रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'स्नेह का तंतु'
मनुष्य जीवन में रिश्तों का अपना खास स्थान है। मनुष्य हो या पालतू जानवर, कब किससे स्नेह का तंतु जुड़ जाए, और वह अपना हो जाए। अपना इस अर्थ में कि उसका सुख दुःख अपना सुख दुःख लगने लगे। रुचि बहुगुणा उनियाल एक बेहतर कवयित्री हैं। उनके पास बेहतरीन भाषा है। उस भाषा को बरतने का हुनर है। अपने इस संस्मरण में रुचि की भाषा एक प्रवहमान रूप में दिखाई पड़ती है। संस्मरण पढ़ते हुए कभी अवरोध नहीं आता। बल्कि इसे और आगे पढ़ते जाने का जी करता है। यही तो बेहतर गद्य की खूबी होती है।
जनवरी महीने से हमने पहली बार पर रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण श्रृंखलाबद्ध ढंग से प्रकाशित करना आरम्भ किया था। तकनीकी रूप से यह बीच का हिस्सा था। एक तरह से कहा जाए तो संस्मरण की यह पहली किश्त है। हरेक महीने के तीसरे रविवार को हम रुचि का यह संस्मरण पहली बार पर प्रकाशित किया करेंगे। तो आइए आज पहली बार ब्लॉग पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'स्नेह का तंतु'।
स्नेह का तंतु ...
रुचि बहुगुणा उनियाल
जब हमारे घर में एक किराएदार की तरह लीज़ा आई थीं तब वे गर्भिणी थीं.....। पति फौज में हैं उनके इसलिए ऐसा मकान चाहते थे कि अगर कभी भी सीमा पर या फिर किसी आपात स्थिति में बाहर जाना पड़े तो लीज़ा को कोई परेशानी न हो।
दोनों उम्र के भी कम....। लगभग 22 बरस के लीज़ा के पति और लगभग 20 बरस की वो स्वयं! सबके विरूद्ध जा कर प्रेम विवाह किया था दोनों ने इसलिए कुछ भी हो परिवार के साथ सामंजस्य स्थापित होने तक उन्हें लीज़ा को अपने साथ ही रखना था।
लीज़ा आईं तो चार माह से गर्भिणी थीं और उन्हें रहना था मेरे घर की दूसरी मंजिल पर जहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ियों का इस्तेमाल करना ही था। लगभग तीन माह हमारे घर रहने के बाद लीज़ा की स्वास्थ्य संबंधी परिस्थिति को देखते हुए उनके पति ने हमारे ठीक सामने वाला घर किराए पर लिया जो कि नीचे की मंजिल पर ही था मतलब सीढ़ियों की समस्या खत्म!
कुछ समय बाद उन्हें एक बहुत प्यारी सी बिटिया के माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बच्चा हुआ तो ऑपरेशन से, मेरे सामने रह रहे थे इसलिए मुझे एक लगाव हो गया था लीज़ा से भी और बच्चे से भी। भले ही माता-पिता बन गए हों लेकिन कुछ बातें अनुभव से ही इंसान सीखता है और इन दोनों में परिपक्वता का पर्याप्त अभाव था! बच्चों की मालिश कितनी आवश्यक है, लीज़ा नहीं जानती थी। तब उन्हें रोजाना घर बुला कर मालिश करती थी मैं बच्ची को।
'दिवस जात नहीं लागहीं बारा' समय की गति को कौन रोक सका आज तक? अदिती एक साल की हुईं तो जन्म दिन पर विशेष रूप से दोनों पति-पत्नी मुझे बुलाने घर आए। हालांकि मुझे खासकर भीड़ में जाना पसंद नहीं है परन्तु ममता जो न करवाए......!
देखते-देखते समय कब दो साल का चक्र पूरा कर गया पता ही नहीं चला। अदिती चलने भी लगीं और थोड़ा थोड़ा बोलने भी लगीं।
मनुष्य का स्वभाव होता है कि आवश्यकता उसे स्वभाव के विपरीत विनम्र बना देती है और एक बार वो आवश्यकता पूरी हुई तो मनुष्य पहचानने में भी कतराने लगता है। परन्तु बच्चों के स्नेह की रेशमी डोर जितनी नाजुक लगती है उतनी ही मजबूत होती है।
अब लीज़ा कम आती हैं मेरे पास, क्योंकि आवश्यकता पूरी हुई।
आज सुबह नवनीत जी को नाश्ता दे कर वापस लौट रही थी.... अपनी ही धुन में चली जा रही हूँ मैं आदतन, चिरपरिचित अंदाज में सिर पर पल्लू भी है, परन्तु आजकल सर्दियों में सभी सिर ढके होते हैं इसमें क्या बड़ी बात है। पायल भी नहीं बज सकती कि कोई पहचान ले क्योंकि वो ज़ुराबों के नीचे हैं, मुँह पर मास्क है तो चेहरा भी नहीं पहचान सकता कोई जल्दी से। अचानक माँ का फोन आया और मैंने रिसीव किया!
"हैलो माँ प्रणाम।"
बस इतना ही बोल पाई कि जोर से किसी बच्चे के रोने का स्वर कानों में पड़ा! "माँ मैं आपसे अभी बात करती हूँ" कह कर मैंने फोन काट दिया और चश्मा ठीक करते हुए दाएँ बाएँ देखा! मुँह पर मास्क है तो पहचाना जाना और भी मुश्किल हो गया है मुझे।
"पता नहीं किसका बच्चा रोया" मैं बड़बड़ाई कि फिर से बच्चे के रोने की आवाज़ आई।
पलटी तो क्या देखती हूँ अदिती लीज़ा की गोद में रोते हुए मेरे पास आ रही हैं।
दूर से ही बांहें फैला कर मेरी गोद में आने को आतुर।
जैसे ही नज़दीक आईं तुरंत गोद में आ गई......। मैं थोड़ी देर तक लाड़ करती रही फिर वापस देना चाहा लीज़ा को लेकिन अदिती हैं कि अपनी माँ के पास जाने को बिल्कुल भी तैयार नहीं।
मेरी गोद में ही सीधा मेरे घर……….। केवल आवाज़ से ही उन्होंने मुझे पहचान लिया और अभी जब सो गईं तो लीज़ा को बुलाया और उनके साथ भेजा।
मैं नवनीत जी को घर आने पर बताती हूँ कि अदिती कैसे मेरी गोद में घर चली आई आज…..। बताते-बताते मैं खुद कब अपने स्कूल और बचपन में पहुँची पता ही नहीं चला। अदिती को देखते हुए मुझे अपना बचपन याद आ गया, बच्चे और जानवर जो स्नेह की डोर जोड़ते हैं वो बहुत मजबूत होती है इस बात का एहसास है मुझे। माँ बताती हैं कि मैं क़रीब तीन महीने की रही होऊँगी….. एक दिन पापा बाज़ार से लौटते हुए कुत्ते का छोटा सा बच्चा अपने ओवरकोट की जेब में ले आए, ठंड के मौसम में माँ ने उसे गर्म कपड़े बिछा कर एक टोकरी में रख दिया। बड़े भाई को वो बच्चा पसंद आ गया…..। सफेद रंग का छोटा सा बच्चा उसे खेलने को मिल गया था। उसका नाम रखा गया शेरू….। धीरे-धीरे वो बड़ा होता गया, यूँ तो वो भोटिया नस्ल का शिकारी कुत्ता था लेकिन उसका कद थोड़ा ज्यादा था बाक़ी भोटिया कुत्तों से।
ख़ूब ज़मीन है मेरे मायके वालों की। …..,छुटपन में माँ मुझे अक्सर ही खाट में सुलाकर खेत में काम करने चली जाती थी, ऐसे में शेरू के ऊपर पूरे घर की जिम्मेदारी भी होती थी। बड़ी मुस्तैदी से देखभाल करता था शेरू…….। मजाल है कि कोई हमारे आँगन में पैर रख दे, उसके होते हुए।
माँ बताती हैं कि ऐसे ही एक दिन गाँव की एक दादी जी, जिन्हें हम मोटी दादी जी कहते थे, घर आई जब माँ खेत में थी और मैं खाट में लेटी जोर-जोर से रो रही थी। दादी जी ने मुझे रोते हुए सुना तो अंदर आई…….। देखा तो बड़े भाई साहब के हाथ में चाकू है जो उसने उल्टा पकड़ा हुआ था और वो मेरे पैर में दबा कर मुझे माँ की तरह चुप कराने की कोशिश कर रहा था (बड़े होने का फर्ज़), लेकिन आठ नौ महीने की बच्ची क्या समझे उसकी चिंता? ऊपर से वो उल्टे चाकू की धार से दबा कर समझा रहा था, तो दर्द से रोना ही था बच्ची को।
"नहीं हुई तू चुप।"
ऐसा शानदार डायलॉग माँ की तरह मारते हुए नकल कर रहा था और चाकू पैर पर दबा रहा था कि दादी जी आ गई……….। पहले तो उन्होंने उसे डांटा फिर माँ को आवाज़ लगाई और मुझे गोद में उठा कर चुप कराने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही उन्होंने मुझे उठाने का प्रयास किया तुरंत शेरू ने उनकी कलाई पकड़ ली!
दादी जी जोर-जोर से चिल्लाते हुए मुझे बिस्तर पर रख कर मुड़ी।
"कनु बिजोग पड़ी ये कुत्ताकु, निखाणी होली ये खाद्दू की! मेरू हाथ खयाली थौ अब्बी।"
हालांकि शेरू ने केवल कलाई पकड़ी थी उन्हें काटने की कोशिश भी नहीं की थी लेकिन दादी जी ने मुझे बिस्तर पर रख दिया।
फिर से कोशिश की तो उसने फिर से उनका हाथ पकड़ लिया। अब तक माँ शोरगुल सुन कर आ गई थी।
" ए गुड्डी कनु खाद्दू कुत्ता लठ्याळी तेरू, मेरू हाथ काट्याली थौ येन त।"
(ए गुड्डी, गुड्डी मेरी माँ का घर का नाम है, कैसा काट खाने वाला कुत्ता है तेरा इसने अभी मेरा हाथ काट लिया था।)
माँ को हंसी आ रही थी लेकिन उन्होंने अपने मुँह में पल्लू दबा कर हंसी रोकी और कुत्ते के कारण और मुझे घर में ऐसे अकेला छोड़ने के कारण दादी जी की खूब डांट खाई कि
"लड़की के पैर को चाकू से काट देना था आज तेरे लड़के ने…. काम तो हो जाएंगे लेकिन बेटी को कुछ हो जाता तो क्या करती तू"? माँ, दादी जी की बात सुन कर चुप रही फिर उन्हें बिठाया और खूब देर तक दोनों बतियाते रहे, लेकिन इस दौरान एक भी बार शेरू उन पर न भौंका और न ही उन्हें काटने की कोशिश की।
जब मैं स्कूल जाने लगी तो शेरू हमारे पीछे-पीछे स्कूल तक आता और स्कूल के बाहर बैठा हमारा इंतज़ार करता था। घर से स्कूल और स्कूल से घर हमारे साथ परछाई की तरह शेरू घूमता रहता………। उसके साथ रहते मज़ाल है कोई मुझ पर हाथ उठा दे, घर और बाहर हर जगह मुझे डांटने वाले हर व्यक्ति पर भौंकता था। जब अपनी सांकल छुड़ा कर भाग जाता तब माँ मुझसे ही कहती कि "रुचि अपने शेरू को बुला दे मेरी आवाज़ सुन कर तो आएगा नहीं", तब मैं उसे बुलाती और वो दो मिनट में आ कर शांत खड़ा हो जाता। अक्सर लोग जब आते-जाते, चूंकि हमारा घर रास्ते में था, तो मुझसे पूछते, "रुचि तुम्हारा कुत्ता बंधा हुआ है न?"
शेरू की आदत थी वो जिसे काटने की सोचता उस पर कभी भी भौंकता नहीं था चुपचाप लेटा रहता और अचानक उठ कर झपट पड़ता! एक बार हमारे पड़ोस के एक बड़ाजी ने शेरू के ऊपर पत्थर फेंक कर मार दिया, उस वक़्त तो शेरू चुपचाप घर आ गया लेकिन उसकी स्मृति में बड़ाजी अंकित हो गए और इसका परिणाम ये हुआ कि बहुत दिनों बाद जब वो खुला बैठा था आँगन में तो ताऊजी को बाज़ार जाते देख लिया हमारे आँगन से ही……। बेचारे बड़ाजी उस दिन नया कुर्ता पजामा पहन कर निकले थे कि शेरू ने पीछे से आ कर उन पर झपट्टा मार दिया! बड़ाजी के तो दांत नहीं लगा लेकिन नये कुर्ते के परखच्चे उड़ गए! बड़ाजी भागते हुए अंदर आए और शताब्दी एक्सप्रेस से गालियाँ देने लगे शेरू को। माँ ने शेरू को बांध दिया था लेकिन शेरू भौंके जा रहा था और अपनी पूरी भड़ास निकाल रहा था।
शेरू एक भोटिया कुत्ता तो था लेकिन सामान्य भोटिया कुत्तों की अपेक्षा वो अधिक ऊंचे क़द का और खूब ताक़तवर होने के साथ-साथ ग़ज़ब का फुर्तीला भी था। यूँ तो गाँवों में चोरियाँ नहीं हुआ करती थी तब, रात को हमेशा वो खुला रहता और आँगन में बैठा रहता, लेकिन उसके कारण हमारे घर तो क्या गाँव में भी कभी कोई चोरी नहीं हुई। हमारे गाँव से लगा हुआ जंगल है जिससे हो कर जाखन नदी निकलती है और इस तरह यह जंगल खूंखार जंगली पशुओं की आरामगाह भी है जिसमें तेंदुए, बाघ, और चीते भी पाए जाते हैं। गाँव से लगे होने के कारण इन जंगली जानवरों की घूमघाम कभी-कभी गाँव में भी हो जाती है। अक्सर ही गाँव में लोगों की दुधारू गायें बाघ मार देता था, जब से शेरू बड़ा हुआ और बाहर आँगन में रहने लगा पापा जी ने उसके गले में एक नुकीला काँटेदार पट्टा पहना दिया था ताकि वो इन खूंखार जानवरों से खुद को बचा सके।
एक बार बाघ आया रात को, उसके गुर्राने की और शेरू के भौंकने की आवाज़ें रात भर कभी पास, तो कभी दूर से आती रही। माँ ने कहा कि आज तो शेरू को बाघ खा लेगा पक्का, ऐसा सुन कर मैं जोर-जोर से रोने लगी और माँ से कहा कि माँ मेरे शेरू को अंदर ले आ न माँ ने मुझे डांटते हुए कहा कि चुप छोकड़ी उस कुत्ते की आदत खराब करनी है क्या …… लेकिन पापा जी ने मुझे चुप कराने के लिए कहा कि देख लेना बाघ को उसकी नानी याद दिलाएगा हमारा शेरू। सुबह होते ही जब मैं बाहर आई तो शेरू पापा की कुर्सी के पास ज़मीन पर बैठा हुआ था। मुझे लगा कि पापा ने रात को उसे बाघ से बचा लिया होगा लेकिन मेरे पूछने पर पापा ने कहा कि सुबह पांच बजे जब वो उठे तो शेरू बाहर बैठा हुआ था, "हमारे शेरू ने बाघ को भगा दिया बेटा" हुलस कर पापा ने बताया, तो मैं खुशी से उससे लिपट गई।
हमारे गाँव के बाहर जहाँ से जंगल लगता है वहाँ एसएसबी के कैंप लगते थे तब और उनमें जवान मांस पकाते थे खूब। एक बार शेरू वहां चला गया और उसे भी मांस दे दिया जवानों ने तो बस शेरू को रोजाना का चस्का लग गया मांस का। हमारे स्कूल आने के साथ ही वो भी आ जाता और एसएसबी कैंप के पास ही बैठा रहता। रात को भी अक्सर ही वहाँ जाने लगा तो पापा जी ने जायजा लिया कि आखिर शेरू रात को कहाँ जाता है? जब उन्होंने उसे एसएसबी कैंप के बाहर देखा तो समझ गए कि इसे मांस का स्वाद लग गया है उन्होंने वहाँ कैंप में कह दिया कि ये हमारा कुत्ता है तो कैंप के जवानों ने कहा कि ये रोजाना यहाँ आता है और बहुत शानदार कुत्ता है। पापा जी ने कहा कि हम भी इसे मांस देते हैं लेकिन कम तो उनमें से एक जवान ने कहा कि ये कुत्ता हमें दे दीजिए….। पापा जी को भी शेरू बहुत प्रिय था तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया और अब शेरू को हम बांधने लगे।
एक दिन दोपहर को वो सांकल छुड़ा के भाग गया और सीधा एसएसबी कैंप चला गया। दुर्योग से उस दिन कैंप का आखिरी दिन था और शेरू उन जवानों को बेहद पसंद आ गया था। जाते-जाते उनमें से एक जवान शेरू को भी अपने साथ ले गया। शाम तक भी शेरू नहीं लौटा तो पापा जी ने पूछताछ की तब सुनील भाई जी ने बताया कि एसएसबी वाले अपने साथ ले गए शेरू को।
घर आकर पापा ने बताया तो मेरा रोना शुरू हो गया….। पापा ने बहुत समझाया कि बेटा मैं तेरे लिए दूसरा शेरू लाऊँगा लेकिन पापा के लाड़-प्यार ने मुझे बहुत जिद्दी बना रखा था इसलिए मुझे तो नहीं ही मानना था तो नहीं ही मानी और रोते-रोते सो गई।
अगले दो दिनों तक स्कूल जाते हुए मैं माँ की डांट खाती रही जिद करने के कारण और घर आ कर पापा से सवाल पूछती रही एक महीने तक कि क्या शेरू आया?
शेरू को गए पूरा एक साल बीत गया था और मेरी स्मृति में उसकी आवाज़ अभी भी बरकरार थी लेकिन सब उसे भूल चुके थे,...... कि एक रोज़ सर्दियों की रात लगभग आठ साढ़े आठ बजे हम लोग खाना खा कर रसोई में चूल्हे के पास सब जन बैठे हुए थे कि अचानक शेरू के भौंकने की आवाज़ मुझे सुनाई दी! मैंने कहा तो माँ बोली, "या नौनी कब भुलाली वै निर्भगी शेरूक"?
माँ बोल ही रही थी कि इतने में शेरू रसोई के दरवाज़े से सीधा अंदर आ कर दोनों पंजे मेरे कंधे पर रख कर पूंछ हिलाता हुआ मेरे हाथ की स्वेटर चाटने लगा! अब सब चौंके कि अरे! शेरू कहाँ से आ गया अचानक? माँ, पापा और दोनों भाईयों को भी बारी-बारी से लिपटता शेरू ऐसा लग रहा था मानो सालों बाद कोई दूर देश ब्याही बेटी अपने मायके वालों से लिपट रही हो! मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था….। माँ ने बड़ी मुश्किल से रोटी में मलाई लगा कर मुझे पकड़ाई और उसे बाहर बांधने को कहा। इसके बाद भी शेरू एक साल और हमारे ही पास रहा लेकिन फिर से एसएसबी कैंप लगा और इस बार भी शेरू को वो लोग अपने साथ ले गए लेकिन इस बार वो लौट नहीं पाया। मैं उसके लिए बहुत भावुक हो गई थी इसलिए पापा ने मुझे समझाने के लिए बताया कि बेटा कुत्तों की उम्र बारह साल ही होती है वो अगर ज़िंदा होता तो तेरे पास ज़रूर लौट कर आता। कई बार मुझे लगता है कि वो मुझे याद करता होगा जैसे मैं उसे करती हूँ।
अचानक नवनीत जी मुझे हिलाते हैं और मैं स्मृति के द्वार पर प्रेम की सांकल चढ़ा कर वापस लौट आती हूँ।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
यादें अनमोल होती हैं।❤️
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