हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे औपनिवेशिक सत्ताधीश'
गाँधी जी ही ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को वास्तविक अर्थों में राष्ट्रीय बनाया। आन्दोलन शुरू करने के पहले उन्होंने गोखले की सलाह पर, रेलवे के थर्ड क्लास में बैठ कर समूचे भारत का दौरा किया और जनमानस को नजदीक से देखने जानने समझने की कवायद किया। इसके बाद गाँधी सचमुच भारतीय जन की आवाज बन गए। वे एक ऐसी अनिवार्य आवाज थे, जिसको दरकिनार कर पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं था। अंग्रेजी ताकत के लिए वे लगातार असहनीय बनते जा रहे थे। ब्रिटिश सत्ता उनके मौत की प्रतीक्षा कर रही थी। इक्कीस दिन के लंबे उपवास को बहत्तर वर्ष की आयु में अविश्वसनीय तरीके से पूरा कर उन्होंने ब्रिटिश मंसूबे पर पानी फेर दिया था। यह अलग बात है कि आज ही के दिन 1948 में वे अन्ततः अपने ही देश के एक हिन्दू कट्टरवादी की गोलियों के शिकार हो गए। आज के परिप्रेक्ष्य में गाँधी के समानान्तर गोडसे को परोसने की कोशिश की जा रही है। गोडसे को जबरन शहीद और महान बनाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन इतिहास की यही ताकत है कि उसे जबरिया नहीं बनाया जा सकता। वह तथ्यों के सहारे ही आगे बढ़ता है। गोडसे का राष्ट्रीय आन्दोलन में कोई योगदान नहीं था। उसने संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत होकर गाँधी की हत्या की थी। प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने अपने आलेख में तार्किक रूप से यह विश्लेषित करने की कोशिश की है कि किस तरह औपनिवेशिक सत्ताधीश गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे। यह आलेख हमने वागर्थ के हालिया अंक से साभार लिया है। आइए आज गांधी जी को नमन करते हुए पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे औपनिवेशिक सत्ताधीश'।
'गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे औपनिवेशिक सत्ताधीश'
हेरम्ब चतुर्वेदी
जिस व्यक्ति को चर्चिल ‘अर्धनग्न फकीर’ कहता था, आंग्ल औपनिवेशिक सत्ता कभी उसी व्यक्ति से इतना त्रस्त हुई थी कि दक्षिण अफ्रीका में भी वह उसका सामना नहीं कर पाई थी। वही जब भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व सम्हालने लगा, तब वे अपनी संभावित पराजय से इतने भयभीत हुए थे कि वे गांधी को मृत देखने के इच्छुक हो गए थे? वैसे एक बार यही इच्छा दक्षिण अफ्रीका में भी अभिव्यक्त हो चुकी थी! दक्षिण अफ्रीका की यह अधूरी इच्छा तो पूरे वेग के साथ प्रकट ही नहीं हुई थी, पर उस मृत्यु की घटना के बाद भारतीय उद्वेग को कैसे सम्हाला जाए और उसकी सूचना कैसे देश भर के अधिकारियों को प्रेषित की जाए, इसके लिए यह कार्य-योजना तैयार कर ली गई थी, कि इधर गांधी की मृत्यु हो, उधर सत्ता अपने बल से किसी भी प्रदर्शन को दबा कर, कानून व्यवस्था बनाए रखने में कामयाब हो सके!
महात्मा गांधी जो दादा अब्दुल्लाह के मामाले में दक्षिण अफ्रीका गए थे, अंततः वहां पर औपनिवेशिक काल में गिरमिटिया मजदूरों के रूप में जबरदस्ती ले जाए गए प्रवासी भारतीयों के विरुद्ध हो रहे उत्पीड़न तथा पक्षपात के विरुद्ध संघर्ष में डूबते चले गए। इसी सिलसिले में जब अगस्त 22, 1906 का ‘ट्रांसवाल गवर्नमेंट गज़ट एक्स्ट्राआर्डिनरी’ पेश हुआ, तब गांधी उसका अध्ययन करने में जुट गए। उन्होंने निर्णय लिया कि ‘ऐसे अश्वेत विरोधी तथा मारक प्रकृति के अधिनियम के साथ जीने से बेहतर है कि मृत्यु का वरण करने के लिए या आत्मोत्सर्ग के लिए भी एक दीर्घकालीन संघर्ष के लिए तैयार हो जाना!’ अतः सितंबर 11, 1906 में जोहानेसबर्ग के पारसी थिएटर या ‘ओल्ड जुईश थिएटर’ में ‘सत्याग्रह’ की पहली सभा हुई। श्वेत लोग भी, जिसमें होक्सन जैसे समृद्ध व्यापारी और प्रभावशाली व्यक्ति थे, गांधी के विचारों से अवगत होने के लिए उनको सुनने लगे थे!
उपर्युक्त इस बिल के पेश हो जाने के बाद ट्रांसवाल में फ़रवरी 20, 1907 को चुनाव हुए। इस चुनाव के फलस्वरूप लुई बोथा ने प्रधानमंत्री तथा जे. सी. स्मट्स ने ‘कोलोनियल सेक्रेटरी’ या औपनिवेशिक सचिव का कार्यभार ग्रहण किया। मार्च 21, 1907 को ही संसद के औपचारिक गठन के उपरांत यह बिल आनन-फानन में उसी दिन पारित भी हो गया। इसका अभिप्राय यही था कि जुलाई 31 तक भारतीयों को इस भेद-भाव को स्वीकार करते हुए अपना पंजीकरण करवा कर दक्षिण अफ्रीका में अपने हेय स्तर को स्वीकार कर लेना चाहिए या देश छोड़ कर भारत चले जाना चाहिए।
इस सिलसिले में अंततः जब जनवरी 10, 1908 को गांधी अदालत में हाजिर हुए, तब उन्होंने मजिस्ट्रेट से मांग करते हुए कहा कि चूंकि असली नेता वही हैं अतः उन्हें कठोरतम दंड दिया जाए! जैसे प्रेटोरिया में तीन माह का कठोर सश्रम कारावास दिया गया है, उससे भी अधिक अर्थात आर्थिक दंड भी लगाया जाए।गांधी जानते थे कि वे आर्थिक दंड कत्तई नहीं भरेंगे। अतः उन्होंने स्वतः जोड़ दिया कि आर्थिक दंड न भर पाने के एवज में उन्हें तीन माह की सजा अतिरिक्त दी जाए। अर्थात गांधी ने स्वयं अपने लिए अधिकतम सजा की मांग कर के औपनिवेशिक सत्ता के लिए मार्ग सहज सा कर दिया!
संभवतः हिंसक विरोध के आदि आंग्ल सत्ताधीश गांधी के ‘नैतिक बल’ या सत्याग्रह के सिद्धांत को नहीं समझ पाए थे! इसकी स्वीकारोक्ति स्वयं जनरल स्मट्स ने बाद में की भी थी कि संघर्ष के इस सत्याग्रही स्वरूप से पूर्णतया अनिभिज्ञ होने के चलते वे निरंतर असफल हो रहे थे। हिंसात्मक प्रदर्शन के विरुद्ध तो वे सफलतापूर्वक दमनात्मक कार्यवाही करके कामयाब हो जाते थे, किंतु इस तरह के आंदोलन को कैसे प्रभावहीन किया जाए, वे समझ ही नहीं पा रहे थे। इसी कारण अंततः गांधी दक्षिण अफ्रीका में एक लंबे संघर्ष के बाद सफल थे।
किंतु, इसी समय हमें आंग्ल-औपनिवेशिक सत्ता के क्रूर स्वभाव का परिचय भी मिलता है, जब वे गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे? वे चाहते थे कि गांधी की मृत्यु से ही दक्षिण अफ्रीका में उनकी राह का यह कांटा सदैव के लिए हट सकता है।
भले ही आंग्ल शासक-प्रशासक उनके मर जाने के आग्रही रहे हों, किंतु न्यायप्रिय मजिस्ट्रेट अपनी न्याय की पुस्तक एवं उच्च आदर्शों के चलते तार्किक और न्यायसंगत फैसला दे गया! गांधी के अधिकतम दंड (छह माह का सश्रम कारावास तथा पांच सौ पौंड जुर्माना) की दलील के साथ ही अपने उच्चायुक्त की इच्छा को नजरंदाज़ करते हुए जोहानेसबर्ग के आंग्ल मजिस्ट्रेट ने गांधी को सिर्फ दो माह की साधारण कैद की सजा सुनाई थी! औपनिवेशिक अधिकारियों की गांधी की शहादत की इच्छा धरी की धरी रह गई। गांधी अपने मकसद में कामयाब हो कर भारत लौट गए!
भारत में गांधी का दक्षिण अफ्रीका के विजेता के रूप में स्वागत हुआ और लोगों को आशा बंधी, क्योंकि गांधी ने स्वयं उन्हें आश्वस्त किया कि यदि वे सत्य और अहिंसा के मार्ग पर डटे रहेंगे तो साल भर में वे आजाद देश के नागरिक होंगे! किंतु लगभग पचीस वर्षों के लंबे सत्याग्रह के बाद भी जब भारत को आजादी नहीं मिली, तब अगस्त क्रांति की शुरुआत हुई। गांधी जी ने स्पष्टतः ट्रांसवाल वाला ही अपना नारा अगस्त 8, 1942 को दोहराया था, 'करेंगे या मरेंगे!' मालूम नहीं कब अंग्रेजी से अनुवाद करते समय यह पुस्तकों, लेखों, विवरणों में 'करो या मरो' के नारे में तब्दील हो गया, जबकि गांधी ने ऐसा नहीं कहा था। बिड़ला हॉउस, बॉम्बे में भोर से कुछ पहले पुलिस आयुक्त ने गांधी को गिरफ्तारी का आदेश सुनाते हुए उन्हें, महादेव देसाई, मीराबेन तथा सरोजिनी नायडू को पूना के आगा खान पैलेस पहुंचा दिया था। शीघ्र ही कस्तूरबा भी वहीं कैद हो कर पहुंच गई थीं। इतना ही नहीं, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रतिभागिता करने आया कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व वहीं बॉम्बे में उपस्थित था, अतः वे सब गिरफ्तार कर लिए गए थे।
चूंकि सारे नेता गिरफ्तार हो चुके थे, अतः इसका नेतृत्व पुराने भूमिगत क्रांतिकारियों ने सम्हाला तथा कांग्रेस समाजवादी दल के बचे हुए नेताओं ने छुप कर क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित किया। अतः रेल-पटरियों, टेलीफोन तथा टेलीग्राम के तार काटने, डाकघरों, रेलवे स्टेशनों तथा सरकारी भवनों सहित सभी संपत्ति को निशाना बनाया गया। उनकी लूट के साथ ही उनको क्षति पहुंचाने का हिंसात्मक क्रम चल पड़ा। इसी ने अंग्रेजों की सत्ता को एहसास करा दिया कि अब स्थिति उनके हाथ के बाहर जा रही है। ऐसे में अंग्रेजों की सत्ता ने गांधी पर व्यापक हिंसा का आरोप लगाते हुए उन्हें इसके लिए उत्तरदायी ठहराया। इसी बीच एक सप्ताह के भीतर महादेव देसाई की मृत्यु से गांधी को गहरा क्षोभ हुआ। वे महादेव को पुत्रतुल्य मानते थे! इस मृत्यु की सूचना जब बाहर पहुंची, तब लोगों ने इसे सरकार के दमनचक्र और क्रूर व्यवहार का प्रतिफल माना और उनके क्रोध ने हिंसात्मक गतिविधियों को और बल प्रदान कर दिया!
उनके मतानुसार, यदि वाइसरॉय ने 8 अगस्त की मांग के अनुसार कांग्रेसियों से साक्षात्कार देने की अनुमति प्रदान कर दी होती तो स्थिति कभी इतनी अनियंत्रित नहीं होती?
अपने संक्षिप्त किंतु बेरुखी वाले उत्तर में वाइसरॉय ने गांधी द्वारा शासन की आलोचना को सिरे से नकारते हुए कांग्रेस के प्रति सरकार की नीति पर पुनर्विचार की संभावना पर विराम लगा दिया।
दिसंबर 31, 1942 के पत्र में गांधी ने अपना विरोध दर्ज करते हुए लिखा कि सरकार उनके ऊपर असत्य आरोप लगा कर मिथ्या प्रचार कर रही है। अतः एक सत्याग्रही के रूप में मेरे पास यही विकल्प है कि मैं अपने हाड़-मांस का शरीर प्रायश्चित में गला डालूं। इस शरीर को त्याग देना शायद मेरे बेगुनाह होने का प्रमाण हो।
उधर लंदन में भारत के राज्य सचिव, एल. एस. ऐमरी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के तात्कालिक निराकरण के लिए बेचैन थे। ऐसा वाइसरॉय लिनलिथगो के साथ उनके संवाद से समझा जा सकता है। वाइसरॉय लिनलिथगो ने गांधी को दिए अपने उत्तर में पुनः उन्हें ही कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के रूप में इस आंदोलन में हिंसा के लिए पूरी तरह से उत्तरदायी माना। किंतु आरोप-प्रत्यारोप के दौर के बाद गांधी समझ चुके थे कि अंग्रेजों की सत्ता का भारतीय प्रतिनिधि, जिसे वे मित्र कह कर संबोधित करते थे, गांधी को ही दोषी माने बैठा है? अतः उन्होंने 29 जनवरी 1943 को वाइसरॉय को सूचित कर दिया कि वे फरवरी 9 से इक्कीस दिवसीय उपवास शुरू करेंगे। वाइसरॉय ने इस पत्र के उत्तर में गांधी की भूख हड़ताल को भयदोहन घोषित करते हुए इसे ‘राजनीतिक हिंसा’ करार करके गांधी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। वह गांधी को अहिंसात्मक आंदोलन का पथ छोड़ने का गुनाहगार घोषित करने की कुत्सित चाल चल रहा था।
वाइसरॉय के इस आरोप भरे उत्तर के प्रत्युत्तर में 7 फरवरी को गांधी ने वाइसरॉय को पुनः पत्र लिखते हुए स्पष्ट कर दिया कि ‘एक सत्याग्रही के दृष्टिकोण से यह आमरण अनशन का आमंत्रण है।’ साथ ही यह भी स्वीकारोक्ति की, ‘इस आमरण अनशन से उत्पन्न किसी भी परिस्थिति के लिए वे (गांधी) स्वयं ही उत्तरदायी होंगे।’ इतना ही नहीं, गांधी ने यहां तक लिखा कि यदि वे इस आमरण अनशन के फलस्वरूप मर भी जाते हैं तो निश्चित ही वे अपनी निश्छलता और आत्मविश्वास के साथ दुनिया से जाएंगे कि वे हिंसा के लिए कतई उत्तरदायी नहीं हैं। साथ ही, उन्होंने आगाह किया, ‘इतिहास सर्वशाली सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में वाइसरॉय और एक देश के एक विनीत सेवक के रूप में गांधी का तुलनात्मक मूल्यांकन करेगा ही।’
चर्चिल ने तो लिनलिथगो को स्पष्ट आदेश दिया था कि वह गांधी को कतई रिहा न करे। किंतु वाइसरॉय ने उसको नजरंदाज करते हुए उन्हें रिहा किया, ताकि इस अवसर पर उसके ऊपर कोई आरोप न आए। उनकी यह मंशा उस टेलीग्राम से स्पष्ट है जो उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को अपने निर्णय का औचित्य साबित करने के लिए किया था। किंतु यह भी सच है कि ब्रिटेन का प्रधानमंत्री चर्चिल तथा वाइसरॉय लिनलिथगो दोनों निश्चित और निश्चिंत थे कि गांधी इस आमरण अनशन के पश्चात जिंदा नहीं बचेंगे!
उधर गांधी ने कारावास में ही अपने अनशन को जारी रखने का निर्णय लिया। भारत सरकार के तत्कालीन गृह सचिव सर रिचर्ड टोटेनहैम को लिखे अपने उत्तर में अंग्रेजों की सत्ता की चाल को समझते हुए उन्होंने लिखा था, ‘यदि उन्हें स्वतंत्र किया गया, तब वे तत्काल ही अपना आमरण अनशन रोक देंगे और यदि दुबारा गिरफ्तार होंगे तब उसे पुनः शुरू कर देंगे।’ अतः अब सरकार ने उनके हठ से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करने की नई योजना बनानी शुरू कर दी। उनके सामने यह स्पष्ट था कि जब उनकी इस मांग का कोई असर नहीं हुआ कि अंग्रेज भारत छोड़ दें, तो चाहे अराजकता की पराकाष्ठा क्यों न हो, गांधी आत्मोत्सर्ग के जरिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी करने की फिराक में थे।
सरकार ने ऐसी परिस्थिति में स्थिति को नियंत्रित करने की पूर्ण योजना बना डाली थी, जो उनके इस विश्वास पर टिकी थी कि गांधी अंततोगत्वा जिंदा नहीं बचेंगे।
उनकी संभावित (?) मृत्यु की स्थिति में बॉम्बे सरकार को समस्त प्रांतीय सरकारों को तत्काल एक तार से कोड अथवा कूट संदेश भेजना था। यह कोड था, रुबिकाँन! बस इतना सा संदेश भेजने के पश्चात पूना से सरकारी संदेशों के अतिरिक्त सभी लंबी दूरी के फोन अथवा टेलीग्राम को तत्काल प्रभाव से दो घंटे के लिए लंबित या प्रतिबंधित कर देना था। बॉम्बे की सरकार से अपेक्षित था कि वे प्रेस को बस गांधी की मृत्यु की घोषणा कर के अपने कर्तव्य का निर्वहन कर देंगे। साथ ही, गांधी की संभावित मृत्यु के अवसर पर भारत सरकार का जो संक्षिप्त वक्तव्य जारी होना था वह भी तैयार हो गया था, बस संप्रेषण तथा प्रकाशन शेष था! सरकार पूरी तरह से गांधी की मृत्यु की प्रतीक्षा में और उससे उत्पन्न परिस्थितियों से निबटने के लिए योजना बना रही थी।
बॉम्बे की प्रांतीय सरकार को गांधी के सार्वजनिक दाह-संस्कार के लिए सशर्त आज्ञा देने की अनुमति प्रदान की गई, ताकि कानून व्यवस्था पूरी तरह बनी रहे। गांधी की शव-यात्रा का मार्ग, शव-दहन का स्थान और लोगों को नियंत्रित करने के मुकम्मल इंतजाम अभी से कर लेने के आवश्यक निर्देश भी भेज दिए गए थे! तैयारी की बारीकियों के सुनियोजित और विस्तृत स्वरूप से ही समझ में आता है कि वे गांधी को इस आमरण अनशन में मर जाने देना चाहते थे! अंग्रेजों की औपनिवेशिक सरकार ने निश्चय कर लिया था कि गांधी की अस्थियां कुछ दिन पूना में ही रख कर, उनके रिश्तेदारों के निर्णय के अनुसार निर्धारित स्थान पर गुप-चुप ढंग से हवाई मार्ग से भिजवा कर विसर्जित कर दिया जाएगा, ‘किसी भी कीमत पर इन अस्थियों को रेल मार्ग से ले जाने की अनुमति नहीं प्रदान की जाएगी अन्यथा स्टेशनों के साथ रेलमार्ग को क्षति पहुंचने के साथ ही अव्यवस्था की प्रबल और निश्चित संभावना है!’ बॉम्बे के राज्यपाल ने महत्वपूर्ण स्थलों पर पहले से सैन्यकर्मियों की तैनाती निर्धारित कर दी थी। इतना ही नहीं, राज्यपाल के सलाहकार, चार्ल्स होल्डिच ब्रिस्टो को गांधी की शव-यात्रा की तैयारी हेतु पूना भेज दिया गया था!
पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के एक दिन बाद ही 10 फरवरी 1943 को गांधी जी का घोषित आमरण अनशन प्रारंभ हो पाया। तीसरे दिन 72 वर्ष की आयु पूरी कर चुके गांधी की तबीयत बिगड़नी शुरू हो गई। यरवदा जेल में बंद डॉ. मंचेर शाह गिल्डर को दूसरे दिन ही आगा खान पैलेस में पहुंचा दिया गया था। डॉ. बिधान चंद्र रॉय भी कलकत्ता से गांधी के निकट रहने और चिकित्सीय व्यवस्था के लिए आ गए थे। जब उनकी तबीयत और बिगड़ी तब वाइसरॉय के विधायी परिषद के तीन भारतीय सदस्यों ने विरोध प्रकट करते हुए अपने त्यागपत्र आंग्ल सरकार को सौंप दिए! उनका स्पष्ट मत था कि सरकार द्वारा गांधी के ऊपर मिथ्यारोपण से यह आमरण अनशन की स्थिति पैदा हुई है और गांधी की तबीयत बिगड़ी है। देश के हर कोने से गांधी की रिहाई की मांग आने लगी, किंतु चर्चिल और लिनलिथगो दोनों अटल रहे। वे गांधी की मौत की प्रत्याशा में थे, जैसा कि उनकी तैयारियों से स्वतः स्पष्ट है।
खैर गांधी, गांधी थे, नैतिक बल के प्रतीक! उन्होंने डॉक्टरों की सलाह पर दूसरे दिन से अपने पानी में थोड़ा मौसमी (मौसम्मी) का जूस मिलाना शुरू कर दिया था। अब उनकी स्थिति में सुधार होने लगा! अब आप आंग्ल सत्ता की मंशा का अगला कदम देख सकते हैं, जब ‘फ्रेंड्स एम्बुलेंस यूनिट’ के होरेस एलेग्ज़ेंडर ने इस पूरे आमरण अनशन को ‘छल’ अथवा ‘धोखा’ घोषित कर दिया।उसके अनुसार यह आमरण अनशन था ही नहीं। खैर, 3 मार्च 1943 को गांधी का आमरण अनशन पूर्ण हुआ और भारतीयों ने चैन की सांस ली तथा आगा खां पैलेस में उपस्थित लोगों की जान में जान आई!
चर्चिल |
विंस्टन चर्चिल को समझ में ही नहीं आ रहा था कि इतना उम्रदराज़ व्यक्ति कैसे 21 दिनों तक भूखा रह सका? उसने फरवरी 13 को वाइसरॉय को लिखा था, ‘हमने सुना है कि गांधी अपने आमरण अनशन की हरकतों में ग्लूकोस मिश्रित जल ग्रहण करता है।’ लिनलिथगो ने अपने उत्तर में इस आरोप से स्पष्टतः इंकार करते हुए लिखा कि गांधी को जब डॉक्टरों ने ऐसा करने की सलाह दी, तब उन्होंने सख्ती से इंकार किया था। किंतु चर्चिल इस उत्तर से संतुष्ट नहीं था। उसने पुनः फरवरी 25 को वाइसरॉय को लिखा कि इस छलावे को उजागर करने की जरूरत है, ‘हिंदू कांग्रेसी डॉक्टरों से घिरे रहने वाला गांधी बड़ी आसानी से ग्लूकोस या अन्य पोषाहार निश्चित ही ग्रहण कर सकता है।’
चर्चिल के प्रश्रय और प्रोत्साहन के चलते उसने 21 फरवरी की उस बुलेटिन को, जिसमें गांधी को स्वास्थ्य संकट घोषित किया गया था, असत्य मानते हुए उस पर ही प्रश्नचिह्न अंकित कर दिया। उसने प्रधानमंत्री के सामने स्पष्ट किया, ‘हमारे सरकारी डॉक्टरों ने इसलिए चुप रहना समझदारी समझा, क्योंकि वे जानते थे कि भारतीय जनमानस सिर्फ कांग्रेसी डॉक्टरों के समाचार को ही सत्य मानेगा और हिंदुओं द्वारा इस विषय पर अतिरेक और हल्ला-गुल्ला (हिंदू होकस-पोकस) अविश्वसनीय है।’ इसी तार में उसने अमेरिकी पत्रकारों को भी कटघरे में खड़ा किया। किंतु अंत में उसकी निराशा भी अभिव्यक्त होती है, क्योंकि वह लिखता है, ‘कुछ छल या धोखाधड़ी का निश्चित साक्ष्य मिलने पर मैं आपको तत्काल सूचित करूंगा, हालांकि हमें इसकी बहुत आशा नहीं है…।’
चर्चिल ने अपने वाइसरॉय द्वारा पूरे प्रकरण में सही ढंग अपनाने के लिए बधाई प्रेषित करते हुए फरवरी 28 के अपने टेलीग्राम में गांधी को ‘रास्कल’ तथा भारतीय सदस्यों के त्याग पत्र को पलायनवादी कृत्य घोषित किया!
गांधी जी के इस आमरण अनशन की सफल समाप्ति के पश्चात, अनेक कांग्रेसी तथा गैर-कांग्रेसी नेता, जैसे सप्रू, जयकर, भूला भाई देसाई तथा चक्रवर्ती राजगोपालाचारी आदि ने सरकार की गांधी की तुरंत रिहाई की मांग की, ताकि सरकार और जनता, जिसमें कांग्रेसी नेता भी सम्मिलित हैं, के बीच का गतिरोध समाप्त होने की कोई सूरत-ए हाल निर्मित हो सके। इन लोगों ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि सिर्फ गांधी ही इस गतिरोध को दूर करने की क्षमता रखते हैं।
गैर-कांग्रेसी नेताओं ने गांधी से मिलने की आज्ञा सरकार से मांगी ताकि वे उनसे बात करके मध्यस्थता से कोई रास्ता निकालें। ताकि सरकार को द्वितीय विश्वयुद्ध की तैयारियों में पूरे देश का समर्थन प्राप्त हो सके। किंतु चर्चिल और लिनलिथगो दोनों गांधी की छवि धूमिल करने के षड्यंत्र को अमली जामा पहनाने की कोशिश में जी-जान से लगे हुए थे। वे चाहते थे कि गांधी 1942 की हिंसात्मक गतिविधियों और 21 दिन के छलपूर्वक किए गए आमरण अनशन और भयदोहन के लिए ग्लानि व्यक्त करें, तभी कुछ संभव होगा। वे बुजुर्ग और कमजोर हो रहे गांधी को जलील करने के अतिरिक्त और किसी मंशा से काम नहीं कर रहे थे!
चर्चिल गांधी को संत के स्थान पर ‘रास्कल’ साबित करने के दृढ़ संकल्प के साथ काम कर रहा था। वह अमानवीय हठधर्मिता के चलते कुछ भी देखने-सुनने को तैयार ही नहीं था। अंततः अब औपनिवेशिक ब्रिटिश सत्ता को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के खिलाफ दमनचक्र के सिवा और कुछ दिमाग में नहीं आ रहा था।कमजोर औपनिवेशिक सत्ता का आखिरी हथियार यही था। किंतु गांधी की अनुपस्थिति में ‘अहिंसा’ का कोई अर्थ रह भी नहीं गया था। दूसरे नेता लोग भी अंग्रेज़ों भारत छोड़ने के साथ, भारतीयों से करने और मरने का आह्वान कर चुके थे। जब गांधी को बंदी बना कर आगा खान पैलेस ले जाया गया था तभी से जन ज्वार उमड़ा हुआ था। जनता महादेव देसाई की मृत्यु और गांधी के आमरण अनशन के दौरान संकट की घड़ी में और भी क्रोधित हो कर हिंसात्मक प्रदर्शन पर उतारू हो गई थी। ऐसी परिस्थिति में दोनों तरफ से हिंसा और प्रतिहिंसा के एक चक्र का निर्माण हुआ!
इन्हीं परिस्थितियों ने अंततः अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने को विवश किया, हालांकि किंतु उससे पूर्व वे इस देश को खंडित करने का मन बना चुके थे।
सम्पर्क
ए ब्लॉक, 202, द्वितीय तल,
मयन एन्क्लेव 49/13,
क्लाइव रोड, सिविल लाइन्स,
प्रयागराज–211001 (इलाहाबाद)
मोबाइल 9452799008
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें