सुधीर सुमन की कहानी 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया'

 

सुधीर सुमन


यह वह समय था जब भारत में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था। जीवन की आवश्यक सुविधाओं शिक्षा और चिकित्सा में भी निजीकरण बड़ी तेजी से अपने पांव पसार रहा था। सत्ता से जुड़े हुए लोग निजीकरण के फायदे बताते थक नहीं रहे थे। जो कुछ परोसा जा रहा था वह बड़ा आकर्षक दिखाई पड़ रहा था। बहुत कम लोग ऐसे थे जो दूरदर्शी दृष्टि वाले थे और इस निजीकरण को घातक बता रहे थे। ऐसे लोगों को 'कम्युनिस्ट' कह बता कर उपेक्षा या व्यंग की दृष्टि से देखा जाता था। कुछ इसी पृष्ठभूमि को लेकर सुधीर सुमन ने यह कहानी तब लिखी जब यह सब घटित हो रहा था। सुधीर उस समय छात्र जीवन में थे। इस कहानी में सुधीर सुमन में सरस्वती पूजा के बहाने समाज और समाज की उस मानसिकता पर को उद्घाटित करने की कोशिश की है जो धर्म की राह के जरिए व्यक्ति को वस्तुतः किंकर्तव्यविमूढ बनाता है। यह कहानी सुधीर सुमन की कुछ प्रारंभिक कहानियों में से एक है। प्रारंभिक कहानी होने के नाते इसमें सपाटपन कुछ अधिक है इसके बावजूद कहानी के अर्थ-संदर्भ बहुत गंभीर और समकालीन हैं। आज भी यह कहानी प्रासंगिक है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सुधीर सुमन की कहानी 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया'।



'डिस्कवरी ऑफ इंडिया'



सुधीर सुमन


सुबह आंख खुली, तो माहौल कुछ अलग सा लगा। परंतु घर में सब कुछ यथावत था। दोस्त दूध लाने जा रहा था। उसकी बहन पूर्णिमा ब्रश कर रही थी। भाभी के चेहरे से नींद की खुमारी अभी टपक ही रही थी। गमले में एक सुर्ख गुलाब झूम रहा था, जिसकी ओर मेरे दोस्त ने उठते ही इशारा किया था। घर मेरे दोस्त का है और मैं एक घरेलू सदस्य की तरह हूं। दोनों कुत्ते रोज की तरह धमाचौकड़ी मचा रहे थे। फिर भी कुछ अलग जरूर था, जो पकड़ में नहीं आ रहा था। 


ब्रश कर रहा था तभी दोस्त दूध ले कर आ गया। उससे पूछा - यार, आज का दिन कुछ अलग-सा क्यों लग रहा है? छूटते ही उसने जवाब दिया- बाहर जा कर देखो, सरस्वती पूजा की तैयारियां चल रही हैं। मैंने खुद से ही कहा- ‘‘धत तेरे की! यही तो बात है, जो पकड़ में नहीं आ रही थी।’’


छोटे से मुहल्ले में ही कई जगह बच्चों ने अपने घरों में सरस्वती की प्रतिमा रखी थी। साउंड सिस्टम पर हिंदी-भोजपुरी फिल्मी गीत बजा कर वे कला की देवी की अराधना में लगे हुए थे। 


वसंत-पंचमी हर्षोल्लास का त्योहार है, लेकिन हर्ष कोई मशीनी चीज है नहीं कि बटन दबा दिया और मस्ती में डूब गए। बाहर जाने का इरादा नहीं था। बैठ कर पढ़ने का इरादा था ताकि विद्या की देवी के सम्मान के लिए तय दिन को सार्थक ढंग से गुजारा जा सके। 


ब्रश रख कर तौलिये से चेहरा पोछते हुए कमरे में जा रहा था कि भाभी ने आवाज दी - सुन रहे हैं! जरा पूर्णिमा के लिए सरस्वती जी की एक तस्वीर ला दीजिए।


पैसा ले कर तस्वीर लाने चल दिया। रास्ते में देखा, बच्चे अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार मिट्टी की मूर्ति को सजा रहे थे। सरस्वती की मूर्ति पर आर्थिक स्थिति का असर नजर आ रहा था। मुहल्ले की बिग बिल्डिंग वाले लड़के भी अपने पड़ोसी की लड़कियों के साथ उनकी मूर्ति को ज्यादा आकर्षक बनाने की कोशिश में लगे हुए थे। यह अलग बात है कि किसी सार्वजनिक काम के वक्त ये लड़के जरूरी कामों में फंस जाते हैं या इनके घर वाले पांच रुपये दे कर पीठ पीछे सार्वजनिक काम करने वालों पर घपलेबाजी का आरोप लगाते हैं। बड़े अफसर का बड़ा घर है। इसलिए नाम है- बिग बिल्डिंग।


शहर में नालियों की समस्याएं आम हैं। घर से सड़क तक जाने में बिन बरसात कीचड़ से भरे गड्ढों को पार करना पड़ता है। गंदगी से बजबजाती नालियों, खटाल और गोबर के बगैर भारत के शहरों के मुहल्लों की पहचान नहीं बनती। सब कुछ साफ-सुथरा और व्यवस्थित हो तो वह पराया-सा लगने लगेगा। खटाल के सामने भी खाली जगह में वीणावादिनी की मूर्ति शोभायमान थीं। बेशक उसे दूध के कारोबार में लगे लोगों ने नहीं रखा था। कीचड़ में लिपटी हुईं भैंसें अपनी पूंछों से मक्खियां उड़ाते हुए सरस्वती जी को किसी वीतरागी की निगाह से देख रही थीं।


सरस्वती जी का चित्र लाना था। खटाल पार करके उस पतली गली से हो कर सड़क पर आया, जिसमें गायें सामने से अतिक्रमण हटाने वाले बुलडोजरों की तरह आती हैं, कभी-कभी तो सामने भी गाय होती है और पीछे भी, आदमी फंस कर रह जाता है। बगल में तीन मंजिला विशाल भवन है, जिसे लोग राह चलते आग्नेय नजरों से देखते हैं और उसके मालिक को भरपेट गरियाते हैं, विशेषकर रात में, वजह यह कि उसने जरा-भी जमीन नहीं छोड़ी है। खैर, उस सुबह कोई परेशानी नहीं हुई। कैलेंडर वाले की दूकान पर पहुंच कर पांच रुपया निकाला और सरस्वती का एक चित्र मांगा। सामने मां सरस्वती की एक बहुप्रचलित पेंटिंग की कॉपी पड़ी हुई थी, पर उसने कहा कि वह उसे फ्रेम करके बेचता है। चित्र छोटा था। उसने कहा कि पंद्रह रुपये लगेंगे। 


उल्टे पांव घर लौटा। भाभी को पैसा लौटाया। उन्होंने प्रश्नवाचक निगाह से देखा। मैंने पूरा वाकया सुना दिया। 


‘‘लक्ष्मी जी सरस्वती जी पर सवार थीं, पूर्णिमा से कह दीजिए, किताब को अगरबत्ती-वगरबत्ती दिखा कर पूजा कर ले।’’ यह कह कर मैं अपने कमरे में घुस गया। 


मैं ‘मेरी कहानी’ पुस्तक को पढ़ कर समाप्त करना चाहता था। यह पुस्तक कथाकार सुधाकर जी ने अपनी कहानियों पर शोध कर रहे एक छात्र को देने के लिए दी थी। इसलिए मैं उसे जल्दी पढ़ लेने के चक्कर में था। उस किताब में कहानीकारों की संक्षिप्त आत्मकथाएं संकलित थीं। पढ़ते-पढ़ते दिमाग उत्तेजित होने लगा। इतने लोग जड़ता के खिलाफ लड़ रहे हैं, पर जड़ता टूटती क्यों नहीं? एक सवाल उभरा और बढ़ता गया। सर भारी होने लगा। मुझे लगा अब स्नान कर लेना चाहिए।


मुझसे सीनियर छात्र सुरेश ने प्रसाद खाने के लिए बुलाया था। उसके पास जाना था। दोस्त अपने मंडलीबाज मित्रों के साथ गायब था। बहन और भाभी घरेलू काम में व्यस्त थीं। मैं कुछ देर तक दोस्त की तीन वर्षीया भतीजी के साथ खेलता रहा। उसके बाद उसे ले कर प्रसाद खाने चल पड़ा। 





पूजा वगैरह समाप्त हो चुका था। मुहल्ले की गलियों में कहीं पॉप म्यूजिक और सॉन्ग का साम्राज्य कायम था, तो कहीं भोजपुरी के भद्दे गीतों का धूम थी। छोटे बच्चे भी उन धुनों पर कूद रहे थे। वैसे बिग-बिल्डिंग के बगल वाली मूर्ति के पास का वातावरण बंबइया फिल्मों के गीत-संगीत की पैरोडी वाले भजनों के रस में डूबा हुआ था। विभिन्न साउंड सिस्टमों से निकली संगीत की आक्रामक लहरियां एक दूसरे से कुछ इस कदर टकरा रही थीं, मानो वश चले तो एक दूसरे का गला दबा कर हमेशा के लिए खामोश कर देंगी। भतीजी मोना अपनी नन्हीं आंखों से चारों ओर टुकुर-टुकुर ताक रही थी।


नन्हीं बच्ची साथ थी, इसलिए रिक्शा ले लिया। सड़कों पर दुर्गापूजा की तर्ज पर सरस्वती की भी कई मूर्तियां नजर आ रही थीं और महिलाएं-बच्चे दर्शन के लिए घरों से निकलने लगे थे। शहर के परेड ग्राउंड वाले मोड़ पर कुछ युवक आधुनिक वेशभूषा में झंडे लिए किसी की अगवानी में खड़े थे। याद आया, अखबार में छपा था - आज अनिल दत्त आएंगे। 


रिक्शा मैदान के बगल से गुजरा। स्टेज के सामने भीड़ खड़ी थी। दत्त साहब अभी तक पहुंचे नहीं थे। देशभक्ति वाले गीतों में जनसमूह डूबा हुआ था। अनिल दत्त अर्थात् एक लोकप्रिय अभिनेता, कलंकरहित नेता। इच्छा थी कि रुकूं, पर साथ में भतीजी थी और फिर प्रसाद खाने जाना भी जरूरी था, कि कहीं सुरेश बुरा न मान जाए, उसने मुझे अपने सारे नोट्स दिए थे, इसलिए भी उसके आमंत्रण को टाला नहीं जा सकता था। वैसे उससे अपनी कुछ ज्यादा ही बनती है। 


शहर के दूसरे छोर पर पहुंचना था। रिक्शे वाले ने दस की जगह पंद्रह रुपये ले लिए। मैंने उससे झिकझिक नहीं की और मोना को गोद में उठाए मुहल्ले के अंदर बढ़ गया। मुहल्ला अभी नया बना है। काफी जगह खाली है। सुरेश झुक कर कुछ कर रहा था। नजदीक जाने पर उसकी नजर मुझ पर पड़ी। तपाक से हाथ मिलाया। दूर से ही कुर्सियों की लंबी कतार देख चुका था। वैसे कुर्सियां खाली थीं। मूर्ति के बाहर छोटे बल्बों को सजाना शेष था। पहाड़ की पृष्ठभूमि में मलाईदार आभा की मूर्ति थी, हंस पर बैठी हुई, बड़ी खूबसूरत। मुझे मूर्ति को निहारता देख कर सुरेश ने बताया कि सबसे अच्छी मूर्ति यही थी। उसने साफ कह दिया था कि किसी भी हाल में यही मूर्ति चाहिए। उसका अंदाज ऐसा था कि मैं इसके लिए उसे शाबाशी दूं। 


मोना को भी एक कुर्सी पर बैठा दिया था, वह अपने नन्हे पैरों को झुलाती हुई, कभी मूर्ति और कभी वहां मौजूद बच्चों को देख रही थी। मैं भी उसके बगल में बैठा मुहल्लों के घरों से ला कर सजाए गए गमलों के फूलों को देख रहा था। तभी एक लड़का प्रसाद लाने के लिए गया। सुरेश ने उसे टोका- ‘अंदर से ले आओ।’ प्रसाद भी दो तरह का होता है। स्पेशल प्रसाद लाने का आदेश दे कर वह मेरे बगल में बैठ गया। 


‘अनुपमा को कार्ड दिया था?’- उसने पूछा।

‘हां, दिया था, पर वह आएगी नहीं।’ मैंने जवाब दिया। 

‘नहीं आएगी तो न आए, मैंने कार्ड दे दिया था बस। सोचा तुम्हारी दोस्त है...।’’ उसने लापरवाही से कहा।

‘वह घर पर अकेली है, कैसे आ जाती!’ मुझे सफाई देनी पड़ी। 

फिर सुरेश मोना के बारे में पूछने लगा। हालांकि मैं उसे पहले ही बता चुका था कि वह मेरे दोस्त की भतीजी है। मेरी नजर मूर्ति की कारीगरी पर टिकी हुई थी। 

‘क्या देख रहे हो?’- उसने पूछा।

‘मूर्ति वाकई अच्छी है।’-  यह सुन कर उसका चेहरा खिल उठा।

‘यह किताब कौन-सी है? क्या... इंडिया!’ मूर्ति के वक्ष से लगभग चिपकी पुस्तक के विषय में पूछा। 

‘होगी कोई किताब छोटू ने रख दी है।’ वह सामने जेनरेटर में उलझे अपने साथियों को देख रहा था। 


मैंने करीब जा कर देखा। पुस्तक जानी-पहचानी थी- नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’। 


प्रसाद आ चुका था। मोना मिठाइयों पर अपना हक जमा चुकी थी। प्रसाद खाते हुए मैंने सुरेश से पूछा- ‘‘सोमवार को आ रहे हो न! हमारी विचार-गोष्ठी में।’’


‘‘आ जाऊंगा, पर तुम लोग क्या कर लोगे विचार गोष्ठियों से! यहां कुछ नहीं होगा। तुम सोचते हो मध्य वर्ग तुम्हारा साथ देगा! मुझे नहीं लगता ये केचुएं लड़ेंगे।’’


‘‘मुश्किल तो जरूर है। सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों के लिए लोगों के जेब से पैसे नहीं निकलते और देख लो शहर में कितनी मूर्तियां रखी गई हैं।’’ मैंने उस पर हमला किया। 


उसने खुद को बचाते हुए कहा- ‘‘हमें श्रद्धा नहीं है, वैसे श्रद्धा है किसे? बस एक खुशी है और क्या! वैसे भी सभी मुहल्लों में मूर्ति रखी गई है, तो हमारे मुहल्ले में भी होनी ही चाहिए।’’


मुझे महसूस हुआ कि मैं उसकी खुशी में बाधक हूं। इसके बावजूद मैंने कहा- देवी-देवताओं की मूर्ति पूजा मुझे पसंद नहीं, पर पूजा करने से मैं किसी को नहीं रोक सकता! लेकिन प्रतिस्पर्द्धा की भावना से रखी जाती मूर्तियां कहां ले जाएंगी हमें?’’


‘बे यार! बच्चों के खेल को भी तुम लोग गंभीरता से लेते हो। तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि सरस्वती की पूजा करने वालों की संख्या बढ़ रही है।’’ उसने उब कर कहा। 


सरस्वती की जगह सहपाठी अनुपमा का अक्स जेहन में उभर पड़ा। वह कह रही थी- ‘‘अब नौकरी वाले लोग अट्ठारह-उन्नीस साल की लड़कियों की फरमाइश कर रहे हैं। 





साहित्य से एम. ए. कर रही अनुपमा डर रही है कि लड़कियों को उनके अभिभावक ज्यादा पढ़ने नहीं देंगे। उन्हें तो बस बहाना चाहिए। रेशम का कपड़ा समझी जाती हैं लड़कियां, जिसमें आग लगने का भय बराबर बना रहता है। 


‘क्या सोचने लगे? बुरा मान गए क्या?’- सुरेश ने टोका। 

‘‘नहीं यार, बुरा क्यों मानूंगा? मैं तो तलाश रहा हूं कि कौन सी राह सही है।’’ मैंने कहा। 


अंधेरा होने से पहले घर लौट जाना चाहता था। दोस्त से विदा ले कर मोना को कंधे पर लादे पैदल ही घर चल पड़ा। सड़कें फैशन परेड स्थल का अहसास दिला रही थीं। लड़कियां तरह-तरह के आकर्षक भड़कीले पोशाकों में घरेलू झगड़ों का जिक्र करती, पड़ोसियों की बखिया उधेड़ती या भ्रष्टाचार में लिप्त अपने बापों के पैसे से हासिल सुविधाओं में अघायी हाई सोसाइटी की हाई चर्चाओं में मग्न, मूर्तियों को देखने के बहाने खुली हवा में सांस लेने निकली थीं। उन्हीं घरों से निकले लड़के राह चलते कुछ ज्यादा ही एक्शन मार रहे थे। मोना का सर मेरे कंधे पर कुछ लुढ़का हुआ सा था। वह सो गई थी। 


सड़क से पतली गली में प्रवेश किया, तब तक अंधेरा हो चुका था। खटाल की बगल वाली मूर्ति के पास लड़के भद्दे ढंग से कुल्हे मटका रहे थे। ट्यूबलाइट और छोटे बल्बों की रोशनी में  कीट-पतंग चक्कर काट रहे थे। बिग-बिल्डिंग की पड़ोसी मूर्ति के आगे चादर टंगा था। उसके भीतर कुछ सायों की उछलकूद का नजारा था। गीत बज रहा था- अटरिया पे लोटन कबूतर रे। 


शोर से माथा फटा जा रहा था। दिमाग के किसी कोने में उस लड़की के कायरपन से हुई अपनी बेइज्जती का दंश चुभने लगा था, जो खुद को मेरी प्रेमिका मानती थी। वह भी तो लक्ष्मी के आगे नाक रगड़ने वाली उल्लुओं के खिलाफ थी, पर अंततः उल्लुओं की जमात में शामिल हो गई। यह सोचते-सोचते नींद आ गई कि क्या वह भी इसी तरह खुशी मनाती होगी? धनी लड़के के घर गई है, क्या उसके पुराने विचार उसे सोते से जगाते होंगे या लोगों के सामने अपनी संपन्नता का प्रदर्शन कर सुख की नींद सोती होगी? 


अगली सुबह भी शोर नहीं थमा था। जब प्रदर्शन की बात है तो इतनी जल्दी मूर्तियों का विसर्जन क्यों हो? गणतंत्र दिवस के कारण शोर कुछ और बढ़ गया था। 


चाय पीने के बाद घुमते-घुमते मैं अनुपमा के घर पहुंच गया। सहपाठी है, दोस्त है, परंतु प्रेमिका नहीं है। हां, उसके प्रति मैं संवेदनशील जरूर हूं। लेकिन नारी चेतना की बात करना और नारी उद्धार करना अलग बातें हैं। कम से कम मैं तो नारी उद्धार नहीं कर सकता। नारी उद्धार की बातें भी वहीं करते हैं जिनके भीतर पुरुष के श्रेष्ठ होने की धारणा जड़ जमाये रहती है। अनुपमा की मां को जला कर मार दिया था ससुराल वालों ने। हालांकि वह उस दुख की छाया से उबर चुकी है। हमेशा हंसती रहती है। उस दिन भी खूब बातें हुईं। 


बातों में बातों में अनुपमा ने बताया कि क्लास की दो सहपाठिनों को चुल्हे-चौके में बांधने की तैयारी हो रही है, उन लोगों ने विरोध भी किया है, हालांकि अनुपमा जानती है कि वही हालत उसकी भी हो सकती है। छोटे शहर में भला आत्मनिर्णय और आजादी के अवसर ही कितने होते हैं! चलते-चलते अनुपमा सवाल दागती है- ‘‘लोगों को गृहलक्ष्मी क्यों चाहिए, गृहसरस्वती क्यों नहीं?’’ मैं चुपचाप उसे देखता रह जाता हूं। वह हंसने लगती है।  


 घर आने पर अचानक याद आया कि आज ही विचारगोष्ठी है, जिसमें आने के लिए मैंने सुरेश से कहा था। हालांकि थोड़ी थकान महसूस कर रहा था, एक बार मन हुआ कि न जाऊं, पर विषय महत्वपूर्ण था, जाना ही था। ‘शिक्षा के निजीकरण से लाभ है या हानि’-  इस संदर्भ में एकाध को छोड़ कर सभी वक्ताओं ने हानियां बतायीं। मुझे लगा कि एक ही सवाल है - सरस्वती पर सवार लक्ष्मी को कैसे हटाया जाए?


विचारगोष्ठी से जब लौट रहा था। सड़क और गलियों में बहुत कम लोग नजर आए। अपराह्न के तीन बजे थे। घरों से ठाकुर और गब्बर की आवाज आ रही थी। जी, यह उस जमाने की बात है, जब टीवी पर निजी चैनलों का साम्राज्य अभी कायम नहीं हुआ था। दूरदर्शन पर जब कोई मशहूर फिल्म आती थी, तो सड़कों पर लोगों की भीड़ कम हो जाती थी। तो उस रोज फिल्म दिखाई जा रही थी- शोले। मुझे गोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रो. चौधरी की बातें याद आ रही थीं- ‘‘अनिल दत्त ने पेपर में गरीबी हटाने का स्टेटमेंट दिया है। लोग मजाक में कह रहे थे- माले (एक वामपंथी पार्टी) हो गया है क्या!’’ 


हर ओर अनिल दत्त की ही चर्चा थी। अनुपमा का भाई बता रहा था- ‘‘अनिल दत्त कितना स्मार्ट है। उसके आगे तो हमारे यहां के जवान भी बूढ़े लग रहे थे। अभी भी चुस्त-दुरुस्त है।’’ विचारगोष्ठी में माइक वाला भी ऐसा ही कुछ कह रहा था। 


अनिल दत्त, गणतंत्र दिवस, सरस्वती की मूर्तियां, शिक्षा का निजीकरण का बोझ लिए घर पहुंचा। सभी लोग टीवी देख रहे थे। मुझे देख कर दोस्त का भतीजा अमित बोल पड़ा- ‘‘ये फेविकोल का जोड़ है गब्बर...!’’ 


मेरे जेहन में सरस्वती के वक्ष से चिपकी पुस्तक की याद आ रही थी- डिस्कवरी ऑफ इंडिया। 


लगभग बीस-बाइस साल बीत चुके हैं। शाइनिंग इंडिया धूल धूसरित हो चुका है, आम आदमी के शुभचिंतक होने का दावा करने वाले सत्ता से बाहर हो चुके हैं और ढंग से विपक्ष की भूमिका भी नहीं निभा रहे। कैशलेस सोसाइटी, मेक इन इंडिया का दौर है। रोज नए झूठ और नए धोखों का सिलसिला जारी है। गिरगिट से भी कई गुना तेजी से रंग बदलने वाले वर्तमान में हम सब फेंक दिए गए हैं, किसका कौन-सा असली रंग है, यही डिस्कवरी का विषय हो गया, इतिहास की डिस्कवरी तो बहुत दूर की बात है। इतिहास अब उपभोक्तावादी चीज की तरह है। अलग-अलग टेस्ट पूर्वाग्रह और स्वार्थ के हिसाब से तैयार आज के उपयोग लायक माल। उसकी खोज उसी किस्म की मूर्खता है, जैसे फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा करना। अब मिथकों को इतिहास बनाने की बल-बुद्धि हावी है, कई जवाब देने वाले भी मिथकों को ही इतिहास बनाने की प्रवृत्ति से ग्रस्त हैं। मूर्तियों की तादाद बढ़ती जा रही है, भक्तों से ज्यादा अंधभक्त बढ़ रहे हैं। अश्लील-उन्मादी शोर और भी बढ़ता जा रहा है। ऐसे वक्त में इस पुरानी कहानी के याद आने का क्या मतलब हो सकता है, जिसमें कोई चमत्कार ही नहीं है! फिर भी कुछ सच तो है ही इस कहानी में। इतना भी क्या कम है!


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)


सम्पर्क


मोबाइल - 09958672277

टिप्पणियाँ

  1. स्कवरी ऑफ़ इंडिया कहानी के लिए भाई सुधीर सुमन को हार्दिक बधाई !
    "मोना का सर मेरे कंधे पर कुछ लुढ़का हुआ सा था। वह सो गई थी।" ऐसे कहानी में आये छोटे-छोटे विवरण ध्यान खींचते हैं और कहानी का कहानीपन बनाये रखते हैं , जो की इस तरह की वैचारिक कहानी के लिए एक जरुरी बात होती है .
    कहानी का वैचारिक पक्ष महत्वपूर्ण है और लेखक के मा.ले. से जुडाव को बेहिचक स्वीकारता भी है, यह लेखक की और उसके विचारों की मजबूती का परिचायक है.
    कहानी आम जन विरोधी और धोखे की राजनितिक को सहजता से बेपर्दा करती है .
    साधुवाद !!

    - कमल
    रांची .

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