बलभद्र का आलेख 'भिखारी ठाकुर के नाटक : बिदेसिया और गबरघिचोर'
भिखारी ठाकुर |
भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर का नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया जाता है। हालांकि भिखारी ठाकुर उन अर्थों में साहित्यकार नहीं थे, जिसमें साहित्य सृजन केन्द्र में होता है। अपनी नाच पार्टी के लिए उन्होंने जो नाटक रचे वे भोजपुरी साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गए। नाटकों को रचने के क्रम में ही उन्होंने गीत या कविता की भी रचना की। वे एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया।तथाकथित निम्न वर्ग में जन्मे भिखारी ठाकुर ने इस अर्थ में भक्ति आंदोलन के संतों की याद दिला दी। पेशे के तौर पर समाज में निम्न कोटि का कार्य समझे जाने वाले नाच को उन्होंने साहित्य से जोड़ कर उसे कला की मुख्य धारा से जोड़ दिया। यह उनकी महत्त्वपूर्ण देन है। केदार नाथ सिंह उन्हें लोक सजग रचनाकार कहा है। अपने नाटकों के जरिए वे लोक और शास्त्र के बीच एक सेतु बनाते हुए दिखाई पड़ते हैं। बहरहाल अपने नाटकों में भिखारी ठाकुर ने उस समय के भोजपुरी समाज की विडंबनाओं को उद्घाटित करने का सफल प्रयास किया है। दस दिसम्बर भिखारी ठाकुर की पुण्य तिथि है। उनकी स्मृति को सादर नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं बलभद्र का आलेख 'भिखारी ठाकुर के नाटक : बिदेसिया और गबरधिचोर'।
'भिखारी ठाकुर के नाटक : बिदेसिया और गबरघिचोर'
बलभद्र
सन् 1857 के विद्रोह के तीस साल बाद और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के दो साल बाद सन् 1887 में भिखारी ठाकुर का जन्म और 10 जुलाई 1971 को देहांत हुआ था। यही सत्तासी साल उनके जीवन के रहे और इसी में उन्होंने भोजपुरी के कई नाटकों और गीतों को रचा। नाटक मंडली बनाई, नाटक खेले, गीत गाए। एक लंबी रचनात्मक पारी खेली।
उनके जन्म के साठ साल बाद देश आजाद हुआ था, देहांत के चौबीस साल पहले। उनकी आंखों के सामने घटित हुआ था भारत का स्वतंत्रता संग्राम। वह गांधी, नेहरू, खान अब्दुल गफ्फार खान, भगत सिंह, आजाद, सुभाष चंद्र बोस का समय था। वह रवींद्रनाथ टैगोर का समय था। नाथूराम गोडसे की गोली खाते गांधी जी का समय भी भिखारी ठाकुर का समय था। सामंती-वर्णवादी मानसिकता का दबाव झेलते भिखारी ठाकुर का। उनके देहांत के ठीक तीन साल बाद देश में इमरजेंसी लगी थी और छह साल बाद आम चुनाव हुआ था जिसमें कांग्रेस की भारी हार हुई थी। भिखारी ठाकुर का समय सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भारी उथल- पुथल का समय था। संग्रामी था। हिंदी साहित्य के लिहाज से बात की जाए तो वह महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, शिवपूजन सहाय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवत शरण उपाध्याय होते बीसवीं सदी के छठे दशक तक का समय उनका समय था। भोजपुरी के लिहाज से वह समय रघुवीर नारायण, प्रिंसिपल मनोरंजन, महेंद्र मिश्र, रमाकांत द्विवेदी 'रमता', महेंद्र शास्त्री, रामविचार पांडेय, गणेश चौबे, हवलदार त्रिपाठी 'सइदय', रामजी सिंह मुखिया आदि का समय था। वे बिहार के छपरा जिला के रहवासी थे, जो देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का भी जिला था। उस छपरा से अब कई जिले बने हैं। छपरा के आम अवाम की भाषा, खासकर मातृभाषा भोजपुरी है। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और इसी भाषा को उन्होंने अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति की आषा बनाई। उनके लिए हिंदी में अपनी बात कहना या लिखना संभव भी नहीं था। इस तरह का कोई शिक्षा-संस्कार नहीं था उनके पास। लेकिन यह भी गौर करने की बात है कि उन्होंने हिंदी को एकदम छोड़ नहीं दिया है। उनके नाटकों में भोजपुरी गीतों के बीच-बीच में कई ऐसे भी गीत मिलते हैं जिनकी भाषा पूरापूरी न तो भोजपुरी है न हिंदी। वह हिंदी मिश्रित भोजपुरी है। उसको हम चाहे तो भोजपुरी हिंदी कह लें। इसके पीछे भी एक अहम तर्क है। वे कलकता भी रह-सह आए थे। कलकता रह-सह आए ठेठ भोजपुरिया लोग तब इस तरह की भाषा का अक्सर प्रयोग किया करते थे। भिखारी ठाकुर ने इसको रचनात्मक बनाया। बातचीत से आगे बढ़ कर गीत- गवनई की भाषा बनाया। वस्तुस्थिति की प्रभावी अभिव्यक्ति के वास्ते ऐसी भाषा को अपनाया। जो आगे चल कर रामेश्वर सिंह कश्यप के नाटक 'लोहा सिंह' में खूब सरस और प्रभावशाली रूप में मिलती है। राजनीति में इसका श्रेष्ठ उदाहरण लालू प्रसाद यादव की भाषा है। सुखद आश्चर्य तो तब और हुआ जब इस तरह की भाषा दुर्गेद्र अकारी के भोजपुरी गीतों में भी दिखी।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक 'भारत दुर्दशा' में एक गीत है जिसमें वे भारत के लोगों को 'भारत भाई' संबोधित करते हैं। सम्पूर्ण भारतवासियों को 'भारत भाई' कहना बहुत बड़ी बात है और यह साभिप्राय है। वे भारत भाइयों को इकट्ठे रोने के वास्ते नेवता देते हैं। इसलिए कि भारत की दुर्दशा देखी नही जा रही है
आवहूँ मिलि सब रोवहुँ भारत भाई
हा। हा। भारत दुर्दशा न देखी जाई।'
रोने की बात तो पहले भी मिलेगी, पर रोने का इकट्ठे नेवता शायद पहली बार मिलेगा। कबीर दास ने भी रोने की बात की है।
सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवे
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे।'
यह रोना सोचने-विचारने के अर्थ में है। जो जगा हुआ होता है, वही चीजों को समझ पाता है। वही दुखी हो सकता है. दुख के कारणों को समझने की दिशा में बढ़ सकता है। कारण के निवारण के लिए प्रयत्नशील हो सकता है। भिखारी ठाकुर भी अपने नाटकों और गीतों के जरिए कुछ ऐसे ही कार्य, प्रयत्न करते दिखाई देते हैं। उत्तर भारत के जन जीवन, खासकर स्त्री जीवन के जटिल प्रसंगों जैसे बाल विवाह, अनमेल विवाह, बेटी बेचने जैसे कुकृत्यों और स्त्री पुरुष संबंध और संतानोत्पति जैसे प्रश्नों को जनभाषा भोजपुरी में नाटक रच कर पूरे समाज के नैतिक मानों को खुली चुनौती देते हैं। लोगों को रोने, सुबकने और सोचने को विवश करते हैं। दुखियारी जिंदगी के दुखों को उसी जिंदगी के समक्ष उसी की भाषा में रख देते हैं। इन सारे सवालों के तह में गरीबी रही है। गरीबी के चलते बेटियां बेची जाती थीं। गरीबी के चलते लोग घर-परिवार, बीवी-बच्चा छोड़ परदेस जाने को मजबूर थे। मां, पिता, पत्नी आदि की पीड़ा को वाणी देना आसान नहीं होता। भिखारी ठाकुर ने इन कठिन प्रसंगों को अपनी कृतियों में संभव किया है। टूटते-बिखरते घर-परिवारों और उनके सपनों और अरमानों को अपने नाटकों में, खासकर बिदेसिया' और 'गबरधिचोर' में प्रस्तुत किया है। यह कहने की बात नहीं है कि ऐसे हालातों की मार सर्वाधिक महिलाओं के ऊपर पड़ती है। भिखारी ठाकुर ने उसी जीवन की बात सबसे अधिक और प्रभावी ढंग से कही है। एक तरह से जन मानस को झकझोर कर रख दिया है। देखने की बात है कि शिवपूजन सहाय की 'देहाती दुनिया' ही भिखारी ठाकुर के नाटकों की दुनिया है। भिखारी के नाटक 'बिदेसिया' की सुंदरी बटोही से निवेदन करती आप है जो बारहमासा गा रही है उसकी एक पंक्ति है-
'पिया अइतन बुनिया में राखी लिहतन दुनिया में।'
प्रेमचंद के निर्मला' के आखिर में 'निर्मला' उपन्यास की कथा को 'स्त्री जीवन की करुण कथा कहा गया है।
राजनीतिक आंदोलन के उस चरम उभार के दौर में भिखारी ठाकुर सामाजिक जागरण के जनसूत्रधार के रूप में सामने आते हैं। आजादी के आंदोलन का जो एक जरूरी पक्ष था सामाजिक जागरण का, अपने समय में जिसको गांधी जी ने महसूस किया था। जिसको प्रेमचंद ने समझा और कथा-साहित्य का विषय बनाया। भिखारी ठाकुर ने भी उसे समझा और नाट्यसृजन किया। नाचपार्टी और नाचमंच को सामाजिक चिंतन और अभियान का हिस्सा बनाते हुए उसे नई अर्थवत्ता दी। उनकी भी नाचमंडली शादी के अवसरों पर सट्टा पर जाया करती थी। नाच काच करती थी, नाटक खेलती थी। जन के मन का रंजन करते हुए उसे रोजमर्रे के सामाजिक विषयों पर सोचने की तरफ लिए चली जाती थी। रौबदार मूँछदार सत्ता की चूले व्यंग्य और करुणा से हिला देती थी। प्रेमचंद ने जो काम 'गबन' उपन्यास के नारी करेक्टर बीस साल की रतन और साठ साल के वकील साहब के जरिए किया, उसी काम को भिखारी ने अपने नाटक 'बेटी विलाप' के जरिए किया। साठ साल के वकील साहब को यह समझ में आ गया कि इतनी कम उम्र की रतन से उनको विवाह नहीं करना चाहिए था। उस का ही फासला नहीं, दूसरी कई चीजें भी इस तरह के रिश्ते में दिक्कतें पैदा करती हैं। यह अहसास जरूरी था, जिसको प्रेमचंद ने जगाया। भिखारी ठाकुर के नाटकों ने भी न जाने कितने लोगों में सीधे-सीधे इस अहसास की जगह बनाई। सामियाना में नाच और नाटक देखते हुए कितने वकील साहबों में यह अहसास पैदा हुआ, नहीं कहा जा सकता। कितने धनी-मानी लोग मन ही मन लज्जित हो कर रह गए। बेटी के विलाप से कितनों का कलेजा दहल गया। बेटी विलाप का जबरदस्त प्रभाव रहा भोजपुरी क्षेत्र में। यह तो बिलकुल नजदीक की बात है, हाल हाल की।
भिखारी ठाकुर 'बिदेसिया' को नाटक नहीं तमाशा कहते हैं। अलग से कभी कहीं कहा है कि नहीं यह बाद की बात है। हां, बिदेसिया' नाटक में ही दो तीन बार उन्होंने इस नाटक को तमाशा कहा है। 'बिदेसिया' में नाटक का सूत्रधार शुरू में ही इसको चौपाई छंद में बिदेसी की कथा' कहता है।
चित देइ सुनहु बिदेसी काथा।'
बिदेसिया नाटक है, नाटक में कथा है और कथा की घोषणा होती है कविता में। इसके बाद सूत्रधार गद्य में बिदेसिया की कथा संक्षेप में सुना जाता है। वह कहता है आज बिदेसी के तमासा होइहन' (आज बिदेसी का तमाशा होगा)। वह इसको नाच कहने पर आपति प्रकट करता है। लोग-बाग उस समय इसको झट से नाच कह दिया करते थे। सूत्रधार बहुत फरिया कर कहता है
"बिदेसिया के नाच ना हवन, बिदेसिया के तमासा हवन। एह तमासा में चार आदमी के पाट बा बिदेसी एक, प्यारी सुंदरी दू, बटोही तीन, रखेलिन चार।" (बिदेसिया नाच नहीं, तमाशा है। इस तमाशा में चार किरदार हैं एक बिदेसी, दूसरी प्यारी सुंदरी, तीसरा बटोही और चौथी रखेलिन।)
हालांकि इसमें कुछ और पात्र हैं। लेकिन पूरा नाटक इन्हीं चार प्रमुख पात्रों पर केंद्रित है। इस जगह पर एक बात कहना जरूरी लग रहा है कि नाटक का जो चौया पात्र है उसको आरंभ में सूत्रधार 'रखेलिन' कहता है। पर नाटक में उसको बार बार रण्डी कहा गया है। पात्रों के संवाद में रण्डी उचरता है। इस पर सोचा जाना चाहिए। नाटक में हालांकि उसे बाजारु ही दिखाया गया है। खैर, बात तमाशा पर चल रही है सो इस मुद्दे पर विचार बाद में कभी किया जाएगा। समझने की बात है कि इसमें बिदेसी की कथा है। सूत्रधार के प्रस्थान के बाद समाजी जो गा रहे हैं उस पर ध्यान देना जरूरी है। समाजी इसको नाटक कहते हैं। बीच का नाटक। बीच के नाटक मतलब लोक और शास्त्र के बीच का नाटक। देखा जाए
'एह नाटक के बिचऊ बाना, गावत बानी बिदेसिया गाना।'
मतलब यह कि इसको तमाशा लोक-नाटक के अर्थ में कहा गया है। यह नाटक गीत आधारित है। आरंभ से अंत तक गीतों से अटा पटा है। एक से एक बेहतरीन और मर्मस्पर्शी गीत। इन गीतों में ही इस नाटक के प्राण बसते हैं।
कबीर दास 'कागद लेखी' नहीं, 'आंखिन देखी' बात के समर्थक थे। भिखारी ने भी जो देखा वहीं कहा, उससे आगे भी जा कर कहा। भिखारी के बिदेसिया नाटक की पात्र सुंदरी अपना दुःख बटोही को सुना रही है। अपना दुःख कह कर नहीं, गा कर सुना रही है। दुख कहने और गाने में बड़ा फर्क होता है। लोक में दुख कहने को दुख गाना ही समझा गया है। गा कर सुनाने के क्रम में वह अपने सवांग (पति) की कद-काठी, रूप-रंग सबका वर्णन करती है। फोटो का तो वह जमाना था नहीं। सो पति की तसवीर बटोही के समक्ष रख देने की चुनौती थी। ताकी परदेस जा रहा बटोही परदेस गए बिदेसी को इस वर्णन के आधार पर पहचान ले। सुंदरी बटोही से कहती है-
पिया के सकल के तू मन में नकल लिखऽ।'
(पति की सकल को अपनी स्मृतियों में रख लो।)
वह सकल इस प्रकार है- 'करिया' ना गोर बाटे, लाम नाहीं हउवन नाटे, मझिला जवान साम सुंदर बटोहिया।"
इसी को ठेठ भौजपुरिया लहजा में 'करेजा काढ़ वर्णन कहा जाएगा। सुंदरी गीत में अपने पति का स्केच बटोही के समक्ष रख देती है। भोजपुरी गीतों में रेखाचित्र का यह सहज सुंदर उदाहरण है। अपने पिया के रूप-वर्णन के साथ ही अपने हिया की पीर को भी सुना जाती है। यह रूप-वर्णन हिया के उदबेग के साथ है। उस उदबेग ने ही इसे मार्मिक बनाया है। साल के बारह महीनों की मनः स्थितियों का वर्णन है। भोजपुरी के इस उत्तम कोटि के बारहमासा को इस तमाशा में जगह मिली हुई है। वह बटोही से निवेदन करती है
तूं मोर दुख देखिल नेतर से।'
(मेरा दुख अपनी आंखों से देख लीजिए।
वह यह भी कहती है कि अपनी बेटी की तरह समझना। तात्पर्य यह कि एक बाप की आंखों से एक बेटी का दुख देखना। चलताऊ ढंग से नहीं। यह सब कुछ बहुत प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त हुआ है। अगर यह वर्णन प्रभावशाली न होता तो न बटोही चित दे कर सुनता और अगर बटोही नहीं सुनता तो दर्शकों का चित्त इस नाटक में कैसे रमता। यहां यह भी कहना ठीक रहेगा कि बटोही जब कलकता पहुंचता है और बिदेसी से उसकी भेंट होती है तो वह बिदेसी से उसकी पत्नी की पूरी बात, उसके दुःख, वियोग, उसकी आशा, उसके रूप लावण्य का बड़ा ही सटीक, अकुंठ और मार्मिक वर्णन करता है। यह वर्णन वह इस सबूत के साथ करता है कि वह जो भी कह रहा है, वह उसकी पत्नी की बात है। बटोही को ऐसा इस वजह से करना पड रहा है कि बिदेसी ने पूछ दिया है कि तुम किस नगर के हो? मकान के भीतर रहने वाली वाली हमारी जनिया (पत्नी) को आखिर देख कैसे लिया? उसकी एकेक बातों को जान कैसे लिया?-
'बान्हि के पगरिया रगरिया मचवतारड,
कवना नगरिया के हव तू बटोहिया।
हमरी जनानावां मकानावां भीतरवा में,
साधि कर रहेली भवनवां बटोहिया।
चीन्हि ले लऽ कइसे, बतावs हमें जइसे,
तूं जानियां मकनियां भीतर के बटोहिया।
इसी प्रश्न, इसी सुबहां के उत्तर में बटोही सबूत पेश करता है:
'चलली बहरवा से कानवा परल मोरा,
सती के बिपति के मोटरिया बिदेसिया।
हउई बटोहिया, लागल जब मोहिया,
त जोहिया लगाइ कर अइली बिदेसिया।
छोड़िकर घरवा के बहरी ओसरवा मै,
जल बिनु मछरी के हलिया बिदेसिया।
बिदेसी को अनुमान है कि उसकी पत्नी भवन के भीतर दम साधे रह रही होगी। पर, बटोही के अनुसार वह भवन के बाहर ओसारे तक आ चुकी है। इसे स्त्री जीवन और मुक्ति के संदर्भ में एक संकेत भी समझना चाहिए। परिस्थितियों के दबाव में उसके कदम बाहर निकलने को हैं। बटोही ने मनोयोगपूर्वक सुंदरी की बातें सुनी हैं. निर्मल नयन से उसकी वय और चेहरे को भी देखा है। उसकी उम्र महज बीस वर्ष की है। उसके केश काले हैं. रंग सांवला है।
सुंदरी ने अपने पति का हुलिया, रूप-रंग बटोही से कहा है। बटोही ने सुंदरी को अपनी आंखों से देखा है और जो देखा है वही बिदेसी से कह भी रहा है। ये सारे संवाद गीत में हैं। यहां कोई सुग्गा नहीं, आदमी है। सुनी-सुनाई नहीं, देखी-दिखाई बातें हैं। सुंदरी-बटोही-संवाद और बटोही-बिदेसी-संवाद इस नाटक के सर्वाधिक मार्मिक संवाद हैं। यह नाटक इन्हीं दो संवादों पर खासकर टिका हुआ है। ये भिखारी को श्रेष्ठ गीतकार होने के भी उत्तम उदाहरण है।
आम आदमी के मन को प्रभावित करने की कला भिखारी के पास खूब है। मन के भीतर कैसे पैठ बनाई जा सकती है, देखना हो तो सुंदरी और बटोही के संवाद को जरूर देखें। यह संवाद इतना मर्मस्पर्शी है कि बटोही कलकता के हाट बाजार में बिदेसी के उदेस (खोज) में लग जाता है। उसके जिम्मे जो काम मिला है उसे जिम्मेदारीपूर्वक पूरा करने में लग जाता है। बिना पूरा किए उसे शौच जैसी अनिवार्य क्रिया की भी सुधि नहीं रही। वह सुंदरी के दुःख से द्रवित है। उसके साथ ही साथ दर्शक भी, पाठक भी, श्रोता भी। भिखारी लिखते हैं:
'चलि भइलन राहे राही, बनि के अधिक दाही,
पुरुब के देसवा में पहुंचे बिदेसिया।"
कला की ऐसी साधना लोक-कलाकार के यहां ही संभव है। इसके लिए लोक और लोकमानस की समझ जरूरी है। इसी के चलते तो कवि केदार नाथ सिंह ने भिखारी ठाकुर को लोक-सजग कलाकार कहा है।
बिदेसिया में सुंदरी, बटोही और बिदेसी के अलावा एक और जबर्दस्त करेक्टर है 'रखेलिन' जिसके लिए बार-बार रण्डी संबोधन है। बिदेसी अपनी नवविवाहिता पत्नी को घर छोड़ कर कलकता चला आया है। यहां कलकता में कामधाम करते हुए वह एक दूसरी स्त्री के साथ रहने लगता है। वह दूसरी स्त्री ही रखेलिन है। एकाकी जीवन में जैसे बिदेसी को एक स्त्री की जरूरत थी, वैसे ही उस स्त्री को भी एक पुरुष की जरूरत थी। दोनों के जीवन का वर्तमान है यह संगति। पर, इस संगति में वह रखेलिन कहलाती है, बल्कि, उससे भी आगे और बदतर रण्डी। इस संगति से एक पुत्र का भी जन्म होता है। हमारे समाज में भिखारी के समय में भी और आज भी, रखेलिन की पोजिशन किसी से छिपी हुई नहीं है। प्रेम करते हुए, साथ रहते हुए भी उसको पत्नी का दर्जा शायद ही मिल पाता है। उलटे लांछित जीवन जीना पड़ता है। संतानों को भी अपमान झेलना पड़ता है। आम व्यवहार में भी और तैश में तो खासकर लोग ऐसी महिलाओं को रण्डी, छिनाल तक कह देते हैं। संतानों को दोगला। इस नाटक की यह दूसरी स्त्री इन्हीं स्थितियों की मारी हुई है। बिदेसी के साथ रहते हुए वह किसी और पुरुष के साथ नहीं दिखाई देती है। वह बिदेसी के साथ पूरा नेह और मान के साथ है। विवाहिता भले नहीं है, संगी जरूर है। वह बिदेसी से अलग नहीं रहना चाहती है। अपने इस सहजीवन में खलल उसको बर्दाश्त नहीं है। बटोही का हस्तक्षेप उसको बिलकुल पसंद नहीं है। वह बटोही को 'बुडबक' और बिदेसी की विवाहिता को 'फुहरी' तक कह देती है। बटोही को धक्का तक दे देती है। यह काम इसकी जगह पर कोई भी स्त्री करती। मुझे लगता है कि इस चरित्र के बारे में ठीक से सोचा जाना चाहिए। विवाहिता के हक, मरजाद और उसकी तरफदारी तो ठीक है, पर ऐसे चरित्र का उपहास भी ठीक नहीं है। प्रथम दृष्टया लग सकता है कि भिखारी ने उपहास किया है। नाटक में यह दिखता भी है। पर, बाल यहीं तक नहीं है। सच यही नहीं है। सच का दूसरा पहलू भी है जिसे समझना होगा। जो भिखारी की समझ में है भी। भिखारी ने उपहास लोक रवैए को देखते हुए ही किया है और उन रवैयों को एक सुचिंतित झटका भी दिया है। उसे हल्का सा मानवीय संस्पर्श देते हुए इस दूसरी स्त्री और तथाकथित रखेलिन को एक घर तक पहुंचा दिया है। उसको पुनर्वासित किया है। 'बियही' और 'उदरी (रखेलिन) को एक जगह ला दिया है। लोकनिंदा को लोकस्वीकृति तक ला दिया है। कुछ ऐसा ही तो प्रेमचंद ने गबन के 'जोहरा' के साथ किया है। नई परिस्थितियां संबंधों को जिस मुहाने तक ला देती हैं, उसको उसके वास्तविक संदर्भों में लेना होगा। भिखारी ने अपने समय में जिस तरह से सोचा है, वह उनकी भविष्य दृष्टि का भी परिचायक है।
नाटक में बिदेसी-बटोही संवाद के साथ ही साथ बिदेसी-रखेलिन संवाद और बटोही-रखेलिन संवाद भी महत्वपूर्ण हैं। बिदेसी जब इस स्त्री को छोड़ कर अपने गांव चल देता है, तब उसकी पीड़ा और विछोह भी कम मर्मस्पर्शी नहीं हैं। इन संवादों में रखेलिन की कई मुद्राएं दिखती हैं। निवेदन की, शिकायत की, झुंझलाहट की। यह सब बिदेसी से अलग होने के दुःख की अभिव्यक्ति के रूप हैं। इसे कृत्रिम कहना या चालबाजी कहना अविवेकपूर्ण होगा।
यहां भिखारी ठाकुर के नाटक 'गबरधिचौर' को भी समझना होगा। इसको 'बिदेसिया' के आमने-सामने रख कर पढ़ना ठीक रहेगा। दोनों में बहुत कुछ मिलता-जुलता भी है, और बहुत कुछ बिलकुल अलग भी है। लोक-निंदा और लोक-स्वीकृति की रस्साकशी इसमें भी है। दोनों एक दूसरे के पूरक पाठ प्रस्तुत करते हैं। बिदेसिया की तुलना में यह ज्यादा सुगठित है। संवाद गद्य में हैं। गीत इसमें भी हैं, पर 'बिदेसिया' से काफी कम हैं। 'बिदेसिया' में गीत इतने अधिक हैं कि ऊब की भी स्थिति बन जाती है। गीतों के चलते कथा मंद गति से आगे बढ़ती है। हालांकि कथानक में कम मोड़ नहीं हैं। जबकि 'गबरधिचोर' के कथानक में 'बिदेसिया' से कम मोड़ हैं। दोनों ही नाटकों में कलकता है। दोनों में पति अपनी नवविवाहिता को घर पर छोड़ कर कलकता जाते हैं। 'बिदेसिया' में 'बिदेसी' तो 'गबरधिचोर' में 'गलीज'। फर्क यह है कि 'गबरधिचौर' में गलीज कलकता में पंद्रह साल अकेले रहता है। किसी स्त्री के साथ नहीं। यह दिखाना यहां भिखारी का मकसद भी नहीं है। यह 'बिदेसिया' में है ही। उनका मकसद इस नाटक में पति से पंद्रह साल दूर रहती पत्नी को दिखाना है। यहां यह पंद्रह साल की अवधि है। इस अवधि में पत्नी का संबंध गांव के एक युवक से, जिसका नाम 'गड़बड़ी' है. बन जाता है जिससे एक पुत्र का जन्म होता है। बिदेसिया में कलकता केंद्र में है, इसमें गांव है। बिदेसिया में पति का संबंध एक दूसरी स्त्री से बनता है और पुत्र पैदा होता है। इसमें पत्नी का संबंध एक दूसरे पुरुष से बनता है। इसको पात्रों और परिस्थितियों की अदला बदली समझना ठीक नहीं है। देखना लाज़िम होगा कि एक में स्त्री को रखेलिन, रण्डी कहा गया है और दूसरे में पुरुष को गड़बड़ी। रण्डी और गड़बड़ी एक ही वजन के शब्द नहीं हैं। गड़बड़ी बहुत हल्का-फुल्का है रण्डी की तुलना में। इस नाटक में जो तथाकथित गड़बड़ी दिख रही है, दूसरे मर्द से संबंध और बच्चा पैदा होने की, केंद्र में तो वही है। पर, संबंध की नैतिकता और अनैतिकता पर फोकस न हो कर, संतान पर किसका हक है, फोकस इस पर है। पर, सब कुछ प्रत्यक्ष हो जाता है। संबंध बनने की परिस्थितियां, जरूरतें, नैतिकता, अनैतिकता सब कुछ। यहां स्त्री मुखर है। तर्कशील है। 'बिदेसिया' में जो स्त्री ओसारे तक आई हुई दिखती है. इसमें भरी पंचायत में अपने तर्क रखती हुई दिखाई देती है। दोनों ही नाटकों में जेंडर के अंतर के बावजूद ऐसे संबंधों को ले कर किसी पात्र में कोई कुंठा नहीं है और न ही संतानों को ले कर। न बिदेसी में और न ही गलीज बहू (गबरधिचोर) में।
दोनों नाटकों में परदेसी पतियों के चरित्र और स्वभाव में बहुत अंतर है। बिदेसी सहज और संवेदनशील है, गलीज जटिल और स्वार्थी है। 'गबरधिचौर' में गलीज को अपनी पत्नी के दूसरे पुरुष से बने संबंध को ले कर कोई चिंता नहीं है न ही उससे जन्मे पुत्र को ले कर कोई तनाव। वह गांव आता है तो आने का कारण पत्नी नहीं है। लंबे समय से दूर रहने के कारण मन में कोई टीस भी नहीं है। वह इस संबंध को ले कर निर्द्वंद्व है। दूसरे पुरुष से जन्मे पुत्र को कलकता ले जाने के लिए आया है ताकि वह भी कुछ कमा सके और कमाई से गलीज लाभ ले सके। उसकी कमाई पर सुख करे। वह कलकता फिर लौट जाने के लिए आया है। उस पुत्र को कलकता चलने को कहता है। न वह जाने को तैयार है और न ही उसकी मां भेजने को। बस इसी को ले कर पंचायत की नौबत आ जाती है कि उस पर किसका हक है। भिखारी ठाकुर का जो समय था और उस समय गांवों की जो बदहाल होती आर्थिक स्थितियां और बिखरते सामाजिक ताने बाने थे, गलीज उसी समय को अभिव्यक्त करता चरित्र है जिसके अंदर कोई क्रिया प्रतिक्रिया नहीं है, केवल पैसे के लिए जुगाड की चिंता है।
गबरघिचोर में 'गबरघिचौर' उस लड़के का नाम है जो तेरह वर्ष का हो चुका है और उस पर किसका वाजिब हक है? वह किसकी संतान है? इसी को ले कर पंचायत होती है। वह अपनी मां को छोड़ कलकता नहीं जाना चाहता है।
गलीज (पति) अपनी पत्नी को पागल करार देता है। जबकि वह पूरी तरह स्वस्थ है। पंद्रह साल बाद कलकता से आए पति से अपना दुःख सुना रही है। वह खुद को पगली कहती है। किस अर्थ में कहती है, देखने लायक है:
हाथ-बांह धड़ला के, सादी-गवना कड़ला के
आज ले ना कइलs निगहवा हो स्वामी जी
आस मत नास करs, बेटा के रहे द घर
पगली के प्रान के आधार मोर हो स्वामी जी।
गलीज द्वारा पागल करार देना धूर्तता है और स्त्री को खुद को पगली कहना अपनी लाचारी प्रकट करना है।
यहां एक सवाल सहज ही उठ खड़ा होता है कि वह अपनी पत्नी को कलकता अपने साथ क्यों नहीं ले जाना चाहता है। उत्तर खोजना कठिन नहीं है। भिखारी ठाकुर ने यहां कुछ न कह कर कुछ कह देने जैसी जगह छोड़ दी है। पंद्रह साल कम नहीं होते। इस लंबे कालखंड में विवाहिता पत्नी को छोड़ कर रहने से यह समझना मुश्किल नहीं है कि कलकत्ता में वह (पति) अकेले नहीं होगा।
इस नाटक का सबसे सबल पक्ष है एक स्त्री का दूसरे पुरुष से बने संबंध और उससे जन्मे पुत्र को अपना स्वीकार करना। मन में कहीं कोई हिचक नहीं। यह कमाल का स्त्री साहस है। लोकमुहावरों और लोकप्रमाणों के हवाले से अपनी बात, अपना पक्ष खुल कर समाज के सामने रखना। ऐसा साहस तो शिवमूर्ति की लंबी कहानी 'कुच्ची का कानून' में दिखता है। भिखारी ठाकुर यौन संबंध, यौन शुचिता, कोख पर स्त्री अधिकार जैसे सवालों को लोक-मंच पर उठाते हुए दिखाई देते हैं। चाहे जिस रूप में, जिस शैली में, पर सवाल तो उठे ही उठे हैं। शामियाने में दर्शक चाहे हंसे, विनोद में ले, पर सवाल तो सवाल होते हैं। इस नाटक में पंच की जो परिकल्पना है, वह केवल हास-परिहास के लिए नहीं है। यहां का पंच प्रेमचंद के 'पंच परमेश्वर' से भिन्न है। पंच के समक्ष एक विवाहिता स्त्री परपुरुष से जन्मे पुत्र पर अपने स्वाभाविक हक के लिए तर्कों के साथ अकुंठ खड़ी दिखती है। अपना पक्ष रोचक अंदाज में आत्मविश्वास के साथ रखती है।
इन दोनों नाटकों पर विचार उस दौर के आर्थिक पहलुओं को छोड़ कर नहीं किया जा सकता है। क्योंकि यही वे मूल पहलू थे जिनके चलते सामाजिक जीवन में बहुत कुछ उलट-फेर हो रहे थे। गांवों की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो चुकी थी। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियां भी इस डांवाडोल के लिए जिम्मेवार थी। उत्तर भारत के हर गांव के गरीब और मध्यवित्त परिवारों के लोग भी रोजी-रोजगार के वास्ते कलकता जाने को मजबूर थे। हर जाति के लोग इसमें शामिल थे। उच्च जातियों के भी लोग कलकता की कई कंपनियों में दरबानी करने को विवश थे। जो जाते थे वे तुरन्त वापस नहीं आ पाते थे। बिदेसी और गलीज की ही तरह।
वहां अमानवीय परिस्थितियों में जीने को विवश थे। निःसंगता की हालत में गंजेडी-भंगेड़ी हो जाया करते थे। कई तरह के संबंध इस बीच बन जाते थे। इधर परिजनों की हालत पतली हुई जाती थी। बिदेसिया का बिदेसी इसी आर्थिक तंगी के चलते कलकता गया हुआ था। भिखारी ठाकुर ने उसकी बदहाल आर्थिक स्थिति को तुरत-फुरत नहीं दिखा दिया है। बहुत छुपा कर दिखाया है। यह छुपा कर दिखाना भी एक कला है। अपनी गरीबी को लोग उस समय भी जहां तक छुपाया जा सके, छुपाने की कोशिश करते थे। बिदेसी भी करता है। पर उसी का दोस्त मंच पर मुंह घुमा कर कहता है कि घर में है ही क्या? यह इशारे इशारे में दिखाया गया वह सच है जिसने न जाने कितने परिवारों और जिंदगियों को तबाह कर रखा था।
यही वह समय है जिसमें 'गोदान' लिखा जाता है। होरी अपने खेत से बेदखल होता है। प्रेमचंद ने होरी की जिस 'मरजाद' की तरफ इशारा किया है, भिखारी ने भी उसी मरजाद की कलई खोली है।
'बिदेसिया' का एक और सीन बड़ा दिलचस्प है। वह सीन बटोही के रेलवे स्टेशन पहुंचने और टिकट कटाने का है। यह हास्य उत्पन्न करने वाला सीन है। भिखारी ने यहां भी अपना कमाल दिखा ही दिया है। बढ़े हुए रेल भाड़ा पर बटोही की टिप्पणी देखी जा सकती है-
समाजी कहता है 'ए बाबा आजकल मसूल बढ़ गइल बा।'
बटोही कहता हैः बढ़ जाला अधेली-सूका कि दहाना के दहाना।'
बढ़ती कीमतों पर यह टिप्पणी गौर करने लायक है।
इसी तरह, 'गबरधिचौर' में पंच की मौजूदगी और उसकी भाषा और व्यवहार देखने लायक है। पंच का फैसला आखिर में उस स्त्री के पक्ष में होता है जिसकी कोख से वह बेटा जन्मा है। यहां दो बाप और एक मां वाले मुकदमे का फैसला होता है। पंच के कथन में इस नाटक के अंत में 'दाह' शब्द का प्रयोग ममता के अर्थ में हुआ है। बिदेसिया में 'दाही' का प्रयोग हुआ है। वहां दाही दयालु के अर्थ में है। दायित्व-बोध के अर्थ में।
भिखारी ठाकुर के इन नाटकों के कला-पक्ष पर भी बात जरूरी है। यह कहा जा चुका है कि 'बिदेसिया' गीतों से अटापटा नाटक है। इन नाटकों में दृश्य परिवर्तन के समय समाजी की भूमिका महत्वपूर्ण है। समाजी गीतों के जरिए दृश्य परिवर्तन और पात्रों के मंच पर आगमन और प्रस्थान की सूचना देते हैं। समाजी के गीत भी काफी अर्थपूर्ण और मर्मस्पर्शी हैं। पात्र समाजी से चुहल भी करते हैं। खास तौर पर बिदेसिया के बटोही से।
बिदेसी दो बार विस्थापित होता है। पहली बार गांव से तो दूसरी बार शहर से। दोनों बार कोई न कोई छूट रहा है। जो जो छूट रहे हैं, भिखारी ने सबको सामने लाना जरूरी समझा है। दोनों औरतों को तो लाया ही, बिदेसी के द्वंद्व को भी प्रत्यक्ष किया। देखा जाए तो प्रेमचंद ने जैसे 'गबन' के सारे पात्री को एक जगह कर दिया है. भिखारी ने भी बिदेसिया के सभी पात्रों को एक जगह कर दिया है।
भिखारी ठाकुर के सामने भोजपुरी भाषी लोक, लोक-मानस और लोक-संस्कृति थी। भिखारी ने उस लोक और मानस को उसी रूप में अपने नाटकों में नहीं अपनाया, जिस रूप में वह था। लोक के दुखते रगाँ पर हाथ बहुत संभाल कर धरा है। राम, कृष्ण, सीता, शिव, पार्वती सबको गुहराते हुए जीवन और समाज की बातें की हैं। लोक की बात लोग के सामने रखी हैं। लोक-मंच के साथ-साथ लोक-मानस को भी अधिक 'दाही' बनाना भिखारी ठाकुर की कला का अहम पक्ष है।
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भिखारी ठाकुर पर हुए अब तक के विमर्शों से गुजरते हुए भी कुछ अलहदा नयी बातें, नयी सोच और समझदारी का अलग वातायन इस आलेख के जरिये बलभद्र खोलते दिखते हैं।यही बलभद्र की निजता है।जो कुछ बातें यहाँ रखी गई हैं - बिल्कुल साफ-साफ।आलेख लम्बा होकर भी एक बार में ही अपने को पढ़वा लेता है ।छोटे-छोटे यहाँ तक कि दो-दो शब्दों के वाक्यों की भी साफगोई देखते बनती है।भिखारी पर खूब लिखा जा रहा है मगर बलभद्र की यह लिखाई हर बार की तरह इस बार भी खुश कर देने वाली है।बधाई बलभद्र जी और संतोष जी दोंनो को।
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