अवनीश यादव का आलेख 'अपने समय में होने का अहसास कराती हैं पत्रिकाएं'

 




वर्ष 2022 अपनी खट्टी मीठी यादों के साथ बीत गया है। बीते वर्ष हिन्दी पत्रिकाओं की दशा और दिशा की एक बेबाक पड़ताल की हुए युवा कवि और आलोचक अवनीश यादव ने। तो आइए आज पहली बार ब्लॉग पर हम पढ़ते हैं अवनीश यादव का आलेख अपने समय में होने का अहसास कराती हैं पत्रिकाएं।



अपने समय में होने का अहसास कराती हैं पत्रिकाएं

(वर्ष 2022की कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं पर एक दृष्टि)                          


अवनीश यादव


     

पत्रिकाएं लेखक और पाठक के बीच संवाद का रिश्ता कायम करती हैं। इन संवादों में संवेदनशीलता, जिज्ञासा, अपने समय की रचनाशीलता और समाज के सरोकारों की गहरी शिनाख्त होती है। कहना ही होगा कि बढ़ते टेक्नोलॉजी के युग में आज जब चौतरफ़ा ज़रूरी सवाल के लिए संवाद के अधिकांश रास्ते उत्तरोत्तर घटते जा रहे हों, ऐसे में संस्थान, प्रतिष्ठान और अनुदान से दूर, जुनून और हौसले की मिशाल बनी लघु पत्रिकाएं अपना सरोकार बखूबी निभा रहीं हैं; बगैर किसी आश्रय की कामना के साथ। इसके पीछे केवल अपने समय के जरूरी सवाल - संवाद की अनुगूंज और जागरूक पाठकों की शक्ति ही है। अपने इसी शक्ति और लय के साथ गतिमान वर्ष 2022की कुछ महत्वपूर्ण लघु पत्रिकाएं, जो पाठकों के बीच अपनी एक ख़ास जगह बना सकीं, गौरतलब हैं-

   

महत्वपूर्ण सामग्री और संख्या के लिहाज़ से भी पाठकों तक अपनी अधिक उपस्थिति दर्ज़ कराने वाली, दिल्ली से कथालोचक पल्लव के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'बनास जन' पाठकों के बीच काफ़ी चर्चा में रही। इसके प्रकाशित अंकों में मसलन कहानी का वर्तमान, बस्तर कथा, कथेतर का समय, अलविदा शेखर जोशी, पुण्य स्मरण कविवर त्रिलोचन, मध्यकालीन आख्यान, उपन्यासों का समय आदि संग्रहणीय बन पड़े हैं। पल्लव एक मिशन के तौर पर काम कर रहे हैं। 'कहानी का वर्तमान' अंक में इनके संपादकीय का एक अंश देखिए जो इन्हें पत्रिका को निर्बाध गति से गतिमान बनाए रखने के पीछे की ज़रूरी जिज्ञासा को समझने के लिए पर्याप्त होगा 'नए रचनाकारों का स्वागत होना ही चाहिए, जिन्होंने हिंसा और आतंक के दिनों में भी शब्द का रास्ता चुना है।' प्रयाग से हितेश कुमार सिंह के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'प्रयाग- पथ' का ताजा अंक ऊर्जा और ओज के कवि रामधारी सिंह दिनकर पर केंद्रित रहा। मुख्यतया दिनकर की काव्य कृतियों पर गंभीर लेख संकलित हैं। भारत भारद्वाज, राजेंद्र कुमार, कुमार वीरेंद्र, कृष्ण मोहन आदि विद्वानों के लेख विशेष महत्व के हैं। रोहणी अग्रवाल का लेख अब तक की उर्वशी की परंपरागत अर्थ सरंचना को प्रश्नांकित करता है। इलाहाबाद से ही कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका अनहद का गांधी विशेषांक अपने अन्य अंको भांति ही चर्चा में रहा। 648 पृष्ठों का यह विशेषांक सामग्री के लिहाज से  काफ़ी समृद्ध रहा। इसमें कई नए पहलुओं पर विद्वानों के लेख नई दृष्टि देते हैं| बकौल संपादक, असहयोग आन्दोलन का यह शताब्दी वर्ष है जिसे याद करते हुए हमने यह अंक गांधी पर केंद्रित किया है।'




   

विगत वर्ष में जहां सरस्वती का पुनः प्रकाशन हिंदी पाठकों के लिए सुखद रहा उससे भी अधिक खुशी की बात यह कि चर्चित एक्टिविस्ट, साहित्यप्रेमी संजय श्रीवास्तव के कुशल संपादन में 'वर्तमान साहित्य' पत्रिका का पुनः प्रकाशन होना। प्रायः संजय श्रीवास्तव पर यह आरोप लगता रहा ये केवल मंचों से बोलते भर हैं, लिखते नहीं। वर्तमान साहित्य के प्रत्येक अंक की गंभीर संपादकीय इसका मुकम्मल जवाब है। मार्च अंक की संपादकीय जहां वर्तमान साहित्य के अतीत और वर्तमान के गाथा को ब्यंजित कर रहा है तो सितंबर-अक्टूबर अंक की संपादकीय साहित्य की नव प्रतिभा पर केंद्रित, जिसे संजय जी किसी भी दृष्टिकोण से कमतर नहीं आंकते। उनकी दृष्टि में, 'सूचना की व्यापकता के कारण नए उन्मेष में संधान की गहराई ज्यादा लक्षित की जा सकती है।' अप्रैल अंक की संपादकीय काबिलेगौर है। पूरे तीन पृष्ठ में महज़ तीन वाक्य जो अपने समय के मौजूदा चेहरे को बखूबी दर्ज़ कर रहा है, जिसे एक जिम्मेदार नागरिक की संवेदनशीलता के तौर पर देखा, पढ़ा जा सकता है। इसका ताजा अंक नवजागरण कालीन स्त्री कविता विशेषांक रहा, जिसके अतिथि संपादक सुजीत कुमार सिंह हैं। संपादकीय और सामग्री के लिहाज़ से इसके सभी अंक अनूठे रहे। इन दो पत्रिकाओं के अतिरिक्त इस वर्ष लोकतांत्रिक मूल्यों को संजोने के क्रम में युवा कथाकार कुणाल सिंह के संपादन में 'वनमाली कथा' और बागी बलिया की माटी से आशीष त्रिवेदी के संपादन में 'संकल्प सृजन' का प्रकाशन हिंदी समाज के लिए सुखद है। दोनों पत्रिकाएं तेज़ी से अपनी तरफ़ पाठकों का ध्यान खींचने में समर्थ रहीं। वनमाली कथा का नवंबर-दिसंबर (संयुक्तांक )नवलेखन विशेषांक रहा, जिसमें कई नये कलमकारों की पहली रचना आश्वस्त करती हैं। बहरहाल, दिल्ली से प्रकाशित होने वाली जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नया पथ का जनवरी-जून अंक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लेखक और चिंतक एजाज अहमद की स्मृतियों को संजोए रहा और जुलाई-सितंबर अंक को जयपुर में सम्पन्न जनवादी लेखक संघ के दसवें राष्ट्रीय सम्मेलन का दस्तावेजी अंक कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त इस अंक में प्रकाशित समीक्षाएं महत्वपूर्ण रहीं। ऋत्विक भारतीय के अतिथि संपादन में प्रकाशित पत्रिका 'संवेद' का फ़रवरी अंक साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत चर्चित लेखिका अनामिका जी पर केंद्रित रहा। ए. अरविंदाक्षन, जितेंद्र श्रीवास्तव, राजेश जोशी, राधावल्लभ त्रिपाठी , मृदुला गर्ग का लेख और मदन कश्यप, ममता कालिया आदि की टिप्पणी इस अंक की मजबूती रही| कवि आलोक धन्वा की टिप्पणी, अनामिका अपनी रचनाओं से मानवीय गरिमा को समृद्ध करती रही हैं।'



ख़ासकर अहिंदी प्रदेश से हिंदी की पत्रिका का निकलना कड़ी धूप में छतनार पेड़ की छांव जैसा सुकूं देता है। आलोचक पी. रवि. के संपादन में केरल से निकलने वाली साहित्य की गंभीर पत्रिका 'जन विकल्प' इसी अनुभूति की प्रतिफलन है। इस वर्ष का प्रकाशित अंक समकालीन लंबी कविताओं पर केंद्रित रहा, जिसमें केदार नाथ सिंह की लंबी कविता बाघ से ले कर युवा कवि निशांत की लंबी कविता फिलहाल सांप पर गहन विश्लेषण युवा और वरिष्ठ आलोचकों ने प्रस्तुत किया है। अंक संग्रहणीय बन पड़ा है। दिल्ली से प्रकाशित संपादक शंकर जी की पत्रिका 'परिकथा' इस वर्ष पाठकों तक अपने समय और समाज की परिक्रमा का 100वा अंक प्रस्तुत कर सक्रिय उपस्थिति दर्ज़ की। निश्चित ही यह लघु- पत्रिका के सर्जनात्मक प्रयास की बडी घटना कही जा सकती है।




  

हरिनारायण जी के संपादन में निकलने वाली साहित्य, संस्कृति और कला का समग्र मासिक कथादेश का अप्रैल अंक स्त्री-लेखन और दिसंबर अंक कथाकार - चित्रकार प्रभु जोशी पर एकाग्र रहा। नवंबर अंक में स्मृति शेष में कथाकार शेखर जोशी के रचनात्मक अवदान पर लिखते हुए नवीन जोशी ने श्रम के सम्मान और शिल्प के सौंदर्य के कथाकार कहा,जिसमें उनकी रचनात्मकता, उनका संघर्ष,  दर्द और उनकी खुशी को साझा किया है। दिल्ली से कवि राकेश रेणु के संपादन में निकलने वाली प्रकाशन विभाग की पत्रिका, आजकल का नवंबर अंक वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया पर विशेष रहा। जिसमें ममता जी पर रोहिणी अग्रवाल का लेख और मनोज मोहन का साक्षात्कार विशेष महत्व का है। बकौल रोहिणी अग्रवाल, अच्छा है कि ममता कालिया बड़ी रेंज के प्रलोभन में अपनी ज़मीन नहीं छोड़ती।' खैर, इसका दिसंबर अंक शताब्दी स्मरण: मदन वात्सायन पर विशेष रहा। इसी अंक में उर्दू कामायनी पर अब्दुल बिस्मिल्लाह का लेख विशेष पठनीय रहा,  हिंदी की कामायनी का टी. एन. श्रीवास्तव द्वारा उर्दू में अनुवाद हिन्दी पाठकों के लिए रोचक और बड़ी घटना रही, जिसमें कुछ पंक्तियों के अर्थ में आए नवता और प्राचीनता का उल्लेख किया गया है।



वरिष्ठ पत्रकार गोपाल रंजन के संपादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका सृजन सरोकार का इस वर्ष का अंक सामान्य रहा। इस अंक में वरिष्ठ कवि-आलोचक राजेंद्र कुमार और वरिष्ठ कवि- संपादक सुभाष राय जी से क्रमशः आशुतोष सिंह और नीरज कुमार मिश्र की गंभीर बातचीत शामिल रही। लोकधर्मी आलोचक चौथीराम यादव पर राम बचन का लेख पठनीय रहा। नोएडा से अपूर्व जोशी के संपादन निकलने वाली पत्रिका पाखी को उनकी नई संपादकीय टीम ने और गति दिया है। बनारस से कवि-आलोचक सदानंद साही  की पत्रिका साखी का रचनाकार अनामिका और कवि रहीम पर केंद्रित अंक चर्चित रहा। पत्रिका हंस का संजीव कुमार के अतिथि संपादन में आये आजादी के 75वर्ष पर केंद्रित अंक संजोने योग्य रहा, जिसमें रामचंद गुहा, वीरेंद्र यादव, गोपाल प्रधान आदि के लेख बेहद पठनीय रहे। आलोचक शंभुनाथ के संपादन में भाषा परिषद कोलकाता की पत्रिका वागर्थ के प्रत्येक अंक पूर्व की भांति ही परिचर्चा और संपादकीय के लिहाज़ संग्रहणीय रहें। सामग्री की गंभीरता के संबंध में यही बात कथाकार अखिलेश की पत्रिका तद्भव के संदर्भ में भी कही जा सकती है। बहरहाल, अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इलाहाबाद से रामजी राय की पत्रिका समकालीन जनमत और पलामू जैसी छोटी जगहों से बेहद कम संसाधनों के बूते शिवशंकर के संपादन में निकलने वाली मासिक पत्रिका सुबह की धूप के साहित्यिक और राजनीतिक त्वरा और तेवर को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। साहित्य की केंद्रीय धुरी से दूर औरंगाबाद, बिहार से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'समकालीन जवाबदेही' का हाल ही में आलोचक कुमार वीरेंद्र के अतिथि संपादन में आये लोक-संस्कृति अंक का स्वागत होना ही चाहिए।


                                 

                         

सम्प्रति -


शोधार्थी, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।


मोबाइल - 9598677625

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