पंखुरी सिन्हा की कविताएं
गंगा सदियों से भारत की पहचान की पहचान रही है। न केवल मिथकीय परम्परा बल्कि जीवंत परम्परा का दस्तावेज है गंगा। गंगा ने भारत के उत्तरी हिस्से को न केवल सिंचित किया बल्कि जन जन के हृदय में पूरी पवित्रता के साथ बहती रही। लाखों लोग आज भी कुछ विशेष अवसरों पर गंगा की तरफ अनायास ही खिंचे चले आते हैं। लेकिन अफसोस वह गंगा जिसने हमें जीवन दिया, उसे हमने निर्जीव बनाने का काम किया। कौन सा शहर होगा जिसके घरों और कल कारखानों की गन्दी नालियां गंगा में मिल कर उसका दम घोंटने का काम न करती हों। यह हमारी कथनी करनी के फर्क को बेरहमी से उद्घाटित करता है। गंगा की यात्रा दरअसल हमारे चरित्र की भी विकास यात्रा है। कोई भी इसके पन्ने पलट कर हमें आसानी से जान समझ सकता है। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की पहल जो सरकारी तौर पर 1987 में शुरू हुई थी, खुद प्रदूषित हो गई है। नमामि गंगे भी उसी परम्परा का हिस्सा मात्र है। पंखुरी सिन्हा ने गंगा को अपनी कविताओं के माध्यम से बनारस और पाटलिपुत्र के हवाले से देखने महसूसने की कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पंखुरी सिन्हा की कविताएं।
पंखुरी सिन्हा की कविताएं
दशाश्वमेध घाट पर
दोनों तरफ़ दुकानों से घिरी
तंग सड़क के आसमान पर
जब लिखा दिख जाता है
नई नीली पट्टी पर
दशाश्वमेध घाट
कुछ सर्पीले तीरों के साथ
रास्ता बताने के एरो मार्क्स के साथ
तो आ जाता है कुछ सुकून
क्योंकि आसान नहीं है
लगातार चलते, हर कदम पर पूछना
'कहाँ है दशाश्वमेध घाट?'
और इतने से तो आप होंगे सहमत
कि किसी भी शहर को देखने का
सबसे अच्छा तरीका है
देखना उसे चल कर
दिल में उतर कर
इतना तो मानेंगे आप!
और बड़े मन से बता देते हैं लोग
'बाएं मुड़ कर दाएं, फिर सीधा फिर बाएं'
सच, आखिर जाएंगी कहाँ दिशाएं?
कुछ पूछ भी लेते हैं
‘दशाश्वमेध घाट?’
टाँगे मुंह पर प्रश्नवाचक निशान
और आप चकित होंगे
कि कितना परिष्कृत है
पनवाड़ियों, लस्सी-रवडी ठंढई वालों
का उचारना, 'दशाश्वमेध घाट'!
अंततः, जिसकी गली में पहुँचते ही
अघोरियों, भिखारियों
फूलों के पहाड़
धूप की लकड़ी के टाल
अगरबत्तियों के अम्बार
और वैदिक मंत्रोच्चार के साथ साथ
चलती हैं बनारसी साडी वालों की पुकार
‘असली जड़ का काम ले लो'
मत उलझिएगा बुनकरों के हाल में
आप मिल सकते हैं उनसे जा कर
और यह अच्छा है कि आप देख रहे हैं
न केवल जड़ बल्कि रंगीन रेशम
की बुनावट का कसाव
जिसके बिना पूरी नहीं होती
किसी भी नव वधू की सज्जा!
आप बिल्कुल मिल सकते हैं
रेशम के कारीगरों से
और बतिया सकते हैं
उस बारे में जो है बाज़ार
बिचौलिए और खरीद दार
लेकिन फिलहाल, ये देखिये
सामने है, घाट की सीढ़ियों का उतार
और ऐन नाक की सीध में
गंगा! जैसे कि वह आ गयीं थीं
अचानक शांतनु के आगे
ढ़ोती सदियों से मृत्यु का भार
और पालती जीवन
हर सम्भव कण में
ओह क्या अभी अभी
इस विराट नदी की शांत
स्लेटी सतह से
किसी अपार सुंदरी जलपरी ने
सहसा निकल कर लगाई है
डुबकी?
क्या इतनी रहस्यमय है गंगा?
और कितना विकट उसे
पार कर लेने को मचलता मन!
क्या स्टीम इंजन की नांव वाले
जल में भी उड़ेल रहे हैं
थोड़ा तेल? मैं ही हूँ इतनी
बेचैन और तुम कितनी
निर्विकार गंगा!
तुम्हारे गहरे गहरे पानी में
चप्पू चलाता नाविक
फूलती साँसों से सुना रहा है
हर घाट के बनने की कथा!
और काशी नरेश विचर रहे हैं
उस पार सोने से चमकते बालू पर!
आप उनके राजमहल में देख सकते हैं
किसिम किसिम के अजूबे
चांदी के टेबल और हाथी दांत के चाकुओं
के साथ साथ, अंगरेज़ों के आ कर
जाने का ज़माना!
महल के कंगूरों से
अलग दिखती है गंगा!
लेकिन, फिलहाल इस पार
ऊँट वाले ने लगा रखा है मेला
और बच्चों के खिलौने वाले
बजा रहे हैं बाजे!
नाँव पर वापस चढ़ते हुए
गंगा में भींग गए एक पैर की जुराब को
निचोड़ना भी क्या अदभुत संयोग!
बस यही है गंगा स्नान!
और केदार जी के बाद
अलग है इस भभूति लगाए, धुनि रमाये
पर्यटकों से भरे शहर पर
कविता लिखने का एहसास!
जो उनमें से एक के
अचानक आपके ऑटो
टैक्सी मोलाते में
सामने आ कर पूछने में
कि ‘चलोगे क्या आकाशवाणी भवन’
झंकृत हो उठता है!
बदल जाती है शाम
लंका चौक पहुंचते पहुँचते
और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी
में होने वाला कला उत्सव
निखर उठता है अपने
पूरे शबाब पर!
गंगा में अब बाढ़ नहीं आती
गंगा में अब बाढ़ नहीं आती,
अब बहती नहीं गंगा वैसे,
गंगा उलीचती नहीं अब,
पाट अपने,
डुबोती नहीं सीढियां,
भिगोती नहीं हमारे अंतर,
गंगा अब असीसती कम है।
कम हुआ दुलार उसका,
कम हुआ पुचकार उसका,
कम हुआ श्रृंगार उसका,
गंगा में अब पहले वाली बात नहीं रही।
अब वैसा नहीं रहा गंगा स्नान।
दिए कम हुए धारा पर उसकी,
मध्यम हुईं लहरें भी उसकी,
कम आलोड़ित हुआ वेग उसका,
कम शीतल पानी,
अब कम लोग ले जाते हैं,
अपने घर गंगा जल।
कुछ कम दैवी हुई शक्ति उसकी,
कुछ कम हुई भक्ति भी,
कम जुटे उपासक,
कुछ दुर्जन भी आये,
पानी गँदला हुआ,
गंगा अब भटकाव है,
गंगा उलझन,
गंगा राजनीती बनी,
गंगा आन्दोलन।
कम हुआ बुलावा उसका
उतरने पर नदी में गहरे
स्पर्श नहीं, केवल छलावा हुआ
लगाने पर डुबकी,
मिली नहीं भागीरथी,
प्यासी रही आँखें,
मांगती आशीष उसका।
वार्तालाप रही गंगा,
गंगा प्रार्थना।
गंगा में बाढ़ अब लायी जाती है
और तमाम नदियों की तरह
बरसों बरस न साफ़ कर
मिटटी भी, पानी भी!
नमामि गंगे के नाम पर
बंद कर पाटलिपुत्र की
गंगा को जाती सब नालियां
पर नालियां जाएँ तो कहाँ?
कोई व्यवस्था नहीं?
बाद दो दिन की बारिश के
मगध की राजधानी में
चलती नांव के नीचे
एक साथ गंगा और नालियों का पानी!
सम्पर्क
मोबाइल - 09968186375
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