स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरणात्मक आलेख 'बबूल-वन का सौन्दर्य'
हमारी यह प्रकृति अपने आप में निराली है। अनेकानेक वनस्पति, पेड़ पौधे, जीव जन्तु, नदियां, पहाड़ इसकी शोभा हैं। सबका अपना अपना महत्त्व है। सबका अपना अपना सौन्दर्य है। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव की नजर यात्रा करते हुए उस बबूल पर पड़ी, जो प्रायः उपेक्षित रहने की त्रासदी झेलते रहते हैं। लेकिन कवि ने उसे अपने नजरिए से सुघड़ बना दिया है। बबूल का भी अपना अलग अंदाज है, अपना अलग महत्त्व है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरणात्मक आलेख 'बबूल-वन का सौन्दर्य'।
'बबूल-वन का सौन्दर्य'
स्वप्निल श्रीवास्तव
पहाड़ से लौटने के बाद पहाड़ की छवियाँ और बिम्ब हमारे साथ रहते हैं। कुछ दिनों तक वे हमारे स्वप्न में भी आते-जाते रहते हैं, ऐसा लगता है कि अभी हम पहाड़ों में ही सैर कर रहे है। उनके शिखर हमारी स्मृति में चमकते रहते हैं। हमें लगता है कि पहाड़ के आदमी को कुछ दिनों के लिए मैदानों में छोड़ दिया जाए तो उसके लिए यह स्थिति असुविधाजनक हो जाती है। अपना घर छोड़ना किसे अच्छा लगता है लेकिन रोजी रोटी के चक्कर हमसे वे जगहें छूट जाती हैं जहां हम बार-बार लौटना चाहते हैं। मुझे याद है कि नौकरी के दिनों में जब मेरी ड्यूटी चुनाव में लगी हुई थी और उसकी निगरानी के लिए मिजोरम से एक प्रेक्षक आये थे, उन्होंने खिड़की खोल कर कहा – अरे! पहाड़ कहां गये? मैंने कहा – सर मैदानी इलाकों में पहाड़ नही होते। फिर उन्होंने कहा –जहां पहाड़ नही होते वहाँ के लोग कैसे जीते होंगे, मैं पहाड़ न देखूँ तो लगता है कि कुछ नही देखा। उन्होंने मुझे पहाड़ों के तमाम किस्से सुनाए, जैसे वे अपने पूर्वजों की कई कहानिया सुना रहे हों। उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह पहाड़ उनके जीवन से अभिन्न हो गये हैं, उनके बिना जीवन की कोई कल्पना नही होती।
मैं उनके साथ एक हफ्ते तक था और मुझे पहाड़ों की खूबसूरती के बारे में बता रहे थे। इतना काव्यात्मक वर्णन कोई कवि ही कर सकता है, वे लेखक नहीं थे लेकिन मिजो भाषा के अनेक लेखकों के बारे में जानते थे। उनसे बात करते समय मुझे हिन्दी के कथाकार मित्र अशोक अग्रवाल की संस्मरणों की किताब –किसी वक्त किसी जगह की याद आयी जिसमें उन्होंने मिजो लेखक जेम्स डैकुमा के बारे में बताया है कि वह आइजोल में रहते हैं, एक छोटा सा प्रेस चलाते हैं और अपनी किताब प्रकाशित करते हैं। जब उन्होंने पूछा कि उनका पेशा क्या है तो उन्होंने गर्व से बताया कि लेखन ही उनका पेशा है, उनके किताबों की करीब पाँच हजार प्रतियां अकेले आइजोल में बिक जाती हैं। मुझे यह पढ़ कर ताज्जुब हुआ कि मिजोरम की आबादी कुल 11.2 लाख है। हिंदीभाषी पचास-साठ करोड़ है लेकिन हिन्दी किताबों की तीन सौ प्रतियां मुश्किल से बिक पाती हैं।
प्रेक्षक महोदय ने मुझे इरोम चानू शर्मिला के बारे में बताया कि वह उस फौजी कानून को चुनौती दे रही है। इस कानून के तहत बिना अनुमति के किसी के घर की तलाशी ली जा सकती है। वे सन 2000 से इस अराजक कानून के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही थीं। यह भूख हड़ताल उन्होंने 2016 तक किया। लेकिन जब वह चुनाव में खड़ी हुई तो उन्हें मात्र 98 मत ही प्राप्त हुए। यह जनतंत्र की सबसे बड़ी दुर्घटना थी जो मतदाताओं के चरित्र को स्पष्ट करती है। उनकी जमानत जब्त हो गयी। एक आदमी लाखों मतों से जीत जाता है और जनता के लिए जो लोग सचमुच काम करते हैं, वे गति को प्राप्त होते हैं।
यात्राओं के साथ हम कई तरह के अनुभव साथ लाते हैं और हमे उस जगह के इतिहास और संस्कृति के बारे में जानकारी मिलती है और हमारी स्मृति के क्षितिज का विस्तार होता है। पहाड़ से लौटने के बाद मुझे लगा कि अभी यह यात्रा अधूरी है। इसमें अभी लोक-रंग नही मिला है। नदियों को देखने के लिए हम उसके उद्गम स्थल पर पहुंचते हैं। गंगा की यात्रा तब तक अपूर्ण है जब तक उसके उद्गम स्थल गंगोत्री को न देखा जाए। मेरा उद्गम स्थल मेरा गाँव था, जहां से भटक कर शहर दर शहर घूमता रहा। गाँव मेरे जैसे पिछड़े हुए नागरिरिकों के लिए चैन की जगह है। सूरदास ने कबीरहा अंदाज में लिखा था।
मेरा मन कहां अनंत सुख पाए
ज्यों उडि जहाज का पक्षी
फिरि जहाज पर आए।
मिडिल स्कूल के पंडी जी ने मुझे इस पद का अर्थ तात्पर्य प्रसंग के साथ बताया था, वह मेरे स्मृति में अब तक अंकित है। इसका असली अर्थ तब मुझे मालूम हुआ जब मैं जहाज से उड़ा था, कई शहरों में पढ़ाई और नौकरी के बीच घबड़ा कर गाँव पहुंचता था। हम सब ऐसे पक्षी बन गये थे जो जहाज से दूर रहने के लिए अभिशप्त थे। इस अभिशाप को हम जीवन भर ढोते रहे। माँ चाहती थी कि मैं थोड़ा बहुत पढ़ कर किसी प्राइमरी स्कूल में मास्टर लग जाऊं, सुबह सायकिल से जा कर शाम को घर लौट आऊँ लेकिन पिता की महत्वाकक्षा माँ के प्रेम से बड़ी थी। वे मुझे अफसर बनाना चाहते थे, यहीं से गड़बड़ी की शुरूआत हो गयी थी। इसी ऊहापोह के बीच माँ ने अंतिम विदा ले ली, जिसके साथ मैं रहना चाहता था, वह शै ही न रही। अब मेरे ऊपर पिता का एकाधिकार हो गया, मेरी बागडोर उनके हाथ में आ गयी। मेरी जहाज डगमगाने लगी थी, उसका कोई नाखुदा नही था।
जब मैं गाँव जाता हूँ तो उस बुद्धा नदी से जरूर मिलता हूँ ,जो बचपन से मेरे भीतर बह रही है। बचपन के बहुत सारे खेल वहाँ खेलता था। साधु की कुटी और नदी के किनारे जामुन के पेड़ याद आते हैं। कुटी में रामलखन साधू रहते थे, अब वहाँ कोई नही रहता, वहाँ वीरानगी छायी हुई है लेकिन जब मैं वहाँ पहुँच जाता हूँ तो बीते हुए दृश्य जीवंत होने लगते हैं। कबीर के पद और खजड़ी की आवाज सुनाई पड़ती है। नदी को देख कर मन प्लावित हो जाता था, पास के बबूल के जंगल की याद नहीं रहती थी हालांकि बचपन में वहाँ जाता रहता था। कभी–कभी जरूरी जगहें देखने से छूट जाती हैं और हम गैर– जरूरी चीजों में उलझ कर रह जाते हैं। यह जिज्ञासा थी कि अब कैसा होगा बबूल का वन? आधुनिक सभ्यता के विकास के बाद लोकजीवन के उपकरण बदलते जा रहे हैं। भू माफिया दुनिया के हर कोनों में व्याप्त हो चुके हैं। उनके लोहे के पाँव शहर को नही गांवों को भी रौद रहे हैं।
वन है बबूल के
जाना मत भूल के
आएंगे हिस्से में
दर्द कुछ शूल के
फूलों के किस्से तो
लगते हैं फिजूल से
छात्र जीवन में गीत लिखने का चस्का चढ़ा था उन्हीं दिनों यह गीत लिखा गया था। जब बबूल के वन की सैर करने को तैयार हुआ तो लोगों ने कहा कि इस उम्र में भी इस आदमी का बचपना नहीं गया। मुझे लगता है कि अगर आदमी की जेब में बचपना न हो तो वह उम्र के पहले ही बूढ़ा हो जाता है। मैं अपने इस बचपने को बचाए हुए हूँ। मेरा कवि, समाज से इसी तरह के तंज को सुनते हुए बड़ा हुआ है। बबूल के वन व्यवस्थित ढंग से नहीं उगते, कोई उनका वन नही लगाता, वे कोई सरकारी जंगल नहीं हैं जो पंक्तिबद्ध लगाये जाते हैं, वे विशेष तरह की जमीन में बड़े होते हैं। वन विभाग उनकी देखभाल करता है, उनकी लकड़ियाँ कीमती होती हैं। जंगल माफिया उनकी चोरी करते रहते हैं। बबूल के साथ ऐसा कोई खतरा नही है, गाँव के लोग चूल्हे में लगावन के लिए लकड़ियाँ ले जाते हैं। बबूल की दातौन दांत-दर्द का शमन होता है, उसके अनेक उपयोग हैं।
बबूल के वन में जाने का कोई सीधा–सादा रास्ता नही था। लोगों की आवाजाही से जरूर पगडंडियाँ बन गयी थीं जो जंगल में दूर से चमकती थीं। वहाँ सावधानी से चलने की जरूरत होती है अन्यथा कांटे चुभ भी सकते हैं। गुलाब हो या बबूल आत्मरक्षा के लिए कांटे जरूर होते है, उनसे हमें सबक भी मिलते हैं कि हमें अपनी आत्मरक्षा के लिए कोई न कोई इंतजाम करना ही चाहिए। हमारे देवी–देवताओं के पास बचाव और आक्रमण के लिए कोई न कोई अस्त्र–शस्त्र तो होते ही थे। प्रकृति ने इस परंपरा को अपना लिया है। हम जिस दुनिया में रहते हैं वह निरापद नहीं है। बबूल ऊसर और बंजर में आसानी से उग जाते हैं, वे रेगिस्तान में भी उग जाते हैं। बबूल के भीतर गहरी जिजीविषा होती है, वे सीमित जलवायु में उग आते हैं। उनका सौन्दर्य अलग होता है, कांटे फूलो की तरह कोमल नहीं होते लेकिन वे हमें फूलों से ज्यादा सबक देते हैं। मुझे याद आता है कि गोरखपुर के अपने समय के प्रसिद्ध कवि विद्याधर देवेदी विज्ञ के कविता संग्रह का नाम – 'बबूल के फूल' था। महाकवि निराला तक उनके प्रशंसक थे।
बबूल का जंगल चिड़ियाघर की तरह था, उसमें भांति–भांति के पक्षी थे जो उनकी शाखों पर घोंसला बनाए हुए थे। वहाँ उनके घोंसले सुरक्षित थे, वहाँ बहुत कम शिकारी आते थे। बयां अपना घोंसला अक्सर बबूल के बाग में बनाती है, यह उसके लिए निरापद जगह थी। बया के अतिरिक्त कोयल, पंडुकी, बंगुलों की अलग–अलग कालोनी थी जो उनके कलरव से आबाद थी। जैसे मैं वहाँ पहुंचा उनकी आवाज बंद हो गयी, मेरे आने से उनकी गतिविधियों में खलल पड़ गया। वन के दूसरे हिस्से में नीलगायों का झुंड था, जैसे उनके फ़ोटो खीचने के लिए मोबाइल कैमरा ताना, वे आहट पा कर जंगल में भागने लगीं। सांड और जंगली बैल ढीठ थे, उन्होंने उठने की जहमत नही उठायी, बस सींग उठा कर देखते रहे। जंगल के आसपास बंजारों की झोपड़ियाँ थी, जहां उनके कुत्ते और मुर्गियाँ टहल रहे थे। जंगल के उत्तरी छोर से खेतों की शुरूआत होती थी, वहाँ फसलों की रखवाली के लिए मचान बने हुए थे। वे वहाँ अपने फसलों की जंगली जानवरों से रखवाली के लिए रात में रूकते थे। मन हुआ कि एक रात यहाँ बिताएं, ऐसे अवसरों पर किसी हमख्याल दोस्त की जरूरत होती है जो आवारगी के इस किस्से में शामिल हो सके। जो मेरे साथ वन में भटक सके, जंगल का असली आनंद भटकने पर ही मिलता है।
वे यात्राएं क्या जिसमें आसानी से रास्ता मिल जाय।
जंगल में भटकते–भटकते अचानक नदी दिख गयी। वह मेरी प्रिय बुद्धा नदी थी, इधर कैसे आ गयी – मैं सोचने लगा, क्या नदियां भी अपने प्रेमियों का पीछा करती हैं? पता चला कि वह इधर से आगे गयी हैं। नदी पर एक छोटा सा पुल था, पुल के नीचे नदी बह रही थी, उसमें डूबनें भर का पानी था। इस पुल से आगे गाँव के रास्ते थे, याद नही आता कि कभी इस रास्ते से गया हूँ। यह बेहद अपरिचित रास्ता था जिस पर भेड़ों के रेवड़ चल रहे थे। जब मैं भेड़ों का फ़ोटो खीच रहा था तो रेवड़ हांक रही स्त्री ने मुझसे पूछा –क्या मुझे यह फ़ोटो मिल पाएगा? मैंने उससे कहा कि अपना पता दे दो मैं फ़ोटो भेज दूंगा। उसने अपने गाँव का नाम तो बताया लेकिन डाकघर का पता नही बता सकी अत: फ़ोटो भेजना मुश्किल था। उससे मुझे भेड़ों और चरवाहों के बारे में अच्छी जानकारी मिली। उसने मुझे बताया कि भेड़ों की यादादस्त बहुत तेज होती है। वे उस जगह को याद रखती हैं जहां वे पहले चुकी होती हैं, उनके सुनने की क्षमता बहुत अच्छी होती है।
गड़ेरिये बारिश को छोड़ कर हर मौसम में भ्रमण में रहते हैं, वे दूर–दूर तक अपने गाँव से दूर चरागाहों में भटकते रहते हैं। नदियों के तट–किनारे उनकी प्रिय जगह होते हैं, वहाँ नमी होती है, घास के मैदान होते हैं। रात के समय वे घने बाग–बगीचों, पोखर के पास रूकते हैं, कच्चा चूल्हा बना कर खाना पकाते हैं। भेड़ों के दूध स्वादिष्ट होते हैं, वे गड़ेरियों के भोजन में शामिल होते हैं। अपनी उदासी को दूर करने के लिए बाँसुरी बजाते हैं, उनके काफिलों में स्त्रियाँ कम होती हैं। जब भेड़ों के ऊन बढ़ जाते हैं उन्हें उनकी पीठ से उतार कर बाजार में बेचते हैं।उन्हें बाजार में कम कीमत मिलती है, असली मुनाफा तो व्यापारी कमाते हैं। भेड़ों की यह खासियत है कि अगर मुख्य भेड़ आगे बढ़ी तो सारी भेड़े उनके साथ चलने लगती हैं। हमारे प्रजातन्त्र में जनता की तुलना अक्सर भेड़ों से की जाती है, उसका स्वभाव भेड़ों जैसा ही है, शातिर गड़ेरिये उन्हें स्वादिष्ट घास का लालच दे कर हांक लेते हैं। भेड़ों को ले कर बहुत से मुहावरे प्रचलित हैं – जैसे की भेड़ की खाल में भेड़िया या ब्लैक सीप आदि। भेड़ अन्य जानवरों की तुलना में मासूम जीव है इसलिए उसे ले कर क्रूर कहावतें कही गयी हैं।
धीरे–धीरे घर नजदीक आ रहा था, यात्रा पर जाने के पहले जो उत्साह था, वह धूमिल हो रहा था, मंजिल पर पहुँचने से ज्यादा रास्ते में रहने का सुख होता है। जब हम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं तो हमारे पास कोई जिज्ञासा नहीं बचती इसलिए बार–बार यात्राओं पर लौटना पड़ता है।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510-अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज
फैजाबाद – 224001
मोबाइल -9415332326
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