शंभुनाथ का आलेख फिल्म 'गांधी गोडसे एक युद्ध' पर चंद बातें'

 



इतिहास के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि यह झूठ का साथ नहीं देता। दिक्कत यह भी है कि यह आधारहीन बातें नहीं करता। जो भी बात करता है उसके लिए सबूत या स्रोत मांगता है। कई बार यह काफी असुविधा भी पैदा करता है। इससे बिलग साहित्य में रचनाकार को कल्पना लोक में उड़ने की पूरी आजादी होती है। यहां सबूत नहीं गढ़ना महत्त्वपूर्ण होता है। एक बात और भी है कि इतिहास स्रोत के रूप में साहित्य का भी सहारा लेता है। अलग बात है कि ऐसा करते समय इतिहासकार को बहुत सजग सतर्क रहना पड़ता है। जब हम इस जगह पर खड़े हो कर देखते हैं तो मामला दिलचस्प हो जाता है। इधर एक फिल्म आई है 'गांधी गोडसे एक युद्ध'। चूंकि इस फिल्म के लेखक के रूप में असगर वजाहत का नाम जुड़ा है इसलिए बौद्धिक वर्ग में इसे ले कर वाद विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मौजूदा समय उन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है जो किसी न किसी रूप में हिन्दू राष्ट्रवाद या प्रतिक्रियावाद से जुड़ी हुई हैं। गोडसे इसका वाहक है। गांधी उस समन्वय के पक्षधर थे जो सभी को साथ ले कर चलने में यकीन करती है। गांधी को पता था कि सबको साथ लिए बिना भारत अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई मजबूती से नहीं लड़ सकता है। लेकिन यह फिल्म ऐसे दृश्य रचती है जो उस जन विश्वास पर आघात करती है जो उसके दिलो दिमाग में रचा बसा है। रहीम का एक दोहा है 'कह रहीम कैसे निभे, बेर केर के संग। वे रस डोलत आपने, उनके फाटत अंग।।' लेकिन फिल्म में बेर केर को साथ दिखा कर वह दृश्य रचा गया है, जो कल्पना लोक से परे है। इस फिल्म के हवाले से शंभू नाथ जी ने कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शंभुनाथ का आलेख फिल्म 'गांधी गोडसे एक युद्ध' पर चंद बातें'।



फिल्म 'गांधी गोडसे एक युद्ध' पर चंद बातें



शंभु नाथ



कल मैंने 'गांधी गोडसे एक युद्ध' फिल्म देखी और मुझे दुखद आश्चर्य हुआ। मुझे लगा कि इसकी स्क्रिप्ट गोडसे भक्तों के आफिस में बैठ कर लिखी गई है। 


फिल्म के अंत में गांधी का हृदय परिवर्तन और उन्हें  गोडसे को प्रणाम करके जेल से बाहर साथ निकलते दिखाया गया है। अगर गोडसे और गांधी महज दो व्यक्ति नहीं, दो भिन्न विचारधाराएं हैं, तो इस साथ का अर्थ क्या है? 


फिल्म गोडसे को खलनायक से नायक बना कर उपस्थित करती है। अगर यह फिल्म सिर्फ राजकुमार संतोषी की होती तो मुझे न दुख होता और न आश्चर्य। इसमें जनवादी लेखक असगर वजाहत भी शामिल हैं, इसलिए दुख हुआ और आश्चर्य भी हुआ।


इस फिल्म का शीर्षक 'गांधी गोडसे एक हत्या' की जगह 'गांधी गोडसे एक युद्ध ' देख कर ही कुछ आभास हो गया था कि 'युद्ध' शब्द गोडसे को उदात्त चरित्र देने के लिए है। लेकिन उम्मीद थी कि इस मौसम में गांधी पर गलत आधार पर आक्रमण और अंततः गोडसे के महिमामंडन जैसी कोई बात नहीं होगी। यह भी आशा थी कि बहस कभी गोडसे भक्तों के पक्ष में पोलिमिक्स का रूप न लेगी। जबकि सब कुछ बिलकुल ऐसा है। फिल्म के कुछ दृश्यों के उदाहरण इस प्रकार हैं :


(1). फिल्म के ज्यादातर दृश्यों में गोडसे के तर्कों को काफी वजनदार बनाने की कोशिश है। इन दृश्यों में गांधी को हिंदुओं के विरोधी के रूप में दिखाया गया है। देश विभाजन के समय मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार ही नहीं, औरंगजेब आदि हजार सालों के हिंसात्मक प्रसंगों को ज्यादा उभारा गया है, जबकि गांधी के अहिंसा, देश में शांति के प्रयासों और धार्मिक - सांस्कृतिक बहुलता के विचारों को बहुत कमजोर, घिसे-पिटे ढंग से रखा गया है।


गोडसे देश में हिंदुओं द्वारा बदले की भावना से हिंसा का औचित्य जितना बल दे कर स्थापित करता है, गांधी का तर्क और दुख उतने प्रभावपूर्ण ढंग से उपस्थित नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि फिल्म में गोडसे का प्रतिवाद न हो कर उसके हृदय परिवर्तन की कोशिश है।


इस फिल्म में नेहरू की कटु आलोचना है, कांग्रेस सरकार को बर्बर रूप में दिखाया गया है। लगता है कि यह इस फिल्म का एक अन्य बड़ा उद्देश्य है, जो इसे लाल बहादुर शास्त्री और मनमोहन सिंह पर हिंदुत्ववादी शह पर बने बायोपिक की फिल्मी परंपरा में रख देता है।


कुल मिला कर इस युद्ध में दर्शक के सामने गोडसे के तर्क आक्रामक और प्रभावशाली रूप में उपस्थित हैं। गांधी के साथ नेहरू, कृपलानी, पटेल, अब्दुल कलाम आजाद , अंबेडकर आदि चरित्र हैं, पर गोडसे की विचारधारा के स्रोत हिंदू महासभा या सावरकर का कहीं नाम तक नहीं है, उनके साथ गोडसे का संबंध दिखाना बहुत दूर की बात है। इस तरह गांधी की निर्मित छवि में कई झूठ मौजूद हैं, तो गोडसे की छवि गढ़ने में कई तथ्य छिपाए गए हैं। 


यह सब  गोडसे भक्तों को खुश करने के लिए है, क्योंकि फिल्म में कांग्रेस की बर्बरता और गांधी की कमजोरियों को भरपूर उभारा गया है। इसकी तुलना में गोडसे हिंदू हित में हिंसा के एक निष्ठावान दार्शनिक के रूप में महिमामंडित है। फिल्म में उसके हृदय परिवर्तन की भी विचित्र कल्पना है!


(2). ऐतिहासिक तथ्यों के औजार से जब किसी राजनीतिक झूठ की रचना की जाती है तो यह इतिहास का ही नहीं, कला का भी दुरुपयोग है। यह इतिहास की डकैती है। इन दिनों फिल्मों और उपन्यासों में इतिहास-क्रीड़ा इसी रूप में हो रही है। 


(3). इस फिल्म में इतिहास ही नहीं कल्पना का भी उपयोग है, जिसमें गांधी का विकृत ढंग का उत्तर-औपनिवेशिक विखंडन है। फिल्म में अंबेडकर और स्त्री प्रसंग हैं। इस कल्पना वाले पक्ष में गांधी गोडसे की गोलियां खा कर भी बच जाते हैं। वे बच जाने के बाद नेहरू को कांग्रेस पार्टी को उठा देने का सुझाव देते हैं,  खुद कांग्रेस से इस्तीफा दे देते हैं और ग्राम स्वराज्य आंदोलन शुरू कर देते हैं। यह आंदोलन एक बिंदु पर हिंसात्मक हो जाता है और इसे गांधी का देशद्रोह माना जाता है। नेहरू गांधी को देशद्रोह की दी गई सजा पर अपनी मुहर लगा देते हैं। गांधी को देशद्रोही करार देने वालों में अंबेडकर भी हैं। यह सब हास्यास्पद है। मेरे बगल में बैठे एक दर्शक का कमेंट था, अरे ऐसा तो नहीं हुआ था!


राजकुमार संतोषी



(4).  किसी भी कला में कल्पना की एक सीमा होती है। वह एकदम इतिहास या किसी बहुप्रचलित कथा के विपरीत नहीं जा सकती। उदाहरण के रूप में, यदि किसी कृति में राम के पौराणिक चरित्र का इस्तेमाल किया जा रहा है तो यह दिखाना किसी को नहीं पचेगा कि रावण ने राम को मारा। 


(5). गांधी ने आजादी से पहले कांग्रेस छोड़ दी थी, संभवतः 1934 में। फिल्म में यह आजादी के बाद की घटना के रूप में उपस्थित है। आजादी के बाद नेहरू की कांग्रेस कैबिनेट ऐसी बर्बर नहीं थी जैसी दिखाई गई है। अंबेडकर गांधी को 'प्रतिपक्ष' मानते थे, वे उन्हें देशद्रोही  कभी नहीं कहते थे।  इस तरह आज की सत्ता की भाषा 'देशद्रोह' को फिल्मकार ने अंबेडकर के मुंह में डाल कर दलित कार्ड खेला है, गांधी को दलितों की निगाह में खलनायक बनाने के लिए!


(6). फिल्मकार ने गांधी को खलनायक बनाने के लिए फेमिनिस्ट कार्ड भी खेला है। गोडसे-गांधी मामले के समानांतर एक प्रेम कथा चलती है, जिसमें गांधी अपने आश्रम में एक युवा सेविका को उसके प्रेमी से शादी करने नहीं देते। इसमें दिखाया गया है कि गांधी प्रेम को एक 'विकार' मानते हैं। 


हर संगठन की तरह गांधी के आश्रम के कुछ अपने उद्देश्य और नियम हो सकते हैं। गांधी का वस्तुतः कहना था कि प्रेम और विवाह करना है तो आश्रम से बाहर जा कर खुशी से ऐसा करो। आश्रम में इसकी अनुमति नहीं है, इसके अपने कुछ खास उद्देश्य हैं। 


असगर वजाहत 



(7). हमारी लेखक बिरादरी के बीच से ही एक उदाहरण है, वर्धा के आश्रम में रहते हुए प्रभाकर माचवे किसी से प्रेम करते थे। गांधी ने खुद उनके प्रेम का आदर करते हुए सादगी के साथ उनका अंतरजातीय विवाह कराया था। 


फिल्मकार साबित करना चाहता है कि गांधी 'वैष्णव जन तो तैने कहिए जे पीर पराई जाने रे' तो ध्यानमग्न हो कर सुनते हैं, पर वे एक प्रेमी युगल का दर्द नहीं समझ पाते, इतने संवेदनहीन हैं। इसके अलावा, फिल्मकार कस्तूर बा को गांधी के विरुद्ध गवाह बना कर लाता है। अंततः गांधी इस फिल्म में प्रेमी युगल का विवाह गोडसे की प्रेरणा से कराते हैं। अर्थात यदि अहिंसा के संदर्भ में गांधी ने गोडसे का हृदय परिवर्तन कराया तो प्रेम के मामले में गोडसे ने गांधी का हृदय परिवर्तन कराया। वाह, दूर की कौड़ी है!


यह अद्भुत है कि कभी जाद एडम्स, लेलिवेल्ड जैसे पश्चिमी लेखकों ने कई स्त्रियों से गांधी के सेक्सुअल संबंध पर किताबें लिख मारी थीं तो इस फिल्मकार ने एक दूसरे अतिवाद से यह दिखाना चाहा कि गांधी प्रेम मात्र के विरुद्ध थे। इस तरह उसने दलित कार्ड के साथ-साथ फेमिनिस्ट कार्ड भी पटका, ताकि गांधी युवक-युवतियों की निगाह में गिरें।


(8). कुल मिला कर 'गांधी गोडसे एक युद्ध' फिल्म पूरी तरह गोडसे के महिमामंडन और गांधी के अवमूल्यन की फिल्म है, जो अंत में गांधी-गोडसे एकता का संदेश देती है। यह गांधी के हिंदुत्ववादी आत्मसातीकरण का मामला है। यही वजह है कि गोडसे भक्तों ने इस फिल्म को ले कर कोई बवाल नहीं मचाया, हालांकि गोडसे द्वारा गांधी को प्रणाम कराए जाने के कारण वाहवाही भी नहीं की।


(9). मैंने असगर वजाहत का नाटक न ही पढ़ा है और न ही देखा है। मैं नहीं जानता कि नाटक में यही सब है या इससे कुछ भिन्न। यदि यही सब है तो यह चिंताजनक और बौद्धिक दिवालियापन है। 


मैं इतना जानता हूं कि असगर वजाहत मूलतः एक सांप्रदायिकता-विरोधी और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर साहित्यकार रहे हैं। यह वालीवुड का व्यावसायिक उद्देश्यों से एक तात्कालिक समझौता भी हो सकता है, जैसा कि 'पठान' फिल्म के लिए भी किया गया। 


(10). हालांकि यह भी चिंताजनक है कि इस युग में कलात्मक अभिव्यक्ति को सिस्टम द्वारा इतना अनुकूलित किया जा रहा है कि साहित्यकार को बड़े समझौते करने पड़ रहे हैं। दरअसल अपनी कृति पर फिल्म बनवाने की इच्छा को मार डालना आसान नहीं है। कौन नहीं चाहता कि उसकी कृति पर फिल्म बने!


यह बड़ा ही बुरा समय है!








सम्पर्क


मोबाइल : 9007757887



टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूबसूरती से लेखकअसगर वजाहत की कुटिलता और तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है

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  2. इस तरह की फिल्म की वाकई उम्मीद नहीं थी। असगर सर ने पता नही क्यों ऐसा समझौता किया। जो कार्य पूरा नफरती गैंग मिलकर नही कर पाया वह इस फिल्म से होने की आशंका है क्योंकि इसके साथ असगर सर का नाम जुड़ा है।

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