यतीश कुमार की किताब की विभा रानी द्वारा की गई समीक्षा

 



सामान्यतया लेखन के लिए कुछ चीजें अनिवार्य होती हैं। ईमानदारी, प्रतिबद्धता, व्यापक अध्ययन, अनुभव और सोचे हुए को शब्दों में सहज और सरल तरीके से पिरो देना। किसी भी लेखक के लेखन में अगर ये सब तत्त्व हों तो उसका लेखन निश्चित तौर पर प्रभावी होगा। यतीश कुमार के लेखन में ये सभी चीजें दिखाई पड़ती हैं। अपने अतीत को याद करते हुए यतीश उन बातों को भी सामने रखने से नहीं चूकते जिससे सामान्य तौर पर कोई लेखक बचना चाहता है। 'लोग क्या कहेंगे' का कोई भय उनके यहां नहीं है। वे खुल कर अपनी बातें रखते हैं जिससे यह संस्मरण काफी प्रभावी बन पड़ा है। प्रभावी कुछ इस तरह कि इसे पढ़ते हुए किसी भी व्यक्ति को सहज ही अपने अतीत के संघर्षों की याद आ जाएगी। किसी भी किताब के लिए यह सबसे बड़ी सफलता होती है। विभा रानी ने यतीश कुमार के इस किताब पर एक पारखी नजर डालते हुए लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार के किताब की विभा रानी द्वारा की गई समीक्षा 'हम सबके अतीत की सैरबीन है बोरसी भर आंच'



हम सबके 'अतीत का सैरबीन' है- ‘बोरसी भर आंच’



विभा रानी 



अभी तो फिलहाल यह स्थिति है कि इस किताब की आधी तस्वीर का लिफाफा भी दे दिया जाए तो बिना उस लिफ़ाफ़ेकों देखे आप खत का मज़मून समझ जाएंगे। हाँ जी, सही चीन्हे। बकीर, हम जैसे कूढ़ मगज को समझे में नहीं आता है कि ई बिहार के लोगों में इतना टैलंट कौन कहाँ से कूट- कूट कर भर देता है भाई जो हारी-बीमारी, गरीब-गुरबा में भी ठेहुन नहीं टेकता, उल्टा अपनी कंगुरिया से अपने मन के गोबर्धन को थाम लेता है, जो मराठी के ‘एकच लक्ष्य’ की तरह तमाम ‘हेने-होने’ मिलने के बाद भी अपना आसमान गढ़ लेता है। 


कवि यतीश कुमार अपने संस्मरण की किताब ‘बोरसी भर आंच’ में अपनी जिंदगी के सभी फुंसी- मवाद, खरोच आदि को बेधड़क सामने लेकर आए हैं। लिखने की विधा गद्य है, लेकिन पद्यमय प्रवाह के साथ- ‘लोग क्या कहेंगे’, ‘भारतीय या लेखक समाज क्या कहेगा’, ‘अथवा नौकरी के जिस उच्च पद पर वे आसीन हैं, उस व्हाइट कॉलर परिवेश के लोग क्या कहेंगे’ के टैग से मुक्त। अपने दुख के आंसू से वे हम सभी के दुख, तकलीफ और बीते दिनों के संघर्ष की माटी को अभिसिंचित कर जाते हैं। यतीश इस मायने में भी भाग्यशाली हैं कि उनकी यह किताब ‘बोरसी भर आंच’ यानी ‘अतीत का सैरबीन’, जी हां दूरबीन की तर्ज़ पर ‘सैरबीन’, पर हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों की प्रस्तावनाएं, भूमिकाएं हैं। किताब के छपने से ले कर अबतक शायद ही कोई ऐसा नाम-अनाम होगा, जिसने इस किताब पर नहीं लिखा है। ऐसे में मेरे लिखे की कोई अहमियत नहीं है, फिर भी। 



‘एक बच्चा चालीस साल की दूरी से दुनिया को देखता है, उसकी हथेलियों में कसैला पानी-फल है। एक आक्रान्त, अपने आप में डूबा अकेला बचपन और एक आशंकाओं में घिरा अनिर्णीत भविष्य, एक हताश और गहराता हुआ अन्धकार और एक मुक्ति का विश्वास दिलाता जगमग रौशन क्षितिज, एक भयग्रस्त पलायन और फिर पलट कर एक निर्भय प्रत्याघात।’ यह उदय प्रकाश लिखते हैं। आगे भी, ‘जीवन के अनगिन धुँधले सूर्यास्तों और फिर उजालों और उम्मीदों से भरे पुनर्जीवन की मिसाल या प्रतिमान बनते उत्कट जीवन-संग्राम की मार्मिक और रोमांचक कथा कहती, चर्चित युवा रचनाकार-लेखक यतीश कुमार की यह आत्मकथा इस नए वर्ष, सन् 2024 में स्वयं उनके लिए अतीत के बीहड़ यथार्थ में दुबारा लौटकर दाखिल होने का एक नया, चुनौतियों से भरा सृजनात्मक प्रयास है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह साहित्य चिन्तन ही नहीं, मानविकी के समस्त अनुशासनों की मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति अपने बचपन में दुबारा नहीं लौट सकता। इसके लिए किसी न किसी ऐसी युक्ति या डिवाइस के ईजाद की जरूरत होगी, जो स्मृतियों के धुंधलके में घिरीं तमाम सँकरी-उलझी पगडंडियों में उल्टी दिशा में रेंग सके।’



यतीश कुमार ने पिछले कुछ वर्षों में कविता और कहानी के साथ-साथ उपन्यासों, कहानियों व यात्रा-वृत्तान्तों के माध्यम से अपनी अलग पहचान बनाई है। इंजीनियर बच्चे का मन एक दूसरे इंजीनियर कवि नरेश सक्सेना की तरह साहित्य के लिए धड़कता है। इस किताब में जिंदगी के तमाम रंगों का मेला है। यतीश कुमार ने अपनी सृजनात्मकता को नये-नये रूप देने का साहस दिखाया है। 



'बोरसी भर आँच' उनकी रचनात्मकता का चरम है। दूसरे पर लिखना बहुत आसान है। किन्तु, अपने ऊपर लिखना? वह भी तब, जिसमें नाना प्रकार के जीवन से मिले दंश, तकलीफ़ें और छटपटाहट हो। कई बातों के खुलने से ‘लोग क्या कहेंगे’ का भूत हो। यह मुझे संस्मरण से अधिक अपने जीवन का स्मरण लगता है, क्योंकि इसमें यतीश अपने बचपन संग अपने तमाम अपने-पराए रिश्तों को याद करते हैं। समाज, आसपास, टोले- मुहल्ले से भी जुड़े लोगों के साथ हमारे रिश्ते ही होते हैं। हालांकि, इसको पढ़ते हुए यह उनके अपने आरम्भिक जीवन की आत्मकथा लगने लगती है। फिर भी, दिलचस्प यह है कि वे एक कुशल सर्जन की तरह अपनी चीर फाड़ को कुशलता से अंजाम देते हैं, अपने में ही संशोधन नहीं करने लगते। अमूमन हम सब ‘बोरसी भर आग’ कहते हैं। यतीश ने इसे 'बोरसी भर आँच' नाम दिया है। आंच की तासीर इस किताब में एक-एक जलती-बुझती चिंगारी की तरह सामने आती रहती है और आप उस आंच की अदृश्य, पर असरकारी ताप महसूस करते चलते हैं। 



यतीश कुमार



संस्मरणात्मक साहित्य गल्प से इसलिए भी अलग होता है कि वह अपने प्रभाव से अतीत और वर्तमान के भेद और एकात्मकता- दोनों को सामने लाता है। पूरी किताब में आप एक सर्द आह महसूस करते हुए और फिर ‘वाह बेट्टा’ के तर्ज़ पर लेखक की पीठ ठोकते हुए आगे बढ़ सकते हैं, कि जीवन की ऐसी विभीषिका में जब लोग या तो निष्प्राण हो जाते हैं या किसी तरह जिंदगी जीने को अभिशप्त, वैसे में यतीश शिक्षा के महत्व को जाने कैसे भी समझ कर इसमें बाद में अपने को झोंक देते हैं, जिस शिक्षा के बल पर वे आज यहाँ तक पहुंचते हैं। शायद यही जीवटता और शिक्षा के प्रति बिहारियों की गहनता उन्हें ‘एक बिहारी  सब पर भारी’ कहलाने को विवश कर देता है। असमय खो चुके कम्युनिस्ट पिता के बाद तीन भाई-बहनों की विकट ज़िम्मेदारी से जूझ रही माँ के पास हिम्मत के अतिरिक्त और कुछ नहीं। उसमें भी लोगों की लोलुपता का सामना। और फिर माँ का दूसरा विवाह! मुझे मैथिली में लिखी अपनी कहानी याद आ गई- ‘एहेन एकांत ध्रुव पर’। माँ सरकारी अस्पताल में स्टाफ़ नर्स की नौकरी कर अपनी जीवटता के बल पर विपरीत हालात से मुकाबला करती हैं। वहीं अस्पताल के पीछे वाले वार्ड के एक छोटे हॉल में साड़ियों की दीवारें बना कर बच्चों के साथ रहीं। पर्दा भले केवल साड़ी-चादर का था, रिश्तों की डोर उस समाज से बेहद मजबूत बनीं। पूरी पुस्तक में दुख की घेरेबन्दी और अपनों के साथ मिल कर उसका सामना है। समाज में बुरे लोग जीवन को दलदल बनाने की कोशिश करते हैं, तो कुछ अच्छे लोग अपनी सकारात्मकता की बारिश से उस दलदल को धो कर व्यक्ति और परिवेश को निर्मल करते रहते हैं। 


जात-पात के मामले में बिहार सबका सिरमौर है। हम जैसे लोगों की तरह यतीश भी अपने नए पिता डॉक्टर साहब, जो दलित समुदाय से थे, लेकिन नैतिक और ईमानदार थे, के साथ देश की सवर्ण वर्चस्व की संरचना का शिकार बनते रहते हैं। दूसरी माता की अवधारणा हमारे समाज में बहुत सहज ग्राह्य है, लेकिन दूसरे पिता की अवधारणा अभी भी बहुत कठिन। यतीश यहाँ अपनी ईमानदारी और हिम्मत का परिचय देते हुए कम से कम मेरा मन तो लूट ही लेते हैं। माँ, बहन और बाद में पत्नी स्मिता और बेटियों-सभी को बहुत पारदर्शी शीशे में रख कर देखते हैं। जीवन की यह पारदर्शिता लेखन को एक सिक्के के दो पहलू बनाती है तो यह बड़ी अच्छी बात कही जा सकती है। 



यतीश ने तटस्थ हो कर अपने जीवन को लिखा है। इसमें उनकी बचपन की शरारतें भी हैं। कोई बच्चा इन अध्यायों को पढ़े, तो अपनी शैतानियों को भी उसमें पा सकेगा, जैसे मैं। मैंने तो अपने बचपन में अपने घर में ही आग लगा दी थी। गनीमत था कि समय से सबकुछ मैनेज हो गया और हम सब और घर जलने से बच गए। 



किताब के एक और पक्ष ने मुझे बहुत आकर्षित किया, वह है उसका कला पक्ष। लगभग हर अध्याय के पहले जबलपुर के मशहूर चित्रकार और छायाकार विनय अंबर ने अपनी कलाकृति से इसे सजाया है। विनय को मैं लगभग पचीस-तीस सालों से जानती हूँ। उन्होंने एक बार जबलपुर में मेरी कुछ फोटो खींची थीं। वे इतनी कलात्मक हैं कि आज भी मेरे अलबम में हैं। विवेचना द्वारा खेले जा रहे मेरे नाटक ‘पीर पराई’ का सारा आर्ट वर्क उन्होंने तैयार किया था। अभी 2022 में अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित मेरे मैथिली उपन्यास ‘कनियाँ एक घुँघरूआ वाली’ का आवरण चित्र बनाया है। आप कहेंगे कि बात चल रही है यतीश कुमार की किताब की और मैं चर्चा कर रही हूँ अपने कामों की। नहीं, यह चर्चा विनय अंबर के कामों और उनके कला और साहित्य के सुई-धागे जैसी एकात्मकता के लिए है, क्योंकि विनय के आर्ट वर्क ने इस किताब की महत्ता को और भी बढ़ा दिया है। ये इलस्ट्रेशन नहीं हैं, बल्कि किताब को समझने के लिए तैयार की गई कलाकृतियाँ हैं। हमारा हिन्दी लेखन समाज अभी शब्दों और रेखाओं के बीच के सामंजस्य को समझने के लिए गंभीर नहीं हुआ है। मेरी समझ से इन कला कृतियों से दो बातें होती हैं- लेखन में जो कुछ रह गया है, रेखाएँ उनको बयान करती हैं। पाठक शब्दों और रेखाओं दोनों के माध्यम से लेखन और लेखक को समझने की कोशिश करता है। इससे किताब की गंभीरता और महत्ता और भी बढ़ जाती है। दूसरे, इससे लेखक के मनो मिजाज का भी पता चलता है। तीसरे, केवल और केवल शब्दों से जो मोनोटनी आती है, ये कृतियाँ उस एकरसता को तोड़ती हैं। मैं तो किताब पढ़ने से पहले इन रेखाओं, अगर किसी किताब में हैं तो, उन्हें पढ़ने की कोशिश करती हूँ। किताब का आनंद तब और कई गुना बढ़ जाता है। कैंसर आधारित मेरे दूसरे द्विभाषी कविता संकलन ‘क्यूंकि ज़िद है/ I Must’ में भी पाँच अध्याय हैं, जिन्हें देश के प्रख्यात चित्रकार, ओडिशी कलाकार और ‘डांस स्केप’ के प्रणेता सुबोध पोद्दार ने अपनी कलाकृतियों से सजाया था। विनय अंबर ने बहुत सघन काम कर के बोरसी में रखी आंच की तपिश को और भी गहन कर दिया है।  



दरअसल 'बोरसी भर आँच' हम सबके भीतर की वह आंच है, जो अपने जीवन को जीते हुए हम सब महसूस तो करते हैं। सामने नहीं ला पाते। लेकिन, ऐसे ही होता है। रचता कोई एक है, उसमें अपनी आवाज पाते अनेक हैं। इसलिए वह लेखक के साथ- साथ हम सबके 'अतीत का सैरबीन' हो जाता है।


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