योंकि उसको कोई टिकने ही न देता। इसको रजुआ ने भी समझ लिया और मुहल्ले के लोगों ने भी। वह अब किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं, बल्कि सारे मुहल्ले का नौकर हो गया।
रजुआ के लिए छोटे-मोटे कामों की कमी न थी। किसी के यहाँ खा-पीकर वह बाहर की चौकी या जमीन पर सो रहता और सवेरे उठता तो मुहल्ले के लोग उसका मुँह जोहते। नौकर-चाकर किसी के यहाँ बहुत दिनों तक टिकते नहीं थे और वे भाग-भाग कर रिक्शे चलाने लगते या किसी मिल या कारखाने में काम करने लगते। दो-चार व्यक्तियों के यहाँ ही नौकर थे, अन्य घरों में कहार पानी भर देता, लेकिन वह गगरों के हिसाब से पानी देता और यदि एक गगरा भी अधिक दे देता तो उसका मेहनताना पाई-पाई वसूल कर लेता। इस स्थिति में रजुआ का आगमन जैसे भगवान् का वरदान था।
लोग उससे छोटा-बड़ा काम ले कर इच्छानुसार उसकी मजदूरी चुका देते। यदि उसने कोई छोटा काम किया तो उसे बासी रोटी या भात या भुना हुआ चना या सत्तू दे दिया जाता और वह एक कोने में बैठ कर चापुड़-चापुड़ खा-फाँक लेता। अगर कोई बड़ा काम कर देता तो एक जून का खाना मिल जाता, पर उसमें अनिवार्य रूप से एकाध चीज बासी रहती और कभी-कभी तरकारी या दाल नदारत होती। कभी भात-नमक मिल जाता, जिसे वह पानी के साथ खा जाता। कभी-कभी रोटी-अचार और कभी-कभी तो सिर्फ़ तरकारी ही खाने या दाल पीने को मिलती। कभी खाना न होने पर दो-चार पैसे मिल जाते या मोटा-पुराना कच्चा चावल या दाल या चार-छः आलू। कभी उधार भी चलता। वह काम कर देता और उसके एवज में फिर किसी दिन कुछ-न-कुछ पा जाता।
इसी बीच वह मेरे घर भी आने लगा था, क्योंकि मेरी श्रीमती जी बुद्धि के मामले में किसी से पीछे न थीं। रजुआ आता और काम कर के चला जाता। एक-दो बार मुझसे भी मुठभेड़ हुई, पर कुछ बोला नहीं।
कोई छुट्टी का दिन था। मैं बाहर बैठा एक किताब पढ़ रहा था कि इतने में रजुआ भीतर आया और कोने में बैठ कर कुछ खाने लगा। मैंने घूम कर एक निगाह उस पर डाली। उसके हाथ में एक रोटी और थोड़ा-सा अचार था और वह सूअर की भाँति चापुड़-चापुड़ खा रहा था। बीच-बीच में वह मुस्कुरा पड़ता, जैसे कोई बड़ी मंजिल सर कर के बैठा हो।
मैं उसकी ओर देखता रहा और मुझे वह दिन याद आ गया, जब चोरी के अभियोग में उसकी पिटाई हुई थी। जब वह खा कर उठा तो मैंने पूछा, "क्यों रे रजुआ, तेरा घर कहाँ है?"
वह सकपका कर खड़ा हो गया, फिर मुँह टेढ़ा करके बोला, "सरकार, रामपुर का रहने वाला हूँ!" और उसने दाँत निपोर दिये।
"गाँव छोड़ कर यहाँ क्यों चला आया?" मैंने पुनः प्रश्न किया।
क्षण-भर वह असमंजस में मुझे खड़ा ताकता रहा, फिर बोला, "पहले रसड़ा में था, मालिक!"
जैसे रामपुर से सीधे बलिया आना कोई अपराध हो। उसके लिए सम्भवतः 'क्यों' का कोई महत्त्व नहीं था, जैसे गाँव छोड़ने का जो भी कारण हो, वह अत्यन्त सामान्य एवं स्वाभाविक था और वह न उसके बताने की चीज थी और न किसी के समझने की।
"रामपुर में कोई है तेरा?" मैंने एक-दो क्षण उसको ग़ौर से देखने के बाद दूसरा सवाल किया।
"नहीं मालिक, बाप और दो बहनें थीं, ताऊन में मर गयीं।" वह फिर दाँत निपोर कर हँस पड़ा।
उसके बाद मैंने कोई प्रश्न नहीं किया। हिम्मत नहीं हुई। वह फौरन वहाँ से सरक गया और मेरा हृदय कुछ अजीब-सी घृणा से भर उठा। उसकी खोपड़ी किसी हलवाई की दुकान पर दिन में लटकते काले गैस-लैम्प की भाँति हिल-डुल रही थी। हाथ-पैर पतले, पेट अब भी हँडिया कि तरह फूला हुआ और सारा शरीर निहायत गन्दा एवं घृणित․․ मेरी इच्छा हुई, जा कर बीवी से कह दूँ कि इससे काम न लिया करो, यह रोगी․․․ फिर टाल गया, क्योंकि इसमें मेरा ही घाटा था। मैं जानता था कि नौकरों की कितनी किल्लत थी और रजुआ के रहने से इतना आराम हो गया था कि मैं हर पहली या दूसरी तारीख को राशन, मसाला आदि खरीद कर महीने-भर के लिए निश्चिन्त हो जाता।
"इनखिलाफ जिन्दाबाद! महात्मा गान्ही की जै!"
कुछ महीने बाद एक दिन जब मैं अपने कमरे में बैठा था कि मुझे रजुआ के नारे लगाने और फिर 'ही-ही' हँसने की आवाज सुनायी दी।
मैं चौंका और मैंने सुना, आँगन में पहुँच कर वह जोर से कह रहा है, "मलिकाइन, थोड़ा नमक होगा, रामबली मिसिर के यहाँ से रोटियाँ मिल गयी हैं, दाल बनाऊँगा।"
मेरी पत्नी चूल्हे-चौके में लगी हुई थी। उसने कुछ देर बाद उसको नमक देते हुए पूछा, "रजुआ, सच बताना, तुझे नहाये हुए कितने दिन हो गये?"
"खिचड़ी की खिचड़ी नहाता हूँ न, मलिकाइन जी!" वह नमक ले कर बोला और हँसते हुए भाग गया।
मैं कमरे में बैठा यह सब सुन रहा था। सम्भवतः उसको मेरी उपस्थिति का ज्ञान न था, अन्यथा वह ऐसी बातें न करता। लेकिन यह बात साफ थी कि अब वह मुहल्ले में जम गया है। उसको खाने-पीने की चिन्ता नहीं है। इतना ही नहीं, अब वह मुहल्ले-भर से शह पा रहा है। लोग अब उससे हँसी-मजाक भी करने लगे हैं और उसे मारे-पीटे जाने का किंचित मात्र भी भय नहीं। अवश्य यही बात थी और वह स्थिति में परिवर्तन से लाभ उठाते हुए ढीठ हो गया था। इसीलिए उसने अपने आगमन की सूचना देने के लिए राजनीतिक नारे लगाये थे, जैसे वह कहना चाहता हो कि मैं हँसी-मजाक का विषय हूँ, लोग मुझसे मजाक करें, जिससे मेरे हृदय में हिम्मत और ढाढ़स बँधे।
मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। लेकिन कुछ ही दिन बाद मैंने उसकी एक और हरकत देखी, जिससे मेरे अनुमान की पुष्टि होती थी।
सायंकाल दफ्तर से आ रहा था कि जीउत राम के गोले के पास मैंने रजुआ की आवाज सुनी। पतिया की स्त्री बर्तन माँज रही थी और उसके पास खड़ा रजुआ टेढ़ा मुँह करके बोल रहा था, "सलाम हो भौजी, समाचार है न!" अन्त में बेमतलब 'ही-ही' हँसने लगा।
पतिया की बहू ने थोड़ी मुस्की काटते हुए सुनाया, "दूर हो पापी, समाचार पूछने का तेरा ही मुँह है? चला जा, नहीं तो जूठ की काली हाँडी चला कर वह मारूँगी कि सारी लफंगई․․․" यहाँ उसने एक गन्दे मुहावरे का इस्तेमाल किया।
लेकिन, मालूम पड़ता है कि रजुआ इतने ही से खुश हो गया, क्योंकि वह मुँह फैला कर हँस पड़ा और फिर तुरन्त उसने दो-तीन बार सिर को ऊपर झटका देते हुए ऐसी किलकारियाँ लगायीं जैसे घास चरता हुआ गदहा अचानक सिर उठा कर ढीचूँ-ढीचूँ कर उठता है।
फिर तो यह उसकी आदत हो गयी। सारे मुहल्ले की छोटी जातियों की औरतों से उसने भौजाई का सम्बन्ध जोड़ लिया था। उनको देख कर वह कुछ हल्की-फुल्की छेड़खानी कर देता और तब वह गधे की भाँति ढीचूँ-ढीचूँ कर उठता।
कुएँ पर पहुँच कर वह किसी औरत को कनखी से निहारता और अन्त में पूछ बैठता, "यह कौन है? अच्छा, बड़की भौजी हैं? सलाम, भौजी। सीताराम, सीताराम, राम-राम जपना, पराया माल अपना।" इतना कह वह दुष्टतापूर्वक हँस पड़ता।
वह किसी काम से जा रहा होता, पर रास्ते में किसी औरत को बर्तन माँजते या अपने दरवाजे पर बैठे हुए या कोई काम करते हुए देख लेता तो एक-दो मिनट के लिए वहाँ पहुँच जाता, बेहया की तरह हँस कर कुशल-क्षेम पूछता और अन्त में झिड़की-गाली सुन कर किलकारियाँ मारता हुआ वापस चला जाता। धीरे-धीरे वह इतना सहक गया कि नीची जाति की किसी जवान स्त्री को देख कर, चाहे वह जान-पहचान की हो या न हो, दूर से ही हिचकी दे-दे कर किलकने लगता।
मेरी तरह मुहल्ले के अन्य लोगों ने भी उसके इस परिवर्तन पर ग़ौर किया था और सम्भवतः इसी कारण लोग उसे रजुआ से 'रजुआ साला' कहने लगे। अब कोई बात कहनी होती, कितने गम्भीर काम के लिए पुकारना होता, लोग उसे 'रजुआ साला' कह कर बुलाते और अपने काम की फरमाइश करके हँस पड़ते। उनकी देखा-देखी लड़के भी ऐसा ही करने लगे, जैसे 'साला' कहे बिना रजुआ का कोई अस्तित्व ही न हो और इससे रजुआ भी बड़ा प्रसन्न था, जैसे इससे उसके जीवन की अनिश्चितता कम हो रही हो और उस पर अचानक कोई संकट आने की सम्भावना संकुचित होती जा रही हो।
और अब लोग उसे चिढ़ाने भी लगे।
"क्यों बे रजुआ साला, शादी करेगा?" लोग उसे छेड़ते। रजुआ उनकी बातों पर 'खी-खी' हँस पड़ता और फिर अपनी आदत के अनुसार सिर को ऊपर की ओर दो-तीन बार झटके देता हुआ तथा मुँह से ऐसी हिचकी की आवाज निकालता हुआ, जो अधिक कड़वी चीज खाने पर निकलती है, चलता बनता। वह समझ गया था कि लोग उसे देख कर खुश होते हैं और अब वह सड़क पर चलते, गली से गुजरते, घर में घुसते, काम की फरमाइश ले कर घर से निकलते और कुएँ पर पानी भरते समय जोरों से चिल्ला सकता कि कर उस समय के प्रचलित राजनीतिक नारे लगाता या कबीर की कोई गलत-सलत बानी बोलता या किसी सुनी हुई कविता या दोहे की एक-दो पंक्तियाँ गाता। ऐसा करते समय वह किसी की ओर देखता नहीं, बल्कि टेढ़ा मुँह करके जमीन की ओर देखता मुँह फैला कर हँसे जाता, जैसे वह दिमाग की आँखों से देख रहा हो कि उसकी हरकतों को बहुत-से लोग देख-सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं।
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सायंकाल दफ्तर से आने और नाश्ता-पानी करने के बाद मैं हवा-खोरी करने निकल जाता हूँ। रेलवे लाइन पकड़ कर बाँसडीह की ओर जाना मुझे सबसे अच्छा लगता है। सरयू पार कर के गंगा जी के किनारे घूमना-टहलना कम आनन्ददायी नहीं है, लेकिन उसमें सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि बरसात में दोनों नदियाँ बढ़ कर समुद्र का रूप ले लेती हैं और जाड़े में इतने दलदल मिलते हैं कि जाने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मुझे देर हो जाती है या अधिक चलने-फिरने की कोई इच्छा नहीं होती और स्टेशन के प्लेटफार्म का चक्कर लगा कर वापस लौट आता हूँ।
पन्द्रह-बीस दिन के बाद एक दिन सायंकाल स्टेशन के प्लेटफार्म पर टहलने लगा। स्टेशन के फाटक से प्लेटफार्म पर आने के बाद मैं बायीं तरफ जी․ आर․ पी․ की चौकी की ओर बढ़ चला किन्तु कुछ क़दम ही चला था कि मेरा ध्यान रजुआ की ओर गया, जो मुझसे कुछ दूर आगे था। वह भी उधर ही जा रहा था। मुझे कुछ आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि शहर के काफी लोग दिशा-मैदान के लिए कटहर नाला जाते थे, जो स्टेशन के पास ही बहता है। मैं धीरे-धीरे चलने लगा।
पर रजुआ कटहर नाला नहीं गया, बल्कि जी․ आर․ पी․ की चौकी के पास कुछ ठिठक कर खड़ा हो गया। अब मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। क्या वह किसी मामले में पुलिस वालों के चक्कर में आ गया है? मेरी समझ में कुछ न आया और उत्सुकतावश मैं तेज चलने लगा। आगे बढ़ने पर स्थिति कुछ-कुछ समझ में आने लगी।
चौकी के सामने एक बेंच पर बैठे पुलिस के दो-तीन सिपाही कोई हँसी-मजाक कर रहे थे और उनसे थोड़ी ही दूरी पर नीचे एक नंगी औरत बैठी हुई थी। वह औरत और कोई नहीं, एक पगली थी, जो कई दिनों से शहर का चक्कर काट रही थी। उसको मैंने कई बार चौक में तथा एक बार सरयू के किनारे देखा था। उसकी उम्र लगभग तीस वर्ष होगी और वह बदसूरत, काली तथा निहायत गन्दी थी। वह जहाँ जाती, कुछ लफंगे 'हा-हू' करते उसके पीछे हो जाते। वे उसको चिढ़ाते, उस पर ईंट फेंकते और जब वह तंग आ कर चीखती-चिल्लाती भागती तो लड़के उसके पीछे दौड़ते।
रजुआ उस पगली के पास ही खड़ा था। वह कभी शंकित आँखों से पुलिस वालों को देखता, फिर मुँह फैला कर हँस पड़ता और मुटर-मुटर पगली को ताकने लगता। परन्तु पुलिस वाले सम्भवतः उसकी ओर ध्यान न दे रहे थे।
मुझे बड़ी शर्म मालूम हुई, किन्तु मैं इतना समीप पहुँच गया था कि अचानक घूम कर लौटना सम्भव न हो सका। असली बात जानने की उत्सुकता भी थी। मैं शून्य की ओर देखता हुआ आगे बढ़ा, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी दृष्टि उधर चली ही जाती।
रजुआ शायद पुलिस वालों की लापरवाही का फायदा उठाते हुए आगे बढ़ गया था और सिर नीचे झुका कर अत्यन्त ही प्रसन्न हो कर हँसते हुए पुचकारती आवाज में पूछ रहा था, "क्या है पागलराम, भात खाओगी?"
इतने में पुलिस वालों में से एक ने कड़क कर प्रश्न किया, "कौन है बे साला, चलता बन, नहीं तो मारते-मारते भूसा बना दूँगा।"
रजुआ वहाँ से थोड़ा हट गया और हँसते हुए बोला, "मालिक, मैं रजुआ हूँ।"
"भाग जा साले, गिद्ध की तरह न मालूम कहाँ से आ पहुँचा।" सम्भवतः दूसरे सिपाही ने कहा और फिर वे सभी ठहाका मार कर हँस पड़े।
मैं अब काफी आगे निकल गया था और इससे अधिक मुझे कुछ सुनायी न पड़ा। मैं जल्दी-जल्दी प्लेटफार्म से बाहर निकल गया।
किन्तु, मामला यहीं समाप्त नहीं हो गया। घर आ कर मैंने आँगन में चारपाई डाल, बड़ी मुश्किल से आधा घण्टा आराम किया होगा कि मेरी पत्नी भागती हुई आयी और कुछ मुस्कराती हुई तेजी से बोली, "अरे, ज़रा जल्दी से बाहर आइए तो, एक तमाशा दिखाती हूँ। हमारी कसम, ज़रा जल्दी उठिए।"
मैं अनिच्छापूर्वक उठा और बाहर आ कर जो दृश्य देखा उससे मेरे हृदय में एक ही साथ आश्चर्य एवं घृणा के ऐसे भाव उठे जिन्हें मैं व्यक्त नहीं कर सकता। रजुआ स्टेशन की नंगी पगली के आगे-आगे आ रहा था। पगली कभी इधर-उधर देखने लगती या खड़ी हो जाती तो रजुआ पीछे हो कर पगली की अँगुली पकड़ कर थोड़ा आगे ले आता और फिर उसे छोड़ कर थोड़ा आगे चलने लगता तथा पीछे घूम-घूम कर पगली से कुछ कहता जाता। इसी तरह वह पगली को सड़क की दूसरी ओर स्थित क्वार्टरों की छत पर ले गया। वे क्वार्टर मेरे मकान के सामने दूसरी पटरी पर बने थे और वे एक-दूसरे से सटे थे। उनकी छतें खुली थीं और उन पर मुहल्ले के लोग जाड़े में धूप लिया करते और गर्मी में रात को लावारिस लफंगे सोया करते थे।
तभी रजुआ नीचे उतरा, किन्तु पगली उसके साथ न थी। हम लोगों की उत्सुकता बढ़ गयी थी कि देखें, वह आगे क्या करता है। हम लोग वहीं खड़े रहे और रजुआ तेजी से स्टेशन की ओर गया तथा कुछ ही देर में वापस भी आ गया। इस बार उसके हाथ में एक दोना था। दोना ले कर वह ऊपर चढ़ गया और हम समझ गये कि वह पगली को खिलाने के लिए बाज़ार से कुछ लाया है।
इसके बाद दो-तीन दिन तक रजुआ को मैंने मुहल्ले में नहीं देखा। उस दिन की घटना से हृदय में एक उत्सुकता बनी हुई थी, इसलिए एक दिन मैंने अपनी पत्नी से पूछा, "क्या बात है, रजुआ आजकल दिखायी नहीं देता। अब यहाँ नहीं आता क्या?"
पत्नी ने थोड़ा चौक कर उत्तर दिया, "अरे, आपको नहीं मालूम, उसको किसी ने बुरी तरह पीट दिया है और वह बरन की बहू के यहाँ पड़ा हुआ है।"
"क्यों, क्या बात है?" मैंने अपनी उत्सुकता प्रकट किये बिना धीमे स्वर में पूछा।
पत्नी ने मुस्करा कर बताया, "अरे, वही बात है। रजुआ उस पगली को छत पर छोड़ नरसिंह बाबू के यहाँ काम करने लगा। नरसिंह बाबू की स्त्री बताती हैं कि वह उस दिन बड़ा गम्भीर था और काम करते-करते चहक कर जैसे किलकारी मारता है, वैसे नहीं करता था। उसकी तबीयत काम में नहीं लगती थी। वह एक काम करता और मौका देख कोई बहाना बना कर क्वार्टर की छत पर जा कर पगली का समाचार ले आता। नरसिंह बाबू की स्त्री ने जब उसे खाना दिया तो उसने वहाँ भोजन नहीं किया, बल्कि खाने को एक कागज में लपेट कर अपने साथ लेता गया। उसने वह खाना खुद थोड़े खाया, बल्कि उसको वह ऊपर छत पर ले गया। रात के करीब ग्यारह बजे की बात है। रजुआ जब ऊपर पहुँचा तो देखा कि पगली के पास कोई दूसरा सोया है। उसने आपत्ति की तो उसको उस लफंगे ने खूब पीटा और पगली को ले कर कहीं दूसरी जगह चला गया।"
"तुम्हें यह सब कैसे मालूम हुआ?" मेरा हृदय एक अनजान क्रोध से भरा आ रहा था।
"बरन की बहू बता रही थी।" पत्नी ने उत्तर दिया और अकारण ही हँस पड़ी।
बहुत दिन हो गये थे। गर्मी का मौसम था और भयंकर लू चलना शुरू हो गयी थी। छत पर मार खाने के चार-पाँच दिन बाद रजुआ फिर मुहल्ले में आ कर काम करने लगा था। लेकिन उसमें एक जबर्दस्त परिवर्तन यह हुआ कि उसका स्त्रियों के साथ छेड़खानी कर के गधे की भाँति हिचकना-किलकना बन्द हो गया।
"रजुआ ने आजकल दाढ़ी क्यों रख छोड़ी है?" मैंने पत्नी से पूछा। रजुआ की बात छिड़ने पर मेरी बीवी अवश्य हँस देती। मुस्करा कर उसने उत्तर दिया, "आजकल वह भगत हो गया है। बरन की बहू को उसके कृत्य की सजा देने को उसने दाढ़ी बढ़ा ली है और रोजाना शनीचरी देवी पर जल चढ़ाता है।"
मेरे प्रश्नसूचक दृष्टि से देखने पर पत्नी ने अपनी बात स्पष्ट की, "बात यह है कि रजुआ पिछले महीनों से रात को बरन की बहू के यहाँ ही सोता था और उससे बुआ का रिश्ता भी उसने जोड़ लिया था। रजुआ दो-चार आने जो कुछ कमाता, वह अपनी 'बुआ' के यहाँ जमा करता जाता। वह बताता है कि इस तरह करते-करते दस रुपये तक इकट्ठे हो गये हैं। एक बार उसने बरन की बहू से अपने रुपये माँगे तो वह इंकार कर गयी कि उसके पास रजुआ की एक पाई भी नहीं। रजुआ के दिल को इतनी चोट लगी कि उसने दाढ़ी रख ली। वह कहता है कि जब तक बरन की बहू को कोढ़ न फूटेगा, वह दाढ़ी न मुड़ायेगा। इसी काम के लिए वह शनीचरी देवी पर रोज जल भी चढ़ाता है।"
शनीचरी देवी का जहाँ तक सम्बन्ध है, मुझे अब ख्याल आया। शनीचरी अपने ज़माने की एक प्रचण्ड डोमिन थी। ताड़का की तरह लम्बी-तगड़ी और लड़ने-झगड़ने में उस्ताद। वह किसी से भी नहीं डरती थी और नित्य ही किसी-न-किसी से मोर्चा लेती थी। एक बार किसी लड़ाई में एक डोम ने शनीचरी की खोपड़ी पर एक लट्ठ जमा दिया, जिससे उसका प्राणान्त हो गया। लेकिन एक-डेढ़ हफ्ते बाद ही उस डोम के चेचक निकल आयी और वह मर गया। लोगों ने उसकी मृत्यु का कारण शनीचरी का प्रकोप समझा। डोमों ने श्रद्धा में उसका चबूतरा बना दिया और तब से वह छोटी जातियों में शनीचरी माता या शनीचरी देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी थी।
मैं कुछ नहीं बोला, लेकिन पत्नी ने सम्भवतः कुछ उदास स्वर में कहा, "उसको आजकल थोड़ा बुखार रहता है। उसका विश्वास है कि बरन की बहू ने उस पर जादू-टोना कर दिया है। वह कहता है कि शनीचरी बहुत चलती देवी हैं। अरे, एक महीने में ही बरन की बहू कोढ़ से फूट-फूट कर मरेगी।"
पता नहीं, उसका ज्वर टूटा कि नहीं, मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की। बीमार तो वह सदा ही का था। सोचा, शायद उतर गया हो, क्योंकि काम तो वह उसी तरह कर रहा था। हाँ, बीच में उसके चेहरे पर जो चुस्ती और खुशी चमक-चमक उठती, वह तिरोहित हो गयी थी। न वह उतना चहकता था, न उतना बोलता था। अपेक्षाड्डत वह अधिक गम्भीर और सुस्त हो गया।
उसकी रुचि धर्म की ओर मुड़ गयी और शनीचरी देवी की मन्नत मानते वह अच्छा-भला भगत बन बैठा।
मेरे घर के सामने, सड़क की दूसरी ओर क्वार्टर में एक पण्डित जी रहते हैं। यों तो वह लकड़ियाँ बेचते हैं, लेकिन साथ-साथ सत्तू-नमक-तेल वगैरह भी रखते हैं। फलस्वरूप उनके यहाँ इक्के-ताँगे वालों और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती है, जो पण्डित जी के यहाँ से सत्तू ले कर अपनी भूख मिटाते हैं और उनकी दुकान के छायादार नीम के नीचे पाँच-दस मिनट विश्राम करते हुए ठट्ठा-मजाक भी करते हैं। रात को वहीं उनकी मजलिस लगती है।
उस रात गर्मी इतनी थी कि आँगन में दम घुटा जा रहा था। मैं खाने के पश्चात् चारपाई को घसीटते हुए लगभग सड़क के किनारे ले गया। उमस तो यहाँ भी थी, पर अपेक्षाकृत शान्ति मिली।
मुझे लेटे हुए अभी दो-चार मिनट ही बीते होंगे कि पण्डित जी की दुकान से आती हुई आवाज सुनायी पड़ी, "तो का हो रज्जू भगत, गोसाईं जी का कह गये हैं? महाबीर जी समुन्दर में कूदते हैं तो ताड़का महरानी का कहती हैं?"
"सुनो-सुनो," प्रश्नकर्ता की बात के उत्तर में रजुआ (शायद वह भगत कहलाने लगा था) तत्काल जोश से ऐसे बोला, जैसे आशंका हो कि यदि वह देर कर देगा तो कोई दूसरा ही बता देगा-"बजरंगबली बड़े जबर थे। वह समुन्दर में कुछ दूर तक तैर लेते हैं तो उनको ताड़का महरानी मिलती हैं। ताड़का महरानी अपना रूप दिखाती हैं तो बजरंगबली किससे कम हैं? ये मियाँ एढ़े तो हम तुमसे ड्यौढ़े, बजरंगबली भी उतने ही बड़े हो जाते हैं। इसके बाद ताड़का महरानी के कान से बाहर निकल आते हैं।"
"तो ए रज्जू भगत, गान्ही महात्मा भी तो जेहल से निकल आते हैं?" किसी दूसरे ने पूछा।
रजुआ ने और जोर से बताया, "सुनो-सुनो, गान्ही महात्मा को सरकार जब जेहल में डाल देती है तो एक दिन क्या होता है कि सभी सिपाही-प्यादा के होते हुए भी गान्ही महात्मा जेहल से निकल आते हैं और सबकी आँखों पर पट्टी बँधी रह जाती है। गान्ही महात्मा सात समुन्दर पार कर के जब देहली पहुँचते हैं तो सरकार उन पर गोली चलाती है। गोली गान्ही महात्मा की छाती पर लग कर सौ टुकड़े हो जाती है और गान्ही महात्मा आसमान में उड़ कर गायब हो जाते हैं।"
इसके पूर्व महात्मा गाँधी की मृत्यु का ऐसा दिलचस्प किस्सा मैंने कभी नहीं सुना था, यद्यपि गाँधी की हत्या हुए चार वर्ष गुजर गये थे।
उसकी दाढ़ी जैसे-जैसे बढ़ती गयी, रजुआ के धर्म-प्रेम का समाचार भी फैलता गया। निचले तबके के लोगों में अब वह 'रज्जू भगत' के नाम से पुकारा जाने लगा। बड़े लोगों में भी कोई-कोई हँसी-मजाक में उसको इस नाम से सम्बोधित करता, लेकिन उनके कहने पर वह शरमा कर हँसते हुए चला जाता। पर छोटी जातियों के समाज में वह कुछ-न-कुछ ऐसी कह गुजरता जो सबसे अलग होती। अक्सर उनकी मजलिसें रात को पण्डित जी की दुकान के आगे जमतीं और रजुआ उनसे राम-सीता जी की चर्चा करता, भूत-प्रेत, बरम-डीह के महत्त्व पर प्रकाश डालता और झाड़-फूँक, मन्त्र-जप की महत्ता समझाता। वे नाना प्रकार की शंकाएँ प्रकट करते और रजुआ उनका समाधान करता।
लेकिन इतनी धार्मिक चर्चाएँ करने, शनीचरी देवी पर जल चढ़ाने तथा दाढ़ी रखने के बावजूद उसकी मनोकामना पूरी न हुई।
शाम को दफ्तर से लौटा ही था कि बीवी ने चिन्तातुर स्वर में सूचना दी, "अरे, जानते नहीं, रजुआ को हैजा हो गया है।"
उन दिनों गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी और गड्ढे तथा बमपुलिस की गली में, जो शहर के अत्यधिक गन्दे स्थान थे, हैजे की कई घटनाएँ हो गयी थीं। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि रजुआ को हैजा न होता तो और किसको होता!
"जिन्दा है या मर गया?" मैंने उदासीन स्वर में पूछा।
मेरी पत्नी ने अफसोस प्रकट करते हुए कहा, "क्या बतायें, मेरा दिल छटपटा कर रह गया। वहीं खँडहर में पड़ा हुआ है। कै-दस्त से पस्त हो गया है। लोग बताते हैं कि आध-एक घण्टे में मर जायेगा।"
"कोई दवा-दारू नहीं हुई?"
"कौन उसका सगा बैठा है जो दवा-दारू करता? शिवनाथ बाबू के यहाँ काम कर रहा था, पर जहाँ उसको एक कै हुई कि उन लोगों ने उसको अपने यहाँ से खदेड़ दिया। फिर वह रामजी मिश्र के ओसारे में जा कर बैठ गया, लेकिन जब उन लोगों को पता लगा तो उन्होंने भी उसको भगा दिया। उसके बाद वह किसी के यहाँ नहीं गया, खँडहर में पेड़ के नीचे पड़ गया।"
मैंने जैसे व्यंग्य किया, "तुमने अपने यहाँ क्यों न बुला लिया?"
पत्नी को यह आशा नहीं थी कि मैं ऐसा प्रश्न करूँगा, इसलिए स्तम्भित हो कर मुझे देखते लगी। अन्त में बिगड़ कर बोली, "मैं उसे यहाँ बुलाती, कैसी बात करते हैं आप? मेरे भी बाल-बच्चे हैं, भगवान न करे, उनको कुछ हो गया तो?"
मैं हँस पड़ा, फिर उठ खड़ा हुआ। "जरा देख आऊँ," दरवाजे की ओर बढ़ता हुआ बोला।
"आपके पैरों पड़ती हूँ, उसको छुइयेगा नहीं और झटपट चले आइयेगा।" पत्नी गिड़गिड़ाने लगी।
जब मैं खँडहर में पहुँचा तो दो-तीन व्यक्ति सड़क के किनारे खड़े होकर रजुआ को निहार रहे थे। वे मुहल्ले के नहीं, बल्कि रास्ते चलते मुसाफिर थे, जो रजुआ की दशा देख कर अकर्मण्य दया एवं उत्सुकता से वहाँ खड़े हो गये थे।
"रजुआ?" मैंने निकट पहुँच कर पूछा।
लेकिन उसको किसी बात की सुध-बुध न थी। वह पेड़ के नीचे एक गन्दे अँगोछे पर पड़ा हुआ था और उसका शरीर कै-दस्त के लथपथ था। उसकी छाती की हड्डियाँ और उभर आयी थीं, पेट तथा आँखें धँस गयी थीं और गालों में गड़हे बन गये थे। उसकी आँखों के नीचे भी गहरे काले गड़हे दिखायी दे रहे थे और उसका मुँह कुछ खुला हुआ था। पहले देखने से ऐसा मालूम होता था कि वह मर गया है, लेकिन उसकी साँस धीमे-धीमे चल रही थी।
मैं कुछ निश्चय न कर पा रहा था, क्या किया जाये कि मालूम नहीं कहाँ से शिवनाथ बाबू मेरी बगल में आ कर खड़े हो गये और धीरे-से उन्होंने अपनी सम्मति भी प्रकट की, "ही कान्ट सरवाइव-यह बच नहीं सकता।"
मैंने तेज दृष्टि से उनको देखा। शिवनाथ बाबू पर तो मुझे गुस्सा आ ही रहा था, लेकिन अपने ऊपर भी कम झुँझलाहट न थी। कभी जी होता था कि जा कर घर बैठ रहूँ, जब और लोगों को मतलब नहीं तो मुझे ही क्या पड़ी है! लेकिन उसे यों अपनी आँखों के सामने मरते हुए नहीं देखा जाता था। पर मैं उसका इलाज भी क्या करवा सकता था? मैं लगभग सौ रुपये वेतन पाता था, इसके अलावा महीने का अन्तिम सप्ताह था, मेरे पास एक भी पाई नहीं थी। पर उसे अस्पताल भी तो भिजवाया जा सकता है? अचानक मन में विचार कौंधा, मेरी झुँझलाहट जैसे अचानक दूर हो गयी और मैं घूम कर तेजी से अस्पताल रवाना हो गया।
अस्पताल पहुँच कर मैंने सम्बन्धित अधिकारियों को सूचित किया। वहाँ से अस्पताल की मोटरगाड़ी पर बैठ कर मैं स्वयं साथ आया। रजुआ की साँस अब भी चल रही थी। अस्पताल के दो मेहतरों ने, जो साथ आये थे उसको खींच कर गाड़ी पर लाद दिया। जब गाड़ी चली गयी तो मैंने सन्तोष की साँस ली, जैसे मेरे सिर से कोई बड़ा बोझ हट गया हो।
सबकी यही राय थी कि रजुआ बच नहीं सकता, परन्तु वह मरा नहीं। यदि अस्पताल पहुँचने में थोड़ा भी विलम्ब हो गया होता तो बेशक काल के गाल से उसकी रक्षा न हो पाती। अस्पताल में वह चार-पाँच दिन रहा फिर वहाँ से बरखास्त कर दिया गया।
किन्तु उसकी हालत बेहद खराब थी। वह एकदम दुबला-पतला हो गया था। मुश्किल से चल पाता और जब बोलता तो हाँफने लगता। न मालूम क्यों, वह अस्पताल से सीधे मेरे घर ही आया। यद्यपि मेरी पत्नी को उसका आना बहुत बुरा लगा, लेकिन मैंने उससे कह दिया कि दो-चार दिन उसे पड़ा रहने दे, फिर वह अपने-आप ही इधर-उधर आने-जाने तथा काम करने लगेगा।
वह चार-पाँच दिन रहा, खाने को कुछ-न-कुछ पा ही जाता। वह कोई-न-काई काम करने की कोशिश करता, पर उससे होता नहीं। किसी को घर में बैठ कर मुफ्त खिलाना मेरी श्रीमती जी को बहुत बुरा लगता था, परन्तु सबसे बड़ा भय उनको यह था कि उसके रहने से घर में किसी को हैजा न हो जाये!
और एक दिन घर आने पर रजुआ नहीं दिखायी पड़ा। पूछने पर बीवी ने बताया कि वह अपनी तबीयत से पता नहीं कब कहीं चला गया।
वह कहीं गया न था, बल्कि मुहल्ले ही में था। लेकिन अब वह बहुत कम दिखायी पड़ता। मैंने उसको एक-दो बार सड़क पर पैर घिसट-घिसटकर जाते हुए देखा। सम्भवतः वह अपना पेट भरने के लिए कुछ-न-कुछ करने का प्रयत्न कर रहा था और फिर एक दिन मैंने उसे खँडहर में पुनः पड़ा पाया।
शिवनाथ बाबू अपने दरवाजे पर बैठ कर अपने शरीर में तेल की मालिश करा रहे थे। मैंने उनसे जा कर नमस्कार करते हुए प्रश्न किया, "रजुआ खँडहर में क्यों पड़ा हुआ है? उसे फिर हैजा हुआ है क्या?"
शिवनाथ बाबू बिगड़ गये, "गोली मारिए साहब, आखिर कोई कहाँ तक करे? अब साले को खुजली हुई। जहाँ जाता है, खुजलाने लगता है। कौन उससे काम कराये! फिर काम भी तो वह नहीं कर सकता। साहब, अभी दो-तीन रोज की बात है, मैंने कहा एक गगरा पानी ला दो। गया ज़रूर, लेकिन कुएँ से उतरने समय गिर गये बच्चू। पानी तो खराब हुआ ही, गगरा भी टूट-पिचक गया। मैंने तो साफ-साफ कह दिया कि मेरे घर के अन्दर पैर न रखना, नहीं पैर तोड़ दूँगा। गरीबों को देख कर मुझे भी दया-माया सताती है, पर अपना भी तो देखना है!"
मैं कुछ नहीं बोला और चुपचाप घर लौट आया। इस बार मेरी हिम्मत नहीं हुई कि जा कर उसे देखँ या उससे हाल-चाल पूछूँ।
घर आ कर मैंने पत्नी से पूछा, "तुमने रजुआ से कुछ कहा-सुना तो नहीं था?" मुझे शक था कि बीवी ने ही उसको भगा दिया होगा और इसीलिए वह मेरे घर नहीं आता। मेरी बात सुन कर श्रीमती जी अचकचा कर मुझे देखने लगीं, फिर तिनक कर बोलीं, "क्या करती, रोगी को पालती? कोई मेरा भाई-बन्धु तो नहीं!"
मैं क्या कहता?
रजुआ को भयंकर खुजली हो गयी थी, लेकिन उसने मुहल्ला नहीं छोड़ा। वह अक्सर खँडहर में बैठ कर अपने शरीर को खुजलाता रहता। खाने की आशा में वह इधर-उधर चक्कर भी लगाता। कभी-कभी वह मेरे घर के सामने लकड़ी वाले पण्डित के यहाँ आता और पण्डितजी थोड़ा सत्तू दे देते। मैंने भी एक-दो बार अपने लड़के के हाथ खाना भिजवा दिया। इस तरह उसके पेट का पालन होता रहा। उसका चेहरा भयंकर हो गया था-एकदम पीला और हाथ-पैर जली हुई रस्सी की तरह ऐंठे हुए। वह बाहर कम ही निकलता और जब निकलता तो उसको देखकर एक अजीब दहशत-सी लगती, जैसे कोई नर-कंकाल चल रहा हो।
3
आषाढ़ चढ़ गया और बरसात का पहला पानी पड़ चुका था। शनिवार का दिन, सवेरे लगभग आठ बजे मैं दफ्तर का काम ले कर बैठ गया। लेकिन तबीयत लगी नहीं। बाहर नाली में वर्षा का पानी पूरे वेग से दौड़ रहा था और शरीर पर पुरवाई के झोंके आ लगते, जिससे मैं एक मधुर सुस्ती का अनुभव कर रहा था। मैंने कलम मेज पर रख दी और कुर्सी पर सिर टेक कर ऊँघने लगा।
यदि एक आहट ने चौंका न दिया होता तो मैं सो भी जाता। मैंने आँखें खोल कर बाहर झाँका। बाहर ओसारे में खड़ा एक तेरह-चौदह वर्ष का लड़का कमरे में झाँक रहा था। लड़के के शरीर पर एक गन्दी धोती थी और चेहरा मैला था। मुझे सन्देह हुआ कि वह कोई चोर-चाई है, इसलिए मैंने डपट कर पूछा, "कौन है रे, क्या चाहता है?"
लड़का दुबक कर कमरे में घुस आया और निधड़क बोला, "सरकार, रजुआ मर गया। उसी के लिए आया हूँ।" मैंने आश्चर्य से मुँह बा कर एक ही साथ उससे कई प्रश्न किये।
लड़के ने फिर हँसते हुए कहा, "हाँ, सरकार, मर गया। मालिक, इस कारड पर उसके गाँव एक चिट्ठी लिख दीजिए।"
मैंने इसके आगे रजुआ के सम्बन्ध में कुछ न पूछा। मैं अचानक डर गया कि यदि मैंने मामले में अधिक दिलचस्पी दिखायी तो हो सकता है कि मुझे उसकी लाश फूँकने का भी प्रबन्ध करना पड़े।
लड़के के हाथ में एक पोस्टकार्ड था, जिसको लेते हुए मैंने सवाल किया, "इस पर क्या लिखना होगा? उसके गाँव का क्या पता है?"
"मालिक, रामपुर के भजन राम बरई के यहाँ लिखना होगा। लिख दीजिए कि गोपाल मर गया।" लड़के की आवाज कुछ ढीठ हो गयी थी।
"गोपाल!"
"जी, वहाँ तो उसका यही नाम है।"
मैंने पोस्टकॉर्ड पर तेजी से मजमून तथा पता लिखा और पत्र को लड़के के हवाले कर दिया।
मैं लड़के से पूछना चाहता था कि तू कौन है? रजुआ कहाँ मरा? उसकी लाश कहाँ है? परन्तु मैं कुछ नहीं पूछ सका, जैसे मुझे काठ मार गया हो।
सच कहता हूँ, रजुआ की मृत्यु का समाचार सुन कर मेरे हृदय को अपूर्व शान्ति मिली जैसे दिमाग पर पड़ा हुआ बहुत बड़ा बोझ हट गया हो। उसको देख कर मुझे सदा घृणा होती थी और कभी-कभी सोच कर कष्ट होता था कि इस व्यक्ति ने सदा ऐसे प्रयास किये, जिससे इसको भीख न माँगनी पड़े और उसको भीख माँगनी भी पड़ी है तो इसमें उसका दोष कतई नहीं रहा है। मैंने उसकी दशा देख कर कई बार क्रोधवश सोचा है कि यह कम्बख्त एक ही मुहल्ले में क्यों चिपका हुआ है? घूम-घूम कर शहर में भीख क्यों नहीं माँगता? मुझे कभी-कभी लगता है कि वह किसी का मुहताज न होना चाहता था और इसके लिए उसने कोशिश भी की, जिसमें वह असफल रहा। चूँकि वह मरना न चाहता था, इसलिए जोंक की तरह जिन्दगी से चिमटा रहा। लेकिन लगता है, जिन्दगी स्वयं जोंक-सरीखी उससे चिमटी थी और धीरे-धीरे उसके रक्त की अन्तिम बूँद तक पी गयी। रजुआ को मरे तीन-चार दिन हो गये थे। सारे मुहल्ले में यह समाचार उसी दिन फैल गया था। मुहल्ले वालों ने अफसोस प्रकट किया और शिवनाथ बाबू ने तो यहाँ तक कह डाला कि जो हो, आदमी वह ईमानदार था!
रात के करीब आठ बजे थे और मैं अपने बाहरी ओसारे में बैठा था। आसमान में बादल छाये थे और सारा वातावरण इतना शान्त था जैसे किसी षड्यन्त्र में लीन हो! बगल की चौकी पर रखी धुँधली लालटेन कभी-कभी चकमक कर उठती और उसके चारों ओर उड़ते पतंगे कभी कमीज के अन्दर घुस जाते, जिससे तबीयत एक असह्य खीझ से भर उठती।
मैं भीतर जाने के उद्देश्य से उठा कि सामने एक छाया देख कर एकदम डर गया। रजुआ की शक्ल का नर-कंकाल भीतर चला आ रहा था। सच कहता हूँ, यदि मैं भूत-प्रेत में विश्वास करता तो चिल्ला उठता, 'भूत-भूत!' मैं आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था। नर-कंकाल धीरे-धीरे घिसटता बढ़ा आ रहा था। यह तो रजुआ ही था-ठठरी मात्र! क्या वह जिन्दा है? वह मेरे निकट आ गया। सम्भवतः मेरी परेशानी भाँप कर बोला, "सरकार, मैं मरा नहीं हूँ, जिन्दा हूँ।" अन्त में वह सूखे होंठों से हँसने लगा।
"तब वह लड़का क्यों आया था?" मैंने गम्भीरतापूर्वक प्रश्न किया।
उसने पहले दाँत निपोर दिये, फिर बोला, "सरकार, वह गुदड़ी बाज़ार के वचन राम का लड़का है। मैंने ही उसको भेजा था। बात यह हुई सरकार कि मेरे सिर पर एक कौवा बैठ गया था। हजूर कौवे का सिर पर बैठना बहुत अनसुभ माना जाता है। उससे मौअत आ जाती है!"
"फिर गाँव पर चिट्ठी लिखने का क्या मतलब?" मेरी समझ में अब भी कुछ न आया था।
उसने समझाया, "सरकार, यह मौअत वाली बात किसी सगे-सम्बन्धी के यहाँ लिख देने से मौअत टल जाती है। भजन राम बरई मेरे चाचा होते हैं। मालिक, एक और कारड है, इस पर लिख दें सरकार कि गोपाल जिन्दा है, मरा नहीं।"
मैंने पूछना चाहा कि तू क्यों नहीं आया, लड़के को क्यों भेज दिया? लेकिन यह सब व्यर्थ था। सम्भवतः उसने सोचा हो कि उसका मतलब कोई न समझे और लोग बात को मजाक समझकर कहीं दुरदुरा न दें।
मैंने पोस्टकार्ड ले कर उस पर उसकी इच्छानुसार लिख दिया।
पोस्टकार्ड लौटाते समय मैंने उसके चेहरे को ग़ौर से देखा। उसके मुख पर मौत की भीषण छाया नाच रही थी और वह जि़न्दगी से जोंक की तरह चिमटा था-लेकिन जोंक वह था या जिन्दगी? वह जि़न्दगी का ख़ून चूस रहा था या जि़न्दगी उसका?-मैं तय न कर पाया।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
अमरकांत जी की यह कहानी दशकों बाद पढ़ी ! विवरण से तो इसमें चित्रित समाज कोई आधी सदी पहले का परिलक्षित अवश्य हुआ, लेकिन रचना ने तो संवेदन-तंतुओं को वैसे ही झिंझोड़ा, उन्हीं मौलिक आदिम भावात्मक कोलाहलों के साथ.
जवाब देंहटाएंयह वस्तुत: हिन्दी भाषा की एक सिग्नेचर रचना है ! मुझे इस कहानी ने कुछ अधिक संभवतः इसलिए भी छुआ क्योंकि इसमें आया गंगा-सरयू का इलाका वस्तुत : हमारा भी अपना भूगोल है.
इसकी पुनर्प्रस्तुति कर सहज ढंग से पढ़ने का अवसर देने के लिए आभार, संतोष बाबू ! अमरकांत जी की स्मृतियों को असंख्य नमन !
अमरकांत जी को पहली बार पढ़ा। बहुत ही शानदार कहानी है। सरल शब्दों में कोई जिंदगी को इस तरह भी दिखा सकता है अद्भुत है।
जवाब देंहटाएंउनकी ही तरह इन दिनों सड़क का आदमी के नाम से मैंने भी कहानी लिखी । जो मधुमती में प्रकाशित हुई। पर यह कहानी अतुलनीय है।
विनीता बाडमेरा
अजमेर, राजस्थान