सुरेन्द्र प्रजापति की कहानी 'मेरा चाँद मुझसे रूठ गया है'

 

सुरेन्द्र प्रजापति



एक स्त्री का प्रेम और स्नेह बहुआयामी होता है। यह कुछ इस तरह का होता है कि कहीं भी, कभी भी कम नहीं पड़ता। प्रेम और प्रणय मनुष्य को वास्तविक तौर पर मनुष्य बनाते हैं। प्रेम का धागा अपने आप में अटूट होता है। एक बार जुड़ने पर आजीवन के लिए जीवन में दर्ज हो जाता है। सुरेन्द्र प्रजापति ने कविता के अलावा कहानियां भी लिखी हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं इनकी कहानी 'मेरा चाँद मुझसे रूठ गया है'।



'मेरा चाँद मुझसे रूठ गया है'


सुरेन्द्र प्रजापति



दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते-गुजरते एक लम्हा बीत गया। बिना रुके, बिना ठहरे अनिश्चित एक जादू की तरह। जादू करता हुआ, अनंत सपने बिखेरता हुआ। 


"क्या सोचते हो।" हाँ वर्षों पहले उसने मुझसे अनायास ही बोल पड़ी थी। जब मैं एक शाम अनमने से अपने कमरे में एक टूटी हुई कुर्सी पर बैठा हुआ अपने ही विचारों में उलझा हुआ था। और वास्तव में मैं अपने जीवन के परिकल्पना में डूबते-उतरते अदृश्य तरंगों के साथ बह रहा था। निरंतर शून्य की ओर निहारते अचानक अकचका कर मैं जागा था- "नहीं कुछ भी तो नहीं।" तब मुझे वहाँ अपनी उपस्थिति का एहसास हुआ था। 


"फिर इतना मायूस क्यों हो।" वह धीरे से फुसफुसाई थी और अपने हाथों से मुझे लगभग खींचती हुई उठा कर बेड पर ले गई और मेरे होठों पर एक चुंबन जड़ते हुए मेरा सिर अपनी गोद में छिपा ली थी। उसके कोमल अंगुलियों का स्पर्श मेरे बालों पर थिरक रहे थे। मेरे शरीर में जैसे कंपन हुआ था और सचमुच मैं  सारे विशाद को भूल कर उसके हस्तगत विनोद में डूबता चला गया था। मैं  उसके ठुकेड्डी को थोड़ा नीचे झुकाया और एक गहरा चुंबन उसके नरम कपोलों पर जड़ दिया।


"धत क्या करते हो...!" वह सिमटती हुई बोली थी। 


"जो करना चाहिए!" 


"बस यही एक काम है।"


"तो और क्या?" 


"और अभी ये सब करने की जरूरत ही क्या है?"


"मैंने क्या कर दिया।"


"फिर ये क्या है?"


"क्या...?" 


"जो तुमने अभी-अभी किया!" 


दीपक की मद्धिम सी रौशनी में कमरे से एक क्षीण सा उजाला पसरा हुआ था। लेकिन मुझे महसूस हो रहा था कि उजाला और बढ़ता जा रहा है। उस उजाले से सिर्फ कमरा ही नहीं बल्कि मेरा हृदय भी प्रकाशित हो रहा था। 


समय बीत रहा था। हर पल, हर सेकेंड। घड़ी की सुइयाँ अनवरत बढ़ती जा रही थी, बिना ठहरे बिना रुके। टिक-टिक की ध्वनि उस नीरवता को बेधती हुई। वह बेड पर बैठी है। बिल्कुल सुंदर प्रतिमा की तरह। लेकिन सजीव आँखें मटकाता हुआ मैं उसके सपनों में बैठा हुआ हूँ। मैं अधलेटी सी अवस्था में और मेरा सिर उसके गोद में है। वह मेरे बालों में अंगुलियाँ चला रही है। मैं उसके आँखों में झाँक रहा हूँ। बे-रोक-टोक निरंतर सिर्फ देखे जा रहा हूँ। उसकी कोमल अंगुलियाँ मेरे बालों को बिखेर देती है। फिर बड़ी सावधानी से समेटती है। हर पल उसका कोमल स्पर्श, उसका छुअन मेरे साथ है। मेरे रक्त शिराओं को एक करंट का झटका लगता है। लेकिन झटका मृदुलता का एहसास कराते हुए शुकुन देता है। उसका छुअन, उसका आलिंगन पल-पल मुझे उत्तेजित कर रहा है। और पल-पल समय बीत रहा है। उम्र की रफ्तार बढ़ रही है। मैं डूबता जा रहा हूँ। 


अवचेतन में मैं देख रहा हूँ, एक कौतुक, एक जीवन की शुरुआत का शैशव। उसके गोद में एक बच्चा है। खूब गोरा मुख। खरगोश के समान काली भूरी आँखें। काले रेशम से कढ़े बालों के महीने रोएं। वह अपने सुकोमल हाथों से उसे झूला रही है। नादान नटखट सा बच्चा मुस्कुरा रहा है। 


"यह बच्चा... किसका है?" मैं थोड़ा झिझकते हुए पूछता हूंँ- "क्या तुम इसकी माँ हो।"


"नहीं यह बच्चा मेरा नहीं है।" वह हँसती हुई बोली।


"नहीं...! तो फिर किसका है?" मैं उत्सुक था। 


"क्या यह तेरा बच्चा नहीं है।" वह जैसे चिढ़ाना चाहती है मुझे।


"मेरा बच्चा...!" मैं चौंकने लगा। 


"हाँ... इसी से पूछ लो।" वह मुस्कुराई थी वह उसके रुई से मुलायम गालों को अपने गालों से सटा कर मग्न हो रही थी। बच्चा किलकारियाँ मारता हुआ नन्हे हाथ पांव को नचा रहा था। उसने उसके गुलाबी, नरम नाजुक होठों को अपने होठों से चिपका ली है, और चूसना शुरू कर दी है। चूस चूस... कर पल-प्रतिपल और एक जोर का चसकारा। और फिर वह मेरी तरफ देखने लगती है। उसके होठों पर एक नजाकत की मुस्कुराहट थिरक रही है।





बच्चा किलक कर रोने लगा है। वह उसे अपने सीने से लगा लेती है। बच्चे की मुट्ठियाँ बंध गई है। वह उसके नन्हे गुलाबी होठों को अपने वक्ष से लगा लेती है। उसका उरोज बच्चे ने जी जान से थाम लिया है। अब वह बच्चा संतुष्ट दिख रहा है। तृप्त है, शांत है। वह धीरे-धीरे उसके बाल को चूम रही है। सहला रही है। फिर चूम रही है, सहला रही है। बिल्कुल काले-भुरे रेशमी रोएं! शायद उसे असीम सुख मिल रहा है। अपार शांति का आनंद। एक चुंबकीय और आहलादित मिठास का मीठापन। 


वह बच्चे को हाथ से लोकते हुए नल के पास पहुँचती है। टब के पास बच्चे को ले कर बैठ जाती है और पानी डालना शुरू कर देती है। वह उसके बालों को साबुन लगा रही है। समुद्रफेन की थिरकन लिए झाग फैल रहा है। रूई के फाहों जैसी पारदर्शी दूधिया सफेदी फेन के बीच चमक रहा है। सुनहली धूप की एकदम तरुण किरणें, उसके बालों के रेशमी धागों में लिपट कर, पानी में भींग कर सिमट रहा है। वह नन्हे शिशु को टब में नहला रही है। नन्हा शिशु अपने नन्हें गुलाबी हाथ-पांव मार कर पानी में छोटी-छोटी लहरें उठा रहा है। किलक, उछल कर पानी की बूँदे उछाल रहा है। वह भींग रही है, पानी की शीतल बूंदों से, प्यार से, दुलार से। उसके नन्हें-नन्हें और नाजुक-नाजुक गुलाबी पैर और उसकी मायूस गुदगुदी हथेलियाँ, उसका गोरा छरहरा सुतवां बदन, उसका किलकता हंसता चेहरा, उसके काले घुंघराले रेशमी बाल। दूर क्षितिज तक फैला आकाश। आकाश से मिलता समुद्र। समुद्र के लहरों पर खेलता हुआ एक दिव्य बालक। समुद्र फेन, उसका मुलायम केश।  हरा-हरा अपार जलराशि उसकी दृष्टि का विस्तार है। वह बच्चे को अपनी बाहों में उठा ली। अपने अंक में छिपा ली। सटा ली अपने सीने से। समय के स्वतः स्फूर्त वेग को शिशु के गीले बदन का मोहक स्पर्श चेतना का हरण कर रहा है। स्वप्न टूट रहा है। और समय निकल रहा है। भाग रहा है। पल-पल, हर पल, प्रतिपल। 


मैं उसके गोद में लेटा हूँ। मेरे हाथ की अंगुलियाँ उसके कपोलों को सहला रही है। उसके हाथ की अंगुलियाँ मेरे बालों को संवार रही है। कभी-कभी मैं धीरे से सिर को झटकता हूँ। मेरे बाल अस्त व्यस्त हो जाते हैं, बेतरतीब! वह फिर अपनी अंगुलियों से मेरे बालों को संवारती है। मैं उसके स्निग्ध कोमलता में भाव-विभोर हो रहा हूँ। ललक कर उसके वक्ष पर अपना होंठ रखता हूँ।


"धत...!" वह धीरे से मेरे गालों पर चिकोटी काटती है- "यह क्या कर रहे हो?" 


"कुछ नहीं सिर्फ आनंद ले रहा हूँ।"


"किसका?" वह हँसती है। 


"उष्णकटिबंधीय प्रदेश के प्राकृतिक छटाओं का।"


"वाह! सौंदर्य शास्त्र का ज्ञाता हो!" 


"और तुम...!" 


"मैं क्या? बस... मैं हूँ।" कह कर एक चुंबन मेरे गालों पर लगा दी। और खिलखिलाकर हँस पड़ी जैसे ढेर सारे पुष्पों की वृष्टि हुई हो। 


"पता है! मैं माँ बनने वाली हूँ।" 


"रियली...! तब तो मैं भी बच्चे का पिता बन जाऊँगा।" 


"नहीं... वह मेरा बच्चा होगा तुम्हारा नहीं" 


"यह तो सरासर जुर्म होगा।" 


"कैसे...? 


"बच्चा सिर्फ तुम्हारा ही कैसे होगा?" 


"क्योंकि मैं उसे जन्म दूँगी, तुम नहीं।" 


"तो क्या, बच्चे को तो माँ ही जन्म देती है न!" 


"हाँ... इसीलिए" वह खिलखिलाई। 


"और मेरा सारा किया गया पराक्रम का क्या हुआ?" 


"तुम जो इतना आनंद लिए हो।" 


"अच्छा तुम भी सीरियस हो।" 


"नहीं तो वह तुम्हारा ही बच्चा होगा। मैं तो सिर्फ उसे पालूँगी, लोरियाँ सुनाऊँगी। अच्छा यह बताओ... बच्चे के पिता बनने की उत्सुकता है। उसके लिए तुम क्या कर रहे हो?" वह चिकोटी काटती हुई बोली। 


"क्या...क्या...?" मैं सीधा उसकी आँखों की गहराई में उतरता चला गया। 


"ये लो! बच्चा बड़ा होगा, जिम्मेवारियाँ आएगी। पढ़ाई लिखाई करवानी होगी।" 


"मैं उसे शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ाऊँगा, और उसको एक शानदार इंसान बनाऊँगा और उसे बहुत बड़ा एक्टर बनाऊँगा। और...!" 


"और...और... क्या?"


"अब तुम ही बताओ! तुम्हारी भी तो जिम्मेवारी है कि नहीं।" 


"मैं तो शुरु से जिम्मेवारी उठा रही हूँ। फिर उसके लालन-पालन की जिम्मेवारी।"


"अच्छा है।" और मैं उसके वक्ष पर अपना होंठ टिका दिया। 


"ये क्या कर रहे हो।" वह बोली और मुस्कुरा दी।


"तुम्हारे झील सागर में खेलते शिशु की सिसकारी महसूस कर रहा हूँ।" 


"अरे वाह...!" 


"हाँ तो...! 


स्वप्न चल रहा था। समय भाग रहा था। एक-एक पल, प्रतिपल। दिन गुजर रहा था। सप्ताह, महीने और साल भी। और समय के गुजरने के साथ-साथ सपनों का महल निर्माण हो रहा था। निर्मलता से लीपा हुआ। स्वच्छता के साथ भव्यता का अलौकिक विराट रूप। 





आज के उजाले में वह उत्स नहीं था जो स्मृतियों के उत्सव को आनंद से आह्लादित कर दे बल्कि वह वेदना थी जो हृदय के  सभी तारों को छू कर पीड़ा के चीत्कार से व्यथित कर दे। प्रतीक्षा धीरे-धीरे धुंधली हो रही थी। दिल का मनोरथ जो सदैव महीनों से नवजात शिशु की किलकारी सुनने के लिए उत्सुक था आज एकाइक खामोश हो गया। आँखे पथरा गई है। मेरी अभिलाषाओं की चादर शिशु के खामोश हो चुके धड़कन में लिपट कर शोक का गीत गा रहा था। उसकी आँखों में वह हठ, वह अभिमान, मातृत्व का वह सम्मोहन नहीं है। उसकी ममता का अंचल शोक के आँसुओं से भीग रहा है। चेहरे पर दुख का रेखाचित्र है। आंखों में कोई चाहत, कोई उम्मीद, कोई ललक नहीं! शिशु के बिखरते, बिखरकर चकनाचूर होते शरीर का टुकड़ा-टुकड़ा अंश है।


आज जैसे समय ठहर गया था। घड़ी की सुईयां टिक टिक करना भूल गई थी। हवा जैसे अपनी चंचलता खो चुकी थी। मैं उसे देख रहा था और वह अपलक छत को सिर्फ ताक रही थी। चेहरे पर कोई भाव के चिन्ह नहीं है। मैं स्वयं के जिम्मेवारी को तलाश रहा हूँ। जो स्वतः आने वाला था। उसके लिए, उसके भविष्य के लिए, उसके हसीन जिंदगी के लिए। मैं स्वयं से पूछ रहा था क्या अभी भी कोई जिम्मेवारी शेष है? क्या मेरी जिम्मेदारियों में उदासी के राख से लीपे वेदना के गीत हैं। वह मुझे देख रही है। कुछ बोलना चाहती है। लेकिन जुबान साथ नहीं दे रहा है। उसके आँखों में अचानक पीड़ा उत्तरी और मोटे मोटे आँसुओं में तब्दील हो कर बहने लगी। उसके आँसुओं का संप्रेषण कुछ कह रहा था। होंठ धीरे से थरथराए- "यह क्या हो गया... मेरा बच्चा... वह बुरी तरह बिलखने लगी।


मैं चुप था जैसे मेरे पूरे स्नायु तंत्र को लकवा मार गया हो। उसके सपनों की भव्यता का वह विराट रूप, जिसे वह निर्मल इच्छाओं के साथ सपनों की उम्मीद पर सींच रही थी। अचानक पतझड़ में सब कुछ बहा ले गया था। 


"रोओ मत... हौसला रखो।" मैं सांत्वना दिया। 


"और तुम...!"


"मुझे भी इस पीड़ा से मुक्त होना होगा। इस उम्मीद के साथ कि जीवन अभी बहुत बाकी है?" 


वह सुबकती हुई अपना सिर मेरे गोद में रख दी।


क्या तब भी वक्त ठहरा था। नहीं वह तो निर्बांध गति से उदासी लीपे वेदना को रौंदती बीतती जा रही थी। गहरी खामोशी और वक्त की चुप्पी जैसे घर आंगन के सभी उल्लास को कालिख पोत कर हताशा  के गहरी खाई में गिरा दिया था। सूरज की किरणों में अब वह रूमानियत नहीं बल्कि व्यथा की बेचैन तपन थी। हताश वेदना के निर्मम गीत थे।



वह अब हमेशा अपने में खोई-खोई और गुमसुम सी रहने लगी थी। चुप्पी का चादर ओढ़े वह हमेशा पथराई और भावनाहीन आँखों से छत की ओर सिर्फ ताकती रहती थी। जैसे वहाँ कोई खोई हुई स्मृति के चिन्ह तलाश रही हो। कभी खिड़की पर अकस्मात बैठ कर घंटों उदास नजरों से सड़क को निहारा करती थी। वह अक्सर अब एकांत और सन्नाटे में बैठी रहती। जैसे एकांत ही उसका आदि सहचर हो या किसी आते जाते लोगों से विरक्ति आ गई हो। एकांत नहीं मिलने पर वह हमेशा एकांत को तलाश करती। घुटन, निराशा और हताश जीवन हमेशा एकांत को ढूंढती रहती है। रात को देर रात्रि तक टक टकी लगाए कभी छत को कभी दरवाजे को आश्चर्य के साथ देखा करती। इधर कुछ दिनों से वह अजीब प्रकार की हरकतें करने लगी थी। रात में सोते-सोते चौंक कर उठती और बड़ी बेचैनी से दरवाजे की तरफ देखती हुई चीख पड़ती- "आ-न-आ... मेरा चाँद... आ... देखो! अपनी मम्मी से रूठा नहीं करते। आ जाओ...आओ...।" और फिर वह  हाथ को उचकाते हुए जोरों से हंस पड़ती। 



मैं चौंक कर देखने लगता। दरवाजे पर तो कोई नहीं है। वह किसे बुला रही है। मैं पूछता- "क्या बात है? किसे बुला रही हो?" 


"देखो! मेरा चाँद... वो रहा मेरा चाँद... वो...।" 


"कौन? उधर तो कोई नहीं है।" 


अचानक वह फफक कर रो पड़ती और शिकायत के लहजे में कहती-"वो मेरा चाँद... मुझसे रूठ गया है। उसे तुम ही समझाओ ना! अपनी माँ से भी कोई रूठा करता है क्या?" 


मैं चकित उसके उदास चेहरे पर पुत्र के लिए लालायित और बेचैन प्रतीक्षा के भावों को देखता रहता और वह बड़ी दीन भाव से (सब कुछ लूट जाने पर) मेरे गोद में अपना सिर रख कर सुबकने लगती।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)



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