सिनीवाली शर्मा का उपन्यास अंश 'देह को तो देह की आवश्यकता होती है'
स्त्री का पुरुष और पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण जैविक या कह लें प्राकृतिक होता है। भारतीय मिथकों में ऐसे तमाम वृत्तान्त भरे पड़े हैं। महर्षि च्यवन के बारे में किंवदंती है कि वे वृद्धावस्था में युवती सुकन्या के प्रति न केवल आकर्षित हुए, बल्कि उससे शादी भी कर ली। लेकिन उस उम्र का क्या, जिसकी नियति ही है लगातार ढलते जाना। लेकिन दांपत्य सुख को पाने की इच्छा के चलते वे उस यौवन को पाने की कोशिशें करने लगे जिससे वे अपने को परिपूर्ण पा सकें। महर्षि च्यवन की यह किंवदंती हमें और भी जानने के लिए कुरेदती रहती थी। इसी बीच सिनीवाली शर्मा का उपन्यास 'हेति' प्रकाशित होने वाला है जिसमें इस किंवदंती को बड़े रोचक ढंग से औपन्यासिक स्वरूप प्रदान किया गया है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सिनीवाली शर्मा का उपन्यास अंश 'देह को तो देह की आवश्यकता होती है'।
'देह को तो देह की आवश्यकता होती ही है!'
सिनीवाली शर्मा
अब मेरे शरीर में शिराओं के स्थान पर असंख्य सर्प करवट लेने लगे। रुधिर के स्थान पर विष प्रवाहित होने लगा। मैं... मैं भी एक मनुष्य हूँ, हाँ साधारण, अतिसाधारण मनुष्य हूँ। इस गरल का प्रभाव मुझ पर क्यों नहीं होगा। मैं क्यों विश्वास करूँ वे युवा औषधि हेतु ही आते हैं? इससे पूर्व जब सुकन्या इस वन में नहीं थी तब भी तो ये अपना रोग निवारण करते होंगे। अपूर्व सुंदरी के इस अरण्य में आते ही प्रत्येक जरा असाध्य कैसे हो गई? अवश्य ही औषधि की नहीं, इन्हें एक अतिसुंदर स्त्री के स्पर्श एवं सान्निध्य की वासना खींच लाती है। क्या सुकन्या भी युवा देह, रूप के प्रति स्वाभाविक रूप से आकर्षित नहीं होती होगी? नि:संदेह होती होगी। इसी कारण अब वो प्रसन्न रहने लगी है। मैं उसकी प्रत्येक मुस्कुराहट का अर्थ जानने का अधिकारी हूँ। काया की माया से कौन बच पाया है?
अब शनैः-शनैः सुकन्या के प्रत्येक क्रियाकलाप पर मेरी दृष्टि रहने लगी। उसे वन अथवा नदी तट से आने में विलम्ब होता तो क्षोभ एवं व्याकुलता से मेरी दृष्टि उसके पथ पर ही होती। क्या कोई समझ सकता है इस पथ में प्रतिदिन, प्रतीक्षा में मैं कितना चोटिल एवं कितना रुधिर सिक्त होता हूँ? जब किसी दंपत्ति का औषधि हेतु आगमन होता तो मेरी शय्या के तृण, शर समान कष्टदायी हो उठते हैं जो मेरे हृदयप्रदेश को पूर्ण रात्रि बेधते रहते।
सुकन्या का नदी की भाँति लहराता यौवन, उसकी काया पर विवाह के माध्यम से मैंने अधिकार तो स्थापित कर लिया परंतु अभी तक सिद्ध नहीं कर सका। दूसरी ओर पिता बनने की तीव्र आकांक्षा, जिसके माध्यम से मैं वंश परंपरा को आगे बढ़ाना चाहता हूँ। गृहस्थ जीवन का सुख, मेरी अतृप्त इच्छाएँ मेरी ग्रीवा को जकड़ने लगी हैं। असुरक्षा, अतृप्ति, शंका बोध से मैं उस घट की भाँति हो गया हूँ जो एक बूँद जल भरने से भी छलक पड़ेगा।
जब मैं किसी तरुण का बलिष्ठ देह देखता तो मेरी काया मुझे और अधिक जर्जर प्रतीत होने लगती। मेरी श्वेत जटाएँ, झूलती पेशियाँ, निस्तेज दंतविहीन मुख, यहाँ तक कि मेरी अस्थियाँ जो वय के प्रभाव से अब स्फूर्ति गँवा चुकी हैं, मेरा उपहास कर रही प्रतीत होतीं। अब मैं वन में ऐसा स्थल खोजने लगा जहाँ मुझे कोई नहीं देख सके। उस एकांत स्थल पर मैं युवा की भाँति अपनी काया से आचरण करने का प्रयास करता। कभी अपनी भुजाओं तो कभी जंघा को ठोक कर देखता, कभी प्रेमी की भावभंगिमा करने का प्रयत्न करता तो कभी अपने नेत्र में मादक भाव लाने का प्रयत्न करता। कल्पना करता मेरे अंक में सुकन्या कैसी लगेगी।
परंतु एक सत्य काल है, परिवर्तन है, उससे मैं भी विलग नहीं था।
अब भी मेरी देह, मेरे मन का तंतु उस मानिनी के प्रेम में सिक्त है। चंद्रदेव का मैं प्रतिदिन मंत्रपूर्वक स्मरण करता हूँ। परंतु उस यामिनी मेरे लिए इनका अर्थ, इनकी परिभाषा भिन्न हो गई। उस रात्रि पूर्णचन्द्र की रजनी थी जब सुकन्या सुगंधित कामिनी पुष्प से श्रृंगार कर रही थी। कामिनी मेरी वल्लभा का स्पर्श पा कर मादक हो गई अथवा इससे पूर्व भी ऐसी ही थी? मुझे अब चंद्रकिरण मेरी पूर्व पत्नी का स्मरण नहीं कराता। क्यों अब इस चंदिनी से केवल प्रेम की कामना नहीं अपितु अधिकार स्थापित करने की भावना भी है? वो मादक सुगंध मुझे व्याकुल करने लगी थी। मेरी देह में उत्तेजना का संचार होने लगा। मैं उस दृश्य को देख रहा था जो मेरे समक्ष चलायमान था।
झरती चंद्रजोत में वो उन्मुक्त भाव से शिलाखंड पर बैठी थी। इससे पूर्व मैंने सुकन्या को सर्वदा कार्य में व्यस्त ही देखा। अभी वह जिस निश्चिंतता एवं प्रसन्नता के भाव में बैठी है, वो क्या विचार कर रही होगी ? स्त्री का इस भाँति विचार करना अवश्य ही नवसृजन का संकेत है। उसका जीवन मुझसे विलग तो नहीं। निश्चित ही वो सृजन हेतु तत्पर हो रही है। हमारा शिशु...। किंचित क्षणों पश्चात ज्यों चंद्रजोत वायु संग थम-थम कर लहरों पर मचलता है, उसी भाँति वो अपने पग बढ़ाती हुई विचरण करने लगी। कामिनी तरु के समक्ष रुक कर अत्यंत कमनीयता से उसकी कोमल शाखाओं को झुलाने लगी। पुनः उसके पुष्पों को अपने केश में सज्जित कर लिया। ये चंद्र ही केवल उसके रूप का सुधापान क्यों करे? ये तो चंद्रमा की धृष्टता ही है कि मेरी भार्या के सौंदर्य को निहारे। परंतु मुझे चंद्रदेव पर क्रोध नहीं आ रहा क्योंकि उसी के चंद्रजोत के कारण मैं यह सुख प्राप्त कर रहा हूँ। मैं रथंग बन उसे देखने लगा। यदि मेरे वश में होता तो मैं कामिनी पुष्प का रूप धारण कर उसके तपते स्वर्ण समान अंग को शीतलता प्रदान करते हुए स्वयं को धन्य करता। जिस पुष्प को अभी-अभी हार की भाँति उसने अपने वक्षःस्थल पर विमंडित किया है, वह मैं ही तो हूँ। प्रथम बार सुकन्या की अलकावली को उन्मुक्त देख रहा हूँ। ये मात्र केश नहीं कामदेव के पंचबाण के समान सुंदरी के बाण हैं जो निश्चित ही मुझे मूर्छित करने वाले हैं। मैं कब से इस मूर्ख के लिए लालायित था। चंद्र के माधुर्य में उन्मत्त कामिनी। मेरे लिए केवल मेरे लिए। वह मंद स्वर में गीत गाती हुई अपने कक्ष में आ गई।
लज्जा स्त्री का अलंकार है जो उसे और कमनीय बनाती है। इसीलिए सुकन्या अपनी वाणी से नहीं बल्कि अपनी मादक भंगिमाओं से मुझे आमंत्रित कर रही है। उसका भाव, श्रृंगार, गीत आमंत्रण ही तो है, आज की ये मादक रात्रि हमारे मिलन की यामिनी है।
शनैः शनैः उसने मुझे स्वीकार कर लिया। मेरे आचरण के कारण। मैंने अवश्य ही उससे उसकी इच्छा के बिना विवाह किया परंतु अपने पर्णकुटी में मैंने उसकी स्वतंत्रता का सम्मान किया। वो अस्पृश्य ही रही। उसकी इच्छा का मान रखा। मेरे इसी आचरण, मेरे धैर्य ने उसे प्रभावित किया होगा। तभी तो आज की रात्रि का चयन किया उसने। अंतत: मेरी विजय हुई।
स्वकक्ष के गवाक्ष से वो कलानाथ को देख रही है। नहीं... वो मेरी प्रतीक्षा कर रही है। मेरी चिरप्रतीक्षित प्रतीक्षा अब पूर्ण होने वाली है। मुझे क्षण भर का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।
मेरे उत्साह को यदि कोई युवा देखे तो वह भी हतप्रभ रह जाए। प्रसन्नता के अतिरेक में मैं सुकन्या के कक्ष में, उसकी शय्या पर जा कर बैठ गया। वो मुझे इस भाँति प्रतीक्षारत देखेगी तो प्रसन्न हो कर मेरे अंक से लिपट जाएगी ज्यों वृक्ष से वल्लरी। परंतु भान न था, आनंदविभोर मैंने प्रज्वलित काष्ठ पर अपना पग रख दिया है! सुकन्या सर्प की भाँति फुफकार उठी। उसका प्रथम प्रश्न ही प्रहार की भाँति, "आप मेरी शय्या पर !"
उसका ये दुस्साहस?
ऐसी घृष्टता?
ऐसा प्रश्न भार्या अपने स्वामी से कैसे कर सकती है? यह मेरी कल्पनालोक की नारी नहीं... हठी, अहंकारी, आत्माभिमान के दर्प से चूर स्त्री है। जिस दर्प के कारण मेरे एक नेत्र को दृष्टिहीन कर दिया, उसी मद में उसने पुनः यह दुस्साहस कर दिया।
उसे स्वयं के रूप, यौवन का इतना घमंड है कि मुझे ही तपोबल द्वारा युवा बनने का उपदेश दे दिया। मैं उसका स्वामी, पुरुष हो कर निवेदन किया। भार्या से प्रणय निवेदन की क्या आवश्यकता, उसकी सहमति, असहमति का क्या औचित्य? बल्कि ये तो मेरा अधिकार है।
मेरे निवेदन, अपने स्वामी, एक पुरुष के आमंत्रण का जिसे सम्मान नहीं उस गर्वोन्मत्त मस्तक का, उस स्त्री के दर्प का मर्दन करना ही होगा। ऐसी स्त्री सिंहनी के समान होती है। मैं व्यर्थ ही उससे प्रेम की कामना कर रहा था। मैं अंगारों पर लोटने लगा। मेरा धैर्य, मेरा प्रयत्न, मेरी प्रतीक्षा, मेरी इच्छा, मेरा स्वप्न सभी भस्मीभूत हो गए। ज्यों अग्नि के सम्पर्क में आने से काष्ठ शीघ्र भस्म होता है उसी भाँति सुकन्या की अवमानना, दर्प की अग्नि में उसके प्रति मेरी प्रेमिल भावनाएँ भस्म हो गईं। प्रेम अथवा बुद्धि से मैं उस पर अधिकार नहीं कर सका।
परंतु यह कैसे सम्भव है? महर्षि च्यवन, तपस्वी च्यवन को त्रिलोक में कोई पराजित नहीं कर सकता है तो एक स्त्री... तुच्छ स्त्री से वह पराजय स्वीकार कर ले? उसके पास यदि सौंदर्य बल है तो मेरे पास क्या नहीं है? मैं उसके रूप, उसकी काया को ही मर्दित कर दूँगा। अब यही पथ उसने शेष रहने दिया है। उसका घमंड धूलधूसरित होना आवश्यक है। मैं क्रोध में उस फणधर के समान हो गया, जो शिलाखंड पर अपना फन पटक दे तो अग्नि उत्पन्न हो जाए।
निद्रा में भी सुकन्या का सौंदर्य सदैव जाग्रत ही रहता है। रात्रि में जब सुकन्या को निद्रा में मुस्कुराता देखता, मेरी असंतुष्ट वासनाएँ मुझे धिक्कारती। उस मानिनी की कंचन काया देखता तो मेरी निद्रा मुझ पर ही अट्टहास करने लगती। मैं पूर्ण रात्रि करवट लेता रह जाता। तो क्या निद्रा को मुझसे भय नहीं? मेरे श्राप का भय नहीं? मेरी मंत्र-शक्ति का उसे ज्ञान नहीं?
जिस कामना, आकर्षण के पाश में बँध कर मैंने क्रोध का प्रयोग कर विवाह किया, परंतु सत्य तो ये है कि उन अस्त्रों का प्रयोग कर मैं अब भी उस बांबी से बाहर कहाँ निकल पाया हूँ। हाँ, सुकन्या मेरी सेवा करती है। मेरे भोजन, औषधि, समिधा का ध्यान इतनी व्यस्तता के उपरांत भी रखती है। अब मैं स्वस्थ अनुभव करता हूँ। मुझमें शक्ति का संचार भी हुआ है। मेरे गुरुभ्राता उदधि भी ऐसा कहते हैं। परंतु मुझे ऐसा क्यों प्रतीत हो रहा है कि मेरी शिराओं में रक्त नहीं, वासना के, प्रतिशोध के कीट रेंग रहे हैं।
अग्निहोत्र करते हुए भी मेरा ध्यान अस्थि छोड़ चुकी पेशियों पर होता है जो प्रतिदिन मुझे और अधिक झूलती हुई प्रतीत हो रही हैं। दंतविहीन मुख, मेरे धँसे कपोल, श्वेत केश... नदी के जल में एकांत में अपना मुख देखता हूँ तो स्वयं से ही भयभीत हो जाता हूँ। घबराहट में शीघ्रता से उस जलराशि को उलीचने लगता हूँ। जिसकी अतल गहराई में मेरा युवा रूप समाहित हो गया है। जल... जल..... जल, मेरा सर्वस्व जल गया, मेरा सर्वस्व प्रवाहित हो गया।
वृक्ष से गिरते पत्र कहते हैं कि यह जग परिवर्तनशील है। मैं क्रोधित हो उस वृक्ष से कहता, हे तरु, तुम साधारण, अतिसाधारण रचना हो इस प्रकृति की। मैं महर्षि च्यवन हूँ... असाधारण मनुष्य, कालचक्र के नियम से मुक्त, परंतु ऐसा कहते हुए मेरी देह कम्पित हो रही है। वाणी ओजपूर्ण नहीं रही तो क्या कालचक्र के समक्ष मैं भी नतमस्तक हो गया? क्या सुकन्या तथा काल, दोनों से मैं पराजित हो गया हूँ?
सुकन्या से मेरा स्वामी एवं भार्या का नहीं, बल्कि रोगी एवं वैद्य का संबंध है। परंतु मुझे वैद्य की नहीं, भार्या स्त्री की आवश्यकता है जो मुझे पुरुष बना दे, मुझे प्रेम से सिंचित करे मेरे संसार की स्वामिनी बने परंतु...?
स्त्री के बिना पुरुष पत्रहीन वृक्ष के समान है।
अब तो प्रत्येक क्षण सुकन्या ही मेरे चारों ओर अट्टहास करती दृष्टिगोचर होने लगी। वह मन में नहीं, मेरे चित्त में समा गई। उससे प्रेमदान की याचना करता मैं वृद्ध अशक्त च्यवन, यदि अब भी सुकन्या ने मुझे स्वीकार कर लिया तो मैं अपमान, व्यथा, पीड़ा क्षण भर में विस्मृत कर उसे क्षमा कर दूँगा। परंतु मैं अपनी दशा, मन की व्यथा किसी से कह भी नहीं सकता।
मेरा गुरुभ्राता उदधि मेरी पीड़ा कैसे समझ सकता है? अवश्य ही हम दोनों की शिक्षा एक ही गुरुकुल में हुई है परंतु जीवन तो एक समान गतिमान नहीं हुआ। अवश्य ही मुझमें तपशक्ति अधिक है परंतु उदधि के जीवन में जो संतुष्टि की धारा प्रवाहित है वह मेरे जीवन में नहीं। वह विवाहित है, पिता है। भार्या एवं पुत्र उसके अनुरूप आचरण करने वाले हैं। उसने मुझे बताया नहीं परंतु उसके मुख पर व्याप्त संतोष से क्या मैं समझ नहीं सकता। इच्छाओं को दमित करने से स्वभाव में कटुता का समावेश होता है। देह की क्षुधा पूर्ण न होना, मन की शांति का नहीं मिलना क्रोध को जन्म देता है। मात्र समवयस्क होना ही तो मित्रता के लिए आवश्यक नहीं है बल्कि एक समान स्वभाव तथा मनःस्थिति होना भी आवश्यक है। उदधि मुझे भलीभाँति नहीं समझ सकता। मरुस्थल की पीड़ा भला हरित प्रदेश को कैसे ज्ञात हो सकती है। वो सुकन्या की प्रशंसा करता है। उसे कमल पुष्प के समान अनासक्त योगी कहता है परंतु क्या मेरे मित्र को भान है इस नलिनी ने मुझे पंक में परिवर्तित कर दिया है।
सुकान्त...! सुकान्त ही तो मेरी पीड़ा, मेरी व्यथा को भलीभाँति समझता है। तभी तो एकांत में मुझसे उसने कहा था, "इस सृष्टि में सर्वाधिक अभिमानी स्त्री होती है। अपनी काया का उसे घमंड होता है क्योंकि उसे भलीभाँति ज्ञात होता है, प्रचंड शूरवीर, पराक्रमी, देवता, तपस्वी उसकी देह के समक्ष, उसके समक्ष क्षण भर में पराजित हो जाते हैं। नारी मादक दृष्टि से देख भी ले तो बल, बुद्धि, युक्ति सभी परास्त हो जाते हैं।"
शतशः सत्य... मुझसे भलीभाँति ये सत्य भला किसे ज्ञात होगा। परंतु स्त्री किससे पराजित होती है। नहीं, इस प्रकार का प्रश्न करना मुझे शोभा नहीं देता। सुकान्त तथा मुझमें वय का कितना अंतर है। नहीं, मैं उत्सुकता नहीं प्रदर्शित करूँगा। मैं मौन रहा। सुकान्त के मुख पर विचित्र सा भाव आया, बोला, "स्त्री स्व अस्त्र से ही पराजित होती है !"
आश्चर्य! मेरे प्रश्न नहीं करने पर भी सुकान्त ने मेरी उत्सुकता शांत कर दी। "स्व अस्त्र से!" मैं अस्फुट स्वर में बोल ही रहा था कि वो पुनः बोला, "अभिमानिनी स्वयं अपने रूप, अपनी काया से पराजित होती है। महर्षि, ध्यानपूर्वक आप विचार करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि नारी की देह में ही उसकी पराजय निहित है। उसकी देह पर अधिकार कर उसका मान मर्दन कर दीजिए। उसका विवेक, प्रज्ञा इस आक्रमण के पश्चात धाराशायी हो जाता है। इसे राजनीति कहें अथवा कूटनीति, परंतु विजय सुनिश्चित है क्योंकि उसकी देह का गुणगान कर के, उसे मर्यादा बोध करा कर, उसके चरणों में स्वयं को समर्पित कर उसे हम ही तो सर्वश्रेष्ठ होने का भान कराते हैं। उसकी बुद्धि को यह कह कर कुंद करते हैं कि उसका सर्वस्व उसकी देह, मात्र देह ही है। यही बोध उसके पराजय तथा हमारे विजय का मार्ग प्रशस्त करती है। जो नारी स्वेच्छा से वश में आ जाए उसका स्वागत है। एकांत में हमारा शीश उसके चरणों में होगा। परंतु स्वाभिमानी स्त्री केवल मधुर वचनों तथा स्वांगपूर्ण आचरण से वश में नहीं आती। उसके लिए बुद्धि प्रयोग, बलप्रयोग करना श्रेयस्कर है।"
अब हमारे मध्य जो वय की सीमा रेखा थी वो सुकान्त के इस गूढ़ ज्ञान के पश्चात विलीन हो गई। हम समवयस्क हो गए जहाँ लज्जा, संकोच, मर्यादा-बोध के लिए स्थान नहीं था।
"ऋषिवर, यह ऐसा छद्म मौन युद्ध है जहाँ आपके तपोबल की आवश्यकता नहीं। स्वाभिमानी स्त्री मणिधारी जंगिनी की भाँति होती है। स्मरण रहे यदि एक भी स्त्री का स्वाभिमान जागृत हो गया तो यह हमारे लिए, हमारी सत्ता के लिए घातक सिद्ध होगा। ऐसी स्त्री से जन्म लेने वाली कन्याओं, उसके सम्पर्क में आने वाली नारियों का स्वाभिमान जागृत हो जाएगा।" उसने मुझ पर अपनी दृष्टि केंद्रित करते हुए कहा, "एक बूँद विष भी नाश का कारण बन सकता है। यह दायित्व केवल आपको स्वयं के लिए नहीं, बल्कि उनके प्रति भी निर्वाह करना होगा जिन्होंने हमारे लिए यह मार्ग प्रशस्त किया तथा हमारे भविष्य के लिए भी। मुनिवर ये केवल आपका कार्य नहीं है। इस महत्त्वपूर्ण दायित्व को पूर्ण करने में मैं आपका सहयोग करूँगा।" सुकान्त के मुख पर बोलते हुए उस योद्धा का भाव था जो छल, भय अथवा किसी भी शक्ति का प्रयोग कर विजयी होने में विश्वास करता है। "परंतु मैं सुकन्या के प्रेम का आकांक्षी हूँ।"
"आकाशकुसुम की कल्पना में समय व्यर्थ न करें। जिस भोग की कामना से आपने विवाह किया उस पर गम्भीरता से विचार कर शीघ्रता करें।" मेरी जिह्वा पर कोई शब्द आता इससे पूर्व उसकी वाणी में व्यंग्य का भाव समाहित हो गया, बोला, "परंतु, अशक्त देह से आप उस सुंदरी का मानमर्दन कैसे करेंगे?"
"अशक्त ! सुकान्त तुम्हारा यह दुस्साहस कि इस भाँति तुम मेरा उपहास करो। संभवतः अपने यौवन के मद में तुम विस्मृत कर रहे हो कि तुम किसके समक्ष बोल रहे हो...", मैंने तप्त स्वर में कहा।
सुकान्त के स्वर में क्षण भर में ही शीतलता आ गई। "आपके तेज से कौन परिचित नहीं, धृष्टता के लिए क्षमा याचना करता हूँ। परंतु मैं नहीं चाहता भविष्य आपका यह कह कर उपहास करे कि जिस यौवन का मूल्य दे कर आपने तपोबल अर्जित किया। उस तपोबल को आपने यौवन प्राप्त करने के लिए व्यर्थ ही गँवा दिया। वो भी एक नारी देह, क्षुद्र काया को प्राप्त करने हेतु! जो नर के चरणों में रहने योग्य है, उसके लिए यह महती मूल्य उचित तो नहीं। कोई महामूर्ख, शठबुद्धि भी ऐसा नहीं करेगा। अमूल्य निधि का मूल्य दे कर कंकरी ले। आप तो महर्षि च्यवन हैं।"
मेरा अंतर्द्वद्र इसे कैसे ज्ञात हो गया? मैंने सरलता से पूछा, "इसके अतिरिक्त कौन सा मार्ग है?" सुकान्त पुनः बोला, "प्रकृति की भी यह इच्छा है कि शक्ति हमारे अधिकार में रहे। स्त्री के मानमर्दन का अस्त्र, दिव्य औषधि, वाजीकारक औषधि के कुछ दिवसों के प्रयोग के उपरांत आप यौनशक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं शीघ्र ही आपके लिए ये भेषज ले आऊँगा, आप तथा आपकी भार्या के प्रयोग हेतु। जो सुख अभी तक मृगमरीचिका की भाँति आपको कष्ट दे रही थी, अब आपके अधिकार में होगा। आपने बुद्धि बल से यदि इस औषधि का सेवन उस दर्पी स्त्री को करा दिया तो सुख द्विगुणित हो जाएगा। यदि उसने सेवन नहीं भी किया तो भी आपको स्त्री सुख की प्राप्ति होगी। यदि आपके अंश को उसने कुक्षि में धारण कर लिया तो वह अपनी संतति के मोह में आपके गृह में सर्वदा रज्जू से बँधी गौ की भाँति रहेगी। स्त्री की कुक्षि, उसके वात्सल्य के कारण ही उसकी पराजय निश्चित है।"
"परंतु सुकांत, पर्णकुटी में भेषज ले कर आना, उचित नहीं होगा। सुकन्या की दृष्टि से नहीं बच पाएगा। उसके क्रोध की सीमा नहीं रहेगी। तुम... "
महर्षि ! भेषज संग्रहित करने में समय लगेगा। अतः निश्चित तिथि नहीं बता पाऊँगा कि आप किस तिथि को मेरी प्रतीक्षा करें। इसलिए पर्णकुटी ही आना पड़ेगा। आप चिंतित नहीं हो! आपकी धर्मपत्नी एक स्त्री ही तो है।"
सुकान्त जिसे मैं केवल उदधि के शिष्य के रूप में देखता रहा हूँ वो मुझसे अधिक इस जग का ज्ञान रखता है। अधिकार प्राप्त करने, सुख भोगने की युक्ति उसे ज्ञात है। मेरे मौन को वह सहमति मान कर प्रस्थान कर गया।
सम्पर्क
ई मेल : siniwalis@gmail.com
निःसन्देह अच्छा अंश है। पढ़ने की उत्सुकता रहेगी।
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