चंद्रकला त्रिपाठी की समीक्षा पूंजी समय की बर्बर भूमिका का दृश्य और अदृश्य : कीर्तिगान

 



चन्दन पाण्डेय हमारे समय के चर्चित कथाकार उपन्यासकार हैं। चन्दन का हाल ही में राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से एक नया उपन्यास 'कीर्तिगान' प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में चन्दन ने इस समय की अमानवीयता को सलीके से रेखांकित किया है। वस्तुतः हमारा यह समय एक विचित्र समय है जिसमें भोला भाला, उदार और धार्मिक दिखने वाला विकट हत्यारा हो सकता है। पूंजी का चरित्र ही कुछ इस तरह का होता है जिसे धर्म अपना सम्बल प्रदान करता है। पूंजी समय तमाम खेल ऐसे खेलता है जिसमें उसकी अदृश्य भूमिकाएं हुआ करती हैं। इस उपन्यास की समीक्षा लिखी है कवि आलोचक चन्द्रकला त्रिपाठी ने। इस समीक्षा को हमने पाखी के हालिया अंक से साभार लिया है। आइए आज पहली बार पढ़ते हैं चन्द्रकला त्रिपाठी का समीक्षात्मक आलेख 'पूंजी समय की बर्बर भूमिका का दृश्य और अदृश्य : कीर्तिगान'।



पूंजी समय की बर्बर भूमिका का दृश्य और अदृश्य  : कीर्तिगान 



चंद्रकला त्रिपाठी



 
'न्याय और अन्याय में वर्तनी भर का फर्क रह गया है। अन्याय आपको एक झटके में खत्म कर सकता है और न्याय क्यों कि वह प्रिविलेज्ड है इसलिए, आपको जिबह करता है, धीरे धीरे मारता है' 
 

(कीर्तिगान)


'कीर्तिगान' शीर्षक से आया चंदन पांडेय का यह उपन्यास 'वैधानिक गल्प ' के जोड़ या विस्तार में आया दूसरा उपन्यास है। लेखक ने निपट उजागर वर्तमान समय के जटिल यथार्थ को उधेड़ने का सिलसिला बनाया है और कहना चाहिए उसके फोकस में हमारे इस समय की आपराधिक  राजनीति का यथार्थ है। यहां आई कथा ने भीड़ द्वारा राजनीतिक हत्याओं की सच्ची खबरें चुनी हैं मगर उन्हें खबर की रुटीन से बाहर खींच वहां रख दिया है जहां से उनके गहरे त्रासदाई असर का रुप है।  इन खबरों से लग कर चली आई ज़िंदगियों में समय और समाज की भयानकताओं का उघड़ जाना तो है ही साथ ही इस समूची अमानुषिकता और पतन की टोह भी है। 'कीर्तिगान' शीर्षक इस उपन्यास में पाठकों की मुलाकात कई असली हत्यारों से हुई है और एक बहुत गहरी पहचान उस सिस्टम से हुई है जो इन हत्यारों को पालता है तथा इनके संरक्षण के लिए सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमज़ोर कर देता है। दिखाई देता है कि पुलिस कानून और अन्य सभी लोकतांत्रिक हिस्से पंगु नहीं हुए हैं बल्कि अमानुषिक हुए हैं। एक भयानक डिह्यूमनाइज़्ड परिवेश फटा पड़ा है जिसमें सुनियोजित हत्याएं हैं और उन्हें देखने वाले, भीड़ की तरह जुट कर देखने वाले तमाम तमाम लोग हैं जो अपने अपने घरों में लौट कर वैसे ही पारिवारिक होते होंगे कि उनकी गोद में उनका शिशु निश्चिंत हुआ सो जाए। यह दारुण है और इसके भयानक असर को ज़रुरी लेखकीय अलिप्तता से कहने के लिए एक किरदार अपने दो भारी पाटों के बीच पिसता दरकता रचा गया है, तथा इस जूझने में दरकता हुआ जिसका स्नायु तंत्र जवाब दे गया है। वह है सनोज। कीर्तिगान नामक अख़बार का वह पत्रकार जिसके पास अपनी एक भटकन और गहरी तकलीफ पहले से है। भग्न दांपत्य उसका कठिन दुःख नहीं है बल्कि उससे बिछुड़े हुए उसके दोनों बच्चे उस खाई, त्रास और रिक्तता को  बता  गए हैं जहां मानवीय कोमलता के सांस लेने की जगह थी।


  
इसमें ही गुंजाइश थी कि उसके मजबूत और जुझारु रहने का संबल भी बचा रह जाता। 
   

यह वही नीच ट्रेजेडी है जिसमें साबुत बचना बहुत ही मुश्किल है।इस उपन्यास में इस नीच ट्रेजेडी का भीतर और बाहर अपनी जटिलता समेत उद्घाटित है। अनायास नहीं है कि इस उपन्यास में मुक्तिबोध की कविताओं से दो कोटेशन आए हैं। कुछ इस तरह -
पहला है कि - 

'मेरे रक्त भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं'

और दूसरा - 

'सुन रहा हूं मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रेजडी


हां तो यह वही ट्रेजडी है जो मनुष्य को ही नहीं मनुष्यता को भी घेर कर मार रही है। जिसे घेर कर मार रही है उसमें एक प्रातिनिधिक किरदार सनोज भी है जिसकी मानवीय जवाबदेही की तीखी नोकें उसे ही लहूलुहान कर रही हैं, देखा जाए तो वह सबसे अधिक घायल है मगर सुनंदा भी कम घायल नहीं है। उसके हिए में भी अपने भाई की ऐसी ही सुनियोजित हत्या का नासूर है और उसके बांग्लादेशी होने का जब तब प्रकट हो जाता वह अभियोग भी जिससे बचना मुश्किल है। सुनंदा भी गहरी तकलीफ में है। उसके दुखों में एक दुख सामान्य रुप रंग वाली ऐसी स्त्री होना भी है जिसकी खासियत प्रतिभा और काम के जरिए भी साबित नहीं हो सकती। ऐसी कितनी ही जटिलताएं हैं विसंगतियां और दुश्वारियां हैं जिनका गहरा अर्थ ले कर यह कथा चली है। इन दो किरदारों में मनुष्य रुप में बचे रहने का अक्सर निरीह पड़ता सा संघर्ष है मगर ऐसा संघर्ष शाइस्ता परवीन का नहीं है। न ही हत्यारी व्यवस्था के मुकाबले में जी जान से जुटते उन स्त्री पुरुषों का है जो निहत्थे ही न्याय की लड़ाई में आमादा हैं। सब कुछ दांव पर लगा कर वे अपने हक में उठते हैं। कथा में ये चरित्र रोशनी का वह हिस्सा बन कर आते हैं जो सुविधाभोग में गर्क बाकी जमातों के लिए तो आईना है और सनोज के लिए और तीखी होती गई यातना। यहीं वह भीतर बाहर के नष्टकारी दबाव में लंबा चला जाता है। हो सकता है कि पाठकों और आलोचकों के हाथ यह सरल निष्कर्ष लग जाए कि वह दरअसल अपने संघर्ष या आत्मसंघर्ष की प्रखर नैतिक शक्ति बनने वाली उस बुनियाद से टूटा हुआ है जिसे परिवार कहते हैं। जिसमें शाइस्ता परवीन जैसे वंचितों के लिए भावनात्मक और ज़िद्दी सहारे बचे हुए हैं। यह इसलिए भी लग सकता है कि सनोज कई बार परिवार से टूटने के अपने अभाव को बड़े दुःख की तरह कहता है और याद करता है। बहुत संभव है कि यह धारणा अवधारणा उपन्यास की निष्पत्तियों में हल्के गहरे रुपों में मौजूद हो मगर इसे ठीक ठीक विश्लेषित करने की बात बड़ी है और उसे भी खंडित ढ़ंग से नहीं समझा जा सकता।



इसके अलावा उस तंत्र में  गर्क तिरोहित से बाकी बचे लोगों में वे सभी हैं जो अपने लिए मनुष्यता की ओर से जारी ज़िरह पर ज़माने भर का मलबा फेंक चुके हैं। जिनके लिए अन्तरात्मा का कोई झमेला बचा नहीं है। जो शासक दल के बैंड बाजा के वे वादक हैं जो मुक्तिबोध की कविता में आए उस रहस्यमय अंधेरे से निकल कर दिन-दहाड़े नफरतों और हत्याओं के खेल में अपनी कहने, चुप रहने या झूठ फैलाने की भूमिकाएं चुन चुके हैं।


बुद्धिजीवी अब निर्वाक या चुप नहीं हैं बल्कि उनके पास अब एक चालाक भाषा है कि जिसमें कांख भी ढकी रह सकती है और मुट्ठी तनी हुई लहर सकती हैं। वे अपने लोभ और लाभ के लिए चौकन्ने हैं। नरक में रहने का उनका अभ्यास मजबूत हो रहा है। इसमें ही वे रजनीश सुकुल हैं। जिनके पास ऐसे छ अपने हैं जिनमें सातवां सनोज हुआ करता था मगर अब वह नहीं है। वह जहां है वहां इस रजनीश के सामूहिक तिरस्कार और बहिष्कार के निशाने पर है। जिस घेराव को समझना जरुरी है उसका एक रुप यह भी है।


इसी के भीतर हत्या को सामान्य मृत्यु बना देने वाला डॉक्टर है, वकील है, और हत्यारों के कई कई मददगार हैं। सबकी ताक़त बनी वह व्यवस्था है जो स्वयं कारपोरेट के मुनाफे की बिचौलिया है। यहीं राजबली जी हैं। वे ऐसी स्थिति को अवसर की तरह भुना लेने की दौड़ के सबसे शातिर किरदार हैं। सनोज की दशा और दुर्दशा के सबसे नज़दीक ये ही हैं जिनके पहियों के नीचे कुचले जाने से बचना संभव नहीं है।


यह सब कुछ एक अमानुषिक षड्यंत्र की तरह है। बल्कि यह ऐसे कई षडयंत्रों का ऐसा प्रातिनिधिक चेहरा है जिसने अन्याय से जूझने वाले मनुष्य को अकेला और निहत्था किया है। इस तरह से यह एक कठिन अपराध कथा की तरह ही है। वैधानिक गल्प की अगली कड़ी ही है यह।








तो चलिए अब उपन्यास में प्रतिफलित हुए इस अर्थ से मिलते हैं। उपन्यास पढ़ेंगे तो वहां आपको अलग तरतीब मिलेगी मगर यहां तो सब कुछ की जहां तक संभव हो एक थाह ले लेनी है। तो हमारा आरंभ है सनोज।

अंत भी सनोज ही है।

कथा का अंत। उस यथार्थ का नहीं  न ही उस निरंतरता का ही जिसमें कई सनोज  हैं और उसके जैसे हश्र भी कई ही हैं जिन्हें यह अंधेरा उगल रहा है। 


सनोज अकेला नहीं है। उसे देखते और पढ़ते हुए हम उन बुनियादी संरचनाओं में मौजूद सत्ताओं के रिफ्लेक्शन्स देख सकते हैं जिसे परिवार, संबंध, और दूर नज़दीक का परिवेश कहते हैं। गांव समाज के खेती किसानी वाले संयुक्त परिवारों की संरचना में भी एक तिरस्कृत हाशिया हुआ करता है। वही जिसके लिए अगर बेटा, बेटी, दामाद में कोई नौकरिहा कोई चार पैसे कमाने वाला सफल आदमी नहीं हुआ करता कि जिसके चलते उस विपन्न आश्रित पिता के पांव नंगे न रह जाएं। वह स्वाभिमान के लिए सपने में भी न सोच सके और कोई भी उसकी कैसी भी दुर्दशा कर जाए, कि जरुरत पड़ने पर अपने लखैरे फेलिहर बेटे को खींच कर मारने के लिए जूता भी उसे संपन्न भाई के पैर का देखना पड़े।



ऐसी ही कुछ अजब ग़ज़ब तफसीलें हैं उपन्यास में जो दरअसल सनोज के जीवन से जुड़ी हैं। सनोज सुनंदा और कई कई पत्रकार 'कीर्तिगान' जैसे अखबार की नौकरी में हैं जिसके पास काम की स्टोरीज वाली परियोजनाएं चलती रहती हैं। यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का एक कामयाब प्रतिष्ठान है जो कारपोरेट के ही विधि विधान में है और जिसके पास तंत्र से मिलने और दूरी बनाने का अपना शक्ति समन्वय है। राजबली जी इसके संपादक हैं। पैनी तेज़ नज़र से वे भीड़ हत्याओं पर जो रपट बनवा रहे हैं उसमें उनकी दूरदृष्टि का अपना सौदा मसौदा है।


सनोज और सुनंदा मॉब लिंचिंग का आंकड़ा जमा करने के काम पर लगाए गए थे। इसमें उससे जुड़े सारे आंकड़े और तथ्य जुटाए जा रहे थे। दोनों पत्रकार उन जगहों की यात्रा कर रहे थे, लोगों से मिल रहे थे। उन घटनाओं से संलिप्त सारे पक्षों को खंगाल रहे थे। जब वे ऐसा कर रहे थे तब सनोज के लिए वे सारी हत्याएं हत्यारों समेत उसकी नसों में प्रवेश कर जाने वाली सच्चाइयां बनती जा रही थीं। इस यथार्थ का सामना करने वाली उसकी कूबत घटती जा रही थी और वह निस्सहायता बढ़ती जा रही थी जिसने अंततः उसे दु:स्वप्नों से ढ़ंक दिया। उसके लिए शाइस्ता परवीन जैसी तबरेज की बेवा और सुनंदा के अलावा अपने दोनों बेटों के बीच से सत्य और भ्रम का अंतर मिटता चला गया।


यह शुरु जहां हुआ है वहां सनोज के स्वगत से उठ कर यह वाक्य आया है कि 'दफ्तर में मेरे बुरे दिन चल रहे थे।'


सनोज कोई क्लासिक आदर्शवादी चरित्र नहीं है। बहुत साधारण सा बंदा है। पढ़ाई लिखाई में सामान्य रहा आया वह ढेर सारी मेहनत से कामयाब होने की महत्वाकांक्षा और घिसाई से भी खाली है। उसके निष्फल दांपत्य की अनेक गुत्थियों के आभास से उपन्यास में आए हैं। वहां भी सफल होने का बूता उसमें नहीं है। उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खामी उसका व्यवस्था में खप जाने लायक न होना है। हो सकता है कुछ लोग उसे स्त्री के प्रति कमज़ोरी वाले उसके आत्मस्वीकार वाले पक्ष से परिभाषित करें मगर कहीं गहरे वह भय और आतंक से घिरा हुआ प्राणी है। घनघोर असुरक्षा भावना मनुष्य के खंडित कमज़ोर व्यक्तित्व का सबसे बड़ा कारण हुआ करती है।






तो यह जो हमारा समय है, जिसमें सांप्रदायिक घृणा और हत्याओं की राजनीति जारी है उसमें बची खुची नैतिकताओं और मनुष्यता में बचे लोगों का मनोरोगी हो कर खत्म हो जाना ही बचा है। इसलिए कि किसी सच्चे संघर्ष की शक्ति बनने वाली सामाजिकता क्षीण है। नस्ल, रंग, लिंग, भाषा और न जाने कितने मिथ्या आधार पनपते जा रहे हैं जो दुनिया में घातक बंटवारे चला रहे हैं। यह समूची दुनिया में है और हर जगह इतनी ही भयानक घृणा के साथ है। बहुराष्ट्रीय पूंजी अपने मुनाफे के लिए मनुष्य को इस नफरती कारोबार में शामिल कर चुकी है।


यही है जो आखेटक है।


इस जाल को चूहा हो कर कुतरा नहीं जा सकता।


यह वह परिदृश्य है जो सनोज का हश्र लिख रहा है।


सनोज को जो हुआ है उसे स्कीज़ोफ्रेनिया कहते हैं। इसके मूल में व्यक्तित्व का खंड खंड हो उठना।


कथा का क्राफ्ट स्वगत कथनों की राह से चला है। इसमें सनोज और सुनंदा हैं। उनके बीच अनिश्चय में झूलता एक प्रेम भी है और उसमें भी वे तमाम धुंधले रंग हैं जो दोनों को दोनों के लिए असंभव करते गए हैं।  कई मुलायम उन्मुक्त और कठोर रंग हैं इस संबंध में, मगर यहीं सुनंदा का सबसे ज़्यादा सनोज से निकटता चाहना भी है और उसे काफी हद तक समझना तो है ही। सनोज के मानसिक रोग अस्पताल में दाखिल हो कर असंभव हो उठने की स्थिति में सबसे दूर तक वही आती है और उसे ही उसकी चोटें सबसे अधिक मालूम हैं।


इस तरह विपर्यय स्थितियों के भेद कई हैं। अपने क्राफ्ट में लेखक इनके लिए ऑब्जेक्टिव और क्रिएटिव होने के संघर्ष में है।


उसने विभ्रम और यथार्थ की घुलनशीलता की विधि को जिस तरह रचा है उसमें इस कला को आजमाने वाले कई रचनाकार याद आ सकते हैं।


मुझे कामू का शिल्प याद आया। कई जगहों पर उसके जैसे विन्यास की भीतरी आवाज़ सुनाई दे गई जो कथानक में दारुण संयोगों को वजनदार बनाने की कला है और बेहद असरदार है।


मगर यह संयोग भी हो सकता है।


इस कथा में उम्मीद के सांस लेने की जगह कम है। प्रेम भी ग्रंथियों से ढंक सा गया लगता है। संसार की अपरैंट लगती मोहमाया और निर्ममता का असली रंग है यहां।


और अंत में फिर से यह एक उदास कथा है जो छटपटा उठने के भावुक आवेग में ख़त्म करने के बजाय भीतर टिक गई है।


 


चन्द्रकला त्रिपाठी



सम्पर्क

मोबाइल : 09415618813

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'