कमल जीत चौधरी के संग्रह पर ख़ुदेजा ख़ान की समीक्षा 'लोकधर्मिता के पक्ष में खड़ी कविताएँ





न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने 'समकाल की आवाज़: चयनित कविताएँ' शीर्षक से कुछ कवियों की कविताएं प्रकाशित की हैं। यह एक स्तुत्य प्रयास है। इसी क्रम में हिन्दी के महत्त्वपूर्ण युवा कवि कमल जीत चौधरी का संग्रह हाल ही में  प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है कवि समीक्षक ख़ुदेजा ख़ान ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कमल जीत चौधरी के संग्रह पर ख़ुदेजा ख़ान की समीक्षा 'लोकधर्मिता के पक्ष में खड़ी कविताएँ'।



'लोकधर्मिता के पक्ष में खड़ी कविताएँ'



ख़ुदेजा ख़ान



हमारा रास्ता आम नहीं है, लेकिन यह आम लोगों के हक़ में जाता है इस पर चलते हुए जिस मूल्य को अर्जित किया है वह अमूल्य है। यह तो एक इतिहास है, एक लौ है। मैं शिक्षण, प्यार व कविता के अंदर और बाहर एक जैसा हूं, रहना चाहता हूं। यह मेरी ताकत है और परीक्षा भी।


युवा कवि कमलजीत चौधरी 'समकाल की आवाज़' 2022 में अपनी 60 चयनित कविताओं के संग्रह के आत्म वक्तव्य में जब यह बात कहते हैं तो एक जेनुइन कवि की छवि उभरती है, इस आश्वस्ति के साथ कि कवि की जनोन्मुखी, लोग धर्मी प्रतिबद्धता कविता में स्थापित हो कर पाठक वर्ग को अवश्य आंदोलित करेगी। 


कवि का जन्म जम्मू-कश्मीर के सांबा गांव में 13 अगस्त 1980 को हुआ। वहां के पारिस्थितिक तंत्र व व्यवस्था की विघटनकारी शक्तियों के प्रति विरोध के स्वर इनकी कविताओं में स्वाभाविक रूप से मिलते हैं। लेखन कर्म 2007-08 से प्रारंभ हुआ तथापि इनकी लेखनी में एक परिपक्व सोच की गूंज स्पष्ट झलकती है।


'हिंदी का नमक' तथा 'दुनिया का अंतिम घोषणा पत्र' दो कविता संग्रहों का प्रकाशन। जम्मू कश्मीर के समकालीन चुनिंदा कवियों की कविताओं का संग्रह 'मुझे आईडी कार्ड दिलाओ' का संपादन कार्य। 9 सामूहिक संकलन। कुछ कविताओं का मराठी, उड़िया, अंग्रेज़ी और बांग्ला भाषा में अनुवाद व प्रकाशन हुआ है। 


कवि का प्रश्न है- कविताएं किसके पैरों पर लिखी जाती हैं?


बेशक मेहनतकश, कर्मठ, जिजीविषा से भरे मज़बूत पांव जो जीवन संघर्ष से हार नहीं मानते, थक कर भी टूटते नहीं बल्कि अपनी इच्छा शक्ति के बल पर निरंतर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रयासरत रहते हैं। दमनकारियों के पास यदि कुचलने के हथियार हैं तो इनके पास भी विरोध करने के अस्त्र हैं और कवि कमल जीत के पास काव्याभिव्यक्ति।


खेत, 'किताबे, डायरियां और क़लम', चुप रहती लड़की, जो करना है अभी करो, तीन आदमी, आंख, राजा, 'कविता,लड़की और सेफ्टीपिन' आम क्यों चुप रहे, इन तमाम कविताओं में वर्तमान समय की प्रतिध्वनियां गुंफित हो कर विचारों में उद्वेलन पैदा करने में सक्षम दिखाई देती हैं। इसी तरह पहाड़, पृथ्वी, चिट्ठियां, आग, बर्तन, पत्थर आदि कविताओं को पढ़ कर संज्ञायाओं को कैसे बरता जाता है इन कविताओं में, इनका अनुभव, अभिनव आसस्वादन है।


एक बुज़ुर्ग 

मेरी कविता सुन कर कहता है- 

तुम बान का मंजा बुनते हो 


बान का मंजा कौन बनता है? 


बान (मुंज की खुरदुरी रस्सी) मंजा (चारपाई) बुज़ुर्ग के लिए  अपनी जगह कविता तो ठीक है लेकिन चारपाई बुनने का हुनर जो घरेलू कार्यों में महत्वपूर्ण है वह कवि या किसी सुसभ्य को नहीं आता। सवाल है बान का मंजा कौन बुनता है? वही सर्वहारा जिसकी समाज में हैसियत सबसे कमतर है। जबकि इस तरह के कामगारों के तबक़े के कंधों पर लोकतंत्र की नींव टिकी होती है।

पृष्ठ- 23  'तीन सवाल'


हिंदी से प्रेम को देश प्रेम के समकक्ष माना जाना चाहिए जिनका लालन-पालन हिंदी का नमक खा कर ही हुआ जब वह भी अंग्रेज़ी को अहमियत देते दिखाई देने लगे तो इसे ग़ुलाम मानसिकता का परिचायक नहीं तो और क्या कहा जाएगा। इस संदर्भ में कवि की प्रतिबद्धता अपनी भाषा के साथ दिखाई देती है।


भले ही ग्लोबलाइज़ेशन के इस युग में उपनिवेशवाद ने देश में पैर फैला लिए हैं, तथापि शक्कर कितनी ही मात्रा में क्यों न हो नमक का मुक़ाबला नहीं कर सकती। एक चुटकी वफादारी का नमक भारी है शक्कर की बोरी पर। ठीक वैसे ही जैसे कवि कहता है- 


मिठास के व्यापारी 

यह दुनिया मीठी हो सकती है 

पर मेरी जीभ तुम्हारा उपनिवेश नहीं हो सकती 


यह हिंदी का नमक चाटती है।


(पृष्ठ-44, 'हिन्दी का नमक')


प्रकृति भेदभाव नहीं करती मनुष्यों की तरह। हवा, पानी, धूप और बारिश समान रूप से जीव जगत में वितरित होती है। अच्छा है इनके पास बुद्धि और चालाकी जैसी कोई चीज़ नहीं है अन्यथा यह भी भेदभाव, ऊंच नीच, जात- पात का ज़हर अपने अंदर भरकर पूरी सृष्टि को विषाक्त कर देती। 

पृष्ठ- 28 'कभी नहीं कहा'


हवा ने-

कभी किसी नदी, पेड़ या चिड़िया को यह नहीं कहा 

मेरे घर से बाहर निकल जाओ।


कमल जीत चौधरी 



लद्दाख की सौंदर्यानुभूति अगर कविता में है तो वहां की परिस्थितियों पर कटाक्ष भी है। आमतौर पर ऐसी बैठकें जिनका अंजाम बिना निष्कर्ष के समाप्त हो जाता है। अपनी अकर्मण्यता पर झूठी सफलता की मुस्कान चस्पा कर पर्दा डाल दिया जाता है। जहां निर्णय लेने में असक्षम नेतृत्व कवि को कुछ इसी तरह महसूस होता है-


मुझे एकाएक गांव का वह चौधरी याद आया 

जिसने दलित लड़की की कनपटी पर दो नाली रखकर पूछा था- 

क्या तुम मुझसे प्यार करती हो 


वह प्यार न करती तो क्या करती! 


(पृष्ठ- 59 'लद्दाख हिल काउंसिल की एक बैठक')


राष्ट्रीय पर्व और दहशत का माहौल आमजन के हृदय में क्षोभ और खिन्नता पैदा करता है। निम्न पंक्तियां ध्यातव्य हैं- 


शहर को अवरुद्ध की गई सड़कों पर कुछ नवयुवक 

गुम हुए दिशा सूचक बोर्ड ढूंढ रहे हैं 

जिनकी देश को इस समय सख्त ज़रूरत है 

बंद दुकानों के शटरों से सटे 

कुछ कुत्ते दुम दबाए बैठे हैं चुपचाप जिन्हें आज़ादी है 

वे भौंक रहे हैं


ऐसा सन्नाटा खिंचा है कि राष्ट्रीय दिवस, शोक दिवस का आभास करा रहा है और भविष्य के निर्माण कर्ता-युवा पीढ़ी, घरों में दुबक कर बैठने को विवश है।


सुरक्षा घेरों में 

बंद मैदानों में 

बुलेट प्रूफों में 

टीवी चैनलों से चिपक कर 

स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है

 

राष्ट्रगान गाया जा रहा है 

सावधान! 

यह लोकतंत्र की आम सभा सुबह नहीं है।


(पृष्ठ-86, 'लोकतंत्र की एक सुबह')


विरोधाभासों से भरे समय में जीवन में कितना कुछ घटित होता रहता है जो कभी अनुपात में होता है कभी अनुपातहीन। संतुलन साधने जैसे कठिन काम में कभी व्यक्ति सफल होता है कभी विफल या कभी संपूर्ण जीवन संतुलन साधने में निकल जाता है, तब पता चलता है इस दौरान नैतिकता का कितना ह्रास हुआ है। जिन मूल्यों को जीवन में सर्वाधिक स्थान मिलना चाहिए था वह सबसे न्यूनतम स्तर पर गिरते जा रहे हैं और जिन बुराइयों को खत्म होते रहना चाहिए था उनका सूचकांक निरंतर उठान पर है।


इस तरह हम

कम में ज़्यादा 

ज़्यादा में कम होते गए 

हमने होना था 

आटे में नमक 

मगर हम नमक में आटा होते गए।


(पृष्ठ -89 'नमक में आटा')


आम जनता जिसमें समस्त श्रमिक वर्ग, मज़दूर, किसान, कामगार मंझौले व्यापारी वर्ग का समावेश है। जिन पर साम्राज्यवाद का तख़्ता टिका हुआ है। इनकी बहुउपयोगिता को अनेक तरीकों से भुनाया जाता है। अनेक रूपों में इनका दोहन कर अपने वर्चस्व को बनाए रखने के जतन किए जाते हैं। एक ऐसी व्यवस्था जो बाहर से व्यवस्थित दिखाई देती है मगर इसके भीतर प्रवेश करने पर बहुत से शोषण करने वाले औज़ारों का ज़ख़ीरा  दिखलाई पड़ता है जैसे विभिन्न प्रकार के बर्तनों का भिन्न-भिन्न कामों में इस्तेमाल होना, वैसे ही एक नागरिक यहां अपनी हैसियत रखता है।


तुम सत्ता के रक्षक 

अंगूठे के कलाकार हो 

दायित्व निभाते हो 

उसे चाक पर बैठा कर 

अंगूठा घुमाते हो 

धागे से काट कर 

बस बर्तन बनाते हो 


(पृष्ठ- 98 'बर्तन')


कवि होना मात्र लेखन कर्म न हो कर एक नागरिक होने की ज़िम्मेदारी का निर्वहन भी है। यह आग और जीवटता इन कविताओं में दृष्टिगोचर होती है। जो सत्यार्थी होने के लिए कटिबद्ध है। और अपनी बेबाक अभिव्यक्ति से कहीं भी विचलित नहीं दिखाई देता। लोक जन के निहितार्थ लिखा जाना ही निष्पक्ष धर्म का पालन है जो समय व परिस्थितियों को आमजन के पक्ष में करने के लिए अपनी कलम चलाने के लिए अहर्निश उद्यत रहता है।



पुस्तक- समकाल की आवाज़ (चयनित कविताएं)              

कवि - कमल जीत चौधरी 

प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली 

मूल्य- ₹175 



ख़ुदेजा ख़ान


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं