बटरोही जी का आलेख ‘औरतें नहीं हो सकतीं हिंदी-रसोई की शेफ़’


बटरोही

 

लेखन ऐसा क्षेत्र है जिसमें हर किसी को अपने लेखन के जरिए ही साबित करना होता है यहाँ कोई भी जोड-तोड काम नहीं आताकोई लेखक अपने जीवन में जोड-तोड कर के ख्याति बटोर तो सकता है, लोकप्रिय नहीं हो सकताऐसे लोग समय बीतने के साथ ही बीत जाते हैं हिंदी लेखन में स्त्रियों ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर अपने को साबित किया है। इन स्त्री लेखिकाओं ने उस मिथक को तोडा है जो अभी तक हमारे समाज की मान्यता हुआ करती थी कि औरतें ही हिंदी-रसोई की शेफ़ हो सकतीं हैंशिवरानी देवी, शिवानी, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, मधु कांकरिया आदि अनेक ऐसे नाम हैं जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने उम्दा लेखन किया है। बटरोही जी हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित लेखक हैं। अपने एक आलेख में हिंदी की बड़ी लेखिकाओं शिवरानी देवी प्रेमचंद, शिवानी, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग और मधु कांकरिया के संपर्क को याद करते हुए उन्होंने महत्त्वपूर्ण बातें रखी हैं। आइए आज पहली बार पर पढते हैं बटरोही जी का आलेख औरतें नहीं हो सकतीं हिंदी-रसोई की शेफ़      

     

 

औरतें नहीं हो सकतीं हिंदी-रसोई की शेफ़

 

 (हिंदी की बड़ी लेखिकाओं शिवरानी देवी प्रेमचंद, शिवानी, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग और मधु कांकरिया के संपर्क को याद करते हुए)

 

 

बटरोही

 

 

ढलती उम्र में पुराने संकल्प बार-बार याद आते हैं और तब एक अजीब किस्म का अपराध-बोध तारी होने लगता है जरूरी नहीं कि पचहत्तर की उम्र में आदमी बूढ़ा हो ही जाता है, फिर भी यादों के सिलसिले को ले कर नौस्टेल्जिक होने की उम्र तो यह है ही मेरी तरह स्मृतियों का यह खुर्द-बुर्द और भी हम-उम्र लोगों के साथ होता होगा, जब एक लाचार स्वीकृति के अलावा आपके हाथ में कुछ नहीं होता आप ही बताइए, ऐसे में हम कर ही क्या सकते हैं?

उम्र की ढलती सांझ पर मेरी यह आप-बीती आपके पेशे-नज़र है

 

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शुरुआत करता हूँ आधुनिक हिंदी कथा-साहित्य की प्रथम महिला (फर्स्ट लेडी) श्रीमती शिवरानी देवी प्रेमचंद से

 

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अमृत राय जी ने राजकमल प्रकाशन से नई कहानियांके अधिकार खरीद लिए थे और इलाहाबाद के अशोक नगर स्थित उनके आवास धूप-छांहमें उसका कार्यालय बन गया था इलाहाबाद में उन दिनों, जब मेरे पास कोई आर्थिक आधार नहीं था, उन कठिन दिनों में अमृत जी ने मुझे अपना सहायक नियुक्त कर के मुझे सुरक्षा और ऊर्जा प्रदान की थी मैं एम. . करने के बाद कस्बाई शहर नैनीताल से नया-नया बाहर निकला था और हिंदी समाज के सबसे बड़े बौद्धिक केंद्र प्रयाग में शोध-कार्य के लिए पहुंचा था कोई आर्थिक सहारा नहीं, सिर्फ साहित्यकारों की नगरी में लेखकों के बीच रहने का आकर्षण था, जिसे मैं किसी भी हालत में खोना नहीं चाहता था मटियानी जी के साथ रहता था जो खुद भी आर्थिक दृष्टि से बेहद असुरक्षित थे चार बच्चे, दो मियां-बीबी और एक मैं, कुल सात लोग; सभी सिर्फ शैलेश जी पर आश्रित उनकी कोई स्थायी नौकरी नहीं थी, अलबत्ता उन दिनों वह एक बड़े प्रकाशक किताब महलके साथ एक अनुबंध के तहत जुड़े हुए थे प्रकाशक ने उन्हें एक कमरे में बैठ कर लिखने और कूलर, चाय-पानी की सारी सुविधाएँ दी हुई थीं वो दिन भर में जितना भी लिखते थे, शाम को ज्यों-का-त्यों कम्पोजिंग में चला जाता था और दूसरे दिन प्रूफ पढ़ते हुए ही वह उसमें कोई संशोधन करते थे उनका सारा लेखन ऐसे ही भागमभाग में संपन्न हुआ है इन्हीं किताबों की रॉयल्टी से उनका काम चलता था

 

मटियानी जी के स्नेह और वात्सल्य के बावजूद मेरे लिए उनके साथ लम्बे समय तक टिक पाना संभव नहीं था, रिसर्च और अध्ययन के लिए अलग कमरा चाहिए था; उन्होंने विकल्पनाम से एक पत्रिका भी शुरू कर ली थी जिसके कारण उन पर काम का दबाव और व्यस्तता बढ़ गई थी यह एक अलग कहानी है कि मैं किस तरह आर्थिक मदद के लिए अमृत जी के पास पहुंचा और उन्होंने मुझे सिर्फ इतना पैसा दिया कि मैं अलग कमरा ले कर रहने लगा और खाने-पीने, लिखने-पढ़ने का सुविधाजनक माहौल प्राप्त कर सका; बाद में उन्होंने ही बनारस के अपने पैतृक आवास (जहाँ उनके पिता प्रेमचंद जी ने हंसका प्रकाशन शुरू किया था) जा कर रहने और शोध कार्य करने के लिए सुविधा प्रदान की

मगर मैं यहाँ एक और सन्दर्भ में बात करना चाहता हूँ

 

अमृत राय जी की धूप-छांह कोठी उस वक़्त पूरे इलाहाबाद में मशहूर थी ईर्ष्यालु हिंदी लेखक-समाज उसके आवास के सुरुचिपूर्ण विन्यास और विशालता को ले कर तरह-तरह के किस्से सुनाता था, जिनमें सबसे रोचक यह था कि प्रेमचंद आज जीवित होते तो उनकी इस घर में घुसने की हिम्मत नहीं होती मैं अमृत जी के प्रति रवैये को लेकर हैरान रहता था, मगर हिंदी समाज हवा के रुख से संचालित होने वाला मानव-समूह है, जो अपने विवेक से नहीं, प्रभावशाली लोगों की प्रतिक्रियाओं से संचालित होता है मेरे लिए इस बात का कोई मतलब नहीं था क्योंकि उन्होंने मुझे आर्थिक आधार दिया था; फिर भी मैं रहता तो चौबीसों घंटे मध्यवर्गीय हिंदी लेखकों के खुसफुसाहट के बीच ही, इसलिए संत तो नहीं हो सकता था कब तक बकरी खैर मनाती!

 

नई कहानियांका सम्पादकीय कमरा धूप-छांहके अन्दर एक हॉल और उससे लगे दो-तीन कमरों से जुड़ा था अमृत जी तो अपनी स्टडी से ही सम्पादकीय काम-काज निबटाते थे, हॉल में कुछ अलमारियां और किताबों के रैक के अलावा दो-तीन लोगों के बैठने के लिए मेज-कुर्सियां लगी थीं, जिनमें मैं और कार्यालय से जुड़े बाबू बैठते थे हॉल के ठीक बगल में एक और बड़ा कमरा था, जो कमरा हो कर हॉल का ही विस्तार-जैसा था अमृत जी की स्टडी से आते-जाते यह कमरा बीच में पड़ता था कमरे में उनकी माँ रहती थीं, और यह कमरा भी एक आदमी के रहने लायक जगह से कहीं बड़ा था अन्दर के कमरों में उनका बेडरूम और दोनों बेटों के कमरे थे जो मैंने कभी देखे नहीं भीतर बगीचा और दालान था, जहाँ अनेक पालतू जानवर भी रहते थे महादेवी जी की तरह अमृत जी और उनकी पत्नी सुधा जी को भी अनेक पशु-पक्षी पालने का शौक था मैं नैनीताल के छोटे-से घर में पला था, जिसके लिए यह घर रहस्यलोक से कम नहीं था बीस-इक्कीस की उम्र थी, इसलिए उस माहौल को ले कर अधिक ही भावुक था

 

मेरे लिए उस घर की सबसे बड़ी उपलब्धि थीं शिवरानी देवी जी जिन्हें मैं भी मांजी कहता था, यद्यपि वो मेरी दादी की उम्र की थीं थी भी दादी ही, मेरे लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता था कि मैं खुद को आधुनिक हिंदी कथा-साहित्य के प्रथम पुरुष का पौत्र महसूस करूं एक ही घर में मुझे हिंदी साहित्य से जुड़े शीर्षस्थ लेखकों की विरासत मिली अमृत जी की पत्नी सुधा चौहान मिथक बन चुकी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की बेटी थीं इस रूप में अमृत राय, जिनकी शरण में मैं था, हिंदी कथा-सम्राट के पुत्र और खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थीकी अमर गायिका के दामाद थे स्कूली जीवन में मैं ऐसे माहौल में बड़ा हुआ था जहाँ प्रेमचंद को लोग उनके उपन्यास गोदानके नायक होरी की नियति के समानांतर देखते थे, जहाँ उनके लिए इस बात पर यकीन कर पाना (आज भी) कठिन है कि हिंदी के कथाकार के एक बेटे की विशाल कोठी हो सकती है और दूसरा चित्रकार बेटा भारत के अलावा विदेश में भी एक घर जोड़ सकता है

 

 

शिवरानी देवी


करीब पचपन साल बाद अपने उन दिनों को याद करता हूँ तो मुझे मांजी को देख कर अपने मन में बसाई गयी कुलदेवी नंदा की छवि एकदम अविश्वसनीय नहीं लगती जब कि मैं बचपन से ही मूर्ति पूजा का विरोधी रहा हूँ

 

घर की सबसे सयानी सदस्य होने के बावजूद शिवरानी जी परिवार के मामले में कोई दखल नहीं देती थीं; शायद उनकी उम्र ऐसी थी भी नहीं; मगर परिवार का संचालन सुधा जी के हाथों होते हुए और दिन भर अपने कमरे में रहते हुए भी पूरे घर में उनकी उपस्थिति महसूस की जा सकती थी रसोई में वह उपस्थित नहीं रहती थीं, इसके बावजूद वही मानो घर की शेफ़ थीं मुझे नहीं मालूम कि प्रेमचंद जी की रसोई का वह कैसे संचालन करती थीं, मगर प्रेमचंद जी और उनके दोनों बेटों श्रीपत राय और अमृत राय को उसका स्वाद तो मालूम होगा ही, जिसके चलते वो इतनी बड़ी हस्तियाँ बन सके थे प्रेमचंद का फटा जूता तो लोग खूब याद करते हैं मगर उनके घर की छटांक भर घी चुपड़ीरोटी के स्वाद को कोई याद नहीं करता जिसने उनके पति और बच्चों को भले ही सीमित उम्र की देह दी हो, विश्व साहित्य को भारतीय कथाकार के रूप में ऐसी देह दी जिसका लगातार विस्तार होता जा रहा है शिवरानी जी के उल्लेखनीय साहित्यिक योगदान के बारे में तो हिंदी समाज अनभिज्ञ है ही, हिंदी परिवार को जन्म देने और उसे पोषित करने में भी उनका जो अतुलनीय योगदान रहा है, कितने लोग उसके बारे में जानते हैं! क्या इसे हिंदी लेखक समाज की अहसान-फरामोशी नहीं कहा जायेगा?

 

उस घर में रहते हुए मेरे मन में भी अनेक जिज्ञासाएं पैदा हुई थीं, लेकिन विगत पचास सालों में मैं ही उन बातों को ले कर कितना सोच सका हूँ, मैं तो उसका रत्ती-भर कोना हूँ, इतना विशाल हिंदी समाज इस साहित्यिक परंपरा के विस्तार और विन्यास में अपना कितना योगदान दे सका है!

 

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शिवानी

 

मैं जब बी. . का छात्र था, नैनीताल की अयारपाटा पहाड़ी में एक स्वप्निल बंगला हुआ करता था, प्रायरी लॉज सीधी पहाड़ी पर खड़ी इस विशाल कॉटेज में नैनीताल के जिला विद्यालय निरीक्षक का कार्यालय था जिसकी छवि इलाके के एक ईमानदार और सख्त अफसर के कार्यालय के रूप में दूर-दूर तक फैली हुई थी डीआईओएस शुकदेव पन्त हिंदी की अनोखी शैली की कथा-लेखिका शिवानी के पति थे जो इसी घर में रहते थे जाहिर है कि उस बंगले की तरह उसमें रहने वाली दंपत्ति का भी हम पर जबरदस्त आतंक था बंगले तक पहुँचने के लिए एक लम्बी सीधी चढ़ाई पड़ती थी, जिस पर चढ़ कर जाना तो हमारे लिए समस्या नहीं थी, मगर उस उच्च-मध्यवर्गीय परिवार का हम निम्न-मध्यवार्गियों पर इतना आतंक रहता था कि उनसे बात करने की हिम्मत नहीं होती थी मजेदार बात यह थी कि शिवानी जी और उनके बच्चों का हमारी बुआ के घर में खूब आना-जाना था मेरी बुआ की ननद शिवानी जी का साथ देने के लिए शान्तिनिकेतन में रही थीं और वे दोनों खुद को गहरी सहेली मानती थी शिवानी ने अपना लेखन इसी घर में रह कर करीब चालीस साल की उम्र में शुरू किया उसी घर में रहते हुए उनकी पहली उल्लेखनीय कहानी लाटी’ ‘धर्मयुगमें प्रकाशित हुई थी और छपते ही वह हिंदी पाठकों के बीच इतनी लोकप्रिय हो गयी कि हिंदी में लोकप्रिय बनाम साहित्यिक लेखन की ऐसी बहस खड़ी हो गयी कि अंग्रेजी-आतंकित हिंदी के पाठक को उन्हें निगलते बना, थूकते उन्हें तो गुलशन नंदा या कुशवाहा कान्त की तरह सस्ते लेखकों की लाईन में खड़ा किया जा सकता था, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा की तरह की आभिजात लेखकों के साथ और रेणु, शैलेश मटियानी जैसे आंचलिक कथाकारों के साथ आज भी वह वहीँ पर खड़ी हैं जहाँ पचास साल पहले थीं. आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद के शिष्ट हिंदी लेखन में सबसे अधिक बिकने वाली रचनाकार वही हैं. आज तक भी आजादी के बाद का कोई भी हिंदी उपन्यासकार और इतर-गद्य लेखक लोकप्रियता में उनका मुकाबला कर सका है

 

 

मैंने उन्हें ले कर जितना समझ में सका है, लिखा, भक्त के रूप में नहीं, एक जिज्ञासु पाठक के रूप में, मगर जैसा कि मैंने शुरू में कहा, हिंदी में चर्चा हवा के रुख को देख कर होती रही है; दिग्गजों के द्वारा जो हवा बना दी जाती है, मजाल कि कोई उसमें दखल देने की हिम्मत कर सके ऐसा नहीं है कि लेखकों के बीच साहसी लोग नहीं हैं, मगर हर लेखक डरता है कि दुस्साहसिक कदम उठाते ही उसे भी तिरस्कार के अंधे कुँए में धकेल दिया जाए मैं खुद भी अपनी किशोर उम्र में हिंदी साहित्यकारों की हवा के कारण उन्हें घरेलू समस्याओं को उजागर करने वाली लेखिका मानता था (हालाँकि आज तक नहीं समझ पाया कि इसमें गलत कहाँ था) मगर किसी एक लेखक के इशारा करने से क्या फर्क पड़ता है? हमारे यहाँ छवि बनने और खंडित करने का काम तो सिर्फ दिग्गज करते हैं क़स्बे में रहने वाले अपढ़ किशोर की भला क्या बिसात

 

 

तीस साल पुराना एक वाकया बताता हूँ उनकी कहानियों पर कुछ फ़िल्में बनी थीं जो बेहद घटिया थीं मेरे मन में इन बातों को ले कर सवाल थे, जिन्हें ले कर मैंने कुछ पत्रिकाओं में लिखा भी यही बात मैंने अपने एक परिचित से कही और वो इस बात से सहमत हुए कि उनके उपन्यासों और कहानियों पर नए सिरे से काम किया जाये मैंने मित्र के आग्रह पर शिवानी जी को सहमति देने के लिए लिखा तो वो तुरंत राजी हो गईं, हालाँकि उन्होंने इस सन्दर्भ में अपने कटु अनुभवों का जिक्र किया खास बात यह कि अपने पत्र में उन्होंने कोई बड़बोला दावा नहीं किया; साहित्यिक उठा-पटक की बात भी नहीं की इसके बदले उन्होंने मेरी और अपनी पारिवारिक समस्याओं का अधिक जिक्र किया पत्र इस प्रकार है:

 

66, गुलिस्तां कॉलोनी, लखनऊ/ 8 अगस्त, 1989

प्रिय चि. बटरोही,

सस्नेह शुभाशीष,


मैं गत चार माह से अस्वस्थ हूँ अभी बम्बई से लौटने पर आपका पत्र मिला

 

ये टेलीविजन निर्माता कौन सज्जन हैं? कृपया लिखें कोई नए हैं या अनुभवी? मैं इसलिए पूछ रही हूँ कि मैं इतिपूर्व कई बार बेवकूफ बन चुकी हूँ – ‘कशमकशसे ले कर फिल्म निर्माता ने तक मेरी कहानियों की दुर्गति बनाई अब सावधान हो गई हूँ तुम यदि सोचते हो कि उक्त निर्माता विश्वसनीय हैं तो मुझे आपत्ति नहीं होगी किन्तु इतना ही ध्यान रखना, कोई ऐसा व्यक्ति अवश्य हो जो कुमाऊनी संस्कृति को समझता-बूझता हो लाटीका चयन सही है

 

एक काम और कर देना मुन्ना को दो पत्र लिखे, उसने एक का भी उत्तर नहीं दिया मुझे उसके स्वास्थ्य की चिंता हो रही है उसका, भौजी (मेरी बुआ) के घर का ठीक पता कुशल मुझे एक कार्ड में तब भी डाल देना

 

सस्नेह, शिवानी

 

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मन्नू भंडारी

 

मन्नू भंडारी जी का यह पत्र 8-3-1994 का है, जब वह उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की निदेशक थीं विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के कुछ प्राध्यापकों के साथ मिल कर मैंने हिन्दी की सम्पूर्ण कहानियों का दो खण्डों में (अंग्रेजी में) माइलस्टोन्सनाम से सम्पादित किया जिसमें कहानीकारों के चयन को ले कर मैंने दूसरे अनेक लोगों के अलावा उनसे भी राय मांगी थी अच्छा लगा कि उन्होंने विस्तार से अपनी प्रतिक्रिया दी पत्र ये है :

 

प्रिय बटरोही,

अभी-अभी तुम्हारा पत्र मिला और कहानियों की सूची भी इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम कैसी भी सूची बनाओगे उसमें हर किसी को कोई--कोई कमी तो नज़र आएगी ही मुझे भी तीन नामों की कमी बहुत अखर रही है- कृष्णा सोबती, ज्ञानरंजन और नए कहानीकारों में शिवमूर्ति कृष्णा जी की सिक्का बदल गयाया बादलों के घेरेजैसी खूबसूरत कहानियों को तुमने कैसे छोड़ दिया? इनका हिंदी कहानी साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है इसी प्रकार ज्ञानरंजन को तुम नहीं काट सकते सन साठ के बाद उभरने वाली पीढ़ी से यों हमें चाहे जितनी शिकायत हो, पर ज्ञानरंजन ने भाषा, शैली, शिल्प सभी दृष्टियों से अपनी एक अलग ही पहचान बनाई थी और कम लिख कर भी इस विधा में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है इधर नए नामों में तुमने शिवमूर्ति को छोड़ कर भी ठीक नहीं किया कहानी के चुनाव की तुमने अपनी जो कसौटी रखी है, उस पर भी ये नाम पूरे उतरते हैं ये नाम ऐसे हैं कि तुम चाहे अपनी सूची में से इन्हें निकाल दो कहानी के इतिहास में से इन्हें कोई नहीं निकाल सकता

 

 

त्रिशंकुकहानी से मैं पूरी तरह सहमत हूँ तुम इसी को अपने संकलन में लो अनुवाद तुम्हीं करवाओ तो ठीक रहेगा पर इतना ध्यान रखना कि अनुवाद अच्छा हो

 

शुभकामनाओं सहित, सस्नेह,

मन्नू भंडारी

 

 

या तो मेरे लिखने में कोई चूक हो गई थी या मन्नू जी ने ठीक से समझा नहीं, संकलन के दूसरे खंड का आरम्भ ही मैंने ज्ञानरंजन की कहानी रचना प्रक्रियासे किया गया है, क्योंकि मेरा मानना रहा है कि यह कहानी आजादी के बाद करवट ले चुके भारतीय समाज की पहली कलात्मक अभिव्यक्ति है अलबत्ता कृष्णा जी और शिवमूर्ति उसमें नहीं है इतनी स्वायतता तो संपादक के पास होनी ही चाहिए हाँ, आज मैं संकलन का संपादन करता तो निश्चय ही मेरी सूची अलग होती इसमें मृदुला गर्ग, मृणाल पांडे, उदय प्रकाश और पंकज बिष्ट जैसे मेरी नज़र में उल्लेखनीय कथाकार मौजूद हैं तो कई ऐसे लेखक छूट भी गए हैं, जो उस दौर के बाद उभरे, या शायद उस वक़्त उन पर मेरा ध्यान नहीं अटक पाया कहने का मतलब यह है कि हिदी क्षेत्र इतना विशाल और विविधता भरा है कि उसे एक स्वर में बांध पाना मुश्किल है शायद यही उसकी सीमा भी है और ताकत भी फिर, हिदी को उन महंतों के एकछत्र साम्राज्य से कैसे मुक्त कर सकेंगे जो नमक तो हिंदी का खाते हैं, ऑक्सीजन अंग्रेजी से लेते है

 

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1987 के आसपास डॉ. धर्मवीर भारती ने मुझसे धर्मयुगके लिए उस वक़्त सर्वाधिक चर्चित हो रहे दो उपन्यासों एक चिथड़ा सुखऔर चितकोबरापर विस्तार से समीक्षा लिखने के लिए कहा हिंदी लेखकों के बीच मैं कोई चर्चित नाम था भी नहीं, मगर भारती जी भरोसा रखते थे और समय-समय पर लिखवाते रहते थे मेरी समीक्षा का शीर्षक था अनुभूति से अनुभव तक की अधूरी यात्रा समीक्षा का मुख्य प्रस्थान यही था कि जिस परिवेश के अनुभव को उपन्यासों में केन्द्रीय समस्या के रूप में उठाया गया है, दोनों ही उपन्यास आकर्षक शिल्प और प्रभावशाली भाषा के बावजूद अपने समाज का स्वर नहीं बन पाते समाज और अभिव्यक्ति एक दूसरे की ओर मुँह फेरे दिखाई देते हैं मगर हिंदी लेखकों के बीच इन दोनों लेखकों का इतना जबरदस्त आतंक रहा है कि मै कई दिनों तक खुद को अन्यमनस्क महसूस करता रहा राजेन्द्र यादव को छोड़ कर अधिकांश बड़े लेखकों ने मुझे संदेह की नजर से देखना शुरू कर दिया मानो में साहित्य की नयी धारा के बारे में कतई अनभिज्ञ हूँ मैंने दोनों लोगों के साहित्य को दुबारा पढ़ा, मृदुला जी से तो सारी कहानियां मंगवाईं और उन्होंने कृपापूर्वक भेजी भी, मगर दुबारा लिखना टलता गया शायद हिम्मत ही नहीं हुई

 

 

हिंदी के लेखकों में एक दुचित्तापन हमेशा से देखने को मिलता रहा है, क्योंकि जिस समाज के बीच वह रहता है, उसकी अपेक्षाओं और बौद्धिक अपेक्षाओं के बीच जमीन-आसमान का अंतर रहा है, उसी तरह का, जिसका जिक्र मैंने नमक और ऑक्सीजन का रूपक दे कर इसी लेख में अन्यत्र किया है मृदुला जी की कविता बरबर राव होनाऔर चितकोबराके दौर में हिप्पी और बीटनिक की ओर के रुझान से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है तमाम आकाशचारी चर्चाओं के बावजूद तो हिप्पी साठ के दशक में नए उभर रहे बोहेमियन मध्यवर्गीय हिंदी युवाओं की धड़कन बन सके और आज के मध्यवर्गीय हिंदी समाज का युवा वर्ग बरबर राव की तरह दो-टूक निर्भीक समझ वाला है और अपने समाज की अपेक्षाओं से उस गहराई से अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ यही बात बौद्धिकों के बारे में भी कही जा सकती है नारे लगा कर वाहवाही बटोरना और बात है; इस मामले में हिंदी का लेखक क्या खाकर हमारे राजनीतिक दलों से मुकाबला करेगा! (साठ के दशक के कथाकारों की केन्द्रीय संवेदना के रूप में मैंने इसीलिए ज्ञानरंजन को प्रतिनिधि माना था, हालाँकि मृदुला गर्ग को छोड़ा नहीं जा सकता था वो वहां मौजूद हैं क्योंकि वह नए उभर रहे अंग्रेजीदां हिंदी समाज की अभिव्यक्ति हैं, आज भी)

 

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मधु कांकरिया

 

इस सदी के आरम्भ में मधु कांकरिया का एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था, ‘सलाम आखिरी उपन्यास की खूब चर्चा हुई, खासकर इसलिए कि हाशिए में धकेल दिए गए हिंदी की मुख्यधारा के समाज की केन्द्रीय संवेदना को उस समाज के बीच घुस कर लेखिका ने पहली बार भारतीय पाठकों के बीच रक्खा वैश्यावृत्ति के नरक में धकेल दी गयी किशोर लड़कियों की नियति को हिंदी में पहली बार किसी नारे या शुद्धतावादी नजरिये से नहीं, मानवीय नजरिये से प्रस्तुत किया गया; हिंदी समाज के सामने पेश किया गया एक विचित्र आईना था, जिस पर कोई भी प्रतिक्रिया दे पाना उसके ही समाज के लिए संभव नहीं था उसके आसपास से ही साहित्य और कलाओं के दूसरे क्षेत्रों में इस पक्ष की खूब बातें होती रही हैं, ‘मी टूजैसे दूसरे हाशियों की भी, मगर कला की वह वस्तुनिष्ठ एप्रोच बहुत कम देखने को मिलती है जिसे सलाम आखिरीमें मधु कांकरिया ने चीन्हा इस बीच अंग्रेजीदां मुंहफट समाज के एक-से-एक आकर्षक कोने उभरे हैं, चौंकाने वाली अभिव्यक्तियाँ भी सामने आई हैं, मगर वे चरित्र तो आम हिंदी समाज के अपने स्वर से जुड़ पाते दिखाई देते और उस वर्ग की अभिव्यक्ति बन पाए जहाँ से वो अंकुरित हुए हैं

 

 

और यह मधु कांकरिया का पहला प्रस्थान नहीं था, वो लगातार उस संवेदना का उसी प्रभाव और संवेदनशीलता के साथ विस्तार करती रहीं अपने दूसरे उपन्यास सेज पर संस्कृतमें उस ब्राह्मणवादी तंत्र के अंतर्विरोधों का उन्होंने जो बेहद नाजुक और प्रमाणिक चित्र प्रस्तुत किया है, वह स्वर उस रूप में हिंदी में कहीं भी मौजूद नहीं है, बावजूद तमाम लाउड अभिव्यक्तियों के लेखिका ने जिस तल्लीनता और सहजता के साथ अपने चरित्रों का गठन किया है, वह भी हिंदी में कम ही दिखाई देता है उनका फोकस हिंदी समाज के आम चेहरों पर है जिन्हें अमूमन हिकारत की नजर से देखा जाता रहा है बेहद पठनीय ये उपन्यास अपनी भाषा नए सिरे से रचती हैं

 

 

सबसे बड़ी बात यह है कि उनका यह तेवर उनके अगले उपन्यासों – ‘सूखते चिनारऔर हम यहाँ थेमें उसी तल्लीनता से विकसित हुआ है दोनों में ही, खासकर हम यहाँ थेमें वह महानगर और आदिवासी समाज के अंतर्संबंधों, विडम्बनाओं और अंतर्विरोधों का जो चित्र खींचती हैं, उसे देखते हुए बिना किसी झिझक के कहा जा सकता है कि यह नए उगते भारत की महागाथा है जो शायद इस रूप में पहली बार उदघाटित हुई है

 

 

शायद सन दो हजार में प्रकाशित सलाम आखिरीको मैंने 2010 के आसपास पढ़ा और उस पर लिखा था और उसके बाद उनकी लगभग हर रचना के बीच से गुजरा हूँ लगातार मैं उन पर लिखना चाहता था मगर जैसा कि हिंदी में होता है, इस तरह फौरी ढंग से चर्चा होती थी कि मानो एक और अच्छी किताब सामने गयी है, बस गिनती करने की जो अध्यापकीय परम्परा का हिंदी में चलन है उसे देखते हुए कभी उन पर विस्तार से लिखने का दबाव बन ही नहीं पाया उनके साहित्य का मूल्यांकन करने के लिए वो बड़े-बड़े विदेशी नाम मेरे पास नहीं थे, वैसा अध्ययन, जो हिंदी के चर्चाकारों के लिए कलात्मकता की अनिवार्य शर्त बनती जा रही है कुछ चर्चाकार तो खांटी भारतीय संवेदना के लेखकों को अपनी शुद्धतावादी ज़बान पर लाना भी नहीं चाहते, मानो वह इससे अशुद्ध हो जाएगी

 

 

वह जमाना गया जब घर की रसोई औरत के हाथ में होती थी; रसोइयाँ तो आज भी हैं ही, उनके बिना काम भी कहाँ चल पाता है; बस आज रसोइये का नाम बदल कर अब शेफ़हो गया है आजकल शेफ़ ज्यादातर मर्द दिखाई देते हैं ऐसे में औरतों के वर्चस्व को चुनौती देने का यह शालीन तरीका भी है वर्चस्व क्यों रहे? पुरुष शेफ़ ज्यादा स्मार्ट और दिलकश भी होते हैं औरत की पुरानी छवि बदलनी भी चाहिए ही

 

 

मुझे हमेशा लगा है कि मधु कांकरिया हमारे दौर की उन गिनी-चुनी कथाकारों में से एक हैं जिनमें भविष्य का हिन्दोस्तान झांकता है उसे पकड़ने की संवेदनशील आँख की दरकार है


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