यतीश कुमार का समीक्षात्मक आलेख 'पलायन की पीड़ा और पीड़ा की प्रेरणा'।

 


 

कोरोना महामारी ने लोगों को असीम पीड़ा दी। इस महामारी ने केवल जिंदगियों को निगला बल्कि सम्बन्धों और रिश्तों को भी तार तार किया। इस महामारी ने पलायन की गहन पीड़ा और वेदना का अहसास भी कराया। विभाजन के बाद आम लोगों (जिसमें मजदूर और कामगार वर्ग प्रमुख रूप से शामिल था) का इतना बड़ा पलायन पहले कभी नहीं देखा गया था। लेकिन मनुष्य इसीलिए मनुष्य है कि वह उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ता। साहित्य और संस्कृति की मनुष्य जीवन में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका है कि वह केवल सकारात्मकता का संचार करता है बल्कि आगे के जीवन के लिए प्रेरित भी करता है। मयंक पाण्डेय का कहानी संग्रह 'पलायन पीड़ा प्रेरणा' उस सच को बयां करता है जिसे हम सबने किसी किसी रूप में अभी हाल ही में देखा, जाना और भुगता है। यतीश कुमार अभी इस कथेत्तर पुस्तक से होकर गुजरे हैं। उन्होंने अपने अलग अंदाज में इस किताब की एक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं यतीश कुमार का समीक्षात्मक आलेख 'पलायन की पीड़ा और पीड़ा की प्रेरणा'

 

 

 

पलायन की पीड़ा और पीड़ा की प्रेरणा

 

 

यतीश कुमार

 

 

 

पीड़ा पलायन की है और मयंक उसमें प्रेरणा  ढूँढ़ रहे हैं, इसके लिए उन्होंने सच्ची, मार्मिक और प्रेरणादायक कहानियों को चुना है, इस किताब के माध्यम से साझा करने के लिए। 50 ऐसी कहानियाँ जो आपके दिल के कोने में घर कर जायेंगी। कोरोना काल की कविताओं से पूरा सोशल प्लेटफार्म पटा पड़ा है, पर कहानियाँ रुक-रुक कर आईं और चली गईं। इस किताब के माध्यम से आप एक साथ, दिल को छू जाने वाली बेहद शानदार कहानियों को पढ़ सकेंगे। मयंक की विशेषता यह भी है कि वे कहानियों को जीवंत कर देते हैं और साथ ही उन्हें इतिहास की घटनाओं से जोड़ते हुए चलते हैं। पिछले साल-दो सालों से जहाँ स्थिति ऐसी है कि पड़ोस वाले तो दूर, घर वाले भी मदद नहीं कर रहे, वहाँ अनजाने लोग देवदूत की तरह अवतरित हो रहे हैं और मानवता पर विश्वास का दायरा बढ़ता जा रहा है। यह किताब इस बात पर पूरी तरह से मुहर लगाती है।

 

 

 

पिता चुपके से अपने पुत्र की लाश या पुत्र अपने पिता या माता की लाश लिए मिलों अथक चला जा रहा है। कहीं माँ पुत्र को अनजान शहर में मुखाग्नि दे रही है तो कहीं पत्नी अपने पति को। ये अत्यंत विचलित कर देने वाली घटनाएँ हैं, पर मयंक ने हर कहानी का सकारात्मक पक्ष रखा है, जो अंत में सुकून दे जाता है और समाज का दूसरा पक्ष भी दर्शाता है।

 

 

एक पिता अपने विकलांग पुत्र को घर ले जाने के लिए चोरी करता है, अपने स्वाभिमान पर मोटी रस्सी बाँधते हुए एक चिट भी छोड़ जाता है कि उसे ऐसा क्यों और किन हालातों में करना पड़ रहा है।

 

 

जब रायपुर, इलाहाबाद, नोयडा, छतरपुर, चित्रकूट के किन्नर समुदाय की, इस विकट काल में जरूरतमंदों तक खाद्य पदार्थ पहुँचाने की पहल  के बारे में पढ़ा तो मुझे अनायास ही अपनी कविता 'किन्नर' की याद गयी इसे लिखने से पहले कितने किन्नरों से बातें हुईं, उनके दर्द को समझा और अब यहाँ उनके नेक काम को फिर से देख पढ़ रहा हूँ। आज यहाँ मयंक ने जिस सुंदर तरीक़े से उनके सुफल कार्य को समेटा है और शिव पुराण को जोड़ते हुए इनकी व्याख्या की है, वह प्रशंस्य है।

 

 

इस किताब की कहानियाँ रह-रह कर रुला देंगी, कभी मानवता के असाधारण कृत्य से तो कभी उसी को संगसार होते देखते हुए। लीलावती की कहानी पर मैं कुछ ऐसे रुका कि पाँच नालायक बच्चों के होते हुए किसी अनजान किरण वर्मा को उन्हें अपनाना पड़ा वो भी बांद्रा से बहुत दूर दिल्ली में। उन्होंने सिर्फ अपनाया ही नहीं 'सिम्पली ब्लड' नामक संस्था का गठन भी किया ताकि ऐसे लोगों की भविष्य में भी मदद की जा सके। सोशल मीडिया के इस पावर को सलाम।

 

 

एक ओर जहाँ अपने कहे जाने वाले पूतों को सुधि लेने की सुध नहीं वहाँ किसी अनजान का इस तरह हाथ बढ़ाना, समाज की नेकनीयती और आज भी पर्याप्त सकारात्मकता की उपस्थिति पर दो गाँठ विश्वास के लगाता है। प्रेरक प्रसंग हैं कि ख़त्म ही नहीं होते। धर्मेन्द्र और उसकी पत्नी और फिर एक सामूहिक निर्णय कि जेवर बेच कर मोटरसाइकिल ली जाए ताकि सभी एक साथ इस विकट काल में घर पहुँच सकें। 

 

 

मयंक की अच्छी बात यह है कि वे सिर्फ किस्से नहीं सुनाते उसे आज की सामाजिक अवस्था के साथ मिथक, इतिहास, कानूनी प्रक्रिया और  इस ओर सरकार द्वारा की गई पहलों से जोड़ते हैं, जो कि इस किताब को और भी खास  बनाती है। इस कोरोना काल में जो खिलाड़ी लाइम लाइट से दूर हैं उनकी परिस्थितियों का वर्णन करते हुए मयंक ने यहाँ लिखा है कि सात स्वर्ण पदक जीतने वाली झारखंड की गोल्डन गर्ल गीता कुमारी को आज सब्जी बेचनी पड़ रही है और यही हाल मुम्बई के फुटबॉल कोच, प्रसाद भोसले का भी है। अपने देश में खिलाडियों की ऐसी स्थिति, खेल के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाती है। खिलाड़ियों को विशेष सम्मान के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता की भी ज़रुरत है। 

 

 

अजीब दुनिया में अंधे भिखारी, जिन्हें भूख से बचने के लिए घर लौटना है मुम्बई से, अब वे क्या करेंगे? इस सवाल का जवाब ढूँढ़ने के लिए आपको यह किताब पढ़नी होगी।

 

 

अपनी ही कविता 'मैं सड़क हूँ' की पंक्तियाँ मेरे जेहन में उस वक़्त कौंध गयीं जब मैंने ये पढ़ा कि इसी भारत वर्ष की सड़क पर साड़ियों की शृंखला के बीच माँ शकुन्तला ने केवल शिशु भारत को जन्म दिया बल्कि जन्म देने के बाद सत्तर किलोमीटर की यात्रा, पैदल ही की। 

 

असंख्य पदचापों में 

कुछ ध्वनियाँ  तांडव-सी धमकती हैं  

पर यहीं जन्मते शिशुओं की चाप 

इन सबमें  भारी है 

 

उससे भी ज़्यादा भारी हैं  

उन माताओं की छातियाँ

जो दूध की नदियाँ लिए

दौड़ती भागती जा रही हैं 

 

 

निहारिका जैसे बच्चे इस समाज के मासूम पक्ष की असली पहचान हैं। वो अपना गुल्लक तोड़ती है ताकि जरूरतमंद लोग हवाई जहाज़ से, आराम से अपने घर जा पाएँ। हमारे लिए यह सोच ही असली ताक़त है, एक सुखद सांत्वना है कि हमारी नींव अब भी मज़बूत है। 

 

 

इस किताब की वजह से आप कई ऐसे चमत्कारों से रु--रु हो सकेंगे। रामू वैसे ही चमत्कार का एक हिस्सा है। उसकी गर्भवती पत्नी आराम से यात्रा कर सके इसके लिए वो कबाड़ से सब कुछ चुन कर बिना पैसे की हाथगाड़ी बनाता है और 17 दिन की यात्रा गाड़ी को हाथ से खींच कर पूरी करता है। निसंदेह यह इतना सरल भी नहीं होगा जितनी आसानी से हम लिख रहे हैं।

 


 

अब्दुल रहमान मालबारी जैसे देवता तुल्य मानव का ज़िक्र इस किताब की महत्ता को बढ़ाता है। जिस लाश को कोई नहीं ले जाता, अब्दुल भाई धर्मानुसार उसका अंतिम संस्कार करते हैं। वे यह महान कार्य विगत 33 वर्षों से करते रहे हैं। कुछ सुखद घटनाओं में एक मुझे बहुत अच्छी लगी कि लड़की बारात लेकर लड़के के घर आयी क्योंकि उसके शहर में आने का पास आराम से बन पा रहा था।

 

 

13 साल की ज्योति अगर अपने पिता को गुरुग्राम से दरभंगा 1200 किलोमीटर आठ दिनों में, औसत 150 किलोमीटर प्रतिदिन, ले जा सकती है तो असंभव शब्द को कहीं दुबकने की ज़रुरत है और हम जैसों को प्रेरणा लेने की आवश्यकता। 

 

 

मयंक पाण्डेय

 

इन कहानियों से एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि साझा सहयोग सबसे हितकर है। समाज जिस नींव पर खड़ा है उसे साझे धागे से बाँधे रखने की ज़रुरत है। तीन भाई रिक्शा चला कर 500 किलोमीटर घर वापसी करते हैं, तो वे संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी विशेषता - एकता की शक्ति की बात करते हैं। दो अंधों के साथ एक नयनसुख, पैदल इतनी लंबी यात्रा एक मानव श्रृंखला बना कर करता है। यहाँ साझा सहयोग अग्रणी है। भविष्य में मुझे अपने और आने वाली पीढ़ियों से कुछ ऐसे ही सहयोग की अपेक्षा है। इसी कड़ी में आज के श्रवण कुमार की तरह एक ग्यारह साल का बेटा तबारक मिलेगा, जो ठेले पर अपने माँ बाप को 900 किलोमीटर तक ले जाता है। मेरी नज़र में यह वैतरणी पार करवाने से कम नहीं।

 

 

यह महज संयोग ही कहा जाएगा कि इस किताब से गुजरते हुए मैं कई बार अपनी ही कविताओं से होकर गुजरा। इस किताब के एक अध्याय विश्व का पहला और आख़िरी व्यापार' को पढ़ते समय मेरी कविता श्रृंखला देह बाज़ार और रौशनी' मेरे जेहन में कौंध उठी। मयंक समस्याओं की तह में जा कर उसकी विवेचना करते दिखते हैं। मयंक ने रेड लाइट एरिया में जन्में बच्चों और उनकी समस्याओं का कोरोना काल में विकराल होने और फिर उनके द्वारा ही उन्हें कुछ हल्का करने की कथा लिखी है।

 

 

हिन्दू-मुस्लिम एकता का जो स्वर बिस्मिल्ला ख़ाँ की शहनाई से निकलता है, उसकी धुन यहाँ श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड, जम्मू और कश्मीर की कार्य प्रणाली में दिखी। कटरा में क्वारंटाइन की सुविधा हो या सेहरी और इफ्तार के समय भोजन का प्रबंध, सीईओ रमेश कुमार जी के नेतृत्व में श्राइन बोर्ड ने असाधारण सहयोग दिया

 

 

वहीं एकाएक नज़र पड़ती है लखनऊ की गलियों में कंधे पर 12 लीटर की टंकी टाँगे 'उज़्मा परवीन' पर, जो मंदिर-मस्जिद और गुरुद्वारे को सेनिटाइज कर रही थीं। वो मात्र एक शख़्सियत ही नहीं बल्कि बुर्के में लिपटी पूरी गंगा-जमुनी तहज़ीब हैं जो निश्वार्थ अपने पैसे से समाज को वायरस मुक्त करने की कोशिश कर रही थीं। इसी कड़ी में अमृत और कयूम की दोस्ती का ज़िक्र है। इसे पढ़ना बहुत मार्मिक था, जब एक मुस्लिम दोस्त हिन्दू मित्र के लिए अपनी जान की परवाह नहीं करता।

 

 

 

योगदान चाहे सोनू सूद का हो, बिकास खन्ना का हो या टाटा संस का, मयंक ने किसी खास के विशिष्ट योगदान के ज़िक्र के साथ-साथ समूह के योगदान का भी ज़िक्र उतनी ही संजीदगी से किया है। यहाँ ज़िक्र के साथ उनका संघर्ष इतिहास और हल्की सी जीवनी या अब तक कि यात्रा के बारे में भी लिखा गया है जो कि विविध जानकारियों से भरी पड़ी है। इन सभी के किये सराहनीय कार्यों को समेट कर यहाँ एक साथ पढ़ना सुखद और प्रेरक अनुभव है।

 

 

अमनप्रीत (IRS) की सेनेटरी पैड मुहैया करवाने की मुहिम हो या सूरत के  'छाया दो' के अध्यक्ष भरत शाह की अतिरिक्त रोटी बनाने की मुहिम या फिर मुम्बई रोटी बैंक की स्थापना करने वाले सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी डी. शिव नंदन, सरकारी अधिकारियों में जिनका योगदान अति विशेष रहा है उसे भी इंगित करने से मयंक चूके नहीं। यह किताब प्रेरक प्रसंगों से पटी पड़ी है और इस बुझे हुए समय में ऐसी सकारात्मक प्रेरक प्रसंगों की चर्चाएँ निंतान्त आवश्यक हैं। 

 

 

इस किताब में कई छोटे-छोटे बिल गेट्स, अजीम प्रेम जी जैसों की भरमार है। प्रेरणादायक संदेशों और सच्चे किस्सों की श्रृंखला ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती। पाशा बंधु भी उन्हीं में से एक मिसाल हैं जो खुद कभी अनाथ थे, पर कोरोना में कई भूखों के नाथ बने। उनके लिए ज़मीन बेच कर खाना जुटाया। अंततः मयंक का यह प्रयास सराहनीय है और इसे कई हज़ारों लोगों तक पहुँचने की जरूरत है।

 

इति शुभकामनाओं सहित

 

 

1.

 

सपनों से भरे 

गुल्लक टूट रहे हैं 

टूट रही हैं 

मन में तिड़कन के साथ चूड़ियाँ 

 

विस्थापन और विकास 

रेल की पटरियाँ हैं या क्रासिंग 

कहना अब  मुश्किल है

 

अपरिमेय हो चला है जुझन

माप नहीं पा रहे अंतस की विचलन 

 

अस्पताल के स्याह अंधेरे में 

जवान बेटा 

अपनी साँस भूल गया है 

और माँ बेटे को मुखाग्नि दे रही है

 

इन सभी दृश्यों के बीच 

पीड़ा की कटीली सलवटों से

झाँकता है उम्मीद का इंद्रधनुष 

 

समय के शतरंज की 

सबसे खराब चाल के विरुद्ध

साइकिल अपनी पहचान को बचाये है

 

और कहीं सुदूर

मिलों पैडल मारते हुए 

एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को 

कैरियर से उतरने नहीं दे रहा .......

 

2.

 

जिसे चढ़ना था कंधे पर फुदकते हुए 

वही उठा रहा है वही कंधा

 

जिसे सुलाना था अपनी गोद मे 

सुनाते हुए मीठी लोरी 

वही आज बेसाँस है

 

एक सफेद लिबास है 

जिसे कंधे से उतारा गया है

और ढाक के पत्ते और कुश की घास पर 

पहले सुलाया फिर जलाया गया है 

 

मन खट्टी निराशा लिए 

कन्धा बदलता जा रहा है 

पर दर्द से लिपटा मर्म 

रूह छोड़ने को तैयार नहीं 

 

कोई क्या लाश लिए 

मिलों भटक सकता है 

बिना लाश बने ?

 

समय से बड़ा हत्यारा 

अभी तक मुझे दिखा नहीं 

 

पर एक हौसला है 

जो समय पर चला रहा है 

अनवरत हथौड़ा

 

और अभी तक तो देखा नहीं

उसकी धम, धम को कम होते हुए 

 

 

3.

 

वह बेटी अपने पिता को 

1200 किलोमीटर साइकिल पर नहीं 

बल्कि साथ ले जा रही है 

सम्भवनाओं से भरा स्वर्ग

 

 

ले जा रही है 

हौसलों का महल 

और ले जा रही है 

स्वाभिमान और आत्मविश्वास का पहिया अपने संग

 

 

वो चल रही है तो धरती भी अपनी गति में मग्न है ...

 

 

 

पलायन पीड़ा प्रेरणा

मयंक पांडेय 

प्रलेक प्रकाशन मुम्बई 

295 पन्नों में सिमटा कथेत्तर साहित्य 


यतीश कुमार
 

 

सम्पर्क 

 

मोबाइल : 8420637209 

 


 

टिप्पणियाँ

  1. पलायन पीड़ा प्रेरणा जैसा की किताब के शीर्षक से ही जान पड़ता है पलायन और प्रेरणा ने थामे रखा है पीड़ा के दोनों सिरों को... अन्यथा रिसती-बहती पीड़ा चारों ओर... वैसे भी तो आपके समक्षात्मक टिप्पणी से आँखें नम हो गई है। किताब के बारे में अच्छी जानकारी मिली है। नंबर दो समीक्षात्मक कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है।

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  2. समीक्षा में आये कथा प्रसंग फिर से पीछे लौटा ले चले ।आपकी समीक्षा लेखक के साथ - साथ हमारे विश्वास को भी पुष्ट करती है कि दुनिया अभी भी जीने लायक है । बहुत सुंदर पंक्ति है -
    पीड़ा की कटीली सलवटों से
    झाँकता है उम्मीद का इंद्रधनुष 😊


    जवाब देंहटाएं
  3. ऐसे प्रेरक प्रसंग जो विपरीत स्थितियों में भी उम्मीद की लौ को जगाए रखती है जिसने समाज की सामूहिक गति सबसे महत्वपूर्ण है । मयंक जी और यतीश जी दोनो के प्रयास स्तुत्य हैं ।

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  4. यह पोस्ट दो दिन पहले ही देख ली थी लेकिन यात्रा की आपाधापी के कारण इसे पढ़ना मुल्तबी कर रखा था। मैं इस पुस्तक के आरंभिक पाठकों में रहा हूँ, और इस वर्ष मैंने हिंदी में जो दो कथेतर पुस्तकें पढ़ी, यह उनमें से एक है। मानव इतिहास की आधुनिक त्रासदियों में कोरोना को शायद सबसे भयावह माना जा सकता है। लाखों जानें इसने लीं और करोड़ों ज़िन्दगियों को हमेशा के किए बदल दिया। भारत जैसे श्रम प्रधान और असंगठित कामगारों वाले देश का जनजीवन इसके कारण संभवतः सबसे अधिक प्रभावित हुआ। जानमाल, रोज़गार और सामाजिक दृष्टिकोणों पर इसके दूरगामी और नकारात्मक प्रभाव पड़े। Mayank जी ने पूरी संवेदना के साथ इतिहास के इस काले अध्याय को न केवल दर्ज किया, बल्कि इसमें रोचक कथातत्व का समावेश कर इसे अविश्वसनीय और अविस्मरणीय ढंग से पठनीय भी बना डाला। मिथकों और सन्दर्भों के असाधारण प्रयोग से उन्होंने यह स्थापित करने का सफल प्रयास किया है कि इतिहास की भीषणतम और क्रूरतम त्रासदियों पर मनुष्य की जिजीविषा और ज़िद भारी पड़ती है।

    Yatish जी पढ़ने और उनपर लिखने के लिए हमेशा दुश्वार विषयों के अपने चयन के कारण जाने जाते हैं। इस बार भी उनकी समर्थ लेखनी ने उनकी लेखकीय जीवटता को पुनः सिद्ध किया है। उन्होंने बहुत सारगर्भित तरीके से पुस्तक की रचनात्मकता के पीछे के उद्देश्य और रहस्य को अनावृत किया है। तथ्यपरक और विषय सापेक्ष समीक्षा करने में वे दिन-बदिन महारत हासिल कर रहे हैं। यह समीक्षा एक अवश्यक रूप से पठनीय पुस्तक का तस्दीक करता मूल्यांकन है। इसके लिए लेखक-समीक्षक द्वय दोनों ही बधाई के पात्र हैं।

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  5. भाई मयंक और यतीश, आप दोनों को बधाई!

    ऐसे विषय पर लिखना बहुत कष्टकारी रहा होगा और उस रास्ते से गुजरना जिसकी इबारतें आँसुओं से लिखी गयीं हों और भी दुःखद रहा होगा इसलिए आप दोनों को धन्यवाद! मैं जब भी मौका मिलेगा तो किताब अवश्य पढ़ूँगा पर अभी ही समीक्षा पढ़ते हुए मेरी आँखें भीगी हुई हैं और इस जीवन के प्रति, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता से नतमस्तक हूँ की हम सब साँस ले रहे हैं। सचमुच ये पीड़ा उनकी थी जो इस सब से गुज़र रहे थे पर हम सबके लिए प्रेरणा है की हम बेहतर इन्सान बन सकें।

    यतीश, हमेशा की तरह एक सुन्दर समीक्षा लिखी है तुमने और इन मार्मिक दास्तानों को लिखते हुए तुम्हारे शब्दों से जो आँसू रिस रहे थे उन्हें महसूस किया मैंने-

    कोई क्या लाश लिए
    मीलों भटक सकता है
    बिना लाश बने ?

    इन पंक्तियों ने भीतर तक हिला दिया!

    स्नेह और आदर सहित- अविनाश

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  6. कमाल है,, लेखन भी,समीक्षा भी और समीक्षा की शैली भी.

    जवाब देंहटाएं

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