अशोक तिवारी का आलेख 'सुभाष चन्द्र बोस की यूरोप से वापसी और सक्रिय भूमिका'

 




आजादी की लड़ाई में सुभाष चन्द्र बोस ही ऐसे व्यक्तित्व हैं जो कुछ समय के लिए महात्मा गांधी के समानान्तर खड़े दिखाई पड़ते हैं। पट्टाभि सीतारमैया की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में हार की पूरी जिम्मेदारी गांधी जी ने अपने ऊपर ले थी। यह मामूली बात नहीं थी। जिस समय कांग्रेस में गांधी जी की तूती बोल रही थी, उनको टक्कर देने का साहस या दुसाहस सुभाष ही कर सकते थे। हालांकि अन्ततः सुभाष को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा इसके बावजूद गांधी जी के लिए उनके मन में कहीं भी मलीनता नहीं थी। आजाद हिंद फौज की सफलता के लिए सुभाष ने राष्ट्रपिता से आशीर्वाद मांगा। यह पहली बार था जब किसी ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता उपाधि से नवाजा। आज 23 जनवरी को सुभाष चन्द्र बोस का जन्मदिन है। उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं अशोक तिवारी का आलेख 'सुभाष चन्द्र बोस की यूरोप से वापसी और सक्रिय भूमिका'। प्रस्तुत आलेख अशोक तिवारी की हालिया प्रकाशित पुस्तक सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिन्द फौज से साभार लिया गया है।







सुभाष चन्द्र बोस की यूरोप से वापसी और सक्रिय भूमिका



अशोक तिवारी



अंग्रेजों की खुली चेतावनी के बावजूद सुभाष 28 मार्च, 1936 को भारत के लिए जहाज पर चढ़ लिए। सुभाष ने यूरोप में अपने मकसद को हर संभव पूरा किया। 1933 में पहली बार जब वे जर्मनी गए थे तो उन्हें कुछ आशा बंधी थी कि जिस प्रकार जर्मनी स्वयं एक राष्ट्रीय शक्ति के साथ-साथ आत्मसम्मान के प्रति जागरूक राष्ट्र है, उसी प्रकार वह भारत के उन लोगों के साथ जो अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत हैं, कुछ सहानुभूति रखेगा। किंतु बाद के हर दौर में सुभाष बर्लिन के बारे में पूर्व धारणा से अलग एक भिन्न राय कायम कर पाए। उन्होंने जर्मनी में हिटलर के बढ़ते और फैलते नाजीवादी दर्शन को उल्लेखित करते हुए डॉ. थिरफ़ेल्डर को एक पत्र में लिखा-


"जर्मनी के नए राष्ट्रवाद में संकीर्णता, स्वार्थ तथा घमंड के सिवाय और कुछ नहीं। म्यूनिख में हाल ही में हिटलर के भाषण में नाजीवाद दर्शन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। हेर हिटलर ने कहा है कि गोरों के भाग्य में संपूर्ण विश्व पर राज्य करना है। इस बात से हमें बहुत आघात पहुंचा है कि जर्मनी का नया राष्ट्रवाद स्वार्थी और जातिगत अभिमान से अभिप्रेरित है। हेर हिटलर ने अपनी पुस्तक 'मीन कैम्फ' में जर्मनी की प्राचीन उपनिवेशवादी नीति की भर्त्सना की है किंतु नाजी जर्मनी ने पुरानी उपनिवेशवाद की चर्चा प्रारंभ कर दी है।"


जर्मनी ने अंग्रेजों से अधिक से अधिक सुविधा पाने के लालच के तहत भारत तथा राष्ट्रवादी भारतीयों का विरोध करना उपयुक्त समझा। यह प्रयास दस साल पहले तब शुरू हो चुका था जब इंग्लैंड में नाजियों की इस पार्टी ने अपने प्रचार हेतु हिटलर तथा रोजनबर्ग की पुस्तकों में भारत विरोधी अंशों को प्रकाशित किया था। सुभाष को जर्मनी के लोग बेहद सहृदय, मैत्रीभाव रखने वाले लगे, खासतौर से भारतीयों के प्रति । किंतु वे इस बात से चिंतित थे कि नई शिक्षा को नाजी पार्टी जातिगत आधार पर प्रचारित कर रही है। उससे नई पीढ़ी पर क्या गलत असर नहीं पड़ेगा, यह फ़ासीवाद के ख़तरे की ओर बहुत बड़ा इशारा था जिस ओर सुभाष ने अपनी उँगली सोधी करते हुए सभी का ध्यान आकर्षित कराया था।


भारत लौटते वक़्त जहाज जब पोर्ट सईद बंदरगाह पहुँचा तो कुछ पुलिस अधिकारियों ने जहाज पर चढ़ कर सुभाष को खोजा और उनका पासपोर्ट छीन लिया। यह स्वेज नहर की उस सीमा की बात थी जहाँ से सुभाष मिस्र जा सकते थे। और सिर्फ़ इसी भय से कि कहीं वे मिस्र के प्रमुख नेताओं से संपर्क न साथ लें, उन पर कड़ी निगरानी रखी गई। भयभीत अंग्रेजी सरकार की पुलिस ने जहाज के पुनः चल देने पर पासपोर्ट वापस कर दिया।


जेल यात्रा


8 अप्रैल, 1936 को बंबई पहुँचते ही सुभाष चन्द्र बोस को गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ दिन आर्थर रोड जेल बंबई में रखने के बाद यरवदा सेंट्रल जेल पूना में स्थानांतरित कर दिया गया। इसी जेल में महात्मा गांधी ने अपना अधिकांश बंदी जीवन बिताया था। संयोगवश सुभाष को भी उसी कमरे में रखा गया था जिसमें कभी गांधी जी को रखा था। यहाँ से सुभाष चन्द्र बोस ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद को एक प्रस्ताव भेजा। उस प्रस्ताव में मूल रूप से राजेन्द्र प्रसाद एवं भूलाभाई देसाई के अधिकृत प्रतिनिधि एवं आवश्यक राशि पर दिए गए बयान की चर्चा की। सुभाष ने विदेशों में हो रहे (खासतौर से अमरीका और यूरोप में) भारतीय प्रचार के बारे में कहा कि बहुत से लोग व्यक्तिगत तौर पर अथवा ऐसी संस्थाओं के नाम पर काम कर रहे हैं जिन्हें कांग्रेस ने कोई मदद नहीं दी है। यदि कांग्रेस उन सभी लोगों को एवं संस्थाओं को अपना ले तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व विदेश में करने का अधिकार दे तो उन सभी के साथ मिल कर बहुत-सा उपयोगी काम किया जा सकता है। सुभाष ने विट्ठल भाई पटेल का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि वे यूरोप में यदि कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करते हुए बोलते तो तस्वीर कुछ और ही होती। सुभाष ने सीधा-सीधा प्रश्न करते हुए कहा कि 'क्या कांग्रेस मुझे कांग्रेस के नाम पर भाषण देने के लिए प्राधिकृत करती है?' उनका मानना था कि आर्थिक समस्या को प्रचार के लिए हौवा की भाँति खड़ा किया जा रहा है। सुभाष के लिए राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण तथा पूर्ण प्रतिबद्धता अतिआवश्यक थी जिसमें कहीं भी आर्थिक तंगी आड़े नहीं आती। इसके लिए जो सबसे मुख्य बात वे महसूस कर रहे थे वह थी योजना का अभाव।


सुभाष को कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य चुन लिया गया था। बीमारी के चलते उन्ह पूना की यरवदा जेल से उत्तरी बंगाल में दार्जिलिंग के निकट स्थानांतरित कर दिया गया। वे अपने भाई के छोटे से घर में बंदी बनाए गए थे। उन्हें किसी से मिलने की अनुमति नहीं थी। अकेले में उन्हें अकुलाहट तो होती परंतु कोई समाधान न था। सुभाष ने पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ समाचार पत्रों तथा तमाम तरह के अन्य साहित्य को पढ़ने के अपने क्रम को बरकरार रखा। इसी बीच उन्होंने मनोवैज्ञानिक फ्रायड की पुस्तक 'इंटरप्रेटेशन ऑफ़ ड्रीम' आदि को पढ़ा। स्वप्नों पर आधारित सिद्धांत को स्वयं लागू कर के देखा। सुभाष की तबियत एक बार फिर बिगड़ने लगी। उन्हें गले के इंफैक्शन के कारण इन्फ्लूएंजा, शाम के समय हल्का-हल्का बुखार, कफ और वजन के लगातार कम होने (भारत लौटने के बाद 10 किलोग्राम वजन कम हुआ।) के साथ-साथ पेट दर्द तथा लिवर के आस-पास हल्का-हल्का दर्द रहता।


सुभाष ने आंतों के लिए एमीटीन के इंजेक्शन के साथ-साथ गले के लिए आटोवैक्सीन के इंजेक्शन लगवाने शुरू कर दिए। इस उपचार से सुभाष को कुछ लाभ प्रतीत नहीं हो रहा था। उन्हें दर्द लगातार हो रहा था। डॉक्टरों का कहना था कि यह दर्द वियना में हुए आपरेशन के बाद का प्रभाव है जिसमें गालब्लैडर को निकाल दिया गया था। बीमारी की गंभीरता को देखते हुए सुभाष को कलकत्ता मैडिकल कॉलेज में मध्य दिसंबर 1936 में भर्ती कर दिया गया। चिकित्सकों ने पूर्ण निरीक्षण के बाद गला ख़राब होने के कारण सैप्टिक टोंसिल्स का होना बताया। उधर सुभाष की माता जी चल फिर न सकने के कारण उनसे मिलने नहीं आ सकती थी अत: सुभाष को पुलिस संरक्षण में सप्ताह में दो बार उनसे मिल कर आने की अनुमति मिल गई थी। फिर एकाएक 17 मार्च, 1937 को सुभाष को आजाद कर दिया गया।


क़ैद से आजाद हो कर सुभाष के मन पर भारी बोझ था। बिना किसी कारण के वर्षों से कारागार में भांग रहे विभिन्न कैदियों के दुःख एवं कष्टों को देख कर सुभाष का अंतर्मन घायल हो गया। पुलिस की अमानवीयता एवं अहृदयता को उन्होंने अपने पास के केबिन वाले कैदी के साथ हुए व्यवहार से जाना जब उस कैदी ने कलकत्ता मैडिकल कॉलेज में सतर्क पुलिस की उपस्थिति में दम तोड़ दिया तथा मृत शरीर को तब तक नहीं छोड़ा जब तक अपनी निगरानी में अंतिम संस्कार न कर दिया गया। आगे चल कर राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए जबरदस्त अभियान छेड़े जाने के बारे में सुभाष ने डॉ. राममनोहर लोहिया को कई पत्र भी लिखे। जेल से छूटते ही सुभाष ने जतिन्द्रमोहन सेनगुप्त, विट्ठल भाई पटेल, डॉ. एम. ए. अंसारी तथा वीरेन्द्र नाथ ससमाल सरीखे नेताओं की कमी को महसूस किया। देश के तमाम हिस्सों में अंग्रेजों की दमनकारी नीति के परिणामस्वरूप निराशा एवं हताशा व्याप्त थी। सुभाष जल्दी से जल्दी अपने स्वास्थ्य में पुनः शक्ति प्राप्त कर भविष्य की तमाम योजनाओं को संजोना चाहते थे। वे महात्मा गांधी से मिल कर कांग्रेस की विभिन्न नीतियों पर बात करना चाहते थे। 6 अप्रैल, 1937 को कलकत्ता में आयोजित जन सम्मान के दौरान दिए गए अपने अभिभाषण में कई महत्त्वपूर्ण तथ्यों को सुभाष चन्द्र बोस ने स्वीकारा।


पूरा विश्व एक है तथा भारत का भविष्य शेष आधुनिक विश्व से संबन्ध रखने में ही सुरक्षित है इसलिए भारतीय आंदोलन की नीति और युद्धनीति निर्धारित करने से पूर्व पूरे विश्व की आज और कल की स्थिति का आकलन कर लेना जरूरी है।


साम्राज्यवाद चाहे जिस रूप में हो, दूसरे लोगों की आजादी का साधन है और आधुनिक विश्व की शांति का दाता है- पश्चिमी यूरोप में लोकतंत्र के रूप में और केन्द्रीय यूरोप में कट्टरवादी तानाशाही के रूप में। किंतु आजादी और शांति के प्रेमी होने के नाते हमें इसका डट कर विरोध करना है।


भारत जिस तरह पूरे विश्व के समक्ष एक राष्ट्र के रूप में जाना जाता है, हमें विभिन्न प्रांतों एवं संप्रदायों के लोगों को जाति, धर्म, प्रांतीयता एवं सांप्रदायिकता आदि से उठ कर एक ही झंडे तले एकत्र होना होगा। हमारी युद्धनीति ऐसी होनी चाहिए जिसके तहत हम श्रमिकों, कृषकों व मध्य वर्ग की साम्राज्यवाद विरोधी शक्ति को बढ़ा सकें। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बैनर तले देश की सभी साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों को संगठित किया जाए ताकि देश की गुलाम एवं भूखी जनता को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाई जा सके। (कलकत्ता द्वारा भूतपूर्व मेयर का अभिवादन सुभाष चन्द्र बोस का जन सम्मान में दिया अभिभाषण, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, खंड-8, पृष्ठ 305-306)


इसी अधिवेशन में सुभाष ने संघर्ष को अहिंसक और असहयोगपूर्ण बनाने पर जोर देते हुए तथा अखिल भारतीय मुद्दों पर काम करने की अपील करते हुए बंगाल की तात्कालिक स्थिति के सुधार पर भी प्रकाश डाला और अपने निश्चय को दोहराया- "मैं अपनी मातृभूमि के राजनीतिक व आर्थिक विकास के लिए मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब न्योछावर कर दूँगा।" (वही, पृष्ठ-307)





अप्रैल महीने के मध्य में सुभाष महात्मा गांधी से मिलने तथा कांग्रेस पार्टी की बैठक में भाग लेने के लिए इलाहाबाद गए। वहाँ से लाहौर होते हुए 12 मई 1937 को डलहौजी (डलहौजी पंजाब में हिमालय पर्वत श्रृंखला पर 2000 मी. की ऊँचाई पर स्थित है।) पहुँचे। अपने पुराने मित्र डॉ. एन. आर. धर्मवीर के आग्रह और स्वास्थ्य के तकाजे को ले कर सुभाष मई से अक्टूबर 1937 तक करीब पाँच महीने डलहौजी में रहे। इस बीच उन्होंने स्वास्थ्य लाभ करते हुए देश-विदेश के समाचार पत्र, लेख, विभिन्न राजनीतिक दर्शन तथा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन किया। सुभाष विभिन्न तरह का साहित्य पढ़ते। अनुपलब्ध पुस्तकों को वे विदेशों में रह रहे अपने मित्रों-नाओमी सी. वैटर किट्टी कुर्टी, ई वुड्स तथा एमिली शेंक्ल आदि से मँगाते। सुभाष पढ़ाई को अपने जीवन से जोड़ कर देखते थे। उनका कहना था-


"पढ़ते रहने की आदत सबसे बढ़िया है वरना मानसिक पटल सिकुड़ जाएगा और दृष्टि भी क्षुद्र हो जाएगी।" (सुनील मोहन घोष मौलिक को सुभाष का लिखा पत्र 2-7-37, नेताजी संपूर्ण वांग्मय, खंड 8, पृष्ठ 169)


डलहौजी प्रवास के दौरान सुभाष ने आत्म विश्लेषण करते हुए मानसिक व्यायाम किया। इससे उन्हें बहुत लाभ मिला। वे अपने मन में झाँकते हुए अपनी कमजोरी को तलाश करने की कोशिश करते और बहुत सी व्यर्थ की बातों को वे अपने मन में से पूरी तरह उखाड़ कर फेंकने की कोशिश करते। सुभाष का मानना था कि कमी को ढूंढ लेने का अभिप्राय है आपने आधी विजय पा ली।' मानसिक परेशानियों की सही वजह की खोज करते हुए वे कहते थे 'लोग यही नहीं जान पाते कि हमारा मन क्या है। मन ऐसी अजीब चीज है कि वह स्वयं को ही धोखा देता है।' (अनिल चन्द्र गांगुली को लिखा पत्र, 8-8-1937, नेताजी संपूर्ण वांग्मय, खंड-8 पृष्ठ-176)


स्वास्थ्य की दृष्टि से हालांकि यूरोप जाना सुभाष के लिए निश्चित ही अच्छा रहता किंतु अब वे देश से दूर रह कर सभी संपर्कों से कट कर नहीं रहना चाहते थे। स्वास्थ्य के लिए एक ओर जहाँ यूरोप लाभप्रद था वहीं दूसरी और सामाजिक दृष्टि से स्वार्थ से बेहद परिपूर्ण एवं बेहद खर्चीला भी। मध्य यूरोप में यहूदियों की स्थिति के लिए ख़तरा एवं उनके अंदर पैदा होने वाली बेचैनी को आसानी से पढ़ा जा सकता था। जर्मनी में नए राष्ट्रवाद के रूप में नाजीवाद अपने जोरों पर था। इसी का परिणाम था कि लोग आध्यात्मिक एवं आत्मिक शांति के लिए भारत जैसे देश की ओर ताक रहे थे।


सुभाष ने कलकत्ता नगर निगम की कार्यविधि से असंतुष्ट हो कर कलकत्ता निगम के एक कार्यकर्ता को एक पत्र लिखते हुए उच्च अधिकारियों के कर्मचारियों पर हो रहे जुल्म एवं असमानता तथा पिछले वर्षों में बढ़ते भाई-भतीजावाद पर टिप्पणी करते हुए कहा कि उस संस्था में जिसमें कांग्रेस के कार्यकर्ता हों, इस तरह की अनीति और भ्रष्टाचार पर गर्दन शर्म से झुक जाती है।


वंदेमातरम् के संदर्भ में उठे सवाल पर सुभाष का कहना था कि सांप्रदायिक मुसलमानों को बार-बार हौवा खड़ा करने की आदत है। कभी सरकारी नौकरियों में सीटों को ले कर तो कभी वंदेमातरम् को ले कर। वंदेमातरम् फिलहाल में लेजिस्लेटिव कौसिल में गाया गया था। संप्रदायवादी मुसलमानों के द्वारा उठाए गए सवालों को फिजूल बताते हुए उन्होंने कहा कि ये सब सांप्रदायिक भावना को उभारने तथा राष्ट्रवादी कार्यों में बाधा डालने की गरज से किया गया है।


पुनः यूरोप; विवाह


डलहौजी से लौट कर सुभाष काफी व्यस्त रहे। महात्मा गांधी के आग्रह पर अपने उपचार की दृष्टि से उन्होंने पुनः यूरोप जाने का मन बना लिया। उन्होंने आस्ट्रिया के लिए 18 नवंबर, 1937 को उड़ान भरी। 22 नवंबर को वे बैगस्टीन (आस्ट्रिया) पहुँचे। उन्होंने वहाँ स्नानोपचार आरंभ कर दिया। इस उपचार से उन्हें पिछली बार काफ़ी स्वास्थ्य लाभ हुआ था। नेपोली से बैगस्टीन जाते हुए इस बार की यात्रा में उन्हें इटली पुलिस ने काफी परेशान किया था। उनका हर सामान उलट-पुलट कर, खोल-खोल कर देखा गया। एक कमरे में ले जा कर उनकी जेबें देखी गई एवं तमाम तरह की अन्य पूछताछ की गई। सुभाष को बहुत गुस्सा आया। दरअसल ऐसा सिर्फ सुभाष के साथ हो किया गया था आमतौर पर सबके साथ नहीं। हालाँकि सुभाष ने वायुयान के एजेंट को जब शिकायत की तो उसने इटली पुलिस के इस व्यवहार की माफ़ी माँगी।





26 दिसंबर, 1937 को सुभाष चन्द्र बोस और एमिली शेंक्ल ने गुप्त रूप से विवाह कर लिया। एमिली शेंक्ल के साथ सुभाष का जुड़ाव 'द इंडियन स्ट्रगल' लिखते वक्त हुआ। बाद में चल कर इस संबन्ध में कि सुभाष ने कभी उस विवाह की चर्चा क्यों नहीं की तथा अपनी स्पष्टता के बावजूद इसे गुप्त क्यों रखा, एमिली शेंक्ल का कहना था कि 'सुभाष चन्द्र बोस के लिए किसी भी संबन्ध से प्रमुख देश था। वे इस विवाह से उठ खड़े होने वाले तमाम विवादों और फिजूल प्रश्नों से बचना चाहते थे।


इन्हीं दिनों अपने दस दिन के बैगस्टीन प्रवास में उन्होंने अपनी 'अधूरी आत्मकथा' (एन इंडियन पिलग्रिम, हस्तलिखित पांडुलिपि नेताजी रिसर्च ब्यूरो कलकत्ता के अभिलेखागार में सुरक्षित है।) लिखी जिसमें सुभाष ने अपनी बदलती प्रवृत्तियों के बारे में तो स्पष्टता के साथ खुलासा किया ही है साथ में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचारों के प्रति प्रेम को भी अभिव्यक्त किया है।





इस बार सुभाष की यूरोप यात्रा कम समय के लिए थी। इसका प्रमुख कारण था सुभाष का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में आगामी सत्र के लिए अध्यक्ष चुने जाने की संभावना। इस अल्पावधि में वे यूरोप के अपने सभी मित्रों एवं सहयोगियों से मिलना चाहते थे। इंग्लैंड जाने के बारे में सुभाष पर इस बार 1933-36 की तरह के प्रतिबंध तो नहीं थे, किंतु उन्हें मौखिक रूप से यह आदेश दिए गए थे कि बिना विशेष अनुमति के वे नहीं जा सकते। सुभाष को सैक्रेट्री ऑफ स्टेट फॉर इंडिया से ब्रिटेन जाने की अनुमति मिल गई। उधर 15 जनवरी, 1938 को वे श्रीमती ई. वुड्स के जरिए आयरलैंड के राष्ट्रपति डी. वलेरा से औपचारिक रूप से मिले। जनवरी 1938 में सुभाष को कांग्रेस का अध्यक्ष सर्वसम्मति से चुने जाने की सूचना मिली। 24 जनवरी, 1938 को कांग्रेस तथा संविधान और फ़ासीवाद तथा साम्यवाद पर दिए गए एक साक्षात्कार में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा- 


"आज मेरी राय यह है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का व्यापक आधार साम्राज्यवाद विरोध होना चाहिए तथा इसका उद्देश्य दोतरफ़ा हो। पहला राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना तथा दूसरा समाजवादी व्यवस्था की स्थापना।(संपादकीय नेताजी संपूर्ण वाङ्मय खंड-9 पृष्ठ-xi)



सुभाष ने ब्रिटेन में ब्रिटिश मंत्रिमंडल के कई सदस्यों जैसे लॉर्ड हैलीफैक्स, लॉर्ड जैटलैंड आदि के साथ साथ भारत के प्रति सहानुभूति रखने वाले लेबर पार्टी तथा लिबरल पार्टी के कई नेताओं से बातचीत की।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुने जाने के पीछे कोई विशेष कारण न था। हाँ, कमला नेहरू की बीमारी के दौरान सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू को एक दूसरे के अधिक क़रीब आने का पहला मौका मिला। एक-दूसरे के समाजवादी विचारों से सुविज्ञ होने का भी अवसर मिला। इस मौके पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्वरूप एवं ढाँचे पर भी बातचीत हुई। राष्ट्रीय समस्याओं के साथ-साथ तत्कालीन मुद्दों पर वार्तालाप हुआ। इस बातचीत से जवाहर लाल नेहरू का वामपपंथी विचार, समाजवाद के सपने को सुभाष के साथ साकार करने हेतु क्रियान्वित होने की एक दिशा में बढ़ने लगा।


हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन


23 जनवरी, 1938 को अपने जन्म दिन पर सुभाष चन्द्र बोस यूरोप से भारत लौटे। फ़रवरी में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्षीय भाषण उन्होंने हरिपुरा जाने से पूर्व एक दिन में तैयार किया। यह एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वव्यापी ढाँचे का विस्तृत विश्लेषण है इसी के साथ-साथ उसमें कांग्रेस के दोहरे लक्ष्य को सामने रखते हुए स्वतंत्र भारत की सामाजिक एवं आर्थिक तस्वीर का समतावादी दृष्टिकोण भी स्पष्टता के साथ रखा गया है। सुभाष के अध्यक्ष चुने जाने पर वामपंथी खेमे में खुशी की एक लहर दौड़ गई थी। कुछ नया और रचनात्मक होने की उम्मीद ने उनमें जोश भर दिया था। 13 फरवरी से ले कर 22 फ़रवरी 1938 तक सुभाष हरिपुरा कांग्रेस में अत्यधिक व्यस्त रहे।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 51वें अधिवेशन के अवसर पर दिए गए अध्यक्षीय भाषण में सुभाष चन्द्र बोस ने साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत की चालों का उद्घाटन करते हुए भारत की आजादी के लिए लड़े जा रहे स्वतंत्रता संग्राम की एक संक्षिप्त समीक्षा की। श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, आचार्य जगदीश चन्द्र बोस और डॉ. शरत चन्द्र चटर्जी के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए एवं उन्हें देश की महान क्षति बताते हुए सुभाष ने अपनी बात शुरू की। उन्होंने उन महान देशभक्तों को भी श्रद्धांजलि अर्पित की जिन्होंने राजनीतिक बंदी अथवा नजरबंदी के दौरान अपने प्राणों की आहुति दी।


विभिन्न साम्राज्यों के उत्थान एवं पतन को ले कर उन्होंने यह पूरी तरह से स्पष्ट किया कि बर्तानिया साम्राज्य का इतिहास उन सभी साम्राज्यों से कतई अलग नहीं है जो भारत में ही नहीं, संपूर्ण विश्व में पूर्व में देखे गए हैं चाहे वे तुर्की, ऑस्ट्रिया, हंगरी साम्राज्य रहे हो या मौर्य, गुप्त अथवा मुग़ल साम्राज्य। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को चेतावनी देते हुए कहा कि 'ग्रेट ब्रिटेन को जारशाही के ख़िलाफ़ 1917 में हुई क्रांति तथा सोवियत समाजवादी संघ के उदय से सीख लेनी चाहिए।' सुभाष ने लेनिन के इस कथन को कि कई राष्ट्रों को गुलाम बना लेने से ग्रेट ब्रिटेन में प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ मजबूत हुई हैं।' उद्धृत करते हुए कहा है, 'ब्रिटेन का अभिजात्य तथा बुर्जुआ वर्ग मुख्य रूप से उपनिवेशों और विदेशों के अधीनस्थ क्षेत्रों के शोषण पर जिंदा है। (सुभाष का हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण फरवरी 1938. नेताजी सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड-9, पृष्ठ-5)


'फूट डालो-राज करो' की नीति का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा- 


'अंग्रेज़ी सरकार की यह नीति भारत में जिस उग्र विभाजनकारी रूप में निर्ममता के साथ लागू की गई है कदाचित् उतनी किसी भी देश में देखने को नहीं मिलती है। इसी नीति के फलस्वरूप आयरलैंड को स्वतंत्र करने से पूर्व अल्स्टर को आयरलैंड से अलग किया गया तथा फिलिस्तीनियों से यहूदियों को अलग करने की साजिश आज भी जारी है।"


सुभाष भारत में अंग्रेजों की इस नीति के फलस्वरूप हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को पूर्व में ही देख पा रहे थे। दोहरेपन की नीति के साथ-साथ 'फूट डालो-राज करो' की नीति का बीज अंग्रेजों ने जातिगत एवं धर्मगत व्यवस्था की आड़ में आ कर बोया था। उन्होंने ब्रिटिश विदेश नीति में मौजूद विरोधाभास तथा विसंगतियों को उसके साम्राज्य का वैविध्यपूर्ण ढाँचे का सीधा परिणाम बताया।


सुभाष ने कहा कि ब्रिटेन के बारे में यह उक्ति कि वहाँ सूरज कभी नहीं डूबता को प्राय: ग़लत साबित किया जा रहा है। बर्तानिया साम्राज्य के एक छोर पर जहाँ आयरलैंड है वहीं दूसरे छोर पर हिन्दुस्तान। बीच में मिस्र, फिलिस्तीन, इराक इत्यादि हैं। इन देशों में पैदा हो रहे तमाम आंदोलनों के साथ अपने साम्राज्यवादी हथकंडों से ब्रितानी सरकार जूझ रही है। यहाँ तक कि अब इटली सोवियत संघ तथा जापान से भी उसमें दहशत फैल रही है।


18 वीं एवं 19 वीं शताब्दी की तरह वर्तमान परिस्थितियों में ब्रिटेन स्वयं को 'समुद्रों की मल्लिका' नहीं कह सकता है क्योंकि वायुसेना आधुनिक युद्ध-प्रणाली में शक्तिशाली घटक के रूप में स्थान बना चुकी है। एकमात्र उसी के बल पर इटली ब्रिटेन को सफलतापूर्वक चुनौती दे पाया था। अतः आधुनिक युद्धशैली के इस घटक ने एक क्रांतिकारी परिवर्तन ला कर ग्रेट ब्रिटेन की प्रतिरोधकता को नष्ट किया है। अतः इस दौर में जबकि वह इतने तनाव, उलझन एवं असंतुलन से ग्रस्त है, ब्रिटिश साम्राज्य को हिन्दुस्तान से उखाड़ फेंकना अपेक्षाकृत आसान होगा। सुभाष ने भारत की 35 करोड़ जनता को कमजोरी छोड़ कर ताकत का स्रोत बनने पर जोर दिया। इस हेतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बढ़ते कदमों को लगातार जनांदोलनों के जरिए सक्रिय भागीदारी करने का आह्वान कांग्रेसजनों से किया।


स्वतंत्रता संघर्ष के लिए असहयोग आंदोलन की भूमिका को स्वीकारते हुए सुभाष ने इसे व्यापक अर्थ में लागू करने पर बल दिया। उन्होंने कांग्रेस पार्टी के वर्तमान स्वरूप में विश्वास व्यक्त करते हुए कहा कि यही पार्टी भारत में स्वाधीनता लाएगी तथा लोकतांत्रिक प्रणाली को जीवित रखते हुए व्यापक जनाधार के साथ किसी भी एक दलीय प्रणाली का विरोध करेगी। अल्पसंख्यकों की समस्या पर बोलते हुए उन्होंने हिन्दुस्तान की एकता की बात की। उन्होंने अक्टूबर 1937 में कलकत्ता में हुई ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक की घोषणा को उद्धृत करते हुए कहा-


"कांग्रेस का लक्ष्य एक स्वतंत्र और संयुक्त भारत है, जहाँ कोई वर्ग या समूह या बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक अपने निजी फ़ायदे के लिए दूसरे का शोषण न कर सके तथा जहाँ राष्ट्र के सभी तत्व जनता की भलाई और उन्नति के लिए मिल कर सहयोग कर सकें। (हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ-7 वही, पृष्ठ-9)


राष्ट्रवाद के मौलिक सिद्धांतों के हिसाब के अनुरूप सर्वसम्मत हल को खोजने की दृष्टि से कांग्रेस की भावना को अभिव्यक्ति देते हुए उन्होंने कहा- 


"मैं सिर्फ यही कहूँगा कि सामूहिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों पर जोर देते हुए ही हम सामुदायिक अलगाव और मतभेदों के पार जा सकते हैं। धार्मिक मामलों में 'जियो और जीने दो' की नीति तथा आर्थिक और राजनीतिक मामलों में समझदारी की नीति अपनाना ही हमारा उद्देश्य होगा। (वही, पृष्ठ 9)


सुभाष चन्द्र बोस ने मौलिक अधिकारों को स्पष्ट करते हुए विवेक, धर्म, संस्कृति आदि के मामले में एक-दूसरे की दखलअंदाजी न करने पर बल दिया। उन्होंने कांग्रेस द्वारा तय किए 9 मौलिक अधिकारों को प्रस्ताव में जोड़ा-


विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति, स्वतंत्र संगठन, मेलजोल के साथ बगैर नैतिकता का विरोध किए शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार। 

स्वविवेक के अनुसार प्रत्येक नागरिक को धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने तथा प्रवचन करने का अधिकार। 

अल्पसंख्यकों एवं विभिन्न भाषाई इलाकों को संस्कृति, भाषा तथा लिपि का संरक्षण। 

धर्म, जाति, संप्रदाय या लिंग से निरपेक्ष कानून की नजरों में सभी नागरिक बराबर होंगे।

किसी भी रोजगार, पद, सम्मान आदि के लिए किसी धर्म, जाति, संप्रदाय अथवा लिंग के आधार पर किसी को अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।

सार्वजनिक स्थानों पर बनाए गए कुँए, तालाब, सड़क, स्कूल एवं सार्वजनिक मनोरंजन स्थल आदि पर सभी के अधिकार एवं कर्तव्य समान।

सभी धर्मों के संदर्भ में राज्य का निरपेक्ष नजरिया।

विश्वजनीन वयस्क मताधिकार का आधार ही मतदान के लिए मान्य।

देश के सभी नागरिकों को भारत में कहीं भी जाने-आने, कहीं भी रहने बसने, जमीन-जायदाद बेचने अथवा खरीदने का स्वतंत्र अधिकार तथा कानून एवं सुरक्षा का समान अधिकार।" (हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, 1938, नेताजी संपूर्ण व खंड-9, पृष्ठ-8)


आने वाले दौर में संघर्ष की भूमिका पर बात करते हुए उन्होंने व्यापक अर्थों में अहिंसक असहयोग एवं नागरिक अवज्ञा सत्याग्रह में अपना विश्वास प्रकट किया तथा देशवासियों को याद दिलाते हुए कहा कि अहिंसक असहयोग फिर से बहाल करना पड़ सकता है। तथा अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यकों को कंधे से कंधा मिला कर चलने की अपील करते हुए कहा कि कोई भी विभाजन संघ को मजबूत नहीं करता। सुभाष ने अल्पसंख्यकों के सवाल पर मुसलमानों की समस्या को रेखांकित करते हुए कहा कि कांग्रेस इन समस्याओं के समाधान के प्रति बेहद उत्सुक है। उसी जागरूकता के साथ अन्य अल्पसंख्यकों तथा तथाकथित बहुसंख्यक दलित वर्ग के प्रति उन्होंने न्याय की समान रूप से इच्छा जताई।


ग्रेट ब्रिटेन के साथ भविष्य के संबन्धों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि हालाँकि यह अभी से कहना मुश्किल है मगर यह ब्रिटेनवासियों की सोच पर निर्भर करेगा। इस विचार पर आयरलैंड के राष्ट्रपति डी. क्लेरा से प्रभावित होते हुए उन्होंने कहा-


"मुझे यह भी कहना चाहिए कि ब्रिटेन की जनता से हमारी कोई दुश्मनी नहीं है। हम ग्रेट ब्रिटेन से लड़ रहे हैं और हम इसके साथ भविष्य के अपने संबन्धों को तय करने की पूरी आजादी चाहते हैं। लेकिन यदि एक बार हमें आत्मनिर्णय का अधिकार मिल जाता है तो ब्रिटेन की जनता के साथ मधुर संबन्ध न रखने का कोई कारण नहीं है।" (हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, 1938, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, खंड-9, पृष्ठ-11)





कांग्रेस के अस्तित्व के इस सवाल पर कि 'कांग्रेस स्वतंत्रता के अपने लक्ष्य को पा लेने के बाद ख़त्म हो जानी चाहिए' सुभाष का एक स्पष्ट दृष्टिकोण था। वे इस मान्यता से कतई सहमत नहीं थे कि कांग्रेस का काम महज स्वतंत्रता प्राप्ति है। वे आज़ादी हासिल करने के बाद देश की पुनर्रचना के सारे कामों की जिम्मेदारी कांग्रेस की ही मानते थे, वही सत्ता को कायदे से संभाल सकेंगे। उनका यह भी मानना था कि यदि दूसरे लोग जिन्होंने देश की आजादी के संघर्ष में कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभाई अथवा देश पर बलिदान होने का कोई जुनून उन्होंने अपने दिल में नहीं पाला तो निश्चय ही क्रांतिकारी पुनर्रचना के लिए सर्वथा जरूरी शक्ति, आत्मबल तथा आदर्शवाद का उनमें अभाव रहेगा। सुभाष के मुताबिक कांग्रेस का काम तभी पूरा होना था जब राजनीतिक आजादी हासिल कर लेने के बाद प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी ले तथा पुनर्रचना एवं विकास के सभी कार्यक्रमों को व्यवस्थित रूप से संचालित करे। हालांकि आजादी के बाद इसी प्रश्न को उठाते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि कांग्रेस का काम खत्म हो चुका है उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए।" (नया काव्य नए मूल्य, ललित शुक्ल, 1999, स्टैण्डर्ड पब्लिशर्स (इंडिया), पृष्ठ-17) बहरहाल सत्ता को कांग्रेस ने संभाला। पुनर्रचना के क्या-क्या काम हुए, कितनी प्रगति हुई, समाजवाद के सपने का कितना भाग जवाहर लाल नेहरू लागू कर पाए? यह एक अलग प्रश्न है। किंतु यह सच है कि यह सब सुभाष की योजना और मान्यता के हिसाब से कदापि न था।


इस प्रश्न में से उपजे एक और प्रश्न की और अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए सुभाष ने कहा कि कांग्रेस के सर्वसत्तावादी अथवा राज्य के अधिनायकवादी हो जाने का कोई ख़तरा हिन्दुस्तान में नहीं है क्योंकि भारत इटली और जर्मनी की भाँति अन्य दलों को प्रतिबंधित नहीं करेगा और दल का लोकतांत्रिक आधार इस बात को सुनिश्चित करेगा कि जनता पर नेता थोपने की बजाय चुन कर लाया जाता है। उन्होंने भविष्य की सामाजिक पुनर्रचना के आकार पर विचार रखते हुए कहा-


"ग़रीबी, अशिक्षा और बीमारी के उन्मूलन तथा वैज्ञानिक उत्पादन एवं वितरण से संबन्धित हमारी मुख्य राष्ट्रीय समस्याएँ समाजवादी रास्ते से जुड़ कर ही प्रभावी ढंग से हल की जा सकती हैं।" (हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय खंड-9, पृष्ठ-12)


सुभाषचन्द्र बोस ने पुनर्रचना के कार्यक्रम को योजना को मुख्यतः दो भागों में बाँटा। 

पहला तात्कालिक कार्यक्रम 

और 

दूसरा दीर्घकालिक कार्यक्रम। 

तात्कालिक कार्यक्रम को तीन लक्ष्य बना कर पूरा करने की योजना बनाई


1. आत्म बलिदान के लिए देश को तैयार करना।

2. हिन्दुस्तान को एक बनाए रखना।

3. स्थानीय एवं सांस्कृतिक स्वायत्तता के लिए माहौल बनाना।


एक स्थान से दूसरे स्थान तक की दूरियों को ख़त्म करते हुए क़रीब लाने का प्रयास नई तकनीक के उपकरणों हवाई जहाज, टेलीफोन, रेडियो, फिल्म व टेलीविजन आदि के द्वारा किया जाना चाहिए तथा देश के विभिन्न हिस्सों को एक दूसरे के करीब लाने और उनमें समान रूप से उत्साह भरने का मुख्य काम बोलचाल की एक सी भाषा तथा आमशिक्षा करेगी। राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए सुभाष ने पूरे देश में एक लिपि के विकास पर जोर दिया। उन्होंने आम बोलचाल की भाषा को हिन्दी-उर्दू का मिला-जुला रूप बताया जो कि देश के बहुत बड़े हिस्से में बोली जाती थी। उनके हिसाब से इस मिले-जुले स्वरूप की भाषा हिन्दुस्तानी की लिपि नागरी अथवा अरबी कोई भी हो सकती थी। किंतु एक विचार था जिसे सुभाष भाषा के इस प्रश्न के साथ जोड़ कर रखना चाहते थे और वह था कि भारत को ऐसी लिपि अपनानी चाहिए जो हमें बाकी दुनिया की कतार में ला दे। उन्होंने वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हुए कहा कि हमें यह महसूस करना चाहिए कि जिस नागरी लिपि को आज हम देखते हैं वह विकास के अनेक चरणों से हो कर गुजरी है। किसी लिपि में अति पवित्र जैसा कुछ भी नहीं है। यदि किसी लिपि में वैज्ञानिकता अथवा सहज प्रवाह है तो उसके विकास के कई चरणों के बीत जाने के बाद ही वह संभव हुआ है। अतः समस्त भारत की लिपि को बतौर किसी पक्षपात और आग्रह के चयन करना चाहिए। सुभाष ने देशी और विदेशी लिपि के आग्रहों से मुक्त हो कर, 1934 की अपनी तुर्की की यात्रा के अनुभव के आधार पर रोमन लिपि को अपनाने पर जोर दिया तथा हिन्दुस्तानी को रोमन लिपि में लिखे जाने के तमाम फ़ायदे स्पष्टतया सामने रखे जिसमें दुनिया के बाकी देशों से संपर्क बराबर बना रहना शामिल था। उनका कहना था कि हमारे देश की 90 प्रतिशत अशिक्षित जनता को शिक्षित करने पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लिपि कौन-सी है रोमन लिपि सीख जाने पर अपनी भाषा के साथ-साथ यूरोपीय भाषा को समझने में काफी मदद मिलेगी।' (हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ-16)


दीर्घकालिक कार्यक्रमों के संबन्ध में सुभाष ने तेजी के साथ बढ़ती आबादी को रोकने की एक आम अपील करते हुए कहा कि 'मुख्य समस्या बढ़ती हुई गरीबी, भुखमरी और बीमारी है जिसके लिए सबसे पहले जमींदारी उन्मूलन के साथ भूमि व्यवस्था में आमूल सुधार की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने आगे कहा कि गाँवों में लोगों को कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराना होगा तथा सहकारी आंदोलन के प्रसार के साथ-साथ कृषि को वैज्ञानिक आधार प्रदान करना होगा। आर्थिक विकास के लिए महज कृषि के क्षेत्र की प्रगति हो पर्याप्त नहीं होगी। इसके लिए नई औद्योगिक व्यवस्था को अपनाते हुए कुटीर उद्योग (मुख्य रूप से हथकरघा तथा बुनकर आदि) के लिए तमाम संभावनाओं को खोजना होगा। वहीं कृषि और औद्योगिक व्यवस्था को समाजोन्मुख बनाते हुए तमाम बुराइयों को दूर करना होगा।


किसी पद भार को लेने की जिम्मेदारी पर बोलते हुए सुभाष ने साफतौर पर कहा कि हमें नौकरशाहों के ढाँचे और चरित्र को बदलना है। देश के ग्यारह प्रांतों में से सात में कांग्रेस मंत्री अपना पद भार संभाल चुके थे। उन्होंने मंत्रिपद पर अब तक रह चुके लोगों से अंग्रेज़ों की नीतियों, नजरिए एवं मानसिकता को पूरी तरह त्याग कर अपने दृष्टिकोण, नजरिए तथा मानसिकता को राष्ट्रीयता से परिपूर्ण करते हुए देश को स्थाई सेवाएँ दिए जाने पर जोर दिया। उन्होंने कांग्रेसी मंत्रियों को शिक्षा के प्रसार करने, स्वास्थ्य संबन्धी विभिन्न योजनाओं को लागू करने, किसानों के लिए सिंचाई, विभिन्न उद्योगों की स्थापना के साथ श्रमिक कल्याण तथा भूमि सुधार करते हुए समस्त भारत में समान नीति बनाने पर बल दिया।


4 फ़रवरी, 1938 को वर्धा में हुई कार्यसमिति की बैठक द्वारा स्वीकृत एक प्रस्ताव में एक तात्कालिक समस्या का तीव्र विरोध किया गया था। यह समस्या संविधान के संघीय भाग का उद्घाटन थी।


"कांग्रेस ने नया प्रस्ताव खारिज कर दिया है और घोषणा की है कि जनता में स्वीकृत हो सकने योग्य भारतीय संविधान को आजादी पर आधारित होना चाहिए और यह बिना किसी विदेशी ताकत के हस्तक्षेप के एक संविधान सभा के जरिए खुद जनता द्वारा ही बनाया जा सकता है। प्रस्तावित संघ के संबन्ध में इस तरह की सोच अस्थाई तौर पर थोड़े समय के लिए भी लागू नहीं होती और इस तरह से संघ को थोपना भारत के लिए गहरा जख्म साबित होगा। और यह उन बंधनों को तनावग्रस्त कर देगा जो इसे साम्राज्यवादी वर्चस्व के अधीन रखते हैं।" (हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ-16)


प्रस्तावित संघ के विरोध स्वरूप बहुत-सी दलीलें देते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव हरिपुरा अधिवेशन में रखें। उनमें प्रमुख ये रहे-


कांग्रेस पार्टी के बढ़ते प्रचार एवं प्रसार के बावजूद सभाओं एवं प्रदर्शनों पर नियंत्रण हेतु अनुशासित स्वयंसेवकों का दल होना चाहिए।


राष्ट्रीय सेवा योजना के लिए प्रशिक्षित अधिकारियों का संगठन बनाना चाहिए।


राजनीतिक कार्यकर्ताओं को शिक्षा एवं गहन वैज्ञानिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि हम भविष्य में बेहतर किस्म के नेता बना सकें। 


कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अधिक से अधिक संख्या में श्रमिक संघों तथा किसान संगठनों में भाग लेना चाहिए ताकि मजदूर और किसान संगठन की एकजुटता को अपना कर प्रगतिशील एवं साम्राज्यवाद विरोधी संगठनों को मजबूत किया जा सके।


वामपंथी तत्त्वों को एकजुट होकर एक दल के रूप में संगठित होना चाहिए।


यह समाजवादी कार्यक्रम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संविधान के दायरे में रह कर किया जाना चाहिए।


विदेश नीति की ओर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को पर्याप्त ध्यान देना चाहिए और यूरोप, एशिया, उत्तरी मध्य व दक्षिणी अमेरिका एवं अफ्रीका आदि तमाम स्थानों में, जहाँ भारत के प्रति लोगों में गहरी दिलचस्पी है। अपने विश्वासपात्र प्रतिनिधि रखने चाहिए तथा सक्रिय सांस्कृतिक संगठनों एवं विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे भारतीय विद्यार्थियों के जरिए अंतर्राष्ट्रीय संपर्क बनाने चाहिए।


सभी प्रचारात्मक साधन अपनाने चाहिए।(हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ-16. सुभाष ने प्रचार शब्द के लिए कहा कि मैं प्रचार शब्द को पसन्द नहीं करता, इसमें झूठ की बू आती है।)


इससे दुनिया में भारत और भारतीय संस्कृति की पहचान बनेगी जो कांग्रेस को अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए हितकारी सिद्ध होगी।


विभिन्न देशों से संपर्क के साथ-साथ अपने पड़ोसी देशों जैसे ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, चीन, बर्मा, मलाया राज्य ईस्ट इंडीज एवं सीलौन आदि.से सांस्कृतिक संबन्धों की अंतरंगता बढ़ाने पर जोर देना चाहिए।


अध्यक्षीय भाषण की समाप्ति से पूर्व उन्होंने कहा कि हमें एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे की और और भी सोचना है और वह है- जेलों में बंद अथवा नजरबंद राजनीतिक बंदियों की बदतर हालता जो कैद से छूट चुके हैं वे या तो अपने ख़राब स्वास्थ- टी.बी. इत्यादि से पीड़ित हैं या फिर भयंकर भुखमरी के शिकार। इसके लिए सुभाष ने सभी कांग्रेसजनों से अपील की कि वे सब उनके साथ हार्दिक सहानुभूति रखें तथा हरसंभव आर्थिक सहायता करें। उन्होंने आखिर में यह कहकर अपनी बात खत्म की कि कांग्रेस के अंदर मौजूद वामपंथ एवं दक्षिणपंथ के बीच आए मनमुटाव को भूल कर सारे देश को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बैनर तले इकट्ठा होकर साम्राज्यवादी ताकतों से जूझना है। उन्होंने कहा-


"हमारा संघर्ष सिर्फ़ ब्रिटेन के सामान्यवाद के ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि विश्व साम्राज्यवाद के खिलाफ़ है, जिसके लिए ब्रिटेन का साम्राज्यवाद प्रधान-प्रस्तर की तरह है। इसलिए हम महज भारत के लिए ही नहीं बल्कि मानवता के लिए लड़ रहे हैं। भारत की मुक्ति का अर्थ है- मानवता की रक्षा।" (हरिपुरा अध्यक्षीय भाषण, नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ 26)



सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते अत्यधिक व्यस्त हो गए। 6 मार्च, 1938 को वर्धा के निकट सोगोन गाँव में वे महात्मा गांधी से मिलने गए जहाँ उन्होंने भविष्य की कांग्रेस गतिविधियों पर बातचीत की। सुभाष ने तमाम घोषणाओं को क्रियान्वित करने के लिए देश भर में अपने दौरे शुरू कर दिए। वे कार्यकारिणी की बैठकों के साथ, विभिन्न राज्यों के प्रधानमंत्रियों के साथ बैठक करते हुए प्रांतीय कांग्रेस अध्यक्षों से मिले और अपनी विचारधारा को स्पष्टता के साथ रखा। उन्होंने ब्रिटेन की सरकार से किसी तरह के समझौते की संभावना से इंकार कर दिया।


9 मई, 1938 को बंबई जाते समय गाड़ी से एमिली शेंक्ल को पत्र में बंबई के जरूरी कामों के बारे में सुभाष ने उल्लेख किया। पहला- जिन्ना से हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर विचार विमर्श, दूसरा सात प्रांतों के प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन की अध्यक्षता और तीसरा कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक की अध्यक्षता।


बबई पहुँचते ही सुभाष ने 10 मई, 1938 को बंबई महापालिका में सारगर्भित भाषण देते हुए तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों का जिक्र करते हुए कहा-


"वे दिन लद गए जब हिन्दुस्तान सारी दुनिया से कटा हुआ देश था। वैज्ञानिक उपलब्धियों तथा हमारे बौद्धिक और नैतिक विकास की बदौलत आज सारी दुनिया एक है।" (बम्बई महापालिका में भाषण 10-5-1938; नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ 26)


सुभाष ने वियना में रह कर अर्जित किए अनुभव के आधार पर कहा कि वियना में नगरपालिका अगर 2 लाख लोगों के लिए कोई बिना अतिरिक्त कर लगाए या ऋण के आवास व्यवस्था कर सकती है तो ऐसा भारत के किसी शहर में क्यों नहीं उपलब्ध कराया जा सकता? सुभाष ने बंबई महानगर के वैभवशाली क्षेत्र से अलग हट कर एक दूसरा पहलू दिखाते हुए कहा कि हम शहर की ग़रीबी और मलिन बस्तियों को भी नहीं भूल सकते।' इस पर उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास का यह कथन सबके सामने रखा 'नगरीय निकायों को ग़रीबों की नगरपालिका बनाना ही इन निकायों का आदर्श होना चाहिए।" (वही, पृष्ठ 27) समाजवाद के संदर्भ को नगरीय सभ्यता से जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि जाने अनजाने हम नागर समाजवाद की दिशा में ही जा रहे हैं। आज नगरपालिका का अर्थ शुद्ध पेयजल, सड़क, रोशनी आदि की व्यवस्था करना ही नहीं है अपितु शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ-साथ अन्य तरह के सांस्कृतिक विकास की ओर ध्यान देना भी है। सुभाष ने नगरीय मामलों में रुचि रखने वालों को अपने देश से बाहर (यूरोप, अमेरिका आदि में) जाकर वहाँ की नगरपालिकाओं से भी सीख लेने की जरूरत पर जोर दिया।


इंग्लैंड के महान राजनीति चिंतक ब्राइस जिसने 'स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को लोकतंत्र का वास्तविक विद्यालय' कहा, को उद्धृत करते हुए सुभाष ने उन विदेशियों पर सीधे-सीधे चोट की जो इस कथन के हिमायती हैं कि भारत में सामाजिक प्रगति के साथ-साथ नागर विकास भी पश्चिमी संपर्क की देन है अथवा जो 18वीं-19वीं शताब्दी से पूर्व नगरीय विकास को नगण्य मानते हैं। सुभाष का कहना था कि वे भारी भूल कर रहे हैं। उन्होंने इस प्राचीन धरती पर हमारे पूर्वजों द्वारा बसाई गई नगरीय सभ्यता को समझाते हुए कहा-


"इसे समझने के लिए आपको सिर्फ़ मोहनजोदड़ों के अवशेषों की तरफ़ मुड़ना पड़ेगा और मोहनजोदड़ो के बाद यदि आप मौर्य साम्राज्य की तरफ़ आएँ और साम्राज्य की राजधानी पाटिलपुत्र के दस्तावेजों तथा निर्माण का अध्ययन करें; तो आप पाएँगे कि पाटिलपुत्र शहर न सिर्फ़ काफ़ी विकसित था बल्कि उस शहर में नागर सरकार के विभिन्न तरह के कार्य थे; जिसकी तुलना किसी भी आधुनिक नगरपालिका से सहज ही की जा सकती है।(बम्बई महापालिका में भाषण, 10-5-1938; नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ 29)





सुभाष ने आगे के दौर को (18वीं शताब्दी तक) अंधकार युग कहा जिसमें राष्ट्रीय जीवन में भारी उथल पुथल हुई और सबसे बड़ी बात यह कि कई शताब्दियों की दासता एवं गुलामी ने हमें अपने अतीत को भुला देने में मदद की।


14 मई, 1938 को कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस तथा अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मुहम्मद अली जिन्ना के बीच बातचीत हुई। जिन्ना ने सुझाव दिया कि जो भी समझौता हो वह कांग्रेस और मुस्लिम लीग की स्थिति की साफ समझ के आधार पर होना चाहिए। मुहम्मद अली जिन्ना ने प्रस्ताव रखा कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों का प्रतिनिधि संगठन मुस्लिम लीग तथा हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन कांग्रेस होगा। कांग्रेस अपने आपको किसी खास समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन नहीं मान सकती थी। यह संगठन हर समुदाय के लिए समान अवसर प्रदान करने वाला था। आम नीति और काम करने के तरीकों का स्वागत करने वाला हर भारतीय इसके अंदर प्रवेश पा सकता था। किसी भी प्रकार का सांप्रदायिक संगठन बनने की कोई अपील कांग्रेस स्वीकार नहीं कर सकती थी। यह अल्पसंख्यक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले तमाम संगठनों के साथ सहयोगपूर्ण, खुला विचार-विमर्श करने की इच्छा रखती थी। वहीं मुस्लिम लीग को मुहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था माने जाने पर जोर दे रहे थे। इससे संबन्धित तीन प्रस्ताव उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति के समक्ष रखे। जिन्ना का दावा किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं था। उत्तर भारत में जमाअतुल उल्मा-ए-हिन्द के साथ-साथ अहरार पार्टी कांग्रेस का समर्थन कर रही थी। " मई 1937 में होने वाली अहरार सभा में 'पुराने जमाने का राजनीतिज्ञ' कह कर जिन्ना की निंदा की गई। ...जो संविधानवाद के अंधभक्त हैं। और मुस्लिम लीग के संबन्ध में कहा गया कि यह थोड़े से नाइटों, खान बहादुरों और नवाबों की टोली है।" (आधुनिक भारत, सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन, 1996, पृष्ठ-398)


जिन्ना के इस प्रस्ताव पर कि अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की कार्यकारी परिषद के लिए, मुस्लिम लीग को हिन्दुस्तान के मुसलमानों का आधिकारिक तथा प्रतिनिधि संगठन मानने के अलावा हिन्दू-मुसलमान के किसी समझौते के सवाल का हल निकालना संभव नहीं है' अपनी बात स्पष्ट करते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि मुसलमानों के ऐसे बहुत से संगठन हैं जो मुस्लिम लोग से स्वतंत्र रह कर सक्रिय हैं। बहुत से मुसलमान कांग्रेस के समर्थक ही नहीं व्यक्तिगत तौर पर कांग्रेसी हैं। सीमांत प्रांत में मुसलमान बहुसंख्यक हैं जो कांग्रेस के साथ मजबूती से जुड़े हैं। सुभाष ने जिन्ना को लिखे एक पत्र में कहा कि हिन्दुस्तान को अपना घर मानने वाले सभी समुदाय, नस्ल, जातियाँ एवं वर्ग का प्रतिनिधित्व कांग्रेस की अटूट परंपरा रही है। कांग्रेस किसी भी प्रकार का सांप्रदायिक संगठन नहीं है। इसने सदैव सांप्रदायिक शक्तियों के ख़िलाफ़ मजबूती से संघर्ष किया है। मुस्लिम लोग सिर्फ़ मुस्लिम हितों को पूरा करने तथा सदस्यता को सिर्फ़ मुसलमानों को उपलब्ध कराने की दृष्टि से पूरी तरह सांप्रदायिक संगठन है। सुभाष ने लीग की इस विडंबना को अपने पत्र में स्पष्टता के साथ रखते हुए कहा कि वह हिन्दू-मुसलमान समस्या पर कांग्रेस के साथ समझौता तो करना चाहती है किंतु अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने वाले मसलों पर समझौता नहीं चाहती है।


कांग्रेस कार्यसमिति ने कहा कि यदि मुस्लिम लीग परिषद कांग्रेस के साथ समझ बना पाए तो कार्यसमिति को प्रसन्नता होगी। 25 जुलाई, 1938 को लिखे इस पत्र के जवाब में जिन्ना ने कहा कि अखिल भारतीय मुस्लिम लीग को न तो कांग्रेस से किसी स्वीकृति या पहचान की आवश्यकता है और न बंबई के इस कार्यकारी परिषद के प्रस्ताव से। उन्होंने आगे यह भी लिखा कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या के समाधान हेतु कांग्रेस ही उसके पास गई थी। इससे यह बात कि सांप्रदायिकता की समस्या के समाधान के लिए पहल कांग्रेस की ओर से ही की गई थी, स्पष्ट होती है। जिस पर कांग्रेस अभी भी अडिग थी। अंततः कांग्रेस और मुस्लिम लीग परिषद में कोई सहमति नहीं हो पाई और स्थिति ज्यों की त्यों गरमाती रही। सांप्रदायिकता का भयावह रूप देश में तरह-तरह से तांडव करता रहा। जिसके परिणाम आगे चल कर और भी भयंकर निकले।


चीन के साथ कांग्रेस कार्यसमिति के अपने संबन्ध में सुभाष की घोषणा के अनुसार 12 जून, 1938 को 'अखिल भारतीय चीन दिवस धूमधाम से मनाया गया। 7, 8 व 9 जुलाई को चीनी झंडा दिवस मनाते हुए चीनी झंडों के लघुरूपों को बेच कर एवं फंड जुटाने के अन्य गहन अभियानों के तहत बाईस हजार रुपये इकट्ठे करने का लक्ष्य रखा। इसके साथ-साथ भारत की सहानुभूति एवं सदिच्छा के रूप में सुसज्जित एंबुलेंस कार एवं कई चिकित्साकर्मियों को चीन की सहायतार्थ भेजा। चीन के जन शिक्षा निदेशक और राजनीतिक परिषद के सदस्य प्रो. ताई ची ताओ के सम्मान में दिए गए भोज के अवसर पर सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि चीन के लिए इस चिकित्सा मिशन का व्यावहारिक मूल्य क्या है, उन्हें नहीं मालूम किंतु इसका एक नैतिक मूल्य है क्योंकि यह मिशन चीन में हमारे भाई-बहनों के लिए हार्दिक सहानुभूति पैदा करेगा।' (यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट हॉल में बोस का भाषण, 12 अगस्त 1938: नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ-31)




संघीय योजना के बारे में सुभाष के पहले वक्तव्य पर कांग्रेस के दक्षिणपंथी खेमे में बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई। जिसमें गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के अधीन विचारार्थं संघीय योजना पर मानचेस्टर गार्डियन में छपे एक वक्तव्य का ज़िक्र था, जिसमें उन्होंने संघीय योजना पर अपनी पूरी असहमति भेजी थी। प्रस्तुत वक्तव्य में सुभाष ने भारत के इतिहास की उस निर्णायक घड़ी का जिक्र किया जब परिस्थितियाँ इस बात के अनुकूल थीं कि सभी एकजुट हो कर एक आवाज़ में यदि बोलते तो अंग्रेजी सरकार को अपनी मांगे मनवाने के लिए राजी कर सकते थे। उन्होंने संघीय योजना पर वर्तमान दुर्बलता को दिखाना एक तरह से कांग्रेस को कमजोर एवं अंग्रेजी सरकार को मजबूत करना बताया। हालाँकि सुभाष का यह वक्तव्य अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के उसी वक्तव्य की पुनरावृत्ति था जो हरिपुरा अधिवेशन में स्वीकृत किया गया था और संघीय योजना के प्रति निंदा तथा संपूर्ण विरोध दोहराया था।


सुभाष ने एक अन्य वक्तव्य में इस बात की संभावना को भी व्यक्त किया कि हो सकता है संघीय योजना के इस मुद्दे पर कांग्रेस का बहुमत अपनी स्वीकृति दे कर दल में गहरा विभाजन करा दें। इस मुद्दे पर उठे विवाद पर सुभाष को बेहद आश्चर्य एवं दुःख हुआ।


आर्थिक नियोजन एवं विज्ञान


इंडियन साइंस न्यूज एसोसिएशन की तीसरी आम सभा की अध्यक्षता करते हुए सुभाष ने प्रो. मेघनाद साहा के इस सवाल पर कि कांग्रेस स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र के विकास के लिए किस तरह के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर रही है, सुभाष ने साफ़ तौर पर अपनी बात रखते हुए कहा कि अब भारत में जन आंदोलन उस दौर में है जहाँ से स्वराज की मान्यता कोई सपना नहीं हकीकत है। वैसे भी ग्यारह प्रांतों में से सात में कांग्रेस मंत्रिमंडल है। भारत में औद्योगीकरण के सवाल पर उन्होंने कहा कि जब तक हम औद्योगिक क्रांति की व्यथा से नहीं गुजरते; कोई औद्योगिक उन्नति संभव नहीं है। उनका मानना था कि वर्तमान दौर आधुनिक इतिहास का औद्योगिक काल है। औद्योगिक क्रांति का होना लाजिमी है, अब सवाल यह है कि वह क्रांति ब्रिटेन की तरह धीरे-धीरे आती है या सोवियत रूस की तरह बलपूर्वक बदलाव के तहत। सुभाष को इस बात का डर था कि भारत में बलपूर्वक ही बदलाव आना है। (नेताजी संपूर्ण वांग्मय, पृष्ठ-18)


उन्होंने राष्ट्रीय सरकार होने पर 'राष्ट्रीय योजना आयोग' की नियुक्ति पर बल देते हुए कहा कि 'हम पूर्ण स्वराज की प्रतीक्षा करते हुए आर्थिक नियोजन को दिशा में बढ़ रहे हैं।' इसी बाबत उन्होंने आगे जोड़ा कि वे कुटीर उद्योग को ख़ारिज तो नहीं करते किंतु हमें उसके पुनरुद्धार एवं संरक्षण की हरसंभव कोशिश करते हुए औद्योगीकरण के लिए बड़े पैमाने पर आर्थिक नियोजन करना चाहिए। राष्ट्रीय नियोजन के कुछ सिद्धांतों पर अपनी राय रखते हुए उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दे सुझाए-


राष्ट्रीय स्वायत्तता पर मुख्य रूप से अपनी ख़ास आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करना।


मूल उद्योगों की वृद्धि तथा विकास केन्द्रित नीति का अपनाना जैसे बिजली मशीन औजार निर्माण, परिवहन, संचार, धातु उत्पादन रसायन उद्योग इत्यादि ।


तकनीकी शिक्षा एवं तकनीकी शोध हेतु प्रशिक्षण के लिए विद्यार्थियों को विदेश भेजना। 

राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद का गठन।


राष्ट्रीय योजना आयोग के लिए जरूरी आँकड़े इकट्ठा करने हेतु आर्थिक सर्वेक्षणा औद्योगीकरण की समस्याओं तथा कांग्रेस के नज़रिये के सवाल पर सुभाष ने उभरती पीढ़ी के औद्योगीकरण के पक्ष में होने के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत किए-


औद्योगीकरण बेरोजगारी के संकट को दूर करने के लिए जरूरी है।


उभरती पीढ़ी राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के बारे में समाजवादी दृष्टिकोण से सोचती है। समाजवाद औद्योगीकरण को पूरी तरह स्वीकार करता है।


विदेशी उद्योगों के प्रति प्रतिस्पर्द्धा हेतु औद्योगीकरण जरूरी है। 


प्रो. मेघनाद साहा के इस सवाल पर कि आजादी हासिल करने के बाद भारत क्या एक राष्ट्र बनेगा, सुभाष ने स्पष्टता के साथ जवाब दिया- 'हाँ, कांग्रेस भारत की एकता और अखंडता के लिए अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग है। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए कई एक चीजें अतिआवश्यक हैं। मसलन- आम बोलचाल की भाषा, खानपान, पहनावा आदि के लोकप्रिय तरीके। किंतु इस सबसे ज्यादा इस एकता के लिए जो जरूरी चीज है वह है 'हमारी इच्छा शक्ति'। सुभाष आम राष्ट्रीय जीवन में बढ़ती ग़रीबी और बेरोजगारी से चिंतित नजर आते। वे यथासंभव इन सवालों पर गौर करते तथा विभिन्न योजनाएँ बनाते। किसानों की बेहतर हालत के लिए वे खेती में गुणात्मक सुधार के साथ-साथ कृषि उपकरणों की दक्षता को भी जरूरी समझते थे। सुभाष का मूल लक्ष्य था कि प्रत्येक नर-नारी, बच्चा, बुजुर्ग सभी बेहतर खाएँ, बेहतर पहनें, बेहतर स्वास्थ्य के साथ-साथ मनोरंजन एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों आदि के लिए पर्याप्त समय जुटा पाएँ। वे अक्सर सोवियत रूस की स्थिति की तुलना भारत से करते और कहते कि प्रथम विश्वयुद्ध से पहले रूस की हालत भारत जैसी थी- कृषि प्रधान देश होते हुए 70 प्रतिशत जनता बहुत ही दयनीय और दुःखी थी। उद्योग-धंधे बुरी हालत में थे। तमाम तरह की रूढ़ियाँ एवं संकीर्णताएँ समाज में मौजूद थीं। किंतु पिछले दो दशकों के दौरान वहाँ किसानों और कामगरों की हालत बिल्कुल बदल चुकी है।


उनका कहना था कि 'हिन्दुस्तान में मौजूदा अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए औद्योगीकरण को अपनाना होगा। औद्योगीकरण का यह मतलब कतई नहीं है कि हम कुटीर उद्योगों की तरफ ध्यान न दें। इससे बिल्कुल ही अलग इसका अर्थ यह है कि कौन-सा उद्योग कुटीर उद्योग के आधार पर तथा कौन सा उद्योग बड़े उद्योग के आधार पर विकसित होना चाहिए।' सुभाष के अनुसार उद्योगों को आमतौर पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है- भारी, मध्यम एवं कुटीर उद्योग। राष्ट्रीय उद्योगों की रीढ़ भारी उद्योगों का आर्थिक विकास में खासा महत्त्व है। यह पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में होते हैं। मध्यम उद्योग बड़े-बड़े व्यापारियों तथा सरकार का साझा स्वरूप होते हैं। वहीं कुटीर उद्योग में हथकरघा उद्योग इत्यादि आते हैं। संयुक्त प्रांत छात्र सम्मेलन इलाहाबाद में दिए गए एक संदेश में उन्होंने कहा- 'आज के विद्यार्थी कल के नेता हैं और राष्ट्र की आशाओं और आकांक्षाओं के जीवंत रूप हैं। वे राष्ट्र के सबसे अधिक आदर्शवादी हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। पूरी दुनिया के छात्र एक बड़े भाईचारे के सहभागी हैं। इसी भाईचारे की भावना को फैलाना अपना कर्तव्य समझ कर उन्हें सभी भारतीयों को एकसूत्र में बाँधने की कोशिश करनी चाहिए।" (संयुक्त प्रांत छात्र सम्मेलन में दिया गया सुभाष का संदेश, 29 अक्टूबर 1938, संपूर्ण वाङ्मय, खंड-9, पृष्ठ 46)


सुभाष कांग्रेस का अंतर्निरीक्षण करते हुए कई बिंदुओं पर स्वयं को केन्द्रित करते। प्रथम तो कांग्रेस की स्थापना से ले कर 1938 तक सदस्यता में आया जबरदस्त उछाल था। 1885 से ले कर इस दौर की कांग्रेस में एक फ़र्क उसकी वृहद सदस्यता ही नहीं अपितु एक और चीज थी, वह थी कि कांग्रेस की स्थापना के समय मध्य एवं उच्च वर्ग इससे जुड़ा था जबकि 1938 तक आते आते कांग्रेस अधिकांश भारतीयों के हृदय की राजनीतिक धड़कन बन गई थी। सुभाष का मानना था कि कांग्रेस का आम जनता में इस क़दर प्रचार एवं प्रसार करने एवं पहुँच बनाने वाले पहले नेता निःसंदेह महात्मा गांधी हैं। "महात्मा गांधी ने जिस प्रक्रिया की शुरूआत की उसके फल देने का अब वक़्त आ गया है।" (अक्टूबर 1938 के नेशनल फ्रंट में प्रकाशित लेख, नेता जी संपूर्ण वाड्मय खंड-9, पृष्ठ-47)


इस दौर में जबकि समाज में विभिन्न प्रकार के धर्म एवं संप्रदाय के विषधर अपने फन उठा कर सांप्रदायिकता एवं संकीर्णता पैदा कर रहे हैं, यह बहुत जरूरी है कि इन सब कुचक्रों के खिलाफ़ राष्ट्रवादी अपील को प्रमुखता दी जाए।


दूसरा मुद्दा होता कांग्रेस का सांगठनिक रूप तथा उसका अनुशासन। कांग्रेस प्रारंभ से ही विभिन्न प्रकार के लांछन सहती रही है। बावजूद इस सबके उसका काम निरंतर बढ़ता रहा है। इसमें बहुत से लोग एवं संगठन जुड़ कर इसे समृद्ध करते रहे हैं। सुभाष मानते थे कि किसी भी संगठन के लिए अनुशासन एवं कर्तव्य भावना का होना बहुत जरूरी है। इसके बगैर सांगठनिक प्रगति की बात करना बेमानी है। उनका कहना था कि व्यवस्थित रूप से यदि व्यापक जन प्रचार पर जोर दिया जाए तो सभी धर्मों और जातियों के लोगों को स्वराज के झंडे तले इकट्ठा कर पाना निश्चित रूप से संभव हो पाएगा। व्यापक जन-प्रचार अभियान के तहत नए सदस्यों के बारे में सुभाष का कहना था कि उन्हें बेजुबान पशुओं की तरह नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें विभिन्न विषयों पर पहल करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि वे पहल करने में असमर्थ रहेंगे तो बनाई गई कांग्रेस समितियाँ अप्रभावी होंगी : वस्तुतः सक्रियता का अभाव रहेगा। तीसरा मुद्दा था त्याग भावना, जिस पर सुभाष अपनी विशिष्ट सोच रखते थे। वे महसूस करते थे कि त्याग भावना हमारे अंत:करण पर निर्भर करती है। हालांकि वे कांग्रेस में बढ़ रही अवसरवादिता एवं भ्रष्टाचार के प्रति भी चिंतित नजर आते थे, जिसका जिक्र उन्होंने महात्मा गांधी को लिखे पत्रों में भी किया था।


दिसंबर 1938 में 'अखिल भारतीय योजना समिति' को कार्यरूप देने की घोषणा करते हुए सुभाष ने उद्घाटन भाषण में कुटीर उद्योग से बड़े उद्योगों के अंतः संबन्ध की बात की तथा उनके बीच किसी भी अंतर्निहित द्वंद्व के न होने की बात स्वीकार करते हुए कहा कि राष्ट्रीय योजना समिति को मूल उद्योगों (मूल उद्योग ऊर्जा उद्योग, धातु उत्पादन के लिए भारी रसायन मशीनरी कलपुर्जों का उद्योग, रेलवे तार दूरभाष, रेडियो आदिकी और ध्यान देते हुए अन्य ख़ास किस्म की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ना होगा। 19 अक्टूबर, 1938 को जवाहर लाल नेहरू को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा था- 'मुझे आशा है तुम योजना समिति की अध्यक्षता स्वीकार करोगे। यदि इसे सफल करना है, तो तुम्हें अवश्य स्वीकार कर लेनी चाहिए।' भाषण के समापन भाग में सुभाष ने साफ कहा कि औद्योगीकरण की योजना के लिए आवश्यक धन तथा कर्ज जुटाने की समस्या की ओर ध्यान देना होगा वरना होगा यह कि सभी योजनाएँ सिर्फ कागजी बन कर रह जाएँगी और अपनी औद्योगिक प्रगति में हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएँगे। सुभाष चन्द्र बोस द्वारा राष्ट्रीय योजना समिति की औद्योगिक पहल को ले कर भारतीय व्यापारियों ने इसे बड़ी तत्परता के साथ लिया। बिडला, लाला श्रीराम और विश्वसरैया आदि को कांग्रेसी उद्योग मंत्रियों के इस सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था। जवाहर लाल नेहरू ने माना कि " बड़ी सीमा तक वर्तमान संरचना को और कुछ नहीं तो एक आधार के रूप में स्वीकार किए जाने की आवश्यकता है। (के. टी. शाह के नाम पत्र, 13 मई 1939, मार्कोवित्ज, पृष्ठ 236, उद्धत आधुनिक भारत, सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 105) और इस तरह 1938-39 के दरम्यान एक नए और अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुनः संयोजन के लक्षण दिखाई देने लगे।




अब सवाल उठता है सुभाष बार-बार एक हो कर संघर्ष करने की बात, एक-दूसरे से जुड़ने की बात अथवा सभी कांग्रेसी एक स्वर में बोलें, एक इच्छाशक्ति से सोच विचारे आदि प्रवृत्तियों को अपनाने की बात क्यों करते हैं? क्या उन्हें अलग-अलग टूट कर बिखरने के किसी खतरे का अंदेशा था? ऐसा क्या था जो राष्ट्रीय प्रगति में बाधक बन कर क्षुद्र मतभेद तथा आपत्तियों को उठा रहा था? दरअसल कांग्रेस के अंदर दो दल स्पष्ट तौर पर नजर आ रहे थे। "आज जब मैं देश की स्थिति का विश्लेषण करता हूँ तो दक्षिणपंथ का संविधानवाद की तरफ झुकाव पाता हूँ जबकि वामपंथ का झुकाव गैर-जिम्मेदारी तथा अस्पष्टता की तरफ़ है...। कांग्रेस के वामपंथी तत्त्व पिछले कुछ महीनों के दौरान आगे बढ़ने की जगह मैदान छोड़ चुके हैं। (17 जनवरी, 1939 को बंबई से जारी वक्तव्य, नेता जी संपूर्ण वांग्मय, खड 9, पृष्ठ-54-55) विभिन्न प्रांतों में प्रतिक्रियावादी मंत्रिमंडल होने के कारण वातावरण सांप्रदायिक होता जा रहा था. जिसके फलस्वरूप कट्टर मुसलमानी सांप्रदायिक संगठन मुस्लिम लीग के सामने कांग्रेस का असर कमजोर होता जा रहा था। इसी चिंता और समस्या को ले कर सुभाष ने 21 दिसंबर, 1938 को महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में कहा कि सांप्रदायिकता की इस समस्या को कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ मुसलमानों की शिकायतों की जाँच कर के हल करना चाहिए। उनको शिकायतों को समझने की चेष्टा करनी चाहिए। वहाँ सिंध, बंगाल एवं पंजाब में गठजोड़ मंत्रिमंडल को व्यावहारिक बनाते हुए हिन्दू मुसलमान के आपसी बंधुत्व को बढ़ावा देना चाहिए। ताकि त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन जो 29 मार्च, 1939 को होना निश्चित था, से पहले इन समस्याओं को सुलझा कर अंग्रेजी सरकार के समक्ष पूर्ण स्वराज की अपनी माँग को रख सके। इसके लिए अंग्रेजी सरकार को निश्चित अवधि तक उत्तर की माँग रखते हुए एक प्रस्ताव पारित किया जा सकता है, जिसके पूरा न होने पर जरूरी कार्रवाई के जरिए सत्याग्रह आंदोलन आरंभ कर सकते हैं। (महात्मा गांधी को सुभाष का लिखा पत्र, 21-12-1938; नेता जी संपूर्ण वाङ्मय, खड-9, पृष्ठ - 106-109) दरअसल सुभाष का मानना था कि यूरोप में राजनीतिक समीकरण इस कदर बिगड़ रहे हैं कि कभी भी फट सकते हैं। इस तनावपूर्ण एवं संकटग्रस्त माहौल में किसी भी भारतीय संघर्ष को अंग्रेज जारी रख सकने की स्थिति में नहीं होंगे। लिहाजा एक बड़े पैमाने पर चल रहे सत्याग्रह को दबा पाना उनके लिए इतना आसान न होगा, तब किसी न किसी बिंदु पर भारतीय विजय का होना निश्चित हो जाएगा।


कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से सुभाष चन्द्र बोस ने हरसंभव कोशिश की कि ब्रिटिश सरकार के साथ किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया जाए। इस रवैये को ले कर महात्मा गांधी के समर्थक कुछ हद तक सुभाष के प्रति नाराजगी दिखाने लगे। उधर सुभाष के औद्योगीकरण हेतु राष्ट्रीय योजना समिति के गठन से एवं एक व्यापक योजना तैयार करने के विपरीत महात्मा गांधी को यह बुरा लगा। क्योंकि गांधी जी औद्योगीकरण का विरोध करते हुए कुटीर उद्योग को ही बढ़ावा देना चाहते थे। उधर यूरोप की स्थितियों को सुभाष ने पढ़ा एवं सितंबर 1938 में म्यूनिख समझौता हो जाने के बाद आगे आने वाले संघर्ष के लिए तैयारी हेतु प्रचार करना आरंभ कर दिया। सुभाष को इस बात का इंतज़ार था कि जैसे ही यूरोप में लड़ाई छिड़ती हैं, भारत में संघर्ष शुरू कर दिया जाएगा। 19 जनवरी 1939 को रवीन्द्र नाथ टैगोर ने स्वयं के राजनीतिक मंच से दूर रहने के बारे में एवं सुभाष चन्द्र बोस के स्वागत हेतु 4 फ़रवरी, 1939 के लिए आमंत्रण की सूचना प्रेषित करते हुए कहा-


"आज बंगाल की स्थिति दयनीय है। मैं चाहता हूँ कि किसी योग्य व्यक्ति को बंगाल का मार्गदर्शन सौंपा जाए जिसके इर्द-गिर्द बंगाली लोग एकत्रित हों। इस एकता के बलबूते पर ही बंगाल एक बार पुनः अपनी योग्यता जाहिर कर पाएगा। इसी उद्देश्य से मैं थियेटर में आपका स्वागत करना चाहता हूँ। इस प्रकार हम उस उपलब्धि की अपेक्षा अधिक सफल हो सकते हैं, जो कांग्रेस द्वारा होनी है। यह अनुभव मुझे बंगाल विभाजन के समय हुआ। जिस तरह से बंगाल ने अपनी इच्छा उस समय जाहिर की, वैसा आज तक इतिहास में कभी नहीं हुआ। वह जागरूकता एक बार पुनः पैदा करने की आवश्यकता है। उसके लिए मैं आप पर निर्भर करता हूँ।" (रबीन्द्र नाथ टैगोर का सुभाष चन्द्र बोस को लिखा पत्र, 19-1-1939; नताजी संपूर्ण वाङ्मय, खंड-9, पृष्ठ-205)


देशनायक

सुभाष चन्द्र बोस के काम का सही मूल्यांकन भारतीयों ने किया। सुभाष हर प्रकार की विघ्न-बाधाओं के बावजूद खुले दिल से देशवासियों की सेवा में जुटे थे। रवीन्द्र नाथ टैगोर को सुभाष चन्द्र बोस के अंदर की प्रशासनिक क्षमता का पूरा अहसास था। वे जानते थे कि सुभाष भारत की स्थिति को अच्छी तरह से पहचानते हैं। उन्होंने भारत के बाहर यूरोप के विभिन्न देशों में वहाँ के जीवन दर्शन, इतिहास, राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान आदि का गहनता से अध्ययन किया है। वे जानते थे कि सुभाष चन्द्र बोस इस देश के उपयुक्त नेता हैं तभी तो रवीन्द्र नाथ टैगोर कहते थे-


"मैंने पूरे मन से आपको देश का नेता स्वीकार किया है।" 


शिक्षा और जीवन के अपने दर्शन पर गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा-


"जो शिक्षा को जीवन से अलग कर देते हैं, वे इसका दम घोंट देते हैं। वे मानव मस्तिष्क को टुकड़े-टुकड़े करके बचाने का प्रयत्न करते हैं। यहाँ मैंने शिक्षा को जीवन से जोड़ा है- प्रसन्नता, आह्लाद, कला और हर चीज से जोड़ा है।" (सार्वजनिक अभिनंदन समारोह में सुभाषचन्द्र बोस का स्वागत करते हुए रवीन्द्र नाथ टैगोर का भाषण, 21 जनवरी, 1939; नेता जी संपूर्ण वाङ्मय, खंड-9, पृष्ठ-208)


टैगोर के आह्वान पर बोस ने अपनी प्रतिक्रिया में टैगोर के बलिदान के महत्त्व को उजागर करते हुए कहा-

"हम लोग बलिदान का अर्थ ग़लत रूप में ग्रहण करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसमें बहुत दुःख और कष्ट है जबकि वास्तविक बलिदान में कोई कष्ट नहीं है। कोई भी व्यक्ति दुःख के आभास के साथ बलिदान नहीं कर सकता। बलिदान में अनंत सुख की अनुभूति ने आपके जीवन को बहुत परिवर्तित किया है, वही प्रसन्नता और उत्साह हमें भी प्रेरणा है।" (टैगोर के आह्वान पर बोस की प्रतिक्रिया, नेताजी संपूर्ण वांग्मय, खंड-9)


रवीन्द्र नाथ टैगोर ने सुभाष चन्द्र बोस को 'लोगों का नेता'' देशनायक की उपाधि दी। इसका उल्लेख गुरुदेव को इस रिपोर्ट में है जो उन्होंने सुभाष के नाम तैयार की थी। यह रिपोर्ट गुरुदेव को सुभाष चन्द्र बोस के स्वागत समारोह में पढ़नी थी, जो 3 फ़रवरी को होना निश्चित था। किंतु किन्हीं अपरिहार्य कारणों से तथा गुरुदेव की शारीरिक कमजोरी के लगातार बढ़ने के कारण यह समारोह स्थगित कर दिया गया।


कांग्रेस बिखराव के कगार पर

सुभाष चन्द्र बोस और दक्षिणपंथियों के बीच मतभेद 1938 में पूरे साल धीरे-धीरे गहरे होते चले गए। सुभाष जितना आगे बढ़ने की कोशिश करते, उतना ही उदारपंथी पीछे। उदारपंथी निश्चित लीक से जौ भर भी आगे बढ़ने को तैयार न होते। महात्मा गांधी को सुभाष का गैर समझौतावादी, स्पष्ट एवं समाजवादी रवैया पसन्द नहीं आया। सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि वर्तमान दौर पूरी तरह निर्णायक सिद्ध हो सकता है। उन्हें पूरा विश्वास था कि सरकार को यदि अल्टीमेटम दे दिया जाए तो उससे अपनी स्वराज की माँग को मनवाने एवं संघर्ष को तेज करने के लिए यह उपयुक्त समय है। सुभाष सोचते थे कि आगे की इस लड़ाई को जारी रखने एवं विकास तथा औद्योगिक उन्नति के लिए अगला अध्यक्ष ऐसा होना चाहिए जो सरकार से किसी भी कीमत पर समझौता करने के लिए सहमत न हो। कुछ उदारवादी कांग्रेसियों का रुख संघीय व्यवस्था के विरोध में ढुलमुल एवं लचीला हो रहा था जिससे भारी खतरा था। सुभाष किसी भी कीमत पर अंग्रेजी सरकार से समझौता नहीं करना चाहते थे। उधर अधिकांश प्रांतीय कार्यकारिणियों ने सुभाष का नाम अगले अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया था। किंतु गांधीवादी किसी भी सूरत में सुभाष को पुनः अध्यक्ष नहीं होने देना चाहते थे।


उधर गांधी जी तथा जवाहर लाल नेहरू ने वारदौली में मौलाना अबुल कलाम आजाद पर जोर डाला कि वे त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस की अध्यक्षता स्वीकार करें। सुभाष की पुनः अध्यक्षता हेतु नामांकन प्रांतीय कांग्रेस कमेटी तथा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के आठ नेताओं द्वारा पहले ही भेजा जा चुका था, अतः मौलाना आजाद अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने में हिचकिचा रहे थे। यह उल्लेखनीय है कि बारदौली की उस प्रस्तावित बैठक में सुभाष नहीं थे। इस अनौपचारिक बैठक में मौलाना अबुल कलाम आजाद, पं. जवाहर लाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, भूलाभाई देसाई, आचार्य कृपलानी, सरदार पटेल तथा गांधी जी मौजूद थे। इस बैठक में सुभाष चन्द्र बोस को शामिल न करना क्या यह नहीं दर्शाता कि सुभाष की कार्यप्रणाली के विरोध में कांग्रेस के दिग्गज उठ खड़े हुए थे जो किसी भी कीमत पर सुभाष को पुनः अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित होते नहीं देखना चाहते थे। बहरहाल मौलाना आजाद द्वारा इस जिम्मेदारी को उठाने में हो रही झिझक को देख कर गांधी जी एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल ने डॉ. पट्टाभि सीतारमैया (पट्टाभि सीतारमैया 1916 से अपना डॉक्टरी का पेशा छोड़ कर कांग्रेस में पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में शामिल हो गए थे। वे गांधीवाद के पंथ के सच्चे पुजारी थे। वे आंध्र प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष तथा कार्यसमिति के एक सदस्य के रूप में कार्यरत थे।) का नाम सुझाया। 21 जनवरी, 1939 को डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को मौलाना अबुल कलाम आजाद का तार मिला जिसमें उन्होंने अपना नाम वापस ले कर डॉ. पट्टाभि के निर्विरोध निर्वाचन की कामना की थी।


सुभाष चन्द्र बोस पर चुनाव न लड़ने तथा डॉ. पट्टाभि के समक्ष अपना नाम वापस ले लेने के लिए तरह-तरह का जोर डाला गया। इसी संदर्भ में सुभाष के भाई शरत चन्द्र बोस तथा सरदार वल्लभ भाई पटेल के बीच तारों का आदान-प्रदान हुआ जिसमें साफतौर पर डॉ. पट्टाभि की सिफारिश करते हुए सरदार पटेल ने निर्वाचन न कराने की माँग की थी। शरतचन्द्र बोस ने साफ़-साफ़ कहा-


'आपका प्रस्तावित बयान वामपंथी एवं दक्षिणपंथी खेमों में मनमुटाव बढ़ाएगा, जिसे टाला जाना चाहिए। भावी संघर्ष में डॉ. पट्टाभि देश के आत्मबल को प्रेरित नहीं करेंगे। कृपया कांग्रेस को न बाँटे।' उनके जवाब में पटेल ने कहा कि पुनर्निर्वाचन देश के लिए हानिकारक होगा।


सुभाष चन्द्र बोस ने सरदार पटेल के पुनर्निर्वाचन के अनर्गल तर्क का जवाब देते हुए स्पष्ट कहा कि संविधान में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जो पुनर्निर्वाचन को रोकता हो। उन्होंने यह भी कहा कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्षों ने भी एक से अधिक बार अध्यक्ष पद का कार्यभार सँभाला है, फिर उनके चुने जाने पर किसी को क्यों आपत्ति होती है? सुभाष ने इस बात का जवाब देते हुए कि 'पुनर्निर्वाचन किन्हीं ख़ास परिस्थितियों में होता है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के इतिहास को अगर देखा जाए तो हम पाएँगे कि एक से अधिक बार पुनर्निर्वाचन हुआ है, बिना किन्हीं ख़ास परिस्थितियों के भी।


सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद आदि नेताओं ने अपने वक्तव्य प्रकाशित किए जिनमें सुभाष से निर्वाचन से हटने की माँग की गई थी। अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति ने भी अपना वक्तव्य 24 जनवरी 1939 को प्रस्तुत किया- "हमें विश्वास है कि डॉ. पट्टाभि कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं..। उनके सहयोगी के नाते सुभाष बाबू से भी हम लोग आग्रह करते हैं कि वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें और डॉ. पट्टाभि सीतारमैया के निर्वाचन को निर्विरोध संपन्न होने दें।"


उधर सुभाष के नाम पर वामपंथी खेमे में पूरी तरह सहमति थी। सुभाष ने अपना नाम वापस ले कर किसी अन्य उम्मीदवार का नाम (वामपंथी खेमे से) रखे जाने की सलाह दी किंतु कई प्रांतों से सुभाष का नाम प्रस्तावित हो ही चुका था। सुभाष चुनाव को किसी विभाजन की कीमत पर कराने को सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि अगर कांग्रेस का दक्षिणपंथी ख़मा एक ऐसा उम्मीदवार अध्यक्ष पद के लिए सामने रखता है जिसे वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही खेमों का विश्वास प्राप्त हो तथा वह ऐसा व्यक्ति हो जो तहेदिल से संघ व्यवस्था का विरोधी हो, तब वे भी इस चुनावी भिड़ंत को रोकने के लिए राजी हैं। वे उस व्यक्ति के पक्ष में चुनाव से हट जाएँगे, किंतु ऐसा नहीं हुआ। डॉ. पट्टाभि का नाम कुछ गांधीवादियों ने सुझाया था। अतः डॉ. पट्टाभि के नाम पर समर्थन देना एक तरह से सभी गांधीवादियों की बाध्यता भी थी। सुभाष चन्द्र बोस का काम 1938 में हरिपुरा चुनाव के बाद अपनी कार्यकारिणी के साथ कुशलतापूर्वक एवं शांतिपूर्वक चलता रहा था। उस कार्यसमिति में जवाहर लाल नेहरू के अतिरिक्त एक भी वामपंथी नहीं था और उन्होंने भी श्रमिक एवं किसान संघर्षशीलता के प्रति कांग्रेसी मंत्रिमंडलों एवं हाईकमान से अधिकाधिक वैमनस्यपूर्ण रवैये को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया था। पूरा वामपंथ चुनाव में अब सीतारमैया के विरुद्ध सुभाष के साथ था। (आधुनिक भारत, सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-418) आखिर कार्यकारिणी के कुछ सदस्य सुभाष के विरोध में एक साथ कैसे हो गए? क्या यह सब कुछ इसलिए हुआ कि अध्यक्ष पद पर बैठा व्यक्ति कांग्रेस पदाधिकारियों के हाथ की कठपुतली नहीं बना? कि उसने गैर समझौतावादी रवैया अपना कर एक स्पष्टवादी स्वर अपनाया? क्या इसलिए कि उसने आगे के संघर्ष की पूरी रूपरेखा तैयार करते हुए स्वराज के सपने को अत्यंत निकट से देख लिया था? क्या इसलिए कि उसने अपनी दूरदर्शिता से आगामी संभावनाओं को खोजने की कोशिश की थी? अथवा क्या इसलिए उसका विरोध किया जा रहा था कि उसने अपनी सही बात कहते हुए महात्मा गांधी की उदारवादी छवि को आहत किया था? क्या इसलिए कि गांधी जी द्वारा संजोया जा रहा भारत, सुभाष के प्रगतिशील एवं समाजवादी ढाँचे से भिन्न था?


अब जबकि चुनाव में मुकाबला करना अपरिहार्य हो गया था। सुभाष ने सभी से अपील की कि चुनावी भिड़ंत में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है, अतः सभी व्यक्तिगत सवालों एवं संकीर्णताओं को भुला कर स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता से अपना मत दें।


29 जनवरी, 1939 को चुनाव में सुभाष 1377 मतों के मुकाबले 1580 मतों से चुन लिए गए। बंगाल एवं पंजाब प्रांत से उन्हें भारी बहुमत मिला जबकि केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, संयुक्त प्रांत और असम से पर्याप्त बढ़त मिली। महाराष्ट्र एवं महाकौशल (हिन्दी भाषी मध्य प्रांत) में मुकाबला कड़ा रहा था। केवल गुजरात, बिहार, उड़ीसा और आंध्र ने ही कमोवेश डॉ. पट्टाभि के पक्ष में जम कर मत दिए। (आधुनिक भारत, सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-418)


इस चुनाव से एक बात तो साफतौर पर स्पष्ट हो गई और वह थी सुभाष की लोकप्रियता। महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू सरीखे नेताओं के खुले विरोध के बावजूद सुभाष को पूरे देश में व्यापक समर्थन मिला था। 31 जनवरी 1939 को महात्मा गांधी ने बारदौली से जारी किए गए एक वक्तव्य में कहा-


"डॉ. पट्टाभि की हार उनकी हार की अपेक्षा कहीं अधिक मेरी हार है।" डॉ. पट्टाभि की हार को गांधीजी द्वारा व्यक्तिगत हार माने जाने पर सुभाष को अत्यंत पीड़ा हुई।


वामपंथियों में एकता के अभाव एवं अकुशल रणनीति के चलते गांधी जी एवं दक्षिणपंथियों की हार विजय में बदल गई। 4 फरवरी को सुभाष ने यह घोषणा की कि "मैं यदि भारत के महानतम व्यक्ति का विश्वास जीतने में नाकाम रह जाऊँ, मेरे लिए यह एक दुःखद चीज होगी"। (सुभाष चन्द्र बोस का पाँचवाँ वक्तव्य, 4 फ़रवरी 1939; नेता जी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ - 75)


22 फरवरी को निर्धारित हुई कार्यकारिणी की बैठक में सुभाष अपनी गंभीर बीमारी की वजह से नहीं जा पा रहे थे। उन्हें तेज बुखार था जो उन्हें 16 फ़रवरी को वर्धा से लौटने के बाद हो गया था। उन्होंने महात्मा गांधी व सरदार पटेल को तार संदेश भी भेजे किंतु कुछ लोगों ने सुभाष के ऊपर आरोप लगाए कि उनकी बीमारी फ़र्जी है और कार्यकारिणी की बैठक को टालने के लिए वे अपने राजनीतिक बुखार का इस्तेमाल कर रहे हैं। उसी दिन कार्यसमिति के 15 में से 13 सदस्यों ने अपने इस्तीफे दे दिए। इनमें जवाहर लाल नेहरू का इस्तीफ़ा भी शामिल था। फर्क ये था कि उनका रवैया बेहद ढुलमुल एवं बहानेबाजी का था।


सुभाष का बुखार लगातार बना हुआ था। डॉक्टर अपनी पूरी कोशिश कर रहे थे कि किसी प्रकार सुभाष त्रिपुरी कांग्रेस के दिन तक ठीक हो जाएँ किंतु उन्हें कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी उस दिन सुभाष ने किसी भी सूरत में पहुँचने का दृढ़ निश्चय कर लिया था क्योंकि इससे पूर्व वे 22 फ़रवरी का परिणाम देख चुके थे। कार्यसमिति के किसी भी सदस्य ने सुभाष की बीमारी को लेकर एक शब्द तक नहीं कहा था बल्कि त्यागपत्र दे कर परेशानी और उलझन को और बढ़ा दिया था। त्रिपुरी का कांग्रेस अधिवेशन 8-12 मार्च 1939 को होना तय था। बुख़ार की हालत में सुभाष त्रिपुरी के लिए निकल पड़े। 6 मार्च को जबलपुर में उन्हें 101"F बुखार था और जब एंबुलेंस द्वारा उन्हें त्रिपुरी ले जाया गया तो वहाँ उनका बुखार बढ़कर 103" हो गया था। स्वागत समिति के डॉक्टरों ने सुभाष की जाँच की। डॉक्टरों को अचंभा हुआ। इस अचंभे का कारण यह था कि वहाँ पर यह आम प्रचार किया गया था कि सुभाष बीमार नहीं है बल्कि बीमारी मात्र बहाना है। लेकिन जब डॉक्टरों ने स्वयं उनकी जाँच की और उन्हें गंभीर रूप से बीमार पाया तो लोगों ने झूठे प्रचार करने के प्रति रोष व्यक्त किया।


सुभाष की लोकप्रियता हालांकि इस घटना से भी आँकी जा सकती है कि जब सुभाष बीमार पड़े तो उनके पास पहुँचने वाले ढेरो पत्र-तार, पार्सल एवं पैकेट इत्यादि होते जिनमें उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की गई होती। किसी ने कोई नुस्खा लिखा होता. किसी जड़ी-बूटी का नाम लिखा होता तो कोई पार्सल के जरिए विभिन्न दवाओं, ताबीज़ों को भेजता। कुछ ज्योतिषी और साधु प्रचलित रीति के अनुसार आशीर्वाद स्वरूप पुष्पों पत्रों आहुति भस्मों आदि को प्रेषित करते। यह सिलसिला कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक था। सुभाष के कितने शुभचिंतक थे, इसका पत्रों के ढेर को देख कर आसानी से पता लगाया जा सकता है।





त्रिपूरी कांग्रेस


त्रिपुरी कांग्रेस के अधिवेशन के समय सुभाष के बीमार होने के कारण तथा कमज़ोरी की हालत में अपने संक्षिप्त अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा कि 'यह वर्ष अनेक प्रकार से असहज तथा असाधारण होने के लिए वचनबद्ध है।' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अतिथि के रूप में मिस्र से आए वफ्द पार्टी के प्रतिनिधि मंडल का स्वागत करते हुए महात्मा गांधी के राजकोट मिशन की सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त की गई। सुभाष ने एक प्रस्ताव रखते हुए कहा-


'अब वह समय आ गया है जब हम स्वराज के मुद्दे को उठा कर एक अल्टीमेटम के रूप में ब्रिटिश सरकार के समक्ष रखें। इससे पहले कि यूरोप में शांति स्थापित हो, हमें अपनी माँगों को रखते हुए छ: महीने की अवधि दे देनी चाहिए। आगे अगर यूरोप में शांति स्थापित हो गई तो ब्रिटेन एक अधिक मजबूत साम्राज्यवादी नीति लागू करने लगेगा। अगर हमारी राष्ट्रीय माँगें इस अवधि में नहीं मानी जाती अथवा अंग्रेजी सरकार का उत्तर अपेक्षित न हो तो हमें व्यापक स्तर पर नागरिक अवज्ञा या सत्याग्रह आरंभ कर देना चाहिए।" (त्रिपुरी में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 52वें अधिवेशन में दिया सुभाष का अध्यक्षीय भाषण, नेता जी संपूर्ण वांग्मय, खंड 9, पृष्ठ-78-79) मगर इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए इसे अस्वीकार कर दिया गया।। दक्षिणपंथी नेता गोविन्द बल्लभ पंत ने इस अधिवेशन में सुभाष पर सुविचारित आक्रमण किया। यह आक्रमण एक प्रस्ताव के माध्यम से किया गया जिसकी दो मुख्य बातें इस प्रकार थीं। 


1. काग्रेस पुरानी कार्यकारिणी में पूर्ण विश्वास व्यक्त करती है।

2. कांग्रेस अध्यक्ष से अनुरोध करती है कि वे कार्यकारिणी का चुनाव या गठन गांधी जी की इच्छानुसार करें।


यह प्रस्ताव 133 के मुकाबले 218 मत ले कर बहुमत से पारित हो गया। आरंभिक रूप से यह प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू ने ही तैयार किया था किंतु नेहरू जी का कहना था कि बाद में पंत जी ने उसमें फेरबदल कर दिया। बहरहाल जवाहर लाल नेहरू का इस प्रस्ताव का समर्थन अप्रत्याशित नहीं था। गांधी जी में उनकी आस्था तथा सुभाष के साथ बिगड़ते संबन्धों ने इस निर्णय में उनकी मदद की। वामपंथ के ढहने का एक लक्षण यहाँ भी देखने को मिला। कम्युनिस्टों ने महज पूर्ण विभाजन से बचने के लिए पंत प्रस्ताव का विरोध नहीं किया। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी तथा कम्युनिस्ट एम. एन. राय एवं बकिम मुखर्जी जैसे बंगाली सदस्यों को छोड़ कर बाकी सभी वामपंथियों ने किसी भी कीमत पर कांग्रेस के चोटी के नेताओं से एकता बना कर रखने में ही अपनी भलाई समझी। सी.पी.आई. के महासचिव पी. सी. जोशी ने पार्टी के मुखपत्र 'नेशनल फ्रंट' में (अप्रैल 1939) लिखा था-


'आज का सबसे बड़ा वर्ग संघर्ष राष्ट्रीय संघर्ष है। जिसका प्रमुख हथियार कांग्रेस है और इसलिए कांग्रेस - किसान एकता को बनाए रखना आवश्यक है।" (आधुनिक भारत, सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-419-420)



वामपंथियों के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से ठीक नहीं कहा जा सकता। सभी वामपंथी नेताओं ने अगर सुभाष का एम. एन. राय की तरह साथ दिया होता तो कदाचित् सुभाष त्रिपुरी अधिवेशन में दक्षिणपथी खेमे से मजबूती के साथ टक्कर ले रहे होते। सुभाष के संघर्ष से कुछ वामपंथियों का इस तरह हाथ खींच कर पहलू बदलना तथा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का पंत प्रस्ताव पर तटस्थ रहना एक तरह से कांग्रेस पार्टी के लिए दुर्भाग्य हो साबित हुआ। उधर एम. एन. राय ने 1 फ़रवरी 1939 को सुभाष को एक पत्र में लिखा था- 


"इस वर्ष ऐसा कोई भी कारण नहीं कि आप स्वयं को उस पद पर बनाए न रखें। मैं आपके समर्थक वामपंथियों के बयान से अचंभित हूँ कि उनका मानना है कि आपको उन पुराने नेताओं से सहयोग प्राप्त करने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए, जो बहुमत के विश्वास को झुठला रहे हैं। इस वर्ष के अध्यक्षीय चुनाव के परिणाम का महत्त्व गांधी जी के स्वयं के चरित्र पर स्पष्ट आक्षेप है। यह उनकी हार है। इस स्थिति में क्या किया जाना चाहिए, इस बारे में संशय की कोई गुंजाइश नहीं है। कांग्रेस को नया नेतृत्व प्रदान किया जाना चाहिए था जो गांधीवादी सिद्धांतों और लक्ष्यों से पूर्णतः मुक्त हो, जो कि अब तक कांग्रेसी राजनीति का निर्धारण करते आए हैं...। मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ।" (एम. एन. राय का सुभाष को पत्र, नेता जी संपूर्ण वांग्मय, पृष्ठ 241)


कांग्रेस के अंदर पूरी तरह से गतिरोध पैदा हो गया था, जिसे दूर करने के सिर्फ दो ही रास्ते थे। या तो गांधीवादी खेमा अपनी अड़गे लगाने वाली नीति को त्याग दे या फिर सुभाष पूरी तरह से गांधीवादियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दें। सुभाष ने महात्मा गांधी से मिल कर एवं पत्र-व्यवहार से बहुत कोशिश की कि किसी प्रकार कोई हल निकल आए और कांग्रेस का कार्य सुचारु रूप से आगे बढ़ सके। अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद अध्यक्ष को आगामी सत्र के लिए एक कार्यकारिणी नियुक्त करने का अधिकार होता है। किंतु दक्षिणपंथियों ने पंत प्रस्ताव को पारित कर के अध्यक्ष पद के हाथ से सभी शक्तियाँ महात्मा गांधी के हाथ में सौंप दी थीं। सुभाष त्रिपुरी से लौटते वक़्त निराश एवं अवसादग्रस्त थे। त्रिपुरी कांग्रेस में सुभाष के साथ किए गए बर्ताव तथा देशवासियों की मानसिकता एवं स्थिति को देख कर गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उन्हें लिखा-


"पूरा देश आपके इंतजार में है..। यह मैं आपके लिए नहीं कह रहा, बल्कि देश के लिए कह रहा हूँ। कृपया दृढ़तापूर्वक महात्मा जी से जल्दी से जल्दी उनका उत्तर पाने का प्रयत्न करें। यदि वे विलंब करते हैं तो आप इस आधार पर अपना पद त्याग सकते हैं। (रवीन्द्रनाथ टैगोर का सुभाष को पत्र 3-4-1939, नेता जी संपूर्ण वाङ्मय, खंड-9, पृष्ठ-215)


सुभाष और महात्मा गांधी के बीच हुए पत्र-व्यवहार को आगे के कुछ अनुच्छेदों में दिखाने का उद्देश्य एक दूसरे के बीच वैचारिक आदान-प्रदान को समझना है।


सुभाष चन्द्र बोस ने त्रिपुरी अधिवेशन में पैदा हुए गतिरोध पर महात्मा गांधी से उनकी राय माँगी। त्रिपुरी अधिवेशन में चूँकि गांधी जी मौजूद नहीं थे अतः सुभाष ने कार्यसमिति के गठन के लिए उनकी धारणा जाननी चाही। साथ में उन्होंने कार्यसमिति के समांगी होने या विभिन्न समूह अथवा खेमों के मिला कर बनाने के बारे में पूछा। उन्होंने साफ कहा कि पंडित पंत का प्रस्ताव पूरी तरह से अनुचित एवं असंवैधानिक है। पिछले साल जब गांधी जी ने उनसे कहा था कि वे उन्हें एक कठपुतली अध्यक्ष के रूप में नहीं देखना चाहते। अब आखिर ऐसा क्या हो गया कि उन्हें कठपुतली अध्यक्ष बनाए जाने पर मजबूर किया जा रहा है। सुभाष ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की अगली बैठक की तिथि को निश्चित करने के बारे में महात्मा गांधी की राय माँगी और कहा कि उस बैठक में गांधी जी की उपस्थिति अत्यंत आवश्यक है। सुभाष ने स्पष्टता के साथ अपनी बात रखते हुए कहा-


"त्यागपत्र देने के लिए मेरे ऊपर भारी दबाव डाला जा रहा है। इसका मैं विरोध कर रहा हूँ क्योंकि त्यागपत्र का अर्थ है कांग्रेस राजनीति में एक नई शुरूआत, जिसको अंत तक मैं टालना चाहता हूँ।" (महात्मा गांधी को 29 अप्रैल, 1939 को लिखा पत्र, नेता जी संपूर्ण वांग्मय, खंड-9 पृष्ठ-116)


महात्मा गांधी ने सुभाष के पत्रों के जवाब काफी संक्षिप्त दिए तथा सुभाष के किए गए सवालों में अंतर्निहित उत्तरों की ओर इशारा करते हुए कहा कि 'उन्हें इस बात की चिंता है कि हम लोगों में अविश्वास पनपता जा रहा है। जहाँ कार्यकर्ताओं में अविश्वास हो वहाँ मिल कर काम कर पाना असंभव है।' यही बात जवाहर लाल नेहरू 3 अप्रैल, 1939 को लिखे अपने पत्र में भी कहते हैं। 31 मार्च, 1939 को महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में सुभाष ने कहा कि


'कांग्रेस के अंदर आई दरार को आपके द्वारा पाटा जा सकता है। अल्टीमेटम की बात रखते हुए उन्होंने कहा कि जहाँ असंख्य अल्टीमेटम दिए जाते हैं वहाँ इस अल्टीमेटम को दिए जाने में हर्ज ही क्या है? सुभाष ने अपना विश्वास व्यक्त करते हुए कहा कि संघर्ष अधिक से अधिक 18 माह तक चलेगा, तदोपरान्त हम निश्चित रूप से स्वराज पा लेंगे। इसी पत्र में सुभाष ने स्थिति को साफ़-साफ़ रखते हुए कहा- 


"मैं इतना आश्वस्त हूँ कि इसके लिए कोई भी बलिदान देने को तैयार हूँ। यदि आप संघर्ष प्रारंभ करते हैं तो मैं यथायोग्य आपकी सहायता करूंगा। यदि आपको महसूस होता है कि कांग्रेस किसी अन्य अध्यक्ष के पदासीन होने पर अधिक अच्छी प्रकार संघर्ष कर पाएगी, तो मैं प्रसन्नतापूर्वक पद त्याग दूँगा।" (Letter from Subhash Chandra Bose; The selected works of Mahatma Gandhi, Vol. V. Navjivan Publishing House, 1997, Page-240)


महात्मा गांधी ने बिड़ला हाउस, नई दिल्ली से इस पत्र का जवाब देते हुए हुए कहा-


"तुम्हें तत्काल अपने विचार वाला मंत्रिमंडल बना लेना चाहिए। अपना कार्यक्रम भी निश्चित कर लो और उसे आगामी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के समक्ष रख दो। कमेटी यदि इसे स्वीकार कर लेती है तो तुम्हारा मार्ग सुगम हो जाएगा। वहीं अगर कमेटी द्वारा तुम्हारा कार्यक्रम अस्वीकार कर दिया जाता है तो तुम्हें अपना त्यागपत्र दे देना चाहिए और तब समिति को अपना अध्यक्ष चुनने दो...। जिस हवा में मैं साँस ले रहा हूँ उसमें मुझे हिंसा की गंध आती है, हालांकि यह बहुत सूक्ष्म रूप में है। हमारा आपसी अविश्वास भी हिंसा का बिगड़ा रूप है...। इन परिस्थितियों में मुझे किसी अहिंसक आंदोलन की आशा नहीं है। प्रभावी स्वीकृति के बिना अल्टीमेटमः बिल्कुल अर्थहीन है। (Letter from Mahatma Gandhi: The Selected works of Mahatma Gandhi, Vol V, Navjivan Publishing House, 1997, Page-242-243)


अन्य पत्रों में जब सुभाष ने पंत प्रस्ताव पर महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया जानने के लिए जोर डाला तो महात्मा गांधी ने जवाब में लिखा- "पंत प्रस्ताव की मैं व्याख्या नहीं कर सकता। जितना ही उसे पढ़ता हूँ उतना ही उसे नापसंद करता हूँ। इसे तैयार करने वालों का मकसद ठीक रहा होगा, किंतु वह वर्तमान समस्या का समाधान नहीं है। इसलिए आप उसकी व्याख्या अपने अनुसार करें तथा बिना किसी हिचकिचाहट के कार्य करें।" (महात्मा गांधी का सुभाष को लिखा पत्र, 10 अप्रैल 1939 नेताजी संपूर्ण वाड्मय, खंड-9, पृष्ठ-141)


महात्मा गांधी की नीति सुभाष के कार्य करने के उलट थी। कांग्रेस में पैदा हुआ गतिरोध महात्मा गांधी की मंशा से हुआ, यह कहना शायद अनुचित होगा। किंतु वे उस स्थिति से पूरी तरह वाकिफ थे। पंत प्रस्ताव के बारे में महात्मा गांधी एवं सुभाष के पत्राचार से लगता है कि उन्हें सुभाष को प्रसन्न रखते हुए उस धड़े का भी ध्यान था जो उनके अनुयायी थे जिन्होंने वह प्रस्ताव सुभाष की अध्यक्ष पद की जीत का एक तरह से बदला लेते हुए रखा था, जिससे सुभाषचन्द्र बोस के हाथ बाँधे जा सकें। गांधी जी के नाम की दुहाई दे कर मत हथियाना इतना मुश्किल न था और गांधी जी के विश्वास के नाम पर प्रश्न चिन्ह लगाने का अर्थ कोई यदि था तो वह था कांग्रेस का खात्मा, जो एक बेबुनियाद सोच का परिणाम था।


पत्रों में स्पष्टता पसंद गांधी जी स्वयं अपने पत्र में कितने अस्पष्ट हैं, यह आसानी बात से देखा जा सकता है। गांधी जी पंत प्रस्ताव बनाने वालों के ठीक मकसद की बात कर रहे थे, किंतु बात प्रस्ताव के ठीक होने की है, गांधी जी के ठीक मानने या न मानने की नहीं। तो क्या पंत प्रस्ताव जिस रूप में प्रस्तुत किया गया वह ठीक था? लोकतांत्रिक था? अथवा उसका बदला स्वरूप दक्षिणपधियों के व्यवहार का एक नमूना था? महात्मा गांधी 'जितना ही उसे पढ़ता हूँ उतना ही उसे नापसंद करता हूँ' वाक्य में प्रस्ताव को पढ़ कर नापसंद करने की बात ही क्यों करते हैं? क्यों नहीं कहते कि मैं इसे खारिज करता हूँ? क्यों नहीं कहते कि यह चंद संकीर्ण अवसरवादियों द्वारा महात्मा गांधी के प्रभुत्व का मात्र कीर्तिगान है?


गांधी जी स्वयं के निर्देशों में बाँधे गए सुभाष से जब कार्यसमिति के गठन की बात करते हैं तो महात्मा गांधी की अहिंसा की पुकार कहाँ होती है? कहाँ होता है सत्य का आह्नान? क्या यह हाथ-पैर बंधे होने पर छटपटाते संघर्ष करने को आतुर उस प्राणी के मानिंद नहीं है जो अपने देश के लिए अपने प्राण की बाजी तक लगाने को तैयार है? क्या महात्मा गांधी का यह कहना अंग्रेजों की अस्पष्ट नीतियों के सदृश नहीं है ? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोकप्रियता और प्रभुत्व की चाहत महात्मा गांधी में उतनी ही थी जितनी किसी सामान्य भारतीय में। सुभाष चन्द्र बोस ने उस अल्टीमेटम के बारे में जो त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में अस्वीकार कर दिया गया था कहा कि एक दिन आएगा जब कांग्रेस इसे स्वीकार करेगी और हम थोड़ा आगे चल कर देखेंगे कि 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन के तहत 'करो या मरो' के आह्वान में सुभाष के इसी अल्टीमेटम की पुनरावृत्ति की गई। किंतु तब सुभाष नहीं थे महात्मा गांधी थे उसके संचालक, उसका श्रेय किसी और को नहीं महात्मा गांधी को जाता था।


जब बात व्यक्तिगत श्रेय अथवा महत्त्व की आ जाती है तो वहाँ कोई भी संस्था, संगठन, कमेटी आदि बहुत पीछे छूट जाते हैं। महात्मा गांधी का योगदान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में निःसंदेह कम नहीं है। उन्होंने कांग्रेस के लिए जो किया, वह निश्चित ही अविस्मरणीय रहेगा। किंतु जब एक अध्यक्ष के चुनाव पर किसी सदस्य की हार को व्यक्तिगत हार मान लेना और उस व्यक्तिगत हार को अपने अनुयाइयों में इस तरह से पेश करना कि उन्हें उससे सर्वाधिक दुःख पहुँचा है, तब यह एक तरह से स्वाभाविक भी हैं कि अनुयायी वह सब करते जो उन्होंने किया। वह एक संगठनात्मक चुनाव था, संगठन के लिए चुनाव था। अतः उसे व्यक्तिगत मान कर, उस फ़ैसले को अपनी ओर मोड़ने का निर्णय कहाँ तक उचित था? क्या इसे महज कूटनीति नहीं कहा जाएगा?





अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा


सुभाष जानते थे त्रिपुरी में उनकी हार की मुख्य वजह कांग्रेस समाजवादी पार्टी के नेतृत्व द्वारा धोखा दिए जाने के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी भी थी। इस सबके साथ-साथ सुभाष को लगता था कि जवाहर लाल नेहरू अगर उनके साथ रहे होते तो उन्हें बहुमत प्राप्त होता। जवाहर लाल नेहरू अगर त्रिपुरी अधिवेशन में तटस्थ भी रहे होते तो भी सुभाष को कदाचित् बहुमत मिलता, किंतु इस बात से कि पंत प्रस्ताव का प्रारंभिक मसौदा तैयार ही नेहरू ने किया था, उन्हें दुःख हुआ।


महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के साथ काफ़ी पत्र व्यवहार एवं लंबी वार्ताओं के बावजूद सुभाष किसी समाधान पर नहीं पहुँच सके। गांधीवादी लोग सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे, वहीं सुभाष को किसी कठपुतली अध्यक्ष की तरह काम करना स्वीकार्य नहीं था। फलतः 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा सौंप दिया। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के त्यागपत्र पर रवीन्द्र नाथ टैगोर की टिप्पणी मर्मस्पर्शी थी जिसमें नेताजी में पूरा विश्वास प्रकट किया था।


“सर्वाधिक उत्तेजक स्थिति के बीच भी जिस गरिमा और धैर्यशीलता का आपने प्रदर्शन किया, उसने मेरी प्रशंसा और आपके नेतृत्व में विश्वास को जीत लिया है।" (नेता जी को उनके त्यागपत्र पर रवीन्द्र नाथ टैगोर का संदेश, नेताजी संपूर्ण वांग्मय, खंड 9, पृष्ठ-95)


सुभाष चन्द्र बोस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद उनके स्थान पर कट्टर गांधीवादी और दक्षिणपंथी राजेन्द्र प्रसाद को लाया गया।






सम्पर्क


मोबाइल - 9312061821


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