सुनील कुमार पाठक का भोजपुरी आलेख 'छपरा के बच्चू बाबा आ उहाँ के कविता'
बच्चू पांडेय |
हिन्दी का आकाश उसकी स्थानीय भाषाओं जैसे भोजपुरी, ब्रज, अवधी, बुन्देली आदि से जगमग है। कई ऐसे रचनाकार हैं जो अपनी स्थानीय बोली भाषा में लिखने के साथ साथ हिन्दी में भी साधिकार लिखते रहे हैं। ऐसा ही एक नाम बच्चू पांडेय का है। वे बच्चू बाबा नाम से कहीं अधिक ख्यात थे। पांडेय जी ने हिन्दी के साथ साथ भोजपुरी में भी बेहतर लिखा है। उनकी भोजपुरी कविताओं पर एक गहन दृष्टि डाली है कवि सुनील कुमार पाठक ने। आज विश्व मातृ भाषा दिवस पर बधाई देते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं सुनील कुमार पाठक का भोजपुरी आलेख 'छपरा के बच्चू बाबा आ उहाँ के कविता'।
'छपरा के बच्चू बाबा आ उहाँ के कविता'
सुनील कुमार पाठक
सारण (छपरा) जिला के साहित्यिक परम्परा बहुत समृद्ध रहल बिया। प्रिन्सिपल मनोरंजन प्रसाद, आचार्य शिवपूजन सहाय, प्रो. जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज', इज्तबा हुसैन रिजवी, हरेन्द्र देव नारायण, कविवर कन्हैया, मूसा कलीम, डा. केदार नाथ लाभ, प्रो. राजेन्द्र किशोर, प्रो. हरिकिशोर पांडेय, बच्चू पांडेय, डा. विश्वरंजन, राम नाथ पांडेय, सतीश्वर सहाय वर्मा 'सतीश', तैयब हुसैन पीड़ित, वीरेन्द्र नारायण पांडेय, धीरेंद्र बहादुर 'चांद', आदि के साहित्यिक अवदान से साहित्य जगत पूरा तरे परिचित रहल बा।
बात सन 1981-82 के हटे। राजेन्द्र कालेज में पढ़त समय 'चर्चना' के गोष्ठियन में गंगा सिंह कालेज के अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक डा. विश्वरंजन जी के डेरा पर हरिकिशोर जी, बच्चू बाबा, वीरेन्द्र जी, दक्ष निरंजन शंभु, रिपुंजय निशांत, उदय भैया -ई सभे एके जगह भेंटा जाव। विश्वरंजन जी चाय-पान मंगा देत रहनीं, कविता सुने-सुनावे के सिलसिला शुरु हो जात रहे। हमनीं विद्यार्थी रहनीं अभी ओह बेरा, तबो हमनियो के मोका मिल जात रहे। भोजपुरी में लिखे के प्रेरणा हमरा एही गोष्ठियन में मिलल।हिन्दी भोजपुरी के खींच-तान तनिको ना रहे। सभे दूनू में लिखे आ सुनावे। ओह बेरा समझदारिये केतना रहे, बाकिर एतना जरूर बुझाव कि ई एगो बढ़िया काम बा, एगो बढ़िया नशा बा जवन ठीक से पकड़ ली त जिनिगी बेकार होखे से बच जाई। एजवे देखले रहनीं पहिल बेर हम बच्चू पांडेय जी के सहज व्यक्तित्व में बसल एगो मनस्वी साहित्यकार के। सामान्य से तनीं छोटे लम्बाई के दुबर-पातर काया में जब कान्ह पर कुर्ता उपर गमछा लेले, चप्पल पेन्हले, चुपके से आके पांडेय जी जब कुर्सी पकड़ लीं त बुझाव कि अब गोष्ठी जम गइल। विश्वरंजन जी नवगीत लिखीं आ कविता में प्रयोगधर्मी रहनीं। हरिकिशोर जी के कविता में सहजता त रहत रहे बाकिर ओह पर अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन के प्रभाव साफ झलकत रहे। लाभ जी के कविता में लालित्यपूर्ण भावाभिव्यंजना रहत रहे। राजेन्द्र किशोर जी त नयकी कविता के मास्टरे रहनीं, जेकर कविता चउथा तारसप्तको में शामिल कइले रहनीं अज्ञेय जी। बच्चू पांडेय जी सबका से अलगा एगो मस्तमौला फक्कड़ई से भरल कवि रहनीं जे दुष्यंत कुमार के एह शेर के पूरा तरे चरितार्थ करत रहनीं कि
"मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो गजल आपको सुनाता हूँ।"
बच्चू पांडेय जी के पूरा शहर आदर से बच्चू बाबा कहे।बहुआयामी व्यक्तित्व। प्राध्यापकी, प्राचार्यी, नगरपालिका के वार्ड कमिश्नरी, सामाजिक कार्य आ ओकरा साथे-साथे शैक्षिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक आयोजनन में सहभागिता-ई सब एक साथ उहाँ के सहज भाव से चलते-फिरते निमहनीं। हमरा बड़का बाबूजी प्रजापति पाठक जी जे 'प्रज्ञा समिति' के महामंत्री रहनीं उहाँ साथे बच्चू बाबा के खूब बैठकी जमत रहे। इहाँ सभे 'प्रज्ञा समिति' के तत्वावधान में नगरपालिका मैदान में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, केदार नाथ मिश्र 'प्रभात', आदि के बोलाके एगो बड़हन कार्यक्रम 'तुलसी पर्व' आयोजित कइले रहनीं।
बच्चू बाबा हिन्दी, भोजपुरी में त साहित्यिक रचना करते रहीं बाकिर उर्दू के हजारन शेर उहाँ के कंठस्थ रहे, जवनन के मंच से उपयोग करके उहाँके खूब ताली बिटोरीं। हिन्दी आ भोजपुरी दूनू में साधिकार एक लेखाँ रचना पांडेय जी कइले बानीं। उहाँ के अइसन पंक्तियन के रचना करीं, जवनन के इयाद करके हमनियो मंच से खूब वाहवाही पावत रहीं। एक-एक शब्द नगीना-जस जड़ल उहाँ के कविता में दिखी।
अपना एह आलेख में बच्चू पांडेय जी के हिन्दी कवितन के कुछ बानगी रखत उहाँ के भोजपुरी कविता पर विस्तार से आपन बात राखब। एगो साहित्यकार हिन्दी आ भोजपुरी दूनू के एके साथे केतना सहजता से साध सकत बा एके ऊँचाई पर बात करत, एकर निठाह उदाहरण बच्चू जी के हिन्दी भोजपुरी कविता बाड़ी सन। आज जे हिन्दी वाला सभे भोजपुरी में लिखे में आपन तौहिनी भा लाचारी देखावत बा, उहाँ सभे खातिर ई कविता सब नजीर बाड़ी सन।
बच्चू पान्डेय जी के हिन्दी कवितन के कुछ उदाहरण देखल जा सकत बा-
1-
"गीत दिल की वेदना का है मधुर उपहार
गीत शोषण की क्रिया का है प्रबल प्रतिकार
गीत प्रेरक क्रान्ति का है, गीत जय का तूर्य
चेतना के क्षितिज पर उगता सलोना सूर्य
गीत सुलगे युद्ध में है शान्ति का प्रस्ताव
गीत की पगडंडियों पर भावना के पाँव
गीत ने फिर से बसाया एक अपना पाँव।"
2-
"पाणिनी के सूत्र सा संक्षिप्त परिचय
मौन तेरा एक अनसुलझा गणित है
भारवि के अर्थगौरव- सा खिला तन
माघ की महनीयता से संवलित है।"
3-
"यक्ष प्रश्न-सा टेढ़ा बन कर टोक गया
जाने कितने बढ़ते पग को रोक गया
गीतों की चिट्ठियां बाँटता चलता है
चुलबुल हरकारा-सा लगता फागुन है।
×××
एक जाल में सबको सहज समेट गया
माहिर मछुआरा-सा लगता फागुन है।"
4
"गर्द की छाँव है, आहिस्ता चलो
दुःख रहे पाँव हैं, आहिस्ता चलो
ठेस लग जाय न खामोशी को
दर्द का गाँव है, आहिस्ता चलो।"
5
"हुस्न है बेहिजाब, फागुन है
एक हँसता गुलाब, फागुन है
जिन्दगी के करीब लगती है
इश्क की इक किताब, फागुन है
धूल की आँधियाँ उड़ाता है
एक बिगड़ा नवाब, फागुन है।"
6-
"छंद की जिन वीथियों में
झूम कर नाचीं ॠचाएँ
उस महत् की साधना का
देश है भारत हमारा।
×××
रूप के हर चित्रपट का है धरातल
कलुष तम की कालिमा से दूर हट कर
मिलन वेला में उड़ाता प्रीति-आँचल
द्वन्द्व के उलझाव वाले पार्थ-मन को
कृष्ण का उपदेश है भारत हमारा।"
7-
"चिमनी-सा धुँआ-धुँआ मन मेरा
आहत विश्वासों के पृष्ठों पर
घायल कुछ गीतों के शब्द उगे
अर्थों की खोज भरी कोशिश में
झाँक गया कुँआ-कुँआ मन मेरा।"
8-
"दुकानें मज़हबों की चल रहीं, चलती रहेंगी
धर्म की पोथियाँ हमको सदा, छलती रहेंगी
कहाँ तो बात थी इंसानियत की, औ वफा की
घृणा का भाव तो पहले कभी, ऐसा नहीं था
तुम्हारा गाँव तो पहले कभी, ऐसा नहीं था!"
9-
"हेल्लो-हेल्लो गूँज रहा है यमुना तट पर
मोहन की वंशी अब तो बासी लगती है
वैश्वीकरण बसा है जब से मन-प्राणों में
अमरीकी कोई नगरी काशी लगती है।"
10-
"गीत मेरे ऐक्य के श्रृंगार पावन
मैं सदा अक्षर-पुरुष दिल जोड़ता हूँ
तोड़ कर हर छद्म की कारा कँटीली
मैं पथिक को मंजिलों तक छोड़ता हूँ
गगन से फैलाव क्षिति से धैर्य ले कर
मांगलिक प्रस्ताव से आया हुआ हूँ
फूल अंजुरी में लिये सदभावना के
चाँदनी के गाँव से आया हूँ।"
हिन्दी के ई पंक्ति सब एगो सबक बाड़ी सन, ओह रचनाकारन खातिर, जे लोग कहेला कि भोजपुरी बोलला-लिखला से हमार हिन्दी भखर जाई। मोती लेखाँ चमकत शब्दन के छंदन में सहेज के बच्चू पांडेय जी हिन्दी के राग-चेतना के जवना ऊँचाई पर ले जाके गीतिकाव्य के जवना रूप में समृद्ध कइले बानीं, आउर समकालीन प्रखर सामाजिक-राजनीतिक बोधो के जवन परिचय देले बानीं, ऊ उहाँ के असाधारण प्रतिभा के परिणाम बा।वैचारिक रूप से प्रतिबद्धता आ परतंत्रता में का अन्तर होला- राजनीतिशास्त्र के पढ़वैया आ हिन्दी कविता के रचयिता एह मौलिक आ पूरा तरे मॅजल कवि के सोझा बइठ के समझल जा सकत बा। भारत के 'कृष्ण के उपदेश' बतावे वाला कवि जब धरम के पोथियन के 'छलावा' आ काशी के 'अमरीका के कवनो नगरी' बतावे के साहस आ दिलेरी देखावत बा त ई ओकर सिरफिरापन ना लोकप्रतिबद्धते के परिचायक बा, ओकर भोजपुरियते के निशानी बा, ओह माटी के वरदान के कहानी बा जवन कबो कबीर के बानी बन गूँजेले, त कबो भिखारी के मुँह चढ़ि जाले; कबो गोरख पांड़े एकरा के उचारे लागेलें त कबो रघुवीर नारायण आ प्रिन्सिपल मनोरंजन एकरा के अँकवारी में ले लेलें।
(2)
बच्चू पांडेय जी के हिन्दी कवितन पर अलगा से कबो हम बात कर लिहब, बाकिर अभी त पहिले मातृभाषा भोजपुरी में लिखल उहाँ के कवितन पर बात-विचार कइल जादे जरूरी बुझात बा।भोजपुरी साहित्य में हालाॅकि प्रबन्ध काव्यो के एगो सुदीर्घ परम्परा बा, आ बढ़िया-बढ़िया खंडकाव्य आ महाकाव्य लिखाइल बाड़न सन। बाकिर संगीत से नजदीकी रिश्ता रहला के चलते भोजपुरी में गीतिकाव्य के फले-फूले के जादे अवसर मिलल बा। भोजपुरी में आजो एक से बढ़िके एक गीतिकाव्य के समर्थ कवि बाड़न। बाकिर एजवा त बेमारी दोसरे लाग गइल बा।मनबढ़ू गायक बिकाऊ आ लंगटपन वाला गीतो लिखे लागत बाड़ें। एह लोग से भोजपुरी बदनाम हो रहल बिया। अइसनका दौर में स्व. बच्चू बाबा के इयाद कइल आउरो जादे जरूरी आ स्वाभाविक बुझात बा।
बच्चू बाबा अपना एगो भोजपुरी गजल में शायिद आपने परिचय देत लिखत बानीं-
"इमरित कबहूँ कबहूँ बा गरल
अइसन जिनिगी से पाला परल
कबहूँ मुक्तक बनिके मुसकाइल
रोअल कबहूँ बनिके ई गजल
×××
मेहनत-पसीना के रोटी खा
दुरगम हिमालय पर ई चढ़ल
कतना गोड़खिंचवा रहे लागल
सबके टिरका के आगे बढ़ल।"
-ई आत्मपरिचय खाली कविये के ना आम भोजपुरिहा के बा। सभके टिरकाके बढ़े के जरूरत आजो बा। आपसे में अझुरइला पर राह भटक जाये के खतरा बन जाई। कवि के ई संदेशो बा आम भोजपुरिहा मनई बदे।
भोजपुरी मनई आ सर्जक लोग के भोजपुरी भाषा-संस्कृति से अनुराग-प्रीति बनवले राखे खातिर प्रेरित करत पांडेय जी लिखनीं-
"दीप रउरा सृजन के जलवले रहीं
अपना गीतन से जिनिगी जगवले रहीं
रउआ आँखिन में सपना लहरते रहल
कतना टूटल हृदय के सजवले रहीं
रउरा आखर अरघ से नहाइल जहाँ
बाँसुरी चेतना के बजवले रहीं
अपना माटी के देके नमन प्रीत के
अपना भाषा के झलहल बनवले रहीं।"
मांसले सौन्दर्य के असली सौन्दर्य मानके ओकरे में अश्लीलता भर के व्यापार चलावल जेतना आज आसान बा, ओतने कठिन बा सौन्दर्य के पवित्र आत्मिक रुचिरता आ नयापन से भरल रूप-रस-गंध के आनंददायी आदर्श मान-मूल्य खड़ा कइल। ई कइसे संभव हो सकेला, एह खातिर बच्चू बाबा जइसन कवियन के शरण में जाये के पड़ी-
"रात फिसल के भोर हो जाला
दरद पिघिल के लोर हो जाला
करिया केस हs कि बदरी हs
देख के मन मोर हो जाला
चमकत रूप कि चनरमा हs
मिजाज हमार चकोर हो जाला
अब इचिको जनि छछनावs
करेज में मरोड़ हो जाला
ई देह हs कि कँवलगाटा हs
सनेह अँखफोर हो जाला।"
वियोग श्रृंगार के एगो पारम्परिक लोकधुन में उकेरत कवि के तूलिका लोक-मरजाद सबके जोगावत कइसन चित्र खड़ा करत बिया, देखल जा सकत बा-
"काटेला कुसुमी सेजरिया हो रामा, चैत के रतिया
रहि-रहि झिहिरे पवन उतपतिया
पिया बिना कलपे करेज, काँपे छतिया
भइली जवानी दुर्गतिया हो रामा, चैत के रतिया।
सैंया बेदर्दी पेठावे ना पतिया
लगली बिदेशवा जे कवन सउतिया
टरले ना टरेला बिपतिया हो रामा चैत के रतिया।"
भोजपुरी क्षेत्र से रोजी-रोटी खातिर पलायन खूब होत रहे, आजो हो रहल बा। बाकिर आज लेखाँ ना मोबाइल रहे, ना सिरिकी-तनउवल। सास-ससुर के छोड़ि के ना पतोह जाये के तइयार रहत रहे, ना बेटे उचित मानत रहे। इहे कारण रहे कि भिखारी के नाटक आ गीतो, आउर महेन्दर मिसिर जी के पूरबियो में भोजपुरिहा नारी के विरह-वेदना जीवंत रूप में चित्रित भइल बा। ई दोसर बात बा कि बिदेशी के ओह कमाई से ना तब बिपत टरत रहे, ना आज टर रहल बा। कोरोना-काल में गोड़ घसीटत अपना मेहरी संगे जब साइकिल पर पेटी-बेटी लदले भोजपुरिहा जन -मजूर यूपी-बिहार का ओरि चल पड़लें हँ तब बच्चू बाबा के कविता के इहू बात के सच्चाई अपने आप सोझा आ गइल हटे कि
"भूख भय के बात कब से हो रहल होते रही
आज ले सुधरी ना आपन देश कइसे का कहीं
वोट खातिर जे लगावल आग अपना गाँव में
आज ऊहे हो गइल करुणेश कइसे का कहीं
हाथ में ठेला, फफोला पाँव में किसमत बनल
भ्रष्ट शासन, गूँज अध्यादेश, कइसे का कहीं?"
कवि ई कविता कोरोना-काल के पहिले लिखले रहलें बाकिर ई एकदम फोटोग्राफिक डिसक्रिप्शन साबित भइल 2020-21 में।कवि वर्तमान में जीअत भविष्य के आवाई आ होनी कइसे उचार देला, एकर उदाहरण बिया ई कविता।
समय आ समाज के सच्चाइयन से नजर बचा के कबो बच्चू बाबा के कविता नइखे चलल। मध्य वर्ग के जिनिगी जीयत कवि बराबरे समाज के आखिरी पायदान पर खड़ा आदिमी के मँहगाई आ महाजनी शोषण से बिधुनाइल चेहरा आ उसिनाइल उमग-उछाह के निरखे खातिर मजबूर रहल बा-
"महँगी का बहँगी से कान्हा पिराइल
चढ़ते जवानी घुनाइल बा जाँगर
रूई जस किस्मत के धुनकी बा धुनकत
टीसत करेजा बा टभकत बा पाँजर
महुराइल बरछी महाजन के करजा
अँसुअन दहाइल उमंगन के काजर।"
-कवि एह लाचारी, बेबसी, फटेहाली आ बेचैनी के ओर-छोर सब बूझत रहे। अपना एगो गजल के शेर में ई सब के तीखारत पहिले आपन ऊ कामना रखलस-
"गेहूँ के भाव अगर ताव पर चढ़ित इचिको
बन जाइत हमरो बथान, तनी हट के चलs
चार कदम सूरज का ओर बढ़ीं तब देखीं
उन कर पँचमहला मकान, तनी हट के चलs।"
कवि जानत रहे कि खेती-बारी दिन-पर-दिन केतना महँगा होत जा रहल बा। फायदा आ लागत के त बाते छोड़ीं, आपन पूँजियो डूब जात बा। दोसरका ओर एही देश में केहू विश्व के एक नंबर त केहू दू नंबर बड़का पूँजीपति के मुकुट पेन्हके इतरात बाटे। कवि इहो जानत बा कि अनका धन पर बिक्रम राजा वाली बात काहे सफल हो रहल बिया। उदारीकरण आ बाजारवाद के नाम पर मल्टीनेशनल कंपनियन के फइलल जाल आ तिलिस्म में सुराज आ स्वराज के बिखरल जा रहल सपनन के कवि आम जन-मानस से ओझल नइखे होखे देबे के चाहत-
"साज उनकर बा, बाजार उनकर बा
राज उनकर बा, ताज उनकर बा
रउआ आँगन में, भूख नाचत बा
मल्टीनेशनल सुराज, उनकर बा।"
ई सब के बावजूद कवि आखिरी नतीजो के एलान करे में नइखे डेराइल-कपसल, चिचियाके कहत बा-
"आग धुधुआता कभी ना कभी लहकी
छार-छार दुनिया के हो जाई अँगना
बहके दीं कब ले ई बाबू लोग बहकी
तखता उलटि जाई गइहें मठमँगना।"
(3)
सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के तब ले कवनो साफ सुफल नजर ना आवे जब ले व्यवस्था में कवनो बदलाव ना देखे के मिले। लपक लीं आ लोक लीं के कहानी जब ले दोहरावल जात रही, सुविधा पाके दुविधा में मन सकपकाइल रही कि छीनी कि छोड़ दीं, अपने से टपक जाये के भरोसा में पड़ल रहीं आ कि हर मजबूर-मजलूम, आउर मजदूर-मेहनतकश के डेग-में-डेग मिला के आपन हक आ हुकूक के लड़ाई मिल के जीत लीं- कवनों सही नतीजा सामने ना आई। बच्चू बाबा राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक जरूर रहनीं बाकिर उहाँ के कवनों पॉलिटिकल पार्टी के मेम्बरी कबो ना स्वीकरले रहनीं। बिना कवनो पॉलिटिकल एजेंडा आ बैनरो के सामाजिक न्याय, समानता, समरसता, शांति आ सदभावना के स्वर मुखरित हो सकत बा-एह तथ्य के तस्दीक उहाँ के व्यक्तित्व के सामने रख के कइल जा सकत बा। भोजपुरी के आदि कवि कबीर जब धार्मिक बाह्याडम्बर पर प्रहार आ सामाजिक-जातीय समता, बराबरी, इंसाफी आ भाईचारा के बात करत रहलें तवना बेरा 'धर्मनिरपेक्षता', 'फिरकापरस्ती', 'पूँजीवाद' भा 'सामंतवाद' जइसन शब्दावली के विकास ना भइल रहे। ई सब आधुनिक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दुनिया के प्रचलित 'टर्म' हटे। सांच पूछल जाव त आजो बिना कवनो 'वाद' (Ism) के प्रमाद में पड़ले आम आदमी के पीड़ा से जुड़के जाति, धर्म, संप्रदाय सबसे ऊपर उठ के एगो सुन्दर, सुभग समाज आ देश के सपना साकार करे खातिर आगे बढ़ल जा सकत बा। बच्चू पांडेय जी के कवितन में इहे विचार आ सिद्धांत पक्ष हमरा समझ से ज्यादा प्रबल बा।
बच्चू बाबा कहत बानीं-
"मँगला से रोटी ना भेंटी
छीने के तू जुगत भिड़ावs
लोकतंत्र के काँवर ढोवत
मुरझाइल केतना जिनगानी
आँखिन से सपना सब रूठल
भेंटल बाथा आ हलकानी
बहिराइल शासन-विधान के
ठोकर दे के बात मनावs।
कइसन जात कहाँ के मजहब
तूड़े के बा ई अझुरउवल
भरम जगा के शोषक झूठा
बुझा रहल अनबूझ बुझउवल
अदमी-अदमी एक सभे बा
हाथ मिला के डेग बढ़ावs।"
धार्मिक उदारता आ सहिष्णुता भारत के पहचान हटे। सब धर्म आ मजहब एक दोसरा के आदर देबे आ आपसी भाईचारा के बात करेला। भारत के पहचान विविधता में एकता रहल बा। कवि एही एकता के खूबसूरती के दीदार करे के चाहत बा-
"तोहर ईद बनल रहो हमर होली भी
तोहर धागा बनल रहो हमर रोली भी
बेकार के झगड़ा बा भइवधी में
तोहर जुबान बनल रहो, हमर बोली भी।"
कवि के देश के इतिहास-भूगोल, माटी-महक, खेत-खलिहान, नदी-पहाड़, पेड़-फसल, पोथी-पुरान, राम-रहीम, गुरुग्रंथ-कुरान, सूर-मीर,तुलसी-रहीम - सबसे प्यार बा, सबका बदे ओकरा हियरा में आदर-सम्मान बा। भारतीयता आ राष्ट्रीयता ओकर अस्मिता केआत्मीय आभूषण बा।ऊ भारत-वंदना के क्रम में कहत बा-
"ई धरती सिंगार जगत के, एहके माथ झुकावs
इहाँ भगीरथ के तप के इतिहास उजागर बाटे
मुकुट हिमालय चरन पखारत सागर निसिदिन बाटे
जहाँ वेद के ऋचा मनुज के गाँठ हिया के खोले
पिंजरा के सुगना जहाँ सब भेद रहस के बोले
ई माटी अनमोल समुझ के चंदन माथ लगावs।"
कवि के भोजपुरी मुक्तक लिखे में महारत हासिल बा। एक-एक मुक्तक ओकरा कविता के बाग में अइसन सजल बा कि ऊ एह बहुरंगी सौन्दर्य आ सुरभि से खिलखिला उठल बा। कवि के दू- गो मुक्तक बानगी के तौर पर देखल जा सकत बा-
(1)
"कभी मीरा कभी कबीर हो जाला
कभी गालिब त कभी मीर हो जाला
चाव से भाव के निहोरा पर
रखियो गमकत अबीर हो जाला।"
आ
(2)
"कागज के फूल कभी ना गमके
पेटी के गहना कभी ना झमके
अपना से अपना के जनि बान्हs
जिनिगी जोगवला से ना चमके।"
भाषा विमर्श के लेके बच्चू बाबा के नजरिया बिल्कुल साफ रहे।हिन्दी, उर्दू, आ भोजपुरी तीनू में बढ़िया कवित्व-क्षमता के बावजूद उहाँ के मातृभाषा भोजपुरी के प्रति अथोर प्रेम राखत रहनीं। एजवो पूरा साफगोई से सँकारे में उहाँ के कवनो झिझक ना रहे कि
"जोड़-चेत के भाषा निखरल
आपन बोली छितराइल।"
कवि के अपना माई बोली के छितरइला के पीड़ा आजीवन बनल रहल। कवि भोजपुरी के महिमा बखानत कवि शुद्ध आ खाँटी भोजपुरी कविता के एगो कमनीय कलेवर परोस देत बा-
"जेकरा कलम का सिआही से साजल
माटी के महिमा बा जग में उजागर
कविता सुहागिन के खोंइछा में बिहँसे
गीतन के रसभींजल, अँखुआइल आखर
जेकरा कविताई से निखरल अगराइल
अनगढ़, अझुराइल ई माटी के बोली
शब्दन के आँगन में सझुरल-सरिआइल
भावन के साजल सहेजल रंगोली।
×××
पुरबी-पुरोधा के टेरल लहरिया में
रागन के काया में उचकल अंगड़ाई
साजन के सुर-सिंगार सिहरल बउराइल
तानन का तेवर में छउकल तरुणाई।"
कविता जथारथ आ सच्चाई के जमीन पर पाँव रख के जब ले चलेले तबे ले ओकरा के विश्वास के नजर से देखल जाला। जब ऊ खाली हवा में तिलंगी मतिन उड़ियाये लागेले, आकाशकुसुम बन जाले त वायवीयता से ओकर जिनिगी खतरा में पड़ जाले। बाकिर एकर मतलब इहो ना हs कि ऊ खाली जीवन के खुरदुरापन, विसंगति, बदसूरती, नकार आ निषेध वाली बात आ विषय पर केन्द्रित रहे,खाली उबियाहट, खीस, आग, उबाल आ आक्रोश उगलत दिखे। कविता के काम हारल -थाकल आदिमी में जीवन के प्रति भरोसा जगावल हटे। कविता के 'मनुष्यता के मातृभाषा' के संज्ञा दिआइल त एही से कि ओकरा में संवेदना के सजलता आ जीवन के स्पंदन बनल रही। बच्चू बाबा के कविता जीवन के राग आ लय से भरल कविता बिया जहाँ सोच आ विचारो के उजास भरल-पूरल बा। कवि सुभगता के संभावना बराबरे जुगवले आ जगवले चलल बा-
"करिया घुप्प अन्हरिया में ई जरल कहाँ से जोत
कवना रजत-कोख से फूटल
ई इमरित के सोत
×××
चान लुकाइल, जोन्ही बिदुकल, आसमान कुम्हिलाइल
धरती के माटी उमंग के दियरी ले मुसुकाइल
प्रान भइल फुलझरी, नेह के नभ में उड़त कपोत।"
नेह के नभ में कपोत जबतक उड़त रही कविता मानवता के परिभाषा बनल रही।
जवना कवि के कविता में कल्पना के सम्मोहन होखे, भावन के रुचिरता होखे, विचारन के उदात्तता होखे, बिम्ब-प्रतीक के मनोहारी छटा होखे, शब्दन के पावन साधना होखे, अलंकार के अयत्नज नियोजन होखे, रसन के सम्यक परिपाक होखे आ छन्दन के सफल निर्वहन होखे, ओकरा शिल्प पर अलगा से बतकही के कवनों मतलब नइखे। भोजपुरी कविता, शुद्ध भोजपुरी कविता के जब कबो खोज होई, बच्चू पांडेय जी के कविता अपना भाव -विचार के अनुपम छटा आ अभिव्यक्ति-अभिव्यंजना के आभा से दीपित आपन मुखकांति लेले भावक के मन-मस्तिष्क में सहजे उभर आई।
बच्चू बाबा के कविता पर बात करत हम गीतिकाव्य भा मुक्तक काव्य के भावगत आ शिल्पगत सौन्दर्य भा सौष्ठव आ विशेषता पर फरिया-फरिया के जान-बूझ के बतकही नइखी कइले चूँकि आज ना ओकर जरूरत रह गइल बाटे ना अब ऊ प्रचलने में बा।मगर हँ, बाबा के कविता आजो नयकी पीढ़ी के आह्वान करत जवन मूल बात कहे के चाहत बिया एगो सिद्ध मंत्र के तौर पर , ऊ बतावल हम ना भूलबि-
"आईं मिल के रचीं नया इतिहास, जमाना जागल
भइल अजोर भोर के बेरा, रात अन्हरिया भागल
आईं मिल के हाथ बँटा, छोड़ स्वार्थ आपन
सबका के मिल गले लगाईं सभकर ह ई आँगन
एही बगिया के फूलन से दुनिया बाटे गमकल।"
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प्रो. बच्चू पांडेय के कविता कर्म का सम्यक विवेचन । कवि की कविता के माध्यम से उसके व्यक्तित्व का भी विश्लेषण । लेखक और आपके ब्लाग पोस्ट को साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंमैं डॉ. ब्रज भूषण मिश्र
हटाएंबहुत ही सुंदर
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