धूमिल की लम्बी कविता मोचीराम






आज की एक बड़ी समस्या यह है कि हम अन्त तक समझ ही नहीं पाते हैं कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? वस्तुतः किसी भी व्यक्ति के जीवन जीने का एक उद्देश्य तो होना ही चाहिए। दूसरे पर दोषारोपण करना दुनिया का सबसे आसान काम होता है। दूसरी तरफ अपने आप को साबित करना सबसे कठिन होता है। अगर हम उदासीन या तटस्थ बने रहे तो आज जो दुनिया की स्थिति है, वह और बदतर होती जानी है। दिक्कत यह है कि हम आजीवन अपने संकीर्ण स्वार्थों से बाहर ही नहीं निकल पाते। अपने लाभ और स्वार्थों में कुछ इस कदर मशगूल रहते हैं कि अच्छे बुरे का विवेक तक नहीं कर पाते। इस क्रम में कवि धूमिल याद आते हैं जिन्होंने अपने अलग अंदाज, चुटीली भाषा और तीखे तेवरों से ध्यान आकृष्ट कराया था और समाज व्यवस्था पर करारा प्रहार किया था। हमने अपने पाठकों को कालजयी रचनाओं से परिचित कराने का एक क्रम शुरू किया है। इसी कड़ी में आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं धूमिल की चर्चित लम्बी कविता 'मोचीराम'।



मोचीराम


धूमिल


राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे

क्षण-भर टटोला

और फिर

जैसे पतियाए हुए स्वर में वह हँसते हुए बोला-

बाबूजी! सच कहूँ मेरी निगाह में

न कोई छोटा है।

न कोई बड़ा है

मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है

जो मेरे सामने

मरम्मत के लिए खड़ा है

और असल बात तो यह है-

कि वह चाहे जो है.

जैसा है, जहाँ कहीं है

आजकल

कोई आदमी जूते की नाप से

बाहर नहीं है

फिर भी मुझे ख्याल रहता है

कि पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच 

कहीं न कहीं एक अदद आदमी है।

जिस पर टाँके पड़ते हैं,

जो जूते से झाँकती हुई अंगुली की चोट छाती पर 

हथौड़े की तरह सहता हैं

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं 

और आदमी की अलग अलग 'नवैयत'

बतलाते हैं





सबकी अपनी अपनी शक्ल है

अपनी-अपनी शैल है

मसलन एक जूता है जूता क्या है-चकतियों की थैली है

इसे एक चेहरा पहनता है

जिसे चेचक ने चुग लिया है

उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है

जैसे 'टेलीफून' के खंभे पर

कोई पतंग फँसी है और खड़खड़ा रही है

'बाबूजी! इस पर पैसा

क्यों फूँकते हो ?'

मैं कहना चाहता हूँ

मगर मेरी आवाज लड़खड़ा रही है

मैं महसूस करता हूँ-भीतर से

एक आवाज आती है-'कैसे आदमी हो,

अपनी जाति पर थूकते हो।' 

आप यकीन करें, उस समय

मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ 

और पेशे में पड़े हुए आदमी को

बड़ी मुश्किल से निवाहता हूँ 

एक जूता और है जिससे पैर को

'नाँधकर एक आदमी निकलता है

सैर को

न वह अक्लमंद है

न वक्त का पाबंद है

उसकी आँखों में लालच है

हाथों में घड़ी है।

उसे कहीं जाना नहीं है।

बड़ी हड़बड़ी है 

वह कोई बनिया है

या बिसाती है

मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है 


"इसे बाँद्धो, उशे काट्टो, हियाँ ठोक्को, वहाँ पीट्टो 

घिश्श दो, अइशा चमकाओ, जुत्ते को ऐना बनाओ

....... ओफ्फ! बड़ी गर्मी है' रुमाल से हवा

करता है, मौसम के नाम पर बिसूरता है।

सड़क पर 'आतियों जातियों' को

बानर की तरह घूरता है

गरज यह कि घंटे भर खटवाता है

मगर नामा देते वक्त

साफ नट जाता है

'शरीफों को लूटते हो' वह गुर्राता है

और कुछ सिक्के फेंक कर

आगे बढ़ जाता है।

अचानक चिहुँक कर सड़क से उछलता है। 

और पटरी पर चढ़ जाता है

चोट जब पेशे पर पड़ती है

तो कहीं न कहीं एक चोर कील

दबी रह जाती है

जी मौका पा कर उभरती है.

और अंगुली में गड़ती है

मगर इसका मतलब यह नहीं है

कि मुझे कोई गलतफहमी है

मुझे हर वक्त यह ख्याल रहता है कि जूते

और पेशे के बीच

कहीं न कहीं एक अदद आदमी है

जिस पर टाँके पड़ते हैं।

जो जूते से झाँकती हुई अंगुल की चोट

छाती पर

हथौड़े की तरह सहता है.

और बाबूजी! असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे 

अगर सही तर्क नहीं है

तो रामनामी बेच कर या रण्डियों की

दलाली कर के रोजी कमाने में

कोई फर्क नहीं है

और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी

अपने पेशे से छूट कर 

भीड़ का रमकता हुआ हिस्सा बन जाता है।







सभी लोगों की तरह,

भाषा उसे काटती है

मौसम सताता है।

अब आप इस बसंत को ही लो, 

यह दिन को ताँत की तरह तानता है

पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजारों सुखतल्ले 

धूप में, सीझने के लिए

लटकाता है।

सच कहता हूँ--उस समय

राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना 

मुश्किल हो जाता है

आँख कहीं जाती है

हाथ कहीं जाता है

मन किसी झुंझलाए हुए बच्चे-सा 

काम पर आने से बार-बार इनकार करता है 

लगता है कि चमड़े की शराफत के पीछे

कोई जंगल है जो आदमी पर 

पेड़ से वार करता है

और यह चौंकने की नहीं, सोचने की बात है

मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है

जो असलियत और अनुभव के बीच 

खून के किसी कमजात मौके पर कायर है

वह बड़ी आसानी से कह सकता है

कि यार! तू मोची नहीं, शायर है.

असल में वह एक दिलचस्प गलतफहमी का शिकार है 

जो यह सोचता है कि पेशा एक जाति है और भाषा पर

आदमी का नहीं, किसी जाति का अधिकार है

जबकि असलियत यह है कि आग सबको जलाती है

सच्चाई सबसे हो कर गुजरती है कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं।

कुछ है जो अक्षरों के आगे अंधे हैं

वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं 

और पेट की आग से डरते हैं

जबकि मैं जानता हूँ कि 'इनकार से भरी हुई एक चीख' 

और 'एक समझदार चुप'

दोनों का मतलब एक है-

भविष्य गढ़ने में, 'चुप' और 'चीख'

अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से 

अपना-अपना फर्ज अदा करते हैं।


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