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शिवदयाल का आलेख 'स्वराज के मूल्य और प्रेमचंद'

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  प्रेमचंद ने जिस समय लिखना आरम्भ किया, एक भाषा के तौर पर  हिन्दी अपना रूपाकार ले रही थी। खुद प्रेमचंद अपने मूल नाम धनपत राय से उर्दू भाषा में लिख रहे थे। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि प्रेमचंद नाम से उन्होंने हिन्दी में लिखना शुरू किया। वे मध्य वर्ग की विडंबनाओं और उनकी समस्याओं से बखूबी वाकिफ थे। इसीलिए उन्होंने जो लिखा वह यथार्थपरक चित्रण लगता है। सामाजिक विद्रूपताएं हों, भ्रष्टाचार हो या फिर स्वाधीनता आन्दोलन सबकी प्रतिध्वनि उनकी रचनाओं में सुनाई पड़ती है। आज भी अगर हम प्रेमचंद को याद कर रहे हैं तो इसलिए कि उनका लिखा हुआ आज भी न केवल प्रासंगिक है बल्कि समकालीन लगता है। प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर स्मृति को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि आलोचक शिवदयाल का एक व्याख्यानपरक आलेख। शिवदयाल जी ने कल्चर बुकलेट की वेब संगोष्ठी में 31 जुलाई 2020  को यह व्याख्यान दिया था जिसका यत्किंचित सम्पादित अंश हम प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'स्वराज के मूल्य और प्रेमचंद'। 'स्वराज के मूल्य और प्रेमचंद'       ...

यतीश कुमार की किताब की विभा रानी द्वारा की गई समीक्षा

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  सामान्यतया लेखन के लिए कुछ चीजें अनिवार्य होती हैं। ईमानदारी, प्रतिबद्धता, व्यापक अध्ययन, अनुभव और सोचे हुए को शब्दों में सहज और सरल तरीके से पिरो देना। किसी भी लेखक के लेखन में अगर ये सब तत्त्व हों तो उसका लेखन निश्चित तौर पर प्रभावी होगा। यतीश कुमार के लेखन में ये सभी चीजें दिखाई पड़ती हैं। अपने अतीत को याद करते हुए यतीश उन बातों को भी सामने रखने से नहीं चूकते जिससे सामान्य तौर पर कोई लेखक बचना चाहता है। 'लोग क्या कहेंगे' का कोई भय उनके यहां नहीं है। वे खुल कर अपनी बातें रखते हैं जिससे यह संस्मरण काफी प्रभावी बन पड़ा है। प्रभावी कुछ इस तरह कि इसे पढ़ते हुए किसी भी व्यक्ति को सहज ही अपने अतीत के संघर्षों की याद आ जाएगी। किसी भी किताब के लिए यह सबसे बड़ी सफलता होती है। विभा रानी ने यतीश कुमार के इस किताब पर एक पारखी नजर डालते हुए लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  यतीश कुमार के किताब की विभा रानी द्वारा की गई समीक्षा 'हम सबके अतीत की सैरबीन है बोरसी भर आंच' । हम सबके 'अतीत का सैरबीन' है- ‘बोरसी भर आंच’ विभा रानी  अभी तो फिलहाल यह स्थिति है कि इस किताब...

विनोद दास का आलेख 'आलोचक के सिरहाने कविता - डॉक्टर नामवर सिंह'

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  नामवर सिंह  हिन्दी आलोचना की कोई बात आज भी प्रोफेसर नामवर सिंह के बिना पूरी नहीं होती। इस बात में कोई दो राय नहीं कि वे विद्वता के पर्याय थे। उनका अध्ययन व्यापक था। इस अध्ययन के चलते ही उनके व्याख्यान सारगर्भित ही नहीं लाजवाब भी होते थे। आज उनके जन्मदिन पर विनोद दास ने एक आत्मीय संस्मरण लिखा है। नामवर जी की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि विनोद दास का आलेख 'आलोचक के सिरहाने कविता - डॉक्टर नामवर सिंह'।                                     ' आलोचक के सिरहाने कविता - डॉक्टर नामवर सिंह' विनोद दास    जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि केदार नाथ सिंह के साथ उनके घर में बैठा हूँ। उनसे समकालीन कविता पर संवाद चल रहा है। अचानक वह पूछते हैं, ”नामवर जी से मिले?” उनके इस नुक्ते पर मेरी साँस थोड़ी देर के लिए रुक जाती है। नकार की मुद्रा में सिर हिलाने के साथ मैं कहता हूँ, "नहीं।” न जाने क्यों केदार जी यह सवाल अक्सर पूछते ...

रुचि बहुगुणा उनियाल का सस्मरण 'तीमारदार की व्यथा-कथा, भाग-1'

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  आमतौर पर लोग बीमार की ही बात करते हैं। लेकिन वे उस तीमारदार को भूल जाते हैं जो बीमार के साथ हर वक्त मुस्तैदी के साथ मौजूद रहता है। यह तीमारदार सामान्यतया बीमार का संबंधी ही होता है जो उसकी सतर्कता के साथ केवल देख रेख ही नहीं करता बल्कि उसकी बीमारी से जुड़ी तमाम जांच और दवा वगैरह का भी तत्पर हो कर इंतजाम करता है। वह बीमार का उत्साह बढ़ाने का काम करता है जिससे बीमार निराशा के भंवर में उलझ कर न रह जाए। इस तरह तीमारदार की भूमिका अहम हो जाती है। लेकिन यह तीमारदार हमेशा नेपथ्य में ही रहता है। रुचि बहुगुणा उनियाल एक कवयित्री हैं। उन्होंने इस पहलू के उस अदृश्य पक्ष को सामने लाने का कार्य किया है जो प्रायः उपेक्षित रह जाता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  रुचि बहुगुणा उनियाल का सस्मरण 'तीमारदार की व्यथा-कथा, भाग-1'। ' तीमारदार की व्यथा-कथा, भाग-1' रुचि बहुगुणा उनियाल गठिया के दर्द से लरज़ती कलाई पर सूजन देख कर नवनीत जी का दिल पिघल गया। बड़ी मुश्किल से अपनी आँखों की नमी छुपाते हुए बोले,  ‘तुम आराम से गर्म पानी से सिकाई कर लो, तब तक मैं होटल से खाना ले आता हूँ ‘!  यह मात्...