वाचस्पति का रिपोर्ताज 'बांदा-सम्मेलन के पचास वर्ष'
लेखक सम्मेलनों की हमेशा अपनी एक उपादेयता होती है। इसी क्रम में समय समय पर अपने यहां लेखक सम्मेलनों का आयोजन होता रहा है। केदार नाथ अग्रवाल जब तक जीवित रहे, रचनाकारों के लिए उनकी जन्मभूमि बांदा एक तीर्थ की तरह रही। इसी बांदा में केदार जी की पहल पर 1973 में लेखक सम्मेलन का आयोजन किया गया। हिन्दी के अनेक रचनाकार इस सम्मेलन में अपने खर्च पर आए और शामिल हुए। आगे चल कर इनमें से कई रचनाकार हिंदी साहित्य की मुख्य धारा में शामिल हुए। यही नहीं बाद में बने कई लेखक संगठन भी परोक्ष रूप से इस बांदा सम्मेलन की ही देन थे। वाचस्पति जी के पास संस्मरणों और चित्रों का एक अनमोल खजाना है। उनके पास एक बेशकीमती पंचायती डायरी भी है जिसमें अनेक रचनाकारों ने खुद अपनी लिखावट में अपनी बातें लिखी हैं। बांदा सम्मेलन से जुड़ा यह रिपोर्ताज और इसकी कुछ अमूल्य तस्वीरें हमें वाचस्पति जी ने उपलब्ध कराई हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं वाचस्पति का रिपोर्ताज 'बांदा-सम्मेलन के पचास वर्ष'।
बांदा-सम्मेलन के पचास वर्ष
वाचस्पति
"अखिल भारतीय प्रगतिशील साहित्यकार सम्मेलन" बुंदेलखंड क्षेत्र के बांदा जिले में 22 से 25 फरवरी 1973 ई. में आयोजित हुआ। अब इस ऐतिहासिक सम्मेलन के पचास वर्ष पूरे हो गए! इसे संपन्न कराने में बांदा के यशस्वी कवि केदार नाथ अग्रवाल की केंद्रीय भूमिका रही। वहीं हिन्दी-प्राध्यापक आलोचक डा. रणजीत सक्रिय सहयोगी रहे। केदार जी ने मुद्रित-हस्तलिखित सर्कुलर और पत्र भेज कर रूपरेखा स्पष्ट करते हुए लेखकों और साहित्य सुधी लोगों से सहभागिता की अपील की। अब उन पत्रों आदि को एकत्रित करने की आवश्यकता है।
कवि धूमिल ने 25 दिसम्बर 1972 को बनारस के तुलसी पुस्तकालय, भदैनी में "त्रिलोचन अध्ययन केंद्र" की स्थापना -गोष्ठी में बांदा से केदार जी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। वे आते और काशी के रचनाकारों से फरवरी 1973 ई में बांदा पहुंचने का आग्रह किया। परिणामस्वरूप बनारस से त्रिलोचन, धूमिल, छायाकार एस अतिबल, हरिहर यती, अवधेश प्रधान, सुधेंदु पटेल, प्रभुझिंगरन, योगेंद्र नारायण, वीरेंद्र शुक्ल, वाचस्पति आदि का एक बड़ा दल बांदा जा कर सम्मेलन में शामिल हुआ।
ग्रुप फोटो - (बाएं से दाएं) धूमिल, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल, वाचस्पति, विजेन्द्र धरातल पर - प्रभु झिंगरन, योगेन्द्र नारायण, वीरेंद्र शुक्ल, सुधेंदु पटेल, अवधेश प्रधान |
सम्मेलन में खूब चहल-पहल रही। मन्मथ नाथ गुप्त, धूमिल, विजेंद्र, सव्यसाची, कर्ण सिंह चौहान और अनेक युवा साथियों के बीच तीखी बहसें हुईं। आगे नतीजा यह रहा कि तीन प्रमुख वाम सांस्कृतिक लेखक संगठन बने! और डेढ़ दर्जन वामोन्मुख संगठन भी धीरे-धीरे अस्तित्व में आये! अब इन्हीं में से अनेक मूर्धन्य और युवा लिट्रेचर फेस्टिवल्स के चमकीले सितारे हैं! इस संदर्भ में मुक्तिबोध की काव्य पंक्ति याद आ रही है।
"पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता"
तीन दिन के बहस-मुबाहिसे, कवि सम्मेलन आदि के साथ बांदा सम्मेलन कटु-तिक्त-मधुर यादों के साथ संपन्न हुआ। इस मौके के ग्रुप फोटो में कुल बासठ प्रतिभागियों के नाम पढ़े जा सकते हैं।बाबा नागार्जुन केन नदी और टुनटुनिया पहाड़ की परिक्रमा करने कुछ नौजवानों के साथ निकले। समूह चित्र में वे नहीं हैं।
केदार जी के अनन्य मित्रों में से डा. राम विलास शर्मा, कवि शमशेर, चन्द्रबली सिंह बांदा नहीं पहुंच सके।
कुशल प्रेस छायाकार अतिबल ने निजी तौर पर अनेक फोटो लिये जिनमें से कुछ यहां हैं। अंतिम दिन खजुराहो-भ्रमण के लिये बांदा से उपस्थित लेखक गये।
पचास साल पूरे होने पर यह जरूरी है कि इस बांदा-सम्मेलन का दस्तावेजीकरण किया जाये। अधिकांश लेखक अब दिवंगत हैं पर जो भी जीवित हैं वे परस्पर संवाद करें तो यह संभव हो सकता है।
रेखा अवस्थी जी ने "प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य" में सन् 1936-1951 तक के साहित्य का द्वंद्वात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। मैकमिलन से पुस्तक 1978 में आई। अब इसके बाद का काम टीम वर्क से ही संभव है!
बांदा-सम्मेलन का मेरे लिये निजी तौर पर महत्त्व वहीं पहले पहल बाबा नागार्जुन से भेंट होना है जिसने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी! आज हिंदी-लेखक सर्व तन्त्र स्वतंत्र हैं! किसी संघ या संगठन में सचेतक या व्हिप जैसा कुछ नहीं है। महापूंजी प्रेरित मंच-माला-माइक के सम्मोहन में फंसे दिशाहीन बुद्धिजीवी केवल अपनी अंतरात्मा से नियंत्रित-संचालित हैं!
(तबादले में कुछ चित्र इधर-उधर हो गये। स्याह-सफेद फोटोज का आज भी एक अलग आकर्षण है। साहित्यिक समुदाय के फोटो लेने में छायाकार एस.अतिबल - वाराणसी बहुत सक्रिय रहे।उन्होंने फरवरी 1973 के बाँदा सम्मेलन और बनारस में अनेक यादगार फोटो खींचे। अब सब उन्हें भूल गये!-वाचस्पति।)
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पहली बार ऐतिहासिक रिपोर्ताज पढ़कर कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां भी मिलीं। खासकर जलेस वगैरह लेखक संगठनों के गठन की पृष्ठभूमि भी समझ में आई । आपके स्मृति कोष में बहुत कुछ मूल्यवान मौजूद ओ । उसका यों ही उपयोग करते रहेंगे, ऐसा विश्वास है। हार्दिक बधाई!
जवाब देंहटाएंयह एक ऐतिहासिक काम वाचस्पति जी ही कर सकते हैं।
जवाब देंहटाएंवाचस्पति जी का मौन यदा कदा मुखर होता है और होता है पूरे जोशोखरोश से ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस संपूर्ण धरोहर को बहुत ही व्यवस्थित ढंग से *मुक्ति चक्र* पत्रिका के वृहद विशेषांक में प्रकाशित करेंगे। इसके लिए एक दो बार आपसे मिलने के लिए बनारस भी आना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंवाचस्पति जी का यह आलेख विरासत का एक अनमोल दस्तावेज है. पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई और हार्दिक अभिनंदन 🙏
पूनम सिंह मुजफ्फरपुर, बिहार