रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण

 

रुचि बहुगुणा उनियाल



पहाड़ दूर से जितने आकर्षक दिखाई पड़ते हैं, उतना ही दूभर और कष्टकारी वहां का जीवन है। मैदानी इलाके से बिलकुल अलहदा होता है पहाड़ी जीवन। और जीवन अगर एक स्त्री का हो तो कठिनाई कई गुना और बढ़ जाती है। पहाड़ में स्त्री का जीवन एक कामगार की भांति ही होता है। दिन रात की अनथक मेहनत और संघर्ष और घर परिवार की उम्मीदों पर खरा उतरना यह पहाड़ी स्त्री के जिम्मे होता है।रुचि बहुगुणा उनियाल एक बेहतर कवयित्री हैं। उन्होंने अपने जीवन के कुछ पन्नों को संबंधों के आलोक में पलटने की कोशिश की है। इसे हम पहली बार पर श्रृंखलाबद्ध ढंग से प्रकाशित करने जा रहे हैं। हरेक महीने के तीसरे रविवार को रुचि का यह संस्मरण पहली बार पर प्रकाशित किया जाएगा। तो आइए आज पहली बार ब्लॉग पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'स्मृति विथिकाओं में वक्त वेवक्त'।



'स्मृति वीथिकाओं में वक़्त-बेवक़्त'



रुचि बहुगुणा उनियाल


आज बारिश बहुत तेज है, सर्दियों में इतनी तेज बारिश पहाड़ों में कभी नहीं सुनी/देखी गई। लगातार तीन दिनों से इंद्रदेव शिवालिक पर्वत श्रेणी के इस क्षेत्र पर अपनी कृपा बनाए हुए हैं। 


यहाँ मेरे दो घर हैं और मैं रहती हूँ पुराने घर में जो जंगल के पास है…….। बस घर की जो चाहरदीवारी है उससे लगा हुआ ही है जंगल और जैसा कि पहाड़ों पर होता ही है कि ढलवां जंगल के खत्म होते ही नीचे एक गाड बहती है। शहरी लोगों को तो ये गाड भी नदी सी लगती है। उन्हें कहाँ पता कि हम पहाड़ी लोग इन छोटी बरसाती नदियों को गाड कहते हैं और हमारे लिए सदानीरा गंगा और अन्य बारामासी नदियाँ ही नदियाँ हैं। तो इस गाड से लगातार तेज आवाज़ पानी की आ रही है और पानी वाष्पीकृत हो कर कोहरे की शक़्ल में लगातार ऊपर आकर पूरे शहर को अपने आगोश में ले रहा है। 

      

माँ आई हैं आज (मैं सासुमाँ को माँ ही बोलती हूँ), मेरे इस घर में सूर्य देवता गर्मियों में भी बड़ी मुश्किल से दर्शन देते हैं और ये तो फिर सर्दियाँ हैं तो सर्दी में धूप की गुनगुनाहट इस आँगन में कैसी होती है यह मैं तो क्या मेरा आँगन और फूल पत्तियाँ भी नहीं जानती। ऐसे में बुजुर्ग हड्डियां भला इतनी कड़ाके की ठंड कैसे सहेंगी? 

              

आज माँ आई नहीं हैं बल्कि बुलाई गई हैं। मैंने नवनीत जी को भेजा कि माँ को ले आएं….। आज उन्हें "हलेरा" बना कर खिलाती हूँ जरा (कड़ाही में घी गर्म कर के उसमें घी के बराबर मात्रा में ही आटा भून कर फिर जो हलवा तैयार होता है उसे "हलेरा" कहा जाता है। इसकी तासीर गर्म होती है और इसीलिए पहाड़ों में सर्दी के मौसम में इसे बहुत मन से बनाया /खाया जाता है)......। हालांकि इतनी ठंड में नवनीत जी दुकान से आ कर वापस बाहर ठंड में निकलना तो नहीं चाहते, लेकिन माँ को मैं कुछ खिलाना चाहती हूँ ये जान कर खुश हो गए और गाड़ी स्टार्ट करके उन्हें लेने चले गए हैं। 

                 

प्राप्ति अपनी दादी जी से बड़ा प्रेम करती हैं। उन्हें दादी के साथ बैठ कर गप्पें लगाना, और दादी की "छुंईं" सुनना  बड़ा पसंद है…….। दादी को भी "नातणी" का साथ पसंद है बल्कि ये कहूँ कि दादी आती ही इसलिए हैं कि प्राप्ति दादी-दादी करती रहती है तो ग़लत नहीं होगा। बुढ़ापे में मित्रता के पर्याय बदल जाते हैं, अक्सर बुजुर्ग बच्चों का साथ पसंद करते हैं। इसी बहाने वो अपने अंदर के बच्चे को मुक्त करते हैं और खुश होते हैं। 

                   

नवनीत जी माँ को ले कर घर आ गए हैं। जब भी मैं माँ की पसंद की कोई चीज़ बनाती हूँ तो उन्हें बुलाने की कोशिश करती हूँ, आज उन्हें बुलाने का कारण केवल "हलेरा" ही नहीं है बल्कि कल के बनाए अलसी के लड्डू भी हैं। अलसी बड़ी गुणकारी होती है, शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का काम करती है तो सर्दियों में इसका सेवन करने से खांसी-जुकाम नहीं होता और तासीर गर्म होने से सर्दी में ठंड भी नहीं लगती। 

                  

माँ आ कर सीधा रजाई में बैठ गई हैं। नवनीत जी ने रूम में ब्लोअर चला दिया है। बच्चे माँ के दोनों ओर बैठे हुए हैं और दादी खुश हैं अपने पोते-पोती के साथ। मैं राई के पत्तों की सब्जी और रोटी के साथ एक गिलास गर्म दूध उन्हें दे चुकी हूँ। प्राप्ति को भी हरी सब्जी पसंद है। मैंने उन्हें हरी सब्जी के फायदे भी बताए हैं तब से वो हरी सब्जी और भी चाव से खाती है। 

             

दोनों बच्चे भी दादी के साथ खाना खा रहे हैं। मैं गर्मागर्म रोटियां उन्हें दे रही हूँ। रोटी खा लेने के बाद मैंने तीनों को कटोरियों में "हलेरा" दिया। गर्मागर्म "हलेरा" बड़ा स्वादिष्ट होता है। प्राप्ति को ज्यादा पसंद नहीं है लेकिन प्रियम  मीठा बहुत पसंद करते हैं । 

           

दादी को "हलेरा" दिया तो एक चम्मच हलेरा मुँह में रखते ही क्या देखती हूँ कि उनकी आँखों में आँसू आ गए हैं। यह सब बच्चे न देख लें मैं माँ को हिला कर उन्हें आँसू पोछने का इशारा करती हूँ लेकिन प्राप्ति अपनी दादी के आँसू देख चुकी है। माँ जल्दी से आँसू पोछती हैं फिर हलेरा खाने लगती हैं। 


मैं रसोई में आ कर नवनीत जी को खाना देती हूँ। नवनीत जी के लिए मटर आलू की रसदार सब्जी भी बनाई है। उन्हें बिना रसदार सब्जी खाना खाने की आदत नहीं है। नवनीत जी के साथ खाना खाने के बाद मैं चौका समेटती हूँ। अब दादी के कमरे में उनके पास आ कर बैठ गई हूँ…..। मुझसे माँ अक्सर अपना सुख-दुःख-टेंशन साझा करती हैं। लेकिन आज मुझे जानना है कि आखिर ऐसा क्या है उनकी स्मृति वीथिकाओं में जो वक़्त-बेवक़्त आ कर उनकी आँखों में नमी छोड़ जाता है?          

             

मैं आ कर माँ के पास ही रजाई में बैठी हूँ। शायद माँ भी मेरा मन पढ़ चुकी हैं…..। इसीलिए उनकी नज़रें बार-बार दाएँ-बाएँ हो रही हैं। मैंने हल्के से उनके हाथ को अपनी हथेली में लिया और पूछा……. 

"माँ क्या हुआ? कुछ है तो कह दो आप। मन हल्का हो जाएगा आपका"! 

माँ की आँखें मेरे चेहरे पर आ कर ठहर चुकी हैं और उन बूढ़ी आँखों में दर्द का समंदर हिलोरे ले रहा है। थोड़ी देर तक शायद वो आँखों ही आँखों में मेरे सुपात्र-कुपात्र होने का विश्लेषण करती हैं कि क्या उनकी ब्वारी उनकी पीड़ा को सहेजने की सामर्थ्य रखती है या नहीं? फिर बड़ी भीगी आवाज़ में बोलना शुरू करती हैं……. 

" बाबा अब, जब पचदू नीं कुछ तब मिलणुं सब्बी धाणी, अर जब दिन था खाण का तबरी कुछु मनपसंदकू नी मिली" 

(अब जब कुछ पचता ही नहीं तब सब कुछ मिल रहा है और जब खाने के दिन थे तब कुछ भी मनपसंद का मिला ही नहीं)  

  



मैं माँ की तकलीफ़ समझ रही हूँ लेकिन मुझे तो शादी के बाद से यही पता है कि नवनीत जी के पिता जी नरेंद्र नगर में एक सुप्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं और यश के साथ साथ धन वैभव संपन्न भी रहे हैं फिर माँ ऐसा क्यों बोल रही हैं? शायद माँ मेरी दुविधा समझ गई हैं इसलिए वे बताना शुरू करती हैं…..।

          

जब उनका ब्याह नवनीत जी के पिता जी से हुआ था तब उनका परिवार टिहरी ज़िले के डोभ रामपुर में रहता था जहाँ से टिहरी का बाज़ार भी लगभग आधा दिन की पैदल दूरी पर था और पुराने पहाड़ी लोगों में बहू को केवल एक कामगार की तरह देखा जाता था तो फिर ब्याह के बाद उनका नरेंद्र नगर आने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। 


ऐसे में भी ब्याह के बाद ही तुरंत मेरे ससुर जी उन्हें वहाँ गांव में छोड़ कर नरेंद्र नगर आ गए जहाँ वो नौकरी भी करते थे और उनकी पैतृक दुकान भी थी। और वापस लौटे पूरे तीन साल बाद। पीछे अपनी नयी-नवेली दुल्हन के ऊपर पूरे घर की जिम्मेदारी छोड़ आए….. जिसमें उनके माता-पिता, एक छोटी बहन, और एक छोटा पांच साल का भाई था। ख़ैर… वक़्त बीतता गया और ये नयी बहू धीरे-धीरे तीन बच्चों की माँ भी बन गयी।

                           

अब चौथे बच्चे (स्वयं मेरे पति नवनीत जी) के जन्म का समय नजदीक है और पहाड़ों पर इस वक़्त धान की फसल की बुवाई/रोपणी, घास लकड़ी और भी ढेरों काम-काज में बहुएँ बुरी तरह घिरी होती हैं, इतनी ज्यादा कि हफ्तों तक बहुएँ बाल भी नहीं बना पातीं…..। ठीक से बिंदी लगाना और मांग भर कर चोटी गूँथना तो दिवास्वप्न सरीखी बात होती, तो फिर ऐसे में बच्चों की सुध-बुध भी नहीं होती। 

            

जून बीतने वाला है और जचगी का वक़्त सरकता हुआ पास चला आ रहा है लेकिन इस काम-काज के समय किसे ध्यान है कि तीन बच्चों की इस माँ को जिसके गर्भ में चौथी संतान है उसे खाने-पीने को भी कोई पूछे? माँ बताती हैं कि तेरे ससुर जी जब से गए तब से अब तक एक रैबार भी नहीं आया उन्हें देखना तो बड़ी दूर की बात थी। खर्चा-पानी आते-जाते दोस्त-पड़ोसियों के पास भिजवा देते लेकिन खुद नहीं आए…..। इन चौमासी दिनों में काम की मारामारी और घर में राशन पानी भी नहीं है। अब की बात होती तो मजाल है कि कोई गर्भवती बहू को ऐसे ही छोड़ कर चला जाए? अरे डॉ के मिले बिना एक भी चीज़ न दी जाए बहू को और खाने-पीने का कैसा तो खयाल रखा जाता है….। अरे मेरे ही दोनों बच्चे हुए जब कैसे तो नवनीत जी आगे-पीछे घूमते रहते थे कि कुछ खाने को मन हो तो कहो रुचा, माँ जब भी आती तो मेरा जो मन होता था लेकर आती मेरे लिए कि ब्वारी की इच्छा है ये खाने की। जब बिटिया होने वाली थी तो खूब चटपटा खाने की इच्छा होती थी तब माँ मेरे लिए चाट/गोल-गप्पे और भी न जाने कितनी ही चीजें लेकर आती थी……। अमरूद खाने की इच्छा हुई तो माँ ने मेरे लिए "हरीं मर्च कू पिस्यूँ लूण" बना लिया था कि रुचि को ये खाने का मन है। और जब बेटा होने वाला था तब तो इतना मीठा खाया था मैंने कि डर भी लग रहा था कि कहीं डायबिटीज़ न हो जाए……। तब भी माँ मेरे लिए रसगुल्ले/छेने की मिठाई/रसमलाई और भी न जाने क्या क्या लेकर आती थी। लेकिन इस गाँव की ब्वारी को ठीक से खाने-पीने को भी नहीं मिल रहा था और ऊपर से अगर कभी ग़लती से भी कोई शिकायत करने का खयाल भी आ जाए तो मैके में माँ तो थी ही नहीं, बचपन में ही चल बसी थी और अब सारा जिम्मा भाई-भाभी के ऊपर था जिनकी सख़्त हिदायत थी कि "सैसर से एक भी छुंईं तेरी आई या कोई भी शिकायत पहुँची तो हम तेरे लिए नहीं और तू हमारे लिए नहीं"। ऐसे में जुलाई के बरसते दिनों में इस गर्भवती ब्वारी की खैरी कौन सुनता? 


घर में पिसा हुआ आटा खत्म हो गया है और काम है कि निपटने का नाम ही नहीं ले रहा। रात के खाने के वक़्त बहू ने सास को कहा कि "आटा खत्म हो गया है, भोळ घट्वाड़ी (घराट की चक्की में जो गेहूं और अन्य अनाज पिसवाने ले जाए जाते थे उन्हें घट्वाड़ी कहा जाता है) जाना पड़ेगा।"

 

अब घट्वाड़ी जाने का मतलब है कि पूरा दिन लगेगा लेकिन जाना तो होगा क्योंकि जचगी भी होने वाली है और घर में तीन छोटे बच्चों के अलावा दो बड़ी महिलाएं भी हैं, लिहाजा नाज का बंदोबस्त तो करना ही होगा। सुबह तीन बजे उठने वाली बहू दिन भर काम की थकान से चूर होने के कारण आज पांच बजे जागी तो सास के तानों से सुबह का स्वागत हुआ….. 

"अगर जो खुद जाना होता तो सुबेर उठके ही कल्यौ बना लेती पर रांडमूंड सासु के लिए क्यों उठना था?" 

चाय भी नहीं बनी थी अब तक लिहाजा चाय बनाने के लिए बहू चूल्हा जलाती है….। चाय बना कर सास को देती है बच्चों को देती है। ससुर दूसरी बेटी के पैदा होने के सदमे में चल बसे थे और ननद का ब्याह हो गया था। एक देवर छोटा जिसे संतान की तरह पाला वो पढ़ने के लिए बड़े भाई के पास नरेंद्र नगर आ गया। 

"ए जी जाओ न आप, मैं घर का सब काम भी करूंगी और बच्चों को भी देख लूंगी" 

पर सासु के ताने हैं कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहे। 

       




आखिरकार बहू ने सोचा कि ज़िन्दगी भर ताने सुनने से तो अच्छा है कि खुद ही घट्वाड़ी चली जाऊँ……। कुछ भविष्य की सोच और कुछ गुस्से में बहू ने चाय भी पूरी नहीं पी आधा प्याला चाय पी कर ही उठ गई और जो घट्वाड़ी रात तैयार करके रखा था उसे उठा कर चल पड़ी, घर में तीन छोटे बच्चे भी हैं लेकिन ब्वारी ने पलट कर अपने दिल के टुकड़ों की ओर तक नहीं देखा बस चल पड़ी! 


पूरे समय का गर्भ और खड़ी चढ़ाई पर सिर में इतना बोझ……… जुलाई के इस महीने में बारिश होती है लेकिन आज खरंक घाम लगा हुआ है……। थकान के मारे एक कदम भी उठा पाना एक युद्ध जीतने जैसा है और गला इस गर्मी में प्यास से आतुर हो उठा है।      

          

बड़ी मुश्किल से घट्वाड़ी ले कर पहुँची है ब्वारी लेकिन अब उसे पीड़ा उठ गई है और इस मर्मांतक पीड़ा से तड़पती ब्वारी ने अपना घट्वाड़ी लगा कर उस के पास ही बैठने की कोशिश की। लेकिन हालत इतनी खराब हो गई है कि वो बैठ भी नहीं पा रही इसलिए घट्वाड़ी के बगल में ही लेट सी गई है। असल में ये पीड़ा जचगी की नहीं बल्कि खाली पेट की है जो इस हालत में बड़ी तेज महसूस हो रही है…..। जो ब्वारी सिराईं के सेरों का बासमती खा कर बड़ी हुई थी, जिसने कभी भी घास के लिए जंगल नहीं देखा था और जिसके पति के पास पर्याप्त साधन थे वो इस पहाड़ी गांव में इस वक़्त नौ महीने की गर्भावस्था में खाली पेट घट्वाड़ी आई थी दर्द तो होना ही था…..। पीड़ा की अधिकता ने लाज को किनारे कर दिया था और वो घट्वाड़ी के बगल में ही लेट गई थी। जब पीड़ा असहनीय होने लगी तो उसने सोचा कि अब मरना तो है ही क्या करूँ भूख भी लग रही है इसलिए ये आटा ही खाती हूँ………। बहू पीस कर आते आटे को ले कर धीरे-धीरे खाने लगी! कुछ देर में वहां एक और ब्वारी आती है जिसका मैत सिराईं ही है लेकिन ये ब्वारी राजपूतों की है।                       


पहाड़ी औरतें साड़ी को कमर पर कसके बांध लेती हैं और सिर पर एक कपड़ा रखती हैं जिसे ठांटा बोला जाता है। ब्लाउज के ऊपर से एक जैकेट जिसे सदरी कहा जाता है वो पहनती हैं, उसमें छोटी-छोटी जेबें होती हैं। इस नयी घट्वारन ने अपनी मैत के बामणों की नौनी देखी तो उसका दिल पसीज गया………….। 


"कनु परलोक बिगड़ी तै सत्या चाचा कू, हे सिराईं की बेटी का ये कुहाल" 

(सत्या चाचा का परलोक कैसा बिगड़ा, सिराईं की बेटी की ऐसी दुर्दशा) 




 

उसके पास सदरी और चदरी में "उम्मी" रखे हैं (अधपके गेहूं को भून कर तैयार किया जाता है जिसे पहाड़ी लोग बड़े चाव से खाते हैं) जो उसने निकाल कर अपनी मैती बामणी को दे दी, उसकी सदरी की जेबों में भर दी! साथ ही उसने अपनी मैती का घट्वाड़ी भी बटोल के कट्टे में भर दिया। खाली पेट की पीड़ा "उम्मी" और उस सूखे आटे से थम सी गई तो फिर ये तीन बच्चों की माँ ने हिम्मत की और उठ कर पास के धारे में छमोटा लगा के जीभर पानी पी लिया। 

       

जिस घट्वारन ने "उम्मी" दिए थे उसी ने घट्वाड़ी उठा कर सिर पर रखवा दिया। 

रास्ते में अब उतराई थी और घर में छोड़े तीनों बच्चों की मुखड़ी आँखों में तैर रही थी तो ब्वारी सरासर चलने लगी। रास्ते में जहाँ भी भूख लगती तो उम्मी खाती जाती लेकिन जो स्वाद उस सूखे आटे में आया था उसका कोई मुकाबला नहीं था।

      

वक़्त बीतता है उसकी यही पहचान है आज माँ को हलेरा खिलाया तो उन्हें निःसंदेह तृप्ति मिली लेकिन वो सूखे आटे का स्वाद छप्पन भोग पर भारी है, कुछ यादें ऐसी होती हैं जो इंसान के पूरे जीवन में उसका साथ नहीं छोड़ती। बेटा, जिसके जन्म के समय की ये याद है वो माँ को एक कदम भी पैदल नहीं चलने देता, भरापूरा परिवार है……. नाती-पोते हैं, मनपसंद और मनभर के खाने की आजादी है लेकिन कुछ यादें , इन सब पर भारी पड़ जाती हैं और माँ की आँखें भीग जाती हैं! 

    

"ममा…….. ममा!, देखो न ये मुझसे लड़ रहा है और मेरे बाल खींच रहा है"! 


प्राप्ति की आवाज़ सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई और मुझे उस स्मृति के गलियारे से न चाहते हुए भी बाहर आना पड़ा और माँ दोनों बच्चों की आवाज़ सुनकर मुझे बच्चों के पास जाने को कहती हैं और अपनी आंखें पोंछती हैं!


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. कमाल का संस्मरण है

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    1. आभार आपका,
      रुचि बहुगुणा उनियाल

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  2. बहुत मार्मिक है। रुचि! मेरा हलेरा पर मन अटक गया।

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    1. आभार आपका, अपना नाम भी लिखते तो मुझे समझ आता कि आप कौन हैं।
      रुचि बहुगुणा उनियाल

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  3. बहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी... संस्मरण

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    1. आभार आपका,
      रुचि बहुगुणा उनियाल

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  4. सुन्दर संस्मरण.

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    1. आभार आपका,
      रुचि बहुगुणा उनियाल

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