वाज़दा ख़ान के संग्रह पर यतीश कुमार की समीक्षा
ज़िंदगी में रंगों की अहम भूमिका होती है। बेरंग दुनिया कोई नहीं चाहता। ये रंग जीवन को कुछ अपनी तरह से ही गढ़ते हैं। ये रंग मनुष्य को मनुष्य बनाते हैं। हालांकि ये रंग कुदरती हैं लेकिन हम मनुष्यों ने इन्हें भी बांट दिया है। लेकिन रंग कहां मानने वाले। वे अपना काम अपनी तरह से करते रहते हैं। वाज़दा खान हमारे समय की ऐसी कवयित्री हैं जो शब्दों और तूलिका के बीच सहज आवाजाही करती रहती हैं। वाज़दा खान का हाल ही में एक नया कविता संग्रह 'खड़िया' नाम से आया है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है यतीश कुमार ने। यतीश कुमार एक कवि हैं और गद्य लिखते हुए भी उनका काव्यमय प्रवाह सहज ही दिखाई पड़ता है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं वाज़दा खान के कविता संग्रह 'खड़िया' पर यतीश कुमार की समीक्षा 'रंगों से एक लंबी बात-चीत का फ़लसफ़ा'।
समीक्षा
रंगों से एक लंबी बात-चीत का फ़लसफ़ा
यतीश कुमार
एक चित्र हजारों शब्द को बयां करता है और भावनाओं को प्रस्तुत करता है। किसी का हाथ साहित्य और कला दोनों ही विधाओं में बराबर सधा हो तो इसे विरल संयोग ही कहा जाएगा। कवि-चित्रकार वाज़दा को पढ़ते हुए ऐसा बार-बार लगता है जैसे रंगों से एक लंबी बात-चीत का फ़लसफ़ा टुकड़ों में दर्ज है। रंगों का दर्शन बोध, उसकी व्यापकता और आपकी जिंदगी में उसकी अहमियत सब कविता में रची-बसी मिलती है। स्याह अंधेरा को रंगीन स्याही में घोल वह कविता में उतारती हैं-
अंधेरे का अर्थ, लाल भी हो सकता है
जो हमारी देह की, अंधेरी शिराओं में
बहता है
बरतते हैं उसे जब हम
उजाले में
तब सही सही पहचान पाते हैं
सिलती ख़्वाहिशों के लिए चिंतित कवि, मन के सुरंग में झांकती हैं, उन्मुक्त आकाश में उड़ने को कहती हैं और क़ैद संवेदनाओं को छू कर आजाद कर देना चाहती है। वह कविताओं के ज़रिए उन कोटरों को खोज रही हैं जहां मन का कबूतर बेचैन चुप्पी ओढ़े लुढ़का पड़ा है। वाज़दा बेचैनियों को चैन देने और उन्हें आकाश देने की बात करती हैं।
‘खड़िया’ शीर्षक कविता की ये महज पाँच पंक्तियों कितनी व्यापकता समेटे है-
इक लम्बी काली रात
इक सुफेद उजला दिन
स्लेट, खड़िया
अक्षर लिखे जाने की रस्म
स्पर्श, मिटाए जाने का दर्द
कविता स्पर्शों की अभिव्यक्ति तो है ही पर यहाँ उनको मिटाए जाने की बेचैनी ज्यादा जाहिर हो रही है। रात और दिन के बीच आकाश पर सूरज क्या-क्या लिखता जाता है और उसके अक्षर बादलों के गीत गाते हैं। बारिश की बूँदे जब एक दाने का कंठ भरती है तब सुनाई पड़ता है सृजन का गीत। इन कविताओं में ऐसे ही सृजन के गीत हैं दो-दो घूँट!
कवि शुरुआत से ही जीने और अंधेरे से निकलने की बात दोहराते आ रही हैं। ‘जोखिम’ कविता में वह स्त्री रूपी मछली को थोड़ा सा जोखिम, थोड़ी सी छलांग लगाने को कहती हैं। कवि का आह्वान है- रेत की तड़पन, समस्याओं का ज़ख़ीरा तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, जो समुद्र के भंवर पर नृत्य कर सकती है उसे रेत से नहीं डरने का जोखिम उठाना चाहिए।
वाज़दा की कविताओं में बंदिशों को तोड़ने के लिए एक आग्रह है, एक सकारात्मक आदेश निहित है। बारहा यह छिपा संदेश गूंजता है-
पंछियों उड़ चलो उन्मुक्त गगन में
उम्मीद का सूरज बन गीत गाओ।
अंधेरे के बारे में बात करते हुए वह शोधपरक बन जाती हैं। कभी रंगों के तहों में रंगों की परछाई लिए अलग-अलग बिछते अंधेरे को रेखांकित करती हैं। कहती हैं-
‘सन्नाटा
ओढ़ा था
रात न
मैंने खामोशी
और तुमने अंधेरा’
यहाँ खामोशी और अंधेरा इन दोनों शब्दों को रात की छाया में मिला विस्तार आश्चर्यचकित करने वाला है।
इसी घनी रात के बीच निकलता है हर एक का अपना चाँद, जैसे समंदर का अपना और कलेजे का एक अपना चाँद। दरअसल ऐसा कुछ लिखते हुए वाज़दा फिर उदासी में उम्मीद का रूपक ढूँढती हैं जिसे कभी वो चाँद तो कभी आकाश तो कभी सूरज का उपमा देती रहती है।ऐसा करते या लिखते समय उनका ध्येय सिर्फ़ अलसायी सालती आत्मा को अमृत बूँद प्रदान करने का है। उनका वास्ता सिर्फ़ और सिर्फ़ सकारात्मकता भरने का है। हिम्मत और हौसले से दो कदम आगे चलने का है।
छोटी और प्रभावी कविताओं को रचने में उन्हें महारत हासिल है। जैसे इस छोटी सी कविता को देखिए।
सदियों से
प्रतीक्षारत
दर्पण के सामने खड़ी देह
एल
अब
तुम्हारे सामने
अमूर्त हो जाना चाहती है।
इस कविता के बाद ही रचती हैं कविता ‘अनजानी लकीर’। इस तरह की कुछ कविताओं में एक छुपन-छुपाई का खेल निहित है। ठीक वैसे जैसे अंधेरे-उजाले के बीच एक निर्वात है जहां प्रेम सबसे ज्यादा विस्तार पाता है, जैसे जीवन और अंत के पहले मानव सबसे बड़ा दार्शनिक बन जाता है, जैसे अज्ञेय का लिखा हो, क्षितिज और धरती के मिलने का सुख हो वहाँ! कविताएँ ऐसे भाव लिये आपके पास आती हैं। छोटी-छोटी कविता बड़ी-बड़ी बातें और उनके बीच सरगम टप-टप!
वाज़दा ख़ान |
कुछ कविताओं को पढ़ते हुए लगता है जैसे उनके भीतर का चित्रकार चीत्कार कर रहा है और अदेह, अदृश्य और अमूर्त हो जाना चाहता है। ठीक वैसे ही जैसे-जैसे चित्रों के पीछे के भाव करते हैं पूर्णतः अमूर्तता। कई बार तो यूँ लगा कि कोई कविता को माध्यम बना कर अपनी अमूर्त पेंटिंग को ही समझा रही हों। कवि इस संग्रह में इंद्रधनुष, आकाश, जिजीविषा, सुरंग, पंख जैसे कोमल शब्दों को बहुतप्यार से चुनती-पिरोती हैं, उन्हें नये रंग देती हैं।
‘जीवन में बहुत कुछ
होता है चुपचाप
मसलन प्यार
मसलन कैंसर
मसलन मृत्यु’
कम शब्द और दर्शन भरे मायने। वो मानवीय होने के बदलते प्रतिबिंबित मायने बताती हैं। इन कविताओं में वह मौन के रंग तलाशती दिखती हैं और रंगरेज की नज़र पहन लेती हैं। लगभग चिल्ला उठती हैं फिर चिहुँक जाती हैं, कहती हैं
उड़ो, उड़ान भरो आसमान में वर्जनाओं से मुक्त
सारे जमाने में
सुफ़ेद रंग से शुरुआत करो
हरे रंग से आबाद करो कायनात।
रुक-रुक कर हम्द और इश्क़ में ईश्वर से बातें करने लगती हैं और अमूर्त को मूर्त करने की चाहना से भरभरा जाती हैं।
वह प्रकृति को कभी पेंटिंग की तरह देखती है तो कभी पेंटिंग को प्रकृति की तरह। स्वामीनाथन की पेंटिंग से उड़ती चिड़िया कभी इनके काँधे पर बैठ जाती है तो कभी उसका मन उस चिड़िया के काँधे पर। इन सभी क्रम में जो एक बात खास है वह है रंगों से बतियाना। रंगों से खेलना और जीवन दर्शन के संदेश चुनना। वह कितना भी कविता गढ़ ले चित्रकार की दृष्टि उसे देखना नहीं भूलती। इसलिए वह भूल जाती है कि पर उसकी कविता नहीं भूलती कि वह दरअसल चित्रकार है जिसे भाव रचना आता है। उन्हें क्षितिज को ज़मीन पर उतारनाआता है और दर्शन भाव से भरकर रच डालती हैं-
जीवन का आकर्षण
मुग्ध करता हैं हमें और
हम जीवित
आसमान नहीं जा पाते
आसमान और ज़मीन को उकेरते हुए कभी भी प्रेम के दर्शन को नहीं भूलती और लिखती हैं कुछ अविरल पंक्तियाँ जैसे-
देह को देह से गूंथ कर
इक अनकही गाथा फुसफुसाना
अंतराल की लम्बाई को
कम करते हुए, चेहरे को
चेहरे से प्रदीप्त कर देना
चारों ओर चेहरे का ओज बढ़ाते हुए ऐसी पंक्तियों की लौ हमेशा जलती रहेगी। कविताओं में मानो वह प्रेम करते हुए प्रकृति की हर डाली को निहारती फिरती हैं। चाँद को पोखर के आग़ोश में डूबते हुए देखती हैं या चिड़ियों को अपने पेड़ से प्रेम करते। प्रेम के अनेक रूपों को स्वीकारती हैं और लिखती हैं-
पेड़ की फुनगी पर बैठी
नन्ही चिड़िया
तसल्ली की गाँठ को खोलती
बांधती रहीं बराबर
कई बार पढ़ते हुए लगा कवि बहुत चुप्पा व्यक्तित्व की होंगी। जिसे ज्यादा बोलने की आदत नहीं पर बहुत कहने की कामना है। उसने कूँची उठायी हों या कलम इसके पीछे की मंशा यही है कि उसे बहुत कुछ कहना है। वह देह की उन भाषाओं को रच देती हैं जिसे सिर्फ़ मौन समझता है।
वह लिखती हैं-
अपनी ही परिधि में वितान सी
तनी देह पर
देह के नर्म जज़्बात
उड़ा देना
अंतर्मन जैसे अब
किसी बात का मापदंड नहीं रह गया
तमाम भागती-दौड़ती ज़िंदगी के वृत्त चित्र के बीच छटपटाता कवि-मन कहता है छाँव की पहचान करने, सुकून की भाषा समझने, स्पर्श से चित्र गढ़ने और यूं इन बातों को समझाते-समझाते लिख देती है :
सुकून की बिंदी रखना
इक अलहदा सी रोशनी का एहसास देना उनमें
दृश्य अदृश्य
परा-अपरा के बीच
कहने को जो अत्यंत सूक्ष्म झीना
आवरण है
उसे और ज़्यादा स्पष्ट करना
मुझमें ही नहीं
मेरे आसपास की ज़मीन पर
हम पर ही नहीं, यूँ ही हमारे इर्द-गिर्द हमारी ज़मीन पर भी वाजदा की कविताओं की रौशनी बरसती रहे और यह कोमल कवि मन अनवरत प्रेम और दर्शन बोध के बीच टहलती रहें। आगामी यात्रा सुगम हो इस शुभकामनाओं के साथ कवि को इस संग्रह के लिए अनंत बधाइयां।
किताब- खड़िया (कविता संग्रह)
लेखक- - वाज़दा ख़ान
प्रकाशक- सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर
सम्पर्क
मोबाइल - 8777488959
I love your poetry like Kutchi love salt ...
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