नीलाक्षी सिंह के उपन्यास 'खेला' पर चन्द्रकला त्रिपाठी की समीक्षा।

 




जैसे जैसे विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ है, वैसे वैसे मानव जीवन की जटिलताएं भी बढ़ी हैं। ये तकनीकी विकास समृद्धतम लोगों के औजार बन कर रह गए और मानव का जीवन भूख और दुःख से भरा रहा। इसी क्रम में दुनिया के विकसित माने जाने वाले देशों ने खुद अपने को ही सभ्य और सुसंस्कृत मान कर उस दुनिया का शोषण आरम्भ कर दिया जो तकनीकी विकास में पिछड़ा हुआ था। जब पेट्रोल के रहस्य से पर्दा उठा तब कच्चे तेल के भण्डार पर आधिपत्य को ले कर इन ताकतवर देशों ने अपना असली करतब दिखाना शुरू किया। यही वह समय था जब इन देशों ने पुरातन पड़ चुकी औपनिवेशिकता को धो पोंछ कर नवसाम्राज्यवादी विस्तार का नया रूप दे दिया। नीलाक्षी सिंह एक समर्थ कथाकार उपन्यासकार हैं। हाल ही में सेतु प्रकाशन से आया उनका उपन्यास 'खेला' सही मायनों में नवसाम्राज्यवादी विस्तार को न केवल उद्घाटित करता है बल्कि निर्दयी आर्थिक दुष्चक्र का रेशा रेशा खोल कर रख दिया है। नीलाक्षी सिंह के उपन्यास खेला पर कवि आलोचक चन्द्रकला त्रिपाठी ने एक समीक्षा लिखी है। आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं नीलाक्षी सिंह के उपन्यास 'खेला' पर चन्द्रकला त्रिपाठी की समीक्षा "पूंजी के कपट खेल में कच्चे तेल की गोटियां : 'खेला'।"



पूंजी के कपट खेल में कच्चे तेल की गोटियां : 'खेला'  



चन्द्रकला त्रिपाठी 

          

"याद रखना चाहिए की कच्चा तेल कभी अकेले नहीं आता। उसके साथ पूरा जत्था चलता है। उसे उसकी संपूर्णता में समझना चाहिए और जब लगे कि वह सब समझ आ गया ठीक तभी फिर से नर्सरी में एडमिशन करवा लेना चाहिए। तेल से जुड़ी चीजों को समझने के लिए एक पूरा इतिहास जीना पड़ेगा। तब तक हम केवल तैयारी करते हुए से दिख कर ही खुश रहना सीख लें।" (खेला)। नीलाक्षी सिंह के इस उपन्यास में इतिहास, आधुनिक विश्व को लपेटते नमूदार हुए उस पूंजी समय का है जिसके रथ में जुते हुए मनुष्यों की विपत्ति जांचने के लिए वरा कुलकर्णी चुनी गई है। उसके स्वभाव में जोखिम की गुत्थियों  से जूझते चले जाने की अजीब सी लत है। उपन्यास में हम वरा के हिस्से का फैलाव देखते आगे बढ़ते हैं और उस पूरी दुनिया का त्रास समझते चले जाते हैं जो एक सोची समझी बुनावट है और इस फैसले पर हमें पहुंचाने में वरा कामयाब है। वरा को थहाने के कई एंगल हैं कथा में और वरा तो है ही।

 

सेतु प्रकाशन से 2021 में प्रकाशित नीलाक्षी सिंह का यह उपन्यास मौजूदा दौर के अत्यंत रहस्यमय और जटिल वैश्विक यथार्थ में प्रवेश करता है। यह कच्चे तेल का वह करतब है जिसे नवसाम्राज्यवादी विस्तार ने अपने कामयाब हथियार की तरह चुना और अपने मंसूबों पर पर्दे का जो जाल बिछाया उसमें इस्लामोफोबिया का इस्तेमाल शामिल था। यह सब कहने के लिए वरा कुलकर्णी को जिस तरह से लेखिका ने चुना है और जैसी निस्संगता से उस पर इस आतंकी खेल का गुजर जाना निर्मित किया है वह उपन्यास को अब तक हुए आतंक के पाठ के चरम पर रख देता है। वरा कुलकर्णी न साहसी है और न ही दुस्साहसी। साहस और दुस्साहस दोनों सिर्फ इसलिए उसे चुनते चले गए हैं कि उसे प्रेम का एक जिंदा पता पाना है। इसलिए शायद उसे अपनी औकात पर बार बार भारी पड़ कर अंदेशों को डर को और अपरिचय को भी भेदने के लिए कई जनम जैसा कुछ संभव कर देना है। नीलाक्षी ने इस कथा को वरा की बेहद बढ़ी चढ़ी संवेदनशीलता और सूक्ष्म अनुभव क्षमता के जरिए रचा है और यह इस तरह है कि यह किरदार हमें दुनिया में लगी आग को भीतर रह कर उसका भयानक और मामूली बताता हुआ मिलता है। उसके पास इस यथार्थ की फैली हुई और चमड़ी में धंस कर खून में मिल जाती हुई  तफसील मिल जाती है जो कभी पूरी नहीं मिल सकती। मनुष्य को भय के खुले हुए मुंह से निगलने वाली शक्तियां मिल जुल कर ऐसा कर रही हैं। उनके स्वार्थों में यह भी है कि उसे अधिक से अधिक क्षय में ढ़केल दिया जाए।


वरा जहां से इस क्षय का सामना करती दिखाई देती है वहां कई कई जीवन हैं और सब के साथ इस क्षरण और पतन की सच्चाई लगी चली आई है। यहां दिलशाद दीप्ति सकलानी तो हैं ही, पीछे छूटे परिवार की कई स्त्रियां हैं और बुडापेस्ट में मिली हुई मिसेज गोम्स हैं जिनका होना साम्राज्य विस्तार में लगी वैश्विक शक्तियों की अमानुषिकता का पाठ है। तेल के खेल ने युद्धों की नई निरंकुशता को रचा था। बड़ी निरंकुशताओं में रुस और अमेरिका हैं। 


'नीलाक्षी सिंह के इस उपन्यास ने उत्तर पूंजी के युग का खतरनाक यथार्थ चुना है। उपन्यास में आई कथा छन कर जो कह जाती है वह मनुष्य को चूहे से भी ज्यादा अपदार्थ और दयनीय बना देने वाला निर्दयी आर्थिक दुष्चक्र है जिसमें कोई खिलाड़ी नहीं है। सब खेल लिए जा रहे हैं। जो खेलता हुआ सबसे ऊपर दिखाई दे रहा है वह भी खेल लिया जा रहा है। यहां तक कि उत्तरऔपनिवेशिक पूंजी भी जो तरह तरह का पतन खेल कर क्षरण के हश्र से बचने के लिए कभी युद्ध खोजती है तो कहीं समझौता। दुनिया के छोटे बड़े देश इस पूंजी से रगड़े जाते हुए ख़त्म हो रहे हैं। मनुष्य भी। एक भयानक उजाड़ धीरे धीरे इस उपन्यास के पन्नों पर लीविंग थिंग्स के बरक्स नॉन लीविंग थिंग्स का आधिपत्य और आतंक रचता हुआ उभरता गया है। उस प्रकट के भीतर अप्रकट की जिंदा तरंगें इन कठोरताओं से टकराती हुई दिखती हैं। बेआवाज़ मगर मजबूत।


तो अब इस दुनिया में बसे लोगों से समूचा मिला जाए।



नीलाक्षी सिंह



शुरु करते हैं वरा से।


वरा कुलकर्णी के विषय में उपन्यास कहन के कई रुपों का इस्तेमाल करता है। लेखिका को जब उसे तटस्थ हो कर कथा के वृहत्तर सूत्रों के साथ कहना जरुरी हुआ है, वह उसे लड़की कहती है। इस लड़की को उसने उसके विलक्षण स्वभाव के साथ चुना है जिसके अन्तर्गत दृश्य को दृश्य की आंखों में आंखें न डाल कर खूब अनुभव करते हुए देखना भी है। वरा पहले तेल से जुड़े शेयर बाजार के ट्रेंड का आकलन करने वाली कंपनी से जुड़ी है। शेयर मार्केट के जोखिम को समझने के काम पर लगी हुई वह एक कठिन काम करती दिखाई देती है। यहां सबसे बड़ी अड़चन मनुष्य बने रहने में है। आवेगों की कोई जगह नहीं है यहां मगर वरा आवेग को ऊपर रखने के उस हठ में दिखाई देती है जहां एक तरह से प्रेम की रहस्यमयता का पीछा करना साफ होता जाता है।


भय और लालच से भरे मशीनी बाजार से घिरी बैठी वह अपनी मानवीय झिर्रियां बचा चुकी है। यह एक अनूठी संलग्नता है लगभग पूरे जीवन से जिसकी तफसील उपन्यास के भीतर अपने प्रवाह में है।


उसका पता जब हमें मिलना शुरु हुआ है तब वह - 'इस तीन दीवारी के भीतर वह मशीन थी और बाहर..... और ज्यादा मशीन'


वरा

  

'परवरिश में हुनरमंद रफुओं के बगैर ही बड़ी हो गई थी। वर्तमान उसके लिए किराए के पते जैसा था वह उसमें चौकन्ने मन से रह लेती थी।'


उपन्यास में हम वरा को एक रिक्त समय से जूझते हुए देखते हैं। उसके पास वह वर्तमान है जो कतई स्मृतियों में छन कर नहीं जाता बल्कि बीतता है बस। यहां अंदेशे हैं, भय है, कमतर करार करने वाले संदर्भ हैं, मगर एक लड़का है अफजल।


लड़का काली आंखों वाला सांवला सा है। लड़का और लड़की के बीच की चौकन्नी सी जांच के इलाके भी बीत जाते हैं और पाठकों को लगता है कि इस प्रेम में आई दूरियों को वे कहां से समझें। क्या वहां से जहां अफजल मुसलमान है और वरा हिंदू है। वरा में मुसलमान के लिए कोई भावनात्मक अटक नहीं है मगर एक भयानक अन्तरराष्ट्रीय समय सांप्रदायिक कट्टरताओं के हवाले हो चुका है। कथा के भीतर उससे पैदा हुई जटिलताएं भरती चली आई हैं। वरा एक रहस्यमय पता खोजती हुई बुडापेस्ट चली जाती है। अफजल और उसके बीच योरोप में मचे घमासान की कट्टर इबारतें ऐसे फैली हैं कि भारत के उस शहर में उस दिन कर्फ्यू है जिस दिन किसी ने शहर भर की दीवार पर किसी सिरफिरे ने इस्लामी पवित्र किताब की उक्तियां उकेर दी हैं और अफजल भी साइकिल से किसी आवेग में भरा हांफता सा पूरा शहर घूमता आया है। साइकिल के पहिए रंग सने हो उठे हैं।


पूरे शहर में दीवार पर लिख उठी उन इबारतों की वजह से कर्फ्यू लग चुका है। दिलशाद उसके पास आ कर रुकी है तो उधर वरा ने उससे प्रेम से खुद के निकल जाने के बारे में बता दिया है। फोन पर उससे बात करती हुई वह फिर उस आवेग से घिरी मिलती है कि उसके बजाय हंगरी के टेलीविजन पर इस्लामिक आतंकवाद के विरोध में बोलते नौकरशाह की आवाज को अपने फोन में घुस कर अफजल से वही सब कुछ कहने देती है। यही आवेग वरा को वहां संदिग्ध बनाता चला गया है। मिसेज गोम्स का बेटा खोज लाने के लक्ष्य को पावन समझती हुई वह उस दुष्चक्र में जैसे इस्तेमाल हुई है उसमें यातनाएं हैं, पहरे हैं और बलात्कार तक है।इस यथार्थ को विभ्रम के शिल्प में कहना चुन कर नीलाक्षी ने जैसे मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' के शिल्प की याद दिलाई है।


भाषा इस उपन्यास का सबसे चुनौतीपूर्ण किरदार है। उसमें चीजें, घटनाएं, किरदार और कथ्य भी अपना एक औरा रचते मिलते हैं।इसे कतई झटपट नहीं पढ़ा जा सकता।


हां, इस पर बात करने के लिए सबसे अधिक मुफीद उस अन्तर्विरोध का पक्ष याद रखना पड़ता है जिसे सांप्रदायिक कट्टरता कहते हैं और जो आर्थिक विश्व का सबसे कामयाब हथियार है।


गजब यह है कि उसके मुकाबले में प्रेम अपनी गुत्थियों समेत मौजूद है।


इसका ऐसे होना भी कम मामला नहीं है।





सम्पर्क

चंद्रकला त्रिपाठी

मोबाइल - 09415618813


टिप्पणियाँ

  1. बहुत समझ कर लिखी गयी समीक्षा है यह।नीलाक्षी सिंह के उपन्यास को लापरवाही से न पढ़ा जा सकता है न लिखा।कई स्तरों पर मौजूद यथार्थ को समझने की कोशिश है यह

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  2. खेला उपन्यास इतना व्यापक है कि इस पर और और बातें होती हैं तो कथा और कहन के कई अर्थ खुलते हैं। यह समीक्षा भी उपन्यास की कथा को खोलने के लिए कुछ किनारें पर ले जाती हैं। इस पर और और बातें चलती रहनी चाहिए।

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