रांगेय राघव की कहानी 'गदल'

 




हिंदी साहित्य में कुछ ऐसे लेखक रहे हैं जिन्होंने काफी कम उम्र पाने के बावजूद इतना लेखन किया, जो आश्चर्य में डालता है। रांगेय राघव हिंदी साहित्य के ऐसे ही विलक्षण रचनाकार थे। प्रेमचंद के बाद वे हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक लेखक माने गए। मूल रूप से तमिल भाषी होने के बावजूद रांगेय राघव ने हिंदी में अपना अधिकांश लेखन कार्य किया। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में 17 जनवरी, 1923 को हुआ। राघव का मूल नाम तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था, लेकिन उन्होंने अपना साहित्यिक नाम 'रांगेय राघव' रख लिया। उनके पिता का नाम रंगाचार्य और माता कनकवल्ली थी। इनका विवाह सुलोचना से हुआ था।

सन 1942 में बंगाल के अकाल पर लिखी उनकी रिपोर्ट 'तूफानों के बीच' काफी चर्चित रही। उन्होंने जर्मन और फ्रांसीसी के कई साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। राघव द्वारा शेक्सपीयर की रचनाओं का हिंदी अनुवाद इस कदर मूल रचना सरीखा था कि उन्हें 'हिंदी के शेक्सपीयर' की संज्ञा दे दी गई।

हालांकि वह केवल 39 साल की उम्र तक जीये, पर इस बीच उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज सहित आलोचना, संस्कृति और सभ्यता जैसे विषयों पर डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकें लिख दी थीं। उनके बारे में कहा जाता था कि जितने समय में कोई एक किताब पढ़ता है, उतने में वह एक किताब लिख देते हैं।

रांगेय राघव के रचनाकर्म को देखें तो उन्होंने अपने अध्ययन से, हमारे दौर के इतिहास से, मानवीय जीवन की, मनुष्य के दुःख, दर्द, पीड़ा और उस चेतना की, जिसके भरोसे वह संघर्ष करता है, अंधकार से जूझता है, उसे ही सत्य माना, और उसी को आधार बना कर लिखा, उसे प्रेरणा दी।

उनके बहुआयामी रचना संसार में कहानी संग्रह: देवदासी, समुद्र के फेन, जीवन के दाने, इंसान पैदा हुआ, पांच गधे, साम्राज्य का वैभव, अधूरी मूरत, ऐयाश मुर्दे, एक छोड़ एक, धर्म संकट; उपन्यास: मुर्दों का टीला, हुजूर, रत्न की बात, राय और पर्बत, भारती का सपूत, विषाद मठ, सीधा-सादा रास्ता, लखिमा की आंखें, प्रतिदान, काका, अंधेरे के जुगनू, लोई का ताना, उबाल, कब तक पुकारूं, पराया, आंधी की नावें, धरती मेरा घर, अंधेरे की भूख, छोटी-सी बात, बोलते खंडहर, पक्षी और आकाश, बौने और घायल फूल, राह न रुकी, जब आवेगी काली घटा, पथ का पाप, कल्पना, प्रोफ़ेसर, दायरे, मेरी भाव बाधा हरो, पतझड़, धूनी का धुआं, यशोधरा जीत गई, आखिरी आवाज़, देवकी का बेटा खास हैं।

स्वर्ग का यात्री, घरौंदा, रामानुज और विरूदक रांगेय राघव के चर्चित नाटक हैं। भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका, संगम और संघर्ष, प्रगतिशील साहित्य के मानदंड, काव्यदर्श और प्रगति, भारतीय परंपरा और इतिहास, महाकाव्य विवेचन, समीक्षा और आदर्श, तुलसी का कला शिल्प, काव्य कला और शास्त्र, आधुनिक हिन्दी कविता में विषय और शैली, भारतीय संत परंपरा और समाज, आधुनिक हिन्दी कविताओं में प्रेम और श्रृंगार, गोरखनाथ और उनका युग रांगेय राघव की प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं। उनके द्वारा रचित कविता संग्रहों में पिघलते पत्थर, श्यामला, अजेय, खंडहर, मेधावी, राह के दीपक, पांचाली, रूप छाया भी काफी लोकप्रिय रहे। 

कल 17 जनवरी को रांगेय राघव का जन्मदिन था। उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी चर्चित कहानी 'गदल'। स्त्री स्वातंत्र्य की आज जो बात की जाती है उसे रांगेय राघव ने अपनी इस कहानी के मार्फत बहुत पहले ही रेखांकित कर दिया था। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रांगेय राघव की कहानी 'गदल'।



गदल


रांगेय राघव



1


बाहर शोरगुल मचा। डोड़ी ने पुकारा, ''कौन है?''

कोई उत्तर नहीं मिला। आवाज आई, ''हत्यारिन! तुझे कतल कर दूँगा!''

स्त्री का स्वर आया, ''करके तो देख! तेरे कुनबे को डायन बन के न खा गई, निपूते!''

डोड़ी बैठा न रह सका। बाहर आया।

''क्या करता है, क्या करता है, निहाल?'' डोड़ी बढ़ कर चिल्लाया, ''आखिर तेरी मैया है।''

''मैया है!'' कह कर निहाल हट गया।


''और तू हाथ उठा के तो देख!'' स्त्री ने फुफकारा, ''कढ़ीखाए! तेरी सींक पर बिल्लियाँ चलवा दूँ! समझ रखियो! मत जान रखियो! हाँ! तेरी आसरतू नहीं हूँ।''

''भाभी!'' डोड़ी ने कहा, ''क्या बकती है? होश में आ!''

वह आगे बढ़ा। उसने मुड़ कर कहा, ''जाओ सब। तुम सब लोग जाओ!''

निहाल हट गया। उसके साथ ही सब लोग इधर-उधर हो गए।
डोड़ी निस्तब्ध, छप्पर के नीचे लगा बरैंडा पकड़े खड़ा रहा।
 स्त्री वहीं बिफरी हुई-सी बैठी रही। उसकी आँखों में आग-सी जल रही थी।

उसने कहा, ''मैं जानती हूँ, निहाल में इतनी हिम्मत नहीं। यह सब तैने किया है, देवर!''

''हाँ गदल!'', डोड़ी ने धीरे से कहा, ''मैंने ही किया है।''

गदल सिमट गई। कहा, ''क्यों, तुझे क्या जरूरत थी?''



2

गदल ने कहा, ''मुझे क्यों बुलाया है तूने?''

डोड़ी ने इस बात का उत्तर नहीं दिया। पूछा, ''रोटी खाई है?''
''नहीं, '' गदल ने कहा, ''खाती भी कब? कमबखत रास्ते में मिले। खेत हो कर लौट रही थी। रास्ते में अरने-कंडे बीन कर संझा के लिए ले जा रही थी।''

डोड़ी ने पुकारा, ''निहाल! बहू से कह, अपनी सास को रोटी दे जाय!''

भीतर से किसी स्त्री की ढीठ आवाज सुनाई दी, ''अरे, अब लौहरों की बैयर आई हैं; उन्हें क्यों गरीब खारियों की रोटी भाएगी?''

कुछ स्त्रियों ने ठहाका लगाया।

निहाल चिल्लाया, ''सुन ले, परमेसुरी, जगहँसाई हो रही है। खारियों की तो तूने नाक कटा कर छोड़ी।''


गुन्ना मरा, तो पचपन बरस का था। गदल विधवा हो गई।

गदल का बड़ा बेटा निहाल तीस वर्ष के पास पहुँच रहा था। उसकी बहू दुल्ला का बड़ा बेटा सात का, दूसरा चार का और तीसरी छोरी थी जो उसकी गोद में थी।

निहाल से छोटी तरा-ऊपर की दो बहिनों थी चम्पा और चमेली, जिसका क्रमश: झाज और विश्वारा गाँवों में ब्याह हुआ था। आज उनकी गोदियों से उनके लाल उतर कर धूल में घुटरूवन चलने लगे थे। अंतिम पुत्र नारायन अब बाईस का था, जिसकी बहू दूसरे बच्चे की माँ बनने वाली थी। ऐसी गदल, इतना बड़ा परिवार छोड़ कर चली गई थी और बत्तीस साल के एक लौहरे गूजर के यहाँ जा बैठी थी।


डोड़ी गुन्ना का सगा भाई था। बहू थी, बच्चे भी हुए। सब मर गए। अपनी जगह अकेला रह गया। गुन्ना ने बड़ी-बड़ी कही, पर वह फिर अकेला ही रहा, उसने ब्याह नहीं किया, गदल ही के चूल्हे पर खाता रहा। कमा कर लाता, वो उसी को दे देता, उसी के बच्चों को अपना मानता, कभी उसने अलगाव नहीं किया। निहाल अपने चाचा पर जान देता था। और फिर खारी गूजर अपने को लौहरों से ऊँच समझते थे।


गदल जिसके घर बैठी थी, उसका पूरा कुनबा था। उसने गदल की उम्र नहीं देखी, यह देखा कि खारी औरत है, पड़ी रहेगी। चूल्हे पर दम फूँकने वाली की जरूरत भी थी।


आज ही गदल सवेरे गई थी और शाम को उसके बेटे उसे फिर बाँध लाए थे। उसके नए पति मौनी को अभी पता भी नहीं हुआ होगा। मौनी रँडुआ था। उसकी भाभी जो पाँव फैला कर मटक-मटककर छाछ बिलोती थी, दुल्लो सुनेगी तो क्या कहेगी?

गदल का मन विक्षोभ से भर उठा।

आधी रात हो चली थी। गदल वहीं पड़ी थी। डोड़ी वहीं बैठा चिलम फूँक रहा था।

उस सन्नाटे में डोड़ी ने धीरे से कहा, ''गदल!''

''क्या है?'', गदल ने हौले से कहा।

''तू चली गई न?''

गदल बोली नहीं। डोडी ने फिर कहा, ''सब चले जाते हैं। एक दिन तेरी देवरानी चली गई, फिर एक-एक करके तेरे भतीजे भी चले गए। भैया भी चला गया। पर तू जैसी गई; वैसे तो कोई भी नहीं गया। जग हँसता है, जानती है?''



गदल बुरबुराई, ''जग हँसाई से मैं नहीं डरती देवर! जब चौदह की थी, तब तेरा भैया मुझे गाँव में देख गया था। तू उसके साथ तेल पिया लट्ठ ले कर मुझे लेने आया था न, तब? मैं आई थी कि नहीं? तू सोचता होगा कि गदल की उमर गई, अब उसे खसम की क्या जरूरत है? पर जानता है, मैं क्यों गई?''

''नहीं।''

''तू तो बस यही सोच करता होगा कि गदल गई, अब पहले-सा रोटियों का आराम नहीं रहा। बहुएँ नहीं करेंगी तेरी चाकरी देवर! तूने भाई से और मुझसे निभाई, तो मैंने भी तुझे अपना ही समझा! बोल झूठ कहती हूँ?''

''नहीं, गदल, मैंने कब कहा!''

''बस यही बात है देवर! अब मेरा यहाँ कौन है! मेरा मरद तो मर गया। जीते-जी मैंने उसकी चाकरी की, उसके नाते उसके सब अपनों की चाकरी बजाई।



पर जब मालिक ही न रहा, तो काहे को हड़कंप उठाऊँ? यह लड़के, यह बहुएँ! मैं इनकी गुलामी नहीं करूँगी!''

''पर क्या यह सब तेरी औलाद नहीं बावरी। बिल्ली तक अपने जायों के लिए सात घर उलट-फेर करती है, फिर तू तो मानुष है। तेरी माया-ममता कहाँ चली गई?''

''देवर, तेरी कहाँ चली गई थी, तूने फिर ब्याह न किया।''

''मुझे तेरा सहारा था गदल!''

''कायर! भैया तेरा मरा, कारज किया बेटे ने और फिर जब सब हो गया तब तू मुझे रख कर घर नहीं बसा सकता था। तूने मुझे पेट के लिए पराई ड्यौढ़ी लँघवाई।


चूल्हा मैं तब फूँकूँ, जब मेरा कोई अपना हो। ऐसी बाँदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके। मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लूँगी।


समझा देवर! तूने तो नहीं कहा तब। अब कुनबे की नाक पर चोट पड़ी, तब सोचा। तब न सोचा, जब तेरी गदल को बहुओं ने आँखें तरेर कर देखा। अरे, कौन किसकी परवा करता है!''

''गदल!'' डोड़ी ने भर्राए स्वर में कहा, ''मैं डरता था।''

''भला क्यों तो?''

''गदल, मैं बुढ्ढा हूँ। डरता था, जग हँसेगा। बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्माँ से पहले से नाता था, तभी चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया। गदल, भैया की भी बदनामी होती न?''


''अरे चल रहने दे!'' गदल ने उत्तर दिया, ''भैया का बड़ा ख्याल रहा तुझे? तू नहीं था कारज में उनके क्या? मेरे सुसर मरे थे, तब तेरे भैया ने बिरादरी को जिमा कर होठों से पानी छुलाया था अपने। और तुम सबने कितने बुलाए? तू भैया दो बेटे। यही भैया हैं, यहीं बेटे हैं? पच्चीस आदमी बुलाए कुल। क्यों आखिर? कह दिया लड़ाई में कानून है। पुलिस पच्चीस से ज्यादा होते ही पकड़ ले जाएगी! डरपोक कहीं के! मैं नहीं रहती ऐसों के।''


हठात् डोड़ी का स्वर बदला। कहा, ''मेरे रहते तू पराए मरद के जा बैठेगी?''

''हाँ।''

''अबके तो कह!'', वह उठ कर बढ़ा।

''सौ बार कहूँ लाला!'' गदल पड़ी-पड़ी बोली।

डोड़ी बढा।

''बढ़!'', गदल ने फुफकारा।



डोड़ी रुक गया। गदल देखती रही। डोड़ी जा कर बैठ गया।

गदल देखती रही। फिर हँसी। कहा, ''तू मुझे करेगा! तुझमें हिम्मत कहाँ है देवर! मेरा नया मरद है न? मरद है। इतनी सुन तो ले भला। मुझे लगता है तेरा भइया ही फिर मिल गया है मुझे। तू?'', वह रुकी- ''मरद है! अरे कोई बैयर से घिघियाता है? बढ़ कर जो तू मुझे मारता, तो मैं समझती, तू अपनापा मानता है। मैं इस घर में रहूँगी?''

डोड़ी देखता ही रह गया। रात गहरी हो गई। गदल ने लहँगे की पर्त फैलाकर तन ढक लिया। डोड़ी ऊँघने लगा।



ओसारे में दुल्ले ने अँगड़ाई ले कर कहा, ''आ गई देवरानी जी! रात कहाँ रही?''

सूका डूब गया था। आकाश में पौ फट रही थी। बैल अब उठ कर खड़े हो गए थे। हवा में एक ठंडक थी।

गदल ने तड़ाक से जवाब दिया, ''सो, जेठानी मेरी! हुकुम नहीं चला मुझ पर। तेरी जैसी बेटियाँ है मेरी। देवर के नाते देवरानी हूँ, तेरी जूती नहीं।''

दुल्लो सकपका गई। मौनी उठा ही था। भन्नाया हुआ आया। बोला, ''कहाँ गई थी?''

गदल ने घूँघट खींच लिया, पर आवाज नहीं बदली। कहा, ''वही ले गए मुझे घेर कर! मौका पा के निकल आई।''



मौनी दब गया। मौनी का बाप बाहर से ही ढोर हाँक ले गया। मौनी बढ़ा।

''कहाँ जाता है?'' गदल ने पूछा।

''खेत-हार।''

''पहले मेरा फैसला कर जा।'' गदल ने कहा।



दुल्लो उस अधेड़ स्त्री के नक्शे देख कर अचरज में खड़ी रही।

''कैसा फैसला?, मौना ने पूछा। वह उस बड़ी स्त्री से दब गया।

''अब क्या तेरे घर का पीसना पीसूँगी मैं?'', गदल ने कहा,

 ''हम तो दो जने हैं। अलग करेंगे खाएँगे।'' उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही यह कहती रही, ''कमाई शामिल करो, मैं नहीं रोकती, पर भीतर तो अलग-अलग भले।''

मौनी क्षण-भर सन्नाटे में खड़ा रहा। दुल्लो तिनक कर निकली। बोली, ''अब चुप क्यों हो गया, देवर? बोलता क्यों नहीं? देवरानी लाया है कि सास! तेरी बोलती क्यों नहीं कढ़ती? ऐसी न समझियो तू मुझे! रोटी तवे पर पलटते मुझे भी आँच नहीं लगती, जो मैं इसकी खरी-खोटी सुन लूँगी, समझा? मेरी अम्माँ ने भी मुझे चूल्हे की मट्टी खा के ही जना था। हाँ!''


''अरी तो सौत!'', गदल ने पुकारा, ''मट्टी न खा के आई, सारे कुनबे को चबा जाएगी डायन। ऐसी नहीं तेरी गुड़ की भेली है, जो न खाएँगे हम, तो रोटी गले में फंदा मार जाएगी।''



मौनी उत्तर नहीं दे सका। वह बाहर चला गया। दुपहर हो गई। दुल्लो बैठी चरखा कात रही थी। 

नरायन ने आ कर आवाज दी, ''कोई है?''

दुल्लो ने घूँघट काढ़ लिया। पूछ, ''कौन हो?''

नरायन ने खून का घूँट पी कर कहा, ''गदल का बेटा हूँ।''

दुल्लो घूँघट में हँसी। पूछा, ''छोटे हो कि बड़े?''

''छोटा।''

''और कितने है!''

''कित्ते भी हों। तुझे क्या?'' गदल ने निकाल कर कहा।

''अरे आ गई!'' कह कर दुल्लो भीतर भागी।

''आने दे आज उसे। तुझे बता दूँगी जिठानी!'' गदल ने सिर हिला कर कहा।

''अम्माँ!'', नरायन ने कहा, ''यह तेरी जिठानी!''

''क्यों आया है तू? यह बता!'', गदल झल्लाई।

''दंड धरवाने आया हूँ, अम्माँ!, कह कर नरायन आगे बैठने को बढ़ा।

''वहीं रह!'' गदल ने कहा।



उसी समय लोटा-डोर लिए मौनी लौटा। उसने देखा कि गदल ने अपने कड़े और हँसली उतार कर फेक दी और कहा, ''भर गया दंड तेरा! अब मरद का सब माल दबा कर बहुओं के कहने से बेटों ने मुझे निकाल दिया है।''


नरायन का मुँह स्याह पड़ गया। वह गहने उठा कर चला गया। 
मौनी मन-ही-मन शंकित-सा भीतर आया।

दुल्लो ने शिकायत की, ''सुना तूने देवर! देवरानी ने गहने दे दिए। घुटना आखिर पेट को ही मुड़ा। चार जगह बैठेगी, तो बेटों के खेत की डौर पर डंडा-धूआ तक लग जाएँगे, पक्का चबूतरा घर के आगे बन जाएगा, समझा देती हूँ। तुम भोले-भाले ठहरे। तिरिया-चरित्तर तुम क्या जानो। धंधा है यह भी। अब कहेगी, फिर बनवा मुझे।''


गदल हँसी, कहा, ''वाह जिठानी, पुराने मरद का मोल नए मरद से तेरे घर की बैयर चुकवाती होंगी। गदल तो मालकिन बन कर रहती है, समझी! बाँदी बन कर नहीं। चाकरी करूँगी तो अपने मरद की, नहीं तो बिधना मेरे ठेंगे पर। समझी! तू बीच में बोलने वाली कौन?''


दुल्लो ने रोष से देखा और पाँव पटकती चली गई।

मौनी ने देखा और कहा, ''बहुत बढ़-बढ़ कर बातें मत हाँक, समझ ले घर में बहू बन कर रह!''

''अरे तू तो तब पैदा भी नहीं हुआ था, बालम!'', गदल ने मुस्करा कर कहा, ''तब से मैं सब जानती हूँ। मुझे क्या सिखाता है तू? ऐसा कोई मैंने काम नहीं किया है, जो बिरादरी के नेम के बाहर हो। जब तू देखे, मैंने ऐसी कोई बात की हो, तो हजार बार रोक, पर सौत की ठसक नहीं सहूँगी।''

''तो बताऊँ तुझे!'', वह सिर हिला कर बोला।

गदल हँस कर ओबरी में चली गई और काम में लग गई।



ठंडी हवा तेज हो गई। डोड़ी चुपचाप बाहर छप्पर में बैठा हुक्का पी रहा था। पीते-पीते ऊब गया और उसने चिलम उलट दी और फिर बैठा रहा।

खेत से लौट कर निहाल ने बैल बाँधे, न्यार डाला और कहा, ''काका!'' डोड़ी कुछ सोच रहा था। उसने सुना नहीं।

''काका!'' निहाल ने स्वर उठा कर कहा।

''हे!'' डोड़ी चौक उठा, ''क्या है? मुझसे कहा कुछ?''

''तुमसे न कहूँगा, तो कहूँगा किससे? दिन-भर तो तुम मिले नहीं। चिम्मन कढ़ेरा कहता था, तुमने दिन-भर मनमौजी बाबा की धूनी के पास बिताया, यह सच है?''

''हाँ, बेटा, चला तो गया था।''

''क्यों गए थे भला?''

''ऐसे ही जी किया था, बेटा!''

''और कस्बे से घी कटऊ क्या कराया कि बनिए का आदमी आया था। 

मैंने कहा, ''नहीं है, वह बोला, लेके जाऊँगा। झगड़ा होते-होते बचा।''

''ऐसा नहीं करते, बेटा!'' डोड़ी ने कहा, ''बौहरे से कोई झगड़ा मोल लेता है?''



निहाल ने चिलम उठाई, कंडों में से आँच बीन कर धरी और फूँक लगाता हुआ आया। कहा, ''मैं तो गया नहीं। सिर फूट जाते। नरायन को भेजा था।''


''कहाँ?'' डोड़ी चौंका।

''उसी कुलच्छनी कुलबोरनी के पास।''

''अपनी माँ के पास?''

''न जाने तुम्हें उससे क्या है, अब भी तुम्हें उस पर गुस्सा नहीं आता। उसे माँ कहूँगा मैं?''

''पर बेटा, तू न कह, जग तो उसे तेरी माँ ही कहेगा। जब तक मरद जीता है, लोग बैयर को मरद की बहू कह कर पुकारते हैं, जब मरद मर जाता है, तो लोग उसे बेटे की अम्माँ कह कर पुकारते हैं। कोई नया नेम थोड़ी ही है।''


निहाल भुनभुनाया। कहा, "ठीक है, काका ठीक है, पर तुमने अभी तक ये तो पूछा ही नहीं कि क्यों भेजा था उसे?''

''हाँ बेटा!'' डोड़ी ने चौंक कर कहा, ''यहा तो तूने बताया ही नहीं! बता न?''

''दंड भरवाने भेजा था। सो पंचायत जुड़वाने के पहले ही उसने तो गहने उतार फेंके।''



डोडी मुस्कुराया। कहा, ''तो वह यह बता रही है कि घर वालों ने पंचायत भी नहीं जुड़वाई? यानी हम उसे भगाना ही चाहते थे। नरायन ले आया?''

''हाँ।''

डोडी सोचने लगा।

''मैं फेर आऊँ?'' निहाल ने पूछा।

''नहीं बेटा!'' डोड़ी ने कहा, ''वह सचमुच रूठ कर ही गई है।
 और कोई बात नहीं है। तूने रोटी खा ली?''

''नहीं।''

''तो जा पहले खा ले।''

निहाल उठ गया, पर डोड़ी बैठा रहा। रात का अँधेरा साँझ के पीछे ऐसे आ गया, जैसे कोई पर्त उलट गई हो।

दूर ढोला गाने की आवाज आने लगी। डोड़ी उठा और चल पड़ा।

निहाल ने बहू से पूछा, ''काका ने खा ली?''

''नहीं तो।''

निहाल बाहर आया। काका नहीं थे।

''काका।'' उसने पुकारा।

राह पर चिरंजी पुजारी गढ़वाले हनुमानजी के पट बंद कर के आ रहा था। उसने पुछा,''क्या है रे?''



''पाँय लागूँ, पंडित जी।'' निहाल ने कहा, ''काका अभी तो बैठे थे।''

चिरंजी ने कहा, ''अरे, वह वहाँ ढोल सुन रहा है। मैं अभी देख कर आया हूँ।''

चिरंजी चला गया, निहाल ठिठक खड़ा रहा। बहू ने झाँक कर पूछा, ''क्या हुआ?''

''काका ढोला सुनने गए हैं।'', निहाल ने अविश्वास से कहा, ''वे तो नहीं जाते थे।''

''जाकर बुला ले आओ। रात बढ़ रही है।'' बहू ने कहा और रोते बच्चे को दूध पिलाने लगी।

निहाल जब काका को ले कर लौटा, तो काका की देही तप रही थी।

''हवा लग गई है और कुछ नहीं।'' डोड़ी ने छोटी खटिया पर अपनी निकाली टाँगे समेट कर लेटते हुए कहा, ''रोटी रहने दे, आज जी नहीं चाहता।''


निहाल खड़ा रहा। डोड़ी ने कहा, ''अरे, सोच तो, बेटा! मैंने ढोला कितने दिन बाद सुना है।


उस दिन भैया की सुहागरात को सुना था, या फिर आज।''


निहाल ने सुना और देखा, डोड़ी आँख मीच कर कुछ गुनगुनाने लगा था।




3

शाम हो गई थी। मौनी बाहर बैठा था। गदल ने गरम-गरम रोटी और आम की चटनी ले जा कर खाने को धर दी।

''बहुत अच्छी बनी है।'' मौनी ने खाते हुए कहा, ''बहुत अच्छी है।''

गदल बैठ गई। कहा, ''तुम एक ब्याह और क्यों नहीं कर लेते अपनी उमिर लायक?''

मौनी चौंका। कहा, ''एक की रोटी भी नहीं बनती?''

''नहीं'', गदल ने कहा, ''सोचते होंगे सौत बुलाती हूँ , पर मरद का क्या? मेरी भी तो ढलती उमिर है। जीते जी देख जाऊँगी तो ठीक है। न हो ते हुकूमत करने को तो एक मिल जाएगी।''


मौनी हँसा। बोला, ''यों कह। हौंस है तुझे, लड़ने को चाहिए।''
खाना खा कर उठा, तो गदल हुक्का भर कर दे गई और आप दीवार की ओट में बैठ कर खाने लगी। इतने में सुनाई दिया, ''अरे, इस बखत कहाँ चला?''

''जरूरी काम है, मौनी!'' उत्तर मिला, ''पेसकार साब ने बुलवाया है।''

गदल ने पहचाना। उसी के गाँव का तो था, घोट्या मैना का चंदा गिर्राज ग्वारिया। जरूर पेसकार की गाय की चराने की बात होगी।

''अरे तो रात को जा रहा है?'' मौनी ने कहा, ''ले चिलम तो पीता जा।''

आकर्षण ने रोका। गिर्राज बैठ गया। गदल ने दूसरी रोटी उठाई। कौर मुँह में रखा।

''तुमने सुना?'' गिर्राज ने कहा और दम खींचा।

''क्या?'' मौनी ने पूछा।

''गदल का देवर डोडी मर गया।''

गदल का मुँह रुक गया। जल्दी से लोटे के पानी के संग कौर निगला और सुनने लगी। कलेजा मुँह को आने लगा।

''कैसे मर गया?'' मौनी ने कहा, ''वह तो भला-चंगा था!''

''ठंड लग गई, रात उघाड़ा रह गया।''

गदल द्वार पर दिखाई दी। कहा, ''गिर्राज!''

''काकी!'', गिर्राज ने कहा, ''सच। मरते बखत उसके मुँह से तुम्हारा नाम कढ़ा था, काकी। बिचारा बड़ा भला मानस था।''

गदल स्तब्ध खड़ी रही।

गिर्राज चला गया।

गदल ने कहा, ''सुनते हो!''

''क्या है री?''

''मैं जरा जाऊँगी।''

''कहाँ?'' वह आतंकित हुआ।

''वहीं।''

''क्यों?''

''देवर मर गया है न?''

''देवर! अब तो वह तेरा देवर नहीं।''

गदल झनझनाती हुई हँसी हँसी, ''देवर तो मेरा अगले जनम में भी रहेगा। वही न मुझे रूखाई दिखाता, तो क्या यह पाँव कटे बिना उस देहरी से बाहर निकल सकते थे? उसने मुझसे मन फेरा, मैने उससे। मैंने ऐसा बदला लिया उससे!''

कहते-कहते वह कठोर हो गई।

''तू नहीं जा सकती।'' मौनी ने कहा।

''क्यों?'' गदल ने कहा, ''तू रोकेगा? अरे, मेरे खास पेट के जाए मुझे रोक न पाए। अब क्या है? जिसे नीचा दिखाना चाहती थी, वही न रहा और तू मुझे रोकने वाला है कौन? अपने मन से आई थी, रहूँगी, नहीं रहूँगी, कौन तूने मेरा मोल दिया है। इतना बोल तो भी लिया, तू जो होता मेरे उस घर में तो, तो जीभ कढ़वा लेती तेरी।''

''अरी चल-चल।''

मौनी ने हाथ पकड कर उसे भीतर धकेल दिया और द्वार पर खाट डाल कर लेट कर हुक्का पीने लगा।

गदल भीतर रोने लगी, परंतु इतने धीरे कि उसकी सिसकी तक मौनी नहीं सुन सका। आज गदल का मन बहा जा रहा था। रात का तीसरा पहर बीत रहा था। मौनी की नाक बज रही थी। गदल ने पूरी शक्ति लगा कर छप्पर का कोना उठाया और साँपिन की तरह उसके नीचे से रेंग कर दूसरी ओर कूद गई।



मौनी रह-रह कर तड़पता था। हिम्मत नहीं होती थी कि जा कर सीधे गाँव में हल्ला करे और लट्ठ के बल पर गदल को उठा लाए। मन करता सुसरी की टाँगे तोड़ दे। दुल्लो ने व्यंग्य भी किया कि उसकी लुगाई भाग कर नाक कटा गई है, खून का-सा घूँट पी कर रह गया। 

गूजरों ने जब सुना, तो कहा, ''अरे बुढ़िया के लिए खून-खराबा कराएगा! और अभी तेरा उसने खरच ही क्या कराया है? दो जून रोटी खा गई है, तुझे भी तो टिक्कड़ खिला कर ही गई!''

मौनी का क्रोध भड़क गया।

घोट्या का गिर्राज सुना गया था।



जिस वक्त गदल पहुँची, पटेल बैठा था। निहाल ने कहा था, ''खबरदार! भीतर पाँव न धरियो!''

''क्यों लौट आई है, बहू?'' पटेल चौंका था। बोला, ''अब क्या लेने आई है?''

गदल बैठ गई। कहा, ''जब छोटी थी, तभी मेरा देवर लट्ठ बाँध मेरे खसम के साथ आया था। इसी के हाथ देखती रह गई थी मैं तो। सोचा था मरद है, इसकी छत्तर-छाया में जी लूँगी।

बताओ, पटेल, वह ही जब मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका, तो क्या करती? अरे, मैं न रही, तो इनसे क्या हुआ? दो दिन में काका उठ गया न? इनके सहारे मैं रहती तो क्या होता?''


पटेल ने कहा, ''पर तूने बेटा-बेटी की उमर न देखी बहू।''

''ठीक है'' गदल ने कहा, ''उमर देखती कि इज्जत, यह कहो। 
मेरी देवर से रार थी, खतम हो गई। ये बेटा है, मैने कोई बिरादरी के नेम के बाहर की बात की हो तो रोक कर मुझ पर दावा करो। पंचायत में जवाब दूँगी। लेकिन बेटों ने बिरादरी के मुँह पर थूका, तब तुम सब कहाँ थे?''

''सो कब?'' पटेल ने आश्चर्य से पूछा।

''पटेल न कहेंगे तो कौन कहेगा? पच्चीस आदमी खिला कर लुटा दिया मेरे मरद के कारज में!''

''पर पगली, यह तो सरकार का कानून था।''

''कानून था!'' गदल हँसी, ''सारे जग में कानून चल रहा है, पटेल?''



दिन दहाड़े भैंस खोल कर लाई जाती हैं। मेरे ही मरद पर कानून था? यों न कहोगे, बेटों ने सोचा, दूसरा अब क्या धरा है, क्यों पैसा बिगाड़ते हो? कायर कहीं के?''

निहाल गरजा, ''कायर! हम कायर? तू सिंघनी?''

''हाँ मैं सिंघनी!'' गदल तड़पी, ''बोल तुझमें है हिम्मत?''

''बोल!'' वह भी चिल्लाया।

''जा, बिरादरी कारज में न्योता दे काका के।'', गदल ने कहा।
निहाल सकपका गया। बोला, "पुलस''

गदल ने सीना ठोंक कर कहा, ''बस?''

''लुगाई बकती है!'', पटेल ने कहा, ''गोली चलेगी, तो?''

गदल ने कहा, ''धरम-धुरंधरों ने तो डूबो ही दी। सारी गुजरात की डूब गई, माधो। अब किसी का आसरा नहीं। कायर-ही-कायर बसे हैं।''

फिर अचानक कहा, ''मैं करूँ परबंध?''

''तू?'' निहाल ने कहा।

''हाँ, मैं!'' और उसकी आँखों में पानी भर आया। कहा, ''वह मरते बखत मेरा नाम लेता गया है न, तो उसका परबंध मैं ही करूँगी।''



मौनी आश्चर्य में था। गिर्राज ने बताया था कि कारज का जोरदार इंतजाम है। गदल ने दरोगा को रिश्वत दी है। वह इधर आएगा ही नहीं। गदल बड़ा इंतजाम कर रही है। लोग कहते है, उसे अपने मरद का इतना गम नहीं हुआ था, जितना अब लगता है।


गिरीराज तो चला गया था, पर मौनी में विष भर गया था। उसने उठते हुए कहा, ''तो गदल! तेरी भी मन की होने दूँ, सो गोला का मौनी नहीं। दरोगा का मुँह बंद कर दे, पर उससे भी ऊपर एक दरबार है। मैं कस्बे में बड़े दरोगा से शिकायत करूँगा।''


कारज हो रहा था। पाँते बैठतीं, जीमतीं, उठ जातीं और कढ़ाव से पुए उतरते। बाहर मरद इंतजाम कर रहे थे, खिला रहे थे। निहाल और नरायन ने लड़ाई में महँगा नाज बेच कर जो घड़ों में नोटों की चाँदी बना कर डाली थी, वह निकली और बौहरे का कर्ज चढ़ा। पर डाँग में लोगों ने कहा, ''गदल का ही बूता था। बेटे तो हार बैठे थे। कानून क्या बिरादरी से ऊपर है?''

गदल थक गई थी। औरतों में बैठी थी। अचानक द्वार में से सिपाही-सा दीखा। बाहर आ गई। निहाल सिर झुकाए खड़ा था।

''क्या बात है, दीवान जी?'', गदल ने बढ़कर पूछा।

स्त्री का बढ़ कर पूछना देख दीवान सकपका गया।

निहाल ने कहा, ''कहते हैं कारज रोक दो।''

''सो, कैसे?'', गदल चौंकी।

''दरोगा जी ने कहा है।'' दीवान जी ने नम्र उत्तर दिया।

''क्यों? उनसे पूछ कर ही तो किया जा रहा है।'' उसका स्पष्ट संकेत था कि रिश्वत दी जा चुकी है।

दीवान ने कहा, ''जानता हूँ, दरोगा जी तो मेल-मुलाकात मानते हैं, पर किसी ने बड़े दरोगा जी के पास शिकायत पहुँचाई है, दरोगा जी को आना ही पड़ेगा। इसी से उन्होंने कहला भेजा है कि भीड़ छाँट दो। वर्ना कानूनी कार्रवाई करनी पड़ेगी।''


क्षणभर गदल ने सोचा। कौन होगा वह? समझ नहीं सकी। बोली, ''दरोगा जी ने पहले नहीं सोचा यह सब? अब बिरादरी को उठा दें? दीवान जी, तुम भी बैठ कर पत्तल परोसवा लो। होगी सो देखी जाएगी। हम खबर भेज देंगे, दरोगा आते ही क्यों हैं? वे तो राजा है।''


दीवान जी ने कहा,''सरकारी नौकरी है। चली जाएगी? आना ही होगा उन्हें।''

''तो आने दो!'', गदल ने चुभते स्वर से कहा, ''सब गिरफ्तार कर लिए जाएँगे। समझी! राज से टक्कर लेने की कोशिश न करो।''

'अरे तो क्या राज बिरादरी से ऊपर है?'', गदल ने तमक कर कहा, ''राज के पीसे तो आज तक पिसे हैं, पर राज के लिए धर्म नहीं छोड़ देंगे, तुम सुन लो! तुम धरम छीन लो, तो हमें जीना हराम है।''

गदल के पाँव के धमाके से धरती चल गई।

तीन पाँते और उठ गई, अंतिम पाँत थी। निहाल ने अँधेरे में देख कर कहा, ''नरायन, जल्दी कर। एक पाँत बची है न?''

गदल ने छप्पर की छाया में से कहा, ''निहाल!''
निहाल गया।

''डरता है?'' गदल ने पूछा।

सूखे होठों पर जीभ फेर कर उसने कहा, ''नहीं!''



''मेरी कोख की लाज करनी होगी तुझे।'' गदल ने कहा, ''तेरे काका ने तुझको बेटा समझ कर अपना दूसरा ब्याह नामंजूर कर दिया था। याद रखना, उसके और कोई नहीं।''

निहाल ने सिर झुका लिया।

भागा हुआ एक लड़का आया।

''दादी!'' वह चिल्लाया।

''क्या है रे?'' गदल ने सशंक हो कर देखा।

''पुलिस हथियारबंद हो कर आ रही है।''

निहाल ने गदल की ओर रहस्यभरी दृष्टि से देखा।

गदल ने कहा, ''पाँत उठने में ज्यादा देर नहीं है।''

''लेकिन वे कब मानेंगे?''

''उन्हें रोकना होगा।''

''उनके पास बंदूकें हैं।''

''बंदूकें हमारे पास भी हैं, निहाल!'' गदल ने कहा, ''डाँग में बंदूकों की क्या कमी?''

''पर हम फिर खाएँगे क्या!''

''जो भगवान देगा।''

बाहर पुलिस की गाड़ी का भोंपू बजा। निहाल आगे बढ़ा। दरोगा ने उतर कर कहा, ''यहाँ दावत हो रही है?''

निहाल भौंचक रह गया। जिस आदमी ने रिश्वत ली थी, अब वह पहचान भी नहीं रहा था।

''हाँ। हो रही है?'' उसने क्रुद्ध स्वर में कहा।

''पच्चीस आदमी से ऊपर है?''

''गिन कर हम नहीं खिलाते, दरोगा जी!''




''मगर तुम कानून तो नहीं तोड़ सकते।

''राज का कानून कल का है, मगर बिरादरी का कानून सदा का है, हमें राज नहीं लेना है, बिरादरी से काम है।''

''तो मैं गिरफ्तार करूँगा!''

गदल ने पुकारा, ''निहाल।''

निहाल भीतर गया।

गदल ने कहा, ''पंगत होने तक इन्हें रोकना ही होगा!''

''फिर!''

''फिर सबको पीछे से निकाल देंगे। अगर कोई पकड़ा गया, तो बिरादरी क्या कहेगी?''

''पर ये वैसे न रुकेंगे। गोली चलाएँगे।''

''तू न डर। छत पर नरायन चार आदमियों के साथ बंदूकें लिए बैठा है।''

निहाल काँप उठा। उसने घबराए हुए स्वर से समझाने की कोशिश की, ''हमारी टोपीदार हैं, उनकी रैफल हैं।''
''कुछ भी हो, पंगत उतर जाएगी।''


''और फिर!''

''तुम सब भागना।''

हठात् लालटेन बुझ गई। धाँय-धाँय की आवाज आई।

गोलियाँ अंधकार में चलने लगीं।

गदल ने चिल्ला कर कहा, ''सौगंध है, खा कर उठना।''

पर सबको जल्दी की फिकर थी।

बाहर धाँय-धाँय हो रही थी। कोई चिल्ला कर गिरा।

पाँत पीछे से निकलने लगी।

जब सब चले गए, गदल ऊपर चढ़ी। निहाल से कहा, ''बेटा!''
उसके स्वर की अखंड ममता सुन कर निहाल के रोंगटे उस हलचल में भी खड़े हो गए। इससे पहले कि वह उत्तर दे, गदल ने कहा, ''तुझे मेरी कोख की सौगंध है। नरायन को और बहू-बच्चों को ले कर निकल जो पीछे से।''

''और तू?''

''मेरी फिकर छोड़! मैं देख रही हूँ, तेरा काका मुझे बुला रहा है।''

निहाल ने बहस नहीं की। गदल ने एक बंदूक वाले से भरी बंदूक ले कर कहा, ''चले जाओ सब, निकल जाओ।''

संतान के मोह से जकड़े हुए युवकों को विपत्ति ने अंधकार में विलीन कर दिया।

गदल ने घोड़ा दबाया। कोई चिल्ला कर गिरा। वह हँसी। विकराल हास्य उस अंधकार में गूँज उठा।

दरोगा ने सुना तो चौंका, ''औरत! मरद कहाँ गए! उसके कुछ सिपाहियों ने पीछे से घेराव डाला और ऊपर चढ़ गए। गोली चलाई। गदल के पेट में लगी।



युद्ध समाप्त हो गया था। गदल रक्त से भीगी हुई पड़ी थी। पुलिस के जवान इकट्ठे हो गए।

दरोगा ने पूछा, ''यहाँ तो कोई नहीं?''

''हुजूर!, एक सिपाही ने कहा, ''यह औरत है।''

दरोगा आगे बढ़ आया। उसने देखा और पूछा, ''तू कौन है?''

गदल मुस्कराई और धीरे से कहा, ''कारज हो गया, दरोगा जी! आतमा को सांति मिल गई।''

दरोगा ने झल्ला कर कहा, ''पर तू है कौन?''

गदल ने और भी क्षीण स्वर से कहा, ''जो एक दिन अकेला न रह सका, उसी की।''

और सिर लुढ़क गया। उसके होठों पर मुस्कराहट ऐसी दिखाई दे रही थी, जैसे अब पुराने अंधकार में जला कर लाई हुई पहले की बुझी लालटेन।


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