हितेन्द्र पटेल का आलेख 'भारतीय वैचारिकता, भाषा, राष्ट्रीयता और इतिहास दृष्टि : राहुल सांकृत्यायन का संघर्ष'।
राहुल सांकृत्यायन |
राहुल सांकृत्यायन का नाम लेते ही हमारे जेहन में उस प्रगतिशील शख्स का अक्स उभर कर सामने आता है जिसने बने बनाए खांचों को न केवल तोड़ा बल्कि नई अवधारणाएँ भी स्थापित की। राहुल जी ने साहित्य, दर्शन और इतिहास की त्रिवेणी रच कर सामन्ती-पूंजीवादी जड़ता पर करारा प्रहार किया। राहुल जी ने विपुल लेखन किया है। उनके लेखन में एक युग ही नहीं, बल्कि पीढ़ियों के अनुभव समाहित हैं। तिब्बत जैसे दुर्गम क्षेत्र से पांडुलिपियाँ ला कर उस साहित्य को पुनर्जीवित किया जिससे इतिहास के अनेक नए अध्यायों की पुनर्रचना हुई। हितेन्द्र पटेल ने धर्म, भाषा और राष्टीयता के कुछ प्रसंगों को ऐतिहासिक सन्दर्भों में रख कर राहुल सांकृत्यायन के अवदानों को समझने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। हितेन्द्र पटेल का यह आलेख राजकमल से प्रकाशित पत्रिका 'सामाजिकी' के पहले अंक में प्रकाशित आलेख का विस्तृत रूप है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हितेन्द्र पटेल का आलेख 'भारतीय वैचारिकता, भाषा, राष्ट्रीयता और इतिहास दृष्टि : राहुल सांकृत्यायन का संघर्ष'।
भारतीय वैचारिकता, भाषा, राष्ट्रीयता और ‘इतिहास’ दृष्टि : राहुल सांकृत्यायन का संघर्ष[1]
हितेन्द्र पटेल
अध्येता , भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला
राहुल सांकृत्यायन (1893-1962) की ख्याति इस रूप में सबसे अधिक है कि उन्होंने हिन्दी प्रदेश में मार्क्सवाद को अपने साहित्य लेखन से लोकप्रिय बनाया और पाठकों को अपने अतीत से, उसकी बौद्धिक संपदा से और अपने इर्द-गिर्द सामंती-पूंजीवाद की जड़ता से परिचित करवाने में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह काम उन्होंने दर्शन, साहित्य और इतिहास तीनों क्षेत्रों में किया। कहते हैं कि जगत को समझने का प्रयत्न दर्शन बुद्धि द्वारा, साहित्य भावना द्वारा और इतिहास अनुभव के उपलब्ध विवरण के आधार पर करता है । राहुल ने बुद्धि, भावना और अनुभव तीनों के क्षेत्र में काम करके ही संतोष नहीं किया। उनके जीवन का बड़ा उद्देश्य था इस ज्ञान को समाज को बेहतर बनाने के स्वप्न के साथ इसे जोड़ कर देखना। राहुल सांकृत्यायन ने एक ही जीवन में सनातनी, आर्य (जिस दौर में वे बड़े हो रहे थे सनातनी और आर्य आपस में बुरी तरह से लड़ रहे थे), फिर बौद्ध, फिर मार्क्सवादी और अन्त में स्वाधीन चेता भारतीय प्रगतिशील चेतना स्तर से विपुल लेखन इसी उद्देश्य से किया। इस क्रम में वे सिर्फ लेखक के रूप में नहीं एक चिंतक के रूप में भी उभरते हैं । हिन्दी के प्रति स्वाभिमान रखते हुए और अपनी वैचारिकता के प्रति विश्वास से भरे इस महान पंडित को पाठकों का पंडित के रूप में बहुत सम्मान मिला, और यह सम्मान कम नहीं हुआ है। आज़ाद भारत के चौदह वर्षों में राहुल सांकृत्यायन ने अपने विचारों का जो निचोड़ अपने जीवन के अंतिम दौर में प्रस्तुत किया। इस कार्य में उन्हें सांस्थानिक सहयोग नहीं मिल सका। भिन्न भिन्न प्रकार की बौद्धिक प्रवृत्तियों का रचनात्मक संवाद राहुल के शेष दो दशकों के लेखन में इतने जटिल रूप में है कि उनकी बौद्धिक विरासत को समझने वालों के लिए एक चुनौती खड़ी हो जाती है। जिन तीन चिंतन दिशाओं में वे गए (जब जब जिस ओर गए पूरे विश्वास के साथ गए) वहाँ से संचित ज्ञान में से जो कुछ उन्हें उपयोगी लगा उसे उन्होंने छोड़ा नहीं। इस कथन से कई लोग असहमत हो सकते हैं कि “अपने जीवन में उन्होंने अनेक राहें बदलीं, पर उनकी मंजिल हमेशा या तो हिन्दी रही या हिंदुस्तान की गरिमा”, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि वे हिन्दी को और भारतीय बौद्धिक परंपरा के प्रति बहुत सजग रहे।
राहुल की वैचारिक यात्रा चकित कर देने वाली है। पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने सनातनी, आर्यसमाजी, बौद्ध, मार्क्सवादी सबको मिला कर एक प्रगतिशील भारतीय दृष्टि पैदा करने की कोशिश की है। इनमें से किसी धारा के लोगों में से एक का चुनाव करते तो वे उनके द्वारा आदर पाते लेकिन जोखिम लेते हुए वे अपनी राह पर ही चले। इस क्रम में वे इनमें से किसी के भी नहीं हैं और कोई भी उनको पूरा स्वीकार नहीं कर पाता। उनके विराट रचनात्मक व्यक्तित्व के सम्यक विश्लेषण के लिए उसी तरह की चेष्टाओं की जरूरत है जैसी कि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के लिए की जाती रही है। अधिकतर लोग उनके बारे में उनकी महान पांडित्य की, तिब्बत से ला कर प्राचीन सामग्री ला कर भारत चर्चा के क्षेत्र में योगदान की और उनके ‘वोल्गा से गंगा’ की चर्चा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जरूरत है कि उनके वैचारिक अवदान का विश्लेषण करें, उसकी आलोचना करें और उनकी पीड़ा के बहाने हिन्दी के बौद्धिक की त्रासदी को भी समझें।
ऐसा क्यों है कि वे एक ही जीवन में इतनी दिशाओं की ओर गए? प्रारम्भिक जीवन के उनके संघर्षों की कथा के बारे में सब जानते हैं। इसलिए इस आलेख में बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख होने से ही बात शुरू करना उचित होगा। 1916 में बौद्ध धर्म की पुस्तकों के महत्त्व के प्रति एक बौद्ध विद्वान के सुझाव के कारण उन्मुख हुए । वे उस समय सनातन धर्म से आर्य धर्म की ओर बढ़ चले थे। पर उसी समय वे 1917 के रूसी क्रांति के बारे में भी वे उत्साह के साथ सोचने लगे थे! राहुल 1926 के बाद भद्नत आनंद कौशल्यायन की प्रेरणा से बौद्ध धर्म के प्रति प्रवृत्त हुए । 16 मई 1927 से 1 दिसंबर 1928 तक वे श्री लंका में रहे। इस दौरान वे एक समर्पित बौद्ध अध्येता थे और उन्होंने बौद्ध धर्म की बौद्धिक विरासत के लिए महान कार्य किए। जब उन्होंने अपने बौद्ध होने की घोषणा की उस समय भी उनको लगता था कि वे साम्यवाद के प्रति भी झुके हुए हैं ! 1928 के दिसंबर में लौटने के बाद एक जगह उन्होंने लिखा है कि वे अब आर्य समाजी नहीं थे। उनके ही शब्दों में “उनका एक पाँव बौद्ध धर्म में था और दूसरा साम्यवाद में।”[2] अगले दस बारह वर्षों तक बौद्ध राहुल सांकृत्यायन (यह नाम उन्हें 1930 में मिला जब वे बौद्ध हुए ) खूब घूमे, प्राचीन दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थों का संग्रह किया और प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा का गंभीर परिचय प्राप्त किया। अगले चरण में वे मार्क्सवादी विचारों के प्रभाव में ज़्यादा रहे और यह प्रभाव उन पर अन्त तक बना रहा। हालांकि सांगठनिक रूप से साम्यवादी दलों से उनका जुड़ाव 1942 के बाद थोड़ा कम हुआ। उसके बाद वे रूस में अध्यापन हेतु गये और वहाँ से लौटने के बाद उनके विचारों और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच एक अन्तर था जिसके कारण उनका पार्टी से अलगाव हुआ। उनके जीवन के एक गंभीर अध्येता विष्णु चंद्र शर्मा ने लक्षित किया है कि 1939 तक राहुल जी की मानसिक प्रवृत्ति बुद्धि प्रधान थी। इसके बाद वे साधारण लोगों के बीच श्रद्धा-प्रधानता के तत्त्व पर ध्यान दे रहे थे।[3] पार्टी से अलग रह कर भी वे पार्टी के हित में ही सोचते रहे और साम्यवादी पार्टियों के आपसी मतभेदों से दुखी भी होते थे पर यह स्पष्ट है कि 1947 से 1956 के महत्त्वपूर्ण वर्षों में उनके चिंतन की भाव भूमि और पार्टी की नीतियों के बीच एक अन्तर है। बाद में जब वे तकनीकी रूप से पार्टी से फिर से जुड़ गए थे भी वे अपने चिंतन को पार्टी से नियंत्रित समझते हों ऐसा मानना कठिन है।[4]
राहुल बड़ी उम्मीदें और योजनाएँ ले कर अगस्त 1947 में भारत लौटे थे। इसके बाद से 1961 में कोलकाता में उनके स्मृति विलोप के बीच के चौदह पंद्रह सालों के उनके जीवन के बारे में अब तक चर्चा कम हुई है। इस दौर में ही राहुल ने सबसे अधिक लिखा है। इस दौर में ‘परिपक्व राहुल सांकृत्यायन’[5] एक तरह से अपनी वैचारिक यात्रा का निचोड़ पेश करते हैं। संभवत: इस दौर के लेखन में वे किसी संगठन या विचारधारा के बारे में कम और अपनी वैचारिक दृष्टि के अनुसार अधिक लिखते हैं। स्वाधीन भारत में राहुल ने जो कुछ सोचा, लिखा और जीवन के जैसे उनके अनुभव हुए उसके बारे में चर्चा करने से वे भी कतराते हैं जो उनके पहले के कार्यों के लिए उनकी सराहना करते नहीं थकते। भाषा, राष्ट्रीयता, धर्म आदि विषयों पर वे अलग तरीके से सोचते हैं। जो उन्हें ठीक लगता है उसको वे कहते हैं और इसकी परवाह नहीं करते कि साम्यवादी दल, उस समय की सरकार और साहित्यिक संगठन से जुड़े प्रभावशाली लोग उनकी बातों को किस प्रकार लेंगे। राहुल सांकृत्यायन के बारे में, उनके बौद्धिक संघर्ष में हिन्दी जगत के बौद्धिक इतिहास की बहुत सारी समस्याओं के बारे में विचार करने की गुंजाइश पैदा हो सकती है। अभी भी इतिहासकारों ने उनके जीवन में दर्शन, इतिहास और साहित्य की त्रिधारा में एक नये भारत के बनने के स्वप्न को समझने की ठीक से कोशिश नहीं की है। इस आलेख की परिधि में इस ओर जाना संभव नहीं है कि पर यह कहा जा सकता है कि आधुनिक भारत के निर्माता कहे जाने वाले जवाहर लाल नेहरू के जन्म के चार साल बाद पैदा और दो साल पहले इस पृथ्वी से जाने वाले इस महापंडित के जीवन और इतिहास दृष्टि, उनके बौद्धिक विकास का नेहरू के साथ तुलनात्मक अध्ययन करें तो हो सकता है कि एक दूसरे प्रकार के वैकल्पिक भारत निर्माण का मानचित्र उभरे। इन दोनों के बीच भारत के अतीत, औपनिवेशिक युगीन साम्राज्यवाद विरोध और नये भारत के उनके स्वप्न के बीच की समानता और अन्तर को देखना बहुत उपयोगी हो सकता है। इस आलेख में तीन विषयों – धर्म, भाषा, राष्ट्रीयता के कुछ प्रसंगों को उसके इतिहास के संदर्भ में रख कर राहुल सांकृत्यायन के बारे में टिप्पणी की गई है। साथ ही उनके लिए इतिहास की जरूरत और उसके बारे में सोचते हुए किस तरह एक बेहतर मानव भविष्य के स्वप्न को जोड़ा गया है उसके बारे में भी कुछ प्रसंगों की चर्चा की गई है।
राहुल के लिए इतिहास एक जरूरत को पूरा करने के लिए है। उन्होंने कई बार यह कहा है कि उन्होंने जीने के लिए उपन्यास 1938 में लिखने के बाद महसूस किया कि उन्हें ऐतिहासिक उपन्यास लिखना चाहिए क्योंकि हिन्दी में ऐसे लेखकों का अभाव है जो इस काम को ठीक से कर सकें। भगवत शरण उपाध्याय की लिखी 1941-42 की कहानियों को पढ़ने के बाद उन्होंने इसे देखा और अगर उपाध्याय इस तरह की पर्याप्त कहानियाँ लिखते तो राहुल इस ओर न जाते ऐसा खुद राहुल ने कहा है।[6] उनका उद्देश्य था –“अतीत के प्रगतिशील प्रयत्नों को सामने ला कर पाठकों के हृदय में आदर्शों के प्रति प्रेरणा पैदा करना।”[7] वे कहते हैं कि अगर यह उद्देश्य उनके सामने न रहता तो वे कहानी या उपन्यास नहीं लिखते। भगवत शरण उपाध्याय ने राहुल के इतिहास लेख्नन के बारी में बहुत सकारात्मक टिप्पणी की है । उन्हें लगता है कि “महापंडित राहुल सांकृत्यायन की बहुमुखी प्रतिभा ने विविध दिशाओं में जो जो स्थायी उपलब्धियां की थीं, उन सबके मूल में संभवत: इतिहास ही था। साहित्य के क्षेत्र में उनके जो भी प्रयत्न हुए, उनका अधिकांश इतिहास के आधार पर उठा। ... (राहुल की) प्राचीन की पकड़ इतनी सही, इतनी अनुसंधानशील और इतनी मौलिक थी कि जहां वह बीते संसार की काया सहज ही अंगांगों सहित सिरज देती थी, वहीं वह एक ऐसी दिशा की ओर भी संकेत कर देती थी, जिधर का मार्ग लोगों को जाना न था।... इस दिशा में अपने प्रयत्नों में वे प्राय: निर्मम हो उठे, क्योंकि असत्य के वह शत्रु थे... पिछले युगों के भारतीय बौद्धिक नेताओं में एक प्रकार के असत्य का भी पोषण हुआ है, जिसके प्रभाव में वे ... अंधविश्वासों, प्रथाओं, असामाजिक संस्थाओं का समर्थन करते रहे हैं ... राहुल जी ने मूल पर ही प्रहार किया है।”[8]
यह एक दिलचस्प शोध का विषय हो सकता है कि राहुल सांकृत्यायन ने अतीत को समझने के लिए किस किस तरह से कोशिशें की। उनके लिए ऐतिहासिक स्रोतों की समझ इतिहासकारों की तरह संकीर्ण नहीं है और वे आम लोगों के प्रति विश्वास से भर कर अतीत चिंतन करते रहे और उन्हें कभी भी यह नहीं लगा कि मध्य वर्ग आम भारतीय लोगों से तत्वत: अधिक प्रगतिशील हैं। उनके पूरे साहित्य में और विशेषकर उनकी आत्मकथा और यात्रा-वृत्तान्तों में ऐसे अनेक सूत्र बिखरे पड़े हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर कोई ध्यान से उनको पढे तो ऐसी बहुत सारी बातें कोई जान सकता है जिसे उस समय और बाद में समाजविज्ञानियों ने महत्त्वपूर्ण पाया।[9] पहले सनातनी, फिर आर्यसमाजी और फिर बौद्ध के रूप में जो कुछ उन्होंने अतीत में पाया उसे सुव्यवस्थित रूप में वे लिख नहीं पाए। जब वे इतिहास लिखने लगे तब तक उनके ऊपर साम्यवादी प्रभाव बढने लगा था।[10] कुछ समय तक यह मार्क्सवादी दबाव ज्यादा रहा। लेकिन इस आलेख के लेखक के अनुसार आगे के दौर के हिन्दू , आर्यसमाजी प्रभावों को राहुल ने पूरी तरह नहीं छोड़ा। इस न छोडने को कुछ लोग गलत तरीके से भी व्याख्यायित कर लेते हैं। हाल ही में राहुल पर अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित पुस्तक में उन्हें ‘हिन्दी राष्ट्रवाद’ के समर्थक के रूप में देखा गया है ! कई विद्वानों ने उनके मध्य एशिया का इतिहास (तीन खंडों में) को दूसरे उपलब्ध स्रोतों पर अत्यधिक निर्भर बताया है लेकिन उस पुस्तक को लिखने की प्रक्रिया पर कमला सांकृत्यायन के विवरण पर अगर ध्यान दिया जाए तो लगता है कि इसके लिए भी राहुल जी ने बड़ी मेहनत की थी। अगर उन्हें समुचित सहयोग रूस में मिला होता तो वे और अधिक बेहतर प्रयास कर पाते।[11]
ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ चीजें उनके अतीत-चिंतन में बनी रहीं जिसको उसी रूप में लिख देने के कारण राहुल से उनके साम्यवादी मित्रों को भी दिक्कत हुई थी । कम से कम दो मुद्दे ऐसे हैं जिन पर वे अपने तरीके से सोचते रहे और तमाम दबावों के बावजूद उन्होंने अपने मत को नहीं बदला। वे दो हैं – भारतीय मुसलमान के भारतीयकरण और हिन्दी के मुद्दे। निश्चित रूप से राहुल सांप्रदायिक दृष्टि से बहुत ऊपर थे और इस्लाम और भारतीय मुसलमानों के भारतीयकरण के सवाल पर बेबाकी से व्यक्त उनके विचारों को ध्यान से पढ़ने के बाद यह कहना गलत ही होगा कि वे सांप्रदायिक सोच के व्यक्ति थे। वे उस समय के कई वामपंथी विचारों के लोगों की इस बात को नहीं मानते थे कि मुसलमानों की आलोचना न की जाए या इस्लाम के बारे में कुछ न कहा जाए क्योंकि इससे सांप्रदायिक सौहार्द पर खतरा पैदा होता है। लेकिन राहुल इसे नहीं मानते। जब वे रूस से भारत लौट रहे थे उस समय के बारे में उन्होंने जो लिखा है उसको पढ़ने से उनके विचारों का पता चलता है।
हिन्दी के बारे में भी उनकी राय उस समय के साम्यवादियों से अलग थी। राहुल हिन्दी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं के अधिकार के प्रति सचेत थे और कहीं से भी हिन्दी के अंध समर्थक या उर्दू या अङ्ग्रेज़ी विरोधी नहीं थे। वे अतीत चिंतन करते हुए उन दिशाओं में गए हैं जहां से हम अपने अतीत की इतिहासकारों से बेहतर व्याख्या कर सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में जाति (नेशन) और धर्म की जैसी व्याख्या राहुल के पास है उससे हम लाभान्वित हो सकते हैं। हिन्दी प्रदेश के बौद्धिक इतिहास के आधुनिक पर्व के इतिहास लेखन में भी उनकी दृष्टि से हमें मदद मिल सकती है।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि राहुल सांकृत्यायन के बारे में बहुत कम अध्ययन के बावजूद उनके बारे में बड़े विद्वान भी कभी कभी बहुत चलताऊ किस्म की टिप्पणी करने में संकोच नहीं करते। एक ही उदाहरण देना यहाँ पर्याप्त होगा। समाज विज्ञान से जुड़े अंतराष्ट्रीय ख्याति के कई विद्वानों के सहयोग से एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ है जिसे द आक्सफोर्ड इंडिया कंपेनियन के रूप में दो वॉल्यूम में छापा गया है। इसका सम्पादन वीणा दास ने किया है। इस बहुपठित पुस्तक की भूमिका में प्रो दास ने लिखा है –“… the engagement of sociology and social anthropology in the questioning of colonial representations of Indian polity and society was evident: moreover, social anthropologists such as N. K. Bose, and historians like Kosambi and Rahul Sankrityayan had worked in close collaboration with Gandhi and the national movement.”[12] यह एक वक्तव्य है जिसमें एक तरह से राहुल को उस धारा के लिए कम करने वाला सिद्ध किया जा रहा है जिसके साथ राहुल के मतभेद थे। दिलचस्प है कि दो खंडों में इसके अलावा कहीं फिर राहुल के बारे में एक भी शब्द नहीं है। वीणा दास ने तो कम से कम उनका उल्लेख किया है, अधिकतर इतिहास और समाज विज्ञान के लोग तो उनकी चर्चा भी नहीं करते।
राहुल जी के विचार, इतिहास के बाते में उनकी समझ और उनका संघर्ष
राहुल की अतीत के बारे में दृष्टि बहुत साफ थे। वे अतीत के ज्ञान का सम्मान करते थे और उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते थे। लेकिन वे अतीत से चिपके रहने के सख्त खिलाफ थे। जब वे कम्युनिस्ट नहीं हुए थे उस समय भी इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में 1937 में उन्होंने कहा – “ज़्यादातर पुरानी पोथियों में 75 प्रतिशत तो बेवकूफियां ही बेवकूफियां भरी पड़ी हैं। हाँ, कहीं कहीं अकल की बातें भी हैं।” पंडितों की नगरी काशी के बारे में उनका मत कठोर है। वे लिखते हैं- “इसमें संदेह है, कि ऐतिहासिक काल अथवा पिछली सात शताब्दियों में काशी ने कभी देश और राष्ट्र की तत्कालीन या भावी महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर माथापच्ची की हो। काशी ने देश को हमेशा पीछे की तरफ खींचने की कोशिश की। एक से एक प्रतिगामी पंडित और परिब्राजकों को उसने प्रदान किया।”[13]
अगर हम राहुल के बारे में लिखे संस्मरणों को ध्यान से पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि 1947 के बाद जब पार्टी से उनकी दूरी बढ़ गई थी और उन्होंने अपने लेखन पर अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया था उनके विचारों को ले कर विद्वानों की असुविधा बढ़ गई थी। संकेत तो स्पष्ट रूप से उनके चालीस के दशक के लेखन में भी हैं लेकिन यह पूरी तरह से स्पष्ट तब हुआ जब वे हिन्दी, इस्लाम, भारतीय इतिहास में लोक और बौद्धिक परम्पराओं, भारत के नवनिर्माण को ले कर बगैर शक्तिशाली राजनैतिक और अकादमिक संस्थानों की परवाह किए लिखने-बोलने लगे। दाम्पत्य जीवन में आने के बाद एक स्थायी पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियों को झेलते हुए राहुल के लिए परिस्थितियाँ कितनी दुरूह हो गई थीं और उनका मुक़ाबला करते हुए उन्हें कितनी तकलीफें उठानी पड़ीं इसके बारे में अलग से बातचीत हुई है। दुर्भाग्य से इस ओर सभी तरह की जानकारी होते हुए भी राहुल साहित्य से जुड़े लोगों ने और खुद उनके परिवार के लोगों ने चर्चा करना जरूरी नहीं समझा।[14]
राहुल जी के विचार धीरे धीरे इस प्रकार के हो गए थे कि तत्कालीन अकादमिक समूहों को उनकी बातों से बहुत असुविधा होने लगी थी। जब राहुल जी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में डा. नगेन्द्र के विशेष आग्रह पर व्याख्यान के लिए जाना पड़ा। अध्यापक विजयेन्द्र स्नातक ने उनसे सिद्ध साहित्य पर बोलने का अनुरोध किया। उन्होंने अपने भाषण में यह सिद्ध किया कि कण्णपा अपने युग के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे। और भी इसी तरह की बातें बोले। स्नातक ने विनम्रता पूर्वक प्रतिवाद किया और उनसे कहा कि वे प्रमाण दें। इस पर राहुल जी ने यह कहा- “ मैं नहीं चाहता कि आप मेरी मान्यता को ग्रहण करें, किन्तु मैं इतना अवश्य चाहता हूँ कि आप इतिहास के पृष्ठ पलटें। अंग्रेजों द्वारा लिखा गया इतिहास हमारे देश का दूषित, त्रुटित और पक्षपात रंजित इतिहास है। मैं इस इतिहास पर सिद्ध साहित्य को नहीं परखता। क्या आप बता सकते हैं कि सिद्धों की विशाल परंपरा से कौन सा अंग्रेज़ इतिहासकार परिचित है? किसने पूर्व–मध्य युग पर प्रामाणिक दृष्टि से लिखा है। आप इन इतिहास ग्रन्थों को पढ़ कर कण्णपा या किसी सिद्ध या नाथपंथी योगी का परिचय नहीं पा सकते क्योंकि इनकी दृष्टि सन-सम्वतों में सिमटी रह जाती है। मैं देखता हूँ कि गौतम बुद्ध के बाद देश में तीन-चार बार क्रांतियाँ हुई हैं। किन्तु किसी क्रांति को जनमानस की व्यापक क्रांति के रूप में हमारे इतिहास लेखकों ने अंकित नहीं किया। महेशों और नरेशों का इतिहास लिखने वाले क्या जानें कि जनमानस को जागृत करने वाले विलासी नरेश नहीं होते, साधु, महात्मा और सिद्ध होते हैं। जो राज्य सत्ता से कहीं अधिक प्रभाव जनता पर डालते हैं। आप लोग पहले इतिहास की दृष्टि को स्वच्छ करें, इतिहास के पृष्ठों पर पड़ी धूल को साफ करें और तब इतिहास पढ़ने का उपक्रम करें। मैं सिद्धों और नाथों का समर्थक नहीं हूँ किन्तु इतिहास में उनके महत्त्व की कथाओं को पा कर यह कहने को बाध्य हुआ हूँ।”[15]
राहुल के साथ आज़ाद भारत में बौद्धिक परिवेश के साथ तादात्म्य बिठाना बहुत मुश्किल हुआ और उन्हें बहुत कठिनाई हुई इसकी चर्चा आगे भी हुई है, पर जो सबसे उद्वेलित करने वाली बात है कि अन्त में वे बाध्य हुए श्रीलंका जा कर नौकरी करने को ताकि उन्हें 1500 रुपए माहवार मिल सके ताकि उनके बच्चों की शिक्षा दीक्षा ठीक से हो सके। श्री लंका में रहते हुए उनके बारे में लिखते हुए भदंत आनंद कौशल्यायन ने लिखा है –“राहुल जी के हस्ताक्षर सुपाठ्य नहीं रहे थे। उनके दिनो दिन बिगड़ने वाली स्वाक्षरी उनके बढ़ते हुए स्नायु दौर्बल्य की सूचना दे रही थी। बहु-मूत्र का रोग। असन्तोषजनक भोजन। बच्चों और परिवार से दूर। किसी प्रकार का खास मनोविनोद नहीं। रात दिन लिखना पढ़ना। वही काम और वही आराम ! ...बाद में देखा कि कभी कभी किसी भी समय राहुल जी सोने लग गये थे। दिन में आठ और नौ बजे सोते पाये जाने लगे। ...राहुल जी का ‘क्लास’ में पढ़ाने जाना बंद कर दिया गया। ...उचित समझा गया कि राहुल जी जया-जेता के पास जा कर रहें क्योंकि उन दोनों बच्चों को बिना एक चिट्ठी लिखे हुए, रात को राहुल जी कभी सोते ही नहीं थे।...थोड़ी से चंगे हो कर राहुलजी एक बार फिर सिंहल आए। न वे पढ़ा सकते थे औ न उन्हें किसी ने पढ़ाने के लिए कहा। उन्हें खाने –पीने की सुविधा-असुविधा का ख्याल करके उन्हें उनके एक परम मित्र श्री एम के कापड़िया के यहाँ ही रखा गया।”[16]
उनकी पत्नी का यह कथन बहुत कष्टदायी है –“औघरदानी तो वे थे ही, इसलिए भी धन के प्रति उनकी आसक्ति नहीं थी। मनुष्य को अपने जीवन निर्वाह के लिए धन की भी आवश्यकता पड़ती है, इस सत्यता का बोध महापंडित को अपने जीवन के अंतिम वर्षों में ही हुआ।”[17] राहुल ने एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने जलवायु प्रतिकूल होने के बावजूद वे सिंहल में ही रहना चाहते हैं क्योंकि भारत में रहने से उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। “मैं अपने बच्चों के भविष्य को अंधकार में कैसे छोड़ दूँ ! मैंने ज़िंदगी-भर कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। अब भी ऐसा करना मुझे पसंद नहीं।”[18] पत्नी ने लिखा है –“जो जीव जीवन भर नहीं रोया, अनेक विपत्तियों का भी जिसने हँसते हँसते सामना किया, वही महापंडित अपने शेष जीवन के डेढ़ वर्ष प्रतिदिन रोते रहे, आँसू बहाते रहे।”
एक प्रश्न उठाया जाता है कि राहुल की इतिहास दृष्टि में एक समस्या है कि वे शोध नहीं करते थे और उनकी अधिकांश बातें वे अपने हिसाब से इस्तेमाल करते थे।[19] वे आधुनिक शोधार्थी की तरह हर तथ्य की वैसी जांच न कर पाते होंगे, पर उनको बहुत कुछ कह सकने की हड़बड़ी थी और वे जिस चीज़ से निर्देशित थे वह इतिहास के ‘स्वीप ऑफ इमेजिनेशन’ थी।[20] यह उनकी सीमा भी है और शक्ति भी। वे ‘शुद्ध इतिहासकार’ नहीं थे । राहुल अकादमिक विद्वानों की तरह अकादमिक जगत की पद्धतियों में ज़्यादा उलझे रहने के बजाए काम की बातें निकलते हुए सहज तरीके से निष्कर्ष निकाल लेते थे। वे सहज भाषा में लिखते थे। सबको उनकी बातें समझ में आती थीं।
पूंजीवाद के आगमन की बड़ी रोचक व्याख्या राहुल ने की है। वे मानते थे कि यूरोपीय समाज में राजा और पुरोहित ही सब कुछ थे। सारी शक्ति उन्हीं के हाथों में होती थी। बनिए बेचारे शक्ति से वंचित थे। अपने समाज में वे भले ही शक्ति पाने में असफल थे लेकिन सात समुंदर पार उनके शक्तिशाली होने को यूरोपीय समाज के शक्तिशाली वर्ग नहीं रोक सके। इसी क्रम में बनिया क्लर्क ने शौर्य दिखलाते हुए 1757 में बंगाल में अपना विजय अभियान शुरू किया। तीन वर्ष बाद ही यूरोप में पूंजीवाद शुरू हुआ। ये लोग बाज़ार बनाने लगे, उसको नियंत्रित करने लगे और धीरे धीरे इन लोगों ने अपनी शक्ति को बहुत बढ़ा लिया।
यूरोप में राष्ट्रीयता के विकास को वे फ्रांस में उठी राष्ट्रीयता की लहर के साथ जोड़ कर देखते हैं। कैसे यह जर्मन जातियों में फैली –मगियार सैनिकों की पवित्र रोमन साम्राज्य की ज़रूरत और फिर लुई कोसुथ (1802-1894) द्वारा आस्ट्रिया के निरंकुश शासन के खिलाफ आंदोलन के जरिए –इस पर राहुल ने ध्यान दिया। कालांतर में जब हंगरी को आस्ट्रिया से जातीय अधिकार मिले, लेकिन तब उसने अपनी सहभागी जातियों – सर्बियन, क्रोशियन, रूमानियन को जातीय अधिकार नहीं दिए। मगियर द्वारा अन्य जातियों की भाषा और उनकी जातीय पहचान को न स्वीकार करने को राहुल गलत मानते हैं। इस मामले में वे सी डी हजेन की 1937 में प्रकाशित पुस्तक को उद्धृत करते हैं और कहते हैं कि “हंगरी की इस नीति और हमारे यहाँ के कितने ही राष्ट्रीय नेताओं के विचारों में बहुत समानता है, और वह दूसरी अल्पमत जतियों को वही स्वायत्त अधिकार देने के लिए नहीं तैयार हैं , जिनके लिए वे पिछले पचास वर्षों से लड़ते आये हैं।”[21]
तुर्की में भी इसी तरह से जातीयताओं को दबाने की चेष्टा की गयी, पर यह संभव नहीं हो सका। वहाँ सभी जातियों- ईसाई,यूनानियों, तथा आर्मेनियनों, और मुसलमान अरबों को अधिकारों से वंचित रख कर उन सबक़ों तुर्क बनाने की कोशिश की गयी। राहुल उल्लेख करते हैं कि अदन में 30 हज़ार आर्मेनियन ईसाईयों को मार डाला गया, गैर मुस्लिम के धार्मिक अधिकारों को छीनने की कोशिश हुई और अल्पमत जातियों को व्यापार के क्षेत्र में मिटाने की कोशिश की गयी। मकदुनिया जैसी जगह में जहां मुसलमान कम थे वहाँ मुसलमानों को बहुमत में लाने के लिए दूसरी जगहों के मुसलमानों को ला कर बसाने की कोशिश की गयी । इस आधार पर राहुल जी कहते हैं कि हिन्दू बहुमत से यदि भारतीय मुसलमानों को खतरा मालूम होता है तो...उसे हम बिल्कुल निर्मूल नहीं कह सकते।”[22]
राहुल का प्रस्ताव है कि हर जाति को पूर्ण स्वतंत्रता हो और वहाँ के लोग ही चूंकि इस लड़ाई में शामिल होंगे किसी बाहरी या सामुदायिक आधार पर छद्म लड़ाई करना संभव न होगा। लोग अपने आर्थिक अधिकारों के लिए लड़ेंगे। कोई सांप्रदायिक फूट दाल कर ‘इस्लाम खतरे में’, ‘हिन्दू खतरे में’ का झूठा नारा लगा कर आर्थिक समस्याओं को ढंकने की कोशिश नहीं कर पाएगा। भारत की हजारों समस्याओं की दवा के रूप में वे सुझाते हैं कि हमारी सरकार अपना पहला कर्तव्य समझे - सभी देशवासियों के खाने, कपड़े, मकान, दवा, शिक्षा आदि का प्रबंध करना। यह तभी संभव हो सकता है जब कि केवल जनता की आवश्यकता और लाभ के लिए उद्योग धंधे चलाये जाएँ। [23]
अखंड हिंदुस्तान के लिए एक देश की तरह एक जाति की जरूरत पर वे बल देते हैं। वे कहते हैं कि जब हमारे राष्ट्रीय नेतागण अपनी अपनी कायस्थ, राजपूत, ब्राह्मण जाति के बाहर शादी ब्याह के मामले में जाने के लिए तैयार नहीं हो सकते थे अखंड भारत कैसे बन सकता है? वे हिन्दू धर्मांधता का विरोध करते हैं। अंबेडकर की नीतियों के बारे में उनकी सहमति नही है। वोल्गा से गंगा के सुमेर को याद करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि अंबेडकर नीति को वे बहुत सार्थक नहीं मान पाते हैं। इस कहानी को अनुवाद करते समय छोड़ दिए जाने का यही कारण है।
हिन्दी उर्दू के झगड़े पर उनका मत है कि जो नेतागण इस झगड़े को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं वे उस समस्या को भली भांति समझते नहीं हैं। राहुल के अनुसार ये लोग ‘बिच्छू का मंत्र न जाने, साँप के बिल में अंगुली डाले’ की नीति पर चलने वाले हैं। हिन्दू उर्दू के झगड़े के बीच वे दो संस्कृतियों की टक्कर देखते हैं, जिसके कारण ही दोनों भाषाओं को दो भिन्न भिन्न रास्तो पर विकसित किया।
राहुल के अनुसार प्रगतिशील वही हो सकता है जो आज से बीस या पचास बरस पहले नहीं, दस और पाँच बरस पहले भी नहीं बल्कि आज इस वक्त जो कुछ भी मानवता का भंडार बना है, बन रहा है, उससे पूरे तौर से आगाही रखता है। ...प्रगतिशीलता का रास्ता ...गतिशील है। जहां चलने वाला, उसका रास्ता और सारी परिस्थिति क्षण क्षण बदल रही है, वहाँ राहगीर का काम कितना कठिन हो जाता है इसे आसानी से समझा जा सकता है।
बदलते समय के साथ वे यथेष्ट रूप से लचीले भी होते थे । 1943 में यात्रा के दौरान राहुल को यह लगा कि “सेठों के सामने अब राजा झूठे हैं। उनके खर्च बहुत बढ़ गए हैं, लेकिन आमदनी उतनी की उतनी ही है, और सेठों के लिए आमदनी की कोई सीमा नहीं।[24]
एक और दिलचस्प बात राहुल ने कही है उसी दौर में। वे लिखते हैं- “आधुनिक शिक्षा ने जब वर्तमान शताब्दी के आरंभ में हमारे देश में कदम रखा, तो लोग धरम की ओर से कुछ उदासीन हो गए, लेकिन जब हमारे विश्वविद्यालयों के स्नातकों ने काषायवस्त्र धारण कर लिया तो श्रद्धा दस गुने बल से लौट आई। मैंने देखा कितनी ही तरुण शिक्षिताएँ बड़ी श्रद्धा के साथ ...कुटियों की परिक्रमा कर रही थीं।
राहुल ने अपने चालीस के दशक में लिखे कुछ लेखन में नये भारत के उनके स्वप्न को जिस रूप में रखा है उसकी चर्चा कम हुई है। इतनी कम चर्चा के बाद भी जब प्रतिष्ठित विद्वान भी उनके बारे में वक्तव्य दे देते हैं तो एक भ्रम बन जाता है।
वे यथेष्ट उदारता का परिचय भी देते थे। एक बार जब उनसे किसी ने पूछा कि आपने हिन्दी के लिए कम्युनिज़्म को भी छोड़ दिया तो राहुल ने संशोधन किया कि “कम्युनिज़्म को हमने नहीं छोड़ा था, पार्टी से संबंध तोड़ा था।”[25] वे भावी कम्युनिस्ट क्रांति के प्रति आशावान थे। कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के अनुसार “भावी कम्युनिस्ट क्रांति में ...उनका अखंड विश्वास था ... कहा करते थे “लाल भवानी की पूजा से ही देश के दु:ख दूर होंगे। ”[26]
राहुल, अपभ्रंश और भारतीय साहित्य का आरम्भिक इतिहास (हिन्दी दोहा कोश का संदर्भ)
राहुल जी ने सिद्ध करने की कोशिश की थी कि हिन्दी का प्रथम कवि सरहपाद (760 ई) एक यथार्थ-वादी क्रांतिकारी कवि था और हिन्दी और हिंदुस्तान का भविष्य उज्ज्वल इसी परंपरा को आगे बढ़ाने से बन सकता है। [27] वे मानते थे कि मूलत: सिद्ध-सामंत युग (760 ई से 1300 ई) की भाषा और आज की भाषा मूलत: एक है।[28] इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि अपभ्रंश सुन कर किसी को लग सकता है कि यह कोई अलग भाषा है लेकिन इसका एक नाम है -देशी भाषा।[29] हिन्दी काव्य-धारा के बारे में यह उल्लेख किया जा सकता है कि इस किताब के बारे में पाठकों की प्रतिक्रिया के बारे में विशेष रूप से इच्छुक थे जब वे विदेश में थे।[30] एक तरह से इस विषय पर वे एक अरसे से सोच रहे थे और इस ओर उनका ध्यान तीस के दशक के शुरुआती दौर से ही था। उन्होंने 1933 में बड़ौदा में इंडियन औरियंटल कान्फ्रेंस में कहा था कि “चौरासी” सिद्धों का काल हिन्दी साहित्य का आरंभ काल है, जो कि तिब्बती ग्रन्थों के आधार पर निश्चित है। ...सिद्धों की कविता का प्रचार ही पीछे कबीर, नानक, दादू आदि संतों के वचन-प्रचार के रूप में परिणित हो गया। ... और परंपरा बढ़ चली।”[31] 1954 में इस थीसिस को उन्होंने अपनी ओर से प्रामाणिक तौर पर दोहा कोश से पेश किया। कमला सांकृत्यायन ने इससे जुड़े संदर्भ के बारे में अपने संस्मरण में लिखा है –“किसे ग्रंथ को लिखने के लिए वे पहले से ही योजनाएँ नहीं बनाते थे। मन में जो विचार आये उन्हीं को तुरंत लेखनीबद्ध करना शुरू कर देते थे। मुझे एक दिन अपने पुस्तकालय में प्राचीन तालपत्र के कुछ पन्ने मिले। मैंने वे पन्ने पंडित जी को दिखलाये तो यह मालूम हुआ कि ये 8वीं सदी के सिद्ध कवि सरहपाद के दोहे के पृष्ठ हैं जिन्हें पंडित जी तिब्बत से ला कर भूल चुके थे। यह 1954-55 की बात है....तीन महीने के कठिन परिश्रम से ‘दोहा कोश’ नामक विशाल ग्रंथ तैयार करने के बाद ही आराम किया। इस ‘दोहा कोश’ पर वे किसी पुरस्कार को पाने की आशा भी रखते थे, परन्तु लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया।”[32] प्रतीत होता है कि राहुल के लिए यह एक तय बात थी कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अपभ्रंश के इतिहास के साथ ही शुरू हो गया था।
‘दोहा कोश’ की भूमिका में शिव पूजन सहाय ने लिखा है – “साहित्यिक गवेषणा के क्षेत्र में उनके अनुसन्धानों ने जो प्रकाश फैलाया है उससे युगों का घनीभूत अंधकार तिरोहित हुआ है। ... श्री राहुल जी की तरह ‘मिशनरी स्पिरिट’ से कम करने वाले यदि और भी दो चार व्यक्ति हिन्दी में होते, तो साहित्यिक शोध के क्षेत्र में आज अनेक विस्मयजनक कार्य हुए रहते। ... राहुल जी को सच्चे अनुयायी रूप से अभी तक निष्ठावान सहायक नहीं मिले हैं।”[33]
राम चंद्र शुक्ल ने सिद्ध और योगियों की रचनाओं को 'साहित्य' न मानते हुए लिखा है कि यह सांप्रदायिक (किसी संप्रदाय के लिए) शिक्षा मात्र है। वे कहते हैं कि "चौरासी सिद्धों में बहुत से मछुए, चमार, धोबी, डोम, कहार, लकड़हारे, दर्जी तथा बहुत से शूद्र कहे जाने वाले लोग थे। ... जो शास्त्र ज्ञान सम्पन्न न थे , जिनकी बुद्धि का विकास बहुत सामान्य कोटि का था।" इस दृष्टि की आलोचना करते हुए नामवर सिंह ने लक्षित किया है कि यहाँ साहित्य की कसौटी का आधार सामाजिक और सांस्कृतिक है। जो "सुसंस्कृत" है उसकी गाली भी साहित्यिक है, लेकिन जो "असंस्कृत" है उनकी डांट फटकार भी असाहित्यिक है।[34]
इस विषय में विस्तार में जाने का अवसर यहाँ नहीं है, लेकिन राहुल क्या कहना चाहते थे उसके बारे में सामान्य पाठकों को जरूर जानना चाहिए। राहुल ने ‘दोहा-कोश’ को संपादित 1954 में किया और वे इस किताब के बारे में पाठकों की प्रतिक्रिया के बारे में विशेष रूप से इच्छुक थे जब वे विदेश में थे।[35] इस पुस्तक में राहुल की मुख्य स्थापनाओं को देखना चाहिए। भाषा की दृष्टि से छांदस (वैदिक भाषा) के बाद ईसा पूर्व पाँचवीं छ्ठी सदी में भाषा ने नया रूप लिया जिसे उन्होंने जनपदीय पालियाँ कहा। ईस्वी सन के आरम्भ के आसपास प्राकृत अस्तित्व में आयी जो ईसा की पाँचवी सदी तक प्रचलित रही। इसके बाद भाषा विज्ञान की दृष्टि से एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ। छांदस, पाली और प्राकृत में एक विशेषता बनी रही जिसे भाषाविद ‘श्लिष्ट’ (‘सिंथेटिक’) रूप कहते हैं। किन्तु प्राकृत के बाद जो भाषा आई उसमें श्लिष्ट की जगह अश्लिष्ट रूप आया जिसका उल्लेख हर्ष के समकालीन वाण के हर्ष चरित में वाण के कवि मित्र ईशान के उल्लेख के रूप में मिलता है, जिसे भाषा कह कर पुकारा गया। यह जो भाषा है यह अपभ्रंश है (हालांकि यह नाम बाद में मिला) जो संस्कृत –पाली-प्राकृत के श्लिष्ट-भाषा-कुल से उत्पन्न, पर अश्लिष्ट होने से एक नए प्रकार की भाषा है। यह नई भाषा तीनों भाषाओं से दूर तथा हमारी आधुनिक भारतीय भाषाओं की माता-मातामही है और उसी प्रकृति की भाषा है। इसमें दोहा, चौपाई, पद्धरी के नये छंद उसी समय आते हैं। मराठी, गुजराती, पंजाबी, हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं –राजस्थानी, मालवी, बुन्देली, हरियानी, कौरवी (मूल हिन्दी) पहाड़ी, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, असमिया, बंगला, उडिया सभी भाषाओं के क्षेत्र में अपभ्रंश साहित्य की रचना हुई है, उसको अपना समझा गया। इसी के आधार पर राहुल ने माना कि यह कहना ठीक नहीं है कि आधुनिक भारतीय भाषाएँ सीधे संस्कृत से निकली हैं। राहुल की स्थापना है कि छठी शताब्दी में यह नई भाषा बनी। वे मानते हैं कि ईशान से लेकर सरहपाद के बीच और भी अपभ्रंश के कवि रहे होंगे पर उनकी कृतियाँ उपलब्ध नहीं हैं। सरहपाद राज्ञी अंचल (जो राहुल के हिसाब से भागलपुर और पौंद्र-वरद्धन – उत्तरी बंगाल) में जन्मे थे। उनकी मृत्यु के बारे में राहुल ने ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कहा है उनकी मृत्यु 780 के करीब हो चुकी थी। शवरपा उनके प्रधान शिष्य हुए। उनके अन्य शिष्यों में जोगी, नागार्जुन और सर्वभक्ष भी थे। उनके अनुयायी आज भी तिब्बत में भारी संख्या में मौजूद हैं।
अगर हम राहुल की साहित्य के इतिहास को देखने की दृष्टि पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे लोक की शास्त्रों द्वारा उपेक्षा का विरोध करते हैं और इस ज्ञान परंपरा की राजनीति और वर्चस्व के लिए चल रही लड़ाई के प्रति बहुत सचेत हैं। इस क्रम में वे तमाम उन प्रसंगों, व्यक्तित्वों के बारे में कभी तथ्यों और कभी अपने अनुमान के आधार पर वैकल्पिक दृष्टि के लिए सामग्री जुटाते हैं। दुर्भाग्य से उनको संस्थानिक सहयोग बहुत कम मिल सके। वे चाहते थे कि उन्होंने जो सामग्री जुटाई थी उस पर काम हो और उसका संरक्षण और अनुवाद हो सके। कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापकों ने कुछ कोशिशें की लेकिन वे पर्याप्त सिद्ध न हो सकीं।[36] राहुल सांकृत्यायन के अनुसन्धानों का किस तरह से प्रभाव रहा है इसको समझने के लिए शिव पूजन सहाय द्वारा हिन्दी साहित्य और बिहार के प्रथम खंड को पलटना ही पर्याप्त है। जिन संतों के बारे में यशस्वी हिन्दी संपादक ने सूचनाएँ इकट्ठा की हैं उनमें से बहुतों के बारे में राहुल के अनुसंधान के कारण ही जानकारी मिल सकी है। दुर्भाग्य से राहुल ने जो भारतीय साहित्य के बारे में दृष्टि तैयार की थी और जिसके आधार पर भारतीय साहित्य का इतिहास कई शताब्दी पीछे से शुरू होती उसको अकादमिक जगत में पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया गया।
हो सकता है कि इसको मानने में साहित्य-इतिहास के विद्वानों को असुविधा हो पर क्या यह कहना अनुपयुक्त होगा कि हिन्दी भाषा के इतिहास में राहुल के इस मत के रूप में विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाए? जिस आधार पर आचार्य शुक्ल ने इसे नकारा है उसकी जो आलोचना नामवर सिंह ने की है वह उचित ही प्रतीत होती है।
राहुल, जाति (नेशन), भाषा और धर्म
राहुल के लिए किसी आदमी की जाति पहचानने के लिए सबसे बड़ा चिन्ह –“पक्का चिन्ह” - है उसकी भाषा।[37] इसके बाद वे जाति की पुष्टि के लिए जिस कारक का ज़िक्र करते हैं वह है – धर्म। संस्कृति को वह भाषा, कला और धर्म की सम्मिलित उपज मानते थे।[38] वे इसे गलत मानते हैं कि जातियों का ज़िक्र हो और धर्म को छोड़ दिया जाए। वे उन लोगों को जो धर्म को जातीयता में विशेष स्थान नहीं देना चाहते उनको राहुल ऐसे लोग मानते हैं जिनकी निगाह वर्तमान को नहीं देखती। वे स्पष्ट लिखते हैं – “जिस देश में अपनी भाषा, साहित्य, कला के बराबर या उससे भी अधिक जनता का दृढ़ आग्रह किसी धर्म के बारे में मिलता हो, और जब तक वह जनता उसके लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने के लिए तैयार हो; वहाँ हम धर्म से आँख नहीं मूँद सकते...जब तक मजहब से प्रभावित हो कर कोई जाति उसी के ऊपर अपने अलग व्यक्तित्व को कायम करने के लिए डटी हुई है, तब तक भूत में यह मजहब नहीं था, या भविष्य में नहीं रहेगा, इस बात को कह कर उस विचार को हटाया नहीं जा सकता और न हम वर्तमान की समस्या को हल कर सकते हैं।”[39]
भारत के संदर्भ में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि “हमें यह मानने में कोई उज्र हो ही नहीं सकता कि हमारे देश के मुसलमान अपनी जातीयता में मजहब को बहुत स्थान देते हैं।”[40] एक बार राहुल से पूछा गया कि अगर बौद्ध धर्म और कम्युनिज़्म में एक को चुनना पड़े तो किसे चुनेंगे तो उन्होंने कहा कि वे कम्युनिज़्म को चुनेंगे क्योंकि इसमें बौद्धों की सामाजिक समानता निहित है। प्रश्नकर्ता ने जब यह कहा कि यह समानता तो इस्लाम में भी है तो राहुल ने जो कहा वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहा – “इस्लाम की समानता और बौद्धों की समानता में बहुत अन्तर है। इस्लाम में मजहबी समानता है। हरेक मुसलमान धर्म-क्षेत्र में समान समझा जाता है, लेकिन बौद्ध धर्म में मानवमात्र समान है – यही क्यों जीवमात्र समान है। इस मौलिक भेद के कारण एक धर्म युक्तियों, अनुरोध, स्नेह, बंधुत्व, त्याग, सहिष्णुता से फैला और दूसरा तलवारों की धार पर। वैसे अनेक मुसलमान संतों ने सहिष्णुता और मानव समानता का प्रचार भी किया। पर बहुत कम। ”[41]
राहुल 15 अगस्त 1947 को भारत लौटते हुए जहाज पर थे उन्होंने देखा कि स्वाधीन होने की खुशी में भारत और पाकिस्तान के लिए अलग अलग झंडे फराए गए और एक के लिए ‘जन गण मन’ और दूसरे के लिए ‘पाकिस्तान हमारा’ गाया गया। इस पर राहुल की टिप्पणी है कि इकबाल ने जिन्होने पाकिस्तान का राष्ट्रीय गान लिखा उन्होंने लिखा था जिसमें ये पंक्तियाँ थीं –
चीन और अरब हमारा,
सारा जहां हमारा ...
तलवार के साये में हम पाले हैं...।
इसके गाने के बाद नारा दिया गया अल्लाह ओ अकबर! राहुल ने लिखा है कि ये जानते नहीं कि जिहाद का समय बीत चुका है और विज्ञान का युग आ गया है। ये समझते हैं कि इस्लामी छूरेबाजी के बल पर इन्होने पाकिस्तान कायम किया है। उनको यह नहीं मालूम कि अंग्रेजों ने अशगुन पैदा करने के लिए पाकिस्तान को बनाया।[42] इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे प्रसंग हैं जिसमें उन्होंने इस्लाम और मुसलमानों के बारे में अपनी भावना को प्रकट करने में संकोच नहीं किया। एक जगह उन्होंने लिखा है –“इस्लाम में मुझे यदि कोई चीज बुरी लगती है, तो वह है स्थानीय भाषा और संस्कृति के प्रति अवहेलना और विद्रोह का भाव, और जहां यह बात नहीं रहती वहाँ उसके ऐतिहासिक महत्त्व का मैं बहुत प्रशंसक हो जाता हूँ।”[43]
राहुल की कम से कम दो पुस्तकों में भाषा और इस्लाम के प्रश्न पर इस प्रकार के कथन मिलते हैं वे किसी कम्युनिस्ट के कम और किसी भारतीयता (गुणाकर मुले के अनुसार हिन्दुत्व वाली भारतीयता नहीं) के पक्षधर के अधिक प्रतीत होती हैं। युधिष्ठिर नामक पात्र के माध्यम से राहुल की पुस्तक – ‘आज की राजनीति’ में कहा गया है – “इतिहास बतलाता है कि धर्म के नाम पर इस्लामी मूलकों को एक राष्ट्र के रूप में कभी परिणत नहीं किया जा सका... इस्लाम स्वतंत्र जातियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से लाभ उठा कर जितना आगे बढने के अवसर था उसकी धर्मांन्धता ने उन्हें वैसा नहीं करने दिया। ...कितने हिन्दू अब भी पाकिस्तान को बड़े भय की दृष्टि से देखते हैं, इनको मालूम होता है, कि मुसलमान बहुत लड़ाके हैं, और उनकी पीठ पर मिश्र और तुर्की तक के सारे इस्लामी राज्य हैं।” युधिष्ठिर को राहुल के विचार का प्रतिनिधित्व करने वाला एक तरह से माना जा सकता है। यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि युधिष्ठिर को राहुल ने बहुत ही संतुलित व्यक्ति के रूप में देखा है। इस पात्र का परिचय राहुल ने इस रूप में दिया है – “शिक्षा में वे किसी से पीछे नहीं हैं।, साथ ही देशाटन ने उनके दृष्टिकोण को और भी विशाल बना दिया है। सिर्फ आयु के कारण ही दूसरे पंचों ने उन्हें अपना प्रधान या सरपंच नहीं बनाया, बल्कि उनमें सरपंच होने के गुण भी हैं। वे सबसे अधिक शांत हैं।” महीप जो इस उपन्यास का ऐसा पात्र है जिसमें राहुल के विचार को सबसे अधिक स्पष्टता से लक्षित किया जा सकता है उसके व्यक्त विचारों में भी राहुल के इस्लाम के इतिहास के प्रति राहुल के दृष्टिकोण की झलक मिलती है। महीप कहता है – “इस्लामी जातियाँ अपनी कट्टरता पर गर्व करती हैं, किन्तु उसके कारण उन्हें कूप-मंडूकता और पिछड़ेपन के सिवा कुछ हाथ नहीं आया।” युधिष्ठिर से जब पूछा जाता है कि फिर इस्लाम ने सफलता कैसे प्राप्त की तो उसका उत्तर है – “इस्लाम की सफलता किसी उच्च दार्शनिक विचार, महान सदाचार या भव्य आदर्शवाद के कारण नहीं हुई है। आप कुरान को उठा कर किसी धर्म के प्रमुख ग्रंथ से मिला के देख लीजिए, वह हर तरह से बहुत निम्न कोटि का जँचेगा। ...(इस्लाम की) दूसरी सफलता की कुंजी थी : जैसे भी हो स्त्रियों को रख के उससे औलाद को पैदा कर के बढ़ाना। धर्म प्रचार का इस अनूठे ढंग को आप किसी धर्म के लिए शोभा की बात तो नहीं कह सकते।... एक सांप्रदायिकता दूसरी सांप्रदायिकता को पैदा करती है। मुसलमान इस्लाम को मानें, इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, किन्तु यदि वह वेश-भूषा, भाषा, संस्कृति में अपने को विदेशी रखना चाहते हैं, तो समझ लें, यह उनके लिए आफत की चीज है।” कुछ इसी तरह के भाव राहुल की एक अन्य कृति ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ के सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र, जिसके कथन में लेखक के अपने भाव ही व्यक्त हुए हैं, भैया ने भी व्यक्त किए हैं – “मुसलमानों को वही बोली–बानी, वही पर-पोसाक, वही खान-पान अपनाना होगा, जो कि हिंदुओं का है। बिलाइत में ईसाई रहते हैं, यहूदी भी रहते हैं, लेकिन उनको देख के कोई नहीं कह सकता, कि वह दो तीन धर्म को मानते हैं।”[44]
साथ ही, यह उनके लिए स्पष्ट है कि “एक मजहब होने पर भी यदि भाषा भिन्न भिन्न हुई तो अलग जाति का सवाल उठे बिना नहीं रहेगा। वे 1944 में कहते हैं कि सारे पाकिस्तानी (इस्लाम के आधार पर एक हो जाएँ अगर ) एक जाति के नहीं हो जाएंगे , भाषा का सवाल वहाँ तीव्र उठेगा। यह कम उल्लेखित है कि राहुल ने 1944 में कहा था कि “पूर्व बंगाल -जो कि पाकिस्तान का दूसरा टुकड़ा होगा -भी अपनी समुन्नत मातृभाषा को छोड कर उर्दू को अपनायेगा इसकी आशा नहीं रखनी चाहिए।”[45] इसी आधार पर वे कहते हैं कि “पाकिस्तान कभी एक जातीय देश नहीं रहेगा।” राहुल की यह धारणा है कि जातीयता के प्रश्न पर व्यावहारिक रूप से विचार करते वक्त धर्म से भी ज़्यादा हमें भाषा को प्रधानता देनी होगी। पाकिस्तान के बारे में वे लिखते हैं कि – “पश्चिमी खंड में ही एक नहीं ग्यारह जातियाँ हैं जिनकी भाषाएँ हैं –सिन्धी, बलोची, बहुई, मुल्तानी, पश्चिमी पंजाबी, पश्तो, कश्मीरी, दरदी, बलती, हुञ्जा, और पूरब में पूरबी बंगाल की अपनी एक जीवित भाषा है। इस प्रकार पाकिस्तान ग्यारह जातियों का एक जाति संघ होगा।”[46]
भाषा के संबंध में राहुल जी की इस बात पर गौर करना ज़रूरी है कि कुरु जनपद (मेरठ कमिश्नरी, अलीगढ़ जिला छोड कर) की एक भाषा अब सारे उत्तरी भारत के अनेकों पुराने जनपदों की शिक्षा का माध्यम हो गई है, और उसे ही हम मातृभाषा का स्थान दिलाना चाहते हैं –अर्थात ब्रज, बुन्देली, अवधी, बनारसी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, मारवाड़ी, मेवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी भाषाओं को मातृभाषा से खारिज कराना चाहते हैं। प्राकृत युग में भी मगही, सौरसेनी, आदि भाषाओं की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गयी है और अब हम यदि उससे उल्टा करना चाहते हैं, तो न यह उचित है और न यह संभव है। इन लोक भाषाओं की जड़ उससे कहीं दूर तक गई है, जितना कि हम समझते हैं।”[47] वे इतिहास के इस अनुभव की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं कि बुद्ध के पहले जनपद युग में हर एक जनपद (कुरु, पांचाल, कोसल, काशी, मगध) का व्यक्तित्व अपनी भाषा पर ही आधारित था और उनकी एक स्वतंत्र राजनैतिक सत्ता भी थी। भाषा के अन्तर के कारण दो जनपद एक साथ आने और मिल जाने के लिए तैयार नहीं थे। कन्नौज के आधिपत्य के दौर में विभिन्न जातियों को एक साथ जोड़ कर कन्नौजिया की जातीय भावना का प्रसार भी आखिरकार सफल न हो सका। पूरे दौर में एक भाषा को लादने का प्रयत्न भी नहीं किया गया। एक ‘अमातृभाषा’ संस्कृत को भाषा ज़रूर स्वीकार किया गया।
राहुल के अनुसार सारे भारत में भारत की जातियाँ इस रूप में बाँट कर देखी जा सकती हैं –
बिहार
मल्ल (भोजपुरी भाषा-भाषी )- चंपारण, सारण, शाहबाद (युक्तप्रांत में गोरखपुर की देवरिया तहसील, गोरखपुर, बलिया, आजमगढ़ और गाजीपुर जिलों के भाग )
वज्जी (पश्चिमी मुझफ्फरपुर जिला
विदेह ((मैथिली) –दरभंगा जिला
अंग (छिकाछि की भाषा ) –भागलपुर, मुंगेर, और पूर्णिया के कुछ भाग
मगध, पटना, गया, तथा जजारीबाग , मुंगेर जिलों के कुछ भाग
मुंडा (छोटनागपुर)
ओरांव (छोटनागपुर)
हो (छोटनागपुर )
संथाल (संथाल परगना)
राढ़ (पश्चिमी बंगा )-मनभूम, सिंहभूम
दूसरे प्रान्तों के प्रजातन्त्र का नाम उन्होंने इस तरह गिनवाए हैं –
युक्त प्रांत – मल्ल (पहले ही उल्लेख किया जा चुका है)
काशी, दक्षिणी अवध, उत्तरी अवध, उत्तरी ब्रज, पश्चिमी ब्रज, पूर्वी कुरु (खड़ी बोली), बुंदेलखंड, कूर्माञ्चल (पूर्वी पहाड़ी)
मध्य-प्रांत- छेदी (जबलपुरी), दक्षिणी कोशल (छत्तीसगढ़ी), गोंड, नीमाड, मालव, बघेलखंड, उत्तर महाराष्ट्र, बुंदेलखण्ड
राजपूताना- मेवाड़, मारवाड़, मेरवाड़
देहली- पश्चिम कुरु (हरियाणी)
पंजाब - पश्चिमी कुरु, पूर्वी पंजाब, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी हिमालय (पश्चिमी पहाड़ी), कनौर, स्फिती, लाहुल
कश्मीर - जम्मू, लद्दाख, बाल्तिस्तान, दरदस्तान, हुंजा, कश्मीर
सीमाप्रान्त - पश्तो
बलोचिस्तान - बलोचिस्तान, बहुई
सिंध - सिंध
बंबई - कच्छ , सौराष्ट्र (कठियावाड़ी), गुजरात, दक्षिणी महाराष्ट्र , कोंकण, कर्नाटक, डाकिनी भाषा (बिखरे)
मद्रास-कर्नाटक - तुलू, कुर्ग, केरल, तमिलनाड, आंध्र
ओड़ीसा - उत्कल
बंगाल - राढ़ (पश्चिम बंग), मध्य-बंग, पूर्व बंग , चट्टग्राम , लेपचा, गोर्खा, शर्बा (तीनों को एक साथ रखा है ), कोच
आसाम- पूर्व बंग, आसाम, नागा, गारो , ख़ासी, जयंतिया , मनीपुर, मिस्त्री
भूटान
नेपाल – गोर्खा, नेवार, तमंग, थारू, शवी
अन्तर्प्रान्तीय भाषाएँ –हिन्दी, उर्दू, इंगलिश[48]
राहुल के बारे में यह बात बहुप्रचारित है कि वे अङ्ग्रेज़ी या उर्दू विरोधी थे। यह सही नहीं कहा जा सकता। वे कहते हैं कि मुस्लिम प्रधान प्रान्तों में उर्दू अन्तर्प्रान्तीय भाषा होगी और बाकी प्रान्तों में हिन्दी। (यह संदर्भ हिन्दी-उर्दू राज्यों के संदर्भ में कही गयी है।) लाखों की तादाद में ऐंग्लो-इंडियन और दूसरे जो अङ्ग्रेज़ी बोलते हैं उनके लिए वे कहते हैं कि “यद्यपि इनकी आबादी सारे भारत में बिखरी हुई है, तो भी हर जगह उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए अङ्ग्रेज़ी भाषा के स्कूलों का प्रबंध करना होगा।”[49] वे मातृभाषा की शक्ति को लेकर सचेत और आशावान हैं और इस बात से बिलकुल इत्तफाक नहीं रखते कि ग्रामीण बोलियों का महत्व सिर्फ उनके सुंदर गीतों, कहानियों, मुहावरे और लोकोक्तियों के कारण हैं और उन्हें संग्रहीत कर लिया जाना चाहिए क्योंकि ये धीरे धीरे मर रही हैं। वे जोरदार शब्दों में कहते हैं कि “...धृष्टता मत कीजिए । यदि ये भाषायेँ...अब तक नहीं मरीं तो नज़दीक भविष्य में वे ...शेष (खत्म) नहीं होने जा रहीं। उनके तुलसियों, सूरों और विद्यापतियों की कदर अब तक आपने न की या उन्हें भुला दिया तो भी उनकी उर्वरता गई नहीं; ज्यों की त्यों हैं। भविष्य उनका है।”[50] वे कहते हैं –“ जनता की भाषाएँ जब घर की मालकिन बनेंगी, अपने घर को संभालने का सामर्थ्य जनता में तभी आ सकता है।”[51]
राहुल के लिए अधिक प्रान्तों का बनना अच्छी बात है। वे कहते हैं कि अभी तक प्रान्तों का बंटवारा शासकों के सुभीते के अनुसार हुआ था अब उसे जनता के सुभीते के अनुसार करना होगा। उनके शब्दों में – “तीन प्रान्तों की जगह तीस प्रांत हो जाने से अंग्रेज़ प्रभुओं की आपत्ति के ख्याल से डर मत जाएँ ...क्या आप समझते हैं कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद ऐसा ही अक्षुण्ण रहेगा? सफेद आई सी एस वालों की चक्की के नीचे भारत क्या ऐसे ही पिसता रहेगा ? अगर यह भी हो तो भी फिक्र करने की ज़रूरत नहीं।”[52]
भाषा और और इसके आधार पर गठित राज्य –जनपद पर राहुल बहुत स्पष्ट रूप से कुछ सुझाव देते हैं। उनके अनुसार हिन्दी-उर्दू प्रांत (पंजाब, सिंध, युक्त-प्रांत, बिहार तथा रियासतों ) को 30 जनपदों में इस प्रकार बांटा जा सकता है-
भाषा |
जनपद |
केंद्र |
1 हिन्दकी |
पच्छिमी पंजाब |
रावल्पिन्ड़ी |
2 मध्य पंजाबी |
मध्य पंजाब |
लाहौर |
3 पूर्वी पंजाब |
पूर्व पंजाब |
लुधियाना |
4 सिन्धी |
सिंध |
करांची |
5 मुल्तानी |
मुल्तान |
मुल्तान |
6 काश्मीरी |
काश्मीर |
श्रीनगर |
7 पच्छिमी पहाड़ी |
त्रिगर्त |
कांगड़ा |
8 हरियानी |
हरियाना |
दिल्ली |
9 मारवाड़ी |
मारवाड़ |
जोधपुर |
10 वैराटी |
विराट |
जयपुर |
11 मेवाडी |
मेवाड़ |
चित्तौड़ |
12 मालवी |
मालवा |
उज्जैन |
13 बुन्देली |
बुंदेलखंड |
झांसी |
14 ब्रज |
सूरसेन (?) |
आगरा |
15 कौरवी |
कुरु |
मेरठ |
16 पंचाली |
रूहेलखण्ड |
बरेली |
17 गढ़वाली |
गढ़वाल |
श्रीनगर |
18 कूर्मांचली |
कूर्माञ्चल (कुमाऊँ ) |
अल्मोड़ा |
19 कौशली |
कोशल |
अवध लखनऊ |
20 वात्सी |
वत्स |
प्रयाग |
21 चेदिका |
चेदी |
जबलपुर |
22 बघेली |
बघेलखंड |
रीवाँ |
23 छत्तीसी |
छत्तीसगढ़ |
विलासपुर |
24 काशिका |
काशी |
बनारस |
25 मल्लिका (भोजपुरी) |
मल्ल |
छपरा |
26 वज्जिका |
वज्जी |
मुजफ्फरपुर |
27 मैथिली |
विदेह (तिरहुत) |
दरभंगा |
28 अंगिका |
अंग |
भागलपुर |
29 मागधी (मगही) |
मगध |
पटना |
30 संथाली |
संथाल परगना |
जसीडीह |
यह स्पष्ट है कि यह राहुल के लिए अंतिम तालिका नहीं थी, क्योंकि श्री नगर को दो जनपदों के केंद्र पर भी शायद वह पुनर्विचार करते अगर वे इस पर और सोचते। यह भी कहा जा सकता है कि वे मुण्डा, उडांव, हो आदि के बारे में भी वे जरूर कुछ सोचते क्योंकि वे इस विषय पर उसी वर्ष लिख चुके थे। जो बात ध्यान देने योग्य है वह है राहुल की लोकतान्त्रिक सोच। वे जाति की प्राथमिक पहचान के रूप में भाषा को रखते हैं और सभी जनभाषाओं के साथ एक जनपद की बात रखते हैं।
वे हिन्दी को इन तीस जनपदों के बीच संवाद की भाषा के रूप में देखते हैं। हिन्दी को वे अनिवार्य द्वितीय भाषा (जो हफ्ते में दो तीन घंटे पढ़ने हों) के रूप में रखने की वकालत करते हैं।
राहुल ने भाषा को कैसा होना चाहिए विषय पर अपना जो अभिमत रखा है उस पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा सकता है। वे एल्बर्ट श्वाइट्जर के हवाले से फ्रेंच और जर्मन भाषा के अन्तर को उपवन और वन के अन्तर की तरह देखते हैं। जर्मन लोक भाषा से जुड़ी है और इसमें जंगल की भांति विचरने का विकल्प खुला है जो फ्रेंच की सुगढ़ और सुनिश्चित रास्ते से अलग है। भाषा के प्रवाहमान रूप की ही राहुल वकालत करते हैं। वे हिन्दी को जनभाषाओं की “महाउर्वर “ भूमि की ओर मुड़ने की सलाह देते हैं। इसी से संस्कृत या अरबी फारसी से उधार लेकर चलने की प्रवृत्ति से छुटकारा मिल सकता है।
राहुल सांकृत्यायन को याद करते हुए भीष्म साहनी ने एक मार्मिक वाक्य लिखा है –“राहुल जी की जिज्ञासा उन्हें बहुत दूर तक ले जा चुकी थी... तभी मैंने जाना कि ज्ञान की भूख भी मनुष्य में उन्माद की सी स्थिति पैदा कर सकती है।”[53] इस उन्माद की सी स्थिति ने राहुल को भारतीय बौद्धिक परम्पराओं को बचाने और उसको आज के लोगों के लिए उपलब्ध करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रखा। इस भूख ने एक जीवन में उन्हें इतना कुछ करने में सक्षम बनाया जो अन्य किसी के लिए असंभव सी बात लगती है। राहुल के विचार और लेखन का पाट बहुत फैला हुआ है। उनके लेखन पर विमर्श की संभावना बनी हुई है। उनकी ज्ञान यायावरी में अन्तर्निहित सूत्रों को समझने और उससे सीखने की जरूरत है। उनकी बातों से असहमत होते हुए भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
संदर्भ / टिप्पणियाँ
[1] यह आलेख राहुल सांकृत्यायन पर एशियाटिक सोसाइटी , कोलकाता और गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में प्रस्तुत आलेखों का संशोधित रूप है।
[2] राहुल सांकृत्यायन , मेरी जीवन यात्रा भाग 3, पृ 28।
[3] यह एक महत्त्वपूर्ण कथन है। विष्णु चन्द्र शर्मा ने 1939 में उनके भाषणों का उल्लेख करते हुए इस ओर संकेत किया है। एक अन्य राहुल प्रेमी (अंध भक्त नहीं) राघव शरण शर्मा ने उस दौर के कुछ साक्ष्यों के आधार पर आम लोगों के अंध विश्वास के प्रति अनास्था को प्रदर्शित करने की राहुल की शैली पर माना है कि राहुल जी किसानों को दिखा दिखा कर निरामिष भोजन करते थे। इस कारण किसान आंदोलन के दौरान कुछ दिक्कतें भी किसान सभा के लोगों को हुई । (इस संबंध में राघव शरण शर्मा के पास जो मौखिक श्रोतों की बहुत जानकारी है। राहुल के प्रति आदर रखने वाले राघव जी के कथनों को आधार बना कर यह अनुमान किया जा सकता है कि किसान सभा के दिनों के अनुभवों के बाद शायद राहुल जी को 1939 में यह लगने लगा हो कि साधारण और असाधारण दो किस्म के लोगों में बुद्धि और श्रद्धा को के प्रभाव को ध्यान में रखने की जरूरत है। (देखें विष्णु चन्द्र शर्मा, समय साम्यवादी, वाणी प्रकाशन , नयी दिल्ली, 1997, पृ 426)।
[4] यह एक विवाद का विषय है कि राहुल ने पार्टी छोड़ी या उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। खुद राहुल ने अपने को आजन्म कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य माना। 1956 में लिखी आत्मकथा में उन्होने माना है कि वे 1917 की रूसी क्रांति के होने के एक दो महीने बाद से ही, जब इसकी खबर राहुल ने अखबारों में पढ़ी, तभी से वे इसके प्रति आकर्षित हो गए। उनके शब्दों में -“साम्यवाद मेरा अपना वाद हो गया। संयोग नहीं मिला, इसलिए पार्टी के भीतर आने में मुझे बीस बरस लगे।” 1939 में मुंगेर में वे बिहार कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने। 28 दिसंबर 1947 को जब वे पार्टी दफ्तर में गए और उनको यह कहा गया है कि वे हिन्दी-उर्दू के प्रसंग में व्यक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अपने अध्यक्षीय भाषण के कुछ हिस्सों को निकाल दें। शालीन राहुल ने लिखा है कि अगर यह छप कर नहीं आया होता तो वे निकाल देते पर भाषण के छप जाने की स्थिति में वे ऐसा नहीं कर सकते। उनके इस कथन को बहुत तौल तौल कर पढ़ने की जरूरत है – “उस समय मैं समझता था, पार्टी वाले राष्ट्रीयता के बारे में हलके दिल से सोचते हैं, और मतवाद की संकीर्णता को प्रश्रय देते, दूर भविष्य में होने वाले प्रभावों को नहीं समझ पाते।” (देखें राहुल सांकृत्यायन, मेरी जीवन यात्रा , भाग चार, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1967, पृ 54-56)
[5] मार्क्सवादी चिंतक लुई अल्थूसर ने मार्क्स के लेखन को दो भागों में बाँट कर देखने की कोशिश की है। उनके हिसाब से मार्क्स के पहले चरण के लेखन में हेगेलियन प्रभाव है और मार्क्स के चिंतन का सबसे वैज्ञानिक और महत्त्वपूर्ण हिस्सा उनके 1848 के बाद का लेखन है जिसे अल्थूसर परिपक्व मार्क्स के रूप में देखते हैं। राहुल सांकृत्यायन के संदर्भ में 1940 के दशक में परिवर्तन के सूत्र मौजूद हैं लेकिन 1947 के बाद जो उनका लेखन है उसके साथ उनके पूर्ववर्ती लेखन का एक अंतर दिखता है, ऐसा प्रस्तावित किया जा सकता है। यह परिवर्तन एकरेखीय नहीं है, पर अंतर है, ऐसा इन पंक्तियों के लेखक को लगता है।
[6] राहुल सांकृत्यायन , ‘मैं कहानी लेखक कैसे बना ?’ राहुल निबंधावली , पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली । 1997 [1970], पृ 4-5
[7] वही।
[8] भगवत शरण उपाध्याय, ‘भारतीय अनुसंधाता राहुल’ नया ज्ञानोदय, सितम्बर, 2017, पृ 83 (पुनर्प्रकाशित)
[9] लोक इतिहास के प्रसंग में उनके एक कथन कि “हर गाँव के टीले का एक इतिहास होता है” ने शोधार्थियों को बहुत प्रेरित किया है।
[10] राहुल के गंगा पुरातत्वांक के संपादक के रूप में किए गए काम से अगर विचार शुरू हो तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे तीस के दशक में इतिहास के बारे में कई स्तरों पर सोचते रहे हैं। यह अंक जनवरी 1933 में छप कर आया। इसे उन्होने रामगोविन्द त्रिवेदी के साथ मिल कर संपादित किया था।
[11] कमला सांकृत्यायन, ‘मध्य एशिया का इतिहास’ का इतिहास’, महामानव महापंडित, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1997, पृ 99-113।
[12] ‘Introduction’, in Veena Das ed. Sociology and Social Anthropology Vol I, OUP, New Delhi, p. 13.
[13] राहुल सांकृत्यायन, आज की राजनीति , आधुनिक पुस्तक भवन, कलकत्ता , 1949, भूमिका ।
[14] इस संबंध में चर्चा के लिए देखें हितेन्द्र पटेल , ‘राहुल सांकृत्यायन के आज़ाद भारत मे संघर्ष के कुछ संदर्भ ‘, नया ज्ञानोदय , नई दिल्ली , सितंबर 2017। राहुल के प्रशंसकों की एक बड़ी संख्या 1930 के दशक में थी जब वे तिब्बत से प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों को लेकर लौटे थे । राजेंद्र प्रसाद और नेहरू भी थे। राजेंद्र प्रसाद से राहुल का संपर्क बहुत पुराना था। राजेंद्र प्रसाद उस समय श्रीलंका भी गए थे जब राहुल वहाँ शुरुआती दौर में अध्यापन कर रहे थे। नेहरू के इलाहाबाद की सभा में राहुल जैसों की विश्वविद्यालयों में न होने की पीड़ा का ज़िक्र बहुत प्रसिद्ध है। ये दोनों आज़ाद भारत में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री थे जब जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होने चीन जाकर माओत्से तुंग से मिलने की इच्छा प्रकट की। इस आशय का एक पत्र राहुल ने राजेंद्र प्रसाद को लिखा की वे उन्हें अपनी ओर से एक पत्र देकर माओ से मिलने में मदद करें। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने प्रधान मंत्री नेहरू से पूछा कि क्या ऐसा करना ठीक होगा ? नेहरू ने पत्र न देने के लिए कहा क्योंकि इसके पूर्व डा रघुवीर इस तरह के पत्र का उपयोग अपने व्यक्तिगत उद्देश्य से कर ले गए थे । नेहरू का तर्क था कि इस तरह के पत्र को वहाँ की सरकार इस रूप में लेती है मानो पत्र-वाहक सरकार का प्रतिनिधि हो। राजेंद्र प्रसाद ने अपनी ओर से कोई पत्र राहुल जी को देने से मना कर दिया । राहुल माओ से नहीं मिल सके। कुछ अन्य संदर्भों के लिए विशेष रूप से द्रष्टव्य गुणाकर मुले, स्वयंभू महापंडित , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली , 1993। गुणाकर मुले ने कुछ संदर्भों को संकेत रूप में ही रखा है लेकिन जो उन्होने पत्र छापे हैं , जो इसी पुस्तक में संग्रहीत हैं, उससे यह स्पष्ट है कि राहुल को बहुत दिक्कत हुई थे और वे अपने ही लोगों के व्यवहार से बहुत दुखी हुए थे। कमला सांकृत्यायन और पुत्र जेता सांकृत्यायन ने यह उल्लेख किया है कि राहुल जी वे मध्य एशिया का इतिहास के लिए साहित्य अकादमी के द्वारा दिए गए पुरस्कार को नेहरू के हाथों लेने के लिए तैयार नहीं थे। पत्नी कमला सांकृत्यायन के विशेष अनुरोध पर वह राजी हुए लेकिन इस शर्त पर कि वे झुक कर पुरस्कार नहीं लेंगे। नेहरू के सामने सीधे तने हुए राहुल की जो तस्वीर है वह इस कारण से ही है। संभवत: मामा वरेरकर (मराठी लेखक), प्रभाकर माचवे और कमला जी के अनुरोध (पैरों पर गिर कर ) के कारण ही 1958 में राहुल नेहरू के हाथों यह पुरस्कार लेने के लिए राजी हुए। (गुणाकर मुले , उपरोक्त , पृ 57। एक प्रसंग का उल्लेख कमला सांकृत्यायन ने किया है। राहुल जी की बहुत इच्छा थी कि उनके लोकप्रिय वोल्गा से गंगा का रूसी अनुवाद उनके जीते जी प्रकाशित हो जाए। उनकी साध पूरी न हुई और अन्य लेखकों की पुस्तकों के रूसी अनुवाद की अनुशंसाएं होती रहीं। राहुल जी के साथ नेहरू के संपर्क का एक सिरा 1936-37 के दिनों से भी जुड़ा है जब विजयालक्ष्मी पंडित ने राहुल का नाम देख कर भी उनसे मिलने से मना कर दिया था। आहत राहुल ने 1937 में आनंद भवन में नेहरू के बुलावे पर वहाँ जाने से मना कर दिया था। अगले दिन यह कहने पर कि नेहरू स्वयं उनसे मिलने चलने आएंगे, नेहरू के स्वास्थ्य (बीमारी से वे हाल ही में उठे थे) को ध्यान में रख कर राहुल उनसे मिलने गए थे। (मेरी जीवन यात्रा खंड 1, जिल्द 2, राजकमल प्रकाशन , दिल्ली, 1994, पृ 264-265। )
[15] डा विजयेन्द्र स्नातक, ‘कडवे-मीठे दो लघु संस्मरण’, उपरोक्त , पृ 183
[16] भदंत आनंद कौशल्यायन , ‘श्री लंका में राहुल जी’, उपरोक्त , पृ 167
[17] कमला सांकृत्यायन, महामानव , 1997, पृ 14
[18] वही, पृ 19
[19] यशस्वी आलोचक रामविलास शर्मा से लेकर उनके मित्र और सहयोगी रहे महादेव साहा ने इसी तरह की बातें कई प्रसंगों में की हैं। लेकिन इतिहासकार राम शरण शर्मा ने राहुल सांकृत्यायन के बारे में बहुत सकारात्मक तरीके से सोचा है।
[20] राहुल सांकृत्यायन पर बोलते हुए नामवर सिंह का यह कथन है।
[21] ‘पाकिस्तान या जातियों की समस्या?’, पूर्वोक्त, पृ 11
[22] उपरोक्त , पृ 12-13
[23] उपरोक्त, पृ 15
[24] मेरी जीवन यात्रा भाग दो , किताब महल , इलाहाबाद ,1950, पृ 640
[25] डा जय नाथ ‘नलिन’, ‘राहुल जी का सहज व्यक्तित्व’, डा ब्रह्मानन्द स्ंपा. राहुल सांकृत्यायन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व , हरियाणा प्रकाशन, दिल्ली, 1971, पृ 20
[26] कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’, ‘मंगलमूर्ति श्री राहुल जी”, डा ब्रह्मानन्द सम्पा. पूर्वोक्त , पृ 42
[27] डा विश्वम्भर नाथ उपाध्याय , ‘बोधिसत्व राहुल सांकृत्यायन’ , डा ब्रह्मानन्द सम्पा. पूर्वोक्त , पृ 30
[28] डा कैलाश चन्द्र भाटिया, ‘भाषा अध्ययन के क्षेत्र में राहुलजी की देन’ , पूर्वोक्त , पृ 105
[29] राहुल सांकृत्यायन , हिन्दी काव्य धारा , किताब महल, इलाहाबाद, 1945, पृ 5 वे इस देशी भाषा को हिन्दी की ही आदि भाषा के रूप में स्वीकार नहीं करते बल्कि यह भी कहते हैं कि इस देशी भाषा पर मराठी, उडिया, बंगला, आसामी , गोरखा, पंजाबी, गुजराती भाषा का भी उतना ही अधिकार है जितना हिन्दी का है। (पूर्वोक्त , पृ 11-12) इसे वह 'सम्मिलित निधि' मानते हैं और कहते हैं कि बारहवीं -तेरहवीं शताब्दी तक द्राविड भाषा भाषी आंध्र , तमिल, केरल और कर्णाटक को छोड कर भारत के सभी प्रांतों की एक सम्मिलित भाषा थी। वे अपभ्रंश के कवियों को भुला देने को बहुत गलत मानते हैं और साधिकार कहते हैं कि सरहपाद (760) से ले कर राजशेखर सूरि (1300) के बीच के समय के कवियों को महत्त्व देते हैं। वे लिखते हैं -"अपभ्रंश के कवियों को विस्मरण करना हमारे लिए हानि की वस्तु है। यही कवि हिन्दी-काव्य -धारा के प्रथम स्रष्टा थे। वे अश्वघोष, भास, कालिदास और बाण की सिर्फ जूठी पत्तलें नहीं चाटते रहे, बल्कि ...हमारे काव्य-क्षेत्र में नया सृजन किया है; नये चमत्कार, नये भाव पैदा किये।" (हिन्दी काव्य धारा , पृ 12)
[30] अपने मित्र आनंद कौशल्यायन को 28 अक्टूबर 1946 को लेनिनग्राद से लिखे पत्र में जिन दो पुस्तकों के बारे में प्रतिक्रिया जानने में उनकी विशेष रुचि है वे हैं –काव्य-धारा और भागो नहीं दुनिया को बदलो (देखें गुणाकर मुले, ‘राहुल के पत्र आनंद के नाम’, उपरोक्त , पृ 164
[31] डा ओमप्रकाश शर्मा शास्त्री, ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी और राहुल सांकृत्यायन’, उपरोक्त , पृ 84
[32] कमला सांकृत्यायन, महामानव महापंडित , राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1997 [1995 प्रथम संस्करण], पृ 12-13
[33] शिवपूजन सहाय ,’वक्तव्य’, दोहा –कोश बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना , 1957, पृ 1-2
[34] इस संदर्भ में एक जोरदार टिप्पणी के लिए देखें नामवर सिंह , दूसरी परंपरा की खोज , राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1982, पृ 103।
[35] अपने मित्र आनंद कौशल्यायन को 28 अक्टूबर 1946 को लेनिनग्राद से लिखे पत्र में जिन दो पुस्तकों के बारे में प्रतिक्रिया जानने में उनकी विशेष रुचि है वे हैं – ‘काव्य-धारा’ और ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ (देखें गुणाकर मुले, ‘राहुल के पत्र आनंद के नाम’, उपरोक्त, पृ 164
[36] कोलकाता विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका रत्ना बनर्जी ने इस संबंध में जानकारी दी।
[37] राहुल सांकृत्यायन, आज की समस्याएँ , किताब महल , इलाहाबाद, 1945, पृ 1. यह पुस्तक तीन राहुल जी के तीन लेख और एक भाषण को लेकर पुस्तकाकार प्रकाशित हुई है। ये तीनों लेख प्रकाशित हुए थे और भाषण मध्य-भारतीय फासिस्ट-विरोधी लेखक के अध्यक्ष के हैसियत से (1944 में ) दिया गया था। जाति के चिन्ह के रूप में उन्होने भाषा के अतिरिक्त वेश, भोजन, गाने की रुचि (‘गाना और खाना’) और भौगोलिक स्थिति का ज़िक्र किया है।
[38] वही , पृ 2।
[39] वही , पृ 3।
[40] वही ।
[41] यह उद्धरण डा जयनाथ ‘नलिन’ के संस्मरण से लिया गया है। ‘नलिन’ जी ने राहुल जी से मसूरी में डेढ़ घंटा बातचीत की थी जिसमें यह प्रसंग आया था। देखें – डा जयनाथ ‘नलिन’, ‘राहुल जी का सहज व्यक्तित्व’, डा ब्रह्मानन्द, सम्पा. राहुल सांकृत्यायन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व , हरियाणा प्रकाशन, दिल्ली, 1971, पृ 19-20
[42] मेरी जीवन यात्रा भाग 3
[43] वही , पृ 21
[44] राहुल सांकृत्यायन , भागो नहीं दुनिया को बदलो , किताब महल, इलाहाबाद, 2016 [प्रथम संस्करण 1945], पृ॰ 242-243
[45] ‘पाकिस्तान या जातियों की समस्याएँ’, आज की समस्याएँ , पृ 4।
[46] पूर्वोक्त , पृ 21
[47] उपरोक्त, पृ 5
[48] इस प्रकार कुल मिलाकर 73 जतियों का उल्लेख राहुल ने किया है। देखें –पूर्वोक्त , पृ 27-28
[49] पूर्वोक्त , पृ 29
[50] पूर्वोक्त , पृ 33
[51] वही, पृ 34
[52] वही, पृ 35
[53] भीष्म साहनी , ‘राहुल जी : कुछ यादें’ नया ज्ञानोदय, सितम्बर , 2017, पृ 90 । (पुनर्प्रकाशित) यह प्रसंग 1935 के आसपास का है।
सम्पर्क
मोबाईल - 09230511567
बहुत सुंदर
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