दूधनाथ सिंह की डायरी के अंश

 

दूधनाथ सिंह 



बहुत कम ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने कई विधाओं में लिखा और यह कहना उचित होगा कि उम्दा और साधिकार लिखा। दूधनाथ सिंह ऐसे ही रचनाकार थे, जिन्होंने अधिकांश विधाओं में बेहतर लिखा। वे साठोत्तरी कहानी के स्तम्भ तो थे ही, एक कवि भी थे। आलोचना के क्षेत्र में जो गंभीर काम उन्होंने किए उससे स्थापित आलोचकों को ईर्ष्या हो सकती है। आखिरी कलाम जैसा मील की पत्थर की तरह का उपन्यास लिखा। नाटक लिखने के साथ साथ पक्षधर नामक पत्रिका भी निकाली। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने डायरी लेखन का कार्य शुरू किया। जैसी बेबाक डायरी दूधनाथ जी ने लिखी वैसा कम ने लिखा होगा। यह डायरी अभी प्रकाशनाधीन है। तमाम लोगों की सांसे आज भी टंगी हुई हैं कि दूधनाथ जी ने उन्हें किस तरह अपनी डायरी में देखा लिखा होगा। इस डायरी की एक झलक प्रस्तुत करते हुए दूधनाथ जी की पुण्य स्मृति को हम नमन करते हैं। वर्ष 2018 में आज के ही दिन यानी 12 जनवरी को दूधनाथ जी का निधन हो गया था। डायरी के इस अंश को हमने पक्षधर के जनवरी जून 2018 अंक से साभार लिया है। इस तो आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं दूधनाथ सिंह की डायरी।



दूधनाथ सिंह की डायरी के अंश



तिपहर में सो कर उठने के बाद

अचानक महसूस होता है कि मैं क्यों हैं? मैं महादेवी पर दो सालों से काम करते हुए क्यों मर-जी रहा हूँ? अचानक निस्सारता का बोध अचानक होने की व्यर्थता अचानक जीने का न जीना। अचानक मरने की इच्छा और मरने से डर तभी लगा कि मैं बीमार हूँ। तभी कुछ और लगा न जाने क्या कुछ। और अचानक मुझे टॉल्स्टॉय की याद आयी उनके दफ़न होने की। अचानक मैंने देखा कि उनके बदन को कीड़े खा रहे हैं। अचानक मैंने उनका झाँझर कंकाल देखना महसूस किया। अचानक एक बदबू जो मिट्टी को कभी भी फोड़ कर ऊपर आ सकती है। अचानक मैंने खून में लिथड़ी पूरी पृथ्वी महसूस की, कि मैं इस अनन्तता में कहां से टपक पड़ा और क्यों? मैंने अपनी माँ का फूला हुआ पेट देखा, जिसमें मैं हिल-डुल रहा था। क्या ऐसा कभी हुआ होगा? अचानक यह प्रकृति की आवाजाही, अचानक यह पशुवत् व्यवहार, यह वासना, यह चेतना, यह अहं का घनघोर व्यापार अचानक दुनिया का न ठहरना और एक कीड़े की जद्दोजहद अचानक भूख और चिंता और दुःख की अनुभूति। हंसी का नाट्य। अचानक उत्तेजना और क्रोध। अचानक शोक। कुछ अचानक। अचानक एक चेहरा जो लगातार उल्टियां कर रहा है। खून और हवा और हिसकी और प्रणय और आघात। अचानक ठगी, अचानक वध, नोटों के बंडल। दुःखों की गठरी। सुखों के निर्मम भोलेपन। अचानक स्मृति। पुत्र और उनके पुत्र। अचानक किसी लड़की की समग्र नग्न देह। सुखद लज्जा और वासना का अवसान। अचानक मिट्टी निर्गन्ध या फूहड़ निरत-विरत। अचानक जाग्रत मौन। अचानक कुछ नहीं।


सोकर उठने की क्लान्ति का कम होना- धीरे-धीरे। 

अचानक दुनिया की निर्धन आवाज।

अचानक कहीं बाहर समृद्धि की महक होना 

होश का लौटना अचानक!


होना। इस बूढ़े शरीर का हवा को सूंघना और ताप को महसूस करना अचानक! 

अचानक होश का लौटना और दुनिया में एक निर्दय अर्थ का अहसास अचानक! 

अपने छोटे बेटे की याद अचानक! मगर क्यों अचानक? 

अभी रात लौटेगी। और बुढ़ापे का और थोड़ा अशक्त होना - तभी अचानक! 

अचानक शब्द का संहार-अचानक!

बाहरी संसार से नाता अचानक!

मरने की इच्छा का मरना-अचानक! जो है उसे पूरा करने का अनूठा संताप अचानक! 

जाने दो। बन्द करो डायरी अचानक!


(19-03-2008)



बूढ़ों की बहार

जब मैं कार से उतर कर उस सभा स्थल की ओर चला तो मेरे आगे जिया उल हक साहब चले जा रहे थे। उनकी उम्र 94 साल की है। उनका ड्राइवर उनका हाथ पकड़े हुए था। आज सिर पर पहली बार ऊनी टोपी थी। इस उम्र में भी अभी दम हे कामरेड जिया उल हक में। मैं खुद 78 साल का हो रहा हूँ। हल्का-फुल्का हूँ, इसलिए प्रकृति की कृपा से अभी तेज-तेज चलता हूँ- ठीक-ठाक हूँ। कल से गर्दन की बायीं तरफ जकड़न है। बस इतना ही।


लेकिन सभा स्थल पर तो बूढ़ों की बहार थी। यह एक दुःस्वप्न की तरह था। मैं मंच पर गया तो मेरे साथ अकील साहब जो खुद 84 साल के हैं। अनिता ने जो कहानी पढ़ी 'लाइफ लाइन' वह भी घुटनों का ऑपरेशन कराये एक बुड्ढे के बारे में, जिसे एक कमसिन नर्स का इन्तजार रहता है, जो आयेगी और उसको मीठी झिड़की देते हुए चलने (सीढ़ियां चढ़ने) का अभ्यास करायेगी। फिर क्या था, कहानी पाठ खत्म होते ही बुड्ढों की बाढ़ आ गयी। एक बुड्ढा जो इधर मीटिंग में जाना बन्द कर चुका था, अचानक अपने एक पुत्र का हाथ पकड़े नमूदार हुआ और सीधे मंच पर आ बैठा। बैठते ही उसने कहा मैं बोलने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। फिर वह उठ खड़ा हुआ और उसने कहानी लेखिका को तरह-तरह से आशीर्वाद दिया। फिर वह अपने बुढ़ापे का निजी दुःखड़ा रोने लगा। उसका एक लड़का जो सरकारी लूटपाट में लगा हुआ है, और जो पहले अपने बाप को बहुत पैसे देता था, वह श्रोताओं में बैठा था। उसके बुड्ढे बाप ने उसकी शिकायत का रोना मंच से शुरू किया। उसने इशारे से बताया कि फलां मेरा बेटा वहाँ बैठा है, पहले बहुत घर आता था, अब नहीं आता। अब मेरी मदद नहीं करता। उसने बताया कि उसके कई-कई पोते हैं, जिनके साथ वह खुश है और अभ्यास (संगीत) करता है। उसने दुःखपूर्वक यह भी बताया कि वह अपने कई-कई पोतों का इन्तजार भी करता है। उसने अपने निजी दुःखड़े को कहानी के बहाने एक सार्वजनिक तथ्य में रूपांतरित कर दिया। बस, कहानी ने क्या गजब ढाया। तरह-तरह के बूढ़े तरह-तरह से अपना दुःखड़ा व्यक्त करने के लिए मंच की और लपक पड़े। एक बहरा बुड्ढा मंच पर एक पुलिंदा ले कर आया। उसने कहानी में विराम चिन्हों की गलतियों पर एक पोथा रख रखा था। वह एक प्रकाशन गृह और उसके संचालक सम्पादक पर धुंआधार आक्रमण पेल रहा था। मैं जानता था कि वह किस तरह मुकदमेबाजी करके उस प्रकाशन गृह से 44000=00 रुपये वसूल कर चुका है। उसका नाम भर लिखित रूप में ले लो, वह आपको कचहरी चढ़ाये बिना नहीं रहेगा। वह जिस तिस पर मुकदमा करके समझौते में पैसे वसूल चुका है। वह हिन्दी साहित्य का सबसे आतंककारी दलाल है। वह पुराने जमाने के अफगानियों की याद दिलाता है जो ऊँचे ब्याज पर गरीब-गुरबा के रुपये चढ़ाते थे और बाद में वसूली के लिए बुलेट मोटर साइकिलों से उनका पीछा करते थे। ऐसा ही एक अफगानी बुलेट भड़भड़ाता हुआ जब 'उसी कासिल्स रोड' वाले हमारे मुहल्ले में आता था तो आऊट हाऊसेज में रहने वाले सारे सागरपेशा लोग भाग जाते थे। उसने अपनी मोटरसाइकिल के नम्बर वाले प्लेट के ऊपर एक और प्लेट लगवा कर उस पर नागरी अक्षरों में लिखवा रखा था, 'बेवफा का तलाश'। मुझे 'का' व्याकरण से खटकता था लेकिन मैं उससे कुछ कह नहीं सकता था। सारे सागरपेशा लोग इस बेवफा की श्रेणी में आते थे। मेरा छोटा बेटा इस इबारत पर बहुत खुश होता था और कहता था, 'पापा, 'बेवफा का तलाश में' अभी-अभी इधर से गया है। फिर हम दोनों हंसते थे। घर छोड़ कर भागने वाले सारे लोगों को हम जानते थे। मेरा बेटा उनके बच्चों के साथ दिन-भर खेला करता था। बुलेट की भड़भड़ पर वह हँसता जरूर था, लेकिन भीतर से वह बहुत गुस्सा होता था। उन घरों के भीतर की विपन्नता से वह घने रूप में परिचित था और अपने दोस्तों के पिताओं की इस दुर्दशा पर भीतर से बहुत दुःखी रहता था।


बहरहाल, बाद में तो बुड्ढों की बहुत सारी समस्याओं पर लोगों ने बातें की। उनके बच्चों के व्यवहार नयी पीढ़ी की अपने पिताओं-माताओं के प्रति उदासीनता या निपट क्रूर व्यवहार। संयुक्त परिवार की तारीफ। एकल परिवारों को स्वार्थान्धताएँ। शहर में जगहों की कमी। जीवन-शैली के बदलाव इत्यादि वृद्धाओं की बातें कुल मिला कर जो हड़बोंग यहाँ मचा वह आतंककारी था। एक बुड्ढी बार-बार अपने बुड्ढे को डिफेण्ड करती हुई कह रही थी, 'वह लिख कर लाये हैं।' उसका ही वह बुढा था जो माइक या भौचक लेकिन हिंसक तरीके से खड़ा था। दरअसल, यह अपना शिकार ढूंढ रहा था कि कब कोई उसका नाम ले कर आक्रमण करे और वह उसे अदालत में खींचे और मानहानि कर बाकायदा वसूली करे।


अध्यक्ष के रूप में जब मैं बोलने खड़ा हुआ तो मैंने नारंग जी और नरवणे की उदारता की बात की जिन्होंने अपनी जायदादें और घर बुढ़ापे में सेवा करने वाले नौकर या किसी लड़के के नाम कर दी थीं और अपनी सन्तानों को ठेंगा दिखाते हुए उच्च जीवनादर्शों का पालन किया था। फिर मैंने हृषिकेश वाले 'स्वर्गश्रम' की भी बात की। हम दोनों की जो घर में हालत हैं उसके बारे में मैंने मुँह तक नहीं खोला। मेरा दुःख तो वहाँ दूसरे लोग गा ही रहे थे। मेरा दुःख यहाँ सार्वजनिक दुःख का रूप ले चुका था। लेकिन बुढ़ापे पर ऐसी और इतनी दुर्लभ बहस इलाहाबाद में ही हो सकती है।


अनिता की कहानी ने यह सम्भव किया। हालांकि कहानी दो कौड़ी की थी।


(24.02.2014)





यहाँ मैं क्यों हूँ!

यहाँ मैं क्यों हूँ? अजब-सी प्रशान्ति और बंजरता है। कुछ नहीं हो रहा। बौद्धिक सरगर्मियां नदारद। अपढ़ और खाऊ और नृशंस लोग यहाँ इधर-उधर चारों ओर इमारतों का आयोजन। लोहा-सीमेण्ट गर्डर्स हरियाली। जबकि यहाँ एक चीत्कार है बेवस। जबकि वह और मैं मृत्यु के बिल्कुल मुहाने पर हैं। अब गिरे तब। वहाँ उस घर में ठण्डक, सीलन, बीमारी, बन्दर, किताबें, गन्दे बिस्तर, हाहाकार। बाहर पार्क में खेलते-चिल्लाते, अपने भविष्य से अनजान बच्चे। वहाँ भय, यहाँ लूट वहाँ गत, यहाँ विगत। आज 11 बजे दिन में ही निकला। उन प्यारी जगहों, चहलकदमियों को फिर नाप लूं। 18 नं. बेंच पर जा कर बैठा। अब ठीक उसके पास एक बड़ा रोड ब्लाक है। हर मोटरसाइकिल, ईटा, बालू, सीमेण्ट, पानी लादे ट्रकें और टैंकर वहाँ रुक जाते हैं। जबकि सड़क बिल्कुल खाली है। हमेशा खाली रहती है। राख-रंग की ईंटें। मजदूर मजदूरिनें। उनके टपरे जगह-जगह। फिर वे उजड़ जायेंगे। उजड़ती हुई जनसंख्याएँ क्या भारत से ज्यादा कहीं और होंगी? उसमें सफेद चिथड़ों की तरह मास्टर लोग। भविष्यविहीन छात्र। रोमांस के सपने संजोये बुढ़ाती लड़कियाँ। पानी की दो टंकियां। एक उत्तरी परिसर में जो अभी-अभी बनी

हैं। सी.सी. एम.एस. से दिखती हैं।


बहुत सारी बातें मेरे बुढ़ाते दिमाग में भय पैदा करती हैं।


जूनियर पी.सी. जोशी और शिवकुटी लाल वर्मा के एक बेटे श्याम का इंतकाल हो गया। सुधीर का सन्देश। मेरे कमर और पीठ से ले कर पूरी गर्दन तक जलन है।


अस्थियों की बंधी हुई राख है, जैसे थोड़ी गीली रक्त सनी। खून ही पानी है। 


कुछ भी क्यों लिखता हूँ? चारों और एक भय बिखरा है वातावरण में। कुछ भी ऐसा नहीं जो सुकून दे सके। 

सन् 2014, तुम क्या लेकर जाओगे?


(02.03.2014)



साहित्य में इतना सन्नाटा क्यों है!

जबकि इतनी पत्रिकाएँ हैं, इतने संसाधन हैं, इतने लेखक, कवि कलाकार, हुड़दंगबाज़ हैं... ऐसा क्यों लगता है सुबह-सुबह कि कहीं कुछ नहीं हो रहा है। पत्रिकाएँ एक कर्मकाण्ड की तरह निकलती हैं। 'पहल' दुबारा निकली। उसकी जो तुर्शी थी, वह होगी। लेकिन पहल' कहाँ है। किसी पत्रिका की दूकान पर नहीं। उसके वितरण का भावुक संसार नष्टप्राय-सा है। तद्भव एक दूसरा कर्मकाण्ड। वह कभी भी 'पत्रिका' का दर्जा नहीं पा सकी- यानी साहित्यिक पत्रकारिता के संसार में उसने अपना हक अदा नहीं किया। वह हमेशा साहित्यिक आभिजात्य की पत्रिका बने रहने में अपना गौरव महसूस करती रही। वह वृहद कमाई का जरिया रही, और है। श्रेष्ठ और स्थापित साहित्य छापने में वह अपना गौरव महसूस करती रही। अखिलेश ज्ञानरंजन का ही शिष्य है-सिखाया पढ़ाया। उसने पहल की तर्ज पर उसके मॉडल पर 'तद्भव' निकालने का प्रयत्न किया। लेकिन 'पहल' में जो एक अचानक सी चकमक थी, जो साहित्यिक सम्पादकीय प्रयोग थे, जो वक्त और अवसर देख कर व्यक्त किया गया एक वैचारिक-सामयिक आक्रोश अभिव्यक्त होता है, नये-पुराने लोगों के प्रति ज्ञानरंजन की अचानक जो फ्राउनिंग थी, जो अभिभावकत्व था, सभी के प्रति जो असीमित अवसर अनवसर उमड़ता हुआ, छलकता प्यार था, न लिखते हुए भी साहित्य के गले में बाहें डाले हुए जो ज्ञानरंजन की छवि थी, वह 'तद्भव' के सारे भरे-पूरेपन के बावजूद  कहाँ है? रचनाएं हैं, साहित्यिक खलबलाहट नहीं। कहीं नहीं। पत्रिकाओं का बाकी संसार या तो विचार शून्य है, या एक कर्मकाण्ड। कालिया की खलबली भी गायब। 'नया ज्ञानोदय' से हटते ही उसका बनाया संसार बुलबुलों की तरह खत्म। लगता ही नहीं कि कहीं कुछ हुआ। 'वागर्थ' का निरामिष, पवित्र निरर्थक साहित्य संसार किसके लिए हैं? 'नया पथ' और 'वसुधा' इत्यादि समझते हैं कि वे पथ' के साथी हैं, वे भांड झोंक रहे हैं। विचित्र तरह की अहम्मन्यता का अनन्य सुखद संसार उनके इर्द-गिर्द सर्प-जाल बनाये हुए हैं।


इतनी किताबें छप रही हैं, इतने बड़े-छोटे प्रकाशक, इतनी साहित्यिक महत्त्वाकांक्षाओं के बावजूद कहीं कुछ होता हुआ नहीं दिखता। लोग फेसबुक पर चले गये हैं, लाइक करते करवाते हैं। साहित्य और सांस्कृतिक अभियान सूचनाओं की वस्तु हो गये हैं। कुछ भी छुपा हुआ, निजी, भारी और सन्देह से ग्रस्त नहीं है। वह जो कला, साहित्य का बुनियादी तत्त्व है। वह जो सोचने और मरने, जीते जी मरने के लिए तत्पर करता है, वह सब कहाँ है। इस तरह के सारे लोग बूढ़े हो गए। थक गये हैं। सो कर उठते ही उनकी बीमारियों का संसार शुरू होता है। आध्यात्मिक पीड़ायें देहिक दुःखों में बदल गयी हैं। साहित्य के सत्ता-संसार में लूट और कल्लेआम का माहौल है। ले-दे है। अभिभावकत्व का बोलबाला है। दुर्गन्ध की दमघोट है। वैचारिक निरर्थकताएँ हैं। हाशिये पर और कभी-कभार' के जमाने, 'मतवाला', 'हंस' की जमानतों का उद्बबद्ध संसार खत्म है। माना कि सब कुछ वैसा ही नहीं रहता। नहीं रहता, माना तो साहित्य को आगे तो बढ़ना चाहिए हिन्दी संस्थान आगरा की मदद ने पत्रिकाओं को चमका कर भोंथरा कर दिया है। पत्रिका निकालने को सुगम बना कर उसकी हवा निकाल दी है। कुछ भी छाप लो, संपादक बने रहो। 'दस्तावेज' जैसी टुटही पत्रिका पर भी हाथ फेरो तो चिकनाहट महसूस होती है। उपन्यास, कविता, कहानियों, यात्रा-विवरण, आलोचनाएं एक 'फुस्स' की तरह हैं। एक दिन का संसार है और गिरोहबाजी है। वह भी वैचारिक नहीं, प्रतिशोधात्मक। हर 'गुप के कवि-लेखक आलोचक हैं। सभी सक्रिय-निष्क्रिय। अजब-सा दुःखद माहौल है। रात की बहसों और एक कविता या एक कहानी में भटकते जागरण का हैंगोवर भी नहीं। उल्टियों की तरह-तरह की दुर्गन्ध है और तेवर यह कि बहुत कुछ हो रहा है। हो तो रहा है।


(06.03.2014)





हैंगोवर

नशा उत्तर गया है, हैंगोवर (हंग-ओवर) अभी बाकी है। उससे सिर भारी-भारी सा रहता है। हैंगोवर उतारने के लिए कभी-कभी फिर पीने की इच्छा करती है और यह सब शराब के बारे में नहीं है। 


शब्द एक प्रतीक है।

प्रतीकार्य भिन्न भी हो सकते हैं।

जैसे कि लिखने के बाद का हैं - असफलता


जैसे कि उम्र बीत जाने का हैंगोवर - अवसाद


जैसे कि प्रेम का हैंगोवर - खींझ


जैसे स्मृति का हैंगोवर - पछतावा


जैसे विश्वास और आस्थाओं का हैंगोवर - रूदन


जैसे कुछ नहीं का हैंगोवर - स्लेट साफ

इन सबका सम्मिलित हैंगोवर - मौत



आखिरी कलाम

कहीं एक अलबम रखने की जगह बनाते वक्त वहाँ 'आखिरी कलाम' की दो प्रतियाँ (द्वितीय संस्करण) मिली। पढ़ने लगा। बीच-बीच से मुझे लगा, अब इसके बाद लिखने को क्या बचा है मेरे पास। सब कुछ तो कह चुका हूँ, सब कुछ तो है, उसमें जो कहने लायक था। सब कुछ - राजनीति, समाज, पारिवारिक नष्ट-भ्रष्टताएँ, संस्कृतियाँ, मनुष्यों के प्रतीक मनुष्य, कलह, अनिवार्य कलह और उसके दूरगामी परिणाम। रचाव-काव्यात्मक। कलात्मकता का उच्चतम सोपान प्रयोग और प्रयोग को अन्तर्निहित दर्शन-जीवन का सच और मृत्यु और विनष्टता के बाद भी जीवन का चल निकलना। खल्लास अपने को पूरी तरह रिक्त कर देना और पिछले 12 वर्षों से उस रिक्तता को पुनः भरने की कोशिश। उस कोशिश में तरह-तरह के उपक्रम। हौलदिलीपन, उठापटक हलकान होना। ना, कुछ भी दुबारा सम्भव नहीं है। जैसे किसी नारियल की गिरी को खोल खखोल कर खाते हैं, वैसे ही में खा चबा चुका हूँ अपने को। तो अब कुछ भी करने को शेष नहीं है। लेकिन चुप बैठा नहीं जाता।


जब उस उपन्यास को खत्म कर के पाण्डुलिपि भेज दी और वह छप गया, उसके बाद किस तरह से घनघोर रूप से बीमार पड़ा। बेटी के यहाँ लखनऊ में पड़ा रहा। यहीं पत्नी ने कहा 'कुछ लिखो तो मन बहलता रहेगा।' तो यह डायरी शुरू हुई। पिछले 10 वर्षों से यह डायरी चल रही है। तब इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि बैठ सकता और कलम पकड़ सकता। अतः शुरुआती कुछ पन्ने बोल कर लिखवाया। पत्नी की हस्तलिपि में इस डायरी की शुरूआत हुई और अब अब इसे भी खत्म करना चाहिए। आमीन।


(25.4.2014)


घर बनाते वक्त कुछ हिदायते और बातें


1-उसकी सीवर लाइन कहाँ जाती है इसका पता होना चाहिए।

2-नालियां।

3-पानी कहाँ से और कैसे आता है।

4- पडोसी कौन है।

5- डॉक्टर आसपास है या नही।

6-अच्छा अस्पताल है या नही।

7-बरसात, गर्मी और जाड़ा कैसा गुजरता है।

8- शांति है या अशांति।

9- मुख्य सड़क पर नही होना चाहिए।

10- कोई भी घर आप दुबारा नही बना सकते।अतः एक ही बार में अपनी सुविधा और साधनानुसार पूरा कर लेना चाहिए।

11- बेघरा नही रहना चाहिए।

12- आपके बनाये घर में ही भरसक आपकी मृत्यु हो।

13-मृत्यु घर को पवित्र करती है। आपको दुखी, दुनियादार, समझदार बनाती है।

14- मुहल्ले के चोरों को पहचानना ठीक रहता है।

15- घर को कई दिन तक बन्द कर के बाहर जाना ठीक नहीं।अगर कुछ नही भी गया तब भी चोर लोग सब अस्त-व्यस्त कर देते हैं। यह अपनी स्मृति में खड़मण्डल है। फिर आपको कुछ नही पता होता कि कौन चीज कहाँ थी।

16- घर में मरना सबसे उचित है, अस्पताल या सड़क पर सबसे दर्दनाक।

17- बुद्ध के कोई घर नही था, अतः वह शालबन में मरे।

18- चूहे और दीमक आपके सबसे बड़े दुश्मन हैं। तीसरे नम्बर पर मच्छर। इनके बचाव का उपाय घर बनाते वक्त ही कर लीजिए।

19- घर रहने, जीने और मरने के लिए होता है।

20- घर ही आनंद तत्व है। वही सुरक्षा। वही जीवन का अर्थ है।

21-  एक दिन घर को छोड़ना ही है। उसके पहले मत छोड़िए। जो आपने बनाया उसे बेच कर, दुसरे घर में जाना पाप कर्म है।

22- मैं यहां इसलिए हूँ कि इस घर में सबसे पहली मृत्यु मेरी पत्नी की हुई। मैं उसकी मृत्यु को संजोए बैठा हूँ। वह शायद है या शायद लौट आये। या कभी न आये, जो कि सच है। फिर भी उसके होने की एक आवाज है, अखण्ड प्रशांति में घुली-मिली।

23- क्या सचमुच वह यहीं है!

टिप्पणियाँ

  1. ऐसी डायरी सिर्फ और सिर्फ दूधनाथ जी ही लिख सकते हैं और कोई नहीं। फिलहाल उन्हें प्रणाम वह जहां भी हों।

    जवाब देंहटाएं
  2. काफी रोचक। हिन्दी में डायरी अक्सर लिजलिजाती विधा के रूप में दिखती है लेकिन दूधनाथ जी ने काफी हद तक वह कहने का प्रयास किया है जो कथा से रह गया है।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'