भरत प्रसाद की कविताएं
भरत प्रसाद |
मां और पिता ये दो ऐसे प्रीतिकर शब्द हैं जिनसे दुनिया का कोई भी नवजात पहले पहल परिचित होता है। ये केवल शब्द भर नहीं, जीवन हैं। इनमें जीवन की वह ऊष्मा भरी होती है, जिसका सहारा लेकर पूरी उम्र बिताई जा सकती है। मां धरती सरीखी तो पिता आसमान जैसे होते हैं। एक अजीब विडंबना है कि मां पिता के रहते हम इन संबंधों का वह अहसास नहीं कर पाते, जो उनको खोने के बाद करते हैं। हालांकि सभी संतानों की स्मृतियों में मां, पिता हमेशा हमेशा जीवन्त रहते हैं। दुनिया का शायद ही ऐसा कोई कवि हो, जिसने पिता पर कविताएं न लिखी हों। कविताएं आज भी लगातार लिखी जा रही हैं। भरत प्रसाद हमारे समय के चर्चित कवि हैं। पिता पर कुछ बेहतर कविताएं भरत प्रसाद ने इधर लिखी हैं। आज इनका जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से कवि को जन्मदिन की अशेष बधाईयां। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं भरत प्रसाद की कविताएं।
भरत प्रसाद की कविताएं
अनगढ़ मैदान थे पिता!
पिता का सांवला बदन
अनगढ़ मैदान था
उपजाऊ किन्तु उबड़-खाबड़
अटपटे नंगे पैर
मानो धरती की मोहमाया में धंसे हुए
अंग-अंग पर उभरी हुई नसें
जड़ों की तरह फैली थीं
परिवार को रक्त से सींचने के लिए।
कद की गहराई बूझ पाना
उनकी आत्मा में उतरे बगैर
असंभव था।
पिता के शरीर से अद्भुत गंध झरती थी
जो दरख्तों की छाल में होती है
जंगली झरने के पानी में
या फिर पकी हुई फसलों की सोंधी माटी में।
जीते जी जान ही न सका
पिता कितनी सीधी राह थे
पिता को खो कर
रोज-रोज पाता हूँ भीतर
पिता के नये-नये अर्थ।
अंधकार से लड़ते दीया में
हरी से पीली होती फसलों में
विदा करने के बाद
बेआवाज़ बेहिसाब रुलाई में
सूखे तालाब की फटी बिवाइयों में
भोर आने के ठीक पहले
आकाश के जगाव में
चिरई-चुरुंग की उड़ानों में भी
पा ही लेता हूँ
पिता होने का पता।।
नवंबर, 2022 ई.
कैसे कहूँ कि तुम कहीं नहीं हो!
जिन राहों पर पड़े तुम्हारे पैरों के निशान
अमिट हो गये वे
मेरे हृदय के प्रांतर में
बही जो हवाएं तुम्हारे पसीने को छू कर
बस चुकी हैं फेफड़ों में
जीने की शर्त बन कर।
कैसे कहूँ कि तुम कहीं नहीं हो
फसलों की झूम में अमर है तुम्हारा परिश्रम
अन्न अन्न की चमक में
जैसे झांकती हैं तुम्हारी आंखें
तुमसे मिले हुए हाथों
जब छूता हूँ अपना शरीर
सिहरन भर जाती है
तुम्हारे जीवित रहने की।
तुम्हारा वैरागी मौन
हमारी वाणी की नि:शब्द शर्त है
तुम्हारे संघर्ष की आदत
हमारे कदमों से कहाँ छूट पायी?
तुम्हारी वाणी से फूटे शब्द
अभौतिक गंध की तरह
घुलमिल गये हैं हमारी सोच में।
जैसे मिट्टी में छिपी है अमरता
जैसे खून में बहता है सूरज
जैसे आंखों में बसी होती है
कोई आखिरी आशा।
पिता! तुम्हारी मृत्यु
तुम्हारी मौजूदगी को
हमसे छीन ही नहीं सकती।।
नवम्बर - 2022
धूरिहा पांवों की मानुष गंध
तुम्हारे दरख्ती कद की छाया
मेरे शरीर में फैली है आज तक
नाकामयाब रहा बेतरह
तुम्हारे पितापन का राग जानने में
तुम्हारी आंखों में लबालब दरिया के आगे
अपने हृदय की पराजय घोषित करता हूँ
तुम्हारे मिट्टीदार शरीर की तुलना
जीवन में धंसी हुई किस नींव से करूँ?
हूबहू मिलती-जुलती थी
तुम्हारी वाणी की मिठास
पछुआ हवाओं में बजती फसलों से
तुम्हारे मौन की इंसानियत
समुद्री उदारता को भी मात देती है
यकीनन एहसास है
क्या तुम ज्यादा-ज्यादा मां
और थोड़ा-थोड़ा पिता बन कर नहीं जीए?
तुम्हारे धुरिहा पांवों की सोंधी गंध
धरती के खिले रहने की आहट है
जमीन पर तुम्हारा चलना
चुनौतियों की डोरी पर चलने से ज्यादा
चमत्कारी था!
चोट खाए हुए आंसुओं की एक-एक पीड़ा
हमारी रत्ती-रत्ती खुशियों की
अनकही पटकथा है।।
दिसम्बर - 2020
पिता का पुनर्जन्म
मौन वाणी का विराम नहीं
खुद को छिपा लेने का आश्रय था
पिता के लिए।
अक्सर कहीं खोए रहने
दम-पर-दम निगाहें जमीन में छिपा लेने
पेड़ की ऊंचाई की तरह
सिर को झुकाए रखने
हमेशा थिर हो कर चलने में
जाहिर हो जाते थे पिता।
पीठ धूसर पठार जैसा भूखंड थी
तपी हुई ढाल के मानिंद
चुनौतियों से पीठ न दिखाना
हमने पिता की पीठ से सीखा।
पेट का पीठ से रहस्यमय रिश्ता था
आदतन थमे हुए आंसुओं का चेहरा थे पिता
जुबान ने कभी साथ नहीं दिया
उमड़ती, घुमड़ती घटाओं जैसी
लबालब भावुकता का
सोते क्या जागते
क्षण भर के लिए बिसुर गये हों
ऐसा कभी हुआ ही नहीं।
बीतते हुए जीवन में
बहुत जीवित होने लगे हैं पिता
धुंधली पड़ती आंखों में
रंग खोते शरीर में
ललाट पर स्थायी सिकुड़नों में
पिता बनकर चुप रहने की
अपनी बेबसी में
हर क्षण देखता हूँ पिता का चेहरा।
हमारे तन्हा एकांत में
पहले से ज्यादा आश्चर्यजनक
पहले से ज्यादा असीम
पहले से ज्यादा जीवित
पहले से ज्यादा छायादार
पहले से कई गुना पिता
लगने लगे हैं पिता।।
अक्टूबर, 2022
पिता को मुखाग्नि
वह सबसे दुश्मन रात थी
जब विदा हुए पिता जीवन से
बिछी छाया की तरह पड़ा हुआ शरीर
पुकार रहा था, हर किसी की नियति
सबसे चोटदार था माई का रोना
जैसा पहले कभी नहीं रोई।
अर्थी क्या उठी
उठ गया उंचाईयों भरा आसमान
जो त्याग बन कर बरसता रहा।
बैरी मरजाद ने जकड़ लिए माई के पैर
घाट पर रोने से,
घरीघंट पर पड़ती चोट, घाव बन कर
आत्मा में अमिट है
आह जैसी नस-नस में गूंजती हुई।
उस दिन पृथ्वी ने छोड़ दिया था
पैरों का साथ,
दिशाएं गायब थीं, निगाहों से
भरे दिन घुप्प अंधेरा भर गया।
माई भी पूरी मां कहाँ रह गयी?
पति को खो कर।
बीतते शरीर के साथ
सांसों का हिस्सा बन गया
पिता खोने का अभाव।
जीवन-मृत्यु के अंतहीन युद्ध में
न होना जीत गया होने पर,
चिता की आग ने चेतावनी दी
जो आज भी चौंक भरती है
यूं ही जीते चले जाने पर।
मुखाग्नि देते ही
अनुभूतियों में निराकार हो गया
पिता का साकार होना,
जो महकते ऋण की तरह
जमा हो चुका है-मृत्यु के क्षण तक।
जीवन के कटघरे में खड़ा
कुबूल करता हूँ
पिता खोने में अपना भी अपराध
पिताहीन हो कर ही जान पाया
पिता किस अबूझ गहराई का आश्चर्य थे
हमारे वजूद में धंसे हुए।।
नवम्बर -2022
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल - 9774125265
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